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Kahani Suno

U/A 13+ • Fiction

Welcome to the great world of greatest stories.Narrated by Sameer Goswami

  • प्रेमचंद की लिखी कहानी जुर्माना का वाचन, Narration of Premchand story Jurmana.
    8 min 29 sec

    प्रेमचंद की लिखी कहानी जुर्माना का वाचन, Narration of Premchand story Jurmana.

  • "शांति 1" - मुंशी प्रेमचंद की लिखी कहानी "Shanti 1" - A Story written by Munshi Premchand
    34 min 50 sec

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  • "मनोवृत्ति" - मुंशी प्रेमचंद की लिखी कहानी "Manovritti" - A Story written by Munshi Premchand
    13 min 3 sec

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  • "डिक्री के रुपये" - मुंशी प्रेमचंद की लिखी कहानी "Decree Ke Rupaye" - A Story written by Munshi Premchand
    31 min 31 sec

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  • ज्योति - मुंशी प्रेमचंद की लिखी कहानी | Jyoti - A Story written by Munshi Premchand
    23 min 58 sec

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  • "उन्माद" - मुंशी प्रेमचंद की लिखी कहानी "Unmaad" - A Story written by Munshi Premchand
    44 min 44 sec

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  • "दूध का दाम" - मुंशी प्रेमचंद की लिखी कहानी "Doodh Ka Daam" - A Story written by Munshi Premchand
    21 min 5 sec

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  • Vayam Rakshamah - Part 13 - Daanav Makraaksh | वयं रक्षाम: - भाग 13 - दानव मकराक्ष | A Novel by Acharya Chatursen Shastri | आचार्य चतुरसेन शास्त्री का लिखा उपन्यास
    12 min 40 sec

    वयं रक्षाम: में प्राग्वेदकालीन जातियों के सम्बन्ध में सर्वथा अकल्पित अतर्कित नई स्थापनाएं हैं , मुक्त सहवास है, विवसन विचरण है, हरण और पलायन ह। शिश्नदेव की उपासना है, वैदिक अवैदिक अश्रुत मिश्रण है। नर मांस की खुले बाजार में बिक्री है, नृत्य है, मद है, उन्मुख अनावृत यौवन है ।इस उपन्यास में प्राग्वेदकालीन नर, नाग, देव, दैत्यदानव, आर्यअनार्य आदि विविध नृवंशों के जीवन के वे विस्तृतपुरातन रेखाचित्र हैं, जिन्हें धर्म के रंगीन शीशे में देख कर सारे संसार ने अंतरिक्ष का देवता मान लिया था। मैं इस उपन्यास में उन्हें नर रूप में आपके समक्ष उपस्थित करने का साहस कर रहा हूँ। आज तक कभी मनुष्य की वाणी से न सुनी गई बातें, मैं आपको सुनाने पर आमादा हूँ।....उपन्यास में मेरे अपने जीवनभर के अध्ययन का सार है।...आचार्य चतुरसेनउपन्यास वयं रक्षाम: Novel Vayam Rakshamahलेखक आचार्य चतुरसेन शास्त्री Writer Acharya Chatursen Shastriस्वर समीर गोस्वामी Narration Sameer Goswamihttps://kahanisuno.com/http://instagram.com/sameergoswamikahanisunohttps://www.facebook.com/kahanisuno/http://twitter.com/goswamisameer/https://sameergoswami.com

  • Vayam Rakshamah - Part 7 - Aaditya | वयं रक्षाम: - भाग 7 - आदित्य | A Novel by Acharya Chatursen Shastri | आचार्य चतुरसेन शास्त्री का लिखा उपन्यास
    12 min 35 sec

    वयं रक्षाम: में प्राग्वेदकालीन जातियों के सम्बन्ध में सर्वथा अकल्पित अतर्कित नई स्थापनाएं हैं , मुक्त सहवास है, विवसन विचरण है, हरण और पलायन ह। शिश्नदेव की उपासना है, वैदिक अवैदिक अश्रुत मिश्रण है। नर मांस की खुले बाजार में बिक्री है, नृत्य है, मद है, उन्मुख अनावृत यौवन है ।इस उपन्यास में प्राग्वेदकालीन नर, नाग, देव, दैत्यदानव, आर्यअनार्य आदि विविध नृवंशों के जीवन के वे विस्तृतपुरातन रेखाचित्र हैं, जिन्हें धर्म के रंगीन शीशे में देख कर सारे संसार ने अंतरिक्ष का देवता मान लिया था। मैं इस उपन्यास में उन्हें नर रूप में आपके समक्ष उपस्थित करने का साहस कर रहा हूँ। आज तक कभी मनुष्य की वाणी से न सुनी गई बातें, मैं आपको सुनाने पर आमादा हूँ।....उपन्यास में मेरे अपने जीवनभर के अध्ययन का सार है।...आचार्य चतुरसेनउपन्यास वयं रक्षाम: Novel Vayam Rakshamahलेखक आचार्य चतुरसेन शास्त्री Writer Acharya Chatursen Shastriस्वर समीर गोस्वामी Narration Sameer Goswamihttps://kahanisuno.com/http://instagram.com/sameergoswamikahanisunohttps://www.facebook.com/kahanisuno/http://twitter.com/goswamisameer/https://sameergoswami.com

  • Vayam Rakshamah - Part 6 - Varun Brahma | वयं रक्षाम: - भाग 6 - वरुण ब्रह्मा | A Novel by Acharya Chatursen Shastri | आचार्य चतुरसेन शास्त्री का लिखा उपन्यास
    9 min 2 sec

    वयं रक्षाम: में प्राग्वेदकालीन जातियों के सम्बन्ध में सर्वथा अकल्पित अतर्कित नई स्थापनाएं हैं , मुक्त सहवास है, विवसन विचरण है, हरण और पलायन ह। शिश्नदेव की उपासना है, वैदिक अवैदिक अश्रुत मिश्रण है। नर मांस की खुले बाजार में बिक्री है, नृत्य है, मद है, उन्मुख अनावृत यौवन है ।इस उपन्यास में प्राग्वेदकालीन नर, नाग, देव, दैत्यदानव, आर्यअनार्य आदि विविध नृवंशों के जीवन के वे विस्तृतपुरातन रेखाचित्र हैं, जिन्हें धर्म के रंगीन शीशे में देख कर सारे संसार ने अंतरिक्ष का देवता मान लिया था। मैं इस उपन्यास में उन्हें नर रूप में आपके समक्ष उपस्थित करने का साहस कर रहा हूँ। आज तक कभी मनुष्य की वाणी से न सुनी गई बातें, मैं आपको सुनाने पर आमादा हूँ।....उपन्यास में मेरे अपने जीवनभर के अध्ययन का सार है।...आचार्य चतुरसेनउपन्यास वयं रक्षाम: Novel Vayam Rakshamahलेखक आचार्य चतुरसेन शास्त्री Writer Acharya Chatursen Shastriस्वर समीर गोस्वामी Narration Sameer Goswamihttps://kahanisuno.com/http://instagram.com/sameergoswamikahanisunohttps://www.facebook.com/kahanisuno/http://twitter.com/goswamisameer/https://sameergoswami.com

  • Vayam Rakshamah - Part 3 - Ab Se Saat Sahastrabdi Poorva | वयं रक्षाम: - भाग 3 - अब से सात सहस्राब्दी पूर्व | A Novel by Acharya Chatursen Shastri | आचार्य चतुरसेन शास्त्री का लिखा उपन्यास
    18 min 34 sec

    वयं रक्षाम: में प्राग्वेदकालीन जातियों के सम्बन्ध में सर्वथा अकल्पित अतर्कित नई स्थापनाएं हैं , मुक्त सहवास है, विवसन विचरण है, हरण और पलायन ह। शिश्नदेव की उपासना है, वैदिक अवैदिक अश्रुत मिश्रण है। नर मांस की खुले बाजार में बिक्री है, नृत्य है, मद है, उन्मुख अनावृत यौवन है ।इस उपन्यास में प्राग्वेदकालीन नर, नाग, देव, दैत्यदानव, आर्यअनार्य आदि विविध नृवंशों के जीवन के वे विस्तृतपुरातन रेखाचित्र हैं, जिन्हें धर्म के रंगीन शीशे में देख कर सारे संसार ने अंतरिक्ष का देवता मान लिया था। मैं इस उपन्यास में उन्हें नर रूप में आपके समक्ष उपस्थित करने का साहस कर रहा हूँ। आज तक कभी मनुष्य की वाणी से न सुनी गई बातें, मैं आपको सुनाने पर आमादा हूँ।....उपन्यास में मेरे अपने जीवनभर के अध्ययन का सार है।...आचार्य चतुरसेनउपन्यास वयं रक्षाम: Novel Vayam Rakshamahलेखक आचार्य चतुरसेन शास्त्री Writer Acharya Chatursen Shastriस्वर समीर गोस्वामी Narration Sameer Goswamihttps://kahanisuno.com/http://instagram.com/sameergoswamikahanisunohttps://www.facebook.com/kahanisuno/http://twitter.com/goswamisameer/https://sameergoswami.com

  • Vayam Rakshamah - Part 2 - Na Tu Pratham Hai, Na Antim | वयं रक्षाम: - भाग 2 - न तू प्रथम है, न अन्तिम | A Novel by Acharya Chatursen Shastri | आचार्य चतुरसेन शास्त्री का लिखा उपन्यास
    13 min 35 sec

    वयं रक्षाम: में प्राग्वेदकालीन जातियों के सम्बन्ध में सर्वथा अकल्पित अतर्कित नई स्थापनाएं हैं , मुक्त सहवास है, विवसन विचरण है, हरण और पलायन ह। शिश्नदेव की उपासना है, वैदिक अवैदिक अश्रुत मिश्रण है। नर मांस की खुले बाजार में बिक्री है, नृत्य है, मद है, उन्मुख अनावृत यौवन है ।इस उपन्यास में प्राग्वेदकालीन नर, नाग, देव, दैत्यदानव, आर्यअनार्य आदि विविध नृवंशों के जीवन के वे विस्तृतपुरातन रेखाचित्र हैं, जिन्हें धर्म के रंगीन शीशे में देख कर सारे संसार ने अंतरिक्ष का देवता मान लिया था। मैं इस उपन्यास में उन्हें नर रूप में आपके समक्ष उपस्थित करने का साहस कर रहा हूँ। आज तक कभी मनुष्य की वाणी से न सुनी गई बातें, मैं आपको सुनाने पर आमादा हूँ।....उपन्यास में मेरे अपने जीवनभर के अध्ययन का सार है।...आचार्य चतुरसेनउपन्यास वयं रक्षाम: Novel Vayam Rakshamahलेखक आचार्य चतुरसेन शास्त्री Writer Acharya Chatursen Shastriस्वर समीर गोस्वामी Narration Sameer Goswamihttps://kahanisuno.com/http://instagram.com/sameergoswamikahanisunohttps://www.facebook.com/kahanisuno/http://twitter.com/goswamisameer/https://sameergoswami.com

  • Vayam Rakshamah - Part 1 - Til Tandul | वयं रक्षाम: - भाग 1 - तिल तंदुल | A Novel by Acharya Chatursen Shastri | आचार्य चतुरसेन शास्त्री का लिखा उपन्यास
    8 min 31 sec

    वयं रक्षाम: में प्राग्वेदकालीन जातियों के सम्बन्ध में सर्वथा अकल्पित अतर्कित नई स्थापनाएं हैं , मुक्त सहवास है, विवसन विचरण है, हरण और पलायन ह। शिश्नदेव की उपासना है, वैदिक अवैदिक अश्रुत मिश्रण है। नर मांस की खुले बाजार में बिक्री है, नृत्य है, मद है, उन्मुख अनावृत यौवन है ।इस उपन्यास में प्राग्वेदकालीन नर, नाग, देव, दैत्यदानव, आर्यअनार्य आदि विविध नृवंशों के जीवन के वे विस्तृतपुरातन रेखाचित्र हैं, जिन्हें धर्म के रंगीन शीशे में देख कर सारे संसार ने अंतरिक्ष का देवता मान लिया था। मैं इस उपन्यास में उन्हें नर रूप में आपके समक्ष उपस्थित करने का साहस कर रहा हूँ। आज तक कभी मनुष्य की वाणी से न सुनी गई बातें, मैं आपको सुनाने पर आमादा हूँ।....उपन्यास में मेरे अपने जीवनभर के अध्ययन का सार है।...आचार्य चतुरसेनउपन्यास वयं रक्षाम: Novel Vayam Rakshamahलेखक आचार्य चतुरसेन शास्त्री Writer Acharya Chatursen Shastriस्वर समीर गोस्वामी Narration Sameer Goswamihttps://kahanisuno.com/http://instagram.com/sameergoswamikahanisunohttps://www.facebook.com/kahanisuno/http://twitter.com/goswamisameer/https://sameergoswami.com

  • Maila Aanchal | Part - 67 | A Novel by Phanishwar Nath 'Renu' | मैला आँचल | फणीश्वर नाथ 'रेणु' का लिखा उपन्यास
    17 min 10 sec

    मैला आँचल फणीश्वर नाथ रेणु का प्रतिनिधि उपन्यास है। यह हिन्दी का श्रेष्ठ और सशक्त आंचलिक उपन्यास है। नेपाल की सीमा से सटे उत्तरपूर्वी बिहार के एक पिछड़े ग्रामीण अंचल को पृष्ठभूमि बनाकर रेणु ने इसमें वहाँ के जीवन का, जिससे वह स्वयं ही घनिष्ठ रूप से जुड़े हुए थे, अत्यन्त जीवन्त और मुखर चित्रण किया है।सन् १९५४ में प्रकाशित इस उपन्यास की कथा वस्तु बिहार राज्य के पूर्णिया जिले के मेरीगंज की ग्रामीण जिंदगी से संबद्ध है। यह स्वतंत्र होते और उसके तुरन्त बाद के भारत के राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक परिदृश्य का ग्रामीण संस्करण है। रेणु के अनुसार इसमें फूल भी है, शूल भी है, धूल भी है, गुलाब भी है और कीचड़ भी है। मैं किसी से दामन बचाकर निकल नहीं पाया। इसमें ग़रीबी, रोग, भुखमरी, जहालत, धर्म की आड़ में हो रहे व्यभिचार, शोषण, आडंबरों, अंधविश्वासों आदि का चित्रण है। शिल्प की दृष्टि से इसमें फिल्म की तरह घटनाएं एक के बाद एक घटकर विलीन हो जाती है। और दूसरी प्रारंभ हो जाती है। इसमें घटना प्रधानता है किंतु कोई केन्द्रीय चरित्र या कथा नहीं है। इसमें नाटकीयता और किस्सा गोई शैली का प्रयोग किया गया है। इसे हिन्दी में आँचलिक उपन्यासों के प्रवर्तन का श्रेय भी प्राप्त है।कथा शिल्पी फणीश्वर नाथ रेणु की इस युगान्तकारी औपन्यासिक कृति में कथा शिल्प के साथसाथ भाषा शिल्प और शैली शिल्प का विलक्षण सामंजस्य है जो जितना सहजस्वाभाविक है, उतना ही प्रभावकारी और मोहक भी।उपन्यास मैला आँचल Novel Maila Aanchalलेखक फणीश्वर नाथ रेणु Writer Phanishwar Nath Renuस्वर समीर गोस्वामी Narration Sameer Goswamihttps://kahanisuno.com/http://instagram.com/sameergoswamikahanisunohttps://www.facebook.com/kahanisuno/http://twitter.com/goswamisameer/https://sameergoswami.com

  • Maila Aanchal | Part - 65 | A Novel by Phanishwar Nath 'Renu' | मैला आँचल | फणीश्वर नाथ 'रेणु' का लिखा उपन्यास
    12 min 21 sec

    मैला आँचल फणीश्वर नाथ रेणु का प्रतिनिधि उपन्यास है। यह हिन्दी का श्रेष्ठ और सशक्त आंचलिक उपन्यास है। नेपाल की सीमा से सटे उत्तरपूर्वी बिहार के एक पिछड़े ग्रामीण अंचल को पृष्ठभूमि बनाकर रेणु ने इसमें वहाँ के जीवन का, जिससे वह स्वयं ही घनिष्ठ रूप से जुड़े हुए थे, अत्यन्त जीवन्त और मुखर चित्रण किया है।सन् १९५४ में प्रकाशित इस उपन्यास की कथा वस्तु बिहार राज्य के पूर्णिया जिले के मेरीगंज की ग्रामीण जिंदगी से संबद्ध है। यह स्वतंत्र होते और उसके तुरन्त बाद के भारत के राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक परिदृश्य का ग्रामीण संस्करण है। रेणु के अनुसार इसमें फूल भी है, शूल भी है, धूल भी है, गुलाब भी है और कीचड़ भी है। मैं किसी से दामन बचाकर निकल नहीं पाया। इसमें ग़रीबी, रोग, भुखमरी, जहालत, धर्म की आड़ में हो रहे व्यभिचार, शोषण, आडंबरों, अंधविश्वासों आदि का चित्रण है। शिल्प की दृष्टि से इसमें फिल्म की तरह घटनाएं एक के बाद एक घटकर विलीन हो जाती है। और दूसरी प्रारंभ हो जाती है। इसमें घटना प्रधानता है किंतु कोई केन्द्रीय चरित्र या कथा नहीं है। इसमें नाटकीयता और किस्सा गोई शैली का प्रयोग किया गया है। इसे हिन्दी में आँचलिक उपन्यासों के प्रवर्तन का श्रेय भी प्राप्त है।कथा शिल्पी फणीश्वर नाथ रेणु की इस युगान्तकारी औपन्यासिक कृति में कथा शिल्प के साथसाथ भाषा शिल्प और शैली शिल्प का विलक्षण सामंजस्य है जो जितना सहजस्वाभाविक है, उतना ही प्रभावकारी और मोहक भी।उपन्यास मैला आँचल Novel Maila Aanchalलेखक फणीश्वर नाथ रेणु Writer Phanishwar Nath Renuस्वर समीर गोस्वामी Narration Sameer Goswamihttps://kahanisuno.com/http://instagram.com/sameergoswamikahanisunohttps://www.facebook.com/kahanisuno/http://twitter.com/goswamisameer/https://sameergoswami.com

  • Maila Aanchal | Part - 63 | A Novel by Phanishwar Nath 'Renu' | मैला आँचल | फणीश्वर नाथ 'रेणु' का लिखा उपन्यास
    6 min 39 sec

    मैला आँचल फणीश्वर नाथ रेणु का प्रतिनिधि उपन्यास है। यह हिन्दी का श्रेष्ठ और सशक्त आंचलिक उपन्यास है। नेपाल की सीमा से सटे उत्तरपूर्वी बिहार के एक पिछड़े ग्रामीण अंचल को पृष्ठभूमि बनाकर रेणु ने इसमें वहाँ के जीवन का, जिससे वह स्वयं ही घनिष्ठ रूप से जुड़े हुए थे, अत्यन्त जीवन्त और मुखर चित्रण किया है।सन् १९५४ में प्रकाशित इस उपन्यास की कथा वस्तु बिहार राज्य के पूर्णिया जिले के मेरीगंज की ग्रामीण जिंदगी से संबद्ध है। यह स्वतंत्र होते और उसके तुरन्त बाद के भारत के राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक परिदृश्य का ग्रामीण संस्करण है। रेणु के अनुसार इसमें फूल भी है, शूल भी है, धूल भी है, गुलाब भी है और कीचड़ भी है। मैं किसी से दामन बचाकर निकल नहीं पाया। इसमें ग़रीबी, रोग, भुखमरी, जहालत, धर्म की आड़ में हो रहे व्यभिचार, शोषण, आडंबरों, अंधविश्वासों आदि का चित्रण है। शिल्प की दृष्टि से इसमें फिल्म की तरह घटनाएं एक के बाद एक घटकर विलीन हो जाती है। और दूसरी प्रारंभ हो जाती है। इसमें घटना प्रधानता है किंतु कोई केन्द्रीय चरित्र या कथा नहीं है। इसमें नाटकीयता और किस्सा गोई शैली का प्रयोग किया गया है। इसे हिन्दी में आँचलिक उपन्यासों के प्रवर्तन का श्रेय भी प्राप्त है।कथा शिल्पी फणीश्वर नाथ रेणु की इस युगान्तकारी औपन्यासिक कृति में कथा शिल्प के साथसाथ भाषा शिल्प और शैली शिल्प का विलक्षण सामंजस्य है जो जितना सहजस्वाभाविक है, उतना ही प्रभावकारी और मोहक भी।उपन्यास मैला आँचल Novel Maila Aanchalलेखक फणीश्वर नाथ रेणु Writer Phanishwar Nath Renuस्वर समीर गोस्वामी Narration Sameer Goswamihttps://kahanisuno.com/http://instagram.com/sameergoswamikahanisunohttps://www.facebook.com/kahanisuno/http://twitter.com/goswamisameer/https://sameergoswami.com

  • Maila Aanchal | Part - 60 | A Novel by Phanishwar Nath 'Renu' | मैला आँचल | फणीश्वर नाथ 'रेणु' का लिखा उपन्यास
    6 min 34 sec

    मैला आँचल फणीश्वर नाथ रेणु का प्रतिनिधि उपन्यास है। यह हिन्दी का श्रेष्ठ और सशक्त आंचलिक उपन्यास है। नेपाल की सीमा से सटे उत्तरपूर्वी बिहार के एक पिछड़े ग्रामीण अंचल को पृष्ठभूमि बनाकर रेणु ने इसमें वहाँ के जीवन का, जिससे वह स्वयं ही घनिष्ठ रूप से जुड़े हुए थे, अत्यन्त जीवन्त और मुखर चित्रण किया है।सन् १९५४ में प्रकाशित इस उपन्यास की कथा वस्तु बिहार राज्य के पूर्णिया जिले के मेरीगंज की ग्रामीण जिंदगी से संबद्ध है। यह स्वतंत्र होते और उसके तुरन्त बाद के भारत के राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक परिदृश्य का ग्रामीण संस्करण है। रेणु के अनुसार इसमें फूल भी है, शूल भी है, धूल भी है, गुलाब भी है और कीचड़ भी है। मैं किसी से दामन बचाकर निकल नहीं पाया। इसमें ग़रीबी, रोग, भुखमरी, जहालत, धर्म की आड़ में हो रहे व्यभिचार, शोषण, आडंबरों, अंधविश्वासों आदि का चित्रण है। शिल्प की दृष्टि से इसमें फिल्म की तरह घटनाएं एक के बाद एक घटकर विलीन हो जाती है। और दूसरी प्रारंभ हो जाती है। इसमें घटना प्रधानता है किंतु कोई केन्द्रीय चरित्र या कथा नहीं है। इसमें नाटकीयता और किस्सा गोई शैली का प्रयोग किया गया है। इसे हिन्दी में आँचलिक उपन्यासों के प्रवर्तन का श्रेय भी प्राप्त है।कथा शिल्पी फणीश्वर नाथ रेणु की इस युगान्तकारी औपन्यासिक कृति में कथा शिल्प के साथसाथ भाषा शिल्प और शैली शिल्प का विलक्षण सामंजस्य है जो जितना सहजस्वाभाविक है, उतना ही प्रभावकारी और मोहक भी।उपन्यास मैला आँचल Novel Maila Aanchalलेखक फणीश्वर नाथ रेणु Writer Phanishwar Nath Renuस्वर समीर गोस्वामी Narration Sameer Goswamihttps://kahanisuno.com/http://instagram.com/sameergoswamikahanisunohttps://www.facebook.com/kahanisuno/http://twitter.com/goswamisameer/https://sameergoswami.com

  • Vayam Rakshamah - Part 20 - Taarkaamay | वयं रक्षाम: - भाग 20 - तारकामय | A Novel by Acharya Chatursen Shastri | आचार्य चतुरसेन शास्त्री का लिखा उपन्यास
    4 min 44 sec

    वयं रक्षाम: में प्राग्वेदकालीन जातियों के सम्बन्ध में सर्वथा अकल्पित अतर्कित नई स्थापनाएं हैं , मुक्त सहवास है, विवसन विचरण है, हरण और पलायन ह। शिश्नदेव की उपासना है, वैदिक अवैदिक अश्रुत मिश्रण है। नर मांस की खुले बाजार में बिक्री है, नृत्य है, मद है, उन्मुख अनावृत यौवन है ।इस उपन्यास में प्राग्वेदकालीन नर, नाग, देव, दैत्यदानव, आर्यअनार्य आदि विविध नृवंशों के जीवन के वे विस्तृतपुरातन रेखाचित्र हैं, जिन्हें धर्म के रंगीन शीशे में देख कर सारे संसार ने अंतरिक्ष का देवता मान लिया था। मैं इस उपन्यास में उन्हें नर रूप में आपके समक्ष उपस्थित करने का साहस कर रहा हूँ। आज तक कभी मनुष्य की वाणी से न सुनी गई बातें, मैं आपको सुनाने पर आमादा हूँ।....उपन्यास में मेरे अपने जीवनभर के अध्ययन का सार है।...आचार्य चतुरसेनउपन्यास वयं रक्षाम: Novel Vayam Rakshamahलेखक आचार्य चतुरसेन शास्त्री Writer Acharya Chatursen Shastriस्वर समीर गोस्वामी Narration Sameer Goswamihttps://kahanisuno.com/http://instagram.com/sameergoswamikahanisunohttps://www.facebook.com/kahanisuno/http://twitter.com/goswamisameer/https://sameergoswami.com

  • Maila Aanchal | Part - 52 | A Novel by Phanishwar Nath 'Renu' | मैला आँचल | फणीश्वर नाथ 'रेणु' का लिखा उपन्यास
    10 min 54 sec

    मैला आँचल फणीश्वर नाथ रेणु का प्रतिनिधि उपन्यास है। यह हिन्दी का श्रेष्ठ और सशक्त आंचलिक उपन्यास है। नेपाल की सीमा से सटे उत्तरपूर्वी बिहार के एक पिछड़े ग्रामीण अंचल को पृष्ठभूमि बनाकर रेणु ने इसमें वहाँ के जीवन का, जिससे वह स्वयं ही घनिष्ठ रूप से जुड़े हुए थे, अत्यन्त जीवन्त और मुखर चित्रण किया है।सन् १९५४ में प्रकाशित इस उपन्यास की कथा वस्तु बिहार राज्य के पूर्णिया जिले के मेरीगंज की ग्रामीण जिंदगी से संबद्ध है। यह स्वतंत्र होते और उसके तुरन्त बाद के भारत के राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक परिदृश्य का ग्रामीण संस्करण है। रेणु के अनुसार इसमें फूल भी है, शूल भी है, धूल भी है, गुलाब भी है और कीचड़ भी है। मैं किसी से दामन बचाकर निकल नहीं पाया। इसमें ग़रीबी, रोग, भुखमरी, जहालत, धर्म की आड़ में हो रहे व्यभिचार, शोषण, आडंबरों, अंधविश्वासों आदि का चित्रण है। शिल्प की दृष्टि से इसमें फिल्म की तरह घटनाएं एक के बाद एक घटकर विलीन हो जाती है। और दूसरी प्रारंभ हो जाती है। इसमें घटना प्रधानता है किंतु कोई केन्द्रीय चरित्र या कथा नहीं है। इसमें नाटकीयता और किस्सा गोई शैली का प्रयोग किया गया है। इसे हिन्दी में आँचलिक उपन्यासों के प्रवर्तन का श्रेय भी प्राप्त है।कथा शिल्पी फणीश्वर नाथ रेणु की इस युगान्तकारी औपन्यासिक कृति में कथा शिल्प के साथसाथ भाषा शिल्प और शैली शिल्प का विलक्षण सामंजस्य है जो जितना सहजस्वाभाविक है, उतना ही प्रभावकारी और मोहक भी।उपन्यास मैला आँचल Novel Maila Aanchalलेखक फणीश्वर नाथ रेणु Writer Phanishwar Nath Renuस्वर समीर गोस्वामी Narration Sameer Goswamihttps://kahanisuno.com/http://instagram.com/sameergoswamikahanisunohttps://www.facebook.com/kahanisuno/http://twitter.com/goswamisameer/https://sameergoswami.com

  • Maila Aanchal | Part - 43 | A Novel by Phanishwar Nath 'Renu' | मैला आँचल | फणीश्वर नाथ 'रेणु' का लिखा उपन्यास
    12 min 7 sec

    मैला आँचल फणीश्वर नाथ रेणु का प्रतिनिधि उपन्यास है। यह हिन्दी का श्रेष्ठ और सशक्त आंचलिक उपन्यास है। नेपाल की सीमा से सटे उत्तरपूर्वी बिहार के एक पिछड़े ग्रामीण अंचल को पृष्ठभूमि बनाकर रेणु ने इसमें वहाँ के जीवन का, जिससे वह स्वयं ही घनिष्ठ रूप से जुड़े हुए थे, अत्यन्त जीवन्त और मुखर चित्रण किया है।सन् १९५४ में प्रकाशित इस उपन्यास की कथा वस्तु बिहार राज्य के पूर्णिया जिले के मेरीगंज की ग्रामीण जिंदगी से संबद्ध है। यह स्वतंत्र होते और उसके तुरन्त बाद के भारत के राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक परिदृश्य का ग्रामीण संस्करण है। रेणु के अनुसार इसमें फूल भी है, शूल भी है, धूल भी है, गुलाब भी है और कीचड़ भी है। मैं किसी से दामन बचाकर निकल नहीं पाया। इसमें ग़रीबी, रोग, भुखमरी, जहालत, धर्म की आड़ में हो रहे व्यभिचार, शोषण, आडंबरों, अंधविश्वासों आदि का चित्रण है। शिल्प की दृष्टि से इसमें फिल्म की तरह घटनाएं एक के बाद एक घटकर विलीन हो जाती है। और दूसरी प्रारंभ हो जाती है। इसमें घटना प्रधानता है किंतु कोई केन्द्रीय चरित्र या कथा नहीं है। इसमें नाटकीयता और किस्सा गोई शैली का प्रयोग किया गया है। इसे हिन्दी में आँचलिक उपन्यासों के प्रवर्तन का श्रेय भी प्राप्त है।कथा शिल्पी फणीश्वर नाथ रेणु की इस युगान्तकारी औपन्यासिक कृति में कथा शिल्प के साथसाथ भाषा शिल्प और शैली शिल्प का विलक्षण सामंजस्य है जो जितना सहजस्वाभाविक है, उतना ही प्रभावकारी और मोहक भी।उपन्यास मैला आँचल Novel Maila Aanchalलेखक फणीश्वर नाथ रेणु Writer Phanishwar Nath Renuस्वर समीर गोस्वामी Narration Sameer Goswamihttps://kahanisuno.com/http://instagram.com/sameergoswamikahanisunohttps://www.facebook.com/kahanisuno/http://twitter.com/goswamisameer/https://sameergoswami.com

  • Maila Aanchal | Part - 42 | A Novel by Phanishwar Nath 'Renu' | मैला आँचल | फणीश्वर नाथ 'रेणु' का लिखा उपन्यास
    10 min 58 sec

    मैला आँचल फणीश्वर नाथ रेणु का प्रतिनिधि उपन्यास है। यह हिन्दी का श्रेष्ठ और सशक्त आंचलिक उपन्यास है। नेपाल की सीमा से सटे उत्तरपूर्वी बिहार के एक पिछड़े ग्रामीण अंचल को पृष्ठभूमि बनाकर रेणु ने इसमें वहाँ के जीवन का, जिससे वह स्वयं ही घनिष्ठ रूप से जुड़े हुए थे, अत्यन्त जीवन्त और मुखर चित्रण किया है।सन् १९५४ में प्रकाशित इस उपन्यास की कथा वस्तु बिहार राज्य के पूर्णिया जिले के मेरीगंज की ग्रामीण जिंदगी से संबद्ध है। यह स्वतंत्र होते और उसके तुरन्त बाद के भारत के राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक परिदृश्य का ग्रामीण संस्करण है। रेणु के अनुसार इसमें फूल भी है, शूल भी है, धूल भी है, गुलाब भी है और कीचड़ भी है। मैं किसी से दामन बचाकर निकल नहीं पाया। इसमें ग़रीबी, रोग, भुखमरी, जहालत, धर्म की आड़ में हो रहे व्यभिचार, शोषण, आडंबरों, अंधविश्वासों आदि का चित्रण है। शिल्प की दृष्टि से इसमें फिल्म की तरह घटनाएं एक के बाद एक घटकर विलीन हो जाती है। और दूसरी प्रारंभ हो जाती है। इसमें घटना प्रधानता है किंतु कोई केन्द्रीय चरित्र या कथा नहीं है। इसमें नाटकीयता और किस्सा गोई शैली का प्रयोग किया गया है। इसे हिन्दी में आँचलिक उपन्यासों के प्रवर्तन का श्रेय भी प्राप्त है।कथा शिल्पी फणीश्वर नाथ रेणु की इस युगान्तकारी औपन्यासिक कृति में कथा शिल्प के साथसाथ भाषा शिल्प और शैली शिल्प का विलक्षण सामंजस्य है जो जितना सहजस्वाभाविक है, उतना ही प्रभावकारी और मोहक भी।उपन्यास मैला आँचल Novel Maila Aanchalलेखक फणीश्वर नाथ रेणु Writer Phanishwar Nath Renuस्वर समीर गोस्वामी Narration Sameer Goswamihttps://kahanisuno.com/http://instagram.com/sameergoswamikahanisunohttps://www.facebook.com/kahanisuno/http://twitter.com/goswamisameer/https://sameergoswami.com

  • Maila Aanchal | Part - 40 | A Novel by Phanishwar Nath 'Renu' | मैला आँचल | फणीश्वर नाथ 'रेणु' का लिखा उपन्यास
    9 min 19 sec

    मैला आँचल फणीश्वर नाथ रेणु का प्रतिनिधि उपन्यास है। यह हिन्दी का श्रेष्ठ और सशक्त आंचलिक उपन्यास है। नेपाल की सीमा से सटे उत्तरपूर्वी बिहार के एक पिछड़े ग्रामीण अंचल को पृष्ठभूमि बनाकर रेणु ने इसमें वहाँ के जीवन का, जिससे वह स्वयं ही घनिष्ठ रूप से जुड़े हुए थे, अत्यन्त जीवन्त और मुखर चित्रण किया है।सन् १९५४ में प्रकाशित इस उपन्यास की कथा वस्तु बिहार राज्य के पूर्णिया जिले के मेरीगंज की ग्रामीण जिंदगी से संबद्ध है। यह स्वतंत्र होते और उसके तुरन्त बाद के भारत के राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक परिदृश्य का ग्रामीण संस्करण है। रेणु के अनुसार इसमें फूल भी है, शूल भी है, धूल भी है, गुलाब भी है और कीचड़ भी है। मैं किसी से दामन बचाकर निकल नहीं पाया। इसमें ग़रीबी, रोग, भुखमरी, जहालत, धर्म की आड़ में हो रहे व्यभिचार, शोषण, आडंबरों, अंधविश्वासों आदि का चित्रण है। शिल्प की दृष्टि से इसमें फिल्म की तरह घटनाएं एक के बाद एक घटकर विलीन हो जाती है। और दूसरी प्रारंभ हो जाती है। इसमें घटना प्रधानता है किंतु कोई केन्द्रीय चरित्र या कथा नहीं है। इसमें नाटकीयता और किस्सा गोई शैली का प्रयोग किया गया है। इसे हिन्दी में आँचलिक उपन्यासों के प्रवर्तन का श्रेय भी प्राप्त है।कथा शिल्पी फणीश्वर नाथ रेणु की इस युगान्तकारी औपन्यासिक कृति में कथा शिल्प के साथसाथ भाषा शिल्प और शैली शिल्प का विलक्षण सामंजस्य है जो जितना सहजस्वाभाविक है, उतना ही प्रभावकारी और मोहक भी।उपन्यास मैला आँचल Novel Maila Aanchalलेखक फणीश्वर नाथ रेणु Writer Phanishwar Nath Renuस्वर समीर गोस्वामी Narration Sameer Goswamihttps://kahanisuno.com/http://instagram.com/sameergoswamikahanisunohttps://www.facebook.com/kahanisuno/http://twitter.com/goswamisameer/https://sameergoswami.com

  • Somnath | Part - 3 Udyaast | A Novel by Acharaya Chatursen Shastri | Based on the attack of Mahmud of Ghazni at Somnath | सोमनाथ उपन्यास
    9 min 44 sec

    बारह ज्योतिर्लिंगों में सोमनाथ का अग्रणी स्थान है। अन्य विदेशी आक्रमणकारियों के अलावा महमूद गजनवी ने इस आदिमंदिर के वैभव को 16 बार लूटा। पर सूर्यवंशी राजाओं के पराक्रम से वह भय भी खाता था। फिर भी लूट का यह सिलसिला सदियों तक चला। यह सब इस उपन्यास की पृष्ठभूमि है।  सोमनाथ का दूसरा पक्ष भी है जो उपन्यास में जीवंत हुआ है। मंदिर के विशाल प्रांगण में गूंजती घुंघरुओं की झनकार इस जीवन की लय को ताल देती है। जीवन का यह संगीत भारत के जनमानस का संगीत है। आततायियों के नगाड़ों का शोर इसे दबा नहीं पाता। एक अजब सी शक्ति से वह फिरफिर उठता है और करता हैएक और पुनर्निर्माण। निर्माण और विध्वंस की यही शृंखला इस कथा का आधार है।उपन्यास सोमनाथ Novel Somnathलेखक आचार्य चतुरसेन शास्त्री Writer Acharya Chatursen Shastriस्वर समीर गोस्वामी Narration Sameer Goswamihttps://kahanisuno.com/http://instagram.com/sameergoswamikahanisunohttps://www.facebook.com/kahanisuno/http://twitter.com/goswamisameer/https://sameergoswami.com

  • Maila Aanchal | Part - 36 | A Novel by Phanishwar Nath 'Renu' | मैला आँचल | फणीश्वर नाथ 'रेणु' का लिखा उपन्यास
    8 min 33 sec

    मैला आँचल फणीश्वर नाथ रेणु का प्रतिनिधि उपन्यास है। यह हिन्दी का श्रेष्ठ और सशक्त आंचलिक उपन्यास है। नेपाल की सीमा से सटे उत्तरपूर्वी बिहार के एक पिछड़े ग्रामीण अंचल को पृष्ठभूमि बनाकर रेणु ने इसमें वहाँ के जीवन का, जिससे वह स्वयं ही घनिष्ठ रूप से जुड़े हुए थे, अत्यन्त जीवन्त और मुखर चित्रण किया है।सन् १९५४ में प्रकाशित इस उपन्यास की कथा वस्तु बिहार राज्य के पूर्णिया जिले के मेरीगंज की ग्रामीण जिंदगी से संबद्ध है। यह स्वतंत्र होते और उसके तुरन्त बाद के भारत के राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक परिदृश्य का ग्रामीण संस्करण है। रेणु के अनुसार इसमें फूल भी है, शूल भी है, धूल भी है, गुलाब भी है और कीचड़ भी है। मैं किसी से दामन बचाकर निकल नहीं पाया। इसमें ग़रीबी, रोग, भुखमरी, जहालत, धर्म की आड़ में हो रहे व्यभिचार, शोषण, आडंबरों, अंधविश्वासों आदि का चित्रण है। शिल्प की दृष्टि से इसमें फिल्म की तरह घटनाएं एक के बाद एक घटकर विलीन हो जाती है। और दूसरी प्रारंभ हो जाती है। इसमें घटना प्रधानता है किंतु कोई केन्द्रीय चरित्र या कथा नहीं है। इसमें नाटकीयता और किस्सा गोई शैली का प्रयोग किया गया है। इसे हिन्दी में आँचलिक उपन्यासों के प्रवर्तन का श्रेय भी प्राप्त है।कथा शिल्पी फणीश्वर नाथ रेणु की इस युगान्तकारी औपन्यासिक कृति में कथा शिल्प के साथसाथ भाषा शिल्प और शैली शिल्प का विलक्षण सामंजस्य है जो जितना सहजस्वाभाविक है, उतना ही प्रभावकारी और मोहक भी।उपन्यास मैला आँचल Novel Maila Aanchalलेखक फणीश्वर नाथ रेणु Writer Phanishwar Nath Renuस्वर समीर गोस्वामी Narration Sameer Goswamihttps://kahanisuno.com/http://instagram.com/sameergoswamikahanisunohttps://www.facebook.com/kahanisuno/http://twitter.com/goswamisameer/https://sameergoswami.com

  • Maila Aanchal | Part - 34 | A Novel by Phanishwar Nath 'Renu' | मैला आँचल | फणीश्वर नाथ 'रेणु' का लिखा उपन्यास
    10 min

    मैला आँचल फणीश्वर नाथ रेणु का प्रतिनिधि उपन्यास है। यह हिन्दी का श्रेष्ठ और सशक्त आंचलिक उपन्यास है। नेपाल की सीमा से सटे उत्तरपूर्वी बिहार के एक पिछड़े ग्रामीण अंचल को पृष्ठभूमि बनाकर रेणु ने इसमें वहाँ के जीवन का, जिससे वह स्वयं ही घनिष्ठ रूप से जुड़े हुए थे, अत्यन्त जीवन्त और मुखर चित्रण किया है।सन् १९५४ में प्रकाशित इस उपन्यास की कथा वस्तु बिहार राज्य के पूर्णिया जिले के मेरीगंज की ग्रामीण जिंदगी से संबद्ध है। यह स्वतंत्र होते और उसके तुरन्त बाद के भारत के राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक परिदृश्य का ग्रामीण संस्करण है। रेणु के अनुसार इसमें फूल भी है, शूल भी है, धूल भी है, गुलाब भी है और कीचड़ भी है। मैं किसी से दामन बचाकर निकल नहीं पाया। इसमें ग़रीबी, रोग, भुखमरी, जहालत, धर्म की आड़ में हो रहे व्यभिचार, शोषण, आडंबरों, अंधविश्वासों आदि का चित्रण है। शिल्प की दृष्टि से इसमें फिल्म की तरह घटनाएं एक के बाद एक घटकर विलीन हो जाती है। और दूसरी प्रारंभ हो जाती है। इसमें घटना प्रधानता है किंतु कोई केन्द्रीय चरित्र या कथा नहीं है। इसमें नाटकीयता और किस्सा गोई शैली का प्रयोग किया गया है। इसे हिन्दी में आँचलिक उपन्यासों के प्रवर्तन का श्रेय भी प्राप्त है।कथा शिल्पी फणीश्वर नाथ रेणु की इस युगान्तकारी औपन्यासिक कृति में कथा शिल्प के साथसाथ भाषा शिल्प और शैली शिल्प का विलक्षण सामंजस्य है जो जितना सहजस्वाभाविक है, उतना ही प्रभावकारी और मोहक भी।उपन्यास मैला आँचल Novel Maila Aanchalलेखक फणीश्वर नाथ रेणु Writer Phanishwar Nath Renuस्वर समीर गोस्वामी Narration Sameer Goswamihttps://kahanisuno.com/http://instagram.com/sameergoswamikahanisunohttps://www.facebook.com/kahanisuno/http://twitter.com/goswamisameer/https://sameergoswami.com

  • Maila Aanchal | Part - 29 | A Novel by Phanishwar Nath 'Renu' | मैला आँचल | फणीश्वर नाथ 'रेणु' का लिखा उपन्यास
    11 min 40 sec

    मैला आँचल फणीश्वर नाथ रेणु का प्रतिनिधि उपन्यास है। यह हिन्दी का श्रेष्ठ और सशक्त आंचलिक उपन्यास है। नेपाल की सीमा से सटे उत्तरपूर्वी बिहार के एक पिछड़े ग्रामीण अंचल को पृष्ठभूमि बनाकर रेणु ने इसमें वहाँ के जीवन का, जिससे वह स्वयं ही घनिष्ठ रूप से जुड़े हुए थे, अत्यन्त जीवन्त और मुखर चित्रण किया है।सन् १९५४ में प्रकाशित इस उपन्यास की कथा वस्तु बिहार राज्य के पूर्णिया जिले के मेरीगंज की ग्रामीण जिंदगी से संबद्ध है। यह स्वतंत्र होते और उसके तुरन्त बाद के भारत के राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक परिदृश्य का ग्रामीण संस्करण है। रेणु के अनुसार इसमें फूल भी है, शूल भी है, धूल भी है, गुलाब भी है और कीचड़ भी है। मैं किसी से दामन बचाकर निकल नहीं पाया। इसमें ग़रीबी, रोग, भुखमरी, जहालत, धर्म की आड़ में हो रहे व्यभिचार, शोषण, आडंबरों, अंधविश्वासों आदि का चित्रण है। शिल्प की दृष्टि से इसमें फिल्म की तरह घटनाएं एक के बाद एक घटकर विलीन हो जाती है। और दूसरी प्रारंभ हो जाती है। इसमें घटना प्रधानता है किंतु कोई केन्द्रीय चरित्र या कथा नहीं है। इसमें नाटकीयता और किस्सा गोई शैली का प्रयोग किया गया है। इसे हिन्दी में आँचलिक उपन्यासों के प्रवर्तन का श्रेय भी प्राप्त है।कथा शिल्पी फणीश्वर नाथ रेणु की इस युगान्तकारी औपन्यासिक कृति में कथा शिल्प के साथसाथ भाषा शिल्प और शैली शिल्प का विलक्षण सामंजस्य है जो जितना सहजस्वाभाविक है, उतना ही प्रभावकारी और मोहक भी।उपन्यास मैला आँचल Novel Maila Aanchalलेखक फणीश्वर नाथ रेणु Writer Phanishwar Nath Renuस्वर समीर गोस्वामी Narration Sameer Goswamihttps://kahanisuno.com/http://instagram.com/sameergoswamikahanisunohttps://www.facebook.com/kahanisuno/http://twitter.com/goswamisameer/https://sameergoswami.com

  • Maila Aanchal | Part - 28 | A Novel by Phanishwar Nath 'Renu' | मैला आँचल | फणीश्वर नाथ 'रेणु' का लिखा उपन्यास
    10 min 18 sec

    मैला आँचल फणीश्वर नाथ रेणु का प्रतिनिधि उपन्यास है। यह हिन्दी का श्रेष्ठ और सशक्त आंचलिक उपन्यास है। नेपाल की सीमा से सटे उत्तरपूर्वी बिहार के एक पिछड़े ग्रामीण अंचल को पृष्ठभूमि बनाकर रेणु ने इसमें वहाँ के जीवन का, जिससे वह स्वयं ही घनिष्ठ रूप से जुड़े हुए थे, अत्यन्त जीवन्त और मुखर चित्रण किया है।सन् १९५४ में प्रकाशित इस उपन्यास की कथा वस्तु बिहार राज्य के पूर्णिया जिले के मेरीगंज की ग्रामीण जिंदगी से संबद्ध है। यह स्वतंत्र होते और उसके तुरन्त बाद के भारत के राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक परिदृश्य का ग्रामीण संस्करण है। रेणु के अनुसार इसमें फूल भी है, शूल भी है, धूल भी है, गुलाब भी है और कीचड़ भी है। मैं किसी से दामन बचाकर निकल नहीं पाया। इसमें ग़रीबी, रोग, भुखमरी, जहालत, धर्म की आड़ में हो रहे व्यभिचार, शोषण, आडंबरों, अंधविश्वासों आदि का चित्रण है। शिल्प की दृष्टि से इसमें फिल्म की तरह घटनाएं एक के बाद एक घटकर विलीन हो जाती है। और दूसरी प्रारंभ हो जाती है। इसमें घटना प्रधानता है किंतु कोई केन्द्रीय चरित्र या कथा नहीं है। इसमें नाटकीयता और किस्सा गोई शैली का प्रयोग किया गया है। इसे हिन्दी में आँचलिक उपन्यासों के प्रवर्तन का श्रेय भी प्राप्त है।कथा शिल्पी फणीश्वर नाथ रेणु की इस युगान्तकारी औपन्यासिक कृति में कथा शिल्प के साथसाथ भाषा शिल्प और शैली शिल्प का विलक्षण सामंजस्य है जो जितना सहजस्वाभाविक है, उतना ही प्रभावकारी और मोहक भी।उपन्यास मैला आँचल Novel Maila Aanchalलेखक फणीश्वर नाथ रेणु Writer Phanishwar Nath Renuस्वर समीर गोस्वामी Narration Sameer Goswamihttps://kahanisuno.com/http://instagram.com/sameergoswamikahanisunohttps://www.facebook.com/kahanisuno/http://twitter.com/goswamisameer/https://sameergoswami.com

  • Maila Aanchal | Part - 26 | A Novel by Phanishwar Nath 'Renu' | मैला आँचल | फणीश्वर नाथ 'रेणु' का लिखा उपन्यास
    8 min 33 sec

    मैला आँचल फणीश्वर नाथ रेणु का प्रतिनिधि उपन्यास है। यह हिन्दी का श्रेष्ठ और सशक्त आंचलिक उपन्यास है। नेपाल की सीमा से सटे उत्तरपूर्वी बिहार के एक पिछड़े ग्रामीण अंचल को पृष्ठभूमि बनाकर रेणु ने इसमें वहाँ के जीवन का, जिससे वह स्वयं ही घनिष्ठ रूप से जुड़े हुए थे, अत्यन्त जीवन्त और मुखर चित्रण किया है।सन् १९५४ में प्रकाशित इस उपन्यास की कथा वस्तु बिहार राज्य के पूर्णिया जिले के मेरीगंज की ग्रामीण जिंदगी से संबद्ध है। यह स्वतंत्र होते और उसके तुरन्त बाद के भारत के राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक परिदृश्य का ग्रामीण संस्करण है। रेणु के अनुसार इसमें फूल भी है, शूल भी है, धूल भी है, गुलाब भी है और कीचड़ भी है। मैं किसी से दामन बचाकर निकल नहीं पाया। इसमें ग़रीबी, रोग, भुखमरी, जहालत, धर्म की आड़ में हो रहे व्यभिचार, शोषण, आडंबरों, अंधविश्वासों आदि का चित्रण है। शिल्प की दृष्टि से इसमें फिल्म की तरह घटनाएं एक के बाद एक घटकर विलीन हो जाती है। और दूसरी प्रारंभ हो जाती है। इसमें घटना प्रधानता है किंतु कोई केन्द्रीय चरित्र या कथा नहीं है। इसमें नाटकीयता और किस्सा गोई शैली का प्रयोग किया गया है। इसे हिन्दी में आँचलिक उपन्यासों के प्रवर्तन का श्रेय भी प्राप्त है।कथा शिल्पी फणीश्वर नाथ रेणु की इस युगान्तकारी औपन्यासिक कृति में कथा शिल्प के साथसाथ भाषा शिल्प और शैली शिल्प का विलक्षण सामंजस्य है जो जितना सहजस्वाभाविक है, उतना ही प्रभावकारी और मोहक भी।उपन्यास मैला आँचल Novel Maila Aanchalलेखक फणीश्वर नाथ रेणु Writer Phanishwar Nath Renuस्वर समीर गोस्वामी Narration Sameer Goswamihttps://kahanisuno.com/http://instagram.com/sameergoswamikahanisunohttps://www.facebook.com/kahanisuno/http://twitter.com/goswamisameer/https://sameergoswami.com

  • Maila Aanchal | Part - 25 | A Novel by Phanishwar Nath 'Renu' | मैला आँचल | फणीश्वर नाथ 'रेणु' का लिखा उपन्यास
    19 min 34 sec

    मैला आँचल फणीश्वर नाथ रेणु का प्रतिनिधि उपन्यास है। यह हिन्दी का श्रेष्ठ और सशक्त आंचलिक उपन्यास है। नेपाल की सीमा से सटे उत्तरपूर्वी बिहार के एक पिछड़े ग्रामीण अंचल को पृष्ठभूमि बनाकर रेणु ने इसमें वहाँ के जीवन का, जिससे वह स्वयं ही घनिष्ठ रूप से जुड़े हुए थे, अत्यन्त जीवन्त और मुखर चित्रण किया है।सन् १९५४ में प्रकाशित इस उपन्यास की कथा वस्तु बिहार राज्य के पूर्णिया जिले के मेरीगंज की ग्रामीण जिंदगी से संबद्ध है। यह स्वतंत्र होते और उसके तुरन्त बाद के भारत के राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक परिदृश्य का ग्रामीण संस्करण है। रेणु के अनुसार इसमें फूल भी है, शूल भी है, धूल भी है, गुलाब भी है और कीचड़ भी है। मैं किसी से दामन बचाकर निकल नहीं पाया। इसमें ग़रीबी, रोग, भुखमरी, जहालत, धर्म की आड़ में हो रहे व्यभिचार, शोषण, आडंबरों, अंधविश्वासों आदि का चित्रण है। शिल्प की दृष्टि से इसमें फिल्म की तरह घटनाएं एक के बाद एक घटकर विलीन हो जाती है। और दूसरी प्रारंभ हो जाती है। इसमें घटना प्रधानता है किंतु कोई केन्द्रीय चरित्र या कथा नहीं है। इसमें नाटकीयता और किस्सा गोई शैली का प्रयोग किया गया है। इसे हिन्दी में आँचलिक उपन्यासों के प्रवर्तन का श्रेय भी प्राप्त है।कथा शिल्पी फणीश्वर नाथ रेणु की इस युगान्तकारी औपन्यासिक कृति में कथा शिल्प के साथसाथ भाषा शिल्प और शैली शिल्प का विलक्षण सामंजस्य है जो जितना सहजस्वाभाविक है, उतना ही प्रभावकारी और मोहक भी।उपन्यास मैला आँचल Novel Maila Aanchalलेखक फणीश्वर नाथ रेणु Writer Phanishwar Nath Renuस्वर समीर गोस्वामी Narration Sameer Goswamihttps://kahanisuno.com/http://instagram.com/sameergoswamikahanisunohttps://www.facebook.com/kahanisuno/http://twitter.com/goswamisameer/https://sameergoswami.com

  • Maila Aanchal | Part - 21 | A Novel by Phanishwar Nath 'Renu' | मैला आँचल | फणीश्वर नाथ 'रेणु' का लिखा उपन्यास
    10 min 9 sec

    मैला आँचल फणीश्वर नाथ रेणु का प्रतिनिधि उपन्यास है। यह हिन्दी का श्रेष्ठ और सशक्त आंचलिक उपन्यास है। नेपाल की सीमा से सटे उत्तरपूर्वी बिहार के एक पिछड़े ग्रामीण अंचल को पृष्ठभूमि बनाकर रेणु ने इसमें वहाँ के जीवन का, जिससे वह स्वयं ही घनिष्ठ रूप से जुड़े हुए थे, अत्यन्त जीवन्त और मुखर चित्रण किया है।सन् १९५४ में प्रकाशित इस उपन्यास की कथा वस्तु बिहार राज्य के पूर्णिया जिले के मेरीगंज की ग्रामीण जिंदगी से संबद्ध है। यह स्वतंत्र होते और उसके तुरन्त बाद के भारत के राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक परिदृश्य का ग्रामीण संस्करण है। रेणु के अनुसार इसमें फूल भी है, शूल भी है, धूल भी है, गुलाब भी है और कीचड़ भी है। मैं किसी से दामन बचाकर निकल नहीं पाया। इसमें ग़रीबी, रोग, भुखमरी, जहालत, धर्म की आड़ में हो रहे व्यभिचार, शोषण, आडंबरों, अंधविश्वासों आदि का चित्रण है। शिल्प की दृष्टि से इसमें फिल्म की तरह घटनाएं एक के बाद एक घटकर विलीन हो जाती है। और दूसरी प्रारंभ हो जाती है। इसमें घटना प्रधानता है किंतु कोई केन्द्रीय चरित्र या कथा नहीं है। इसमें नाटकीयता और किस्सा गोई शैली का प्रयोग किया गया है। इसे हिन्दी में आँचलिक उपन्यासों के प्रवर्तन का श्रेय भी प्राप्त है।कथा शिल्पी फणीश्वर नाथ रेणु की इस युगान्तकारी औपन्यासिक कृति में कथा शिल्प के साथसाथ भाषा शिल्प और शैली शिल्प का विलक्षण सामंजस्य है जो जितना सहजस्वाभाविक है, उतना ही प्रभावकारी और मोहक भी।उपन्यास मैला आँचल Novel Maila Aanchalलेखक फणीश्वर नाथ रेणु Writer Phanishwar Nath Renuस्वर समीर गोस्वामी Narration Sameer Goswamihttps://kahanisuno.com/http://instagram.com/sameergoswamikahanisunohttps://www.facebook.com/kahanisuno/http://twitter.com/goswamisameer/https://sameergoswami.com

  • Maila Aanchal | Part - 20 | A Novel by Phanishwar Nath 'Renu' | मैला आँचल | फणीश्वर नाथ 'रेणु' का लिखा उपन्यास
    10 min 39 sec

    मैला आँचल फणीश्वर नाथ रेणु का प्रतिनिधि उपन्यास है। यह हिन्दी का श्रेष्ठ और सशक्त आंचलिक उपन्यास है। नेपाल की सीमा से सटे उत्तरपूर्वी बिहार के एक पिछड़े ग्रामीण अंचल को पृष्ठभूमि बनाकर रेणु ने इसमें वहाँ के जीवन का, जिससे वह स्वयं ही घनिष्ठ रूप से जुड़े हुए थे, अत्यन्त जीवन्त और मुखर चित्रण किया है।सन् १९५४ में प्रकाशित इस उपन्यास की कथा वस्तु बिहार राज्य के पूर्णिया जिले के मेरीगंज की ग्रामीण जिंदगी से संबद्ध है। यह स्वतंत्र होते और उसके तुरन्त बाद के भारत के राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक परिदृश्य का ग्रामीण संस्करण है। रेणु के अनुसार इसमें फूल भी है, शूल भी है, धूल भी है, गुलाब भी है और कीचड़ भी है। मैं किसी से दामन बचाकर निकल नहीं पाया। इसमें ग़रीबी, रोग, भुखमरी, जहालत, धर्म की आड़ में हो रहे व्यभिचार, शोषण, आडंबरों, अंधविश्वासों आदि का चित्रण है। शिल्प की दृष्टि से इसमें फिल्म की तरह घटनाएं एक के बाद एक घटकर विलीन हो जाती है। और दूसरी प्रारंभ हो जाती है। इसमें घटना प्रधानता है किंतु कोई केन्द्रीय चरित्र या कथा नहीं है। इसमें नाटकीयता और किस्सा गोई शैली का प्रयोग किया गया है। इसे हिन्दी में आँचलिक उपन्यासों के प्रवर्तन का श्रेय भी प्राप्त है।कथा शिल्पी फणीश्वर नाथ रेणु की इस युगान्तकारी औपन्यासिक कृति में कथा शिल्प के साथसाथ भाषा शिल्प और शैली शिल्प का विलक्षण सामंजस्य है जो जितना सहजस्वाभाविक है, उतना ही प्रभावकारी और मोहक भी।उपन्यास मैला आँचल Novel Maila Aanchalलेखक फणीश्वर नाथ रेणु Writer Phanishwar Nath Renuस्वर समीर गोस्वामी Narration Sameer Goswamihttps://kahanisuno.com/http://instagram.com/sameergoswamikahanisunohttps://www.facebook.com/kahanisuno/http://twitter.com/goswamisameer/https://sameergoswami.com

  • Maila Aanchal | Part - 16 | A Novel by Phanishwar Nath 'Renu' | मैला आँचल | फणीश्वर नाथ 'रेणु' का लिखा उपन्यास
    16 min 58 sec

    मैला आँचल फणीश्वर नाथ रेणु का प्रतिनिधि उपन्यास है। यह हिन्दी का श्रेष्ठ और सशक्त आंचलिक उपन्यास है। नेपाल की सीमा से सटे उत्तरपूर्वी बिहार के एक पिछड़े ग्रामीण अंचल को पृष्ठभूमि बनाकर रेणु ने इसमें वहाँ के जीवन का, जिससे वह स्वयं ही घनिष्ठ रूप से जुड़े हुए थे, अत्यन्त जीवन्त और मुखर चित्रण किया है।सन् १९५४ में प्रकाशित इस उपन्यास की कथा वस्तु बिहार राज्य के पूर्णिया जिले के मेरीगंज की ग्रामीण जिंदगी से संबद्ध है। यह स्वतंत्र होते और उसके तुरन्त बाद के भारत के राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक परिदृश्य का ग्रामीण संस्करण है। रेणु के अनुसार इसमें फूल भी है, शूल भी है, धूल भी है, गुलाब भी है और कीचड़ भी है। मैं किसी से दामन बचाकर निकल नहीं पाया। इसमें ग़रीबी, रोग, भुखमरी, जहालत, धर्म की आड़ में हो रहे व्यभिचार, शोषण, आडंबरों, अंधविश्वासों आदि का चित्रण है। शिल्प की दृष्टि से इसमें फिल्म की तरह घटनाएं एक के बाद एक घटकर विलीन हो जाती है। और दूसरी प्रारंभ हो जाती है। इसमें घटना प्रधानता है किंतु कोई केन्द्रीय चरित्र या कथा नहीं है। इसमें नाटकीयता और किस्सा गोई शैली का प्रयोग किया गया है। इसे हिन्दी में आँचलिक उपन्यासों के प्रवर्तन का श्रेय भी प्राप्त है।कथा शिल्पी फणीश्वर नाथ रेणु की इस युगान्तकारी औपन्यासिक कृति में कथा शिल्प के साथसाथ भाषा शिल्प और शैली शिल्प का विलक्षण सामंजस्य है जो जितना सहजस्वाभाविक है, उतना ही प्रभावकारी और मोहक भी।उपन्यास मैला आँचल Novel Maila Aanchalलेखक फणीश्वर नाथ रेणु Writer Phanishwar Nath Renuस्वर समीर गोस्वामी Narration Sameer Goswamihttps://kahanisuno.com/http://instagram.com/sameergoswamikahanisunohttps://www.facebook.com/kahanisuno/http://twitter.com/goswamisameer/https://sameergoswami.com

  • Maila Aanchal | Part - 11 | A Novel by Phanishwar Nath 'Renu' | मैला आँचल | फणीश्वर नाथ 'रेणु' का लिखा उपन्यास
    11 min 48 sec

    मैला आँचल फणीश्वर नाथ रेणु का प्रतिनिधि उपन्यास है। यह हिन्दी का श्रेष्ठ और सशक्त आंचलिक उपन्यास है। नेपाल की सीमा से सटे उत्तरपूर्वी बिहार के एक पिछड़े ग्रामीण अंचल को पृष्ठभूमि बनाकर रेणु ने इसमें वहाँ के जीवन का, जिससे वह स्वयं ही घनिष्ठ रूप से जुड़े हुए थे, अत्यन्त जीवन्त और मुखर चित्रण किया है।सन् १९५४ में प्रकाशित इस उपन्यास की कथा वस्तु बिहार राज्य के पूर्णिया जिले के मेरीगंज की ग्रामीण जिंदगी से संबद्ध है। यह स्वतंत्र होते और उसके तुरन्त बाद के भारत के राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक परिदृश्य का ग्रामीण संस्करण है। रेणु के अनुसार इसमें फूल भी है, शूल भी है, धूल भी है, गुलाब भी है और कीचड़ भी है। मैं किसी से दामन बचाकर निकल नहीं पाया। इसमें ग़रीबी, रोग, भुखमरी, जहालत, धर्म की आड़ में हो रहे व्यभिचार, शोषण, आडंबरों, अंधविश्वासों आदि का चित्रण है। शिल्प की दृष्टि से इसमें फिल्म की तरह घटनाएं एक के बाद एक घटकर विलीन हो जाती है। और दूसरी प्रारंभ हो जाती है। इसमें घटना प्रधानता है किंतु कोई केन्द्रीय चरित्र या कथा नहीं है। इसमें नाटकीयता और किस्सा गोई शैली का प्रयोग किया गया है। इसे हिन्दी में आँचलिक उपन्यासों के प्रवर्तन का श्रेय भी प्राप्त है।कथा शिल्पी फणीश्वर नाथ रेणु की इस युगान्तकारी औपन्यासिक कृति में कथा शिल्प के साथसाथ भाषा शिल्प और शैली शिल्प का विलक्षण सामंजस्य है जो जितना सहजस्वाभाविक है, उतना ही प्रभावकारी और मोहक भी।उपन्यास मैला आँचल Novel Maila Aanchalलेखक फणीश्वर नाथ रेणु Writer Phanishwar Nath Renuस्वर समीर गोस्वामी Narration Sameer Goswamihttps://kahanisuno.com/http://instagram.com/sameergoswamikahanisunohttps://www.facebook.com/kahanisuno/http://twitter.com/goswamisameer/https://sameergoswami.com

  • Maila Aanchal | Part - 8 | A Novel by Phanishwar Nath 'Renu' | मैला आँचल | फणीश्वर नाथ 'रेणु' का लिखा उपन्यास
    15 min 11 sec

    मैला आँचल फणीश्वर नाथ रेणु का प्रतिनिधि उपन्यास है। यह हिन्दी का श्रेष्ठ और सशक्त आंचलिक उपन्यास है। नेपाल की सीमा से सटे उत्तरपूर्वी बिहार के एक पिछड़े ग्रामीण अंचल को पृष्ठभूमि बनाकर रेणु ने इसमें वहाँ के जीवन का, जिससे वह स्वयं ही घनिष्ठ रूप से जुड़े हुए थे, अत्यन्त जीवन्त और मुखर चित्रण किया है।सन् १९५४ में प्रकाशित इस उपन्यास की कथा वस्तु बिहार राज्य के पूर्णिया जिले के मेरीगंज की ग्रामीण जिंदगी से संबद्ध है। यह स्वतंत्र होते और उसके तुरन्त बाद के भारत के राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक परिदृश्य का ग्रामीण संस्करण है। रेणु के अनुसार इसमें फूल भी है, शूल भी है, धूल भी है, गुलाब भी है और कीचड़ भी है। मैं किसी से दामन बचाकर निकल नहीं पाया। इसमें ग़रीबी, रोग, भुखमरी, जहालत, धर्म की आड़ में हो रहे व्यभिचार, शोषण, आडंबरों, अंधविश्वासों आदि का चित्रण है। शिल्प की दृष्टि से इसमें फिल्म की तरह घटनाएं एक के बाद एक घटकर विलीन हो जाती है। और दूसरी प्रारंभ हो जाती है। इसमें घटना प्रधानता है किंतु कोई केन्द्रीय चरित्र या कथा नहीं है। इसमें नाटकीयता और किस्सा गोई शैली का प्रयोग किया गया है। इसे हिन्दी में आँचलिक उपन्यासों के प्रवर्तन का श्रेय भी प्राप्त है।कथा शिल्पी फणीश्वर नाथ रेणु की इस युगान्तकारी औपन्यासिक कृति में कथा शिल्प के साथसाथ भाषा शिल्प और शैली शिल्प का विलक्षण सामंजस्य है जो जितना सहजस्वाभाविक है, उतना ही प्रभावकारी और मोहक भी।उपन्यास मैला आँचल Novel Maila Aanchalलेखक फणीश्वर नाथ रेणु Writer Phanishwar Nath Renuस्वर समीर गोस्वामी Narration Sameer Goswamihttps://kahanisuno.com/http://instagram.com/sameergoswamikahanisunohttps://www.facebook.com/kahanisuno/http://twitter.com/goswamisameer/https://sameergoswami.com

  • Somnath | Part - 62 Abhisar | A Novel by Acharaya Chatursen Shastri | Based on the attack of Mahmud of Ghazni at Somnath | सोमनाथ उपन्यास
    7 min 9 sec

    बारह ज्योतिर्लिंगों में सोमनाथ का अग्रणी स्थान है। अन्य विदेशी आक्रमणकारियों के अलावा महमूद गजनवी ने इस आदिमंदिर के वैभव को 16 बार लूटा। पर सूर्यवंशी राजाओं के पराक्रम से वह भय भी खाता था। फिर भी लूट का यह सिलसिला सदियों तक चला। यह सब इस उपन्यास की पृष्ठभूमि है।  सोमनाथ का दूसरा पक्ष भी है जो उपन्यास में जीवंत हुआ है। मंदिर के विशाल प्रांगण में गूंजती घुंघरुओं की झनकार इस जीवन की लय को ताल देती है। जीवन का यह संगीत भारत के जनमानस का संगीत है। आततायियों के नगाड़ों का शोर इसे दबा नहीं पाता। एक अजब सी शक्ति से वह फिरफिर उठता है और करता हैएक और पुनर्निर्माण। निर्माण और विध्वंस की यही शृंखला इस कथा का आधार है।उपन्यास सोमनाथ Novel Somnathलेखक आचार्य चतुरसेन शास्त्री Writer Acharya Chatursen Shastriस्वर समीर गोस्वामी Narration Sameer Goswamihttps://kahanisuno.com/http://instagram.com/sameergoswamikahanisunohttps://www.facebook.com/kahanisuno/http://twitter.com/goswamisameer/https://sameergoswami.com

  • Somnath | Part - 60 Prabhas Durgadhishthan | A Novel by Acharaya Chatursen Shastri | Based on the attack of Mahmud of Ghazni at Somnath | सोमनाथ उपन्यास
    4 min 25 sec

    बारह ज्योतिर्लिंगों में सोमनाथ का अग्रणी स्थान है। अन्य विदेशी आक्रमणकारियों के अलावा महमूद गजनवी ने इस आदिमंदिर के वैभव को 16 बार लूटा। पर सूर्यवंशी राजाओं के पराक्रम से वह भय भी खाता था। फिर भी लूट का यह सिलसिला सदियों तक चला। यह सब इस उपन्यास की पृष्ठभूमि है।  सोमनाथ का दूसरा पक्ष भी है जो उपन्यास में जीवंत हुआ है। मंदिर के विशाल प्रांगण में गूंजती घुंघरुओं की झनकार इस जीवन की लय को ताल देती है। जीवन का यह संगीत भारत के जनमानस का संगीत है। आततायियों के नगाड़ों का शोर इसे दबा नहीं पाता। एक अजब सी शक्ति से वह फिरफिर उठता है और करता हैएक और पुनर्निर्माण। निर्माण और विध्वंस की यही शृंखला इस कथा का आधार है।उपन्यास सोमनाथ Novel Somnathलेखक आचार्य चतुरसेन शास्त्री Writer Acharya Chatursen Shastriस्वर समीर गोस्वामी Narration Sameer Goswamihttps://kahanisuno.com/http://instagram.com/sameergoswamikahanisunohttps://www.facebook.com/kahanisuno/http://twitter.com/goswamisameer/https://sameergoswami.com

  • Somnath | Part - 58 Antim Nritya | A Novel by Acharaya Chatursen Shastri | Based on the attack of Mahmud of Ghazni at Somnath | सोमनाथ उपन्यास
    6 min 40 sec

    बारह ज्योतिर्लिंगों में सोमनाथ का अग्रणी स्थान है। अन्य विदेशी आक्रमणकारियों के अलावा महमूद गजनवी ने इस आदिमंदिर के वैभव को 16 बार लूटा। पर सूर्यवंशी राजाओं के पराक्रम से वह भय भी खाता था। फिर भी लूट का यह सिलसिला सदियों तक चला। यह सब इस उपन्यास की पृष्ठभूमि है।  सोमनाथ का दूसरा पक्ष भी है जो उपन्यास में जीवंत हुआ है। मंदिर के विशाल प्रांगण में गूंजती घुंघरुओं की झनकार इस जीवन की लय को ताल देती है। जीवन का यह संगीत भारत के जनमानस का संगीत है। आततायियों के नगाड़ों का शोर इसे दबा नहीं पाता। एक अजब सी शक्ति से वह फिरफिर उठता है और करता हैएक और पुनर्निर्माण। निर्माण और विध्वंस की यही शृंखला इस कथा का आधार है।उपन्यास सोमनाथ Novel Somnathलेखक आचार्य चतुरसेन शास्त्री Writer Acharya Chatursen Shastriस्वर समीर गोस्वामी Narration Sameer Goswamihttps://kahanisuno.com/http://instagram.com/sameergoswamikahanisunohttps://www.facebook.com/kahanisuno/http://twitter.com/goswamisameer/https://sameergoswami.com

  • Somnath | Part - 55 Shatru Nimantran | A Novel by Acharaya Chatursen Shastri | Based on the attack of Mahmud of Ghazni at Somnath | सोमनाथ उपन्यास
    8 min 40 sec

    बारह ज्योतिर्लिंगों में सोमनाथ का अग्रणी स्थान है। अन्य विदेशी आक्रमणकारियों के अलावा महमूद गजनवी ने इस आदिमंदिर के वैभव को 16 बार लूटा। पर सूर्यवंशी राजाओं के पराक्रम से वह भय भी खाता था। फिर भी लूट का यह सिलसिला सदियों तक चला। यह सब इस उपन्यास की पृष्ठभूमि है।  सोमनाथ का दूसरा पक्ष भी है जो उपन्यास में जीवंत हुआ है। मंदिर के विशाल प्रांगण में गूंजती घुंघरुओं की झनकार इस जीवन की लय को ताल देती है। जीवन का यह संगीत भारत के जनमानस का संगीत है। आततायियों के नगाड़ों का शोर इसे दबा नहीं पाता। एक अजब सी शक्ति से वह फिरफिर उठता है और करता हैएक और पुनर्निर्माण। निर्माण और विध्वंस की यही शृंखला इस कथा का आधार है।उपन्यास सोमनाथ Novel Somnathलेखक आचार्य चतुरसेन शास्त्री Writer Acharya Chatursen Shastriस्वर समीर गोस्वामी Narration Sameer Goswamihttps://kahanisuno.com/http://instagram.com/sameergoswamikahanisunohttps://www.facebook.com/kahanisuno/http://twitter.com/goswamisameer/https://sameergoswami.com

  • Somnath | Part - 52 Param Parmeshwar | A Novel by Acharaya Chatursen Shastri | Based on the attack of Mahmud of Ghazni at Somnath | सोमनाथ उपन्यास
    7 min 34 sec

    बारह ज्योतिर्लिंगों में सोमनाथ का अग्रणी स्थान है। अन्य विदेशी आक्रमणकारियों के अलावा महमूद गजनवी ने इस आदिमंदिर के वैभव को 16 बार लूटा। पर सूर्यवंशी राजाओं के पराक्रम से वह भय भी खाता था। फिर भी लूट का यह सिलसिला सदियों तक चला। यह सब इस उपन्यास की पृष्ठभूमि है।  सोमनाथ का दूसरा पक्ष भी है जो उपन्यास में जीवंत हुआ है। मंदिर के विशाल प्रांगण में गूंजती घुंघरुओं की झनकार इस जीवन की लय को ताल देती है। जीवन का यह संगीत भारत के जनमानस का संगीत है। आततायियों के नगाड़ों का शोर इसे दबा नहीं पाता। एक अजब सी शक्ति से वह फिरफिर उठता है और करता हैएक और पुनर्निर्माण। निर्माण और विध्वंस की यही शृंखला इस कथा का आधार है।उपन्यास सोमनाथ Novel Somnathलेखक आचार्य चतुरसेन शास्त्री Writer Acharya Chatursen Shastriस्वर समीर गोस्वामी Narration Sameer Goswamihttps://kahanisuno.com/http://instagram.com/sameergoswamikahanisunohttps://www.facebook.com/kahanisuno/http://twitter.com/goswamisameer/https://sameergoswami.com

  • Somnath | Part - 51 Junagarh Ka Rao | A Novel by Acharaya Chatursen Shastri | Based on the attack of Mahmud of Ghazni at Somnath | सोमनाथ उपन्यास
    6 min 28 sec

    बारह ज्योतिर्लिंगों में सोमनाथ का अग्रणी स्थान है। अन्य विदेशी आक्रमणकारियों के अलावा महमूद गजनवी ने इस आदिमंदिर के वैभव को 16 बार लूटा। पर सूर्यवंशी राजाओं के पराक्रम से वह भय भी खाता था। फिर भी लूट का यह सिलसिला सदियों तक चला। यह सब इस उपन्यास की पृष्ठभूमि है।  सोमनाथ का दूसरा पक्ष भी है जो उपन्यास में जीवंत हुआ है। मंदिर के विशाल प्रांगण में गूंजती घुंघरुओं की झनकार इस जीवन की लय को ताल देती है। जीवन का यह संगीत भारत के जनमानस का संगीत है। आततायियों के नगाड़ों का शोर इसे दबा नहीं पाता। एक अजब सी शक्ति से वह फिरफिर उठता है और करता हैएक और पुनर्निर्माण। निर्माण और विध्वंस की यही शृंखला इस कथा का आधार है।उपन्यास सोमनाथ Novel Somnathलेखक आचार्य चतुरसेन शास्त्री Writer Acharya Chatursen Shastriस्वर समीर गोस्वामी Narration Sameer Goswamihttps://kahanisuno.com/http://instagram.com/sameergoswamikahanisunohttps://www.facebook.com/kahanisuno/http://twitter.com/goswamisameer/https://sameergoswami.com

  • Somnath | Part - 49 Vifal Prayas | A Novel by Acharaya Chatursen Shastri | Based on the attack of Mahmud of Ghazni at Somnath | सोमनाथ उपन्यास
    5 min 33 sec

    बारह ज्योतिर्लिंगों में सोमनाथ का अग्रणी स्थान है। अन्य विदेशी आक्रमणकारियों के अलावा महमूद गजनवी ने इस आदिमंदिर के वैभव को 16 बार लूटा। पर सूर्यवंशी राजाओं के पराक्रम से वह भय भी खाता था। फिर भी लूट का यह सिलसिला सदियों तक चला। यह सब इस उपन्यास की पृष्ठभूमि है।  सोमनाथ का दूसरा पक्ष भी है जो उपन्यास में जीवंत हुआ है। मंदिर के विशाल प्रांगण में गूंजती घुंघरुओं की झनकार इस जीवन की लय को ताल देती है। जीवन का यह संगीत भारत के जनमानस का संगीत है। आततायियों के नगाड़ों का शोर इसे दबा नहीं पाता। एक अजब सी शक्ति से वह फिरफिर उठता है और करता हैएक और पुनर्निर्माण। निर्माण और विध्वंस की यही शृंखला इस कथा का आधार है।उपन्यास सोमनाथ Novel Somnathलेखक आचार्य चतुरसेन शास्त्री Writer Acharya Chatursen Shastriस्वर समीर गोस्वामी Narration Sameer Goswamihttps://kahanisuno.com/http://instagram.com/sameergoswamikahanisunohttps://www.facebook.com/kahanisuno/http://twitter.com/goswamisameer/https://sameergoswami.com

  • Somnath | Part - 46 Puraskar | A Novel by Acharaya Chatursen Shastri | Based on the attack of Mahmud of Ghazni at Somnath | सोमनाथ उपन्यास
    6 min 47 sec

    बारह ज्योतिर्लिंगों में सोमनाथ का अग्रणी स्थान है। अन्य विदेशी आक्रमणकारियों के अलावा महमूद गजनवी ने इस आदिमंदिर के वैभव को 16 बार लूटा। पर सूर्यवंशी राजाओं के पराक्रम से वह भय भी खाता था। फिर भी लूट का यह सिलसिला सदियों तक चला। यह सब इस उपन्यास की पृष्ठभूमि है।  सोमनाथ का दूसरा पक्ष भी है जो उपन्यास में जीवंत हुआ है। मंदिर के विशाल प्रांगण में गूंजती घुंघरुओं की झनकार इस जीवन की लय को ताल देती है। जीवन का यह संगीत भारत के जनमानस का संगीत है। आततायियों के नगाड़ों का शोर इसे दबा नहीं पाता। एक अजब सी शक्ति से वह फिरफिर उठता है और करता हैएक और पुनर्निर्माण। निर्माण और विध्वंस की यही शृंखला इस कथा का आधार है।उपन्यास सोमनाथ Novel Somnathलेखक आचार्य चतुरसेन शास्त्री Writer Acharya Chatursen Shastriस्वर समीर गोस्वामी Narration Sameer Goswamihttps://kahanisuno.com/http://instagram.com/sameergoswamikahanisunohttps://www.facebook.com/kahanisuno/http://twitter.com/goswamisameer/https://sameergoswami.com

  • Somnath | Part - 45 Ajmer Ki Tabaahi | A Novel by Acharaya Chatursen Shastri | Based on the attack of Mahmud of Ghazni at Somnath | सोमनाथ उपन्यास
    3 min 33 sec

    बारह ज्योतिर्लिंगों में सोमनाथ का अग्रणी स्थान है। अन्य विदेशी आक्रमणकारियों के अलावा महमूद गजनवी ने इस आदिमंदिर के वैभव को 16 बार लूटा। पर सूर्यवंशी राजाओं के पराक्रम से वह भय भी खाता था। फिर भी लूट का यह सिलसिला सदियों तक चला। यह सब इस उपन्यास की पृष्ठभूमि है।  सोमनाथ का दूसरा पक्ष भी है जो उपन्यास में जीवंत हुआ है। मंदिर के विशाल प्रांगण में गूंजती घुंघरुओं की झनकार इस जीवन की लय को ताल देती है। जीवन का यह संगीत भारत के जनमानस का संगीत है। आततायियों के नगाड़ों का शोर इसे दबा नहीं पाता। एक अजब सी शक्ति से वह फिरफिर उठता है और करता हैएक और पुनर्निर्माण। निर्माण और विध्वंस की यही शृंखला इस कथा का आधार है।उपन्यास सोमनाथ Novel Somnathलेखक आचार्य चतुरसेन शास्त्री Writer Acharya Chatursen Shastriस्वर समीर गोस्वामी Narration Sameer Goswamihttps://kahanisuno.com/http://instagram.com/sameergoswamikahanisunohttps://www.facebook.com/kahanisuno/http://twitter.com/goswamisameer/https://sameergoswami.com

  • Somnath | Part - 42 Kapat Sandhi | A Novel by Acharaya Chatursen Shastri | Based on the attack of Mahmud of Ghazni at Somnath | सोमनाथ उपन्यास
    3 min 47 sec

    बारह ज्योतिर्लिंगों में सोमनाथ का अग्रणी स्थान है। अन्य विदेशी आक्रमणकारियों के अलावा महमूद गजनवी ने इस आदिमंदिर के वैभव को 16 बार लूटा। पर सूर्यवंशी राजाओं के पराक्रम से वह भय भी खाता था। फिर भी लूट का यह सिलसिला सदियों तक चला। यह सब इस उपन्यास की पृष्ठभूमि है।  सोमनाथ का दूसरा पक्ष भी है जो उपन्यास में जीवंत हुआ है। मंदिर के विशाल प्रांगण में गूंजती घुंघरुओं की झनकार इस जीवन की लय को ताल देती है। जीवन का यह संगीत भारत के जनमानस का संगीत है। आततायियों के नगाड़ों का शोर इसे दबा नहीं पाता। एक अजब सी शक्ति से वह फिरफिर उठता है और करता हैएक और पुनर्निर्माण। निर्माण और विध्वंस की यही शृंखला इस कथा का आधार है।उपन्यास सोमनाथ Novel Somnathलेखक आचार्य चतुरसेन शास्त्री Writer Acharya Chatursen Shastriस्वर समीर गोस्वामी Narration Sameer Goswamihttps://kahanisuno.com/http://instagram.com/sameergoswamikahanisunohttps://www.facebook.com/kahanisuno/http://twitter.com/goswamisameer/https://sameergoswami.com

  • Somnath | Part - 39 Dharmgajdev | A Novel by Acharaya Chatursen Shastri | Based on the attack of Mahmud of Ghazni at Somnath | सोमनाथ उपन्यास
    11 min 50 sec

    बारह ज्योतिर्लिंगों में सोमनाथ का अग्रणी स्थान है। अन्य विदेशी आक्रमणकारियों के अलावा महमूद गजनवी ने इस आदिमंदिर के वैभव को 16 बार लूटा। पर सूर्यवंशी राजाओं के पराक्रम से वह भय भी खाता था। फिर भी लूट का यह सिलसिला सदियों तक चला। यह सब इस उपन्यास की पृष्ठभूमि है।  सोमनाथ का दूसरा पक्ष भी है जो उपन्यास में जीवंत हुआ है। मंदिर के विशाल प्रांगण में गूंजती घुंघरुओं की झनकार इस जीवन की लय को ताल देती है। जीवन का यह संगीत भारत के जनमानस का संगीत है। आततायियों के नगाड़ों का शोर इसे दबा नहीं पाता। एक अजब सी शक्ति से वह फिरफिर उठता है और करता हैएक और पुनर्निर्माण। निर्माण और विध्वंस की यही शृंखला इस कथा का आधार है।उपन्यास सोमनाथ Novel Somnathलेखक आचार्य चतुरसेन शास्त्री Writer Acharya Chatursen Shastriस्वर समीर गोस्वामी Narration Sameer Goswamihttps://kahanisuno.com/http://instagram.com/sameergoswamikahanisunohttps://www.facebook.com/kahanisuno/http://twitter.com/goswamisameer/https://sameergoswami.com

  • Somnath | Part - 37 Raj Kalah | A Novel by Acharaya Chatursen Shastri | Based on the attack of Mahmud of Ghazni at Somnath | सोमनाथ उपन्यास
    13 min 49 sec

    बारह ज्योतिर्लिंगों में सोमनाथ का अग्रणी स्थान है। अन्य विदेशी आक्रमणकारियों के अलावा महमूद गजनवी ने इस आदिमंदिर के वैभव को 16 बार लूटा। पर सूर्यवंशी राजाओं के पराक्रम से वह भय भी खाता था। फिर भी लूट का यह सिलसिला सदियों तक चला। यह सब इस उपन्यास की पृष्ठभूमि है।  सोमनाथ का दूसरा पक्ष भी है जो उपन्यास में जीवंत हुआ है। मंदिर के विशाल प्रांगण में गूंजती घुंघरुओं की झनकार इस जीवन की लय को ताल देती है। जीवन का यह संगीत भारत के जनमानस का संगीत है। आततायियों के नगाड़ों का शोर इसे दबा नहीं पाता। एक अजब सी शक्ति से वह फिरफिर उठता है और करता हैएक और पुनर्निर्माण। निर्माण और विध्वंस की यही शृंखला इस कथा का आधार है।उपन्यास सोमनाथ Novel Somnathलेखक आचार्य चतुरसेन शास्त्री Writer Acharya Chatursen Shastriस्वर समीर गोस्वामी Narration Sameer Goswamihttps://kahanisuno.com/http://instagram.com/sameergoswamikahanisunohttps://www.facebook.com/kahanisuno/http://twitter.com/goswamisameer/https://sameergoswami.com

  • Somnath | Part - 33 Kootmantra | A Novel by Acharaya Chatursen Shastri | Based on the attack of Mahmud of Ghazni at Somnath | सोमनाथ उपन्यास
    12 min 31 sec

    बारह ज्योतिर्लिंगों में सोमनाथ का अग्रणी स्थान है। अन्य विदेशी आक्रमणकारियों के अलावा महमूद गजनवी ने इस आदिमंदिर के वैभव को 16 बार लूटा। पर सूर्यवंशी राजाओं के पराक्रम से वह भय भी खाता था। फिर भी लूट का यह सिलसिला सदियों तक चला। यह सब इस उपन्यास की पृष्ठभूमि है।  सोमनाथ का दूसरा पक्ष भी है जो उपन्यास में जीवंत हुआ है। मंदिर के विशाल प्रांगण में गूंजती घुंघरुओं की झनकार इस जीवन की लय को ताल देती है। जीवन का यह संगीत भारत के जनमानस का संगीत है। आततायियों के नगाड़ों का शोर इसे दबा नहीं पाता। एक अजब सी शक्ति से वह फिरफिर उठता है और करता हैएक और पुनर्निर्माण। निर्माण और विध्वंस की यही शृंखला इस कथा का आधार है।उपन्यास सोमनाथ Novel Somnathलेखक आचार्य चतुरसेन शास्त्री Writer Acharya Chatursen Shastriस्वर समीर गोस्वामी Narration Sameer Goswamihttps://kahanisuno.com/http://instagram.com/sameergoswamikahanisunohttps://www.facebook.com/kahanisuno/http://twitter.com/goswamisameer/https://sameergoswami.com

  • Somnath | Part - 25 Ghoghabapa | A Novel by Acharaya Chatursen Shastri | Based on the attack of Mahmud of Ghazni at Somnath | सोमनाथ उपन्यास
    10 min 6 sec

    बारह ज्योतिर्लिंगों में सोमनाथ का अग्रणी स्थान है। अन्य विदेशी आक्रमणकारियों के अलावा महमूद गजनवी ने इस आदिमंदिर के वैभव को 16 बार लूटा। पर सूर्यवंशी राजाओं के पराक्रम से वह भय भी खाता था। फिर भी लूट का यह सिलसिला सदियों तक चला। यह सब इस उपन्यास की पृष्ठभूमि है।  सोमनाथ का दूसरा पक्ष भी है जो उपन्यास में जीवंत हुआ है। मंदिर के विशाल प्रांगण में गूंजती घुंघरुओं की झनकार इस जीवन की लय को ताल देती है। जीवन का यह संगीत भारत के जनमानस का संगीत है। आततायियों के नगाड़ों का शोर इसे दबा नहीं पाता। एक अजब सी शक्ति से वह फिरफिर उठता है और करता हैएक और पुनर्निर्माण। निर्माण और विध्वंस की यही शृंखला इस कथा का आधार है।उपन्यास सोमनाथ Novel Somnathलेखक आचार्य चतुरसेन शास्त्री Writer Acharya Chatursen Shastriस्वर समीर गोस्वामी Narration Sameer Goswamihttps://kahanisuno.com/http://instagram.com/sameergoswamikahanisunohttps://www.facebook.com/kahanisuno/http://twitter.com/goswamisameer/https://sameergoswami.com

  • Somnath | Part - 15 Peero Murshid | A Novel by Acharaya Chatursen Shastri | Based on the attack of Mahmud of Ghazni at Somnath | सोमनाथ उपन्यास
    6 min 17 sec

    बारह ज्योतिर्लिंगों में सोमनाथ का अग्रणी स्थान है। अन्य विदेशी आक्रमणकारियों के अलावा महमूद गजनवी ने इस आदिमंदिर के वैभव को 16 बार लूटा। पर सूर्यवंशी राजाओं के पराक्रम से वह भय भी खाता था। फिर भी लूट का यह सिलसिला सदियों तक चला। यह सब इस उपन्यास की पृष्ठभूमि है।  सोमनाथ का दूसरा पक्ष भी है जो उपन्यास में जीवंत हुआ है। मंदिर के विशाल प्रांगण में गूंजती घुंघरुओं की झनकार इस जीवन की लय को ताल देती है। जीवन का यह संगीत भारत के जनमानस का संगीत है। आततायियों के नगाड़ों का शोर इसे दबा नहीं पाता। एक अजब सी शक्ति से वह फिरफिर उठता है और करता हैएक और पुनर्निर्माण। निर्माण और विध्वंस की यही शृंखला इस कथा का आधार है।उपन्यास सोमनाथ Novel Somnathलेखक आचार्य चतुरसेन शास्त्री Writer Acharya Chatursen Shastriस्वर समीर गोस्वामी Narration Sameer Goswamihttps://kahanisuno.com/http://instagram.com/sameergoswamikahanisunohttps://www.facebook.com/kahanisuno/http://twitter.com/goswamisameer/https://sameergoswami.com

  • Somnath | Part - 13 Mahakal Mochan | A Novel by Acharaya Chatursen Shastri | Based on the attack of Mahmud of Ghazni at Somnath | सोमनाथ उपन्यास
    9 min 18 sec

    बारह ज्योतिर्लिंगों में सोमनाथ का अग्रणी स्थान है। अन्य विदेशी आक्रमणकारियों के अलावा महमूद गजनवी ने इस आदिमंदिर के वैभव को 16 बार लूटा। पर सूर्यवंशी राजाओं के पराक्रम से वह भय भी खाता था। फिर भी लूट का यह सिलसिला सदियों तक चला। यह सब इस उपन्यास की पृष्ठभूमि है।  सोमनाथ का दूसरा पक्ष भी है जो उपन्यास में जीवंत हुआ है। मंदिर के विशाल प्रांगण में गूंजती घुंघरुओं की झनकार इस जीवन की लय को ताल देती है। जीवन का यह संगीत भारत के जनमानस का संगीत है। आततायियों के नगाड़ों का शोर इसे दबा नहीं पाता। एक अजब सी शक्ति से वह फिरफिर उठता है और करता हैएक और पुनर्निर्माण। निर्माण और विध्वंस की यही शृंखला इस कथा का आधार है।उपन्यास सोमनाथ Novel Somnathलेखक आचार्य चतुरसेन शास्त्री Writer Acharya Chatursen Shastriस्वर समीर गोस्वामी Narration Sameer Goswamihttps://kahanisuno.com/http://instagram.com/sameergoswamikahanisunohttps://www.facebook.com/kahanisuno/http://twitter.com/goswamisameer/https://sameergoswami.com

  • Somnath | Part - 11 Agam Path par | A Novel by Acharaya Chatursen Shastri | Based on the attack of Mahmud of Ghazni at Somnath | सोमनाथ उपन्यास
    6 min 40 sec

    बारह ज्योतिर्लिंगों में सोमनाथ का अग्रणी स्थान है। अन्य विदेशी आक्रमणकारियों के अलावा महमूद गजनवी ने इस आदिमंदिर के वैभव को 16 बार लूटा। पर सूर्यवंशी राजाओं के पराक्रम से वह भय भी खाता था। फिर भी लूट का यह सिलसिला सदियों तक चला। यह सब इस उपन्यास की पृष्ठभूमि है।  सोमनाथ का दूसरा पक्ष भी है जो उपन्यास में जीवंत हुआ है। मंदिर के विशाल प्रांगण में गूंजती घुंघरुओं की झनकार इस जीवन की लय को ताल देती है। जीवन का यह संगीत भारत के जनमानस का संगीत है। आततायियों के नगाड़ों का शोर इसे दबा नहीं पाता। एक अजब सी शक्ति से वह फिरफिर उठता है और करता हैएक और पुनर्निर्माण। निर्माण और विध्वंस की यही शृंखला इस कथा का आधार है।उपन्यास सोमनाथ Novel Somnathलेखक आचार्य चतुरसेन शास्त्री Writer Acharya Chatursen Shastriस्वर समीर गोस्वामी Narration Sameer Goswamihttps://kahanisuno.com/http://instagram.com/sameergoswamikahanisunohttps://www.facebook.com/kahanisuno/http://twitter.com/goswamisameer/https://sameergoswami.com

  • Somnath | Part - 8 Mauni Baba | A Novel by Acharaya Chatursen Shastri | Based on the attack of Mahmud of Ghazni at Somnath | सोमनाथ उपन्यास
    6 min 43 sec

    बारह ज्योतिर्लिंगों में सोमनाथ का अग्रणी स्थान है। अन्य विदेशी आक्रमणकारियों के अलावा महमूद गजनवी ने इस आदिमंदिर के वैभव को 16 बार लूटा। पर सूर्यवंशी राजाओं के पराक्रम से वह भय भी खाता था। फिर भी लूट का यह सिलसिला सदियों तक चला। यह सब इस उपन्यास की पृष्ठभूमि है।  सोमनाथ का दूसरा पक्ष भी है जो उपन्यास में जीवंत हुआ है। मंदिर के विशाल प्रांगण में गूंजती घुंघरुओं की झनकार इस जीवन की लय को ताल देती है। जीवन का यह संगीत भारत के जनमानस का संगीत है। आततायियों के नगाड़ों का शोर इसे दबा नहीं पाता। एक अजब सी शक्ति से वह फिरफिर उठता है और करता हैएक और पुनर्निर्माण। निर्माण और विध्वंस की यही शृंखला इस कथा का आधार है।उपन्यास सोमनाथ Novel Somnathलेखक आचार्य चतुरसेन शास्त्री Writer Acharya Chatursen Shastriस्वर समीर गोस्वामी Narration Sameer Goswamihttps://kahanisuno.com/http://instagram.com/sameergoswamikahanisunohttps://www.facebook.com/kahanisuno/http://twitter.com/goswamisameer/https://sameergoswami.com

  • Somnath | Part - 7 Bhairvi Chakra | A Novel by Acharaya Chatursen Shastri | Based on the attack of Mahmud of Ghazni at Somnath | सोमनाथ उपन्यास
    6 min 7 sec

    बारह ज्योतिर्लिंगों में सोमनाथ का अग्रणी स्थान है। अन्य विदेशी आक्रमणकारियों के अलावा महमूद गजनवी ने इस आदिमंदिर के वैभव को 16 बार लूटा। पर सूर्यवंशी राजाओं के पराक्रम से वह भय भी खाता था। फिर भी लूट का यह सिलसिला सदियों तक चला। यह सब इस उपन्यास की पृष्ठभूमि है।  सोमनाथ का दूसरा पक्ष भी है जो उपन्यास में जीवंत हुआ है। मंदिर के विशाल प्रांगण में गूंजती घुंघरुओं की झनकार इस जीवन की लय को ताल देती है। जीवन का यह संगीत भारत के जनमानस का संगीत है। आततायियों के नगाड़ों का शोर इसे दबा नहीं पाता। एक अजब सी शक्ति से वह फिरफिर उठता है और करता हैएक और पुनर्निर्माण। निर्माण और विध्वंस की यही शृंखला इस कथा का आधार है।उपन्यास सोमनाथ Novel Somnathलेखक आचार्य चतुरसेन शास्त्री Writer Acharya Chatursen Shastriस्वर समीर गोस्वामी Narration Sameer Goswamihttps://kahanisuno.com/http://instagram.com/sameergoswamikahanisunohttps://www.facebook.com/kahanisuno/http://twitter.com/goswamisameer/https://sameergoswami.com

  • Somnath | Part - 94 Aaskaran Seth Ka Desaawar | A Novel by Acharaya Chatursen Shastri | Based on the attack of Mahmud of Ghazni at Somnath | सोमनाथ उपन्यास
    5 min 58 sec

    बारह ज्योतिर्लिंगों में सोमनाथ का अग्रणी स्थान है। अन्य विदेशी आक्रमणकारियों के अलावा महमूद गजनवी ने इस आदिमंदिर के वैभव को 16 बार लूटा। पर सूर्यवंशी राजाओं के पराक्रम से वह भय भी खाता था। फिर भी लूट का यह सिलसिला सदियों तक चला। यह सब इस उपन्यास की पृष्ठभूमि है।  सोमनाथ का दूसरा पक्ष भी है जो उपन्यास में जीवंत हुआ है। मंदिर के विशाल प्रांगण में गूंजती घुंघरुओं की झनकार इस जीवन की लय को ताल देती है। जीवन का यह संगीत भारत के जनमानस का संगीत है। आततायियों के नगाड़ों का शोर इसे दबा नहीं पाता। एक अजब सी शक्ति से वह फिरफिर उठता है और करता हैएक और पुनर्निर्माण। निर्माण और विध्वंस की यही शृंखला इस कथा का आधार है।उपन्यास सोमनाथ Novel Somnathलेखक आचार्य चतुरसेन शास्त्री Writer Acharya Chatursen Shastriस्वर समीर गोस्वामी Narration Sameer Goswamihttps://kahanisuno.com/http://instagram.com/sameergoswamikahanisunohttps://www.facebook.com/kahanisuno/http://twitter.com/goswamisameer/https://sameergoswami.com

  • Somnath | Part - 91 Viyog Sanyog | A Novel by Acharaya Chatursen Shastri | Based on the attack of Mahmud of Ghazni at Somnath | सोमनाथ उपन्यास
    8 min 11 sec

    बारह ज्योतिर्लिंगों में सोमनाथ का अग्रणी स्थान है। अन्य विदेशी आक्रमणकारियों के अलावा महमूद गजनवी ने इस आदिमंदिर के वैभव को 16 बार लूटा। पर सूर्यवंशी राजाओं के पराक्रम से वह भय भी खाता था। फिर भी लूट का यह सिलसिला सदियों तक चला। यह सब इस उपन्यास की पृष्ठभूमि है।  सोमनाथ का दूसरा पक्ष भी है जो उपन्यास में जीवंत हुआ है। मंदिर के विशाल प्रांगण में गूंजती घुंघरुओं की झनकार इस जीवन की लय को ताल देती है। जीवन का यह संगीत भारत के जनमानस का संगीत है। आततायियों के नगाड़ों का शोर इसे दबा नहीं पाता। एक अजब सी शक्ति से वह फिरफिर उठता है और करता हैएक और पुनर्निर्माण। निर्माण और विध्वंस की यही शृंखला इस कथा का आधार है।उपन्यास सोमनाथ Novel Somnathलेखक आचार्य चतुरसेन शास्त्री Writer Acharya Chatursen Shastriस्वर समीर गोस्वामी Narration Sameer Goswamihttps://kahanisuno.com/http://instagram.com/sameergoswamikahanisunohttps://www.facebook.com/kahanisuno/http://twitter.com/goswamisameer/https://sameergoswami.com

  • Somnath | Part - 90 Khambhat | A Novel by Acharaya Chatursen Shastri | Based on the attack of Mahmud of Ghazni at Somnath | सोमनाथ उपन्यास
    5 min 44 sec

    बारह ज्योतिर्लिंगों में सोमनाथ का अग्रणी स्थान है। अन्य विदेशी आक्रमणकारियों के अलावा महमूद गजनवी ने इस आदिमंदिर के वैभव को 16 बार लूटा। पर सूर्यवंशी राजाओं के पराक्रम से वह भय भी खाता था। फिर भी लूट का यह सिलसिला सदियों तक चला। यह सब इस उपन्यास की पृष्ठभूमि है।  सोमनाथ का दूसरा पक्ष भी है जो उपन्यास में जीवंत हुआ है। मंदिर के विशाल प्रांगण में गूंजती घुंघरुओं की झनकार इस जीवन की लय को ताल देती है। जीवन का यह संगीत भारत के जनमानस का संगीत है। आततायियों के नगाड़ों का शोर इसे दबा नहीं पाता। एक अजब सी शक्ति से वह फिरफिर उठता है और करता हैएक और पुनर्निर्माण। निर्माण और विध्वंस की यही शृंखला इस कथा का आधार है।उपन्यास सोमनाथ Novel Somnathलेखक आचार्य चतुरसेन शास्त्री Writer Acharya Chatursen Shastriस्वर समीर गोस्वामी Narration Sameer Goswamihttps://kahanisuno.com/http://instagram.com/sameergoswamikahanisunohttps://www.facebook.com/kahanisuno/http://twitter.com/goswamisameer/https://sameergoswami.com

  • Somnath | Part - 87 Gandawa Durg | A Novel by Acharaya Chatursen Shastri | Based on the attack of Mahmud of Ghazni at Somnath | सोमनाथ उपन्यास
    9 min 59 sec

    बारह ज्योतिर्लिंगों में सोमनाथ का अग्रणी स्थान है। अन्य विदेशी आक्रमणकारियों के अलावा महमूद गजनवी ने इस आदिमंदिर के वैभव को 16 बार लूटा। पर सूर्यवंशी राजाओं के पराक्रम से वह भय भी खाता था। फिर भी लूट का यह सिलसिला सदियों तक चला। यह सब इस उपन्यास की पृष्ठभूमि है।  सोमनाथ का दूसरा पक्ष भी है जो उपन्यास में जीवंत हुआ है। मंदिर के विशाल प्रांगण में गूंजती घुंघरुओं की झनकार इस जीवन की लय को ताल देती है। जीवन का यह संगीत भारत के जनमानस का संगीत है। आततायियों के नगाड़ों का शोर इसे दबा नहीं पाता। एक अजब सी शक्ति से वह फिरफिर उठता है और करता हैएक और पुनर्निर्माण। निर्माण और विध्वंस की यही शृंखला इस कथा का आधार है।उपन्यास सोमनाथ Novel Somnathलेखक आचार्य चतुरसेन शास्त्री Writer Acharya Chatursen Shastriस्वर समीर गोस्वामी Narration Sameer Goswamihttps://kahanisuno.com/http://instagram.com/sameergoswamikahanisunohttps://www.facebook.com/kahanisuno/http://twitter.com/goswamisameer/https://sameergoswami.com

  • Somnath | Part - 84 Aatm Yagya | A Novel by Acharaya Chatursen Shastri | Based on the attack of Mahmud of Ghazni at Somnath | सोमनाथ उपन्यास
    6 min 14 sec

    बारह ज्योतिर्लिंगों में सोमनाथ का अग्रणी स्थान है। अन्य विदेशी आक्रमणकारियों के अलावा महमूद गजनवी ने इस आदिमंदिर के वैभव को 16 बार लूटा। पर सूर्यवंशी राजाओं के पराक्रम से वह भय भी खाता था। फिर भी लूट का यह सिलसिला सदियों तक चला। यह सब इस उपन्यास की पृष्ठभूमि है।  सोमनाथ का दूसरा पक्ष भी है जो उपन्यास में जीवंत हुआ है। मंदिर के विशाल प्रांगण में गूंजती घुंघरुओं की झनकार इस जीवन की लय को ताल देती है। जीवन का यह संगीत भारत के जनमानस का संगीत है। आततायियों के नगाड़ों का शोर इसे दबा नहीं पाता। एक अजब सी शक्ति से वह फिरफिर उठता है और करता हैएक और पुनर्निर्माण। निर्माण और विध्वंस की यही शृंखला इस कथा का आधार है।उपन्यास सोमनाथ Novel Somnathलेखक आचार्य चतुरसेन शास्त्री Writer Acharya Chatursen Shastriस्वर समीर गोस्वामी Narration Sameer Goswamihttps://kahanisuno.com/http://instagram.com/sameergoswamikahanisunohttps://www.facebook.com/kahanisuno/http://twitter.com/goswamisameer/https://sameergoswami.com

  • Somnath | Part - 83 Dharmanushasan | A Novel by Acharaya Chatursen Shastri | Based on the attack of Mahmud of Ghazni at Somnath | सोमनाथ उपन्यास
    5 min 56 sec

    बारह ज्योतिर्लिंगों में सोमनाथ का अग्रणी स्थान है। अन्य विदेशी आक्रमणकारियों के अलावा महमूद गजनवी ने इस आदिमंदिर के वैभव को 16 बार लूटा। पर सूर्यवंशी राजाओं के पराक्रम से वह भय भी खाता था। फिर भी लूट का यह सिलसिला सदियों तक चला। यह सब इस उपन्यास की पृष्ठभूमि है।  सोमनाथ का दूसरा पक्ष भी है जो उपन्यास में जीवंत हुआ है। मंदिर के विशाल प्रांगण में गूंजती घुंघरुओं की झनकार इस जीवन की लय को ताल देती है। जीवन का यह संगीत भारत के जनमानस का संगीत है। आततायियों के नगाड़ों का शोर इसे दबा नहीं पाता। एक अजब सी शक्ति से वह फिरफिर उठता है और करता हैएक और पुनर्निर्माण। निर्माण और विध्वंस की यही शृंखला इस कथा का आधार है।उपन्यास सोमनाथ Novel Somnathलेखक आचार्य चतुरसेन शास्त्री Writer Acharya Chatursen Shastriस्वर समीर गोस्वामी Narration Sameer Goswamihttps://kahanisuno.com/http://instagram.com/sameergoswamikahanisunohttps://www.facebook.com/kahanisuno/http://twitter.com/goswamisameer/https://sameergoswami.com

  • Somnath | Part - 82 Chhatra Bhang | A Novel by Acharaya Chatursen Shastri | Based on the attack of Mahmud of Ghazni at Somnath | सोमनाथ उपन्यास
    4 min 16 sec

    बारह ज्योतिर्लिंगों में सोमनाथ का अग्रणी स्थान है। अन्य विदेशी आक्रमणकारियों के अलावा महमूद गजनवी ने इस आदिमंदिर के वैभव को 16 बार लूटा। पर सूर्यवंशी राजाओं के पराक्रम से वह भय भी खाता था। फिर भी लूट का यह सिलसिला सदियों तक चला। यह सब इस उपन्यास की पृष्ठभूमि है।  सोमनाथ का दूसरा पक्ष भी है जो उपन्यास में जीवंत हुआ है। मंदिर के विशाल प्रांगण में गूंजती घुंघरुओं की झनकार इस जीवन की लय को ताल देती है। जीवन का यह संगीत भारत के जनमानस का संगीत है। आततायियों के नगाड़ों का शोर इसे दबा नहीं पाता। एक अजब सी शक्ति से वह फिरफिर उठता है और करता हैएक और पुनर्निर्माण। निर्माण और विध्वंस की यही शृंखला इस कथा का आधार है।उपन्यास सोमनाथ Novel Somnathलेखक आचार्य चतुरसेन शास्त्री Writer Acharya Chatursen Shastriस्वर समीर गोस्वामी Narration Sameer Goswamihttps://kahanisuno.com/http://instagram.com/sameergoswamikahanisunohttps://www.facebook.com/kahanisuno/http://twitter.com/goswamisameer/https://sameergoswami.com

  • Vardan | Part - 25 | A Novel by Munshi Premchand | वरदान | मुंशी प्रेमचंद का लिखा उपन्यास
    20 min 56 sec

    इस उपन्यास में मुंशी प्रेमचंद ने बचपन में साथ खेले व बढ़े हुए, भावी जीवन की सुन्दर कल्पनाएँ संजोने वाले दो प्रेमियों की दुखांत प्रेमकहानी प्रस्तुत की है।उपन्यास वरदान Novel Vardanलेखक मुंशी प्रेमचंद  Writer Munshi Premchandस्वर समीर गोस्वामी Narration Sameer Goswamihttps://kahanisuno.com/http://instagram.com/sameergoswamikahanisunohttps://www.facebook.com/kahanisuno/http://twitter.com/goswamisameer/https://sameergoswami.com

  • Vardan | Part - 24 | A Novel by Munshi Premchand | वरदान | मुंशी प्रेमचंद का लिखा उपन्यास
    22 min 33 sec

    इस उपन्यास में मुंशी प्रेमचंद ने बचपन में साथ खेले व बढ़े हुए, भावी जीवन की सुन्दर कल्पनाएँ संजोने वाले दो प्रेमियों की दुखांत प्रेमकहानी प्रस्तुत की है।उपन्यास वरदान Novel Vardanलेखक मुंशी प्रेमचंद  Writer Munshi Premchandस्वर समीर गोस्वामी Narration Sameer Goswamihttps://kahanisuno.com/http://instagram.com/sameergoswamikahanisunohttps://www.facebook.com/kahanisuno/http://twitter.com/goswamisameer/https://sameergoswami.com

  • Vardan | Part - 21 | A Novel by Munshi Premchand | वरदान | मुंशी प्रेमचंद का लिखा उपन्यास
    11 min 17 sec

    इस उपन्यास में मुंशी प्रेमचंद ने बचपन में साथ खेले व बढ़े हुए, भावी जीवन की सुन्दर कल्पनाएँ संजोने वाले दो प्रेमियों की दुखांत प्रेमकहानी प्रस्तुत की है।उपन्यास वरदान Novel Vardanलेखक मुंशी प्रेमचंद  Writer Munshi Premchandस्वर समीर गोस्वामी Narration Sameer Goswamihttps://kahanisuno.com/http://instagram.com/sameergoswamikahanisunohttps://www.facebook.com/kahanisuno/http://twitter.com/goswamisameer/https://sameergoswami.com

  • Vardan | Part - 15 | A Novel by Munshi Premchand | वरदान | मुंशी प्रेमचंद का लिखा उपन्यास
    17 min 38 sec

    इस उपन्यास में मुंशी प्रेमचंद ने बचपन में साथ खेले व बढ़े हुए, भावी जीवन की सुन्दर कल्पनाएँ संजोने वाले दो प्रेमियों की दुखांत प्रेमकहानी प्रस्तुत की है।उपन्यास वरदान Novel Vardanलेखक मुंशी प्रेमचंद  Writer Munshi Premchandस्वर समीर गोस्वामी Narration Sameer Goswamihttps://kahanisuno.com/http://instagram.com/sameergoswamikahanisunohttps://www.facebook.com/kahanisuno/http://twitter.com/goswamisameer/https://sameergoswami.com

  • Vardan | Part - 14 | A Novel by Munshi Premchand | वरदान | मुंशी प्रेमचंद का लिखा उपन्यास
    10 min 19 sec

    इस उपन्यास में मुंशी प्रेमचंद ने बचपन में साथ खेले व बढ़े हुए, भावी जीवन की सुन्दर कल्पनाएँ संजोने वाले दो प्रेमियों की दुखांत प्रेमकहानी प्रस्तुत की है।उपन्यास वरदान Novel Vardanलेखक मुंशी प्रेमचंद  Writer Munshi Premchandस्वर समीर गोस्वामी Narration Sameer Goswamihttps://kahanisuno.com/http://instagram.com/sameergoswamikahanisunohttps://www.facebook.com/kahanisuno/http://twitter.com/goswamisameer/https://sameergoswami.com

  • Vardan | Part - 13 | A Novel by Munshi Premchand | वरदान | मुंशी प्रेमचंद का लिखा उपन्यास
    14 min 37 sec

    इस उपन्यास में मुंशी प्रेमचंद ने बचपन में साथ खेले व बढ़े हुए, भावी जीवन की सुन्दर कल्पनाएँ संजोने वाले दो प्रेमियों की दुखांत प्रेमकहानी प्रस्तुत की है।उपन्यास वरदान Novel Vardanलेखक मुंशी प्रेमचंद  Writer Munshi Premchandस्वर समीर गोस्वामी Narration Sameer Goswamihttps://kahanisuno.com/http://instagram.com/sameergoswamikahanisunohttps://www.facebook.com/kahanisuno/http://twitter.com/goswamisameer/https://sameergoswami.com

  • Vardan | Part - 5 | A Novel by Munshi Premchand | वरदान | मुंशी प्रेमचंद का लिखा उपन्यास
    9 min 40 sec

    इस उपन्यास में मुंशी प्रेमचंद ने बचपन में साथ खेले व बढ़े हुए, भावी जीवन की सुन्दर कल्पनाएँ संजोने वाले दो प्रेमियों की दुखांत प्रेमकहानी प्रस्तुत की है।उपन्यास वरदान Novel Vardanलेखक मुंशी प्रेमचंद  Writer Munshi Premchandस्वर समीर गोस्वामी Narration Sameer Goswamihttps://kahanisuno.com/http://instagram.com/sameergoswamikahanisunohttps://www.facebook.com/kahanisuno/http://twitter.com/goswamisameer/https://sameergoswami.com

  • Prema | Part - 11 | A Novel by Munshi Premchand | प्रेमा | मुंशी प्रेमचंद का लिखा उपन्यास
    27 min 33 sec

    इस उपन्यास में मुंशी प्रेमचंद ने तयशुदा स्थान पर विवाह न कर एक विधवा से विवाह कर उसका जीवन सुधारने वाले एक साहसी समाज सुधारक युवक की कहानी प्रस्तुत की है।उपन्यास प्रेमा Novel Premaलेखक मुंशी प्रेमचंद  Writer Munshi Premchandस्वर समीर गोस्वामी Narration Sameer Goswamihttps://kahanisuno.com/http://instagram.com/sameergoswamikahanisunohttps://www.facebook.com/kahanisuno/http://twitter.com/goswamisameer/https://sameergoswami.com

  • Prema | Part - 10 | A Novel by Munshi Premchand | प्रेमा | मुंशी प्रेमचंद का लिखा उपन्यास
    22 min 15 sec

    इस उपन्यास में मुंशी प्रेमचंद ने तयशुदा स्थान पर विवाह न कर एक विधवा से विवाह कर उसका जीवन सुधारने वाले एक साहसी समाज सुधारक युवक की कहानी प्रस्तुत की है।उपन्यास प्रेमा Novel Premaलेखक मुंशी प्रेमचंद  Writer Munshi Premchandस्वर समीर गोस्वामी Narration Sameer Goswamihttps://kahanisuno.com/http://instagram.com/sameergoswamikahanisunohttps://www.facebook.com/kahanisuno/http://twitter.com/goswamisameer/https://sameergoswami.com

  • Prema | Part - 8 | A Novel by Munshi Premchand | प्रेमा | मुंशी प्रेमचंद का लिखा उपन्यास
    19 min 33 sec

    इस उपन्यास में मुंशी प्रेमचंद ने तयशुदा स्थान पर विवाह न कर एक विधवा से विवाह कर उसका जीवन सुधारने वाले एक साहसी समाज सुधारक युवक की कहानी प्रस्तुत की है।उपन्यास प्रेमा Novel Premaलेखक मुंशी प्रेमचंद  Writer Munshi Premchandस्वर समीर गोस्वामी Narration Sameer Goswamihttps://kahanisuno.com/http://instagram.com/sameergoswamikahanisunohttps://www.facebook.com/kahanisuno/http://twitter.com/goswamisameer/https://sameergoswami.com

  • Gora | Part - 76 | A Novel by Rabindranath Tagore| गोरा | रवीन्द्रनाथ टैगोर का लिखा उपन्यास
    10 min 9 sec

    इस उपन्यास में रवीन्द्रनाथ टैगोर ने खुद के गोद लिए जाने व आयरिश मातापिता की संतान होने, का पता चलने पर, एक राष्ट्रवादी कट्टर हिन्दू व्यक्ति के मन में मची उथलपुथल व व्यवहार में आए बदलाव की कहानी प्रस्तुत की है।उपन्यास गोरा Novel Goraलेखक रवीन्द्रनाथ टैगोर Writer Rabindranath Tagoreस्वर समीर गोस्वामी Narration Sameer Goswamihttps://kahanisuno.com/http://instagram.com/sameergoswamikahanisunohttps://www.facebook.com/kahanisuno/http://twitter.com/goswamisameer/https://sameergoswami.com

  • Gora | Part - 74 | A Novel by Rabindranath Tagore| गोरा | रवीन्द्रनाथ टैगोर का लिखा उपन्यास
    13 min 55 sec

    इस उपन्यास में रवीन्द्रनाथ टैगोर ने खुद के गोद लिए जाने व आयरिश मातापिता की संतान होने, का पता चलने पर, एक राष्ट्रवादी कट्टर हिन्दू व्यक्ति के मन में मची उथलपुथल व व्यवहार में आए बदलाव की कहानी प्रस्तुत की है।उपन्यास गोरा Novel Goraलेखक रवीन्द्रनाथ टैगोर Writer Rabindranath Tagoreस्वर समीर गोस्वामी Narration Sameer Goswamihttps://kahanisuno.com/http://instagram.com/sameergoswamikahanisunohttps://www.facebook.com/kahanisuno/http://twitter.com/goswamisameer/https://sameergoswami.com

  • Gora | Part - 70 | A Novel by Rabindranath Tagore| गोरा | रवीन्द्रनाथ टैगोर का लिखा उपन्यास
    15 min 1 sec

    इस उपन्यास में रवीन्द्रनाथ टैगोर ने खुद के गोद लिए जाने व आयरिश मातापिता की संतान होने, का पता चलने पर, एक राष्ट्रवादी कट्टर हिन्दू व्यक्ति के मन में मची उथलपुथल व व्यवहार में आए बदलाव की कहानी प्रस्तुत की है।उपन्यास गोरा Novel Goraलेखक रवीन्द्रनाथ टैगोर Writer Rabindranath Tagoreस्वर समीर गोस्वामी Narration Sameer Goswamihttps://kahanisuno.com/http://instagram.com/sameergoswamikahanisunohttps://www.facebook.com/kahanisuno/http://twitter.com/goswamisameer/https://sameergoswami.com

  • Calliope Ka Hriday Parivartan | A Story Written by O Henry | ओ॰ हेनरी की लिखी कहानी कैलियोप का हृदय परिवर्तन
    23 min 14 sec

    English Name of the Story Calliope Ka Hriday Parivartanलेखक ओ॰ हेनरी  Writer O Henryस्वर समीर गोस्वामी Narration Sameer Goswamihttps://kahanisuno.com/http://instagram.com/sameergoswamikahanisunohttps://www.facebook.com/kahanisuno/http://twitter.com/goswamisameer/https://sameergoswami.com

  • Goli | Part - 64 | A Novel by Acharya Chatursen Shastri | गोली | आचार्य चतुरसेन शास्त्री का लिखा उपन्यास
    18 min 26 sec

    इस उपन्यास में आचार्य चतुरसेन शास्त्री ने राजस्थान के राजाओं के महलों में  रनिवासों, डयोड़ियों के अंदर स्त्रियों के साथ होने वाले अनाचार, व्यभिचार व वहाँ के नारकीय जीवन की झलक के साथ राजाओं की सनक, फ़िज़ूलख़र्ची व निरंकुशता की कहानी प्रस्तुत की है।उपन्यास गोली Novel Goliलेखक आचार्य चतुरसेन शास्त्री  Writer Acharya Chatursen Shastriस्वर समीर गोस्वामी Narration Sameer Goswamihttps://kahanisuno.com/http://instagram.com/sameergoswamikahanisunohttps://www.facebook.com/kahanisuno/http://twitter.com/goswamisameer/https://sameergoswami.com

  • Goli | Part - 63 | A Novel by Acharya Chatursen Shastri | गोली | आचार्य चतुरसेन शास्त्री का लिखा उपन्यास
    4 min 30 sec

    इस उपन्यास में आचार्य चतुरसेन शास्त्री ने राजस्थान के राजाओं के महलों में  रनिवासों, डयोड़ियों के अंदर स्त्रियों के साथ होने वाले अनाचार, व्यभिचार व वहाँ के नारकीय जीवन की झलक के साथ राजाओं की सनक, फ़िज़ूलख़र्ची व निरंकुशता की कहानी प्रस्तुत की है।उपन्यास गोली Novel Goliलेखक आचार्य चतुरसेन शास्त्री  Writer Acharya Chatursen Shastriस्वर समीर गोस्वामी Narration Sameer Goswamihttps://kahanisuno.com/http://instagram.com/sameergoswamikahanisunohttps://www.facebook.com/kahanisuno/http://twitter.com/goswamisameer/https://sameergoswami.com

  • Goli | Part - 61 | A Novel by Acharya Chatursen Shastri | गोली | आचार्य चतुरसेन शास्त्री का लिखा उपन्यास
    5 min 25 sec

    इस उपन्यास में आचार्य चतुरसेन शास्त्री ने राजस्थान के राजाओं के महलों में  रनिवासों, डयोड़ियों के अंदर स्त्रियों के साथ होने वाले अनाचार, व्यभिचार व वहाँ के नारकीय जीवन की झलक के साथ राजाओं की सनक, फ़िज़ूलख़र्ची व निरंकुशता की कहानी प्रस्तुत की है।उपन्यास गोली Novel Goliलेखक आचार्य चतुरसेन शास्त्री  Writer Acharya Chatursen Shastriस्वर समीर गोस्वामी Narration Sameer Goswamihttps://kahanisuno.com/http://instagram.com/sameergoswamikahanisunohttps://www.facebook.com/kahanisuno/http://twitter.com/goswamisameer/https://sameergoswami.com

  • Goli | Part - 57 | A Novel by Acharya Chatursen Shastri | गोली | आचार्य चतुरसेन शास्त्री का लिखा उपन्यास
    5 min 13 sec

    इस उपन्यास में आचार्य चतुरसेन शास्त्री ने राजस्थान के राजाओं के महलों में  रनिवासों, डयोड़ियों के अंदर स्त्रियों के साथ होने वाले अनाचार, व्यभिचार व वहाँ के नारकीय जीवन की झलक के साथ राजाओं की सनक, फ़िज़ूलख़र्ची व निरंकुशता की कहानी प्रस्तुत की है।उपन्यास गोली Novel Goliलेखक आचार्य चतुरसेन शास्त्री  Writer Acharya Chatursen Shastriस्वर समीर गोस्वामी Narration Sameer Goswamihttps://kahanisuno.com/http://instagram.com/sameergoswamikahanisunohttps://www.facebook.com/kahanisuno/http://twitter.com/goswamisameer/https://sameergoswami.com

  • Goli | Part - 56 | A Novel by Acharya Chatursen Shastri | गोली | आचार्य चतुरसेन शास्त्री का लिखा उपन्यास
    8 min 5 sec

    इस उपन्यास में आचार्य चतुरसेन शास्त्री ने राजस्थान के राजाओं के महलों में  रनिवासों, डयोड़ियों के अंदर स्त्रियों के साथ होने वाले अनाचार, व्यभिचार व वहाँ के नारकीय जीवन की झलक के साथ राजाओं की सनक, फ़िज़ूलख़र्ची व निरंकुशता की कहानी प्रस्तुत की है।उपन्यास गोली Novel Goliलेखक आचार्य चतुरसेन शास्त्री  Writer Acharya Chatursen Shastriस्वर समीर गोस्वामी Narration Sameer Goswamihttps://kahanisuno.com/http://instagram.com/sameergoswamikahanisunohttps://www.facebook.com/kahanisuno/http://twitter.com/goswamisameer/https://sameergoswami.com

  • Goli | Part - 55 | A Novel by Acharya Chatursen Shastri | गोली | आचार्य चतुरसेन शास्त्री का लिखा उपन्यास
    5 min 34 sec

    इस उपन्यास में आचार्य चतुरसेन शास्त्री ने राजस्थान के राजाओं के महलों में  रनिवासों, डयोड़ियों के अंदर स्त्रियों के साथ होने वाले अनाचार, व्यभिचार व वहाँ के नारकीय जीवन की झलक के साथ राजाओं की सनक, फ़िज़ूलख़र्ची व निरंकुशता की कहानी प्रस्तुत की है।उपन्यास गोली Novel Goliलेखक आचार्य चतुरसेन शास्त्री  Writer Acharya Chatursen Shastriस्वर समीर गोस्वामी Narration Sameer Goswamihttps://kahanisuno.com/http://instagram.com/sameergoswamikahanisunohttps://www.facebook.com/kahanisuno/http://twitter.com/goswamisameer/https://sameergoswami.com

  • Goli | Part - 53 | A Novel by Acharya Chatursen Shastri | गोली | आचार्य चतुरसेन शास्त्री का लिखा उपन्यास
    8 min 19 sec

    इस उपन्यास में आचार्य चतुरसेन शास्त्री ने राजस्थान के राजाओं के महलों में  रनिवासों, डयोड़ियों के अंदर स्त्रियों के साथ होने वाले अनाचार, व्यभिचार व वहाँ के नारकीय जीवन की झलक के साथ राजाओं की सनक, फ़िज़ूलख़र्ची व निरंकुशता की कहानी प्रस्तुत की है।उपन्यास गोली Novel Goliलेखक आचार्य चतुरसेन शास्त्री  Writer Acharya Chatursen Shastriस्वर समीर गोस्वामी Narration Sameer Goswamihttps://kahanisuno.com/http://instagram.com/sameergoswamikahanisunohttps://www.facebook.com/kahanisuno/http://twitter.com/goswamisameer/https://sameergoswami.com

  • Goli | Part - 52 | A Novel by Acharya Chatursen Shastri | गोली | आचार्य चतुरसेन शास्त्री का लिखा उपन्यास
    12 min 38 sec

    इस उपन्यास में आचार्य चतुरसेन शास्त्री ने राजस्थान के राजाओं के महलों में  रनिवासों, डयोड़ियों के अंदर स्त्रियों के साथ होने वाले अनाचार, व्यभिचार व वहाँ के नारकीय जीवन की झलक के साथ राजाओं की सनक, फ़िज़ूलख़र्ची व निरंकुशता की कहानी प्रस्तुत की है।उपन्यास गोली Novel Goliलेखक आचार्य चतुरसेन शास्त्री  Writer Acharya Chatursen Shastriस्वर समीर गोस्वामी Narration Sameer Goswamihttps://kahanisuno.com/http://instagram.com/sameergoswamikahanisunohttps://www.facebook.com/kahanisuno/http://twitter.com/goswamisameer/https://sameergoswami.com

  • Ek Aadmi Ko Kitni Bhoomi Chahiye | A Story Written by Leo Tolstoy | लियो टॉलस्टॉय की लिखी कहानी - एक आदमी को कितनी भूमि चाहिए
    17 min 55 sec

    English Name of the Story Ek Aadmi Ko Kitni Bhoomi Chahiyeलेखक लियो टॉलस्टॉय  Writer Leo Tolstoyस्वर समीर गोस्वामी Narration Sameer Goswamihttps://kahanisuno.com/http://instagram.com/sameergoswamikahanisunohttps://www.facebook.com/kahanisuno/http://twitter.com/goswamisameer/https://sameergoswami.com

  • Do Vriddh Purush | A Story Written by Leo Tolstoy | लियो टॉलस्टॉय की लिखी कहानी - दो वृद्ध पुरुष
    22 min 34 sec

    English Name of the Story Do Vriddh Purushलेखक लियो टॉलस्टॉय  Writer Leo Tolstoyस्वर समीर गोस्वामी Narration Sameer Goswamihttps://kahanisuno.com/http://instagram.com/sameergoswamikahanisunohttps://www.facebook.com/kahanisuno/http://twitter.com/goswamisameer/https://sameergoswami.com

  • Dayalu Swami | A Story Written by Leo Tolstoy | लियो टॉलस्टॉय की लिखी कहानी - दयालू स्वामी
    4 min 39 sec

    English Name of the Story Dayalu Swamiलेखक लियो टॉलस्टॉय  Writer Leo Tolstoyस्वर समीर गोस्वामी Narration Sameer Goswamihttps://kahanisuno.com/http://instagram.com/sameergoswamikahanisunohttps://www.facebook.com/kahanisuno/http://twitter.com/goswamisameer/https://sameergoswami.com

  • Ande Ke Barabar Dana | A Story Written by Leo Tolstoy | लियो टॉलस्टॉय की लिखी कहानी - अंडे के बराबर दाना
    5 min 35 sec

    English Name of the Story Ande Ke Barabar Danaलेखक लियो टॉलस्टॉय  Writer Leo Tolstoyस्वर समीर गोस्वामी Narration Sameer Goswamihttps://kahanisuno.com/http://instagram.com/sameergoswamikahanisunohttps://www.facebook.com/kahanisuno/http://twitter.com/goswamisameer/https://sameergoswami.com

  • Christmas Ka Moza | A Story Written by O Henry | ओ॰ हेनरी की लिखी कहानी - क्रिसमस का मोज़ा
    45 min 29 sec

    English Name of the Story Christmas Ka Mozaलेखक ओ॰ हेनरी  Writer O Henryस्वर समीर गोस्वामी Narration Sameer Goswamihttps://kahanisuno.com/http://instagram.com/sameergoswamikahanisunohttps://www.facebook.com/kahanisuno/http://twitter.com/goswamisameer/https://sameergoswami.com

  • Vaasanti Menu | A Story Written by O Henry | ओ॰ हेनरी की लिखी कहानी - वासंती मेनू
    18 min 8 sec

    English Name of the Story Vaasanti Menuलेखक ओ॰ हेनरी  Writer O Henryस्वर समीर गोस्वामी Narration Sameer Goswamihttps://kahanisuno.com/http://instagram.com/sameergoswamikahanisunohttps://www.facebook.com/kahanisuno/http://twitter.com/goswamisameer/https://sameergoswami.com

  • Madison Chowk Ki Alif Laila | A Story Written by O Henry | ओ॰ हेनरी की लिखी कहानी - मेडिसन चौक की अलिफ़ लैला
    17 min 53 sec

    English Name of the Story Madison Chowk Ki Alif Lailaलेखक ओ॰ हेनरी  Writer O Henryस्वर समीर गोस्वामी Narration Sameer Goswamihttps://kahanisuno.com/http://instagram.com/sameergoswamikahanisunohttps://www.facebook.com/kahanisuno/http://twitter.com/goswamisameer/https://sameergoswami.com

  • Jeevan Chakra | A Story Written by O Henry | ओ॰ हेनरी की लिखी कहानी - जीवन चक्र
    16 min 11 sec

    English Name of the Story Jeevan Chakraलेखक ओ॰ हेनरी  Writer O Henryस्वर समीर गोस्वामी Narration Sameer Goswamihttps://kahanisuno.com/http://instagram.com/sameergoswamikahanisunohttps://www.facebook.com/kahanisuno/http://twitter.com/goswamisameer/https://sameergoswami.com

  • Jasoos | A Story Written by O Henry | ओ॰ हेनरी की लिखी कहानी - जासूस
    26 min 23 sec

    English Name of the Story Jasoosलेखक ओ॰ हेनरी  Writer O Henryस्वर समीर गोस्वामी Narration Sameer Goswamihttps://kahanisuno.com/http://instagram.com/sameergoswamikahanisunohttps://www.facebook.com/kahanisuno/http://twitter.com/goswamisameer/https://sameergoswami.com

  • Goli | Part - 31 | A Novel by Acharya Chatursen Shastri | गोली | आचार्य चतुरसेन शास्त्री का लिखा उपन्यास
    6 min 15 sec

    इस उपन्यास में आचार्य चतुरसेन शास्त्री ने राजस्थान के राजाओं के महलों में  रनिवासों, डयोड़ियों के अंदर स्त्रियों के साथ होने वाले अनाचार, व्यभिचार व वहाँ के नारकीय जीवन की झलक के साथ राजाओं की सनक, फ़िज़ूलख़र्ची व निरंकुशता की कहानी प्रस्तुत की है।उपन्यास गोली Novel Goliलेखक आचार्य चतुरसेन शास्त्री  Writer Acharya Chatursen Shastriस्वर समीर गोस्वामी Narration Sameer Goswamihttps://kahanisuno.com/http://instagram.com/sameergoswamikahanisunohttps://www.facebook.com/kahanisuno/http://twitter.com/goswamisameer/https://sameergoswami.com

  • Goli | Part - 28 | A Novel by Acharya Chatursen Shastri | गोली | आचार्य चतुरसेन शास्त्री का लिखा उपन्यास
    6 min 32 sec

    इस उपन्यास में आचार्य चतुरसेन शास्त्री ने राजस्थान के राजाओं के महलों में  रनिवासों, डयोड़ियों के अंदर स्त्रियों के साथ होने वाले अनाचार, व्यभिचार व वहाँ के नारकीय जीवन की झलक के साथ राजाओं की सनक, फ़िज़ूलख़र्ची व निरंकुशता की कहानी प्रस्तुत की है।उपन्यास गोली Novel Goliलेखक आचार्य चतुरसेन शास्त्री  Writer Acharya Chatursen Shastriस्वर समीर गोस्वामी Narration Sameer Goswamihttps://kahanisuno.com/http://instagram.com/sameergoswamikahanisunohttps://www.facebook.com/kahanisuno/http://twitter.com/goswamisameer/https://sameergoswami.com

  • Goli | Part - 24 | A Novel by Acharya Chatursen Shastri | गोली | आचार्य चतुरसेन शास्त्री का लिखा उपन्यास
    11 min 33 sec

    इस उपन्यास में आचार्य चतुरसेन शास्त्री ने राजस्थान के राजाओं के महलों में  रनिवासों, डयोड़ियों के अंदर स्त्रियों के साथ होने वाले अनाचार, व्यभिचार व वहाँ के नारकीय जीवन की झलक के साथ राजाओं की सनक, फ़िज़ूलख़र्ची व निरंकुशता की कहानी प्रस्तुत की है।उपन्यास गोली Novel Goliलेखक आचार्य चतुरसेन शास्त्री  Writer Acharya Chatursen Shastriस्वर समीर गोस्वामी Narration Sameer Goswamihttps://kahanisuno.com/http://instagram.com/sameergoswamikahanisunohttps://www.facebook.com/kahanisuno/http://twitter.com/goswamisameer/https://sameergoswami.com

  • Goli | Part - 23 | A Novel by Acharya Chatursen Shastri | गोली | आचार्य चतुरसेन शास्त्री का लिखा उपन्यास
    5 min 19 sec

    इस उपन्यास में आचार्य चतुरसेन शास्त्री ने राजस्थान के राजाओं के महलों में  रनिवासों, डयोड़ियों के अंदर स्त्रियों के साथ होने वाले अनाचार, व्यभिचार व वहाँ के नारकीय जीवन की झलक के साथ राजाओं की सनक, फ़िज़ूलख़र्ची व निरंकुशता की कहानी प्रस्तुत की है।उपन्यास गोली Novel Goliलेखक आचार्य चतुरसेन शास्त्री  Writer Acharya Chatursen Shastriस्वर समीर गोस्वामी Narration Sameer Goswamihttps://kahanisuno.com/http://instagram.com/sameergoswamikahanisunohttps://www.facebook.com/kahanisuno/http://twitter.com/goswamisameer/https://sameergoswami.com

  • Goli | Part - 22 | A Novel by Acharya Chatursen Shastri | गोली | आचार्य चतुरसेन शास्त्री का लिखा उपन्यास
    7 min 46 sec

    इस उपन्यास में आचार्य चतुरसेन शास्त्री ने राजस्थान के राजाओं के महलों में  रनिवासों, डयोड़ियों के अंदर स्त्रियों के साथ होने वाले अनाचार, व्यभिचार व वहाँ के नारकीय जीवन की झलक के साथ राजाओं की सनक, फ़िज़ूलख़र्ची व निरंकुशता की कहानी प्रस्तुत की है।उपन्यास गोली Novel Goliलेखक आचार्य चतुरसेन शास्त्री  Writer Acharya Chatursen Shastriस्वर समीर गोस्वामी Narration Sameer Goswamihttps://kahanisuno.com/http://instagram.com/sameergoswamikahanisunohttps://www.facebook.com/kahanisuno/http://twitter.com/goswamisameer/https://sameergoswami.com

  • Goli | Part - 20 | A Novel by Acharya Chatursen Shastri | गोली | आचार्य चतुरसेन शास्त्री का लिखा उपन्यास
    16 min 58 sec

    इस उपन्यास में आचार्य चतुरसेन शास्त्री ने राजस्थान के राजाओं के महलों में  रनिवासों, डयोड़ियों के अंदर स्त्रियों के साथ होने वाले अनाचार, व्यभिचार व वहाँ के नारकीय जीवन की झलक के साथ राजाओं की सनक, फ़िज़ूलख़र्ची व निरंकुशता की कहानी प्रस्तुत की है।उपन्यास गोली Novel Goliलेखक आचार्य चतुरसेन शास्त्री  Writer Acharya Chatursen Shastriस्वर समीर गोस्वामी Narration Sameer Goswamihttps://kahanisuno.com/http://instagram.com/sameergoswamikahanisunohttps://www.facebook.com/kahanisuno/http://twitter.com/goswamisameer/https://sameergoswami.com

  • Goli | Part - 19 | A Novel by Acharya Chatursen Shastri | गोली | आचार्य चतुरसेन शास्त्री का लिखा उपन्यास
    15 min 48 sec

    इस उपन्यास में आचार्य चतुरसेन शास्त्री ने राजस्थान के राजाओं के महलों में  रनिवासों, डयोड़ियों के अंदर स्त्रियों के साथ होने वाले अनाचार, व्यभिचार व वहाँ के नारकीय जीवन की झलक के साथ राजाओं की सनक, फ़िज़ूलख़र्ची व निरंकुशता की कहानी प्रस्तुत की है।उपन्यास गोली Novel Goliलेखक आचार्य चतुरसेन शास्त्री  Writer Acharya Chatursen Shastriस्वर समीर गोस्वामी Narration Sameer Goswamihttps://kahanisuno.com/http://instagram.com/sameergoswamikahanisunohttps://www.facebook.com/kahanisuno/http://twitter.com/goswamisameer/https://sameergoswami.com

  • Goli | Part - 17 | A Novel by Acharya Chatursen Shastri | गोली | आचार्य चतुरसेन शास्त्री का लिखा उपन्यास
    12 min 14 sec

    इस उपन्यास में आचार्य चतुरसेन शास्त्री ने राजस्थान के राजाओं के महलों में  रनिवासों, डयोड़ियों के अंदर स्त्रियों के साथ होने वाले अनाचार, व्यभिचार व वहाँ के नारकीय जीवन की झलक के साथ राजाओं की सनक, फ़िज़ूलख़र्ची व निरंकुशता की कहानी प्रस्तुत की है।उपन्यास गोली Novel Goliलेखक आचार्य चतुरसेन शास्त्री  Writer Acharya Chatursen Shastriस्वर समीर गोस्वामी Narration Sameer Goswamihttps://kahanisuno.com/http://instagram.com/sameergoswamikahanisunohttps://www.facebook.com/kahanisuno/http://twitter.com/goswamisameer/https://sameergoswami.com

  • Goli | Part - 14 | A Novel by Acharya Chatursen Shastri | गोली | आचार्य चतुरसेन शास्त्री का लिखा उपन्यास
    16 min 16 sec

    इस उपन्यास में आचार्य चतुरसेन शास्त्री ने राजस्थान के राजाओं के महलों में  रनिवासों, डयोड़ियों के अंदर स्त्रियों के साथ होने वाले अनाचार, व्यभिचार व वहाँ के नारकीय जीवन की झलक के साथ राजाओं की सनक, फ़िज़ूलख़र्ची व निरंकुशता की कहानी प्रस्तुत की है।उपन्यास गोली Novel Goliलेखक आचार्य चतुरसेन शास्त्री  Writer Acharya Chatursen Shastriस्वर समीर गोस्वामी Narration Sameer Goswamihttps://kahanisuno.com/http://instagram.com/sameergoswamikahanisunohttps://www.facebook.com/kahanisuno/http://twitter.com/goswamisameer/https://sameergoswami.com

  • Goli | Part - 13 | A Novel by Acharya Chatursen Shastri | गोली | आचार्य चतुरसेन शास्त्री का लिखा उपन्यास
    9 min 36 sec

    इस उपन्यास में आचार्य चतुरसेन शास्त्री ने राजस्थान के राजाओं के महलों में  रनिवासों, डयोड़ियों के अंदर स्त्रियों के साथ होने वाले अनाचार, व्यभिचार व वहाँ के नारकीय जीवन की झलक के साथ राजाओं की सनक, फ़िज़ूलख़र्ची व निरंकुशता की कहानी प्रस्तुत की है।उपन्यास गोली Novel Goliलेखक आचार्य चतुरसेन शास्त्री  Writer Acharya Chatursen Shastriस्वर समीर गोस्वामी Narration Sameer Goswamihttps://kahanisuno.com/http://instagram.com/sameergoswamikahanisunohttps://www.facebook.com/kahanisuno/http://twitter.com/goswamisameer/https://sameergoswami.com

  • Goli | Part - 12 | A Novel by Acharya Chatursen Shastri | गोली | आचार्य चतुरसेन शास्त्री का लिखा उपन्यास
    9 min 27 sec

    इस उपन्यास में आचार्य चतुरसेन शास्त्री ने राजस्थान के राजाओं के महलों में  रनिवासों, डयोड़ियों के अंदर स्त्रियों के साथ होने वाले अनाचार, व्यभिचार व वहाँ के नारकीय जीवन की झलक के साथ राजाओं की सनक, फ़िज़ूलख़र्ची व निरंकुशता की कहानी प्रस्तुत की है।उपन्यास गोली Novel Goliलेखक आचार्य चतुरसेन शास्त्री  Writer Acharya Chatursen Shastriस्वर समीर गोस्वामी Narration Sameer Goswamihttps://kahanisuno.com/http://instagram.com/sameergoswamikahanisunohttps://www.facebook.com/kahanisuno/http://twitter.com/goswamisameer/https://sameergoswami.com

  • Goli | Part - 7 | A Novel by Acharya Chatursen Shastri | गोली | आचार्य चतुरसेन शास्त्री का लिखा उपन्यास
    10 min 54 sec

    इस उपन्यास में आचार्य चतुरसेन शास्त्री ने राजस्थान के राजाओं के महलों में  रनिवासों, डयोड़ियों के अंदर स्त्रियों के साथ होने वाले अनाचार, व्यभिचार व वहाँ के नारकीय जीवन की झलक के साथ राजाओं की सनक, फ़िज़ूलख़र्ची व निरंकुशता की कहानी प्रस्तुत की है।उपन्यास गोली Novel Goliलेखक आचार्य चतुरसेन शास्त्री  Writer Acharya Chatursen Shastriस्वर समीर गोस्वामी Narration Sameer Goswamihttps://kahanisuno.com/http://instagram.com/sameergoswamikahanisunohttps://www.facebook.com/kahanisuno/http://twitter.com/goswamisameer/https://sameergoswami.com

  • Khooni Aurat Ka Saat Khoon | Part 7 | A Novel by Kishori Lal Goswami | खूनी औरत का सात खून | किशोरी लाल गोस्वामी का लिखा उपन्यास |
    7 min 34 sec

    एक अनाथ युवती द्वारा अपनी इज्जत बचाने की ख़ातिर बदमाशों से जूझने और इस दौरान कई खून के आरोप में युवती के फँसने व बरी होने की कहानी।उपन्यास खूनी औरत का सात खून Novel Khooni Aurat Ka Saat Khoonलेखक किशोरी लाल गोस्वामी Writer Kishori Lal Goswamiस्वर समीर गोस्वामी Narration Sameer Goswamihttps://kahanisuno.com/http://instagram.com/sameergoswamikahanisunohttps://www.facebook.com/kahanisuno/http://twitter.com/goswamisameer/https://sameergoswami.com

  • Khooni Aurat Ka Saat Khoon | Part 6 | A Novel by Kishori Lal Goswami | खूनी औरत का सात खून | किशोरी लाल गोस्वामी का लिखा उपन्यास |
    6 min 10 sec

    एक अनाथ युवती द्वारा अपनी इज्जत बचाने की ख़ातिर बदमाशों से जूझने और इस दौरान कई खून के आरोप में युवती के फँसने व बरी होने की कहानी।उपन्यास खूनी औरत का सात खून Novel Khooni Aurat Ka Saat Khoonलेखक किशोरी लाल गोस्वामी Writer Kishori Lal Goswamiस्वर समीर गोस्वामी Narration Sameer Goswamihttps://kahanisuno.com/http://instagram.com/sameergoswamikahanisunohttps://www.facebook.com/kahanisuno/http://twitter.com/goswamisameer/https://sameergoswami.com

  • Adhkhila Phool | Part- 27 | A Novel by Ayodhya Singh Upadhyay Hari Oudh | अधखिला फूल | अयोध्या सिंह उपाध्याय हरिऔध का लिखा उपन्यास |
    19 min 38 sec

    बालविवाह पश्चात पति के ग़ायब होने व पिता के सन्यासी बनने से व्यथित व दुखी एक अबोध बालिका को, अपने झूठे प्रेम जाल में फँसाने के लिए गाँव के एक रईस ज़मींदार पुत्र द्वारा अपनाई चालों, हथकंडो और बालिका के उनमें फँसने, मुक्त होने एवं अंत में पति व पिता के मिलने और अंतिम समय में ज़मींदार पुत्र के हृदय परिवर्तन की कहानी।उपन्यास अधखिला फूल Novel Adhkhila Phoolलेखक अयोध्या सिंह उपाध्याय हरिऔध Writer Ayodhya Singh Upadhyay Hari Oudhस्वर समीर गोस्वामी Narration Sameer Goswamihttps://kahanisuno.com/http://instagram.com/sameergoswamikahanisunohttps://www.facebook.com/kahanisuno/http://twitter.com/goswamisameer/https://sameergoswami.com

  • Adhkhila Phool | Part- 25 | A Novel by Ayodhya Singh Upadhyay Hari Oudh | अधखिला फूल | अयोध्या सिंह उपाध्याय हरिऔध का लिखा उपन्यास |
    14 min 58 sec

    बालविवाह पश्चात पति के ग़ायब होने व पिता के सन्यासी बनने से व्यथित व दुखी एक अबोध बालिका को, अपने झूठे प्रेम जाल में फँसाने के लिए गाँव के एक रईस ज़मींदार पुत्र द्वारा अपनाई चालों, हथकंडो और बालिका के उनमें फँसने, मुक्त होने एवं अंत में पति व पिता के मिलने और अंतिम समय में ज़मींदार पुत्र के हृदय परिवर्तन की कहानी।उपन्यास अधखिला फूल Novel Adhkhila Phoolलेखक अयोध्या सिंह उपाध्याय हरिऔध Writer Ayodhya Singh Upadhyay Hari Oudhस्वर समीर गोस्वामी Narration Sameer Goswamihttps://kahanisuno.com/http://instagram.com/sameergoswamikahanisunohttps://www.facebook.com/kahanisuno/http://twitter.com/goswamisameer/https://sameergoswami.com

  • Adhkhila Phool | Part- 22 | A Novel by Ayodhya Singh Upadhyay Hari Oudh | अधखिला फूल | अयोध्या सिंह उपाध्याय हरिऔध का लिखा उपन्यास |
    19 min 6 sec

    बालविवाह पश्चात पति के ग़ायब होने व पिता के सन्यासी बनने से व्यथित व दुखी एक अबोध बालिका को, अपने झूठे प्रेम जाल में फँसाने के लिए गाँव के एक रईस ज़मींदार पुत्र द्वारा अपनाई चालों, हथकंडो और बालिका के उनमें फँसने, मुक्त होने एवं अंत में पति व पिता के मिलने और अंतिम समय में ज़मींदार पुत्र के हृदय परिवर्तन की कहानी।उपन्यास अधखिला फूल Novel Adhkhila Phoolलेखक अयोध्या सिंह उपाध्याय हरिऔध Writer Ayodhya Singh Upadhyay Hari Oudhस्वर समीर गोस्वामी Narration Sameer Goswamihttps://kahanisuno.com/http://instagram.com/sameergoswamikahanisunohttps://www.facebook.com/kahanisuno/http://twitter.com/goswamisameer/https://sameergoswami.com

  • Adhkhila Phool | Part- 19 | A Novel by Ayodhya Singh Upadhyay Hari Oudh | अधखिला फूल | अयोध्या सिंह उपाध्याय हरिऔध का लिखा उपन्यास |
    12 min 53 sec

    बालविवाह पश्चात पति के ग़ायब होने व पिता के सन्यासी बनने से व्यथित व दुखी एक अबोध बालिका को, अपने झूठे प्रेम जाल में फँसाने के लिए गाँव के एक रईस ज़मींदार पुत्र द्वारा अपनाई चालों, हथकंडो और बालिका के उनमें फँसने, मुक्त होने एवं अंत में पति व पिता के मिलने और अंतिम समय में ज़मींदार पुत्र के हृदय परिवर्तन की कहानी।उपन्यास अधखिला फूल Novel Adhkhila Phoolलेखक अयोध्या सिंह उपाध्याय हरिऔध Writer Ayodhya Singh Upadhyay Hari Oudhस्वर समीर गोस्वामी Narration Sameer Goswamihttps://kahanisuno.com/http://instagram.com/sameergoswamikahanisunohttps://www.facebook.com/kahanisuno/http://twitter.com/goswamisameer/https://sameergoswami.com

  • Adhkhila Phool | Part- 14 | A Novel by Ayodhya Singh Upadhyay Hari Oudh | अधखिला फूल | अयोध्या सिंह उपाध्याय हरिऔध का लिखा उपन्यास |
    10 min 22 sec

    बालविवाह पश्चात पति के ग़ायब होने व पिता के सन्यासी बनने से व्यथित व दुखी एक अबोध बालिका को, अपने झूठे प्रेम जाल में फँसाने के लिए गाँव के एक रईस ज़मींदार पुत्र द्वारा अपनाई चालों, हथकंडो और बालिका के उनमें फँसने, मुक्त होने एवं अंत में पति व पिता के मिलने और अंतिम समय में ज़मींदार पुत्र के हृदय परिवर्तन की कहानी।उपन्यास अधखिला फूल Novel Adhkhila Phoolलेखक अयोध्या सिंह उपाध्याय हरिऔध Writer Ayodhya Singh Upadhyay Hari Oudhस्वर समीर गोस्वामी Narration Sameer Goswamihttps://kahanisuno.com/http://instagram.com/sameergoswamikahanisunohttps://www.facebook.com/kahanisuno/http://twitter.com/goswamisameer/https://sameergoswami.com

  • Adhkhila Phool | Part- 6 | A Novel by Ayodhya Singh Upadhyay Hari Oudh | अधखिला फूल | अयोध्या सिंह उपाध्याय हरिऔध का लिखा उपन्यास |
    10 min 7 sec

    बालविवाह पश्चात पति के ग़ायब होने व पिता के सन्यासी बनने से व्यथित व दुखी एक अबोध बालिका को, अपने झूठे प्रेम जाल में फँसाने के लिए गाँव के एक रईस ज़मींदार पुत्र द्वारा अपनाई चालों, हथकंडो और बालिका के उनमें फँसने, मुक्त होने एवं अंत में पति व पिता के मिलने और अंतिम समय में ज़मींदार पुत्र के हृदय परिवर्तन की कहानी।उपन्यास अधखिला फूल Novel Adhkhila Phoolलेखक अयोध्या सिंह उपाध्याय हरिऔध Writer Ayodhya Singh Upadhyay Hari Oudhस्वर समीर गोस्वामी Narration Sameer Goswamihttps://kahanisuno.com/http://instagram.com/sameergoswamikahanisunohttps://www.facebook.com/kahanisuno/http://twitter.com/goswamisameer/https://sameergoswami.com

  • Adhkhila Phool | Part- 5 | A Novel by Ayodhya Singh Upadhyay Hari Oudh | अधखिला फूल | अयोध्या सिंह उपाध्याय हरिऔध का लिखा उपन्यास |
    13 min 7 sec

    बालविवाह पश्चात पति के ग़ायब होने व पिता के सन्यासी बनने से व्यथित व दुखी एक अबोध बालिका को, अपने झूठे प्रेम जाल में फँसाने के लिए गाँव के एक रईस ज़मींदार पुत्र द्वारा अपनाई चालों, हथकंडो और बालिका के उनमें फँसने, मुक्त होने एवं अंत में पति व पिता के मिलने और अंतिम समय में ज़मींदार पुत्र के हृदय परिवर्तन की कहानी।उपन्यास अधखिला फूल Novel Adhkhila Phoolलेखक अयोध्या सिंह उपाध्याय हरिऔध Writer Ayodhya Singh Upadhyay Hari Oudhस्वर समीर गोस्वामी Narration Sameer Goswamihttps://kahanisuno.com/http://instagram.com/sameergoswamikahanisunohttps://www.facebook.com/kahanisuno/http://twitter.com/goswamisameer/https://sameergoswami.com

  • Adhkhila Phool | Part- 3 | A Novel by Ayodhya Singh Upadhyay Hari Oudh | अधखिला फूल | अयोध्या सिंह उपाध्याय हरिऔध का लिखा उपन्यास |
    8 min 34 sec

    बालविवाह पश्चात पति के ग़ायब होने व पिता के सन्यासी बनने से व्यथित व दुखी एक अबोध बालिका को, अपने झूठे प्रेम जाल में फँसाने के लिए गाँव के एक रईस ज़मींदार पुत्र द्वारा अपनाई चालों, हथकंडो और बालिका के उनमें फँसने, मुक्त होने एवं अंत में पति व पिता के मिलने और अंतिम समय में ज़मींदार पुत्र के हृदय परिवर्तन की कहानी।उपन्यास अधखिला फूल Novel Adhkhila Phoolलेखक अयोध्या सिंह उपाध्याय हरिऔध Writer Ayodhya Singh Upadhyay Hari Oudhस्वर समीर गोस्वामी Narration Sameer Goswamihttps://kahanisuno.com/http://instagram.com/sameergoswamikahanisunohttps://www.facebook.com/kahanisuno/http://twitter.com/goswamisameer/https://sameergoswami.com

  • Sukh Tyag Mein Hai | A Story Written by Leo Tolstoy | लियो टॉलस्टॉय की लिखी कहानी - सुख त्याग में है
    6 min 31 sec

    English Name of the Story Sukh Tyag Mein Haiलेखक लियो टॉलस्टॉय  Writer Leo Tolstoyस्वर समीर गोस्वामी Narration Sameer Goswamihttps://kahanisuno.com/http://instagram.com/sameergoswamikahanisunohttps://www.facebook.com/kahanisuno/http://twitter.com/goswamisameer/https://sameergoswami.com

  • Moorkh Sumant | A Story Written by Leo Tolstoy | लियो टॉलस्टॉय की लिखी कहानी - मूर्ख सुमंत
    43 min 12 sec

    English Name of the Story Moorkh Sumantलेखक लियो टॉलस्टॉय  Writer Leo Tolstoyस्वर समीर गोस्वामी Narration Sameer Goswamihttps://kahanisuno.com/http://instagram.com/sameergoswamikahanisunohttps://www.facebook.com/kahanisuno/http://twitter.com/goswamisameer/https://sameergoswami.com

  • Mansushya Ka Jeewan Aadhar Kya hai | A Story Written by Leo Tolstoy | लियो टॉलस्टॉय की लिखी कहानी - मनुष्य का जीवन आधार क्या है
    26 min 45 sec

    English Name of the Story Mansushya Ka Jeewan Aadhar Kya hai लेखक लियो टॉलस्टॉय  Writer Leo Tolstoyस्वर समीर गोस्वामी Narration Sameer Goswamihttps://kahanisuno.com/http://instagram.com/sameergoswamikahanisunohttps://www.facebook.com/kahanisuno/http://twitter.com/goswamisameer/https://sameergoswami.com

  • Mahnga Sauda | A Story Written by Leo Tolstoy | लियो टॉलस्टॉय की लिखी कहानी - मँहगा सौदा
    6 min 52 sec

    English Name of the Story Mahnga Saudaलेखक लियो टॉलस्टॉय  Writer Leo Tolstoyस्वर समीर गोस्वामी Narration Sameer Goswamihttps://kahanisuno.com/http://instagram.com/sameergoswamikahanisunohttps://www.facebook.com/kahanisuno/http://twitter.com/goswamisameer/https://sameergoswami.com

  • Goli | Part - 49 | A Novel by Acharya Chatursen Shastri | गोली | आचार्य चतुरसेन शास्त्री का लिखा उपन्यास
    5 min

    इस उपन्यास में आचार्य चतुरसेन शास्त्री ने राजस्थान के राजाओं के महलों में  रनिवासों, डयोड़ियों के अंदर स्त्रियों के साथ होने वाले अनाचार, व्यभिचार व वहाँ के नारकीय जीवन की झलक के साथ राजाओं की सनक, फ़िज़ूलख़र्ची व निरंकुशता की कहानी प्रस्तुत की है।उपन्यास गोली Novel Goliलेखक आचार्य चतुरसेन शास्त्री  Writer Acharya Chatursen Shastriस्वर समीर गोस्वामी Narration Sameer Goswamihttps://kahanisuno.com/http://instagram.com/sameergoswamikahanisunohttps://www.facebook.com/kahanisuno/http://twitter.com/goswamisameer/https://sameergoswami.com

  • Goli | Part - 44 | A Novel by Acharya Chatursen Shastri | गोली | आचार्य चतुरसेन शास्त्री का लिखा उपन्यास
    8 min 24 sec

    इस उपन्यास में आचार्य चतुरसेन शास्त्री ने राजस्थान के राजाओं के महलों में  रनिवासों, डयोड़ियों के अंदर स्त्रियों के साथ होने वाले अनाचार, व्यभिचार व वहाँ के नारकीय जीवन की झलक के साथ राजाओं की सनक, फ़िज़ूलख़र्ची व निरंकुशता की कहानी प्रस्तुत की है।उपन्यास गोली Novel Goliलेखक आचार्य चतुरसेन शास्त्री  Writer Acharya Chatursen Shastriस्वर समीर गोस्वामी Narration Sameer Goswamihttps://kahanisuno.com/http://instagram.com/sameergoswamikahanisunohttps://www.facebook.com/kahanisuno/http://twitter.com/goswamisameer/https://sameergoswami.com

  • Goli | Part - 42 | A Novel by Acharya Chatursen Shastri | गोली | आचार्य चतुरसेन शास्त्री का लिखा उपन्यास
    7 min 14 sec

    इस उपन्यास में आचार्य चतुरसेन शास्त्री ने राजस्थान के राजाओं के महलों में  रनिवासों, डयोड़ियों के अंदर स्त्रियों के साथ होने वाले अनाचार, व्यभिचार व वहाँ के नारकीय जीवन की झलक के साथ राजाओं की सनक, फ़िज़ूलख़र्ची व निरंकुशता की कहानी प्रस्तुत की है।उपन्यास गोली Novel Goliलेखक आचार्य चतुरसेन शास्त्री  Writer Acharya Chatursen Shastriस्वर समीर गोस्वामी Narration Sameer Goswamihttps://kahanisuno.com/http://instagram.com/sameergoswamikahanisunohttps://www.facebook.com/kahanisuno/http://twitter.com/goswamisameer/https://sameergoswami.com

  • Goli | Part - 40 | A Novel by Acharya Chatursen Shastri | गोली | आचार्य चतुरसेन शास्त्री का लिखा उपन्यास
    11 min 42 sec

    इस उपन्यास में आचार्य चतुरसेन शास्त्री ने राजस्थान के राजाओं के महलों में  रनिवासों, डयोड़ियों के अंदर स्त्रियों के साथ होने वाले अनाचार, व्यभिचार व वहाँ के नारकीय जीवन की झलक के साथ राजाओं की सनक, फ़िज़ूलख़र्ची व निरंकुशता की कहानी प्रस्तुत की है।उपन्यास गोली Novel Goliलेखक आचार्य चतुरसेन शास्त्री  Writer Acharya Chatursen Shastriस्वर समीर गोस्वामी Narration Sameer Goswamihttps://kahanisuno.com/http://instagram.com/sameergoswamikahanisunohttps://www.facebook.com/kahanisuno/http://twitter.com/goswamisameer/https://sameergoswami.com

  • Goli | Part - 39 | A Novel by Acharya Chatursen Shastri | गोली | आचार्य चतुरसेन शास्त्री का लिखा उपन्यास
    8 min 25 sec

    इस उपन्यास में आचार्य चतुरसेन शास्त्री ने राजस्थान के राजाओं के महलों में  रनिवासों, डयोड़ियों के अंदर स्त्रियों के साथ होने वाले अनाचार, व्यभिचार व वहाँ के नारकीय जीवन की झलक के साथ राजाओं की सनक, फ़िज़ूलख़र्ची व निरंकुशता की कहानी प्रस्तुत की है।उपन्यास गोली Novel Goliलेखक आचार्य चतुरसेन शास्त्री  Writer Acharya Chatursen Shastriस्वर समीर गोस्वामी Narration Sameer Goswamihttps://kahanisuno.com/http://instagram.com/sameergoswamikahanisunohttps://www.facebook.com/kahanisuno/http://twitter.com/goswamisameer/https://sameergoswami.com

  • Goli | Part - 34 | A Novel by Acharya Chatursen Shastri | गोली | आचार्य चतुरसेन शास्त्री का लिखा उपन्यास
    8 min 49 sec

    इस उपन्यास में आचार्य चतुरसेन शास्त्री ने राजस्थान के राजाओं के महलों में  रनिवासों, डयोड़ियों के अंदर स्त्रियों के साथ होने वाले अनाचार, व्यभिचार व वहाँ के नारकीय जीवन की झलक के साथ राजाओं की सनक, फ़िज़ूलख़र्ची व निरंकुशता की कहानी प्रस्तुत की है।उपन्यास गोली Novel Goliलेखक आचार्य चतुरसेन शास्त्री  Writer Acharya Chatursen Shastriस्वर समीर गोस्वामी Narration Sameer Goswamihttps://kahanisuno.com/http://instagram.com/sameergoswamikahanisunohttps://www.facebook.com/kahanisuno/http://twitter.com/goswamisameer/https://sameergoswami.com

  • Kshamadan | A Story Written by Leo Tolstoy | लियो टॉलस्टॉय की लिखी कहानी - क्षमादान
    17 min 23 sec

    English Name of the Story Kshamadanलेखक लियो टॉलस्टॉय  Writer Leo Tolstoyस्वर समीर गोस्वामी Narration Sameer Goswamihttps://kahanisuno.com/http://instagram.com/sameergoswamikahanisunohttps://www.facebook.com/kahanisuno/http://twitter.com/goswamisameer/https://sameergoswami.com

  • Prabhawati | Part 10 | A Novel by Suryakant Tripathi 'Nirala' | प्रभावती | सूर्यकान्त त्रिपाठी 'निराला' का लिखा उपन्यास |
    10 min 13 sec

    पृथ्वी राज जयचन्द क़ालीन सामन्तसरदारों की आपसी ईर्ष्या, संघर्ष , षड्यंत्र की कहानी।उपन्यास प्रभावती Novel Prabhawatiलेखक सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला Writer Suryakant Tripathi Niralaस्वर समीर गोस्वामी Narration Sameer Goswamihttps://kahanisuno.com/http://instagram.com/sameergoswamikahanisunohttps://www.facebook.com/kahanisuno/http://twitter.com/goswamisameer/https://sameergoswami.com

  • Prabhawati | Part 8 | A Novel by Suryakant Tripathi 'Nirala' | प्रभावती | सूर्यकान्त त्रिपाठी 'निराला' का लिखा उपन्यास |
    11 min 40 sec

    पृथ्वी राज जयचन्द क़ालीन सामन्तसरदारों की आपसी ईर्ष्या, संघर्ष , षड्यंत्र की कहानी।उपन्यास प्रभावती Novel Prabhawatiलेखक सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला Writer Suryakant Tripathi Niralaस्वर समीर गोस्वामी Narration Sameer Goswamihttps://kahanisuno.com/http://instagram.com/sameergoswamikahanisunohttps://www.facebook.com/kahanisuno/http://twitter.com/goswamisameer/https://sameergoswami.com

  • Prabhawati | Part 1 | A Novel by Suryakant Tripathi 'Nirala' | प्रभावती | सूर्यकान्त त्रिपाठी 'निराला' का लिखा उपन्यास |
    22 min 27 sec

    पृथ्वी राज जयचन्द क़ालीन सामन्तसरदारों की आपसी ईर्ष्या, संघर्ष , षड्यंत्र की कहानी।उपन्यास प्रभावती Novel Prabhawatiलेखक सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला Writer Suryakant Tripathi Niralaस्वर समीर गोस्वामी Narration Sameer Goswamihttps://kahanisuno.com/http://instagram.com/sameergoswamikahanisunohttps://www.facebook.com/kahanisuno/http://twitter.com/goswamisameer/https://sameergoswami.com

  • Bhishm | Part 12 | A Short Novel by Suryakant Tripathi 'Nirala' | भीष्म | सूर्यकान्त त्रिपाठी 'निराला' का लिखा लघु उपन्यास |
    6 min 10 sec

    भीष्म के जीवन की सम्पूर्ण कहानी।लघु उपन्यास भीष्म Short Novel Bhishmलेखक सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला Writer Suryakant Tripathi Niralaस्वर समीर गोस्वामी Narration Sameer Goswamihttps://kahanisuno.com/http://instagram.com/sameergoswamikahanisunohttps://www.facebook.com/kahanisuno/http://twitter.com/goswamisameer/https://sameergoswami.com

  • Bhishm | Part 11 | A Short Novel by Suryakant Tripathi 'Nirala' | भीष्म | सूर्यकान्त त्रिपाठी 'निराला' का लिखा लघु उपन्यास |
    19 min 38 sec

    भीष्म के जीवन की सम्पूर्ण कहानी।लघु उपन्यास भीष्म Short Novel Bhishmलेखक सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला Writer Suryakant Tripathi Niralaस्वर समीर गोस्वामी Narration Sameer Goswamihttps://kahanisuno.com/http://instagram.com/sameergoswamikahanisunohttps://www.facebook.com/kahanisuno/http://twitter.com/goswamisameer/https://sameergoswami.com

  • Bhishm | Part 10 | A Short Novel by Suryakant Tripathi 'Nirala' | भीष्म | सूर्यकान्त त्रिपाठी 'निराला' का लिखा लघु उपन्यास |
    9 min 12 sec

    भीष्म के जीवन की सम्पूर्ण कहानी।लघु उपन्यास भीष्म Short Novel Bhishmलेखक सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला Writer Suryakant Tripathi Niralaस्वर समीर गोस्वामी Narration Sameer Goswamihttps://kahanisuno.com/http://instagram.com/sameergoswamikahanisunohttps://www.facebook.com/kahanisuno/http://twitter.com/goswamisameer/https://sameergoswami.com

  • Bhishm | Part 5 | A Short Novel by Suryakant Tripathi 'Nirala' | भीष्म | सूर्यकान्त त्रिपाठी 'निराला' का लिखा लघु उपन्यास |
    7 min 53 sec

    भीष्म के जीवन की सम्पूर्ण कहानी।लघु उपन्यास भीष्म Short Novel Bhishmलेखक सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला Writer Suryakant Tripathi Niralaस्वर समीर गोस्वामी Narration Sameer Goswamihttps://kahanisuno.com/http://instagram.com/sameergoswamikahanisunohttps://www.facebook.com/kahanisuno/http://twitter.com/goswamisameer/https://sameergoswami.com

  • Bhishm | Part 1 | A Short Novel by Suryakant Tripathi 'Nirala' | भीष्म | सूर्यकान्त त्रिपाठी 'निराला' का लिखा लघु उपन्यास |
    28 min 38 sec

    भीष्म के जीवन की सम्पूर्ण कहानी।लघु उपन्यास भीष्म Short Novel Bhishmलेखक सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला Writer Suryakant Tripathi Niralaस्वर समीर गोस्वामी Narration Sameer Goswamihttps://kahanisuno.com/http://instagram.com/sameergoswamikahanisunohttps://www.facebook.com/kahanisuno/http://twitter.com/goswamisameer/https://sameergoswami.com

  • Bhakt Prahlaad | Part 13 | A Short Novel by Suryakant Tripathi 'Nirala' | भक्त प्रह्लाद | सूर्यकान्त त्रिपाठी 'निराला' का लिखा लघु उपन्यास |
    7 min 7 sec

    भक्त प्रह्लाद के जीवन की सम्पूर्ण कहानी।लघु उपन्यास भक्त प्रह्लाद Short Novel Bhakt Prahlaadलेखक सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला Writer Suryakant Tripathi Niralaस्वर समीर गोस्वामी Narration Sameer Goswamihttps://kahanisuno.com/http://instagram.com/sameergoswamikahanisunohttps://www.facebook.com/kahanisuno/http://twitter.com/goswamisameer/https://sameergoswami.com

  • Bhakt Prahlaad | Part 12 | A Short Novel by Suryakant Tripathi 'Nirala' | भक्त प्रह्लाद | सूर्यकान्त त्रिपाठी 'निराला' का लिखा लघु उपन्यास |
    4 min 52 sec

    भक्त प्रह्लाद के जीवन की सम्पूर्ण कहानी।लघु उपन्यास भक्त प्रह्लाद Short Novel Bhakt Prahlaadलेखक सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला Writer Suryakant Tripathi Niralaस्वर समीर गोस्वामी Narration Sameer Goswamihttps://kahanisuno.com/http://instagram.com/sameergoswamikahanisunohttps://www.facebook.com/kahanisuno/http://twitter.com/goswamisameer/https://sameergoswami.com

  • Bhakt Prahlaad | Part 8 | A Short Novel by Suryakant Tripathi 'Nirala' | भक्त प्रह्लाद | सूर्यकान्त त्रिपाठी 'निराला' का लिखा लघु उपन्यास |
    12 min 21 sec

    भक्त प्रह्लाद के जीवन की सम्पूर्ण कहानी।लघु उपन्यास भक्त प्रह्लाद Short Novel Bhakt Prahlaadलेखक सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला Writer Suryakant Tripathi Niralaस्वर समीर गोस्वामी Narration Sameer Goswamihttps://kahanisuno.com/http://instagram.com/sameergoswamikahanisunohttps://www.facebook.com/kahanisuno/http://twitter.com/goswamisameer/https://sameergoswami.com

  • Apsara | Part - 2 | A Novel by Suryakant Tripathi 'Nirala' | अप्सरा | सूर्यकान्त त्रिपाठी 'निराला' का लिखा उपन्यास
    7 min 7 sec

    इस उपन्यास में निराला ने एक तवायफ़ की संस्कारित, शिक्षित लड़की द्वारा विवाह कर, अपने आत्म सम्मान के साथ, सभ्य समाज में प्रवेश करने, और अपना स्थान व अधिकार प्राप्त करने की कहानी।उपन्यास अप्सरा Novel Apsaraलेखक सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला Writer Suryakant Tripathi Niralaस्वर समीर गोस्वामी Narration Sameer Goswamihttps://kahanisuno.com/http://instagram.com/sameergoswamikahanisunohttps://www.facebook.com/kahanisuno/http://twitter.com/goswamisameer/https://sameergoswami.com

  • Alka | Part - 25 | A Novel by Suryakant Tripathi 'Nirala' | अलका | सूर्यकान्त त्रिपाठी 'निराला' का लिखा उपन्यास
    7 min 54 sec

    इस उपन्यास में निराला ने अवध क्षेत्र के किसानों और जनसाधारण के अभावग्रस्त और दयनीय जीवन का चित्रण किया है एक अनाथ ग्रामीण लड़की की ज़िंदगी में आए उतारचढ़ाव, ज़मींदार के हथकंडे व अत्याचार, ग्रामीणों की दुर्दशा, छटपटाहट और उबरने के प्रयासों की कहानी।उपन्यास अलका Novel Alkaलेखक सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला Writer Suryakant Tripathi Niralaस्वर समीर गोस्वामी Narration Sameer Goswamihttps://kahanisuno.com/http://instagram.com/sameergoswamikahanisunohttps://www.facebook.com/kahanisuno/http://twitter.com/goswamisameer/https://sameergoswami.com

  • Alka | Part - 23 | A Novel by Suryakant Tripathi 'Nirala' | अलका | सूर्यकान्त त्रिपाठी 'निराला' का लिखा उपन्यास
    9 min 42 sec

    इस उपन्यास में निराला ने अवध क्षेत्र के किसानों और जनसाधारण के अभावग्रस्त और दयनीय जीवन का चित्रण किया है एक अनाथ ग्रामीण लड़की की ज़िंदगी में आए उतारचढ़ाव, ज़मींदार के हथकंडे व अत्याचार, ग्रामीणों की दुर्दशा, छटपटाहट और उबरने के प्रयासों की कहानी।उपन्यास अलका Novel Alkaलेखक सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला Writer Suryakant Tripathi Niralaस्वर समीर गोस्वामी Narration Sameer Goswamihttps://kahanisuno.com/http://instagram.com/sameergoswamikahanisunohttps://www.facebook.com/kahanisuno/http://twitter.com/goswamisameer/https://sameergoswami.com

  • Alka | Part - 21 | A Novel by Suryakant Tripathi 'Nirala' | अलका | सूर्यकान्त त्रिपाठी 'निराला' का लिखा उपन्यास
    12 min 26 sec

    इस उपन्यास में निराला ने अवध क्षेत्र के किसानों और जनसाधारण के अभावग्रस्त और दयनीय जीवन का चित्रण किया है एक अनाथ ग्रामीण लड़की की ज़िंदगी में आए उतारचढ़ाव, ज़मींदार के हथकंडे व अत्याचार, ग्रामीणों की दुर्दशा, छटपटाहट और उबरने के प्रयासों की कहानी।उपन्यास अलका Novel Alkaलेखक सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला Writer Suryakant Tripathi Niralaस्वर समीर गोस्वामी Narration Sameer Goswamihttps://kahanisuno.com/http://instagram.com/sameergoswamikahanisunohttps://www.facebook.com/kahanisuno/http://twitter.com/goswamisameer/https://sameergoswami.com

  • Alka | Part - 20 | A Novel by Suryakant Tripathi 'Nirala' | अलका | सूर्यकान्त त्रिपाठी 'निराला' का लिखा उपन्यास
    9 min 30 sec

    इस उपन्यास में निराला ने अवध क्षेत्र के किसानों और जनसाधारण के अभावग्रस्त और दयनीय जीवन का चित्रण किया है एक अनाथ ग्रामीण लड़की की ज़िंदगी में आए उतारचढ़ाव, ज़मींदार के हथकंडे व अत्याचार, ग्रामीणों की दुर्दशा, छटपटाहट और उबरने के प्रयासों की कहानी।उपन्यास अलका Novel Alkaलेखक सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला Writer Suryakant Tripathi Niralaस्वर समीर गोस्वामी Narration Sameer Goswamihttps://kahanisuno.com/http://instagram.com/sameergoswamikahanisunohttps://www.facebook.com/kahanisuno/http://twitter.com/goswamisameer/https://sameergoswami.com

  • Alka | Part - 14 | A Novel by Suryakant Tripathi 'Nirala' | अलका | सूर्यकान्त त्रिपाठी 'निराला' का लिखा उपन्यास
    10 min 52 sec

    इस उपन्यास में निराला ने अवध क्षेत्र के किसानों और जनसाधारण के अभावग्रस्त और दयनीय जीवन का चित्रण किया है एक अनाथ ग्रामीण लड़की की ज़िंदगी में आए उतारचढ़ाव, ज़मींदार के हथकंडे व अत्याचार, ग्रामीणों की दुर्दशा, छटपटाहट और उबरने के प्रयासों की कहानी।उपन्यास अलका Novel Alkaलेखक सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला Writer Suryakant Tripathi Niralaस्वर समीर गोस्वामी Narration Sameer Goswamihttps://kahanisuno.com/http://instagram.com/sameergoswamikahanisunohttps://www.facebook.com/kahanisuno/http://twitter.com/goswamisameer/https://sameergoswami.com

  • Alka | Part - 10 | A Novel by Suryakant Tripathi 'Nirala' | अलका | सूर्यकान्त त्रिपाठी 'निराला' का लिखा उपन्यास
    15 min 4 sec

    इस उपन्यास में निराला ने अवध क्षेत्र के किसानों और जनसाधारण के अभावग्रस्त और दयनीय जीवन का चित्रण किया है एक अनाथ ग्रामीण लड़की की ज़िंदगी में आए उतारचढ़ाव, ज़मींदार के हथकंडे व अत्याचार, ग्रामीणों की दुर्दशा, छटपटाहट और उबरने के प्रयासों की कहानी।उपन्यास अलका Novel Alkaलेखक सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला Writer Suryakant Tripathi Niralaस्वर समीर गोस्वामी Narration Sameer Goswamihttps://kahanisuno.com/http://instagram.com/sameergoswamikahanisunohttps://www.facebook.com/kahanisuno/http://twitter.com/goswamisameer/https://sameergoswami.com

  • Alka | Part - 8 | A Novel by Suryakant Tripathi 'Nirala' | अलका | सूर्यकान्त त्रिपाठी 'निराला' का लिखा उपन्यास
    11 min 16 sec

    इस उपन्यास में निराला ने अवध क्षेत्र के किसानों और जनसाधारण के अभावग्रस्त और दयनीय जीवन का चित्रण किया है एक अनाथ ग्रामीण लड़की की ज़िंदगी में आए उतारचढ़ाव, ज़मींदार के हथकंडे व अत्याचार, ग्रामीणों की दुर्दशा, छटपटाहट और उबरने के प्रयासों की कहानी।उपन्यास अलका Novel Alkaलेखक सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला Writer Suryakant Tripathi Niralaस्वर समीर गोस्वामी Narration Sameer Goswamihttps://kahanisuno.com/http://instagram.com/sameergoswamikahanisunohttps://www.facebook.com/kahanisuno/http://twitter.com/goswamisameer/https://sameergoswami.com

  • Alka | Part - 6 | A Novel by Suryakant Tripathi 'Nirala' | अलका | सूर्यकान्त त्रिपाठी 'निराला' का लिखा उपन्यास
    8 min 34 sec

    इस उपन्यास में निराला ने अवध क्षेत्र के किसानों और जनसाधारण के अभावग्रस्त और दयनीय जीवन का चित्रण किया है एक अनाथ ग्रामीण लड़की की ज़िंदगी में आए उतारचढ़ाव, ज़मींदार के हथकंडे व अत्याचार, ग्रामीणों की दुर्दशा, छटपटाहट और उबरने के प्रयासों की कहानी।उपन्यास अलका Novel Alkaलेखक सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला Writer Suryakant Tripathi Niralaस्वर समीर गोस्वामी Narration Sameer Goswamihttps://kahanisuno.com/http://instagram.com/sameergoswamikahanisunohttps://www.facebook.com/kahanisuno/http://twitter.com/goswamisameer/https://sameergoswami.com

  • Alka | Part - 5 | A Novel by Suryakant Tripathi 'Nirala' | अलका | सूर्यकान्त त्रिपाठी 'निराला' का लिखा उपन्यास
    19 min 8 sec

    इस उपन्यास में निराला ने अवध क्षेत्र के किसानों और जनसाधारण के अभावग्रस्त और दयनीय जीवन का चित्रण किया है एक अनाथ ग्रामीण लड़की की ज़िंदगी में आए उतारचढ़ाव, ज़मींदार के हथकंडे व अत्याचार, ग्रामीणों की दुर्दशा, छटपटाहट और उबरने के प्रयासों की कहानी।उपन्यास अलका Novel Alkaलेखक सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला Writer Suryakant Tripathi Niralaस्वर समीर गोस्वामी Narration Sameer Goswamihttps://kahanisuno.com/http://instagram.com/sameergoswamikahanisunohttps://www.facebook.com/kahanisuno/http://twitter.com/goswamisameer/https://sameergoswami.com

  • Alka | Part - 4 | A Novel by Suryakant Tripathi 'Nirala' | अलका | सूर्यकान्त त्रिपाठी 'निराला' का लिखा उपन्यास
    4 min 28 sec

    इस उपन्यास में निराला ने अवध क्षेत्र के किसानों और जनसाधारण के अभावग्रस्त और दयनीय जीवन का चित्रण किया है एक अनाथ ग्रामीण लड़की की ज़िंदगी में आए उतारचढ़ाव, ज़मींदार के हथकंडे व अत्याचार, ग्रामीणों की दुर्दशा, छटपटाहट और उबरने के प्रयासों की कहानी।उपन्यास अलका Novel Alkaलेखक सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला Writer Suryakant Tripathi Niralaस्वर समीर गोस्वामी Narration Sameer Goswamihttps://kahanisuno.com/http://instagram.com/sameergoswamikahanisunohttps://www.facebook.com/kahanisuno/http://twitter.com/goswamisameer/https://sameergoswami.com

  • Vayam Rakshamah - Part 128 - Upsanhar | वयं रक्षाम: - भाग 128 - उपसंहार | A Novel by Acharya Chatursen Shastri | आचार्य चतुरसेन शास्त्री का लिखा उपन्यास
    15 min 14 sec

    वयं रक्षाम: में प्राग्वेदकालीन जातियों के सम्बन्ध में सर्वथा अकल्पित अतर्कित नई स्थापनाएं हैं , मुक्त सहवास है, विवसन विचरण है, हरण और पलायन है। शिश्नदेव की उपासना है, वैदिक अवैदिक अश्रुत मिश्रण है। नर मांस की खुले बाजार में बिक्री है, नृत्य है, मद है, उन्मुख अनावृत यौवन है ।इस उपन्यास में प्राग्वेदकालीन नर, नाग, देव, दैत्यदानव, आर्यअनार्य आदि विविध नृवंशों के जीवन के वे विस्तृतपुरातन रेखाचित्र हैं, जिन्हें धर्म के रंगीन शीशे में देख कर सारे संसार ने अंतरिक्ष का देवता मान लिया था। मैं इस उपन्यास में उन्हें नर रूप में आपके समक्ष उपस्थित करने का साहस कर रहा हूँ। आज तक कभी मनुष्य की वाणी से न सुनी गई बातें, मैं आपको सुनाने पर आमादा हूँ।....उपन्यास में मेरे अपने जीवनभर के अध्ययन का सार है।...आचार्य चतुरसेनउपन्यास वयं रक्षाम: Novel Vayam Rakshamahलेखक आचार्य चतुरसेन शास्त्री Writer Acharya Chatursen Shastriस्वर समीर गोस्वामी Narration Sameer Goswamihttps://kahanisuno.com/http://instagram.com/sameergoswamikahanisunohttps://www.facebook.com/kahanisuno/http://twitter.com/goswamisameer/https://sameergoswami.com

  • Vayam Rakshamah - Part 127 - Vadh | वयं रक्षाम: - भाग 127 - वध | A Novel by Acharya Chatursen Shastri | आचार्य चतुरसेन शास्त्री का लिखा उपन्यास
    12 min 54 sec

    वयं रक्षाम: में प्राग्वेदकालीन जातियों के सम्बन्ध में सर्वथा अकल्पित अतर्कित नई स्थापनाएं हैं , मुक्त सहवास है, विवसन विचरण है, हरण और पलायन है। शिश्नदेव की उपासना है, वैदिक अवैदिक अश्रुत मिश्रण है। नर मांस की खुले बाजार में बिक्री है, नृत्य है, मद है, उन्मुख अनावृत यौवन है ।इस उपन्यास में प्राग्वेदकालीन नर, नाग, देव, दैत्यदानव, आर्यअनार्य आदि विविध नृवंशों के जीवन के वे विस्तृतपुरातन रेखाचित्र हैं, जिन्हें धर्म के रंगीन शीशे में देख कर सारे संसार ने अंतरिक्ष का देवता मान लिया था। मैं इस उपन्यास में उन्हें नर रूप में आपके समक्ष उपस्थित करने का साहस कर रहा हूँ। आज तक कभी मनुष्य की वाणी से न सुनी गई बातें, मैं आपको सुनाने पर आमादा हूँ।....उपन्यास में मेरे अपने जीवनभर के अध्ययन का सार है।...आचार्य चतुरसेनउपन्यास वयं रक्षाम: Novel Vayam Rakshamahलेखक आचार्य चतुरसेन शास्त्री Writer Acharya Chatursen Shastriस्वर समीर गोस्वामी Narration Sameer Goswamihttps://kahanisuno.com/http://instagram.com/sameergoswamikahanisunohttps://www.facebook.com/kahanisuno/http://twitter.com/goswamisameer/https://sameergoswami.com

  • Yeh Gali Bikau Nahin | Part - 12 | A Novel by Na. Parthasarathy| यह गली बिकाऊ नहीं | ना॰ पार्थसारथी का लिखा उपन्यास
    19 min

    इस उपन्यास में ना॰ पार्थसारथी ने एक निर्धन किंतु अत्यंत प्रतिभाशाली कलाकार के आत्माभिमान, व सिने जगत में सफल, समृद्ध, उसके पुराने कलाकार मित्र के बीच टकराव की कहानी प्रस्तुत की है। ना॰ पार्थसारथी तमिल भाषा के विख्यात साहित्यकार हैं। इनके द्वारा रचित एक उपन्यास समुदाय वीधि के लिये उन्हें सन् 1971 में साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया।उपन्यास यह गली बिकाऊ नहीं Novel Yeh Gali Bikau Nahinलेखक ना॰ पार्थसारथी Writer Na. Parthasarathyस्वर समीर गोस्वामी Narration Sameer Goswamihttps://kahanisuno.com/http://instagram.com/sameergoswamikahanisunohttps://www.facebook.com/kahanisuno/http://twitter.com/goswamisameer/https://sameergoswami.com

  • Yeh Gali Bikau Nahin | Part - 11 | A Novel by Na. Parthasarathy| यह गली बिकाऊ नहीं | ना॰ पार्थसारथी का लिखा उपन्यास
    17 min 1 sec

    इस उपन्यास में ना॰ पार्थसारथी ने एक निर्धन किंतु अत्यंत प्रतिभाशाली कलाकार के आत्माभिमान, व सिने जगत में सफल, समृद्ध, उसके पुराने कलाकार मित्र के बीच टकराव की कहानी प्रस्तुत की है। ना॰ पार्थसारथी तमिल भाषा के विख्यात साहित्यकार हैं। इनके द्वारा रचित एक उपन्यास समुदाय वीधि के लिये उन्हें सन् 1971 में साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया।उपन्यास यह गली बिकाऊ नहीं Novel Yeh Gali Bikau Nahinलेखक ना॰ पार्थसारथी Writer Na. Parthasarathyस्वर समीर गोस्वामी Narration Sameer Goswamihttps://kahanisuno.com/http://instagram.com/sameergoswamikahanisunohttps://www.facebook.com/kahanisuno/http://twitter.com/goswamisameer/https://sameergoswami.com

  • Yeh Gali Bikau Nahin | Part - 9 | A Novel by Na. Parthasarathy| यह गली बिकाऊ नहीं | ना॰ पार्थसारथी का लिखा उपन्यास
    16 min 29 sec

    इस उपन्यास में ना॰ पार्थसारथी ने एक निर्धन किंतु अत्यंत प्रतिभाशाली कलाकार के आत्माभिमान, व सिने जगत में सफल, समृद्ध, उसके पुराने कलाकार मित्र के बीच टकराव की कहानी प्रस्तुत की है। ना॰ पार्थसारथी तमिल भाषा के विख्यात साहित्यकार हैं। इनके द्वारा रचित एक उपन्यास समुदाय वीधि के लिये उन्हें सन् 1971 में साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया।उपन्यास यह गली बिकाऊ नहीं Novel Yeh Gali Bikau Nahinलेखक ना॰ पार्थसारथी Writer Na. Parthasarathyस्वर समीर गोस्वामी Narration Sameer Goswamihttps://kahanisuno.com/http://instagram.com/sameergoswamikahanisunohttps://www.facebook.com/kahanisuno/http://twitter.com/goswamisameer/https://sameergoswami.com

  • Yeh Gali Bikau Nahin | Part - 3 | A Novel by Na. Parthasarathy| यह गली बिकाऊ नहीं | ना॰ पार्थसारथी का लिखा उपन्यास
    17 min 23 sec

    इस उपन्यास में ना॰ पार्थसारथी ने एक निर्धन किंतु अत्यंत प्रतिभाशाली कलाकार के आत्माभिमान, व सिने जगत में सफल, समृद्ध, उसके पुराने कलाकार मित्र के बीच टकराव की कहानी प्रस्तुत की है। ना॰ पार्थसारथी तमिल भाषा के विख्यात साहित्यकार हैं। इनके द्वारा रचित एक उपन्यास समुदाय वीधि के लिये उन्हें सन् 1971 में साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया।उपन्यास यह गली बिकाऊ नहीं Novel Yeh Gali Bikau Nahinलेखक ना॰ पार्थसारथी Writer Na. Parthasarathyस्वर समीर गोस्वामी Narration Sameer Goswamihttps://kahanisuno.com/http://instagram.com/sameergoswamikahanisunohttps://www.facebook.com/kahanisuno/http://twitter.com/goswamisameer/https://sameergoswami.com

  • Apsara | Part - 25 | A Novel by Suryakant Tripathi 'Nirala' | अप्सरा | सूर्यकान्त त्रिपाठी 'निराला' का लिखा उपन्यास
    1 min 49 sec

    इस उपन्यास में निराला ने एक तवायफ़ की संस्कारित, शिक्षित लड़की द्वारा विवाह कर, अपने आत्म सम्मान के साथ, सभ्य समाज में प्रवेश करने, और अपना स्थान व अधिकार प्राप्त करने की कहानी।उपन्यास अप्सरा Novel Apsaraलेखक सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला Writer Suryakant Tripathi Niralaस्वर समीर गोस्वामी Narration Sameer Goswamihttps://kahanisuno.com/http://instagram.com/sameergoswamikahanisunohttps://www.facebook.com/kahanisuno/http://twitter.com/goswamisameer/https://sameergoswami.com

  • Apsara | Part - 21 | A Novel by Suryakant Tripathi 'Nirala' | अप्सरा | सूर्यकान्त त्रिपाठी 'निराला' का लिखा उपन्यास
    13 min 37 sec

    इस उपन्यास में निराला ने एक तवायफ़ की संस्कारित, शिक्षित लड़की द्वारा विवाह कर, अपने आत्म सम्मान के साथ, सभ्य समाज में प्रवेश करने, और अपना स्थान व अधिकार प्राप्त करने की कहानी।उपन्यास अप्सरा Novel Apsaraलेखक सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला Writer Suryakant Tripathi Niralaस्वर समीर गोस्वामी Narration Sameer Goswamihttps://kahanisuno.com/http://instagram.com/sameergoswamikahanisunohttps://www.facebook.com/kahanisuno/http://twitter.com/goswamisameer/https://sameergoswami.com

  • Apsara | Part - 20 | A Novel by Suryakant Tripathi 'Nirala' | अप्सरा | सूर्यकान्त त्रिपाठी 'निराला' का लिखा उपन्यास
    16 min 26 sec

    इस उपन्यास में निराला ने एक तवायफ़ की संस्कारित, शिक्षित लड़की द्वारा विवाह कर, अपने आत्म सम्मान के साथ, सभ्य समाज में प्रवेश करने, और अपना स्थान व अधिकार प्राप्त करने की कहानी।उपन्यास अप्सरा Novel Apsaraलेखक सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला Writer Suryakant Tripathi Niralaस्वर समीर गोस्वामी Narration Sameer Goswamihttps://kahanisuno.com/http://instagram.com/sameergoswamikahanisunohttps://www.facebook.com/kahanisuno/http://twitter.com/goswamisameer/https://sameergoswami.com

  • Apsara | Part - 16 | A Novel by Suryakant Tripathi 'Nirala' | अप्सरा | सूर्यकान्त त्रिपाठी 'निराला' का लिखा उपन्यास
    16 min 31 sec

    इस उपन्यास में निराला ने एक तवायफ़ की संस्कारित, शिक्षित लड़की द्वारा विवाह कर, अपने आत्म सम्मान के साथ, सभ्य समाज में प्रवेश करने, और अपना स्थान व अधिकार प्राप्त करने की कहानी।उपन्यास अप्सरा Novel Apsaraलेखक सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला Writer Suryakant Tripathi Niralaस्वर समीर गोस्वामी Narration Sameer Goswamihttps://kahanisuno.com/http://instagram.com/sameergoswamikahanisunohttps://www.facebook.com/kahanisuno/http://twitter.com/goswamisameer/https://sameergoswami.com

  • Gora | Part - 43 | A Novel by Rabindranath Tagore| गोरा | रवीन्द्रनाथ टैगोर का लिखा उपन्यास
    14 min 47 sec

    इस उपन्यास में रवीन्द्रनाथ टैगोर ने खुद के गोद लिए जाने व आयरिश मातापिता की संतान होने, का पता चलने पर, एक राष्ट्रवादी कट्टर हिन्दू व्यक्ति के मन में मची उथलपुथल व व्यवहार में आए बदलाव की कहानी प्रस्तुत की है।उपन्यास गोरा Novel Goraलेखक रवीन्द्रनाथ टैगोर Writer Rabindranath Tagoreस्वर समीर गोस्वामी Narration Sameer Goswamihttps://kahanisuno.com/http://instagram.com/sameergoswamikahanisunohttps://www.facebook.com/kahanisuno/http://twitter.com/goswamisameer/https://sameergoswami.com

  • Gora | Part - 40 | A Novel by Rabindranath Tagore| गोरा | रवीन्द्रनाथ टैगोर का लिखा उपन्यास
    6 min 16 sec

    इस उपन्यास में रवीन्द्रनाथ टैगोर ने खुद के गोद लिए जाने व आयरिश मातापिता की संतान होने, का पता चलने पर, एक राष्ट्रवादी कट्टर हिन्दू व्यक्ति के मन में मची उथलपुथल व व्यवहार में आए बदलाव की कहानी प्रस्तुत की है।उपन्यास गोरा Novel Goraलेखक रवीन्द्रनाथ टैगोर Writer Rabindranath Tagoreस्वर समीर गोस्वामी Narration Sameer Goswamihttps://kahanisuno.com/http://instagram.com/sameergoswamikahanisunohttps://www.facebook.com/kahanisuno/http://twitter.com/goswamisameer/https://sameergoswami.com

  • Gora | Part - 39 | A Novel by Rabindranath Tagore| गोरा | रवीन्द्रनाथ टैगोर का लिखा उपन्यास
    27 min 52 sec

    इस उपन्यास में रवीन्द्रनाथ टैगोर ने खुद के गोद लिए जाने व आयरिश मातापिता की संतान होने, का पता चलने पर, एक राष्ट्रवादी कट्टर हिन्दू व्यक्ति के मन में मची उथलपुथल व व्यवहार में आए बदलाव की कहानी प्रस्तुत की है।उपन्यास गोरा Novel Goraलेखक रवीन्द्रनाथ टैगोर Writer Rabindranath Tagoreस्वर समीर गोस्वामी Narration Sameer Goswamihttps://kahanisuno.com/http://instagram.com/sameergoswamikahanisunohttps://www.facebook.com/kahanisuno/http://twitter.com/goswamisameer/https://sameergoswami.com

  • Gora | Part - 36 | A Novel by Rabindranath Tagore| गोरा | रवीन्द्रनाथ टैगोर का लिखा उपन्यास
    26 min 36 sec

    इस उपन्यास में रवीन्द्रनाथ टैगोर ने खुद के गोद लिए जाने व आयरिश मातापिता की संतान होने, का पता चलने पर, एक राष्ट्रवादी कट्टर हिन्दू व्यक्ति के मन में मची उथलपुथल व व्यवहार में आए बदलाव की कहानी प्रस्तुत की है।उपन्यास गोरा Novel Goraलेखक रवीन्द्रनाथ टैगोर Writer Rabindranath Tagoreस्वर समीर गोस्वामी Narration Sameer Goswamihttps://kahanisuno.com/http://instagram.com/sameergoswamikahanisunohttps://www.facebook.com/kahanisuno/http://twitter.com/goswamisameer/https://sameergoswami.com

  • Gora | Part - 31 | A Novel by Rabindranath Tagore| गोरा | रवीन्द्रनाथ टैगोर का लिखा उपन्यास
    12 min 18 sec

    इस उपन्यास में रवीन्द्रनाथ टैगोर ने खुद के गोद लिए जाने व आयरिश मातापिता की संतान होने, का पता चलने पर, एक राष्ट्रवादी कट्टर हिन्दू व्यक्ति के मन में मची उथलपुथल व व्यवहार में आए बदलाव की कहानी प्रस्तुत की है।उपन्यास गोरा Novel Goraलेखक रवीन्द्रनाथ टैगोर Writer Rabindranath Tagoreस्वर समीर गोस्वामी Narration Sameer Goswamihttps://kahanisuno.com/http://instagram.com/sameergoswamikahanisunohttps://www.facebook.com/kahanisuno/http://twitter.com/goswamisameer/https://sameergoswami.com

  • Gora | Part - 30 | A Novel by Rabindranath Tagore| गोरा | रवीन्द्रनाथ टैगोर का लिखा उपन्यास
    17 min 8 sec

    इस उपन्यास में रवीन्द्रनाथ टैगोर ने खुद के गोद लिए जाने व आयरिश मातापिता की संतान होने, का पता चलने पर, एक राष्ट्रवादी कट्टर हिन्दू व्यक्ति के मन में मची उथलपुथल व व्यवहार में आए बदलाव की कहानी प्रस्तुत की है।उपन्यास गोरा Novel Goraलेखक रवीन्द्रनाथ टैगोर Writer Rabindranath Tagoreस्वर समीर गोस्वामी Narration Sameer Goswamihttps://kahanisuno.com/http://instagram.com/sameergoswamikahanisunohttps://www.facebook.com/kahanisuno/http://twitter.com/goswamisameer/https://sameergoswami.com

  • Gora | Part - 26 | A Novel by Rabindranath Tagore| गोरा | रवीन्द्रनाथ टैगोर का लिखा उपन्यास
    21 min 22 sec

    इस उपन्यास में रवीन्द्रनाथ टैगोर ने खुद के गोद लिए जाने व आयरिश मातापिता की संतान होने, का पता चलने पर, एक राष्ट्रवादी कट्टर हिन्दू व्यक्ति के मन में मची उथलपुथल व व्यवहार में आए बदलाव की कहानी प्रस्तुत की है।उपन्यास गोरा Novel Goraलेखक रवीन्द्रनाथ टैगोर Writer Rabindranath Tagoreस्वर समीर गोस्वामी Narration Sameer Goswamihttps://kahanisuno.com/http://instagram.com/sameergoswamikahanisunohttps://www.facebook.com/kahanisuno/http://twitter.com/goswamisameer/https://sameergoswami.com

  • Gora | Part - 18 | A Novel by Rabindranath Tagore| गोरा | रवीन्द्रनाथ टैगोर का लिखा उपन्यास
    29 min 39 sec

    इस उपन्यास में रवीन्द्रनाथ टैगोर ने खुद के गोद लिए जाने व आयरिश मातापिता की संतान होने, का पता चलने पर, एक राष्ट्रवादी कट्टर हिन्दू व्यक्ति के मन में मची उथलपुथल व व्यवहार में आए बदलाव की कहानी प्रस्तुत की है।उपन्यास गोरा Novel Goraलेखक रवीन्द्रनाथ टैगोर Writer Rabindranath Tagoreस्वर समीर गोस्वामी Narration Sameer Goswamihttps://kahanisuno.com/http://instagram.com/sameergoswamikahanisunohttps://www.facebook.com/kahanisuno/http://twitter.com/goswamisameer/https://sameergoswami.com

  • Gora | Part - 64 | A Novel by Rabindranath Tagore| गोरा | रवीन्द्रनाथ टैगोर का लिखा उपन्यास
    9 min 25 sec

    इस उपन्यास में रवीन्द्रनाथ टैगोर ने खुद के गोद लिए जाने व आयरिश मातापिता की संतान होने, का पता चलने पर, एक राष्ट्रवादी कट्टर हिन्दू व्यक्ति के मन में मची उथलपुथल व व्यवहार में आए बदलाव की कहानी प्रस्तुत की है।उपन्यास गोरा Novel Goraलेखक रवीन्द्रनाथ टैगोर Writer Rabindranath Tagoreस्वर समीर गोस्वामी Narration Sameer Goswamihttps://kahanisuno.com/http://instagram.com/sameergoswamikahanisunohttps://www.facebook.com/kahanisuno/http://twitter.com/goswamisameer/https://sameergoswami.com

  • Gora | Part - 62 | A Novel by Rabindranath Tagore| गोरा | रवीन्द्रनाथ टैगोर का लिखा उपन्यास
    27 min 20 sec

    इस उपन्यास में रवीन्द्रनाथ टैगोर ने खुद के गोद लिए जाने व आयरिश मातापिता की संतान होने, का पता चलने पर, एक राष्ट्रवादी कट्टर हिन्दू व्यक्ति के मन में मची उथलपुथल व व्यवहार में आए बदलाव की कहानी प्रस्तुत की है।उपन्यास गोरा Novel Goraलेखक रवीन्द्रनाथ टैगोर Writer Rabindranath Tagoreस्वर समीर गोस्वामी Narration Sameer Goswamihttps://kahanisuno.com/http://instagram.com/sameergoswamikahanisunohttps://www.facebook.com/kahanisuno/http://twitter.com/goswamisameer/https://sameergoswami.com

  • Gora | Part - 58 | A Novel by Rabindranath Tagore| गोरा | रवीन्द्रनाथ टैगोर का लिखा उपन्यास
    12 min 42 sec

    इस उपन्यास में रवीन्द्रनाथ टैगोर ने खुद के गोद लिए जाने व आयरिश मातापिता की संतान होने, का पता चलने पर, एक राष्ट्रवादी कट्टर हिन्दू व्यक्ति के मन में मची उथलपुथल व व्यवहार में आए बदलाव की कहानी प्रस्तुत की है।उपन्यास गोरा Novel Goraलेखक रवीन्द्रनाथ टैगोर Writer Rabindranath Tagoreस्वर समीर गोस्वामी Narration Sameer Goswamihttps://kahanisuno.com/http://instagram.com/sameergoswamikahanisunohttps://www.facebook.com/kahanisuno/http://twitter.com/goswamisameer/https://sameergoswami.com

  • Gora | Part - 57 | A Novel by Rabindranath Tagore| गोरा | रवीन्द्रनाथ टैगोर का लिखा उपन्यास
    26 min 2 sec

    इस उपन्यास में रवीन्द्रनाथ टैगोर ने खुद के गोद लिए जाने व आयरिश मातापिता की संतान होने, का पता चलने पर, एक राष्ट्रवादी कट्टर हिन्दू व्यक्ति के मन में मची उथलपुथल व व्यवहार में आए बदलाव की कहानी प्रस्तुत की है।उपन्यास गोरा Novel Goraलेखक रवीन्द्रनाथ टैगोर Writer Rabindranath Tagoreस्वर समीर गोस्वामी Narration Sameer Goswamihttps://kahanisuno.com/http://instagram.com/sameergoswamikahanisunohttps://www.facebook.com/kahanisuno/http://twitter.com/goswamisameer/https://sameergoswami.com

  • Gora | Part - 55 | A Novel by Rabindranath Tagore| गोरा | रवीन्द्रनाथ टैगोर का लिखा उपन्यास
    37 min 48 sec

    इस उपन्यास में रवीन्द्रनाथ टैगोर ने खुद के गोद लिए जाने व आयरिश मातापिता की संतान होने, का पता चलने पर, एक राष्ट्रवादी कट्टर हिन्दू व्यक्ति के मन में मची उथलपुथल व व्यवहार में आए बदलाव की कहानी प्रस्तुत की है।उपन्यास गोरा Novel Goraलेखक रवीन्द्रनाथ टैगोर Writer Rabindranath Tagoreस्वर समीर गोस्वामी Narration Sameer Goswamihttps://kahanisuno.com/http://instagram.com/sameergoswamikahanisunohttps://www.facebook.com/kahanisuno/http://twitter.com/goswamisameer/https://sameergoswami.com

  • Gora | Part - 49 | A Novel by Rabindranath Tagore| गोरा | रवीन्द्रनाथ टैगोर का लिखा उपन्यास
    9 min 49 sec

    इस उपन्यास में रवीन्द्रनाथ टैगोर ने खुद के गोद लिए जाने व आयरिश मातापिता की संतान होने, का पता चलने पर, एक राष्ट्रवादी कट्टर हिन्दू व्यक्ति के मन में मची उथलपुथल व व्यवहार में आए बदलाव की कहानी प्रस्तुत की है।उपन्यास गोरा Novel Goraलेखक रवीन्द्रनाथ टैगोर Writer Rabindranath Tagoreस्वर समीर गोस्वामी Narration Sameer Goswamihttps://kahanisuno.com/http://instagram.com/sameergoswamikahanisunohttps://www.facebook.com/kahanisuno/http://twitter.com/goswamisameer/https://sameergoswami.com

  • Gora | Part - 46 | A Novel by Rabindranath Tagore| गोरा | रवीन्द्रनाथ टैगोर का लिखा उपन्यास
    10 min 31 sec

    इस उपन्यास में रवीन्द्रनाथ टैगोर ने खुद के गोद लिए जाने व आयरिश मातापिता की संतान होने, का पता चलने पर, एक राष्ट्रवादी कट्टर हिन्दू व्यक्ति के मन में मची उथलपुथल व व्यवहार में आए बदलाव की कहानी प्रस्तुत की है।उपन्यास गोरा Novel Goraलेखक रवीन्द्रनाथ टैगोर Writer Rabindranath Tagoreस्वर समीर गोस्वामी Narration Sameer Goswamihttps://kahanisuno.com/http://instagram.com/sameergoswamikahanisunohttps://www.facebook.com/kahanisuno/http://twitter.com/goswamisameer/https://sameergoswami.com

  • Gora | Part - 16 | A Novel by Rabindranath Tagore| गोरा | रवीन्द्रनाथ टैगोर का लिखा उपन्यास
    23 min 48 sec

    इस उपन्यास में रवीन्द्रनाथ टैगोर ने खुद के गोद लिए जाने व आयरिश मातापिता की संतान होने, का पता चलने पर, एक राष्ट्रवादी कट्टर हिन्दू व्यक्ति के मन में मची उथलपुथल व व्यवहार में आए बदलाव की कहानी प्रस्तुत की है।उपन्यास गोरा Novel Goraलेखक रवीन्द्रनाथ टैगोर Writer Rabindranath Tagoreस्वर समीर गोस्वामी Narration Sameer Goswamihttps://kahanisuno.com/http://instagram.com/sameergoswamikahanisunohttps://www.facebook.com/kahanisuno/http://twitter.com/goswamisameer/https://sameergoswami.com

  • Gora | Part - 12 | A Novel by Rabindranath Tagore| गोरा | रवीन्द्रनाथ टैगोर का लिखा उपन्यास
    11 min 32 sec

    इस उपन्यास में रवीन्द्रनाथ टैगोर ने खुद के गोद लिए जाने व आयरिश मातापिता की संतान होने, का पता चलने पर, एक राष्ट्रवादी कट्टर हिन्दू व्यक्ति के मन में मची उथलपुथल व व्यवहार में आए बदलाव की कहानी प्रस्तुत की है।उपन्यास गोरा Novel Goraलेखक रवीन्द्रनाथ टैगोर Writer Rabindranath Tagoreस्वर समीर गोस्वामी Narration Sameer Goswamihttps://kahanisuno.com/http://instagram.com/sameergoswamikahanisunohttps://www.facebook.com/kahanisuno/http://twitter.com/goswamisameer/https://sameergoswami.com

  • Apsara | Part - 10 | A Novel by Suryakant Tripathi 'Nirala' | अप्सरा | सूर्यकान्त त्रिपाठी 'निराला' का लिखा उपन्यास
    26 min 32 sec

    इस उपन्यास में निराला ने एक तवायफ़ की संस्कारित, शिक्षित लड़की द्वारा विवाह कर, अपने आत्म सम्मान के साथ, सभ्य समाज में प्रवेश करने, और अपना स्थान व अधिकार प्राप्त करने की कहानी।उपन्यास अप्सरा Novel Apsaraलेखक सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला Writer Suryakant Tripathi Niralaस्वर समीर गोस्वामी Narration Sameer Goswamihttps://kahanisuno.com/http://instagram.com/sameergoswamikahanisunohttps://www.facebook.com/kahanisuno/http://twitter.com/goswamisameer/https://sameergoswami.com

  • Apsara | Part - 8 | A Novel by Suryakant Tripathi 'Nirala' | अप्सरा | सूर्यकान्त त्रिपाठी 'निराला' का लिखा उपन्यास
    8 min 59 sec

    इस उपन्यास में निराला ने एक तवायफ़ की संस्कारित, शिक्षित लड़की द्वारा विवाह कर, अपने आत्म सम्मान के साथ, सभ्य समाज में प्रवेश करने, और अपना स्थान व अधिकार प्राप्त करने की कहानी।उपन्यास अप्सरा Novel Apsaraलेखक सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला Writer Suryakant Tripathi Niralaस्वर समीर गोस्वामी Narration Sameer Goswamihttps://kahanisuno.com/http://instagram.com/sameergoswamikahanisunohttps://www.facebook.com/kahanisuno/http://twitter.com/goswamisameer/https://sameergoswami.com

  • Apsara | Part - 7 | A Novel by Suryakant Tripathi 'Nirala' | अप्सरा | सूर्यकान्त त्रिपाठी 'निराला' का लिखा उपन्यास
    27 min 3 sec

    इस उपन्यास में निराला ने एक तवायफ़ की संस्कारित, शिक्षित लड़की द्वारा विवाह कर, अपने आत्म सम्मान के साथ, सभ्य समाज में प्रवेश करने, और अपना स्थान व अधिकार प्राप्त करने की कहानी।उपन्यास अप्सरा Novel Apsaraलेखक सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला Writer Suryakant Tripathi Niralaस्वर समीर गोस्वामी Narration Sameer Goswamihttps://kahanisuno.com/http://instagram.com/sameergoswamikahanisunohttps://www.facebook.com/kahanisuno/http://twitter.com/goswamisameer/https://sameergoswami.com

  • Apsara | Part - 4 | A Novel by Suryakant Tripathi 'Nirala' | अप्सरा | सूर्यकान्त त्रिपाठी 'निराला' का लिखा उपन्यास
    13 min 56 sec

    इस उपन्यास में निराला ने एक तवायफ़ की संस्कारित, शिक्षित लड़की द्वारा विवाह कर, अपने आत्म सम्मान के साथ, सभ्य समाज में प्रवेश करने, और अपना स्थान व अधिकार प्राप्त करने की कहानी।उपन्यास अप्सरा Novel Apsaraलेखक सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला Writer Suryakant Tripathi Niralaस्वर समीर गोस्वामी Narration Sameer Goswamihttps://kahanisuno.com/http://instagram.com/sameergoswamikahanisunohttps://www.facebook.com/kahanisuno/http://twitter.com/goswamisameer/https://sameergoswami.com

  • Gora | Part - 63 | A Novel by Rabindranath Tagore| गोरा | रवीन्द्रनाथ टैगोर का लिखा उपन्यास
    15 min 34 sec

    इस उपन्यास में रवीन्द्रनाथ टैगोर ने खुद के गोद लिए जाने व आयरिश मातापिता की संतान होने, का पता चलने पर, एक राष्ट्रवादी कट्टर हिन्दू व्यक्ति के मन में मची उथलपुथल व व्यवहार में आए बदलाव की कहानी प्रस्तुत की है।उपन्यास गोरा Novel Goraलेखक रवीन्द्रनाथ टैगोर Writer Rabindranath Tagoreस्वर समीर गोस्वामी Narration Sameer Goswamihttps://kahanisuno.com/http://instagram.com/sameergoswamikahanisunohttps://www.facebook.com/kahanisuno/http://twitter.com/goswamisameer/https://sameergoswami.com

  • Shyama | A Story by Suryakant Tripathi 'Nirala' | श्यामा | सूर्यकान्त त्रिपाठी 'निराला' की लिखी कहानी |
    39 min 27 sec

    एक बिगड़े स्वर्ण युवक द्वारा एक अस्पृश्य की मदद करने के कारण, पिता व समाज द्वारा तिरिष्कृत होने पर, उसी अस्पृश्य की कन्या से विवाह कर संभलने, व पढ़ लिख कर उच्च पद पर पहुँचने की कहानी।कहानी श्यामा  Story Shyamaलेखक सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला Writer Suryakant Tripathi Niralaस्वर समीर गोस्वामी Narration Sameer Goswamihttps://kahanisuno.com/http://instagram.com/sameergoswamikahanisunohttps://www.facebook.com/kahanisuno/http://twitter.com/goswamisameer/https://sameergoswami.com

  • Padma Aur Lili | A Story by Suryakant Tripathi 'Nirala' | पद्मा और लिली | सूर्यकान्त त्रिपाठी 'निराला' की लिखी कहानी |
    18 min 43 sec

    जाति वर्ण के चक्कर में पड़े माता पिता के विरोध के कारण, चाहत के बाद भी,  एक दूसरे से विवाह ना कर पाने वाले एक युवकयुवती की कहानी ।कहानी पद्मा और लिली  Story Padma Aur Liliलेखक सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला Writer Suryakant Tripathi Niralaस्वर समीर गोस्वामी Narration Sameer Goswamihttps://kahanisuno.com/http://instagram.com/sameergoswamikahanisunohttps://www.facebook.com/kahanisuno/http://twitter.com/goswamisameer/https://sameergoswami.com

  • Bhakt Prahlaad | Part 6 | A Short Novel by Suryakant Tripathi 'Nirala' | भक्त प्रह्लाद | सूर्यकान्त त्रिपाठी 'निराला' का लिखा लघु उपन्यास |
    31 min 55 sec

    भक्त प्रह्लाद के जीवन की सम्पूर्ण कहानी।लघु उपन्यास भक्त प्रह्लाद Short Novel Bhakt Prahlaadलेखक सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला Writer Suryakant Tripathi Niralaस्वर समीर गोस्वामी Narration Sameer Goswamihttps://kahanisuno.com/http://instagram.com/sameergoswamikahanisunohttps://www.facebook.com/kahanisuno/http://twitter.com/goswamisameer/https://sameergoswami.com

  • Bhakt Prahlaad | Part 4 | A Short Novel by Suryakant Tripathi 'Nirala' | भक्त प्रह्लाद | सूर्यकान्त त्रिपाठी 'निराला' का लिखा लघु उपन्यास |
    20 min 34 sec

    भक्त प्रह्लाद के जीवन की सम्पूर्ण कहानी।लघु उपन्यास भक्त प्रह्लाद Short Novel Bhakt Prahlaadलेखक सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला Writer Suryakant Tripathi Niralaस्वर समीर गोस्वामी Narration Sameer Goswamihttps://kahanisuno.com/http://instagram.com/sameergoswamikahanisunohttps://www.facebook.com/kahanisuno/http://twitter.com/goswamisameer/https://sameergoswami.com

  • Khooni Aurat Ka Saat Khoon | Part 28 | A Novel by Kishori Lal Goswami | खूनी औरत का सात खून | किशोरी लाल गोस्वामी का लिखा उपन्यास |
    11 min 48 sec

    एक अनाथ युवती द्वारा अपनी इज्जत बचाने की ख़ातिर बदमाशों से जूझने और इस दौरान कई खून के आरोप में युवती के फँसने व बरी होने की कहानी।उपन्यास खूनी औरत का सात खून Novel Khooni Aurat Ka Saat Khoonलेखक किशोरी लाल गोस्वामी Writer Kishori Lal Goswamiस्वर समीर गोस्वामी Narration Sameer Goswamihttps://kahanisuno.com/http://instagram.com/sameergoswamikahanisunohttps://www.facebook.com/kahanisuno/http://twitter.com/goswamisameer/https://sameergoswami.com

  • Khooni Aurat Ka Saat Khoon | Part 26 | A Novel by Kishori Lal Goswami | खूनी औरत का सात खून | किशोरी लाल गोस्वामी का लिखा उपन्यास |
    5 min 34 sec

    एक अनाथ युवती द्वारा अपनी इज्जत बचाने की ख़ातिर बदमाशों से जूझने और इस दौरान कई खून के आरोप में युवती के फँसने व बरी होने की कहानी।उपन्यास खूनी औरत का सात खून Novel Khooni Aurat Ka Saat Khoonलेखक किशोरी लाल गोस्वामी Writer Kishori Lal Goswamiस्वर समीर गोस्वामी Narration Sameer Goswamihttps://kahanisuno.com/http://instagram.com/sameergoswamikahanisunohttps://www.facebook.com/kahanisuno/http://twitter.com/goswamisameer/https://sameergoswami.com

  • Khooni Aurat Ka Saat Khoon | Part 24 | A Novel by Kishori Lal Goswami | खूनी औरत का सात खून | किशोरी लाल गोस्वामी का लिखा उपन्यास |
    9 min 14 sec

    एक अनाथ युवती द्वारा अपनी इज्जत बचाने की ख़ातिर बदमाशों से जूझने और इस दौरान कई खून के आरोप में युवती के फँसने व बरी होने की कहानी।उपन्यास खूनी औरत का सात खून Novel Khooni Aurat Ka Saat Khoonलेखक किशोरी लाल गोस्वामी Writer Kishori Lal Goswamiस्वर समीर गोस्वामी Narration Sameer Goswamihttps://kahanisuno.com/http://instagram.com/sameergoswamikahanisunohttps://www.facebook.com/kahanisuno/http://twitter.com/goswamisameer/https://sameergoswami.com

  • Khooni Aurat Ka Saat Khoon | Part 23 | A Novel by Kishori Lal Goswami | खूनी औरत का सात खून | किशोरी लाल गोस्वामी का लिखा उपन्यास |
    16 min 14 sec

    एक अनाथ युवती द्वारा अपनी इज्जत बचाने की ख़ातिर बदमाशों से जूझने और इस दौरान कई खून के आरोप में युवती के फँसने व बरी होने की कहानी।उपन्यास खूनी औरत का सात खून Novel Khooni Aurat Ka Saat Khoonलेखक किशोरी लाल गोस्वामी Writer Kishori Lal Goswamiस्वर समीर गोस्वामी Narration Sameer Goswamihttps://kahanisuno.com/http://instagram.com/sameergoswamikahanisunohttps://www.facebook.com/kahanisuno/http://twitter.com/goswamisameer/https://sameergoswami.com

  • Khooni Aurat Ka Saat Khoon | Part 19 | A Novel by Kishori Lal Goswami | खूनी औरत का सात खून | किशोरी लाल गोस्वामी का लिखा उपन्यास |
    35 min 39 sec

    एक अनाथ युवती द्वारा अपनी इज्जत बचाने की ख़ातिर बदमाशों से जूझने और इस दौरान कई खून के आरोप में युवती के फँसने व बरी होने की कहानी।उपन्यास खूनी औरत का सात खून Novel Khooni Aurat Ka Saat Khoonलेखक किशोरी लाल गोस्वामी Writer Kishori Lal Goswamiस्वर समीर गोस्वामी Narration Sameer Goswamihttps://kahanisuno.com/http://instagram.com/sameergoswamikahanisunohttps://www.facebook.com/kahanisuno/http://twitter.com/goswamisameer/https://sameergoswami.com

  • Khooni Aurat Ka Saat Khoon | Part 14 | A Novel by Kishori Lal Goswami | खूनी औरत का सात खून | किशोरी लाल गोस्वामी का लिखा उपन्यास |
    15 min 31 sec

    एक अनाथ युवती द्वारा अपनी इज्जत बचाने की ख़ातिर बदमाशों से जूझने और इस दौरान कई खून के आरोप में युवती के फँसने व बरी होने की कहानी।उपन्यास खूनी औरत का सात खून Novel Khooni Aurat Ka Saat Khoonलेखक किशोरी लाल गोस्वामी Writer Kishori Lal Goswamiस्वर समीर गोस्वामी Narration Sameer Goswamihttps://kahanisuno.com/http://instagram.com/sameergoswamikahanisunohttps://www.facebook.com/kahanisuno/http://twitter.com/goswamisameer/https://sameergoswami.com

  • Khooni Aurat Ka Saat Khoon | Part 12 | A Novel by Kishori Lal Goswami | खूनी औरत का सात खून | किशोरी लाल गोस्वामी का लिखा उपन्यास |
    7 min 13 sec

    एक अनाथ युवती द्वारा अपनी इज्जत बचाने की ख़ातिर बदमाशों से जूझने और इस दौरान कई खून के आरोप में युवती के फँसने व बरी होने की कहानी।उपन्यास खूनी औरत का सात खून Novel Khooni Aurat Ka Saat Khoonलेखक किशोरी लाल गोस्वामी Writer Kishori Lal Goswamiस्वर समीर गोस्वामी Narration Sameer Goswamihttps://kahanisuno.com/http://instagram.com/sameergoswamikahanisunohttps://www.facebook.com/kahanisuno/http://twitter.com/goswamisameer/https://sameergoswami.com

  • Khooni Aurat Ka Saat Khoon | Part 10 | A Novel by Kishori Lal Goswami | खूनी औरत का सात खून | किशोरी लाल गोस्वामी का लिखा उपन्यास |
    5 min 54 sec

    एक अनाथ युवती द्वारा अपनी इज्जत बचाने की ख़ातिर बदमाशों से जूझने और इस दौरान कई खून के आरोप में युवती के फँसने व बरी होने की कहानी।उपन्यास खूनी औरत का सात खून Novel Khooni Aurat Ka Saat Khoonलेखक किशोरी लाल गोस्वामी Writer Kishori Lal Goswamiस्वर समीर गोस्वामी Narration Sameer Goswamihttps://kahanisuno.com/http://instagram.com/sameergoswamikahanisunohttps://www.facebook.com/kahanisuno/http://twitter.com/goswamisameer/https://sameergoswami.com

  • Khooni Aurat Ka Saat Khoon | Part 9 | A Novel by Kishori Lal Goswami | खूनी औरत का सात खून | किशोरी लाल गोस्वामी का लिखा उपन्यास |
    11 min 9 sec

    एक अनाथ युवती द्वारा अपनी इज्जत बचाने की ख़ातिर बदमाशों से जूझने और इस दौरान कई खून के आरोप में युवती के फँसने व बरी होने की कहानी।उपन्यास खूनी औरत का सात खून Novel Khooni Aurat Ka Saat Khoonलेखक किशोरी लाल गोस्वामी Writer Kishori Lal Goswamiस्वर समीर गोस्वामी Narration Sameer Goswamihttps://kahanisuno.com/http://instagram.com/sameergoswamikahanisunohttps://www.facebook.com/kahanisuno/http://twitter.com/goswamisameer/https://sameergoswami.com

  • Khooni Aurat Ka Saat Khoon | Part 20 | A Novel by Kishori Lal Goswami | खूनी औरत का सात खून | किशोरी लाल गोस्वामी का लिखा उपन्यास |
    5 min 59 sec

    एक अनाथ युवती द्वारा अपनी इज्जत बचाने की ख़ातिर बदमाशों से जूझने और इस दौरान कई खून के आरोप में युवती के फँसने व बरी होने की कहानी।उपन्यास खूनी औरत का सात खून Novel Khooni Aurat Ka Saat Khoonलेखक किशोरी लाल गोस्वामी Writer Kishori Lal Goswamiस्वर समीर गोस्वामी Narration Sameer Goswamihttps://kahanisuno.com/http://instagram.com/sameergoswamikahanisunohttps://www.facebook.com/kahanisuno/http://twitter.com/goswamisameer/https://sameergoswami.com

  • Vijay 1 | A Story by Vishwambharnath Sharma 'Koushik' | विजय 1 | विश्वम्भरनाथ शर्मा 'कौशिक' की लिखी कहानी |
    16 min 29 sec

    जन्म भूमि की रक्षा व स्वतंत्रता के लिए मारे गए स्वामी, के  पुत्र को पालपोष कर बढ़ा करने, व उसे उसका राज्य वापस दिलाने हेतु तत्पर कर, युद्ध में अपना बलिदान देने वाले एक स्वामीभक्त वीर की कहानी।लेखक विश्वम्भरनाथ शर्मा कौशिक Writer Vishwambharnath Sharma Koushikस्वर समीर गोस्वामी Narration Sameer Goswamihttps://kahanisuno.com/http://instagram.com/sameergoswamikahanisunohttps://www.facebook.com/kahanisuno/http://twitter.com/goswamisameer/https://sameergoswami.com

  • Prabhawati | Part 34 | A Novel by Suryakant Tripathi 'Nirala' | प्रभावती | सूर्यकान्त त्रिपाठी 'निराला' का लिखा उपन्यास |
    7 min 6 sec

    पृथ्वीराज जयचन्द क़ालीन सामन्तसरदारों की आपसी ईर्ष्या, संघर्ष , षड्यंत्र की कहानी।उपन्यास प्रभावती Novel Prabhawatiलेखक सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला Writer Suryakant Tripathi Niralaस्वर समीर गोस्वामी Narration Sameer Goswamihttps://kahanisuno.com/http://instagram.com/sameergoswamikahanisunohttps://www.facebook.com/kahanisuno/http://twitter.com/goswamisameer/https://sameergoswami.com

  • Prabhawati | Part 33 | A Novel by Suryakant Tripathi 'Nirala' | प्रभावती | सूर्यकान्त त्रिपाठी 'निराला' का लिखा उपन्यास |
    7 min 37 sec

    पृथ्वीराज जयचन्द क़ालीन सामन्तसरदारों की आपसी ईर्ष्या, संघर्ष , षड्यंत्र की कहानी।उपन्यास प्रभावती Novel Prabhawatiलेखक सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला Writer Suryakant Tripathi Niralaस्वर समीर गोस्वामी Narration Sameer Goswamihttps://kahanisuno.com/http://instagram.com/sameergoswamikahanisunohttps://www.facebook.com/kahanisuno/http://twitter.com/goswamisameer/https://sameergoswami.com

  • Prabhawati | Part 30 | A Novel by Suryakant Tripathi 'Nirala' | प्रभावती | सूर्यकान्त त्रिपाठी 'निराला' का लिखा उपन्यास |
    7 min 52 sec

    पृथ्वीराज जयचन्द क़ालीन सामन्तसरदारों की आपसी ईर्ष्या, संघर्ष , षड्यंत्र की कहानी।उपन्यास प्रभावती Novel Prabhawatiलेखक सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला Writer Suryakant Tripathi Niralaस्वर समीर गोस्वामी Narration Sameer Goswamihttps://kahanisuno.com/http://instagram.com/sameergoswamikahanisunohttps://www.facebook.com/kahanisuno/http://twitter.com/goswamisameer/https://sameergoswami.com

  • Prabhawati | Part 27 | A Novel by Suryakant Tripathi 'Nirala' | प्रभावती | सूर्यकान्त त्रिपाठी 'निराला' का लिखा उपन्यास |
    11 min 49 sec

    पृथ्वीराज जयचन्द क़ालीन सामन्तसरदारों की आपसी ईर्ष्या, संघर्ष , षड्यंत्र की कहानी।उपन्यास प्रभावती Novel Prabhawatiलेखक सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला Writer Suryakant Tripathi Niralaस्वर समीर गोस्वामी Narration Sameer Goswamihttps://kahanisuno.com/http://instagram.com/sameergoswamikahanisunohttps://www.facebook.com/kahanisuno/http://twitter.com/goswamisameer/https://sameergoswami.com

  • Prabhawati | Part 24 | A Novel by Suryakant Tripathi 'Nirala' | प्रभावती | सूर्यकान्त त्रिपाठी 'निराला' का लिखा उपन्यास |
    8 min 18 sec

    पृथ्वीराज जयचन्द क़ालीन सामन्तसरदारों की आपसी ईर्ष्या, संघर्ष , षड्यंत्र की कहानी।उपन्यास प्रभावती Novel Prabhawatiलेखक सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला Writer Suryakant Tripathi Niralaस्वर समीर गोस्वामी Narration Sameer Goswamihttps://kahanisuno.com/http://instagram.com/sameergoswamikahanisunohttps://www.facebook.com/kahanisuno/http://twitter.com/goswamisameer/https://sameergoswami.com

  • Prabhawati | Part 17 | A Novel by Suryakant Tripathi 'Nirala' | प्रभावती | सूर्यकान्त त्रिपाठी 'निराला' का लिखा उपन्यास |
    7 min 5 sec

    पृथ्वीराज जयचन्द क़ालीन सामन्तसरदारों की आपसी ईर्ष्या, संघर्ष , षड्यंत्र की कहानी।उपन्यास प्रभावती Novel Prabhawatiलेखक सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला Writer Suryakant Tripathi Niralaस्वर समीर गोस्वामी Narration Sameer Goswamihttps://kahanisuno.com/http://instagram.com/sameergoswamikahanisunohttps://www.facebook.com/kahanisuno/http://twitter.com/goswamisameer/https://sameergoswami.com

  • Bhikharin | A Story by Jaishankar Prasad | भिखारिन | जयशंकर प्रसाद की लिखी कहानी |
    5 min 57 sec

    लेखक जयशंकर प्रसाद Writer Jaishankar Prasadस्वर समीर गोस्वामी Narration Sameer Goswami⁠⁠⁠⁠https://kahanisuno.com/⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠http://instagram.com/⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠sameergoswamikahanisuno⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠https://www.facebook.com/kahanisuno/⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠http://twitter.com/goswamisameer/⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠https://sameergoswami.com

  • Bheekh Mein | A Story by Jaishankar Prasad | भीख में | जयशंकर प्रसाद की लिखी कहानी |
    13 min 28 sec

    लेखक जयशंकर प्रसाद Writer Jaishankar Prasadस्वर समीर गोस्वामी Narration Sameer Goswami⁠⁠⁠https://kahanisuno.com/⁠⁠⁠⁠⁠⁠http://instagram.com/⁠⁠⁠⁠⁠⁠sameergoswamikahanisuno⁠⁠⁠⁠⁠⁠https://www.facebook.com/kahanisuno/⁠⁠⁠⁠⁠⁠http://twitter.com/goswamisameer/⁠⁠⁠⁠⁠⁠https://sameergoswami.com

  • Tulsi Chaura | Part 2 | A Novel by Na. Parthasarathy | तुलसी चौरा | ना. पार्थसारथी का लिखा उपन्यास |
    30 min 17 sec

    एक दक्षिण भारतीय कट्टर ब्राह्मण परिवार में, एक विदेशी युवती के बहू बन कर आने और हिन्दू धर्म व संस्कृति के प्रति अपनी श्रद्धा, समर्पण, ज्ञान और अपने व्यवहार से सबको प्रभावित करने की कहानी।उपन्यास तुलसी चौरा Novel Tulsi Chauraलेखक ना. पार्थसारथी Writer Na. Parthasarathyस्वर समीर गोस्वामी Narration Sameer Goswamihttps://kahanisuno.com/http://instagram.com/sameergoswamikahanisunohttps://www.facebook.com/kahanisuno/http://twitter.com/goswamisameer/https://sameergoswami.com

  • Puraskar | A Story by Vishwambharnath Sharma 'Koushik' | पुरस्कार | विश्वम्भरनाथ शर्मा 'कौशिक' की लिखी कहानी |
    20 min 25 sec

    एक रईस की कविता की समझ की आलोचना करने वाले एक नवोदित कवि को उसी रईस द्वारा सम्मानित व पुरुष्कृत करने की कहानी।लेखक विश्वम्भरनाथ शर्मा कौशिक Writer Vishwambharnath Sharma Koushikस्वर समीर गोस्वामी Narration Sameer Goswamihttps://kahanisuno.com/http://instagram.com/sameergoswamikahanisunohttps://www.facebook.com/kahanisuno/http://twitter.com/goswamisameer/https://sameergoswami.com

  • Vishwas | A Story by Vishwambharnath Sharma 'Koushik' | विश्वास | विश्वम्भरनाथ शर्मा 'कौशिक' की लिखी कहानी |
    24 min 6 sec

    खुपिया पुलिस के एक आदमी द्वारा एक समाचार पत्र के संपादक को राजद्रोह के अपराध में फँसा जेल भिजवाने और फिर संपादक जी के अपने प्रति विश्वास को देखकर पल्स की सेवा छोड़ उनके समस्त उत्तर दायित्व स्यवं वहन  करने की कहानी ।लेखक विश्वम्भरनाथ शर्मा कौशिक Writer Vishwambharnath Sharma Koushikस्वर समीर गोस्वामी Narration Sameer Goswamihttps://kahanisuno.com/http://instagram.com/sameergoswamikahanisunohttps://www.facebook.com/kahanisuno/http://twitter.com/goswamisameer/https://sameergoswami.com

  • Paap Ka Phal | A Story by Vishwambharnath Sharma 'Koushik' | पाप का फल | विश्वम्भरनाथ शर्मा 'कौशिक' की लिखी कहानी |
    25 min 53 sec

    बहूबेटियों के साथ छिपकर ताकझांक करने और अपने इस कृत्य को निष्पाप साझने वाले एक युवक द्वारा  इसके दुष्परिणाम  भोगने की कहानी।लेखक विश्वम्भरनाथ शर्मा कौशिक Writer Vishwambharnath Sharma Koushikस्वर समीर गोस्वामी Narration Sameer Goswamihttps://kahanisuno.com/http://instagram.com/sameergoswamikahanisunohttps://www.facebook.com/kahanisuno/http://twitter.com/goswamisameer/https://sameergoswami.com

  • Veer Shreshtha | A Story by Vishwambharnath Sharma 'Koushik' | वीर श्रेष्ठ | विश्वम्भरनाथ शर्मा 'कौशिक' की लिखी कहानी |
    27 min 21 sec

    गाँव के वृद्ध ठाकुर से उलझकर उस पर  धोखे से आक्रमण करने के दौरान, आक्रमणकारी  युवक के ही, ठाकुर  के हाथों पिटने और  पहचाने जाने पर, ठाकुर द्वारा ही सेवा व उपचार करने की कहानी।लेखक विश्वम्भरनाथ शर्मा कौशिक Writer Vishwambharnath Sharma Koushikस्वर समीर गोस्वामी Narration Sameer Goswamihttps://kahanisuno.com/http://instagram.com/sameergoswamikahanisunohttps://www.facebook.com/kahanisuno/http://twitter.com/goswamisameer/https://sameergoswami.com

  • Ghun | A Story by Vishwambharnath Sharma 'Koushik' | घुन | विश्वम्भरनाथ शर्मा 'कौशिक' की लिखी कहानी |
    25 min 52 sec

    गाँव के पटवारी द्वारा दो किसानों को ज़मीन के चक्कर में उलझा कर उनसे रुपए ऐंठने, व  दोनों के अदालत पहुँच मुक़दमे बाज़ी में कंगाल बनने की कहानी।लेखक विश्वम्भरनाथ शर्मा कौशिक Writer Vishwambharnath Sharma Koushikस्वर समीर गोस्वामी Narration Sameer Goswamihttps://kahanisuno.com/http://instagram.com/sameergoswamikahanisunohttps://www.facebook.com/kahanisuno/http://twitter.com/goswamisameer/https://sameergoswami.com

  • Bhranti | A Story by Vishwambharnath Sharma 'Koushik' | भ्रांति | विश्वम्भरनाथ शर्मा 'कौशिक' की लिखी कहानी |
    10 min 38 sec

    एक दुराचारी व्यक्ति द्वारा एक गरीब की पुत्री पर बुरी निगाह डालने पर उसी के मित्र द्वारा उसका विरोध करने की कहानी।लेखक विश्वम्भरनाथ शर्मा कौशिक Writer Vishwambharnath Sharma Koushikस्वर समीर गोस्वामी Narration Sameer Goswamihttps://kahanisuno.com/http://instagram.com/sameergoswamikahanisunohttps://www.facebook.com/kahanisuno/http://twitter.com/goswamisameer/https://sameergoswami.com

  • Munshi Ki Diwali | A Story by Vishwambharnath Sharma 'Koushik' | मुंशी की दिवाली | विश्वम्भरनाथ शर्मा 'कौशिक' की लिखी कहानी |
    17 min 44 sec

    जुए के नाम से चिढ़ने वाले वाले एक व्यक्ति के दोसों के उकसाने पर दिवाली के दिन जुआ खेलने व हारने की कहानी।लेखक विश्वम्भरनाथ शर्मा कौशिक Writer Vishwambharnath Sharma Koushikस्वर समीर गोस्वामी Narration Sameer Goswamihttps://kahanisuno.com/http://instagram.com/sameergoswamikahanisunohttps://www.facebook.com/kahanisuno/http://twitter.com/goswamisameer/https://sameergoswami.com

  • Nirupama | Part - 23 | A Novel by Suryakant Tripathi 'Nirala' | निरुपमा | सूर्यकान्त त्रिपाठी 'निराला' का लिखा उपन्यास |
    11 min 12 sec

    अतुल सम्पत्ति की उत्तराधिकारी एक अनाथ लड़की के, चालबाज़ व लोलुप रिस्तेदारों से बचने व अपनी पसंद के  स्वाभिमानी, सुशिक्षित, सुयोग्य युवक से विवाह करने की कहानी ।उपन्यास निरुपमा Novel Nirupamaलेखक सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला Writer Suryakant Tripathi Niralaस्वर समीर गोस्वामी Narration Sameer Goswamihttps://kahanisuno.com/http://instagram.com/sameergoswamikahanisunohttps://www.facebook.com/kahanisuno/http://twitter.com/goswamisameer/https://sameergoswami.com

  • Nirupama | Part - 21 | A Novel by Suryakant Tripathi 'Nirala' | निरुपमा | सूर्यकान्त त्रिपाठी 'निराला' का लिखा उपन्यास |
    9 min 38 sec

    अतुल सम्पत्ति की उत्तराधिकारी एक अनाथ लड़की के, चालबाज़ व लोलुप रिस्तेदारों से बचने व अपनी पसंद के  स्वाभिमानी, सुशिक्षित, सुयोग्य युवक से विवाह करने की कहानी ।उपन्यास निरुपमा Novel Nirupamaलेखक सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला Writer Suryakant Tripathi Niralaस्वर समीर गोस्वामी Narration Sameer Goswamihttps://kahanisuno.com/http://instagram.com/sameergoswamikahanisunohttps://www.facebook.com/kahanisuno/http://twitter.com/goswamisameer/https://sameergoswami.com

  • Nirupama | Part - 19 | A Novel by Suryakant Tripathi 'Nirala' | निरुपमा | सूर्यकान्त त्रिपाठी 'निराला' का लिखा उपन्यास |
    12 min

    अतुल सम्पत्ति की उत्तराधिकारी एक अनाथ लड़की के, चालबाज़ व लोलुप रिस्तेदारों से बचने व अपनी पसंद के  स्वाभिमानी, सुशिक्षित, सुयोग्य युवक से विवाह करने की कहानी ।उपन्यास निरुपमा Novel Nirupamaलेखक सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला Writer Suryakant Tripathi Niralaस्वर समीर गोस्वामी Narration Sameer Goswamihttps://kahanisuno.com/http://instagram.com/sameergoswamikahanisunohttps://www.facebook.com/kahanisuno/http://twitter.com/goswamisameer/https://sameergoswami.com

  • Nirupama | Part - 16 | A Novel by Suryakant Tripathi 'Nirala' | निरुपमा | सूर्यकान्त त्रिपाठी 'निराला' का लिखा उपन्यास |
    8 min 44 sec

    अतुल सम्पत्ति की उत्तराधिकारी एक अनाथ लड़की के, चालबाज़ व लोलुप रिस्तेदारों से बचने व अपनी पसंद के  स्वाभिमानी, सुशिक्षित, सुयोग्य युवक से विवाह करने की कहानी ।उपन्यास निरुपमा Novel Nirupamaलेखक सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला Writer Suryakant Tripathi Niralaस्वर समीर गोस्वामी Narration Sameer Goswamihttps://kahanisuno.com/http://instagram.com/sameergoswamikahanisunohttps://www.facebook.com/kahanisuno/http://twitter.com/goswamisameer/https://sameergoswami.com

  • Nirupama | Part - 15 | A Novel by Suryakant Tripathi 'Nirala' | निरुपमा | सूर्यकान्त त्रिपाठी 'निराला' का लिखा उपन्यास |
    13 min 26 sec

    अतुल सम्पत्ति की उत्तराधिकारी एक अनाथ लड़की के, चालबाज़ व लोलुप रिस्तेदारों से बचने व अपनी पसंद के  स्वाभिमानी, सुशिक्षित, सुयोग्य युवक से विवाह करने की कहानी ।उपन्यास निरुपमा Novel Nirupamaलेखक सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला Writer Suryakant Tripathi Niralaस्वर समीर गोस्वामी Narration Sameer Goswamihttps://kahanisuno.com/http://instagram.com/sameergoswamikahanisunohttps://www.facebook.com/kahanisuno/http://twitter.com/goswamisameer/https://sameergoswami.com

  • Nirupama | Part - 14 | A Novel by Suryakant Tripathi 'Nirala' | निरुपमा | सूर्यकान्त त्रिपाठी 'निराला' का लिखा उपन्यास |
    8 min 15 sec

    अतुल सम्पत्ति की उत्तराधिकारी एक अनाथ लड़की के, चालबाज़ व लोलुप रिस्तेदारों से बचने व अपनी पसंद के  स्वाभिमानी, सुशिक्षित, सुयोग्य युवक से विवाह करने की कहानी ।उपन्यास निरुपमा Novel Nirupamaलेखक सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला Writer Suryakant Tripathi Niralaस्वर समीर गोस्वामी Narration Sameer Goswamihttps://kahanisuno.com/http://instagram.com/sameergoswamikahanisunohttps://www.facebook.com/kahanisuno/http://twitter.com/goswamisameer/https://sameergoswami.com

  • Nirupama | Part - 10 | A Novel by Suryakant Tripathi 'Nirala' | निरुपमा | सूर्यकान्त त्रिपाठी 'निराला' का लिखा उपन्यास |
    15 min 25 sec

    अतुल सम्पत्ति की उत्तराधिकारी एक अनाथ लड़की के, चालबाज़ व लोलुप रिस्तेदारों से बचने व अपनी पसंद के  स्वाभिमानी, सुशिक्षित, सुयोग्य युवक से विवाह करने की कहानी ।उपन्यास निरुपमा Novel Nirupamaलेखक सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला Writer Suryakant Tripathi Niralaस्वर समीर गोस्वामी Narration Sameer Goswamihttps://kahanisuno.com/http://instagram.com/sameergoswamikahanisunohttps://www.facebook.com/kahanisuno/http://twitter.com/goswamisameer/https://sameergoswami.com

  • Nirupama | Part - 4 | A Novel by Suryakant Tripathi 'Nirala' | निरुपमा | सूर्यकान्त त्रिपाठी 'निराला' का लिखा उपन्यास |
    14 min 21 sec

    अतुल सम्पत्ति की उत्तराधिकारी एक अनाथ लड़की के, चालबाज़ व लोलुप रिस्तेदारों से बचने व अपनी पसंद के  स्वाभिमानी, सुशिक्षित, सुयोग्य युवक से विवाह करने की कहानी ।उपन्यास निरुपमा Novel Nirupamaलेखक सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला Writer Suryakant Tripathi Niralaस्वर समीर गोस्वामी Narration Sameer Goswamihttps://kahanisuno.com/http://instagram.com/sameergoswamikahanisunohttps://www.facebook.com/kahanisuno/http://twitter.com/goswamisameer/https://sameergoswami.com

  • Nirupama | Part - 2 | A Novel by Suryakant Tripathi 'Nirala' | निरुपमा | सूर्यकान्त त्रिपाठी 'निराला' का लिखा उपन्यास |
    10 min 34 sec

    अतुल सम्पत्ति की उत्तराधिकारी एक अनाथ लड़की के, चालबाज़ व लोलुप रिस्तेदारों से बचने व अपनी पसंद के  स्वाभिमानी, सुशिक्षित, सुयोग्य युवक से विवाह करने की कहानी ।उपन्यास निरुपमा Novel Nirupamaलेखक सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला Writer Suryakant Tripathi Niralaस्वर समीर गोस्वामी Narration Sameer Goswamihttps://kahanisuno.com/http://instagram.com/sameergoswamikahanisunohttps://www.facebook.com/kahanisuno/http://twitter.com/goswamisameer/https://sameergoswami.com

  • Tulsi Chaura | Part 13 | A Novel by Na. Parthasarathy | तुलसी चौरा | ना. पार्थसारथी का लिखा उपन्यास |
    28 min 3 sec

    एक दक्षिण भारतीय कट्टर ब्राह्मण परिवार में, एक विदेशी युवती के बहू बन कर आने और हिन्दू धर्म व संस्कृति के प्रति अपनी श्रद्धा, समर्पण, ज्ञान और अपने व्यवहार से सबको प्रभावित करने की कहानी।उपन्यास तुलसी चौरा Novel Tulsi Chauraलेखक ना. पार्थसारथी Writer Na. Parthasarathyस्वर समीर गोस्वामी Narration Sameer Goswamihttps://kahanisuno.com/http://instagram.com/sameergoswamikahanisunohttps://www.facebook.com/kahanisuno/http://twitter.com/goswamisameer/https://sameergoswami.com

  • Tulsi Chaura | Part 6 | A Novel by Na. Parthasarathy | तुलसी चौरा | ना. पार्थसारथी का लिखा उपन्यास |
    25 min 4 sec

    एक दक्षिण भारतीय कट्टर ब्राह्मण परिवार में, एक विदेशी युवती के बहू बन कर आने और हिन्दू धर्म व संस्कृति के प्रति अपनी श्रद्धा, समर्पण, ज्ञान और अपने व्यवहार से सबको प्रभावित करने की कहानी।उपन्यास तुलसी चौरा Novel Tulsi Chauraलेखक ना. पार्थसारथी Writer Na. Parthasarathyस्वर समीर गोस्वामी Narration Sameer Goswamihttps://kahanisuno.com/http://instagram.com/sameergoswamikahanisunohttps://www.facebook.com/kahanisuno/http://twitter.com/goswamisameer/https://sameergoswami.com

  • Tulsi Chaura | Part 5 | A Novel by Na. Parthasarathy | तुलसी चौरा | ना. पार्थसारथी का लिखा उपन्यास |
    11 min 40 sec

    एक दक्षिण भारतीय कट्टर ब्राह्मण परिवार में, एक विदेशी युवती के बहू बन कर आने और हिन्दू धर्म व संस्कृति के प्रति अपनी श्रद्धा, समर्पण, ज्ञान और अपने व्यवहार से सबको प्रभावित करने की कहानी।उपन्यास तुलसी चौरा Novel Tulsi Chauraलेखक ना. पार्थसारथी Writer Na. Parthasarathyस्वर समीर गोस्वामी Narration Sameer Goswamihttps://kahanisuno.com/http://instagram.com/sameergoswamikahanisunohttps://www.facebook.com/kahanisuno/http://twitter.com/goswamisameer/https://sameergoswami.com

  • Tulsi Chaura | Part 4 | A Novel by Na. Parthasarathy | तुलसी चौरा | ना. पार्थसारथी का लिखा उपन्यास |
    18 min 2 sec

    एक दक्षिण भारतीय कट्टर ब्राह्मण परिवार में, एक विदेशी युवती के बहू बन कर आने और हिन्दू धर्म व संस्कृति के प्रति अपनी श्रद्धा, समर्पण, ज्ञान और अपने व्यवहार से सबको प्रभावित करने की कहानी।उपन्यास तुलसी चौरा Novel Tulsi Chauraलेखक ना. पार्थसारथी Writer Na. Parthasarathyस्वर समीर गोस्वामी Narration Sameer Goswamihttps://kahanisuno.com/http://instagram.com/sameergoswamikahanisunohttps://www.facebook.com/kahanisuno/http://twitter.com/goswamisameer/https://sameergoswami.com

  • Vayam Rakshamah - Part 123 - Astrapani Rawan | वयं रक्षाम: - भाग 123 - अस्त्रपाणि रावण | A Novel by Acharya Chatursen Shastri | आचार्य चतुरसेन शास्त्री का लिखा उपन्यास
    14 min 35 sec

    वयं रक्षाम: में प्राग्वेदकालीन जातियों के सम्बन्ध में सर्वथा अकल्पित अतर्कित नई स्थापनाएं हैं , मुक्त सहवास है, विवसन विचरण है, हरण और पलायन है। शिश्नदेव की उपासना है, वैदिक अवैदिक अश्रुत मिश्रण है। नर मांस की खुले बाजार में बिक्री है, नृत्य है, मद है, उन्मुख अनावृत यौवन है ।इस उपन्यास में प्राग्वेदकालीन नर, नाग, देव, दैत्यदानव, आर्यअनार्य आदि विविध नृवंशों के जीवन के वे विस्तृतपुरातन रेखाचित्र हैं, जिन्हें धर्म के रंगीन शीशे में देख कर सारे संसार ने अंतरिक्ष का देवता मान लिया था। मैं इस उपन्यास में उन्हें नर रूप में आपके समक्ष उपस्थित करने का साहस कर रहा हूँ। आज तक कभी मनुष्य की वाणी से न सुनी गई बातें, मैं आपको सुनाने पर आमादा हूँ।....उपन्यास में मेरे अपने जीवनभर के अध्ययन का सार है।...आचार्य चतुरसेनउपन्यास वयं रक्षाम: Novel Vayam Rakshamahलेखक आचार्य चतुरसेन शास्त्री Writer Acharya Chatursen Shastriस्वर समीर गोस्वामी Narration Sameer Goswamihttps://kahanisuno.com/http://instagram.com/sameergoswamikahanisunohttps://www.facebook.com/kahanisuno/http://twitter.com/goswamisameer/https://sameergoswami.com

  • Vayam Rakshamah - Part 122 - Susamwad | वयं रक्षाम: - भाग 122 - सुसंवाद | A Novel by Acharya Chatursen Shastri | आचार्य चतुरसेन शास्त्री का लिखा उपन्यास
    8 min 21 sec

    वयं रक्षाम: में प्राग्वेदकालीन जातियों के सम्बन्ध में सर्वथा अकल्पित अतर्कित नई स्थापनाएं हैं , मुक्त सहवास है, विवसन विचरण है, हरण और पलायन है। शिश्नदेव की उपासना है, वैदिक अवैदिक अश्रुत मिश्रण है। नर मांस की खुले बाजार में बिक्री है, नृत्य है, मद है, उन्मुख अनावृत यौवन है ।इस उपन्यास में प्राग्वेदकालीन नर, नाग, देव, दैत्यदानव, आर्यअनार्य आदि विविध नृवंशों के जीवन के वे विस्तृतपुरातन रेखाचित्र हैं, जिन्हें धर्म के रंगीन शीशे में देख कर सारे संसार ने अंतरिक्ष का देवता मान लिया था। मैं इस उपन्यास में उन्हें नर रूप में आपके समक्ष उपस्थित करने का साहस कर रहा हूँ। आज तक कभी मनुष्य की वाणी से न सुनी गई बातें, मैं आपको सुनाने पर आमादा हूँ।....उपन्यास में मेरे अपने जीवनभर के अध्ययन का सार है।...आचार्य चतुरसेनउपन्यास वयं रक्षाम: Novel Vayam Rakshamahलेखक आचार्य चतुरसेन शास्त्री Writer Acharya Chatursen Shastriस्वर समीर गोस्वामी Narration Sameer Goswamihttps://kahanisuno.com/http://instagram.com/sameergoswamikahanisunohttps://www.facebook.com/kahanisuno/http://twitter.com/goswamisameer/https://sameergoswami.com

  • Vayam Rakshamah - Part 119 - Vajrapat | वयं रक्षाम: - भाग 119 - वज्रपात | A Novel by Acharya Chatursen Shastri | आचार्य चतुरसेन शास्त्री का लिखा उपन्यास
    9 min 12 sec

    वयं रक्षाम: में प्राग्वेदकालीन जातियों के सम्बन्ध में सर्वथा अकल्पित अतर्कित नई स्थापनाएं हैं , मुक्त सहवास है, विवसन विचरण है, हरण और पलायन है। शिश्नदेव की उपासना है, वैदिक अवैदिक अश्रुत मिश्रण है। नर मांस की खुले बाजार में बिक्री है, नृत्य है, मद है, उन्मुख अनावृत यौवन है ।इस उपन्यास में प्राग्वेदकालीन नर, नाग, देव, दैत्यदानव, आर्यअनार्य आदि विविध नृवंशों के जीवन के वे विस्तृतपुरातन रेखाचित्र हैं, जिन्हें धर्म के रंगीन शीशे में देख कर सारे संसार ने अंतरिक्ष का देवता मान लिया था। मैं इस उपन्यास में उन्हें नर रूप में आपके समक्ष उपस्थित करने का साहस कर रहा हूँ। आज तक कभी मनुष्य की वाणी से न सुनी गई बातें, मैं आपको सुनाने पर आमादा हूँ।....उपन्यास में मेरे अपने जीवनभर के अध्ययन का सार है।...आचार्य चतुरसेनउपन्यास वयं रक्षाम: Novel Vayam Rakshamahलेखक आचार्य चतुरसेन शास्त्री Writer Acharya Chatursen Shastriस्वर समीर गोस्वामी Narration Sameer Goswamihttps://kahanisuno.com/http://instagram.com/sameergoswamikahanisunohttps://www.facebook.com/kahanisuno/http://twitter.com/goswamisameer/https://sameergoswami.com

  • Vayam Rakshamah - Part 116 - Koot Yog | वयं रक्षाम: - भाग 116 - कूट योग | A Novel by Acharya Chatursen Shastri | आचार्य चतुरसेन शास्त्री का लिखा उपन्यास
    7 min 52 sec

    वयं रक्षाम: में प्राग्वेदकालीन जातियों के सम्बन्ध में सर्वथा अकल्पित अतर्कित नई स्थापनाएं हैं , मुक्त सहवास है, विवसन विचरण है, हरण और पलायन है। शिश्नदेव की उपासना है, वैदिक अवैदिक अश्रुत मिश्रण है। नर मांस की खुले बाजार में बिक्री है, नृत्य है, मद है, उन्मुख अनावृत यौवन है ।इस उपन्यास में प्राग्वेदकालीन नर, नाग, देव, दैत्यदानव, आर्यअनार्य आदि विविध नृवंशों के जीवन के वे विस्तृतपुरातन रेखाचित्र हैं, जिन्हें धर्म के रंगीन शीशे में देख कर सारे संसार ने अंतरिक्ष का देवता मान लिया था। मैं इस उपन्यास में उन्हें नर रूप में आपके समक्ष उपस्थित करने का साहस कर रहा हूँ। आज तक कभी मनुष्य की वाणी से न सुनी गई बातें, मैं आपको सुनाने पर आमादा हूँ।....उपन्यास में मेरे अपने जीवनभर के अध्ययन का सार है।...आचार्य चतुरसेनउपन्यास वयं रक्षाम: Novel Vayam Rakshamahलेखक आचार्य चतुरसेन शास्त्री Writer Acharya Chatursen Shastriस्वर समीर गोस्वामी Narration Sameer Goswamihttps://kahanisuno.com/http://instagram.com/sameergoswamikahanisunohttps://www.facebook.com/kahanisuno/http://twitter.com/goswamisameer/https://sameergoswami.com

  • Vayam Rakshamah - Part 115 - Vaidehi Vaikalya | वयं रक्षाम: - भाग 115 - वैदेही - वैकल्य | A Novel by Acharya Chatursen Shastri | आचार्य चतुरसेन शास्त्री का लिखा उपन्यास
    11 min 18 sec

    वयं रक्षाम: में प्राग्वेदकालीन जातियों के सम्बन्ध में सर्वथा अकल्पित अतर्कित नई स्थापनाएं हैं , मुक्त सहवास है, विवसन विचरण है, हरण और पलायन है। शिश्नदेव की उपासना है, वैदिक अवैदिक अश्रुत मिश्रण है। नर मांस की खुले बाजार में बिक्री है, नृत्य है, मद है, उन्मुख अनावृत यौवन है ।इस उपन्यास में प्राग्वेदकालीन नर, नाग, देव, दैत्यदानव, आर्यअनार्य आदि विविध नृवंशों के जीवन के वे विस्तृतपुरातन रेखाचित्र हैं, जिन्हें धर्म के रंगीन शीशे में देख कर सारे संसार ने अंतरिक्ष का देवता मान लिया था। मैं इस उपन्यास में उन्हें नर रूप में आपके समक्ष उपस्थित करने का साहस कर रहा हूँ। आज तक कभी मनुष्य की वाणी से न सुनी गई बातें, मैं आपको सुनाने पर आमादा हूँ।....उपन्यास में मेरे अपने जीवनभर के अध्ययन का सार है।...आचार्य चतुरसेनउपन्यास वयं रक्षाम: Novel Vayam Rakshamahलेखक आचार्य चतुरसेन शास्त्री Writer Acharya Chatursen Shastriस्वर समीर गोस्वामी Narration Sameer Goswamihttps://kahanisuno.com/http://instagram.com/sameergoswamikahanisunohttps://www.facebook.com/kahanisuno/http://twitter.com/goswamisameer/https://sameergoswami.com

  • Vayam Rakshamah - Part 112 - Abhisaar | वयं रक्षाम: - भाग 112 - अभिसार | A Novel by Acharya Chatursen Shastri | आचार्य चतुरसेन शास्त्री का लिखा उपन्यास
    15 min 15 sec

    वयं रक्षाम: में प्राग्वेदकालीन जातियों के सम्बन्ध में सर्वथा अकल्पित अतर्कित नई स्थापनाएं हैं , मुक्त सहवास है, विवसन विचरण है, हरण और पलायन है। शिश्नदेव की उपासना है, वैदिक अवैदिक अश्रुत मिश्रण है। नर मांस की खुले बाजार में बिक्री है, नृत्य है, मद है, उन्मुख अनावृत यौवन है ।इस उपन्यास में प्राग्वेदकालीन नर, नाग, देव, दैत्यदानव, आर्यअनार्य आदि विविध नृवंशों के जीवन के वे विस्तृतपुरातन रेखाचित्र हैं, जिन्हें धर्म के रंगीन शीशे में देख कर सारे संसार ने अंतरिक्ष का देवता मान लिया था। मैं इस उपन्यास में उन्हें नर रूप में आपके समक्ष उपस्थित करने का साहस कर रहा हूँ। आज तक कभी मनुष्य की वाणी से न सुनी गई बातें, मैं आपको सुनाने पर आमादा हूँ।....उपन्यास में मेरे अपने जीवनभर के अध्ययन का सार है।...आचार्य चतुरसेनउपन्यास वयं रक्षाम: Novel Vayam Rakshamahलेखक आचार्य चतुरसेन शास्त्री Writer Acharya Chatursen Shastriस्वर समीर गोस्वामी Narration Sameer Goswamihttps://kahanisuno.com/http://instagram.com/sameergoswamikahanisunohttps://www.facebook.com/kahanisuno/http://twitter.com/goswamisameer/https://sameergoswami.com

  • Vayam Rakshamah - Part 111 - Dhoorjati Ke Saanidhya Mein | वयं रक्षाम: - भाग 111 - धूर्जटि के सान्निध्य में | A Novel by Acharya Chatursen Shastri | आचार्य चतुरसेन शास्त्री का लिखा उपन्यास
    13 min 44 sec

    वयं रक्षाम: में प्राग्वेदकालीन जातियों के सम्बन्ध में सर्वथा अकल्पित अतर्कित नई स्थापनाएं हैं , मुक्त सहवास है, विवसन विचरण है, हरण और पलायन है। शिश्नदेव की उपासना है, वैदिक अवैदिक अश्रुत मिश्रण है। नर मांस की खुले बाजार में बिक्री है, नृत्य है, मद है, उन्मुख अनावृत यौवन है ।इस उपन्यास में प्राग्वेदकालीन नर, नाग, देव, दैत्यदानव, आर्यअनार्य आदि विविध नृवंशों के जीवन के वे विस्तृतपुरातन रेखाचित्र हैं, जिन्हें धर्म के रंगीन शीशे में देख कर सारे संसार ने अंतरिक्ष का देवता मान लिया था। मैं इस उपन्यास में उन्हें नर रूप में आपके समक्ष उपस्थित करने का साहस कर रहा हूँ। आज तक कभी मनुष्य की वाणी से न सुनी गई बातें, मैं आपको सुनाने पर आमादा हूँ।....उपन्यास में मेरे अपने जीवनभर के अध्ययन का सार है।...आचार्य चतुरसेनउपन्यास वयं रक्षाम: Novel Vayam Rakshamahलेखक आचार्य चतुरसेन शास्त्री Writer Acharya Chatursen Shastriस्वर समीर गोस्वामी Narration Sameer Goswamihttps://kahanisuno.com/http://instagram.com/sameergoswamikahanisunohttps://www.facebook.com/kahanisuno/http://twitter.com/goswamisameer/https://sameergoswami.com

  • Vayam Rakshamah - Part 106 - Mahatej Kumbhkarn | वयं रक्षाम: - भाग 106 - महातेज कुम्भकर्ण | A Novel by Acharya Chatursen Shastri | आचार्य चतुरसेन शास्त्री का लिखा उपन्यास
    12 min 39 sec

    वयं रक्षाम: में प्राग्वेदकालीन जातियों के सम्बन्ध में सर्वथा अकल्पित अतर्कित नई स्थापनाएं हैं , मुक्त सहवास है, विवसन विचरण है, हरण और पलायन है। शिश्नदेव की उपासना है, वैदिक अवैदिक अश्रुत मिश्रण है। नर मांस की खुले बाजार में बिक्री है, नृत्य है, मद है, उन्मुख अनावृत यौवन है ।इस उपन्यास में प्राग्वेदकालीन नर, नाग, देव, दैत्यदानव, आर्यअनार्य आदि विविध नृवंशों के जीवन के वे विस्तृतपुरातन रेखाचित्र हैं, जिन्हें धर्म के रंगीन शीशे में देख कर सारे संसार ने अंतरिक्ष का देवता मान लिया था। मैं इस उपन्यास में उन्हें नर रूप में आपके समक्ष उपस्थित करने का साहस कर रहा हूँ। आज तक कभी मनुष्य की वाणी से न सुनी गई बातें, मैं आपको सुनाने पर आमादा हूँ।....उपन्यास में मेरे अपने जीवनभर के अध्ययन का सार है।...आचार्य चतुरसेनउपन्यास वयं रक्षाम: Novel Vayam Rakshamahलेखक आचार्य चतुरसेन शास्त्री Writer Acharya Chatursen Shastriस्वर समीर गोस्वामी Narration Sameer Goswamihttps://kahanisuno.com/http://instagram.com/sameergoswamikahanisunohttps://www.facebook.com/kahanisuno/http://twitter.com/goswamisameer/https://sameergoswami.com

  • Vayam Rakshamah - Part 105 - Tumul Yuddh | वयं रक्षाम: - भाग 105 - तुमुल युद्ध | A Novel by Acharya Chatursen Shastri | आचार्य चतुरसेन शास्त्री का लिखा उपन्यास
    11 min 12 sec

    वयं रक्षाम: में प्राग्वेदकालीन जातियों के सम्बन्ध में सर्वथा अकल्पित अतर्कित नई स्थापनाएं हैं , मुक्त सहवास है, विवसन विचरण है, हरण और पलायन है। शिश्नदेव की उपासना है, वैदिक अवैदिक अश्रुत मिश्रण है। नर मांस की खुले बाजार में बिक्री है, नृत्य है, मद है, उन्मुख अनावृत यौवन है ।इस उपन्यास में प्राग्वेदकालीन नर, नाग, देव, दैत्यदानव, आर्यअनार्य आदि विविध नृवंशों के जीवन के वे विस्तृतपुरातन रेखाचित्र हैं, जिन्हें धर्म के रंगीन शीशे में देख कर सारे संसार ने अंतरिक्ष का देवता मान लिया था। मैं इस उपन्यास में उन्हें नर रूप में आपके समक्ष उपस्थित करने का साहस कर रहा हूँ। आज तक कभी मनुष्य की वाणी से न सुनी गई बातें, मैं आपको सुनाने पर आमादा हूँ।....उपन्यास में मेरे अपने जीवनभर के अध्ययन का सार है।...आचार्य चतुरसेनउपन्यास वयं रक्षाम: Novel Vayam Rakshamahलेखक आचार्य चतुरसेन शास्त्री Writer Acharya Chatursen Shastriस्वर समीर गोस्वामी Narration Sameer Goswamihttps://kahanisuno.com/http://instagram.com/sameergoswamikahanisunohttps://www.facebook.com/kahanisuno/http://twitter.com/goswamisameer/https://sameergoswami.com

  • Vayam Rakshamah - Part 104 - Harsh Vishaad | वयं रक्षाम: - भाग 104 - हर्ष -विषाद | A Novel by Acharya Chatursen Shastri | आचार्य चतुरसेन शास्त्री का लिखा उपन्यास
    5 min 19 sec

    वयं रक्षाम: में प्राग्वेदकालीन जातियों के सम्बन्ध में सर्वथा अकल्पित अतर्कित नई स्थापनाएं हैं , मुक्त सहवास है, विवसन विचरण है, हरण और पलायन है। शिश्नदेव की उपासना है, वैदिक अवैदिक अश्रुत मिश्रण है। नर मांस की खुले बाजार में बिक्री है, नृत्य है, मद है, उन्मुख अनावृत यौवन है ।इस उपन्यास में प्राग्वेदकालीन नर, नाग, देव, दैत्यदानव, आर्यअनार्य आदि विविध नृवंशों के जीवन के वे विस्तृतपुरातन रेखाचित्र हैं, जिन्हें धर्म के रंगीन शीशे में देख कर सारे संसार ने अंतरिक्ष का देवता मान लिया था। मैं इस उपन्यास में उन्हें नर रूप में आपके समक्ष उपस्थित करने का साहस कर रहा हूँ। आज तक कभी मनुष्य की वाणी से न सुनी गई बातें, मैं आपको सुनाने पर आमादा हूँ।....उपन्यास में मेरे अपने जीवनभर के अध्ययन का सार है।...आचार्य चतुरसेनउपन्यास वयं रक्षाम: Novel Vayam Rakshamahलेखक आचार्य चतुरसेन शास्त्री Writer Acharya Chatursen Shastriस्वर समीर गोस्वामी Narration Sameer Goswamihttps://kahanisuno.com/http://instagram.com/sameergoswamikahanisunohttps://www.facebook.com/kahanisuno/http://twitter.com/goswamisameer/https://sameergoswami.com

  • Vayam Rakshamah - Part 94 - Abhigaman | वयं रक्षाम: - भाग 94 - अभिगमन | A Novel by Acharya Chatursen Shastri | आचार्य चतुरसेन शास्त्री का लिखा उपन्यास
    5 min 25 sec

    वयं रक्षाम: में प्राग्वेदकालीन जातियों के सम्बन्ध में सर्वथा अकल्पित अतर्कित नई स्थापनाएं हैं , मुक्त सहवास है, विवसन विचरण है, हरण और पलायन है। शिश्नदेव की उपासना है, वैदिक अवैदिक अश्रुत मिश्रण है। नर मांस की खुले बाजार में बिक्री है, नृत्य है, मद है, उन्मुख अनावृत यौवन है ।इस उपन्यास में प्राग्वेदकालीन नर, नाग, देव, दैत्यदानव, आर्यअनार्य आदि विविध नृवंशों के जीवन के वे विस्तृतपुरातन रेखाचित्र हैं, जिन्हें धर्म के रंगीन शीशे में देख कर सारे संसार ने अंतरिक्ष का देवता मान लिया था। मैं इस उपन्यास में उन्हें नर रूप में आपके समक्ष उपस्थित करने का साहस कर रहा हूँ। आज तक कभी मनुष्य की वाणी से न सुनी गई बातें, मैं आपको सुनाने पर आमादा हूँ।....उपन्यास में मेरे अपने जीवनभर के अध्ययन का सार है।...आचार्य चतुरसेनउपन्यास वयं रक्षाम: Novel Vayam Rakshamahलेखक आचार्य चतुरसेन शास्त्री Writer Acharya Chatursen Shastriस्वर समीर गोस्वामी Narration Sameer Goswamihttps://kahanisuno.com/http://instagram.com/sameergoswamikahanisunohttps://www.facebook.com/kahanisuno/http://twitter.com/goswamisameer/https://sameergoswami.com

  • Vayam Rakshamah - Part 93 - Parakram Ka Santulan | वयं रक्षाम: - भाग 93 - पराक्रम का संतुलन | A Novel by Acharya Chatursen Shastri | आचार्य चतुरसेन शास्त्री का लिखा उपन्यास
    17 min 36 sec

    वयं रक्षाम: में प्राग्वेदकालीन जातियों के सम्बन्ध में सर्वथा अकल्पित अतर्कित नई स्थापनाएं हैं , मुक्त सहवास है, विवसन विचरण है, हरण और पलायन है। शिश्नदेव की उपासना है, वैदिक अवैदिक अश्रुत मिश्रण है। नर मांस की खुले बाजार में बिक्री है, नृत्य है, मद है, उन्मुख अनावृत यौवन है ।इस उपन्यास में प्राग्वेदकालीन नर, नाग, देव, दैत्यदानव, आर्यअनार्य आदि विविध नृवंशों के जीवन के वे विस्तृतपुरातन रेखाचित्र हैं, जिन्हें धर्म के रंगीन शीशे में देख कर सारे संसार ने अंतरिक्ष का देवता मान लिया था। मैं इस उपन्यास में उन्हें नर रूप में आपके समक्ष उपस्थित करने का साहस कर रहा हूँ। आज तक कभी मनुष्य की वाणी से न सुनी गई बातें, मैं आपको सुनाने पर आमादा हूँ।....उपन्यास में मेरे अपने जीवनभर के अध्ययन का सार है।...आचार्य चतुरसेनउपन्यास वयं रक्षाम: Novel Vayam Rakshamahलेखक आचार्य चतुरसेन शास्त्री Writer Acharya Chatursen Shastriस्वर समीर गोस्वामी Narration Sameer Goswamihttps://kahanisuno.com/http://instagram.com/sameergoswamikahanisunohttps://www.facebook.com/kahanisuno/http://twitter.com/goswamisameer/https://sameergoswami.com

  • Vayam Rakshamah - Part 86 - Ashok Van | वयं रक्षाम: - भाग 86 - अशोक वन | A Novel by Acharya Chatursen Shastri | आचार्य चतुरसेन शास्त्री का लिखा उपन्यास
    20 min 20 sec

    वयं रक्षाम: में प्राग्वेदकालीन जातियों के सम्बन्ध में सर्वथा अकल्पित अतर्कित नई स्थापनाएं हैं , मुक्त सहवास है, विवसन विचरण है, हरण और पलायन है। शिश्नदेव की उपासना है, वैदिक अवैदिक अश्रुत मिश्रण है। नर मांस की खुले बाजार में बिक्री है, नृत्य है, मद है, उन्मुख अनावृत यौवन है ।इस उपन्यास में प्राग्वेदकालीन नर, नाग, देव, दैत्यदानव, आर्यअनार्य आदि विविध नृवंशों के जीवन के वे विस्तृतपुरातन रेखाचित्र हैं, जिन्हें धर्म के रंगीन शीशे में देख कर सारे संसार ने अंतरिक्ष का देवता मान लिया था। मैं इस उपन्यास में उन्हें नर रूप में आपके समक्ष उपस्थित करने का साहस कर रहा हूँ। आज तक कभी मनुष्य की वाणी से न सुनी गई बातें, मैं आपको सुनाने पर आमादा हूँ।....उपन्यास में मेरे अपने जीवनभर के अध्ययन का सार है।...आचार्य चतुरसेनउपन्यास वयं रक्षाम: Novel Vayam Rakshamahलेखक आचार्य चतुरसेन शास्त्री Writer Acharya Chatursen Shastriस्वर समीर गोस्वामी Narration Sameer Goswamihttps://kahanisuno.com/http://instagram.com/sameergoswamikahanisunohttps://www.facebook.com/kahanisuno/http://twitter.com/goswamisameer/https://sameergoswami.com

  • Maila Aanchal | Part - 2 | A Novel by Phanishwar Nath 'Renu' | मैला आँचल | फणीश्वर नाथ 'रेणु' का लिखा उपन्यास
    14 min 34 sec

    मैला आँचल फणीश्वर नाथ रेणु का प्रतिनिधि उपन्यास है। यह हिन्दी का श्रेष्ठ और सशक्त आंचलिक उपन्यास है। नेपाल की सीमा से सटे उत्तरपूर्वी बिहार के एक पिछड़े ग्रामीण अंचल को पृष्ठभूमि बनाकर रेणु ने इसमें वहाँ के जीवन का, जिससे वह स्वयं ही घनिष्ठ रूप से जुड़े हुए थे, अत्यन्त जीवन्त और मुखर चित्रण किया है।सन् १९५४ में प्रकाशित इस उपन्यास की कथा वस्तु बिहार राज्य के पूर्णिया जिले के मेरीगंज की ग्रामीण जिंदगी से संबद्ध है। यह स्वतंत्र होते और उसके तुरन्त बाद के भारत के राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक परिदृश्य का ग्रामीण संस्करण है। रेणु के अनुसार इसमें फूल भी है, शूल भी है, धूल भी है, गुलाब भी है और कीचड़ भी है। मैं किसी से दामन बचाकर निकल नहीं पाया। इसमें ग़रीबी, रोग, भुखमरी, जहालत, धर्म की आड़ में हो रहे व्यभिचार, शोषण, आडंबरों, अंधविश्वासों आदि का चित्रण है। शिल्प की दृष्टि से इसमें फिल्म की तरह घटनाएं एक के बाद एक घटकर विलीन हो जाती है। और दूसरी प्रारंभ हो जाती है। इसमें घटना प्रधानता है किंतु कोई केन्द्रीय चरित्र या कथा नहीं है। इसमें नाटकीयता और किस्सा गोई शैली का प्रयोग किया गया है। इसे हिन्दी में आँचलिक उपन्यासों के प्रवर्तन का श्रेय भी प्राप्त है।कथा शिल्पी फणीश्वर नाथ रेणु की इस युगान्तकारी औपन्यासिक कृति में कथा शिल्प के साथसाथ भाषा शिल्प और शैली शिल्प का विलक्षण सामंजस्य है जो जितना सहजस्वाभाविक है, उतना ही प्रभावकारी और मोहक भी।उपन्यास मैला आँचल Novel Maila Aanchalलेखक फणीश्वर नाथ रेणु Writer Phanishwar Nath Renuस्वर समीर गोस्वामी Narration Sameer Goswamihttps://kahanisuno.com/http://instagram.com/sameergoswamikahanisunohttps://www.facebook.com/kahanisuno/http://twitter.com/goswamisameer/https://sameergoswami.com

  • Maila Aanchal | Part - 1 | A Novel by Phanishwar Nath 'Renu' | मैला आँचल | फणीश्वर नाथ 'रेणु' का लिखा उपन्यास
    9 min 14 sec

    मैला आँचल फणीश्वर नाथ रेणु का प्रतिनिधि उपन्यास है। यह हिन्दी का श्रेष्ठ और सशक्त आंचलिक उपन्यास है। नेपाल की सीमा से सटे उत्तरपूर्वी बिहार के एक पिछड़े ग्रामीण अंचल को पृष्ठभूमि बनाकर रेणु ने इसमें वहाँ के जीवन का, जिससे वह स्वयं ही घनिष्ठ रूप से जुड़े हुए थे, अत्यन्त जीवन्त और मुखर चित्रण किया है।सन् १९५४ में प्रकाशित इस उपन्यास की कथा वस्तु बिहार राज्य के पूर्णिया जिले के मेरीगंज की ग्रामीण जिंदगी से संबद्ध है। यह स्वतंत्र होते और उसके तुरन्त बाद के भारत के राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक परिदृश्य का ग्रामीण संस्करण है। रेणु के अनुसार इसमें फूल भी है, शूल भी है, धूल भी है, गुलाब भी है और कीचड़ भी है। मैं किसी से दामन बचाकर निकल नहीं पाया। इसमें ग़रीबी, रोग, भुखमरी, जहालत, धर्म की आड़ में हो रहे व्यभिचार, शोषण, आडंबरों, अंधविश्वासों आदि का चित्रण है। शिल्प की दृष्टि से इसमें फिल्म की तरह घटनाएं एक के बाद एक घटकर विलीन हो जाती है। और दूसरी प्रारंभ हो जाती है। इसमें घटना प्रधानता है किंतु कोई केन्द्रीय चरित्र या कथा नहीं है। इसमें नाटकीयता और किस्सा गोई शैली का प्रयोग किया गया है। इसे हिन्दी में आँचलिक उपन्यासों के प्रवर्तन का श्रेय भी प्राप्त है।कथा शिल्पी फणीश्वर नाथ रेणु की इस युगान्तकारी औपन्यासिक कृति में कथा शिल्प के साथसाथ भाषा शिल्प और शैली शिल्प का विलक्षण सामंजस्य है जो जितना सहजस्वाभाविक है, उतना ही प्रभावकारी और मोहक भी।उपन्यास मैला आँचल Novel Maila Aanchalलेखक फणीश्वर नाथ रेणु Writer Phanishwar Nath Renuस्वर समीर गोस्वामी Narration Sameer Goswamihttps://kahanisuno.com/http://instagram.com/sameergoswamikahanisunohttps://www.facebook.com/kahanisuno/http://twitter.com/goswamisameer/https://sameergoswami.com

  • Chokher Bali | Part - 51 | Aankh Ki Kirkiri (Hindi) | Novel by Rabindranath Tagore | चोखेर बाली | आँख की किरकिरी (हिन्दी)
    20 min 37 sec

    उपन्यास आँख की किरकिरी चोखेर बाली Novel Aankh Ki Kirkiri Chokher Baliलेखक रवीन्द्रनाथ टैगौर Writer Rabindranath Tagoreस्वर समीर गोस्वामी Narration Sameer Goswamihttps://kahanisuno.com/http://instagram.com/sameergoswamikahanisunohttps://www.facebook.com/kahanisuno/http://twitter.com/goswamisameer/https://sameergoswami.com

  • Chokher Bali | Part - 49 | Aankh Ki Kirkiri (Hindi) | Novel by Rabindranath Tagore | चोखेर बाली | आँख की किरकिरी (हिन्दी)
    11 min 31 sec

    उपन्यास आँख की किरकिरी चोखेर बाली Novel Aankh Ki Kirkiri Chokher Baliलेखक रवीन्द्रनाथ टैगौर Writer Rabindranath Tagoreस्वर समीर गोस्वामी Narration Sameer Goswamihttps://kahanisuno.com/http://instagram.com/sameergoswamikahanisunohttps://www.facebook.com/kahanisuno/http://twitter.com/goswamisameer/https://sameergoswami.com

  • Chokher Bali | Part - 48 | Aankh Ki Kirkiri (Hindi) | Novel by Rabindranath Tagore | चोखेर बाली | आँख की किरकिरी (हिन्दी)
    10 min 21 sec

    उपन्यास आँख की किरकिरी चोखेर बाली Novel Aankh Ki Kirkiri Chokher Baliलेखक रवीन्द्रनाथ टैगौर Writer Rabindranath Tagoreस्वर समीर गोस्वामी Narration Sameer Goswamihttps://kahanisuno.com/http://instagram.com/sameergoswamikahanisunohttps://www.facebook.com/kahanisuno/http://twitter.com/goswamisameer/https://sameergoswami.com

  • Chokher Bali | Part - 46 | Aankh Ki Kirkiri (Hindi) | Novel by Rabindranath Tagore | चोखेर बाली | आँख की किरकिरी (हिन्दी)
    6 min 47 sec

    उपन्यास आँख की किरकिरी चोखेर बाली Novel Aankh Ki Kirkiri Chokher Baliलेखक रवीन्द्रनाथ टैगौर Writer Rabindranath Tagoreस्वर समीर गोस्वामी Narration Sameer Goswamihttps://kahanisuno.com/http://instagram.com/sameergoswamikahanisunohttps://www.facebook.com/kahanisuno/http://twitter.com/goswamisameer/https://sameergoswami.com

  • Chokher Bali | Part - 42 | Aankh Ki Kirkiri (Hindi) | Novel by Rabindranath Tagore | चोखेर बाली | आँख की किरकिरी (हिन्दी)
    10 min 56 sec

    उपन्यास आँख की किरकिरी चोखेर बाली Novel Aankh Ki Kirkiri Chokher Baliलेखक रवीन्द्रनाथ टैगौर Writer Rabindranath Tagoreस्वर समीर गोस्वामी Narration Sameer Goswamihttps://kahanisuno.com/http://instagram.com/sameergoswamikahanisunohttps://www.facebook.com/kahanisuno/http://twitter.com/goswamisameer/https://sameergoswami.com

  • Chokher Bali | Part - 40 | Aankh Ki Kirkiri (Hindi) | Novel by Rabindranath Tagore | चोखेर बाली | आँख की किरकिरी (हिन्दी)
    23 min 7 sec

    उपन्यास आँख की किरकिरी चोखेर बाली Novel Aankh Ki Kirkiri Chokher Baliलेखक रवीन्द्रनाथ टैगौर Writer Rabindranath Tagoreस्वर समीर गोस्वामी Narration Sameer Goswamihttps://kahanisuno.com/http://instagram.com/sameergoswamikahanisunohttps://www.facebook.com/kahanisuno/http://twitter.com/goswamisameer/https://sameergoswami.com

  • Chokher Bali | Part - 38 | Aankh Ki Kirkiri (Hindi) | Novel by Rabindranath Tagore | चोखेर बाली | आँख की किरकिरी (हिन्दी)
    8 min 15 sec

    उपन्यास आँख की किरकिरी चोखेर बाली Novel Aankh Ki Kirkiri Chokher Baliलेखक रवीन्द्रनाथ टैगौर Writer Rabindranath Tagoreस्वर समीर गोस्वामी Narration Sameer Goswamihttps://kahanisuno.com/http://instagram.com/sameergoswamikahanisunohttps://www.facebook.com/kahanisuno/http://twitter.com/goswamisameer/https://sameergoswami.com

  • Chokher Bali | Part - 34 | Aankh Ki Kirkiri (Hindi) | Novel by Rabindranath Tagore | चोखेर बाली | आँख की किरकिरी (हिन्दी)
    14 min 54 sec

    उपन्यास आँख की किरकिरी चोखेर बाली Novel Aankh Ki Kirkiri Chokher Baliलेखक रवीन्द्रनाथ टैगौर Writer Rabindranath Tagoreस्वर समीर गोस्वामी Narration Sameer Goswamihttps://kahanisuno.com/http://instagram.com/sameergoswamikahanisunohttps://www.facebook.com/kahanisuno/http://twitter.com/goswamisameer/https://sameergoswami.com

  • Chokher Bali | Part - 33 | Aankh Ki Kirkiri (Hindi) | Novel by Rabindranath Tagore | चोखेर बाली | आँख की किरकिरी (हिन्दी)
    9 min 43 sec

    उपन्यास आँख की किरकिरी चोखेर बाली Novel Aankh Ki Kirkiri Chokher Baliलेखक रवीन्द्रनाथ टैगौर Writer Rabindranath Tagoreस्वर समीर गोस्वामी Narration Sameer Goswamihttps://kahanisuno.com/http://instagram.com/sameergoswamikahanisunohttps://www.facebook.com/kahanisuno/http://twitter.com/goswamisameer/https://sameergoswami.com

  • Chokher Bali | Part - 30 | Aankh Ki Kirkiri (Hindi) | Novel by Rabindranath Tagore | चोखेर बाली | आँख की किरकिरी (हिन्दी)
    9 min 17 sec

    उपन्यास आँख की किरकिरी चोखेर बाली Novel Aankh Ki Kirkiri Chokher Baliलेखक रवीन्द्रनाथ टैगौर Writer Rabindranath Tagoreस्वर समीर गोस्वामी Narration Sameer Goswamihttps://kahanisuno.com/http://instagram.com/sameergoswamikahanisunohttps://www.facebook.com/kahanisuno/http://twitter.com/goswamisameer/https://sameergoswami.com

  • Chokher Bali | Part - 18 | Aankh Ki Kirkiri (Hindi) | Novel by Rabindranath Tagore | चोखेर बाली | आँख की किरकिरी (हिन्दी)
    15 min 12 sec

    उपन्यास आँख की किरकिरी चोखेर बाली Novel Aankh Ki Kirkiri Chokher Baliलेखक रवीन्द्रनाथ टैगौर Writer Rabindranath Tagoreस्वर समीर गोस्वामी Narration Sameer Goswamihttps://kahanisuno.com/http://instagram.com/sameergoswamikahanisunohttps://www.facebook.com/kahanisuno/http://twitter.com/goswamisameer/https://sameergoswami.com

  • Vayam Rakshamah - Part 46 - Guyaad Guhyatam | वयं रक्षाम: - भाग 46 - गुह्याद् गुह्यतमम् | A Novel by Acharya Chatursen Shastri | आचार्य चतुरसेन शास्त्री का लिखा उपन्यास
    1 min 33 sec

    वयं रक्षाम: में प्राग्वेदकालीन जातियों के सम्बन्ध में सर्वथा अकल्पित अतर्कित नई स्थापनाएं हैं , मुक्त सहवास है, विवसन विचरण है, हरण और पलायन ह। शिश्नदेव की उपासना है, वैदिक अवैदिक अश्रुत मिश्रण है। नर मांस की खुले बाजार में बिक्री है, नृत्य है, मद है, उन्मुख अनावृत यौवन है ।इस उपन्यास में प्राग्वेदकालीन नर, नाग, देव, दैत्यदानव, आर्यअनार्य आदि विविध नृवंशों के जीवन के वे विस्तृतपुरातन रेखाचित्र हैं, जिन्हें धर्म के रंगीन शीशे में देख कर सारे संसार ने अंतरिक्ष का देवता मान लिया था। मैं इस उपन्यास में उन्हें नर रूप में आपके समक्ष उपस्थित करने का साहस कर रहा हूँ। आज तक कभी मनुष्य की वाणी से न सुनी गई बातें, मैं आपको सुनाने पर आमादा हूँ।....उपन्यास में मेरे अपने जीवनभर के अध्ययन का सार है।...आचार्य चतुरसेनउपन्यास वयं रक्षाम: Novel Vayam Rakshamahलेखक आचार्य चतुरसेन शास्त्री Writer Acharya Chatursen Shastriस्वर समीर गोस्वामी Narration Sameer Goswamihttps://kahanisuno.com/http://instagram.com/sameergoswamikahanisunohttps://www.facebook.com/kahanisuno/http://twitter.com/goswamisameer/https://sameergoswami.com

  • Vayam Rakshamah - Part 41 - Gandharvon Ki Nagri Mein | वयं रक्षाम: - भाग 41 - गन्धर्वो की नगरी में | A Novel by Acharya Chatursen Shastri | आचार्य चतुरसेन शास्त्री का लिखा उपन्यास
    6 min 57 sec

    वयं रक्षाम: में प्राग्वेदकालीन जातियों के सम्बन्ध में सर्वथा अकल्पित अतर्कित नई स्थापनाएं हैं , मुक्त सहवास है, विवसन विचरण है, हरण और पलायन ह। शिश्नदेव की उपासना है, वैदिक अवैदिक अश्रुत मिश्रण है। नर मांस की खुले बाजार में बिक्री है, नृत्य है, मद है, उन्मुख अनावृत यौवन है ।इस उपन्यास में प्राग्वेदकालीन नर, नाग, देव, दैत्यदानव, आर्यअनार्य आदि विविध नृवंशों के जीवन के वे विस्तृतपुरातन रेखाचित्र हैं, जिन्हें धर्म के रंगीन शीशे में देख कर सारे संसार ने अंतरिक्ष का देवता मान लिया था। मैं इस उपन्यास में उन्हें नर रूप में आपके समक्ष उपस्थित करने का साहस कर रहा हूँ। आज तक कभी मनुष्य की वाणी से न सुनी गई बातें, मैं आपको सुनाने पर आमादा हूँ।....उपन्यास में मेरे अपने जीवनभर के अध्ययन का सार है।...आचार्य चतुरसेनउपन्यास वयं रक्षाम: Novel Vayam Rakshamahलेखक आचार्य चतुरसेन शास्त्री Writer Acharya Chatursen Shastriस्वर समीर गोस्वामी Narration Sameer Goswamihttps://kahanisuno.com/http://instagram.com/sameergoswamikahanisunohttps://www.facebook.com/kahanisuno/http://twitter.com/goswamisameer/https://sameergoswami.com

  • Vayam Rakshamah - Part 39 - Sahgaman | वयं रक्षाम: - भाग 39 - सहगमन | A Novel by Acharya Chatursen Shastri | आचार्य चतुरसेन शास्त्री का लिखा उपन्यास
    6 min 9 sec

    वयं रक्षाम: में प्राग्वेदकालीन जातियों के सम्बन्ध में सर्वथा अकल्पित अतर्कित नई स्थापनाएं हैं , मुक्त सहवास है, विवसन विचरण है, हरण और पलायन ह। शिश्नदेव की उपासना है, वैदिक अवैदिक अश्रुत मिश्रण है। नर मांस की खुले बाजार में बिक्री है, नृत्य है, मद है, उन्मुख अनावृत यौवन है ।इस उपन्यास में प्राग्वेदकालीन नर, नाग, देव, दैत्यदानव, आर्यअनार्य आदि विविध नृवंशों के जीवन के वे विस्तृतपुरातन रेखाचित्र हैं, जिन्हें धर्म के रंगीन शीशे में देख कर सारे संसार ने अंतरिक्ष का देवता मान लिया था। मैं इस उपन्यास में उन्हें नर रूप में आपके समक्ष उपस्थित करने का साहस कर रहा हूँ। आज तक कभी मनुष्य की वाणी से न सुनी गई बातें, मैं आपको सुनाने पर आमादा हूँ।....उपन्यास में मेरे अपने जीवनभर के अध्ययन का सार है।...आचार्य चतुरसेनउपन्यास वयं रक्षाम: Novel Vayam Rakshamahलेखक आचार्य चतुरसेन शास्त्री Writer Acharya Chatursen Shastriस्वर समीर गोस्वामी Narration Sameer Goswamihttps://kahanisuno.com/http://instagram.com/sameergoswamikahanisunohttps://www.facebook.com/kahanisuno/http://twitter.com/goswamisameer/https://sameergoswami.com

  • Vayam Rakshamah - Part 26 - Paurav | वयं रक्षाम: - भाग 26 - पौरव | A Novel by Acharya Chatursen Shastri | आचार्य चतुरसेन शास्त्री का लिखा उपन्यास
    5 min 58 sec

    वयं रक्षाम: में प्राग्वेदकालीन जातियों के सम्बन्ध में सर्वथा अकल्पित अतर्कित नई स्थापनाएं हैं , मुक्त सहवास है, विवसन विचरण है, हरण और पलायन ह। शिश्नदेव की उपासना है, वैदिक अवैदिक अश्रुत मिश्रण है। नर मांस की खुले बाजार में बिक्री है, नृत्य है, मद है, उन्मुख अनावृत यौवन है ।इस उपन्यास में प्राग्वेदकालीन नर, नाग, देव, दैत्यदानव, आर्यअनार्य आदि विविध नृवंशों के जीवन के वे विस्तृतपुरातन रेखाचित्र हैं, जिन्हें धर्म के रंगीन शीशे में देख कर सारे संसार ने अंतरिक्ष का देवता मान लिया था। मैं इस उपन्यास में उन्हें नर रूप में आपके समक्ष उपस्थित करने का साहस कर रहा हूँ। आज तक कभी मनुष्य की वाणी से न सुनी गई बातें, मैं आपको सुनाने पर आमादा हूँ।....उपन्यास में मेरे अपने जीवनभर के अध्ययन का सार है।...आचार्य चतुरसेनउपन्यास वयं रक्षाम: Novel Vayam Rakshamahलेखक आचार्य चतुरसेन शास्त्री Writer Acharya Chatursen Shastriस्वर समीर गोस्वामी Narration Sameer Goswamihttps://kahanisuno.com/http://instagram.com/sameergoswamikahanisunohttps://www.facebook.com/kahanisuno/http://twitter.com/goswamisameer/https://sameergoswami.com

  • Vayam Rakshamah - Part 17 - Madhuyaamini | वयं रक्षाम: - भाग 17 - मधुयामिनी | A Novel by Acharya Chatursen Shastri | आचार्य चतुरसेन शास्त्री का लिखा उपन्यास
    14 min 57 sec

    वयं रक्षाम: में प्राग्वेदकालीन जातियों के सम्बन्ध में सर्वथा अकल्पित अतर्कित नई स्थापनाएं हैं , मुक्त सहवास है, विवसन विचरण है, हरण और पलायन ह। शिश्नदेव की उपासना है, वैदिक अवैदिक अश्रुत मिश्रण है। नर मांस की खुले बाजार में बिक्री है, नृत्य है, मद है, उन्मुख अनावृत यौवन है ।इस उपन्यास में प्राग्वेदकालीन नर, नाग, देव, दैत्यदानव, आर्यअनार्य आदि विविध नृवंशों के जीवन के वे विस्तृतपुरातन रेखाचित्र हैं, जिन्हें धर्म के रंगीन शीशे में देख कर सारे संसार ने अंतरिक्ष का देवता मान लिया था। मैं इस उपन्यास में उन्हें नर रूप में आपके समक्ष उपस्थित करने का साहस कर रहा हूँ। आज तक कभी मनुष्य की वाणी से न सुनी गई बातें, मैं आपको सुनाने पर आमादा हूँ।....उपन्यास में मेरे अपने जीवनभर के अध्ययन का सार है।...आचार्य चतुरसेनउपन्यास वयं रक्षाम: Novel Vayam Rakshamahलेखक आचार्य चतुरसेन शास्त्री Writer Acharya Chatursen Shastriस्वर समीर गोस्वामी Narration Sameer Goswamihttps://kahanisuno.com/http://instagram.com/sameergoswamikahanisunohttps://www.facebook.com/kahanisuno/http://twitter.com/goswamisameer/https://sameergoswami.com

  • Vayam Rakshamah - Part 16 - Sumba Dwip Mein | वयं रक्षाम: - भाग 16 - सुम्बा द्वीप में | A Novel by Acharya Chatursen Shastri | आचार्य चतुरसेन शास्त्री का लिखा उपन्यास
    10 min 53 sec

    वयं रक्षाम: में प्राग्वेदकालीन जातियों के सम्बन्ध में सर्वथा अकल्पित अतर्कित नई स्थापनाएं हैं , मुक्त सहवास है, विवसन विचरण है, हरण और पलायन ह। शिश्नदेव की उपासना है, वैदिक अवैदिक अश्रुत मिश्रण है। नर मांस की खुले बाजार में बिक्री है, नृत्य है, मद है, उन्मुख अनावृत यौवन है ।इस उपन्यास में प्राग्वेदकालीन नर, नाग, देव, दैत्यदानव, आर्यअनार्य आदि विविध नृवंशों के जीवन के वे विस्तृतपुरातन रेखाचित्र हैं, जिन्हें धर्म के रंगीन शीशे में देख कर सारे संसार ने अंतरिक्ष का देवता मान लिया था। मैं इस उपन्यास में उन्हें नर रूप में आपके समक्ष उपस्थित करने का साहस कर रहा हूँ। आज तक कभी मनुष्य की वाणी से न सुनी गई बातें, मैं आपको सुनाने पर आमादा हूँ।....उपन्यास में मेरे अपने जीवनभर के अध्ययन का सार है।...आचार्य चतुरसेनउपन्यास वयं रक्षाम: Novel Vayam Rakshamahलेखक आचार्य चतुरसेन शास्त्री Writer Acharya Chatursen Shastriस्वर समीर गोस्वामी Narration Sameer Goswamihttps://kahanisuno.com/http://instagram.com/sameergoswamikahanisunohttps://www.facebook.com/kahanisuno/http://twitter.com/goswamisameer/https://sameergoswami.com

  • Vayam Rakshamah - Part 80 - Jatayu Ka Aatm Yagya | वयं रक्षाम: - भाग 80 - जटायु का आत्मयज्ञ | A Novel by Acharya Chatursen Shastri | आचार्य चतुरसेन शास्त्री का लिखा उपन्यास
    4 min 19 sec

    वयं रक्षाम: में प्राग्वेदकालीन जातियों के सम्बन्ध में सर्वथा अकल्पित अतर्कित नई स्थापनाएं हैं , मुक्त सहवास है, विवसन विचरण है, हरण और पलायन है। शिश्नदेव की उपासना है, वैदिक अवैदिक अश्रुत मिश्रण है। नर मांस की खुले बाजार में बिक्री है, नृत्य है, मद है, उन्मुख अनावृत यौवन है ।इस उपन्यास में प्राग्वेदकालीन नर, नाग, देव, दैत्यदानव, आर्यअनार्य आदि विविध नृवंशों के जीवन के वे विस्तृतपुरातन रेखाचित्र हैं, जिन्हें धर्म के रंगीन शीशे में देख कर सारे संसार ने अंतरिक्ष का देवता मान लिया था। मैं इस उपन्यास में उन्हें नर रूप में आपके समक्ष उपस्थित करने का साहस कर रहा हूँ। आज तक कभी मनुष्य की वाणी से न सुनी गई बातें, मैं आपको सुनाने पर आमादा हूँ।....उपन्यास में मेरे अपने जीवनभर के अध्ययन का सार है।...आचार्य चतुरसेनउपन्यास वयं रक्षाम: Novel Vayam Rakshamahलेखक आचार्य चतुरसेन शास्त्री Writer Acharya Chatursen Shastriस्वर समीर गोस्वामी Narration Sameer Goswamihttps://kahanisuno.com/http://instagram.com/sameergoswamikahanisunohttps://www.facebook.com/kahanisuno/http://twitter.com/goswamisameer/https://sameergoswami.com

  • Vayam Rakshamah - Part 74 - Ratn Koot Dwip | वयं रक्षाम: - भाग 74 - रत्न – कुट द्वीप | A Novel by Acharya Chatursen Shastri | आचार्य चतुरसेन शास्त्री का लिखा उपन्यास
    16 min 8 sec

    वयं रक्षाम: में प्राग्वेदकालीन जातियों के सम्बन्ध में सर्वथा अकल्पित अतर्कित नई स्थापनाएं हैं , मुक्त सहवास है, विवसन विचरण है, हरण और पलायन है। शिश्नदेव की उपासना है, वैदिक अवैदिक अश्रुत मिश्रण है। नर मांस की खुले बाजार में बिक्री है, नृत्य है, मद है, उन्मुख अनावृत यौवन है ।इस उपन्यास में प्राग्वेदकालीन नर, नाग, देव, दैत्यदानव, आर्यअनार्य आदि विविध नृवंशों के जीवन के वे विस्तृतपुरातन रेखाचित्र हैं, जिन्हें धर्म के रंगीन शीशे में देख कर सारे संसार ने अंतरिक्ष का देवता मान लिया था। मैं इस उपन्यास में उन्हें नर रूप में आपके समक्ष उपस्थित करने का साहस कर रहा हूँ। आज तक कभी मनुष्य की वाणी से न सुनी गई बातें, मैं आपको सुनाने पर आमादा हूँ।....उपन्यास में मेरे अपने जीवनभर के अध्ययन का सार है।...आचार्य चतुरसेनउपन्यास वयं रक्षाम: Novel Vayam Rakshamahलेखक आचार्य चतुरसेन शास्त्री Writer Acharya Chatursen Shastriस्वर समीर गोस्वामी Narration Sameer Goswamihttps://kahanisuno.com/http://instagram.com/sameergoswamikahanisunohttps://www.facebook.com/kahanisuno/http://twitter.com/goswamisameer/https://sameergoswami.com

  • Vayam Rakshamah - Part 73 - Subhadra Vat | वयं रक्षाम: - भाग 73 - सुभद्र वट | A Novel by Acharya Chatursen Shastri | आचार्य चतुरसेन शास्त्री का लिखा उपन्यास
    11 min 42 sec

    वयं रक्षाम: में प्राग्वेदकालीन जातियों के सम्बन्ध में सर्वथा अकल्पित अतर्कित नई स्थापनाएं हैं , मुक्त सहवास है, विवसन विचरण है, हरण और पलायन है। शिश्नदेव की उपासना है, वैदिक अवैदिक अश्रुत मिश्रण है। नर मांस की खुले बाजार में बिक्री है, नृत्य है, मद है, उन्मुख अनावृत यौवन है ।इस उपन्यास में प्राग्वेदकालीन नर, नाग, देव, दैत्यदानव, आर्यअनार्य आदि विविध नृवंशों के जीवन के वे विस्तृतपुरातन रेखाचित्र हैं, जिन्हें धर्म के रंगीन शीशे में देख कर सारे संसार ने अंतरिक्ष का देवता मान लिया था। मैं इस उपन्यास में उन्हें नर रूप में आपके समक्ष उपस्थित करने का साहस कर रहा हूँ। आज तक कभी मनुष्य की वाणी से न सुनी गई बातें, मैं आपको सुनाने पर आमादा हूँ।....उपन्यास में मेरे अपने जीवनभर के अध्ययन का सार है।...आचार्य चतुरसेनउपन्यास वयं रक्षाम: Novel Vayam Rakshamahलेखक आचार्य चतुरसेन शास्त्री Writer Acharya Chatursen Shastriस्वर समीर गोस्वामी Narration Sameer Goswamihttps://kahanisuno.com/http://instagram.com/sameergoswamikahanisunohttps://www.facebook.com/kahanisuno/http://twitter.com/goswamisameer/https://sameergoswami.com

  • Vayam Rakshamah - Part 65 - Aaryawart Mein Pravesh | वयं रक्षाम: - भाग 65 - आर्यावर्त में प्रवेश | A Novel by Acharya Chatursen Shastri | आचार्य चतुरसेन शास्त्री का लिखा उपन्यास
    7 min 48 sec

    वयं रक्षाम: में प्राग्वेदकालीन जातियों के सम्बन्ध में सर्वथा अकल्पित अतर्कित नई स्थापनाएं हैं , मुक्त सहवास है, विवसन विचरण है, हरण और पलायन ह। शिश्नदेव की उपासना है, वैदिक अवैदिक अश्रुत मिश्रण है। नर मांस की खुले बाजार में बिक्री है, नृत्य है, मद है, उन्मुख अनावृत यौवन है ।इस उपन्यास में प्राग्वेदकालीन नर, नाग, देव, दैत्यदानव, आर्यअनार्य आदि विविध नृवंशों के जीवन के वे विस्तृतपुरातन रेखाचित्र हैं, जिन्हें धर्म के रंगीन शीशे में देख कर सारे संसार ने अंतरिक्ष का देवता मान लिया था। मैं इस उपन्यास में उन्हें नर रूप में आपके समक्ष उपस्थित करने का साहस कर रहा हूँ। आज तक कभी मनुष्य की वाणी से न सुनी गई बातें, मैं आपको सुनाने पर आमादा हूँ।....उपन्यास में मेरे अपने जीवनभर के अध्ययन का सार है।...आचार्य चतुरसेनउपन्यास वयं रक्षाम: Novel Vayam Rakshamahलेखक आचार्य चतुरसेन शास्त्री Writer Acharya Chatursen Shastriस्वर समीर गोस्वामी Narration Sameer Goswamihttps://kahanisuno.com/http://instagram.com/sameergoswamikahanisunohttps://www.facebook.com/kahanisuno/http://twitter.com/goswamisameer/https://sameergoswami.com

  • Vayam Rakshamah - Part 64 - Madhupuri Mein | वयं रक्षाम: - भाग 64 - मधुपुरी | A Novel by Acharya Chatursen Shastri | आचार्य चतुरसेन शास्त्री का लिखा उपन्यास
    5 min 12 sec

    वयं रक्षाम: में प्राग्वेदकालीन जातियों के सम्बन्ध में सर्वथा अकल्पित अतर्कित नई स्थापनाएं हैं , मुक्त सहवास है, विवसन विचरण है, हरण और पलायन ह। शिश्नदेव की उपासना है, वैदिक अवैदिक अश्रुत मिश्रण है। नर मांस की खुले बाजार में बिक्री है, नृत्य है, मद है, उन्मुख अनावृत यौवन है ।इस उपन्यास में प्राग्वेदकालीन नर, नाग, देव, दैत्यदानव, आर्यअनार्य आदि विविध नृवंशों के जीवन के वे विस्तृतपुरातन रेखाचित्र हैं, जिन्हें धर्म के रंगीन शीशे में देख कर सारे संसार ने अंतरिक्ष का देवता मान लिया था। मैं इस उपन्यास में उन्हें नर रूप में आपके समक्ष उपस्थित करने का साहस कर रहा हूँ। आज तक कभी मनुष्य की वाणी से न सुनी गई बातें, मैं आपको सुनाने पर आमादा हूँ।....उपन्यास में मेरे अपने जीवनभर के अध्ययन का सार है।...आचार्य चतुरसेनउपन्यास वयं रक्षाम: Novel Vayam Rakshamahलेखक आचार्य चतुरसेन शास्त्री Writer Acharya Chatursen Shastriस्वर समीर गोस्वामी Narration Sameer Goswamihttps://kahanisuno.com/http://instagram.com/sameergoswamikahanisunohttps://www.facebook.com/kahanisuno/http://twitter.com/goswamisameer/https://sameergoswami.com

  • Vayam Rakshamah - Part 63 - Ravan Ki Mukti | वयं रक्षाम: - भाग 63 - रावण की मुक्ति | A Novel by Acharya Chatursen Shastri | आचार्य चतुरसेन शास्त्री का लिखा उपन्यास
    7 min 32 sec

    वयं रक्षाम: में प्राग्वेदकालीन जातियों के सम्बन्ध में सर्वथा अकल्पित अतर्कित नई स्थापनाएं हैं , मुक्त सहवास है, विवसन विचरण है, हरण और पलायन ह। शिश्नदेव की उपासना है, वैदिक अवैदिक अश्रुत मिश्रण है। नर मांस की खुले बाजार में बिक्री है, नृत्य है, मद है, उन्मुख अनावृत यौवन है ।इस उपन्यास में प्राग्वेदकालीन नर, नाग, देव, दैत्यदानव, आर्यअनार्य आदि विविध नृवंशों के जीवन के वे विस्तृतपुरातन रेखाचित्र हैं, जिन्हें धर्म के रंगीन शीशे में देख कर सारे संसार ने अंतरिक्ष का देवता मान लिया था। मैं इस उपन्यास में उन्हें नर रूप में आपके समक्ष उपस्थित करने का साहस कर रहा हूँ। आज तक कभी मनुष्य की वाणी से न सुनी गई बातें, मैं आपको सुनाने पर आमादा हूँ।....उपन्यास में मेरे अपने जीवनभर के अध्ययन का सार है।...आचार्य चतुरसेनउपन्यास वयं रक्षाम: Novel Vayam Rakshamahलेखक आचार्य चतुरसेन शास्त्री Writer Acharya Chatursen Shastriस्वर समीर गोस्वामी Narration Sameer Goswamihttps://kahanisuno.com/http://instagram.com/sameergoswamikahanisunohttps://www.facebook.com/kahanisuno/http://twitter.com/goswamisameer/https://sameergoswami.com

  • Vayam Rakshamah - Part 56 - Matri Vadh | वयं रक्षाम: - भाग 56 - मातृवध| A Novel by Acharya Chatursen Shastri | आचार्य चतुरसेन शास्त्री का लिखा उपन्यास
    16 min 14 sec

    वयं रक्षाम: में प्राग्वेदकालीन जातियों के सम्बन्ध में सर्वथा अकल्पित अतर्कित नई स्थापनाएं हैं , मुक्त सहवास है, विवसन विचरण है, हरण और पलायन ह। शिश्नदेव की उपासना है, वैदिक अवैदिक अश्रुत मिश्रण है। नर मांस की खुले बाजार में बिक्री है, नृत्य है, मद है, उन्मुख अनावृत यौवन है ।इस उपन्यास में प्राग्वेदकालीन नर, नाग, देव, दैत्यदानव, आर्यअनार्य आदि विविध नृवंशों के जीवन के वे विस्तृतपुरातन रेखाचित्र हैं, जिन्हें धर्म के रंगीन शीशे में देख कर सारे संसार ने अंतरिक्ष का देवता मान लिया था। मैं इस उपन्यास में उन्हें नर रूप में आपके समक्ष उपस्थित करने का साहस कर रहा हूँ। आज तक कभी मनुष्य की वाणी से न सुनी गई बातें, मैं आपको सुनाने पर आमादा हूँ।....उपन्यास में मेरे अपने जीवनभर के अध्ययन का सार है।...आचार्य चतुरसेनउपन्यास वयं रक्षाम: Novel Vayam Rakshamahलेखक आचार्य चतुरसेन शास्त्री Writer Acharya Chatursen Shastriस्वर समीर गोस्वामी Narration Sameer Goswamihttps://kahanisuno.com/http://instagram.com/sameergoswamikahanisunohttps://www.facebook.com/kahanisuno/http://twitter.com/goswamisameer/https://sameergoswami.com

  • Chokher Bali | Part - 11 | Aankh Ki Kirkiri (Hindi) | Novel by Rabindranath Tagore | चोखेर बाली | आँख की किरकिरी (हिन्दी)
    7 min 32 sec

    उपन्यास आँख की किरकिरी चोखेर बाली Novel Aankh Ki Kirkiri Chokher Baliलेखक रवीन्द्रनाथ टैगौर Writer Rabindranath Tagoreस्वर समीर गोस्वामी Narration Sameer Goswamihttps://kahanisuno.com/http://instagram.com/sameergoswamikahanisunohttps://www.facebook.com/kahanisuno/http://twitter.com/goswamisameer/https://sameergoswami.com

  • Chokher Bali | Part - 10 | Aankh Ki Kirkiri (Hindi) | Novel by Rabindranath Tagore | चोखेर बाली | आँख की किरकिरी (हिन्दी)
    6 min 20 sec

    उपन्यास आँख की किरकिरी चोखेर बाली Novel Aankh Ki Kirkiri Chokher Baliलेखक रवीन्द्रनाथ टैगौर Writer Rabindranath Tagoreस्वर समीर गोस्वामी Narration Sameer Goswamihttps://kahanisuno.com/http://instagram.com/sameergoswamikahanisunohttps://www.facebook.com/kahanisuno/http://twitter.com/goswamisameer/https://sameergoswami.com

  • Chokher Bali | Part - 8 | Aankh Ki Kirkiri (Hindi) | Novel by Rabindranath Tagore | चोखेर बाली | आँख की किरकिरी (हिन्दी)
    7 min 37 sec

    उपन्यास आँख की किरकिरी चोखेर बाली Novel Aankh Ki Kirkiri Chokher Baliलेखक रवीन्द्रनाथ टैगौर Writer Rabindranath Tagoreस्वर समीर गोस्वामी Narration Sameer Goswamihttps://kahanisuno.com/http://instagram.com/sameergoswamikahanisunohttps://www.facebook.com/kahanisuno/http://twitter.com/goswamisameer/https://sameergoswami.com

  • Chokher Bali | Part - 3 | Aankh Ki Kirkiri (Hindi) | Novel by Rabindranath Tagore | चोखेर बाली | आँख की किरकिरी (हिन्दी)
    9 min 46 sec

    उपन्यास आँख की किरकिरी चोखेर बाली Novel Aankh Ki Kirkiri Chokher Baliलेखक रवीन्द्रनाथ टैगौर Writer Rabindranath Tagoreस्वर समीर गोस्वामी Narration Sameer Goswamihttps://kahanisuno.com/http://instagram.com/sameergoswamikahanisunohttps://www.facebook.com/kahanisuno/http://twitter.com/goswamisameer/https://sameergoswami.com

  • Somnath | Part - 121 Sur Sagar Paar | A Novel by Acharaya Chatursen Shastri | Based on the attack of Mahmud of Ghazni at Somnath | सोमनाथ उपन्यास
    10 min 3 sec

    बारह ज्योतिर्लिंगों में सोमनाथ का अग्रणी स्थान है। अन्य विदेशी आक्रमणकारियों के अलावा महमूद गजनवी ने इस आदिमंदिर के वैभव को 16 बार लूटा। पर सूर्यवंशी राजाओं के पराक्रम से वह भय भी खाता था। फिर भी लूट का यह सिलसिला सदियों तक चला। यह सब इस उपन्यास की पृष्ठभूमि है।  सोमनाथ का दूसरा पक्ष भी है जो उपन्यास में जीवंत हुआ है। मंदिर के विशाल प्रांगण में गूंजती घुंघरुओं की झनकार इस जीवन की लय को ताल देती है। जीवन का यह संगीत भारत के जनमानस का संगीत है। आततायियों के नगाड़ों का शोर इसे दबा नहीं पाता। एक अजब सी शक्ति से वह फिरफिर उठता है और करता हैएक और पुनर्निर्माण। निर्माण और विध्वंस की यही शृंखला इस कथा का आधार है।उपन्यास सोमनाथ Novel Somnathलेखक आचार्य चतुरसेन शास्त्री Writer Acharya Chatursen Shastriस्वर समीर गोस्वामी Narration Sameer Goswamihttps://kahanisuno.com/http://instagram.com/sameergoswamikahanisunohttps://www.facebook.com/kahanisuno/http://twitter.com/goswamisameer/https://sameergoswami.com

  • Somnath | Part - 119 Taahar Ki Garhi Mein | A Novel by Acharaya Chatursen Shastri | Based on the attack of Mahmud of Ghazni at Somnath | सोमनाथ उपन्यास
    7 min 28 sec

    बारह ज्योतिर्लिंगों में सोमनाथ का अग्रणी स्थान है। अन्य विदेशी आक्रमणकारियों के अलावा महमूद गजनवी ने इस आदिमंदिर के वैभव को 16 बार लूटा। पर सूर्यवंशी राजाओं के पराक्रम से वह भय भी खाता था। फिर भी लूट का यह सिलसिला सदियों तक चला। यह सब इस उपन्यास की पृष्ठभूमि है।  सोमनाथ का दूसरा पक्ष भी है जो उपन्यास में जीवंत हुआ है। मंदिर के विशाल प्रांगण में गूंजती घुंघरुओं की झनकार इस जीवन की लय को ताल देती है। जीवन का यह संगीत भारत के जनमानस का संगीत है। आततायियों के नगाड़ों का शोर इसे दबा नहीं पाता। एक अजब सी शक्ति से वह फिरफिर उठता है और करता हैएक और पुनर्निर्माण। निर्माण और विध्वंस की यही शृंखला इस कथा का आधार है।उपन्यास सोमनाथ Novel Somnathलेखक आचार्य चतुरसेन शास्त्री Writer Acharya Chatursen Shastriस्वर समीर गोस्वामी Narration Sameer Goswamihttps://kahanisuno.com/http://instagram.com/sameergoswamikahanisunohttps://www.facebook.com/kahanisuno/http://twitter.com/goswamisameer/https://sameergoswami.com

  • Somnath | Part - 118 Mundra Mein | A Novel by Acharaya Chatursen Shastri | Based on the attack of Mahmud of Ghazni at Somnath | सोमनाथ उपन्यास
    9 min 43 sec

    बारह ज्योतिर्लिंगों में सोमनाथ का अग्रणी स्थान है। अन्य विदेशी आक्रमणकारियों के अलावा महमूद गजनवी ने इस आदिमंदिर के वैभव को 16 बार लूटा। पर सूर्यवंशी राजाओं के पराक्रम से वह भय भी खाता था। फिर भी लूट का यह सिलसिला सदियों तक चला। यह सब इस उपन्यास की पृष्ठभूमि है।  सोमनाथ का दूसरा पक्ष भी है जो उपन्यास में जीवंत हुआ है। मंदिर के विशाल प्रांगण में गूंजती घुंघरुओं की झनकार इस जीवन की लय को ताल देती है। जीवन का यह संगीत भारत के जनमानस का संगीत है। आततायियों के नगाड़ों का शोर इसे दबा नहीं पाता। एक अजब सी शक्ति से वह फिरफिर उठता है और करता हैएक और पुनर्निर्माण। निर्माण और विध्वंस की यही शृंखला इस कथा का आधार है।उपन्यास सोमनाथ Novel Somnathलेखक आचार्य चतुरसेन शास्त्री Writer Acharya Chatursen Shastriस्वर समीर गोस्वामी Narration Sameer Goswamihttps://kahanisuno.com/http://instagram.com/sameergoswamikahanisunohttps://www.facebook.com/kahanisuno/http://twitter.com/goswamisameer/https://sameergoswami.com

  • Somnath | Part - 116 Kanth Kot Ki Or | A Novel by Acharaya Chatursen Shastri | Based on the attack of Mahmud of Ghazni at Somnath | सोमनाथ उपन्यास
    5 min 41 sec

    बारह ज्योतिर्लिंगों में सोमनाथ का अग्रणी स्थान है। अन्य विदेशी आक्रमणकारियों के अलावा महमूद गजनवी ने इस आदिमंदिर के वैभव को 16 बार लूटा। पर सूर्यवंशी राजाओं के पराक्रम से वह भय भी खाता था। फिर भी लूट का यह सिलसिला सदियों तक चला। यह सब इस उपन्यास की पृष्ठभूमि है।  सोमनाथ का दूसरा पक्ष भी है जो उपन्यास में जीवंत हुआ है। मंदिर के विशाल प्रांगण में गूंजती घुंघरुओं की झनकार इस जीवन की लय को ताल देती है। जीवन का यह संगीत भारत के जनमानस का संगीत है। आततायियों के नगाड़ों का शोर इसे दबा नहीं पाता। एक अजब सी शक्ति से वह फिरफिर उठता है और करता हैएक और पुनर्निर्माण। निर्माण और विध्वंस की यही शृंखला इस कथा का आधार है।उपन्यास सोमनाथ Novel Somnathलेखक आचार्य चतुरसेन शास्त्री Writer Acharya Chatursen Shastriस्वर समीर गोस्वामी Narration Sameer Goswamihttps://kahanisuno.com/http://instagram.com/sameergoswamikahanisunohttps://www.facebook.com/kahanisuno/http://twitter.com/goswamisameer/https://sameergoswami.com

  • Somnath | Part - 109 Bandiyon Ka Satsaahas | A Novel by Acharaya Chatursen Shastri | Based on the attack of Mahmud of Ghazni at Somnath | सोमनाथ उपन्यास
    10 min 45 sec

    बारह ज्योतिर्लिंगों में सोमनाथ का अग्रणी स्थान है। अन्य विदेशी आक्रमणकारियों के अलावा महमूद गजनवी ने इस आदिमंदिर के वैभव को 16 बार लूटा। पर सूर्यवंशी राजाओं के पराक्रम से वह भय भी खाता था। फिर भी लूट का यह सिलसिला सदियों तक चला। यह सब इस उपन्यास की पृष्ठभूमि है।  सोमनाथ का दूसरा पक्ष भी है जो उपन्यास में जीवंत हुआ है। मंदिर के विशाल प्रांगण में गूंजती घुंघरुओं की झनकार इस जीवन की लय को ताल देती है। जीवन का यह संगीत भारत के जनमानस का संगीत है। आततायियों के नगाड़ों का शोर इसे दबा नहीं पाता। एक अजब सी शक्ति से वह फिरफिर उठता है और करता हैएक और पुनर्निर्माण। निर्माण और विध्वंस की यही शृंखला इस कथा का आधार है।उपन्यास सोमनाथ Novel Somnathलेखक आचार्य चतुरसेन शास्त्री Writer Acharya Chatursen Shastriस्वर समीर गोस्वामी Narration Sameer Goswamihttps://kahanisuno.com/http://instagram.com/sameergoswamikahanisunohttps://www.facebook.com/kahanisuno/http://twitter.com/goswamisameer/https://sameergoswami.com

  • Somnath | Part - 105 Saamant Chauhan | A Novel by Acharaya Chatursen Shastri | Based on the attack of Mahmud of Ghazni at Somnath | सोमनाथ उपन्यास
    8 min 17 sec

    बारह ज्योतिर्लिंगों में सोमनाथ का अग्रणी स्थान है। अन्य विदेशी आक्रमणकारियों के अलावा महमूद गजनवी ने इस आदिमंदिर के वैभव को 16 बार लूटा। पर सूर्यवंशी राजाओं के पराक्रम से वह भय भी खाता था। फिर भी लूट का यह सिलसिला सदियों तक चला। यह सब इस उपन्यास की पृष्ठभूमि है।  सोमनाथ का दूसरा पक्ष भी है जो उपन्यास में जीवंत हुआ है। मंदिर के विशाल प्रांगण में गूंजती घुंघरुओं की झनकार इस जीवन की लय को ताल देती है। जीवन का यह संगीत भारत के जनमानस का संगीत है। आततायियों के नगाड़ों का शोर इसे दबा नहीं पाता। एक अजब सी शक्ति से वह फिरफिर उठता है और करता हैएक और पुनर्निर्माण। निर्माण और विध्वंस की यही शृंखला इस कथा का आधार है।उपन्यास सोमनाथ Novel Somnathलेखक आचार्य चतुरसेन शास्त्री Writer Acharya Chatursen Shastriस्वर समीर गोस्वामी Narration Sameer Goswamihttps://kahanisuno.com/http://instagram.com/sameergoswamikahanisunohttps://www.facebook.com/kahanisuno/http://twitter.com/goswamisameer/https://sameergoswami.com

  • Somnath | Part - 102 Atirath Ka Saammukhya | A Novel by Acharaya Chatursen Shastri | Based on the attack of Mahmud of Ghazni at Somnath | सोमनाथ उपन्यास
    13 min 33 sec

    बारह ज्योतिर्लिंगों में सोमनाथ का अग्रणी स्थान है। अन्य विदेशी आक्रमणकारियों के अलावा महमूद गजनवी ने इस आदिमंदिर के वैभव को 16 बार लूटा। पर सूर्यवंशी राजाओं के पराक्रम से वह भय भी खाता था। फिर भी लूट का यह सिलसिला सदियों तक चला। यह सब इस उपन्यास की पृष्ठभूमि है।  सोमनाथ का दूसरा पक्ष भी है जो उपन्यास में जीवंत हुआ है। मंदिर के विशाल प्रांगण में गूंजती घुंघरुओं की झनकार इस जीवन की लय को ताल देती है। जीवन का यह संगीत भारत के जनमानस का संगीत है। आततायियों के नगाड़ों का शोर इसे दबा नहीं पाता। एक अजब सी शक्ति से वह फिरफिर उठता है और करता हैएक और पुनर्निर्माण। निर्माण और विध्वंस की यही शृंखला इस कथा का आधार है।उपन्यास सोमनाथ Novel Somnathलेखक आचार्य चतुरसेन शास्त्री Writer Acharya Chatursen Shastriस्वर समीर गोस्वामी Narration Sameer Goswamihttps://kahanisuno.com/http://instagram.com/sameergoswamikahanisunohttps://www.facebook.com/kahanisuno/http://twitter.com/goswamisameer/https://sameergoswami.com

  • Somnath | Part - 101 Prano Ka Mulya | A Novel by Acharaya Chatursen Shastri | Based on the attack of Mahmud of Ghazni at Somnath | सोमनाथ उपन्यास
    5 min 40 sec

    बारह ज्योतिर्लिंगों में सोमनाथ का अग्रणी स्थान है। अन्य विदेशी आक्रमणकारियों के अलावा महमूद गजनवी ने इस आदिमंदिर के वैभव को 16 बार लूटा। पर सूर्यवंशी राजाओं के पराक्रम से वह भय भी खाता था। फिर भी लूट का यह सिलसिला सदियों तक चला। यह सब इस उपन्यास की पृष्ठभूमि है।  सोमनाथ का दूसरा पक्ष भी है जो उपन्यास में जीवंत हुआ है। मंदिर के विशाल प्रांगण में गूंजती घुंघरुओं की झनकार इस जीवन की लय को ताल देती है। जीवन का यह संगीत भारत के जनमानस का संगीत है। आततायियों के नगाड़ों का शोर इसे दबा नहीं पाता। एक अजब सी शक्ति से वह फिरफिर उठता है और करता हैएक और पुनर्निर्माण। निर्माण और विध्वंस की यही शृंखला इस कथा का आधार है।उपन्यास सोमनाथ Novel Somnathलेखक आचार्य चतुरसेन शास्त्री Writer Acharya Chatursen Shastriस्वर समीर गोस्वामी Narration Sameer Goswamihttps://kahanisuno.com/http://instagram.com/sameergoswamikahanisunohttps://www.facebook.com/kahanisuno/http://twitter.com/goswamisameer/https://sameergoswami.com

  • Somnath | Part - 100 Sharnapann | A Novel by Acharaya Chatursen Shastri | Based on the attack of Mahmud of Ghazni at Somnath | सोमनाथ उपन्यास
    4 min 24 sec

    बारह ज्योतिर्लिंगों में सोमनाथ का अग्रणी स्थान है। अन्य विदेशी आक्रमणकारियों के अलावा महमूद गजनवी ने इस आदिमंदिर के वैभव को 16 बार लूटा। पर सूर्यवंशी राजाओं के पराक्रम से वह भय भी खाता था। फिर भी लूट का यह सिलसिला सदियों तक चला। यह सब इस उपन्यास की पृष्ठभूमि है।  सोमनाथ का दूसरा पक्ष भी है जो उपन्यास में जीवंत हुआ है। मंदिर के विशाल प्रांगण में गूंजती घुंघरुओं की झनकार इस जीवन की लय को ताल देती है। जीवन का यह संगीत भारत के जनमानस का संगीत है। आततायियों के नगाड़ों का शोर इसे दबा नहीं पाता। एक अजब सी शक्ति से वह फिरफिर उठता है और करता हैएक और पुनर्निर्माण। निर्माण और विध्वंस की यही शृंखला इस कथा का आधार है।उपन्यास सोमनाथ Novel Somnathलेखक आचार्य चतुरसेन शास्त्री Writer Acharya Chatursen Shastriस्वर समीर गोस्वामी Narration Sameer Goswamihttps://kahanisuno.com/http://instagram.com/sameergoswamikahanisunohttps://www.facebook.com/kahanisuno/http://twitter.com/goswamisameer/https://sameergoswami.com

  • Somnath | Part - 115 Patan Se Prasthaan | A Novel by Acharaya Chatursen Shastri | Based on the attack of Mahmud of Ghazni at Somnath | सोमनाथ उपन्यास
    12 min 44 sec

    बारह ज्योतिर्लिंगों में सोमनाथ का अग्रणी स्थान है। अन्य विदेशी आक्रमणकारियों के अलावा महमूद गजनवी ने इस आदिमंदिर के वैभव को 16 बार लूटा। पर सूर्यवंशी राजाओं के पराक्रम से वह भय भी खाता था। फिर भी लूट का यह सिलसिला सदियों तक चला। यह सब इस उपन्यास की पृष्ठभूमि है।  सोमनाथ का दूसरा पक्ष भी है जो उपन्यास में जीवंत हुआ है। मंदिर के विशाल प्रांगण में गूंजती घुंघरुओं की झनकार इस जीवन की लय को ताल देती है। जीवन का यह संगीत भारत के जनमानस का संगीत है। आततायियों के नगाड़ों का शोर इसे दबा नहीं पाता। एक अजब सी शक्ति से वह फिरफिर उठता है और करता हैएक और पुनर्निर्माण। निर्माण और विध्वंस की यही शृंखला इस कथा का आधार है।उपन्यास सोमनाथ Novel Somnathलेखक आचार्य चतुरसेन शास्त्री Writer Acharya Chatursen Shastriस्वर समीर गोस्वामी Narration Sameer Goswamihttps://kahanisuno.com/http://instagram.com/sameergoswamikahanisunohttps://www.facebook.com/kahanisuno/http://twitter.com/goswamisameer/https://sameergoswami.com

  • Chhota Jadugar | A Story by Jaishankar Prasad | छोटा जादूगर | जयशंकर प्रसाद की लिखी कहानी |
    8 min 56 sec

    लेखक जयशंकर प्रसाद Writer Jaishankar Prasadस्वर समीर गोस्वामी Narration Sameer Goswami⁠⁠⁠⁠⁠⁠https://kahanisuno.com/⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠http://instagram.com/⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠sameergoswamikahanisuno⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠https://www.facebook.com/kahanisuno/⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠http://twitter.com/goswamisameer/⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠https://sameergoswami.com

  • Bisaati | A Story by Jaishankar Prasad | बिसाती | जयशंकर प्रसाद की लिखी कहानी |
    6 min 34 sec

    लेखक जयशंकर प्रसाद Writer Jaishankar Prasadस्वर समीर गोस्वामी Narration Sameer Goswami⁠⁠⁠⁠⁠https://kahanisuno.com/⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠http://instagram.com/⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠sameergoswamikahanisuno⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠https://www.facebook.com/kahanisuno/⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠http://twitter.com/goswamisameer/⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠https://sameergoswami.com

  • Vaishamya | A Story by Vishwambharnath Sharma 'Koushik' | वैषम्य | विश्वम्भरनाथ शर्मा की लिखी कहानी |
    17 min 49 sec

    एक धनाढ़्य व्यक्ति के घर काम के दौरान कार्यरत एक गरीब मज़दूर युवक की मृत्यु हो जाने पर भी अपने रागरंग में मस्त उस धनाढ़्य की कहानी।

  • Swayam Sewak | A Story by Vishwambharnath Sharma 'Koushik' | स्वयं सेवक | विश्वम्भरनाथ शर्मा की लिखी कहानी |
    9 min 6 sec

    अपनी जान पर खेलकर अपने कटुआलोचक पड़ोसी की जान बचने वाले एक स्वयंसेवक की कहानी।

  • Hisab Kitab | A Story by Vishwambharnath Sharma 'Koushik' | हिसाब किताब | विश्वम्भरनाथ शर्मा की लिखी कहानी |
    13 min 26 sec

    पुत्र के विवाह में कन्या के पिता को धोखा देने प्रयास करने वाले एक व्यक्ति के स्वयं धोखा खाने की कहानी।

  • Theth Hindi Ka That | A Novel by Ayodhya Singh Upadhyay Hari Oudh | ठेठ हिन्दी का ठाट | अयोध्यासिंह उपाध्याय 'हरिऔध' का लिखा उपन्यास |
    1 hr 31 min 28 sec

    एक दूसरे को बचपन से प्यार करने वाले किंतु लड़की के अन्यत्र विवाहित होने से लड़के के सन्यासी होने और फिर कई वर्ष बाद मिलने पर, सन्यासी लड़के द्वारा, लड़की की उजड़ी गृहस्थी व बिगड़ैल पति को सुधारने की कहानी।

  • Buddhibal | A Story by Vishwambharnath Sharma 'Koushik' | बुद्धिबल | विश्वम्भरनाथ शर्मा 'कौशिक' की लिखी कहानी |
    10 min 59 sec

    एक छदमवेशी सन्यासी पर विश्वास कर, एक व्यक्ति के उसके हाथों धोखा खाने की कहानी।

  • Vanchana | A Story by Vishwambharnath Sharma 'Koushik' | वंचना | विश्वम्भरनाथ शर्मा 'कौशिक' की लिखी कहानी |
    11 min 26 sec

    यात्रा में मिली एक युवती के आकर्षण में पड़ एक युवक के उसी युवती द्वारा ठगे जाने की कहानी।

  • Us Paar Ka Yogi | A Story by Jaishankar Prasad | उस पार का योगी | जयशंकर प्रसाद की लिखी कहानी |
    5 min 17 sec

    लेखक जयशंकर प्रसाद Writer Jaishankar Prasadस्वर समीर गोस्वामी Narration Sameer Goswami⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠https://kahanisuno.com/⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠http://instagram.com/⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠sameergoswamikahanisuno⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠https://www.facebook.com/kahanisuno/⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠http://twitter.com/goswamisameer/⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠https://sameergoswami.com

  • Mad | A Story by Vishwambharnath Sharma 'Koushik' | मद | विश्वम्भरनाथ शर्मा की लिखी कहानी |
    10 min 46 sec

    धन से सब ख़रीदना संभव है।मानने वाले एक धनाढ़्य व्यक्ति की आँखे खुलनी की कहानी।

  • Swarg Ke Khandhar Mein | A Story by Jaishankar Prasad | स्वर्ग के खंडहर में | जयशंकर प्रसाद की लिखी कहानी |
    27 min 37 sec

    लेखक जयशंकर प्रसाद Writer Jaishankar Prasadस्वर समीर गोस्वामी Narration Sameer Goswami⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠https://kahanisuno.com/⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠http://instagram.com/⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠sameergoswamikahanisuno⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠https://www.facebook.com/kahanisuno/⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠http://twitter.com/goswamisameer/⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠https://sameergoswami.com

  • Peepal Ka Ped | A Story by Vishwambharnath Sharma 'Koushik' | पीपल का पेड़ | विश्वम्भरनाथ शर्मा 'कौशिक' की लिखी कहानी |
    18 min 48 sec

    पुरानी मान्यताओं से डर कर हानि उठाने वाले एक युवक की कहानी ।

  • Raja Sahab Ko Thenga Dikhaya | A Story by Suryakant Tripathi Nirala | राजा साहब को ठेंगा दिखाया | सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला की लिखी कहानी |
    8 min 8 sec

    राजा साहेब को संकेतों के माध्यम से अपनी बात समझाने की नाकाम कोशिश कर हानि उठाने वाले एक पंडित की कहानी।लेखक सूर्यकान्त त्रिपाठी 39निराला39 Writer Suryakant Tripathi 39Nirala39स्वर समीर गोस्वामी Narration Sameer Goswami⁠⁠⁠⁠https://kahanisuno.com/⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠http://instagram.com/⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠sameergoswamikahanisuno⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠https://www.facebook.com/kahanisuno/⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠http://twitter.com/goswamisameer/⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠https://sameergoswami.com

  • Bhakt Aur Bhagwan | A Story by Suryakant Tripathi Nirala | भक्त और भगवान | सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला की लिखी कहानी |
    18 min 53 sec

    एक व्यक्ति की भगवान के प्रति असीम श्रद्धा और विश्वास की कहानी। The story of one man39s immense devotion and faith in God.कहानी भक्त और भगवान Story Bhakt Aur Bhagwanलेखक सूर्यकान्त त्रिपाठी 39निराला39 Writer Suryakant Tripathi 39Nirala39स्वर समीर गोस्वामी Narration Sameer Goswami⁠https://kahanisuno.com/⁠⁠http://instagram.com/⁠⁠sameergoswamikahanisuno⁠⁠https://www.facebook.com/kahanisuno/⁠⁠http://twitter.com/goswamisameer/⁠⁠https://sameergoswami.com

  • Samasya | A Story by Vishwambharnath Sharma 'Koushik' | समस्या | विश्वम्भरनाथ शर्मा 'कौशिक' की लिखी कहानी |
    15 min 52 sec

    एक ईमानदार पहरीदार द्वारा अपने चोर दोस्त को पकड़वाने की कहानी।

  • Ishwariya Dand | A Story by Vishwambharnath Sharma 'Koushik' | ईश्वरीय दंड | विश्वम्भरनाथ शर्मा की लिखी कहानी |
    12 min 5 sec

    अपने किए दुष्कर्मों के परिणाम स्वरूप काल्पनिक शारीरिक पीड़ा भोगते एक व्यक्ति की कहानी।

  • Raksha Bandhan | A Story by Vishwambharnath Sharma 'Koushik' | रक्षा बंधन | विश्वम्भरनाथ शर्मा की लिखी कहानी |
    16 min 46 sec

    डोरा बांध कर अज्ञात व्यक्ति को भाई बनाने वाली एक बालिका का, बिछुड़ा सगा भाई, उसी अज्ञात व्यक्ति के निकल आने की कहानी।

  • Paap Ki Parajay | A Story by Jaishankar Prasad | पाप की पराजय | जयशंकर प्रसाद की लिखी कहानी |
    11 min 9 sec

    लेखक जयशंकर प्रसाद Writer Jaishankar Prasadस्वर समीर गोस्वामी Narration Sameer Goswami⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠https://kahanisuno.com/⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠http://instagram.com/⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠sameergoswamikahanisuno⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠https://www.facebook.com/kahanisuno/⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠http://twitter.com/goswamisameer/⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠https://sameergoswami.com

  • Bhakshak Rakshak | A Story by Vishwambharnath Sharma 'Koushik' | भक्षक रक्षक | विश्वम्भरनाथ शर्मा की लिखी कहानी |
    10 min 55 sec

    एक रंगीन मिज़ाज व्यक्ति द्वारा एक लाचार युवती को बचाने की कहानी।

  • Pratidhwani | A Story by Jaishankar Prasad | प्रतिध्वनि | जयशंकर प्रसाद की लिखी कहानी |
    9 min 5 sec

    लेखक जयशंकर प्रसाद Writer Jaishankar Prasadस्वर समीर गोस्वामी Narration Sameer Goswami⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠https://kahanisuno.com/⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠http://instagram.com/⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠sameergoswamikahanisuno⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠https://www.facebook.com/kahanisuno/⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠http://twitter.com/goswamisameer/⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠https://sameergoswami.com

  • Manushya | A Story by Vishwambharnath Sharma 'Koushik' | मनुष्य | विश्वम्भरनाथ शर्मा की लिखी कहानी |
    13 min 16 sec

    बर्मा से शरणार्थी बन भारत आने वाले और सभी की सहायता करने वाले एक गरीब आदमी की कहानी ।

  • Awsarwad | A Story by Vishwambharnath Sharma 'Koushik' | अवसरवाद | विश्वम्भरनाथ शर्मा की लिखी कहानी |
    10 min 26 sec

    अवसर का लाभ ले, नेता बनने की कामना करने वाले एक रईस के हथकंडों और असफलता की कहानी।

  • Khandhar Ki Lipi | A Story by Jaishankar Prasad | खंडहर की लिपि | जयशंकर प्रसाद की लिखी कहानी |
    4 min 52 sec

    लेखक जयशंकर प्रसाद Writer Jaishankar Prasadस्वर समीर गोस्वामी Narration Sameer Goswami⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠https://kahanisuno.com/⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠http://instagram.com/⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠sameergoswamikahanisuno⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠https://www.facebook.com/kahanisuno/⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠http://twitter.com/goswamisameer/⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠https://sameergoswami.com

  • Noorie | A Story by Jaishankar Prasad | नूरी | जयशंकर प्रसाद की लिखी कहानी |
    22 min 5 sec

    लेखक जयशंकर प्रसाद Writer Jaishankar Prasadस्वर समीर गोस्वामी Narration Sameer Goswami⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠https://kahanisuno.com/⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠http://instagram.com/⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠sameergoswamikahanisuno⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠https://www.facebook.com/kahanisuno/⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠http://twitter.com/goswamisameer/⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠⁠https://sameergoswami.com

  • Gora | Part - 15 | A Novel by Rabindranath Tagore| गोरा | रवीन्द्रनाथ टैगोर का लिखा उपन्यास
    24 min 15 sec

    इस उपन्यास में रवीन्द्रनाथ टैगोर ने खुद के गोद लिए जाने व आयरिश मातापिता की संतान होने, का पता चलने पर, एक राष्ट्रवादी कट्टर हिन्दू व्यक्ति के मन में मची उथलपुथल व व्यवहार में आए बदलाव की कहानी प्रस्तुत की है।उपन्यास गोरा Novel Goraलेखक रवीन्द्रनाथ टैगोर Writer Rabindranath Tagoreस्वर समीर गोस्वामी Narration Sameer Goswamihttps://kahanisuno.com/http://instagram.com/sameergoswamikahanisunohttps://www.facebook.com/kahanisuno/http://twitter.com/goswamisameer/https://sameergoswami.com

  • Somnath | Part - 41 Pushkar Ka Yuddh | A Novel by Acharaya Chatursen Shastri | Based on the attack of Mahmud of Ghazni at Somnath | सोमनाथ उपन्यास
    10 min 56 sec

    बारह ज्योतिर्लिंगों में सोमनाथ का अग्रणी स्थान है। अन्य विदेशी आक्रमणकारियों के अलावा महमूद गजनवी ने इस आदिमंदिर के वैभव को 16 बार लूटा। पर सूर्यवंशी राजाओं के पराक्रम से वह भय भी खाता था। फिर भी लूट का यह सिलसिला सदियों तक चला। यह सब इस उपन्यास की पृष्ठभूमि है।  सोमनाथ का दूसरा पक्ष भी है जो उपन्यास में जीवंत हुआ है। मंदिर के विशाल प्रांगण में गूंजती घुंघरुओं की झनकार इस जीवन की लय को ताल देती है। जीवन का यह संगीत भारत के जनमानस का संगीत है। आततायियों के नगाड़ों का शोर इसे दबा नहीं पाता। एक अजब सी शक्ति से वह फिरफिर उठता है और करता हैएक और पुनर्निर्माण। निर्माण और विध्वंस की यही शृंखला इस कथा का आधार है।उपन्यास सोमनाथ Novel Somnathलेखक आचार्य चतुरसेन शास्त्री Writer Acharya Chatursen Shastriस्वर समीर गोस्वामी Narration Sameer Goswamihttps://kahanisuno.com/http://instagram.com/sameergoswamikahanisunohttps://www.facebook.com/kahanisuno/http://twitter.com/goswamisameer/https://sameergoswami.com

  • "शूद्रा" - मुंशी प्रेमचंद की लिखी कहानी "Shudra" - A Story written by Munshi Premchand
    47 min 24 sec

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  • "दिल की रानी" - मुंशी प्रेमचंद की लिखी कहानी "Dil Ki Raani" - A Story written by Munshi Premchand
    42 min 45 sec

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  • प्रेमचंद की लिखी कहानी "घासवाली" | "Ghaswali" - A Story written by Munshi Premchand
    26 min 59 sec

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  • "खुदाई फौजदार" - मुंशी प्रेमचंद की लिखी कहानी "Kudai Fauzdar" - A Story written by Munshi Premchand
    23 min 47 sec

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  • "चमत्कार" - मुंशी प्रेमचंद की लिखी कहानी "Chamatkar" - A Story written by Munshi Premchand
    28 min 7 sec

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  • "मोटर के छींटे" - मुंशी प्रेमचंद की लिखी कहानी "Motor Ke Chheente" - A Story written by Munshi Premchand
    8 min 34 sec

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  • "क़ैदी" - मुंशी प्रेमचंद की लिखी कहानी "Qaidi" - A Story written by Munshi Premchand
    25 min 51 sec

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  • "मिस पद्मा" - मुंशी प्रेमचंद की लिखी कहानी "Miss Padma" - A Story written by Munshi Premchand
    15 min 3 sec

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  • "मुफ़्त का यश" - मुंशी प्रेमचंद की लिखी कहानी "Muft Ka Yash" - A Story written by Munshi Premchand
    17 min 17 sec

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  • Nirupama | Part - 25 | A Novel by Suryakant Tripathi 'Nirala' | निरुपमा | सूर्यकान्त त्रिपाठी 'निराला' का लिखा उपन्यास |
    13 min

    अतुल सम्पत्ति की उत्तराधिकारी एक अनाथ लड़की के, चालबाज़ व लोलुप रिस्तेदारों से बचने व अपनी पसंद के  स्वाभिमानी, सुशिक्षित, सुयोग्य युवक से विवाह करने की कहानी ।उपन्यास निरुपमा Novel Nirupamaलेखक सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला Writer Suryakant Tripathi Niralaस्वर समीर गोस्वामी Narration Sameer Goswamihttps://kahanisuno.com/http://instagram.com/sameergoswamikahanisunohttps://www.facebook.com/kahanisuno/http://twitter.com/goswamisameer/https://sameergoswami.com

  • Nirupama | Part - 20 | A Novel by Suryakant Tripathi 'Nirala' | निरुपमा | सूर्यकान्त त्रिपाठी 'निराला' का लिखा उपन्यास |
    12 min 56 sec

    अतुल सम्पत्ति की उत्तराधिकारी एक अनाथ लड़की के, चालबाज़ व लोलुप रिस्तेदारों से बचने व अपनी पसंद के  स्वाभिमानी, सुशिक्षित, सुयोग्य युवक से विवाह करने की कहानी ।उपन्यास निरुपमा Novel Nirupamaलेखक सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला Writer Suryakant Tripathi Niralaस्वर समीर गोस्वामी Narration Sameer Goswamihttps://kahanisuno.com/http://instagram.com/sameergoswamikahanisunohttps://www.facebook.com/kahanisuno/http://twitter.com/goswamisameer/https://sameergoswami.com

  • Nirupama | Part - 13 | A Novel by Suryakant Tripathi 'Nirala' | निरुपमा | सूर्यकान्त त्रिपाठी 'निराला' का लिखा उपन्यास |
    8 min 6 sec

    अतुल सम्पत्ति की उत्तराधिकारी एक अनाथ लड़की के, चालबाज़ व लोलुप रिस्तेदारों से बचने व अपनी पसंद के  स्वाभिमानी, सुशिक्षित, सुयोग्य युवक से विवाह करने की कहानी ।उपन्यास निरुपमा Novel Nirupamaलेखक सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला Writer Suryakant Tripathi Niralaस्वर समीर गोस्वामी Narration Sameer Goswamihttps://kahanisuno.com/http://instagram.com/sameergoswamikahanisunohttps://www.facebook.com/kahanisuno/http://twitter.com/goswamisameer/https://sameergoswami.com

  • Nirupama | Part - 11 | A Novel by Suryakant Tripathi 'Nirala' | निरुपमा | सूर्यकान्त त्रिपाठी 'निराला' का लिखा उपन्यास |
    12 min 13 sec

    अतुल सम्पत्ति की उत्तराधिकारी एक अनाथ लड़की के, चालबाज़ व लोलुप रिस्तेदारों से बचने व अपनी पसंद के  स्वाभिमानी, सुशिक्षित, सुयोग्य युवक से विवाह करने की कहानी ।उपन्यास निरुपमा Novel Nirupamaलेखक सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला Writer Suryakant Tripathi Niralaस्वर समीर गोस्वामी Narration Sameer Goswamihttps://kahanisuno.com/http://instagram.com/sameergoswamikahanisunohttps://www.facebook.com/kahanisuno/http://twitter.com/goswamisameer/https://sameergoswami.com

  • Nirupama | Part - 9 | A Novel by Suryakant Tripathi 'Nirala' | निरुपमा | सूर्यकान्त त्रिपाठी 'निराला' का लिखा उपन्यास |
    8 min 25 sec

    अतुल सम्पत्ति की उत्तराधिकारी एक अनाथ लड़की के, चालबाज़ व लोलुप रिस्तेदारों से बचने व अपनी पसंद के  स्वाभिमानी, सुशिक्षित, सुयोग्य युवक से विवाह करने की कहानी ।उपन्यास निरुपमा Novel Nirupamaलेखक सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला Writer Suryakant Tripathi Niralaस्वर समीर गोस्वामी Narration Sameer Goswamihttps://kahanisuno.com/http://instagram.com/sameergoswamikahanisunohttps://www.facebook.com/kahanisuno/http://twitter.com/goswamisameer/https://sameergoswami.com

  • Nirupama | Part - 8 | A Novel by Suryakant Tripathi 'Nirala' | निरुपमा | सूर्यकान्त त्रिपाठी 'निराला' का लिखा उपन्यास |
    7 min 57 sec

    अतुल सम्पत्ति की उत्तराधिकारी एक अनाथ लड़की के, चालबाज़ व लोलुप रिस्तेदारों से बचने व अपनी पसंद के  स्वाभिमानी, सुशिक्षित, सुयोग्य युवक से विवाह करने की कहानी ।उपन्यास निरुपमा Novel Nirupamaलेखक सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला Writer Suryakant Tripathi Niralaस्वर समीर गोस्वामी Narration Sameer Goswamihttps://kahanisuno.com/http://instagram.com/sameergoswamikahanisunohttps://www.facebook.com/kahanisuno/http://twitter.com/goswamisameer/https://sameergoswami.com

  • Nirupama | Part - 7 | A Novel by Suryakant Tripathi 'Nirala' | निरुपमा | सूर्यकान्त त्रिपाठी 'निराला' का लिखा उपन्यास |
    10 min 39 sec

    अतुल सम्पत्ति की उत्तराधिकारी एक अनाथ लड़की के, चालबाज़ व लोलुप रिस्तेदारों से बचने व अपनी पसंद के  स्वाभिमानी, सुशिक्षित, सुयोग्य युवक से विवाह करने की कहानी ।उपन्यास निरुपमा Novel Nirupamaलेखक सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला Writer Suryakant Tripathi Niralaस्वर समीर गोस्वामी Narration Sameer Goswamihttps://kahanisuno.com/http://instagram.com/sameergoswamikahanisunohttps://www.facebook.com/kahanisuno/http://twitter.com/goswamisameer/https://sameergoswami.com

  • Nirupama | Part - 5 | A Novel by Suryakant Tripathi 'Nirala' | निरुपमा | सूर्यकान्त त्रिपाठी 'निराला' का लिखा उपन्यास |
    13 min 43 sec

    अतुल सम्पत्ति की उत्तराधिकारी एक अनाथ लड़की के, चालबाज़ व लोलुप रिस्तेदारों से बचने व अपनी पसंद के  स्वाभिमानी, सुशिक्षित, सुयोग्य युवक से विवाह करने की कहानी ।उपन्यास निरुपमा Novel Nirupamaलेखक सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला Writer Suryakant Tripathi Niralaस्वर समीर गोस्वामी Narration Sameer Goswamihttps://kahanisuno.com/http://instagram.com/sameergoswamikahanisunohttps://www.facebook.com/kahanisuno/http://twitter.com/goswamisameer/https://sameergoswami.com

  • Nirupama | Part - 1 | A Novel by Suryakant Tripathi 'Nirala' | निरुपमा | सूर्यकान्त त्रिपाठी 'निराला' का लिखा उपन्यास |
    11 min 54 sec

    अतुल सम्पत्ति की उत्तराधिकारी एक अनाथ लड़की के, चालबाज़ व लोलुप रिस्तेदारों से बचने व अपनी पसंद के  स्वाभिमानी, सुशिक्षित, सुयोग्य युवक से विवाह करने की कहानी ।उपन्यास निरुपमा Novel Nirupamaलेखक सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला Writer Suryakant Tripathi Niralaस्वर समीर गोस्वामी Narration Sameer Goswamihttps://kahanisuno.com/http://instagram.com/sameergoswamikahanisunohttps://www.facebook.com/kahanisuno/http://twitter.com/goswamisameer/https://sameergoswami.com

  • Tulsi Chaura | Part 12 | A Novel by Na. Parthasarathy | तुलसी चौरा | ना. पार्थसारथी का लिखा उपन्यास |
    19 min 45 sec

    एक दक्षिण भारतीय कट्टर ब्राह्मण परिवार में, एक विदेशी युवती के बहू बन कर आने और हिन्दू धर्म व संस्कृति के प्रति अपनी श्रद्धा, समर्पण, ज्ञान और अपने व्यवहार से सबको प्रभावित करने की कहानी।उपन्यास तुलसी चौरा Novel Tulsi Chauraलेखक ना. पार्थसारथी Writer Na. Parthasarathyस्वर समीर गोस्वामी Narration Sameer Goswamihttps://kahanisuno.com/http://instagram.com/sameergoswamikahanisunohttps://www.facebook.com/kahanisuno/http://twitter.com/goswamisameer/https://sameergoswami.com

  • Tulsi Chaura | Part 1 | A Novel by Na. Parthasarathy | तुलसी चौरा | ना. पार्थसारथी का लिखा उपन्यास |
    37 min 6 sec

    एक दक्षिण भारतीय कट्टर ब्राह्मण परिवार में, एक विदेशी युवती के बहू बन कर आने और हिन्दू धर्म व संस्कृति के प्रति अपनी श्रद्धा, समर्पण, ज्ञान और अपने व्यवहार से सबको प्रभावित करने की कहानी।उपन्यास तुलसी चौरा Novel Tulsi Chauraलेखक ना. पार्थसारथी Writer Na. Parthasarathyस्वर समीर गोस्वामी Narration Sameer Goswamihttps://kahanisuno.com/http://instagram.com/sameergoswamikahanisunohttps://www.facebook.com/kahanisuno/http://twitter.com/goswamisameer/https://sameergoswami.com

  • Kritagyata | A Story by Vishwambharnath Sharma 'Koushik' | कृतज्ञता | विश्वम्भरनाथ शर्मा 'कौशिक' की लिखी कहानी |
    23 min 31 sec

    एक युवक द्वारा अपनी नौकरी लगवाने वाले संपादक का सम्मान और नौकरी की ख़ातिर स्वयं की पदोन्नति त्यागने की कहानी।लेखक विश्वम्भरनाथ शर्मा कौशिक Writer Vishwambharnath Sharma Koushikस्वर समीर गोस्वामी Narration Sameer Goswamihttps://kahanisuno.com/http://instagram.com/sameergoswamikahanisunohttps://www.facebook.com/kahanisuno/http://twitter.com/goswamisameer/https://sameergoswami.com

  • April Fool | A Story by Vishwambharnath Sharma 'Koushik' | अप्रेल फ़ूल | विश्वम्भरनाथ शर्मा 'कौशिक' की लिखी कहानी |
    26 min 7 sec

    दोस्त की पत्नी को देखने की इच्छा रखने वाले तीन दोस्तों को उसी दोस्त की पत्नी द्वारा बेवक़ूफ़ बनाने की कहानी।लेखक विश्वम्भरनाथ शर्मा कौशिक Writer Vishwambharnath Sharma Koushikस्वर समीर गोस्वामी Narration Sameer Goswamihttps://kahanisuno.com/http://instagram.com/sameergoswamikahanisunohttps://www.facebook.com/kahanisuno/http://twitter.com/goswamisameer/https://sameergoswami.com

  • Diwali | A Story by Vishwambharnath Sharma 'Koushik' | दिवाली | विश्वम्भरनाथ शर्मा 'कौशिक' की लिखी कहानी |
    26 min 22 sec

    दिवाली पर जुआ खेलने की  दोस्त की आदत छुड़ाने एक व्यक्ति द्वारा अपनाई गई तिकड़म की कहानी ।लेखक विश्वम्भरनाथ शर्मा कौशिक Writer Vishwambharnath Sharma Koushikस्वर समीर गोस्वामी Narration Sameer Goswamihttps://kahanisuno.com/http://instagram.com/sameergoswamikahanisunohttps://www.facebook.com/kahanisuno/http://twitter.com/goswamisameer/https://sameergoswami.com

  • Sanshodhan | A Story by Vishwambharnath Sharma 'Koushik' | संशोधन | विश्वम्भरनाथ शर्मा 'कौशिक' की लिखी कहानी |
    29 min 41 sec

    एक पढ़ेलिखे वकालत पास युवक द्वारा देशसेवा के नाम पर अकर्मण्यता अपनाने व रुपयों के लिए उल्टेसीधे काम करने, व अंत में पिता के समझाने पर वकालत में जुट जाने व देश हित में आर्थिक सहायता देने की कहानी।लेखक विश्वम्भरनाथ शर्मा कौशिक Writer Vishwambharnath Sharma Koushikस्वर समीर गोस्वामी Narration Sameer Goswamihttps://kahanisuno.com/http://instagram.com/sameergoswamikahanisunohttps://www.facebook.com/kahanisuno/http://twitter.com/goswamisameer/https://sameergoswami.com

  • Nankoo Choudhary | A Story by Vishwambharnath Sharma 'Koushik' | ननकू चौधरी | विश्वम्भरनाथ शर्मा 'कौशिक' की लिखी कहानी |
    28 min 51 sec

    अपनी पत्नी की मृत्यु पश्चात संयमित जीवन व्यतीत कर पुत्र का विवाह कर पुत्र वधू के प्रति बहकने व प फिर पश्चाताप वश गृह त्यागने वाले एक व्यक्ति की कहानी।लेखक विश्वम्भरनाथ शर्मा कौशिक Writer Vishwambharnath Sharma Koushikस्वर समीर गोस्वामी Narration Sameer Goswamihttps://kahanisuno.com/http://instagram.com/sameergoswamikahanisunohttps://www.facebook.com/kahanisuno/http://twitter.com/goswamisameer/https://sameergoswami.com

  • Karya Kushalta 2 | A Story by Vishwambharnath Sharma 'Koushik' | कार्य कुशलता 2 | विश्वम्भरनाथ शर्मा 'कौशिक' की लिखी कहानी |
    10 min 29 sec

    एक समर्पित कार्य कुशल पुलिस अधिकारी द्वारा अपने निजी जासूस की सहायता से शहर के जुएखानों को  बंद कराने की कहानी।लेखक विश्वम्भरनाथ शर्मा कौशिक Writer Vishwambharnath Sharma Koushikस्वर समीर गोस्वामी Narration Sameer Goswamihttps://kahanisuno.com/http://instagram.com/sameergoswamikahanisunohttps://www.facebook.com/kahanisuno/http://twitter.com/goswamisameer/https://sameergoswami.com

  • Nirbal Ki Vijay | A Story by Vishwambharnath Sharma 'Koushik' | निर्बल की विजय | विश्वम्भरनाथ शर्मा 'कौशिक' की लिखी कहानी |
    18 min 6 sec

    युद्ध की विभीषिका के बीच एक परिवार द्वारा  अंतिम साँस तक अपनी स्वाधीनता के लिए जूझने की कहानी।लेखक विश्वम्भरनाथ शर्मा कौशिक Writer Vishwambharnath Sharma Koushikस्वर समीर गोस्वामी Narration Sameer Goswamihttps://kahanisuno.com/http://instagram.com/sameergoswamikahanisunohttps://www.facebook.com/kahanisuno/http://twitter.com/goswamisameer/https://sameergoswami.com

  • Bhoot Leela | A Story by Vishwambharnath Sharma 'Koushik' | भूत लीला | विश्वम्भरनाथ शर्मा 'कौशिक' की लिखी कहानी |
    11 min 22 sec

    पड़ोस के मकान को ख़ाली रखने हेतु पड़ोसी द्वारा  मकान भूत ग्रस्त होने का ढोंग फैलाने के कुचक्र की कहानी।लेखक विश्वम्भरनाथ शर्मा कौशिक Writer Vishwambharnath Sharma Koushikस्वर समीर गोस्वामी Narration Sameer Goswamihttps://kahanisuno.com/http://instagram.com/sameergoswamikahanisunohttps://www.facebook.com/kahanisuno/http://twitter.com/goswamisameer/https://sameergoswami.com

  • Lagan | A Story by Vishwambharnath Sharma 'Koushik' | लगन | विश्वम्भरनाथ शर्मा 'कौशिक' की लिखी कहानी |
    11 min 28 sec

    कुम्भ स्नान की लालसा लिए मृत एक वृद्धा के मृत्यु उपरांत भी कुम्भ में पड़ोसी को दिखाने की कहानी।लेखक विश्वम्भरनाथ शर्मा कौशिक Writer Vishwambharnath Sharma Koushikस्वर समीर गोस्वामी Narration Sameer Goswamihttps://kahanisuno.com/http://instagram.com/sameergoswamikahanisunohttps://www.facebook.com/kahanisuno/http://twitter.com/goswamisameer/https://sameergoswami.com

  • Khooni Aurat Ka Saat Khoon | Part 5 | A Novel by Kishori Lal Goswami | खूनी औरत का सात खून | किशोरी लाल गोस्वामी का लिखा उपन्यास |
    7 min 58 sec

    एक अनाथ युवती द्वारा अपनी इज्जत बचाने की ख़ातिर बदमाशों से जूझने और इस दौरान कई खून के आरोप में युवती के फँसने व बरी होने की कहानी।उपन्यास खूनी औरत का सात खून Novel Khooni Aurat Ka Saat Khoonलेखक किशोरी लाल गोस्वामी Writer Kishori Lal Goswamiस्वर समीर गोस्वामी Narration Sameer Goswamihttps://kahanisuno.com/http://instagram.com/sameergoswamikahanisunohttps://www.facebook.com/kahanisuno/http://twitter.com/goswamisameer/https://sameergoswami.com

  • Khooni Aurat Ka Saat Khoon | Part 4 | A Novel by Kishori Lal Goswami | खूनी औरत का सात खून | किशोरी लाल गोस्वामी का लिखा उपन्यास |
    13 min 48 sec

    एक अनाथ युवती द्वारा अपनी इज्जत बचाने की ख़ातिर बदमाशों से जूझने और इस दौरान कई खून के आरोप में युवती के फँसने व बरी होने की कहानी।उपन्यास खूनी औरत का सात खून Novel Khooni Aurat Ka Saat Khoonलेखक किशोरी लाल गोस्वामी Writer Kishori Lal Goswamiस्वर समीर गोस्वामी Narration Sameer Goswamihttps://kahanisuno.com/http://instagram.com/sameergoswamikahanisunohttps://www.facebook.com/kahanisuno/http://twitter.com/goswamisameer/https://sameergoswami.com

  • Khooni Aurat Ka Saat Khoon | Part 2 | A Novel by Kishori Lal Goswami | खूनी औरत का सात खून | किशोरी लाल गोस्वामी का लिखा उपन्यास |
    4 min 38 sec

    एक अनाथ युवती द्वारा अपनी इज्जत बचाने की ख़ातिर बदमाशों से जूझने और इस दौरान कई खून के आरोप में युवती के फँसने व बरी होने की कहानी।उपन्यास खूनी औरत का सात खून Novel Khooni Aurat Ka Saat Khoonलेखक किशोरी लाल गोस्वामी Writer Kishori Lal Goswamiस्वर समीर गोस्वामी Narration Sameer Goswamihttps://kahanisuno.com/http://instagram.com/sameergoswamikahanisunohttps://www.facebook.com/kahanisuno/http://twitter.com/goswamisameer/https://sameergoswami.com

  • Khooni Aurat Ka Saat Khoon | Part 1 | A Novel by Kishori Lal Goswami | खूनी औरत का सात खून | किशोरी लाल गोस्वामी का लिखा उपन्यास |
    7 min 39 sec

    एक अनाथ युवती द्वारा अपनी इज्जत बचाने की ख़ातिर बदमाशों से जूझने और इस दौरान कई खून के आरोप में युवती के फँसने व बरी होने की कहानी।उपन्यास खूनी औरत का सात खून Novel Khooni Aurat Ka Saat Khoonलेखक किशोरी लाल गोस्वामी Writer Kishori Lal Goswamiस्वर समीर गोस्वामी Narration Sameer Goswamihttps://kahanisuno.com/http://instagram.com/sameergoswamikahanisunohttps://www.facebook.com/kahanisuno/http://twitter.com/goswamisameer/https://sameergoswami.com

  • Adhkhila Phool | Part- 21 | A Novel by Ayodhya Singh Upadhyay Hari Oudh | अधखिला फूल | अयोध्या सिंह उपाध्याय हरिऔध का लिखा उपन्यास |
    10 min 42 sec

    बालविवाह पश्चात पति के ग़ायब होने व पिता के सन्यासी बनने से व्यथित व दुखी एक अबोध बालिका को, अपने झूठे प्रेम जाल में फँसाने के लिए गाँव के एक रईस ज़मींदार पुत्र द्वारा अपनाई चालों, हथकंडो और बालिका के उनमें फँसने, मुक्त होने एवं अंत में पति व पिता के मिलने और अंतिम समय में ज़मींदार पुत्र के हृदय परिवर्तन की कहानी।उपन्यास अधखिला फूल Novel Adhkhila Phoolलेखक अयोध्या सिंह उपाध्याय हरिऔध Writer Ayodhya Singh Upadhyay Hari Oudhस्वर समीर गोस्वामी Narration Sameer Goswamihttps://kahanisuno.com/http://instagram.com/sameergoswamikahanisunohttps://www.facebook.com/kahanisuno/http://twitter.com/goswamisameer/https://sameergoswami.com

  • Adhkhila Phool | Part- 13 | A Novel by Ayodhya Singh Upadhyay Hari Oudh | अधखिला फूल | अयोध्या सिंह उपाध्याय हरिऔध का लिखा उपन्यास |
    11 min 34 sec

    बालविवाह पश्चात पति के ग़ायब होने व पिता के सन्यासी बनने से व्यथित व दुखी एक अबोध बालिका को, अपने झूठे प्रेम जाल में फँसाने के लिए गाँव के एक रईस ज़मींदार पुत्र द्वारा अपनाई चालों, हथकंडो और बालिका के उनमें फँसने, मुक्त होने एवं अंत में पति व पिता के मिलने और अंतिम समय में ज़मींदार पुत्र के हृदय परिवर्तन की कहानी।उपन्यास अधखिला फूल Novel Adhkhila Phoolलेखक अयोध्या सिंह उपाध्याय हरिऔध Writer Ayodhya Singh Upadhyay Hari Oudhस्वर समीर गोस्वामी Narration Sameer Goswamihttps://kahanisuno.com/http://instagram.com/sameergoswamikahanisunohttps://www.facebook.com/kahanisuno/http://twitter.com/goswamisameer/https://sameergoswami.com

  • Adhkhila Phool | Part- 12 | A Novel by Ayodhya Singh Upadhyay Hari Oudh | अधखिला फूल | अयोध्या सिंह उपाध्याय हरिऔध का लिखा उपन्यास |
    9 min 46 sec

    बालविवाह पश्चात पति के ग़ायब होने व पिता के सन्यासी बनने से व्यथित व दुखी एक अबोध बालिका को, अपने झूठे प्रेम जाल में फँसाने के लिए गाँव के एक रईस ज़मींदार पुत्र द्वारा अपनाई चालों, हथकंडो और बालिका के उनमें फँसने, मुक्त होने एवं अंत में पति व पिता के मिलने और अंतिम समय में ज़मींदार पुत्र के हृदय परिवर्तन की कहानी।उपन्यास अधखिला फूल Novel Adhkhila Phoolलेखक अयोध्या सिंह उपाध्याय हरिऔध Writer Ayodhya Singh Upadhyay Hari Oudhस्वर समीर गोस्वामी Narration Sameer Goswamihttps://kahanisuno.com/http://instagram.com/sameergoswamikahanisunohttps://www.facebook.com/kahanisuno/http://twitter.com/goswamisameer/https://sameergoswami.com

  • Adhkhila Phool | Part- 11 | A Novel by Ayodhya Singh Upadhyay Hari Oudh | अधखिला फूल | अयोध्या सिंह उपाध्याय हरिऔध का लिखा उपन्यास |
    10 min 14 sec

    बालविवाह पश्चात पति के ग़ायब होने व पिता के सन्यासी बनने से व्यथित व दुखी एक अबोध बालिका को, अपने झूठे प्रेम जाल में फँसाने के लिए गाँव के एक रईस ज़मींदार पुत्र द्वारा अपनाई चालों, हथकंडो और बालिका के उनमें फँसने, मुक्त होने एवं अंत में पति व पिता के मिलने और अंतिम समय में ज़मींदार पुत्र के हृदय परिवर्तन की कहानी।उपन्यास अधखिला फूल Novel Adhkhila Phoolलेखक अयोध्या सिंह उपाध्याय हरिऔध Writer Ayodhya Singh Upadhyay Hari Oudhस्वर समीर गोस्वामी Narration Sameer Goswamihttps://kahanisuno.com/http://instagram.com/sameergoswamikahanisunohttps://www.facebook.com/kahanisuno/http://twitter.com/goswamisameer/https://sameergoswami.com

  • Adhkhila Phool | Part- 10 | A Novel by Ayodhya Singh Upadhyay Hari Oudh | अधखिला फूल | अयोध्या सिंह उपाध्याय हरिऔध का लिखा उपन्यास |
    10 min 49 sec

    बालविवाह पश्चात पति के ग़ायब होने व पिता के सन्यासी बनने से व्यथित व दुखी एक अबोध बालिका को, अपने झूठे प्रेम जाल में फँसाने के लिए गाँव के एक रईस ज़मींदार पुत्र द्वारा अपनाई चालों, हथकंडो और बालिका के उनमें फँसने, मुक्त होने एवं अंत में पति व पिता के मिलने और अंतिम समय में ज़मींदार पुत्र के हृदय परिवर्तन की कहानी।उपन्यास अधखिला फूल Novel Adhkhila Phoolलेखक अयोध्या सिंह उपाध्याय हरिऔध Writer Ayodhya Singh Upadhyay Hari Oudhस्वर समीर गोस्वामी Narration Sameer Goswamihttps://kahanisuno.com/http://instagram.com/sameergoswamikahanisunohttps://www.facebook.com/kahanisuno/http://twitter.com/goswamisameer/https://sameergoswami.com

  • Adhkhila Phool | Part- 9 | A Novel by Ayodhya Singh Upadhyay Hari Oudh | अधखिला फूल | अयोध्या सिंह उपाध्याय हरिऔध का लिखा उपन्यास |
    9 min 14 sec

    बालविवाह पश्चात पति के ग़ायब होने व पिता के सन्यासी बनने से व्यथित व दुखी एक अबोध बालिका को, अपने झूठे प्रेम जाल में फँसाने के लिए गाँव के एक रईस ज़मींदार पुत्र द्वारा अपनाई चालों, हथकंडो और बालिका के उनमें फँसने, मुक्त होने एवं अंत में पति व पिता के मिलने और अंतिम समय में ज़मींदार पुत्र के हृदय परिवर्तन की कहानी।उपन्यास अधखिला फूल Novel Adhkhila Phoolलेखक अयोध्या सिंह उपाध्याय हरिऔध Writer Ayodhya Singh Upadhyay Hari Oudhस्वर समीर गोस्वामी Narration Sameer Goswamihttps://kahanisuno.com/http://instagram.com/sameergoswamikahanisunohttps://www.facebook.com/kahanisuno/http://twitter.com/goswamisameer/https://sameergoswami.com

  • Adhkhila Phool | Part- 8 | A Novel by Ayodhya Singh Upadhyay Hari Oudh | अधखिला फूल | अयोध्या सिंह उपाध्याय हरिऔध का लिखा उपन्यास |
    8 min 52 sec

    बालविवाह पश्चात पति के ग़ायब होने व पिता के सन्यासी बनने से व्यथित व दुखी एक अबोध बालिका को, अपने झूठे प्रेम जाल में फँसाने के लिए गाँव के एक रईस ज़मींदार पुत्र द्वारा अपनाई चालों, हथकंडो और बालिका के उनमें फँसने, मुक्त होने एवं अंत में पति व पिता के मिलने और अंतिम समय में ज़मींदार पुत्र के हृदय परिवर्तन की कहानी।उपन्यास अधखिला फूल Novel Adhkhila Phoolलेखक अयोध्या सिंह उपाध्याय हरिऔध Writer Ayodhya Singh Upadhyay Hari Oudhस्वर समीर गोस्वामी Narration Sameer Goswamihttps://kahanisuno.com/http://instagram.com/sameergoswamikahanisunohttps://www.facebook.com/kahanisuno/http://twitter.com/goswamisameer/https://sameergoswami.com

  • Adhkhila Phool | Part- 7 | A Novel by Ayodhya Singh Upadhyay Hari Oudh | अधखिला फूल | अयोध्या सिंह उपाध्याय हरिऔध का लिखा उपन्यास |
    9 min 57 sec

    बालविवाह पश्चात पति के ग़ायब होने व पिता के सन्यासी बनने से व्यथित व दुखी एक अबोध बालिका को, अपने झूठे प्रेम जाल में फँसाने के लिए गाँव के एक रईस ज़मींदार पुत्र द्वारा अपनाई चालों, हथकंडो और बालिका के उनमें फँसने, मुक्त होने एवं अंत में पति व पिता के मिलने और अंतिम समय में ज़मींदार पुत्र के हृदय परिवर्तन की कहानी।उपन्यास अधखिला फूल Novel Adhkhila Phoolलेखक अयोध्या सिंह उपाध्याय हरिऔध Writer Ayodhya Singh Upadhyay Hari Oudhस्वर समीर गोस्वामी Narration Sameer Goswamihttps://kahanisuno.com/http://instagram.com/sameergoswamikahanisunohttps://www.facebook.com/kahanisuno/http://twitter.com/goswamisameer/https://sameergoswami.com

  • Adhkhila Phool | Part- 2 | A Novel by Ayodhya Singh Upadhyay Hari Oudh | अधखिला फूल | अयोध्या सिंह उपाध्याय हरिऔध का लिखा उपन्यास |
    6 min 49 sec

    बालविवाह पश्चात पति के ग़ायब होने व पिता के सन्यासी बनने से व्यथित व दुखी एक अबोध बालिका को, अपने झूठे प्रेम जाल में फँसाने के लिए गाँव के एक रईस ज़मींदार पुत्र द्वारा अपनाई चालों, हथकंडो और बालिका के उनमें फँसने, मुक्त होने एवं अंत में पति व पिता के मिलने और अंतिम समय में ज़मींदार पुत्र के हृदय परिवर्तन की कहानी।उपन्यास अधखिला फूल Novel Adhkhila Phoolलेखक अयोध्या सिंह उपाध्याय हरिऔध Writer Ayodhya Singh Upadhyay Hari Oudhस्वर समीर गोस्वामी Narration Sameer Goswamihttps://kahanisuno.com/http://instagram.com/sameergoswamikahanisunohttps://www.facebook.com/kahanisuno/http://twitter.com/goswamisameer/https://sameergoswami.com

  • Surat Ka Chaikhana | A Story Written by Leo Tolstoy | लियो टॉलस्टॉय की लिखी कहानी - सूरत का चायखाना
    12 min 28 sec

    English Name of the Story Surat Ka Chaikhanaलेखक लियो टॉलस्टॉय  Writer Leo Tolstoyस्वर समीर गोस्वामी Narration Sameer Goswamihttps://kahanisuno.com/http://instagram.com/sameergoswamikahanisunohttps://www.facebook.com/kahanisuno/http://twitter.com/goswamisameer/https://sameergoswami.com

  • Rajpoot Qaidi | A Story Written by Leo Tolstoy | लियो टॉलस्टॉय की लिखी कहानी - राजपूत क़ैदी
    35 min 39 sec

    English Name of the Story Rajpoot Qaidiलेखक लियो टॉलस्टॉय  Writer Leo Tolstoyस्वर समीर गोस्वामी Narration Sameer Goswamihttps://kahanisuno.com/http://instagram.com/sameergoswamikahanisunohttps://www.facebook.com/kahanisuno/http://twitter.com/goswamisameer/https://sameergoswami.com

  • Ek Chingari Ghar Ko Jala Deti Hai | A Story Written by Leo Tolstoy | लियो टॉलस्टॉय की लिखी कहानी - एक चिंगारी घर को जला देती है
    20 min 13 sec

    English Name of the Story Ek Chingari Ghar Ko Jala Deti Haiलेखक लियो टॉलस्टॉय  Writer Leo Tolstoyस्वर समीर गोस्वामी Narration Sameer Goswamihttps://kahanisuno.com/http://instagram.com/sameergoswamikahanisunohttps://www.facebook.com/kahanisuno/http://twitter.com/goswamisameer/https://sameergoswami.com

  • Khooni Aurat Ka Saat Khoon | Part 18 | A Novel by Kishori Lal Goswami | खूनी औरत का सात खून | किशोरी लाल गोस्वामी का लिखा उपन्यास |
    24 min 15 sec

    एक अनाथ युवती द्वारा अपनी इज्जत बचाने की ख़ातिर बदमाशों से जूझने और इस दौरान कई खून के आरोप में युवती के फँसने व बरी होने की कहानी।उपन्यास खूनी औरत का सात खून Novel Khooni Aurat Ka Saat Khoonलेखक किशोरी लाल गोस्वामी Writer Kishori Lal Goswamiस्वर समीर गोस्वामी Narration Sameer Goswamihttps://kahanisuno.com/http://instagram.com/sameergoswamikahanisunohttps://www.facebook.com/kahanisuno/http://twitter.com/goswamisameer/https://sameergoswami.com

  • Khooni Aurat Ka Saat Khoon | Part 17 | A Novel by Kishori Lal Goswami | खूनी औरत का सात खून | किशोरी लाल गोस्वामी का लिखा उपन्यास |
    17 min 32 sec

    एक अनाथ युवती द्वारा अपनी इज्जत बचाने की ख़ातिर बदमाशों से जूझने और इस दौरान कई खून के आरोप में युवती के फँसने व बरी होने की कहानी।उपन्यास खूनी औरत का सात खून Novel Khooni Aurat Ka Saat Khoonलेखक किशोरी लाल गोस्वामी Writer Kishori Lal Goswamiस्वर समीर गोस्वामी Narration Sameer Goswamihttps://kahanisuno.com/http://instagram.com/sameergoswamikahanisunohttps://www.facebook.com/kahanisuno/http://twitter.com/goswamisameer/https://sameergoswami.com

  • Khooni Aurat Ka Saat Khoon | Part 16 | A Novel by Kishori Lal Goswami | खूनी औरत का सात खून | किशोरी लाल गोस्वामी का लिखा उपन्यास |
    14 min 42 sec

    एक अनाथ युवती द्वारा अपनी इज्जत बचाने की ख़ातिर बदमाशों से जूझने और इस दौरान कई खून के आरोप में युवती के फँसने व बरी होने की कहानी।उपन्यास खूनी औरत का सात खून Novel Khooni Aurat Ka Saat Khoonलेखक किशोरी लाल गोस्वामी Writer Kishori Lal Goswamiस्वर समीर गोस्वामी Narration Sameer Goswamihttps://kahanisuno.com/http://instagram.com/sameergoswamikahanisunohttps://www.facebook.com/kahanisuno/http://twitter.com/goswamisameer/https://sameergoswami.com

  • Khooni Aurat Ka Saat Khoon | Part 15 | A Novel by Kishori Lal Goswami | खूनी औरत का सात खून | किशोरी लाल गोस्वामी का लिखा उपन्यास |
    12 min 37 sec

    एक अनाथ युवती द्वारा अपनी इज्जत बचाने की ख़ातिर बदमाशों से जूझने और इस दौरान कई खून के आरोप में युवती के फँसने व बरी होने की कहानी।उपन्यास खूनी औरत का सात खून Novel Khooni Aurat Ka Saat Khoonलेखक किशोरी लाल गोस्वामी Writer Kishori Lal Goswamiस्वर समीर गोस्वामी Narration Sameer Goswamihttps://kahanisuno.com/http://instagram.com/sameergoswamikahanisunohttps://www.facebook.com/kahanisuno/http://twitter.com/goswamisameer/https://sameergoswami.com

  • Khooni Aurat Ka Saat Khoon | Part 13 | A Novel by Kishori Lal Goswami | खूनी औरत का सात खून | किशोरी लाल गोस्वामी का लिखा उपन्यास |
    8 min 9 sec

    एक अनाथ युवती द्वारा अपनी इज्जत बचाने की ख़ातिर बदमाशों से जूझने और इस दौरान कई खून के आरोप में युवती के फँसने व बरी होने की कहानी।उपन्यास खूनी औरत का सात खून Novel Khooni Aurat Ka Saat Khoonलेखक किशोरी लाल गोस्वामी Writer Kishori Lal Goswamiस्वर समीर गोस्वामी Narration Sameer Goswamihttps://kahanisuno.com/http://instagram.com/sameergoswamikahanisunohttps://www.facebook.com/kahanisuno/http://twitter.com/goswamisameer/https://sameergoswami.com

  • Khooni Aurat Ka Saat Khoon | Part 11 | A Novel by Kishori Lal Goswami | खूनी औरत का सात खून | किशोरी लाल गोस्वामी का लिखा उपन्यास |
    7 min 30 sec

    एक अनाथ युवती द्वारा अपनी इज्जत बचाने की ख़ातिर बदमाशों से जूझने और इस दौरान कई खून के आरोप में युवती के फँसने व बरी होने की कहानी।उपन्यास खूनी औरत का सात खून Novel Khooni Aurat Ka Saat Khoonलेखक किशोरी लाल गोस्वामी Writer Kishori Lal Goswamiस्वर समीर गोस्वामी Narration Sameer Goswamihttps://kahanisuno.com/http://instagram.com/sameergoswamikahanisunohttps://www.facebook.com/kahanisuno/http://twitter.com/goswamisameer/https://sameergoswami.com

  • Prabhawati | Part 35 | A Novel by Suryakant Tripathi 'Nirala' | प्रभावती | सूर्यकान्त त्रिपाठी 'निराला' का लिखा उपन्यास |
    8 min 9 sec

    पृथ्वीराज जयचन्द क़ालीन सामन्तसरदारों की आपसी ईर्ष्या, संघर्ष , षड्यंत्र की कहानी।उपन्यास प्रभावती Novel Prabhawatiलेखक सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला Writer Suryakant Tripathi Niralaस्वर समीर गोस्वामी Narration Sameer Goswamihttps://kahanisuno.com/http://instagram.com/sameergoswamikahanisunohttps://www.facebook.com/kahanisuno/http://twitter.com/goswamisameer/https://sameergoswami.com

  • Prabhawati | Part 32 | A Novel by Suryakant Tripathi 'Nirala' | प्रभावती | सूर्यकान्त त्रिपाठी 'निराला' का लिखा उपन्यास |
    27 min 12 sec

    पृथ्वीराज जयचन्द क़ालीन सामन्तसरदारों की आपसी ईर्ष्या, संघर्ष , षड्यंत्र की कहानी।उपन्यास प्रभावती Novel Prabhawatiलेखक सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला Writer Suryakant Tripathi Niralaस्वर समीर गोस्वामी Narration Sameer Goswamihttps://kahanisuno.com/http://instagram.com/sameergoswamikahanisunohttps://www.facebook.com/kahanisuno/http://twitter.com/goswamisameer/https://sameergoswami.com

  • Prabhawati | Part 29 | A Novel by Suryakant Tripathi 'Nirala' | प्रभावती | सूर्यकान्त त्रिपाठी 'निराला' का लिखा उपन्यास |
    12 min 33 sec

    पृथ्वीराज जयचन्द क़ालीन सामन्तसरदारों की आपसी ईर्ष्या, संघर्ष , षड्यंत्र की कहानी।उपन्यास प्रभावती Novel Prabhawatiलेखक सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला Writer Suryakant Tripathi Niralaस्वर समीर गोस्वामी Narration Sameer Goswamihttps://kahanisuno.com/http://instagram.com/sameergoswamikahanisunohttps://www.facebook.com/kahanisuno/http://twitter.com/goswamisameer/https://sameergoswami.com

  • Prabhawati | Part 23 | A Novel by Suryakant Tripathi 'Nirala' | प्रभावती | सूर्यकान्त त्रिपाठी 'निराला' का लिखा उपन्यास |
    6 min 48 sec

    पृथ्वीराज जयचन्द क़ालीन सामन्तसरदारों की आपसी ईर्ष्या, संघर्ष , षड्यंत्र की कहानी।उपन्यास प्रभावती Novel Prabhawatiलेखक सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला Writer Suryakant Tripathi Niralaस्वर समीर गोस्वामी Narration Sameer Goswamihttps://kahanisuno.com/http://instagram.com/sameergoswamikahanisunohttps://www.facebook.com/kahanisuno/http://twitter.com/goswamisameer/https://sameergoswami.com

  • Prabhawati | Part 20 | A Novel by Suryakant Tripathi 'Nirala' | प्रभावती | सूर्यकान्त त्रिपाठी 'निराला' का लिखा उपन्यास |
    9 min 52 sec

    पृथ्वीराज जयचन्द क़ालीन सामन्तसरदारों की आपसी ईर्ष्या, संघर्ष , षड्यंत्र की कहानी।उपन्यास प्रभावती Novel Prabhawatiलेखक सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला Writer Suryakant Tripathi Niralaस्वर समीर गोस्वामी Narration Sameer Goswamihttps://kahanisuno.com/http://instagram.com/sameergoswamikahanisunohttps://www.facebook.com/kahanisuno/http://twitter.com/goswamisameer/https://sameergoswami.com

  • Prabhawati | Part 19 | A Novel by Suryakant Tripathi 'Nirala' | प्रभावती | सूर्यकान्त त्रिपाठी 'निराला' का लिखा उपन्यास |
    7 min 14 sec

    पृथ्वीराज जयचन्द क़ालीन सामन्तसरदारों की आपसी ईर्ष्या, संघर्ष , षड्यंत्र की कहानी।उपन्यास प्रभावती Novel Prabhawatiलेखक सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला Writer Suryakant Tripathi Niralaस्वर समीर गोस्वामी Narration Sameer Goswamihttps://kahanisuno.com/http://instagram.com/sameergoswamikahanisunohttps://www.facebook.com/kahanisuno/http://twitter.com/goswamisameer/https://sameergoswami.com

  • Prabhawati | Part 18 | A Novel by Suryakant Tripathi 'Nirala' | प्रभावती | सूर्यकान्त त्रिपाठी 'निराला' का लिखा उपन्यास |
    11 min 32 sec

    पृथ्वीराज जयचन्द क़ालीन सामन्तसरदारों की आपसी ईर्ष्या, संघर्ष , षड्यंत्र की कहानी।उपन्यास प्रभावती Novel Prabhawatiलेखक सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला Writer Suryakant Tripathi Niralaस्वर समीर गोस्वामी Narration Sameer Goswamihttps://kahanisuno.com/http://instagram.com/sameergoswamikahanisunohttps://www.facebook.com/kahanisuno/http://twitter.com/goswamisameer/https://sameergoswami.com

  • Prabhawati | Part 16 | A Novel by Suryakant Tripathi 'Nirala' | प्रभावती | सूर्यकान्त त्रिपाठी 'निराला' का लिखा उपन्यास |
    6 min 6 sec

    पृथ्वीराज जयचन्द क़ालीन सामन्तसरदारों की आपसी ईर्ष्या, संघर्ष , षड्यंत्र की कहानी।उपन्यास प्रभावती Novel Prabhawatiलेखक सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला Writer Suryakant Tripathi Niralaस्वर समीर गोस्वामी Narration Sameer Goswamihttps://kahanisuno.com/http://instagram.com/sameergoswamikahanisunohttps://www.facebook.com/kahanisuno/http://twitter.com/goswamisameer/https://sameergoswami.com

  • Bhakt Prahlaad | Part 7 | A Short Novel by Suryakant Tripathi 'Nirala' | भक्त प्रह्लाद | सूर्यकान्त त्रिपाठी 'निराला' का लिखा लघु उपन्यास |
    6 min 53 sec

    भक्त प्रह्लाद के जीवन की सम्पूर्ण कहानी।लघु उपन्यास भक्त प्रह्लाद Short Novel Bhakt Prahlaadलेखक सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला Writer Suryakant Tripathi Niralaस्वर समीर गोस्वामी Narration Sameer Goswamihttps://kahanisuno.com/http://instagram.com/sameergoswamikahanisunohttps://www.facebook.com/kahanisuno/http://twitter.com/goswamisameer/https://sameergoswami.com

  • Bhakt Prahlaad | Part 5 | A Short Novel by Suryakant Tripathi 'Nirala' | भक्त प्रह्लाद | सूर्यकान्त त्रिपाठी 'निराला' का लिखा लघु उपन्यास |
    14 min 14 sec

    भक्त प्रह्लाद के जीवन की सम्पूर्ण कहानी।लघु उपन्यास भक्त प्रह्लाद Short Novel Bhakt Prahlaadलेखक सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला Writer Suryakant Tripathi Niralaस्वर समीर गोस्वामी Narration Sameer Goswamihttps://kahanisuno.com/http://instagram.com/sameergoswamikahanisunohttps://www.facebook.com/kahanisuno/http://twitter.com/goswamisameer/https://sameergoswami.com

  • Khooni Aurat Ka Saat Khoon | Part 21 | A Novel by Kishori Lal Goswami | खूनी औरत का सात खून | किशोरी लाल गोस्वामी का लिखा उपन्यास |
    13 min 2 sec

    एक अनाथ युवती द्वारा अपनी इज्जत बचाने की ख़ातिर बदमाशों से जूझने और इस दौरान कई खून के आरोप में युवती के फँसने व बरी होने की कहानी।उपन्यास खूनी औरत का सात खून Novel Khooni Aurat Ka Saat Khoonलेखक किशोरी लाल गोस्वामी Writer Kishori Lal Goswamiस्वर समीर गोस्वामी Narration Sameer Goswamihttps://kahanisuno.com/http://instagram.com/sameergoswamikahanisunohttps://www.facebook.com/kahanisuno/http://twitter.com/goswamisameer/https://sameergoswami.com

  • Taash Ka Khel | A Story by Vishwambharnath Sharma 'Koushik' | ताश का खेल | विश्वम्भरनाथ शर्मा 'कौशिक' की लिखी कहानी |
    10 min 53 sec

    सफ़र के दौरान यात्रियों को ताश खेलने को उकसा उन्हें लूटने वाले कुछ व्यक्तियों व उन्हें पकड़ने वाले जासूस के कहानी।लेखक विश्वम्भरनाथ शर्मा कौशिक Writer Vishwambharnath Sharma Koushikस्वर समीर गोस्वामी Narration Sameer Goswamihttps://kahanisuno.com/http://instagram.com/sameergoswamikahanisunohttps://www.facebook.com/kahanisuno/http://twitter.com/goswamisameer/https://sameergoswami.com

  • Hod | A Story by Vishwambharnath Sharma 'Koushik' | होड़ | विश्वम्भरनाथ शर्मा 'कौशिक' की लिखी कहानी |
    14 min 8 sec

    दो पड़ोसियों द्वारा होड़ में पड़ ग्रामोफ़ोन व रकार्ड ख़रीद कर बेवक्त तेज आवाज़ में बजाने व अन्य पड़ोसीयों दवरा परेशान हो उसे बाद काराने की कहानी।लेखक विश्वम्भरनाथ शर्मा कौशिक Writer Vishwambharnath Sharma Koushikस्वर समीर गोस्वामी Narration Sameer Goswamihttps://kahanisuno.com/http://instagram.com/sameergoswamikahanisunohttps://www.facebook.com/kahanisuno/http://twitter.com/goswamisameer/https://sameergoswami.com

  • Daant Ka Dard | A Story by Vishwambharnath Sharma 'Koushik' | दांत का दर्द | विश्वम्भरनाथ शर्मा 'कौशिक' की लिखी कहानी |
    12 min 55 sec

    दांत निकलवाने जैसी मामूली बात को लेकर एक व्यक्ति की चिंता व उसे छेड़ने वाले उसके पड़ोसियों की मनोरंजक कहानी।लेखक विश्वम्भरनाथ शर्मा कौशिक Writer Vishwambharnath Sharma Koushikस्वर समीर गोस्वामी Narration Sameer Goswamihttps://kahanisuno.com/http://instagram.com/sameergoswamikahanisunohttps://www.facebook.com/kahanisuno/http://twitter.com/goswamisameer/https://sameergoswami.com

  • Vijay 2 | A Story by Vishwambharnath Sharma 'Koushik' | विजय 2 | विश्वम्भरनाथ शर्मा 'कौशिक' की लिखी कहानी |
    14 min 51 sec

    एक राजकुमार द्वारा, चली आ रही विजयादशमी के दिन जानवरों की बलि देने की, परंपरा को ख़त्म कराने की कहानी ।लेखक विश्वम्भरनाथ शर्मा कौशिक Writer Vishwambharnath Sharma Koushikस्वर समीर गोस्वामी Narration Sameer Goswamihttps://kahanisuno.com/http://instagram.com/sameergoswamikahanisunohttps://www.facebook.com/kahanisuno/http://twitter.com/goswamisameer/https://sameergoswami.com

  • Goli | Part - 2 | A Novel by Acharya Chatursen Shastri | गोली | आचार्य चतुरसेन शास्त्री का लिखा उपन्यास
    4 min 52 sec

    इस उपन्यास में आचार्य चतुरसेन शास्त्री ने राजस्थान के राजाओं के महलों में  रनिवासों, डयोड़ियों के अंदर स्त्रियों के साथ होने वाले अनाचार, व्यभिचार व वहाँ के नारकीय जीवन की झलक के साथ राजाओं की सनक, फ़िज़ूलख़र्ची व निरंकुशता की कहानी प्रस्तुत की है।उपन्यास गोली Novel Goliलेखक आचार्य चतुरसेन शास्त्री  Writer Acharya Chatursen Shastriस्वर समीर गोस्वामी Narration Sameer Goswamihttps://kahanisuno.com/http://instagram.com/sameergoswamikahanisunohttps://www.facebook.com/kahanisuno/http://twitter.com/goswamisameer/https://sameergoswami.com

  • Vardan | Part - 22 | A Novel by Munshi Premchand | वरदान | मुंशी प्रेमचंद का लिखा उपन्यास
    13 min 22 sec

    इस उपन्यास में मुंशी प्रेमचंद ने बचपन में साथ खेले व बढ़े हुए, भावी जीवन की सुन्दर कल्पनाएँ संजोने वाले दो प्रेमियों की दुखांत प्रेमकहानी प्रस्तुत की है।उपन्यास वरदान Novel Vardanलेखक मुंशी प्रेमचंद  Writer Munshi Premchandस्वर समीर गोस्वामी Narration Sameer Goswamihttps://kahanisuno.com/http://instagram.com/sameergoswamikahanisunohttps://www.facebook.com/kahanisuno/http://twitter.com/goswamisameer/https://sameergoswami.com

  • Vardan | Part - 19 | A Novel by Munshi Premchand | वरदान | मुंशी प्रेमचंद का लिखा उपन्यास
    14 min 14 sec

    इस उपन्यास में मुंशी प्रेमचंद ने बचपन में साथ खेले व बढ़े हुए, भावी जीवन की सुन्दर कल्पनाएँ संजोने वाले दो प्रेमियों की दुखांत प्रेमकहानी प्रस्तुत की है।उपन्यास वरदान Novel Vardanलेखक मुंशी प्रेमचंद  Writer Munshi Premchandस्वर समीर गोस्वामी Narration Sameer Goswamihttps://kahanisuno.com/http://instagram.com/sameergoswamikahanisunohttps://www.facebook.com/kahanisuno/http://twitter.com/goswamisameer/https://sameergoswami.com

  • Vardan | Part - 17 | A Novel by Munshi Premchand | वरदान | मुंशी प्रेमचंद का लिखा उपन्यास
    39 min 21 sec

    इस उपन्यास में मुंशी प्रेमचंद ने बचपन में साथ खेले व बढ़े हुए, भावी जीवन की सुन्दर कल्पनाएँ संजोने वाले दो प्रेमियों की दुखांत प्रेमकहानी प्रस्तुत की है।उपन्यास वरदान Novel Vardanलेखक मुंशी प्रेमचंद  Writer Munshi Premchandस्वर समीर गोस्वामी Narration Sameer Goswamihttps://kahanisuno.com/http://instagram.com/sameergoswamikahanisunohttps://www.facebook.com/kahanisuno/http://twitter.com/goswamisameer/https://sameergoswami.com

  • Vardan | Part - 12 | A Novel by Munshi Premchand | वरदान | मुंशी प्रेमचंद का लिखा उपन्यास
    9 min 47 sec

    इस उपन्यास में मुंशी प्रेमचंद ने बचपन में साथ खेले व बढ़े हुए, भावी जीवन की सुन्दर कल्पनाएँ संजोने वाले दो प्रेमियों की दुखांत प्रेमकहानी प्रस्तुत की है।उपन्यास वरदान Novel Vardanलेखक मुंशी प्रेमचंद  Writer Munshi Premchandस्वर समीर गोस्वामी Narration Sameer Goswamihttps://kahanisuno.com/http://instagram.com/sameergoswamikahanisunohttps://www.facebook.com/kahanisuno/http://twitter.com/goswamisameer/https://sameergoswami.com

  • Vardan | Part - 10 | A Novel by Munshi Premchand | वरदान | मुंशी प्रेमचंद का लिखा उपन्यास
    12 min 27 sec

    इस उपन्यास में मुंशी प्रेमचंद ने बचपन में साथ खेले व बढ़े हुए, भावी जीवन की सुन्दर कल्पनाएँ संजोने वाले दो प्रेमियों की दुखांत प्रेमकहानी प्रस्तुत की है।उपन्यास वरदान Novel Vardanलेखक मुंशी प्रेमचंद  Writer Munshi Premchandस्वर समीर गोस्वामी Narration Sameer Goswamihttps://kahanisuno.com/http://instagram.com/sameergoswamikahanisunohttps://www.facebook.com/kahanisuno/http://twitter.com/goswamisameer/https://sameergoswami.com

  • Vardan | Part - 6 | A Novel by Munshi Premchand | वरदान | मुंशी प्रेमचंद का लिखा उपन्यास
    15 min 9 sec

    इस उपन्यास में मुंशी प्रेमचंद ने बचपन में साथ खेले व बढ़े हुए, भावी जीवन की सुन्दर कल्पनाएँ संजोने वाले दो प्रेमियों की दुखांत प्रेमकहानी प्रस्तुत की है।उपन्यास वरदान Novel Vardanलेखक मुंशी प्रेमचंद  Writer Munshi Premchandस्वर समीर गोस्वामी Narration Sameer Goswamihttps://kahanisuno.com/http://instagram.com/sameergoswamikahanisunohttps://www.facebook.com/kahanisuno/http://twitter.com/goswamisameer/https://sameergoswami.com

  • Vardan | Part - 3 | A Novel by Munshi Premchand | वरदान | मुंशी प्रेमचंद का लिखा उपन्यास
    6 min 42 sec

    इस उपन्यास में मुंशी प्रेमचंद ने बचपन में साथ खेले व बढ़े हुए, भावी जीवन की सुन्दर कल्पनाएँ संजोने वाले दो प्रेमियों की दुखांत प्रेमकहानी प्रस्तुत की है।उपन्यास वरदान Novel Vardanलेखक मुंशी प्रेमचंद  Writer Munshi Premchandस्वर समीर गोस्वामी Narration Sameer Goswamihttps://kahanisuno.com/http://instagram.com/sameergoswamikahanisunohttps://www.facebook.com/kahanisuno/http://twitter.com/goswamisameer/https://sameergoswami.com

  • Vardan | Part - 2 | A Novel by Munshi Premchand | वरदान | मुंशी प्रेमचंद का लिखा उपन्यास
    15 min 24 sec

    इस उपन्यास में मुंशी प्रेमचंद ने बचपन में साथ खेले व बढ़े हुए, भावी जीवन की सुन्दर कल्पनाएँ संजोने वाले दो प्रेमियों की दुखांत प्रेमकहानी प्रस्तुत की है।उपन्यास वरदान Novel Vardanलेखक मुंशी प्रेमचंद  Writer Munshi Premchandस्वर समीर गोस्वामी Narration Sameer Goswamihttps://kahanisuno.com/http://instagram.com/sameergoswamikahanisunohttps://www.facebook.com/kahanisuno/http://twitter.com/goswamisameer/https://sameergoswami.com

  • Vardan | Part - 1 | A Novel by Munshi Premchand | वरदान | मुंशी प्रेमचंद का लिखा उपन्यास
    4 min 29 sec

    इस उपन्यास में मुंशी प्रेमचंद ने बचपन में साथ खेले व बढ़े हुए, भावी जीवन की सुन्दर कल्पनाएँ संजोने वाले दो प्रेमियों की दुखांत प्रेमकहानी प्रस्तुत की है।उपन्यास वरदान Novel Vardanलेखक मुंशी प्रेमचंद  Writer Munshi Premchandस्वर समीर गोस्वामी Narration Sameer Goswamihttps://kahanisuno.com/http://instagram.com/sameergoswamikahanisunohttps://www.facebook.com/kahanisuno/http://twitter.com/goswamisameer/https://sameergoswami.com

  • Prema | Part - 13 | A Novel by Munshi Premchand | प्रेमा | मुंशी प्रेमचंद का लिखा उपन्यास
    22 min 57 sec

    इस उपन्यास में मुंशी प्रेमचंद ने तयशुदा स्थान पर विवाह न कर एक विधवा से विवाह कर उसका जीवन सुधारने वाले एक साहसी समाज सुधारक युवक की कहानी प्रस्तुत की है।उपन्यास प्रेमा Novel Premaलेखक मुंशी प्रेमचंद  Writer Munshi Premchandस्वर समीर गोस्वामी Narration Sameer Goswamihttps://kahanisuno.com/http://instagram.com/sameergoswamikahanisunohttps://www.facebook.com/kahanisuno/http://twitter.com/goswamisameer/https://sameergoswami.com

  • Prema | Part - 12 | A Novel by Munshi Premchand | प्रेमा | मुंशी प्रेमचंद का लिखा उपन्यास
    9 min 34 sec

    इस उपन्यास में मुंशी प्रेमचंद ने तयशुदा स्थान पर विवाह न कर एक विधवा से विवाह कर उसका जीवन सुधारने वाले एक साहसी समाज सुधारक युवक की कहानी प्रस्तुत की है।उपन्यास प्रेमा Novel Premaलेखक मुंशी प्रेमचंद  Writer Munshi Premchandस्वर समीर गोस्वामी Narration Sameer Goswamihttps://kahanisuno.com/http://instagram.com/sameergoswamikahanisunohttps://www.facebook.com/kahanisuno/http://twitter.com/goswamisameer/https://sameergoswami.com

  • Prabhawati | Part 11 | A Novel by Suryakant Tripathi 'Nirala' | प्रभावती | सूर्यकान्त त्रिपाठी 'निराला' का लिखा उपन्यास |
    8 min 24 sec

    पृथ्वीराज जयचन्द क़ालीन सामन्तसरदारों की आपसी ईर्ष्या, संघर्ष , षड्यंत्र की कहानी।उपन्यास प्रभावती Novel Prabhawatiलेखक सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला Writer Suryakant Tripathi Niralaस्वर समीर गोस्वामी Narration Sameer Goswamihttps://kahanisuno.com/http://instagram.com/sameergoswamikahanisunohttps://www.facebook.com/kahanisuno/http://twitter.com/goswamisameer/https://sameergoswami.com

  • Prabhawati | Part 9 | A Novel by Suryakant Tripathi 'Nirala' | प्रभावती | सूर्यकान्त त्रिपाठी 'निराला' का लिखा उपन्यास |
    7 min 52 sec

    पृथ्वी राज जयचन्द क़ालीन सामन्तसरदारों की आपसी ईर्ष्या, संघर्ष , षड्यंत्र की कहानी।उपन्यास प्रभावती Novel Prabhawatiलेखक सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला Writer Suryakant Tripathi Niralaस्वर समीर गोस्वामी Narration Sameer Goswamihttps://kahanisuno.com/http://instagram.com/sameergoswamikahanisunohttps://www.facebook.com/kahanisuno/http://twitter.com/goswamisameer/https://sameergoswami.com

  • Prabhawati | Part 7 | A Novel by Suryakant Tripathi 'Nirala' | प्रभावती | सूर्यकान्त त्रिपाठी 'निराला' का लिखा उपन्यास |
    11 min 47 sec

    पृथ्वी राज जयचन्द क़ालीन सामन्तसरदारों की आपसी ईर्ष्या, संघर्ष , षड्यंत्र की कहानी।उपन्यास प्रभावती Novel Prabhawatiलेखक सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला Writer Suryakant Tripathi Niralaस्वर समीर गोस्वामी Narration Sameer Goswamihttps://kahanisuno.com/http://instagram.com/sameergoswamikahanisunohttps://www.facebook.com/kahanisuno/http://twitter.com/goswamisameer/https://sameergoswami.com

  • Prabhawati | Part 6 | A Novel by Suryakant Tripathi 'Nirala' | प्रभावती | सूर्यकान्त त्रिपाठी 'निराला' का लिखा उपन्यास |
    15 min 53 sec

    पृथ्वी राज जयचन्द क़ालीन सामन्तसरदारों की आपसी ईर्ष्या, संघर्ष , षड्यंत्र की कहानी।उपन्यास प्रभावती Novel Prabhawatiलेखक सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला Writer Suryakant Tripathi Niralaस्वर समीर गोस्वामी Narration Sameer Goswamihttps://kahanisuno.com/http://instagram.com/sameergoswamikahanisunohttps://www.facebook.com/kahanisuno/http://twitter.com/goswamisameer/https://sameergoswami.com

  • Prabhawati | Part 5 | A Novel by Suryakant Tripathi 'Nirala' | प्रभावती | सूर्यकान्त त्रिपाठी 'निराला' का लिखा उपन्यास |
    14 min 14 sec

    पृथ्वी राज जयचन्द क़ालीन सामन्तसरदारों की आपसी ईर्ष्या, संघर्ष , षड्यंत्र की कहानी।उपन्यास प्रभावती Novel Prabhawatiलेखक सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला Writer Suryakant Tripathi Niralaस्वर समीर गोस्वामी Narration Sameer Goswamihttps://kahanisuno.com/http://instagram.com/sameergoswamikahanisunohttps://www.facebook.com/kahanisuno/http://twitter.com/goswamisameer/https://sameergoswami.com

  • Prabhawati | Part 4 | A Novel by Suryakant Tripathi 'Nirala' | प्रभावती | सूर्यकान्त त्रिपाठी 'निराला' का लिखा उपन्यास |
    9 min 3 sec

    पृथ्वी राज जयचन्द क़ालीन सामन्तसरदारों की आपसी ईर्ष्या, संघर्ष , षड्यंत्र की कहानी।उपन्यास प्रभावती Novel Prabhawatiलेखक सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला Writer Suryakant Tripathi Niralaस्वर समीर गोस्वामी Narration Sameer Goswamihttps://kahanisuno.com/http://instagram.com/sameergoswamikahanisunohttps://www.facebook.com/kahanisuno/http://twitter.com/goswamisameer/https://sameergoswami.com

  • Prabhawati | Part 3 | A Novel by Suryakant Tripathi 'Nirala' | प्रभावती | सूर्यकान्त त्रिपाठी 'निराला' का लिखा उपन्यास |
    13 min 39 sec

    पृथ्वी राज जयचन्द क़ालीन सामन्तसरदारों की आपसी ईर्ष्या, संघर्ष , षड्यंत्र की कहानी।उपन्यास प्रभावती Novel Prabhawatiलेखक सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला Writer Suryakant Tripathi Niralaस्वर समीर गोस्वामी Narration Sameer Goswamihttps://kahanisuno.com/http://instagram.com/sameergoswamikahanisunohttps://www.facebook.com/kahanisuno/http://twitter.com/goswamisameer/https://sameergoswami.com

  • Bhishm | Part 8 | A Short Novel by Suryakant Tripathi 'Nirala' | भीष्म | सूर्यकान्त त्रिपाठी 'निराला' का लिखा लघु उपन्यास |
    14 min 19 sec

    भीष्म के जीवन की सम्पूर्ण कहानी।लघु उपन्यास भीष्म Short Novel Bhishmलेखक सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला Writer Suryakant Tripathi Niralaस्वर समीर गोस्वामी Narration Sameer Goswamihttps://kahanisuno.com/http://instagram.com/sameergoswamikahanisunohttps://www.facebook.com/kahanisuno/http://twitter.com/goswamisameer/https://sameergoswami.com

  • Bhishm | Part 7 | A Short Novel by Suryakant Tripathi 'Nirala' | भीष्म | सूर्यकान्त त्रिपाठी 'निराला' का लिखा लघु उपन्यास |
    13 min 46 sec

    भीष्म के जीवन की सम्पूर्ण कहानी।लघु उपन्यास भीष्म Short Novel Bhishmलेखक सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला Writer Suryakant Tripathi Niralaस्वर समीर गोस्वामी Narration Sameer Goswamihttps://kahanisuno.com/http://instagram.com/sameergoswamikahanisunohttps://www.facebook.com/kahanisuno/http://twitter.com/goswamisameer/https://sameergoswami.com

  • Bhishm | Part 6 | A Short Novel by Suryakant Tripathi 'Nirala' | भीष्म | सूर्यकान्त त्रिपाठी 'निराला' का लिखा लघु उपन्यास |
    13 min 7 sec

    भीष्म के जीवन की सम्पूर्ण कहानी।लघु उपन्यास भीष्म Short Novel Bhishmलेखक सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला Writer Suryakant Tripathi Niralaस्वर समीर गोस्वामी Narration Sameer Goswamihttps://kahanisuno.com/http://instagram.com/sameergoswamikahanisunohttps://www.facebook.com/kahanisuno/http://twitter.com/goswamisameer/https://sameergoswami.com

  • Bhishm | Part 4 | A Short Novel by Suryakant Tripathi 'Nirala' | भीष्म | सूर्यकान्त त्रिपाठी 'निराला' का लिखा लघु उपन्यास |
    19 min 43 sec

    भीष्म के जीवन की सम्पूर्ण कहानी।लघु उपन्यास भीष्म Short Novel Bhishmलेखक सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला Writer Suryakant Tripathi Niralaस्वर समीर गोस्वामी Narration Sameer Goswamihttps://kahanisuno.com/http://instagram.com/sameergoswamikahanisunohttps://www.facebook.com/kahanisuno/http://twitter.com/goswamisameer/https://sameergoswami.com

  • Bhishm | Part 3 | A Short Novel by Suryakant Tripathi 'Nirala' | भीष्म | सूर्यकान्त त्रिपाठी 'निराला' का लिखा लघु उपन्यास |
    16 min 43 sec

    भीष्म के जीवन की सम्पूर्ण कहानी।लघु उपन्यास भीष्म Short Novel Bhishmलेखक सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला Writer Suryakant Tripathi Niralaस्वर समीर गोस्वामी Narration Sameer Goswamihttps://kahanisuno.com/http://instagram.com/sameergoswamikahanisunohttps://www.facebook.com/kahanisuno/http://twitter.com/goswamisameer/https://sameergoswami.com

  • Bhakt Prahlaad | Part 11 | A Short Novel by Suryakant Tripathi 'Nirala' | भक्त प्रह्लाद | सूर्यकान्त त्रिपाठी 'निराला' का लिखा लघु उपन्यास |
    5 min 37 sec

    भक्त प्रह्लाद के जीवन की सम्पूर्ण कहानी।लघु उपन्यास भक्त प्रह्लाद Short Novel Bhakt Prahlaadलेखक सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला Writer Suryakant Tripathi Niralaस्वर समीर गोस्वामी Narration Sameer Goswamihttps://kahanisuno.com/http://instagram.com/sameergoswamikahanisunohttps://www.facebook.com/kahanisuno/http://twitter.com/goswamisameer/https://sameergoswami.com

  • Ghayal Ki Gati | A Story Written by O Henry | ओ॰ हेनरी की लिखी कहानी - घायल की गति
    11 min 57 sec

    English Name of the Story Ghayal Ki Gatiलेखक ओ॰ हेनरी  Writer O Henryस्वर समीर गोस्वामी Narration Sameer Goswamihttps://kahanisuno.com/http://instagram.com/sameergoswamikahanisunohttps://www.facebook.com/kahanisuno/http://twitter.com/goswamisameer/https://sameergoswami.com

  • Ek Peele Kutte Ke Sansmaran | A Story Written by O Henry | ओ॰ हेनरी की लिखी कहानी - एक पीले कुत्ते के संस्मरण
    13 min 58 sec

    English Name of the Story Ek Peele Kutte Ke Sansmaranलेखक ओ॰ हेनरी  Writer O Henryस्वर समीर गोस्वामी Narration Sameer Goswamihttps://kahanisuno.com/http://instagram.com/sameergoswamikahanisunohttps://www.facebook.com/kahanisuno/http://twitter.com/goswamisameer/https://sameergoswami.com

  • Ek Hazar Dollar | A Story Written by O Henry | ओ॰ हेनरी की लिखी कहानी - एक हज़ार डॉलर
    16 min 52 sec

    English Name of the Story Ek Hazar Dollarलेखक ओ॰ हेनरी  Writer O Henryस्वर समीर गोस्वामी Narration Sameer Goswamihttps://kahanisuno.com/http://instagram.com/sameergoswamikahanisunohttps://www.facebook.com/kahanisuno/http://twitter.com/goswamisameer/https://sameergoswami.com

  • Ek Akhbaar Ki Kahani | A Story Written by O Henry | ओ॰ हेनरी की लिखी कहानी - एक अख़बार की कहानी
    10 min 40 sec

    English Name of the Story Ek Akhbaar Ki Kahaniलेखक ओ॰ हेनरी  Writer O Henryस्वर समीर गोस्वामी Narration Sameer Goswamihttps://kahanisuno.com/http://instagram.com/sameergoswamikahanisunohttps://www.facebook.com/kahanisuno/http://twitter.com/goswamisameer/https://sameergoswami.com

  • Dhanyawad Diwas | A Story Written by O Henry | ओ॰ हेनरी की लिखी कहानी - धन्यवाद दिवस
    15 min 48 sec

    English Name of the Story Dhanyawad Diwasलेखक ओ॰ हेनरी  Writer O Henryस्वर समीर गोस्वामी Narration Sameer Goswamihttps://kahanisuno.com/http://instagram.com/sameergoswamikahanisunohttps://www.facebook.com/kahanisuno/http://twitter.com/goswamisameer/https://sameergoswami.com

  • Aakhiri Patta | A Story Written by O Henry | ओ॰ हेनरी की लिखी कहानी आखिरी पत्ता
    19 min 48 sec

    English Name of the Story The Last Leafलेखक ओ॰ हेनरी  Writer O Henryस्वर समीर गोस्वामी Narration Sameer Goswamihttps://kahanisuno.com/http://instagram.com/sameergoswamikahanisunohttps://www.facebook.com/kahanisuno/http://twitter.com/goswamisameer/https://sameergoswami.com

  • A Municipal Report | A Story Written by O Henry | ओ॰ हेनरी की लिखी कहानी ए म्यूनिसिपल रिपोर्ट
    43 min 15 sec

    English Name of the Story A Municipal Reportलेखक ओ॰ हेनरी  Writer O Henryस्वर समीर गोस्वामी Narration Sameer Goswamihttps://kahanisuno.com/http://instagram.com/sameergoswamikahanisunohttps://www.facebook.com/kahanisuno/http://twitter.com/goswamisameer/https://sameergoswami.com

  • Goli | Part - 65 | A Novel by Acharya Chatursen Shastri | गोली | आचार्य चतुरसेन शास्त्री का लिखा उपन्यास
    3 min 35 sec

    इस उपन्यास में आचार्य चतुरसेन शास्त्री ने राजस्थान के राजाओं के महलों में  रनिवासों, डयोड़ियों के अंदर स्त्रियों के साथ होने वाले अनाचार, व्यभिचार व वहाँ के नारकीय जीवन की झलक के साथ राजाओं की सनक, फ़िज़ूलख़र्ची व निरंकुशता की कहानी प्रस्तुत की है।उपन्यास गोली Novel Goliलेखक आचार्य चतुरसेन शास्त्री  Writer Acharya Chatursen Shastriस्वर समीर गोस्वामी Narration Sameer Goswamihttps://kahanisuno.com/http://instagram.com/sameergoswamikahanisunohttps://www.facebook.com/kahanisuno/http://twitter.com/goswamisameer/https://sameergoswami.com

  • Goli | Part - 58 | A Novel by Acharya Chatursen Shastri | गोली | आचार्य चतुरसेन शास्त्री का लिखा उपन्यास
    10 min 59 sec

    इस उपन्यास में आचार्य चतुरसेन शास्त्री ने राजस्थान के राजाओं के महलों में  रनिवासों, डयोड़ियों के अंदर स्त्रियों के साथ होने वाले अनाचार, व्यभिचार व वहाँ के नारकीय जीवन की झलक के साथ राजाओं की सनक, फ़िज़ूलख़र्ची व निरंकुशता की कहानी प्रस्तुत की है।उपन्यास गोली Novel Goliलेखक आचार्य चतुरसेन शास्त्री  Writer Acharya Chatursen Shastriस्वर समीर गोस्वामी Narration Sameer Goswamihttps://kahanisuno.com/http://instagram.com/sameergoswamikahanisunohttps://www.facebook.com/kahanisuno/http://twitter.com/goswamisameer/https://sameergoswami.com

  • Goli | Part - 54 | A Novel by Acharya Chatursen Shastri | गोली | आचार्य चतुरसेन शास्त्री का लिखा उपन्यास
    4 min 23 sec

    इस उपन्यास में आचार्य चतुरसेन शास्त्री ने राजस्थान के राजाओं के महलों में  रनिवासों, डयोड़ियों के अंदर स्त्रियों के साथ होने वाले अनाचार, व्यभिचार व वहाँ के नारकीय जीवन की झलक के साथ राजाओं की सनक, फ़िज़ूलख़र्ची व निरंकुशता की कहानी प्रस्तुत की है।उपन्यास गोली Novel Goliलेखक आचार्य चतुरसेन शास्त्री  Writer Acharya Chatursen Shastriस्वर समीर गोस्वामी Narration Sameer Goswamihttps://kahanisuno.com/http://instagram.com/sameergoswamikahanisunohttps://www.facebook.com/kahanisuno/http://twitter.com/goswamisameer/https://sameergoswami.com

  • Goli | Part - 51 | A Novel by Acharya Chatursen Shastri | गोली | आचार्य चतुरसेन शास्त्री का लिखा उपन्यास
    15 min 47 sec

    इस उपन्यास में आचार्य चतुरसेन शास्त्री ने राजस्थान के राजाओं के महलों में  रनिवासों, डयोड़ियों के अंदर स्त्रियों के साथ होने वाले अनाचार, व्यभिचार व वहाँ के नारकीय जीवन की झलक के साथ राजाओं की सनक, फ़िज़ूलख़र्ची व निरंकुशता की कहानी प्रस्तुत की है।उपन्यास गोली Novel Goliलेखक आचार्य चतुरसेन शास्त्री  Writer Acharya Chatursen Shastriस्वर समीर गोस्वामी Narration Sameer Goswamihttps://kahanisuno.com/http://instagram.com/sameergoswamikahanisunohttps://www.facebook.com/kahanisuno/http://twitter.com/goswamisameer/https://sameergoswami.com

  • Gora | Part - 44 | A Novel by Rabindranath Tagore| गोरा | रवीन्द्रनाथ टैगोर का लिखा उपन्यास
    23 min

    इस उपन्यास में रवीन्द्रनाथ टैगोर ने खुद के गोद लिए जाने व आयरिश मातापिता की संतान होने, का पता चलने पर, एक राष्ट्रवादी कट्टर हिन्दू व्यक्ति के मन में मची उथलपुथल व व्यवहार में आए बदलाव की कहानी प्रस्तुत की है।उपन्यास गोरा Novel Goraलेखक रवीन्द्रनाथ टैगोर Writer Rabindranath Tagoreस्वर समीर गोस्वामी Narration Sameer Goswamihttps://kahanisuno.com/http://instagram.com/sameergoswamikahanisunohttps://www.facebook.com/kahanisuno/http://twitter.com/goswamisameer/https://sameergoswami.com

  • Gora | Part - 42 | A Novel by Rabindranath Tagore| गोरा | रवीन्द्रनाथ टैगोर का लिखा उपन्यास
    8 min 41 sec

    इस उपन्यास में रवीन्द्रनाथ टैगोर ने खुद के गोद लिए जाने व आयरिश मातापिता की संतान होने, का पता चलने पर, एक राष्ट्रवादी कट्टर हिन्दू व्यक्ति के मन में मची उथलपुथल व व्यवहार में आए बदलाव की कहानी प्रस्तुत की है।उपन्यास गोरा Novel Goraलेखक रवीन्द्रनाथ टैगोर Writer Rabindranath Tagoreस्वर समीर गोस्वामी Narration Sameer Goswamihttps://kahanisuno.com/http://instagram.com/sameergoswamikahanisunohttps://www.facebook.com/kahanisuno/http://twitter.com/goswamisameer/https://sameergoswami.com

  • Gora | Part - 41 | A Novel by Rabindranath Tagore| गोरा | रवीन्द्रनाथ टैगोर का लिखा उपन्यास
    22 min 18 sec

    इस उपन्यास में रवीन्द्रनाथ टैगोर ने खुद के गोद लिए जाने व आयरिश मातापिता की संतान होने, का पता चलने पर, एक राष्ट्रवादी कट्टर हिन्दू व्यक्ति के मन में मची उथलपुथल व व्यवहार में आए बदलाव की कहानी प्रस्तुत की है।उपन्यास गोरा Novel Goraलेखक रवीन्द्रनाथ टैगोर Writer Rabindranath Tagoreस्वर समीर गोस्वामी Narration Sameer Goswamihttps://kahanisuno.com/http://instagram.com/sameergoswamikahanisunohttps://www.facebook.com/kahanisuno/http://twitter.com/goswamisameer/https://sameergoswami.com

  • प्रेमचंद की लिखी कहानी प्रेरणा का वाचन, Narration of Premchand story Prerana.
    27 min 2 sec

    प्रेमचंद की लिखी कहानी प्रेरणा का वाचन, Narration of Premchand story Prerana.

  • प्रेमचंद की लिखी कहानी रहस्य का वाचन, Narration of Premchand story Rahasya.
    31 min

    प्रेमचंद की लिखी कहानी रहस्य का वाचन, Narration of Premchand story Rahasya.

  • प्रेमचंद की लिखी कहानी लॉटरी का वाचन, Narration of Premchand story Lottery.
    30 min 8 sec

    प्रेमचंद की लिखी कहानी लॉटरी का वाचन, Narration of Premchand story Lottery.

  • प्रेमचंद की कहानी ईदगाह का वाचन, Narration of Premchand Story Eidgaah
    29 min 11 sec

    प्रेमचंद की कहानी ईदगाह का वाचन, Narration of Premchand Story Eidgaah

  • प्रेमचंद की लिखी कहानी मेरी पहली रचना का वाचन, Narration of Premchand story Meri Pahli Rachna
    9 min 53 sec

    प्रेमचंद की लिखी कहानी मेरी पहली रचना का वाचन, Narration of Premchand story Meri Pahli Rachna

  • प्रेमचंद की लिखी कहानी कश्मीरी सेब का वाचन, Narration of Premchand story Kashmiri Seb
    5 min 15 sec

    प्रेमचंद की लिखी कहानी कश्मीरी सेब का वाचन, Narration of Premchand story Kashmiri Seb

  • प्रेमचंद की लिखी कहानी कफन का वाचन Narration of Premchand Story Kafan
    16 min 52 sec

    प्रेमचंद की लिखी कहानी कफन का वाचन Narration of Premchand Story Kafan

  • प्रेमचंद की लिखी कहानी लेखक का वाचन, Narration of Premchand Story Lekhak
    22 min 5 sec

    प्रेमचंद की लिखी कहानी लेखक का वाचन, Narration of Premchand Story Lekhak

  • प्रेमचंद की लिखी कहानी मोटेराम शास्त्री का वाचन, Narration of Premchand story Moteram Shastri
    12 min 19 sec

    पण्डित मोटेराम जी शास्त्री को कौन नही जानता आप अधिकारियों का रूख देखकर काम करते है। स्वदेशी आन्दोलने के दिनों मे अपने उस आन्दोलन का खूब विरोध किया था। स्वराज्य आन्दोलन के दिनों मे भी अपने अधिकारियों से राजभक्ति की सनद हासिल की थी। मगर जब इतनी उछलकूद पर उनकी तकदीर की मीठी नींद न टूटी, और अध्यापन कार्य से पिण्ड न छूटा, तो अन्त मे अपनी एक नई तदबीर सोची। घर जाकर धर्मपत्नी जी से बोले—इन बूढ़े तोतों को रटातेरटातें मेरी खोपड़ी पच्ची हुई जाती है। इतने दिनों विद्यादान देने का क्याफल मिला जो और आगे कुछ मिलने की आशा करूं।धर्मपत्न ने चिन्तित होकर कहा—भोजनों का भी तो कोई सहारा चाहिए।मोटेराम—तुम्हें जब देखो, पेट ही की फ्रिक पड़ी रहती है। कोई ऐसा विरला ही दिन जाता होगा कि निमन्त्रण न मिलते हो, और चाहे कोई निन्दा करें, पर मै परोसा लिये बिना नहीं आता हूं। आज ही सब यजमान मरे जाते है मगर जन्मभर पेट ही जिलया तो क्या किया। संसार का कुछ सुख भी तो भोगन चाहिए। मैने वैद्य बनने का निश्चय किया है। स्त्री ने आश्चर्य से कहा—वैद्य बनोगे, कुछ वैद्यकी पढ़ी भी हैमोटे—वैद्यक पढने से कुछ नही होता, संसार मे विद्या का इतना महत्व नही जितना बुद्धि क। दोचार सीधेसादे लटके है, बस और कुछ नही। आज ही अपने नाम के आगे भिष्गाचार्य बढ़ा लूंगा, कौन पूछने आता है, तुम भिषगाचार्य हो या नही। किसी को क्या गरज पड़ी है जो मेरी परिक्षा लेता फिरे। एक मोटासा साइनबोर्ड बनवा लूंगा। उस पर शब्द लिखें होगे—यहा स्त्री पुरूषों के गुप्त रोगों की चिकित्सा विशेष रूप से की जाती है। दोचार पैसे का हउ़बहेड़ाआवंला कुट छानकर रख लूंगा। बस, इस काम के लिए इतना सामान पर्याप्त है। हां, समाचारपत्रों मे विज्ञापन दूंगा और नोटिस बंटवाऊंगा। उसमें लंका, मद्रास, रंगून, कराची आदि दूरस्थ स्थानों के सज्जनों की चिटिठयां दर्ज की जाएंगी। ये मेरे चिकित्साकौशल के साक्षी होगें जनता को क्या पड़ी है कि वह इस बात का पता लगाती फिरे कि उन स्थानों मे इन नामों के मनुष्य रहते भी है, या नहीं फिर देखों वैद्य की कैसी चलती है। स्त्री—लेकिन बिना जानेबूझ दवा दोगे, तो फायदा क्या करेगीमोटे—फायदा न करेगी, मेरी बला से। वैद्य का काम दवा देना है, वह मृत्यु को परस्त करने का ठेका नही लेता, और फिर जितने आदमी बीमार पड़ते है, सभी तो नही मर जाते। मेरा यह कहना है कि जिन्हें कोई औषधि नही दी जाती, वे विकार शान्त हो जाने पर ही अच्छे हो जाते है। वैद्यों को बिना मांगे यश मिलता है। पाच रोगियों मे एक भी अच्छा हो गया, तो उसका यश मुझे अवश्य ही मिलेगा। शेष चार जो मर गये, वे मेरी निन्दा करने थोडे ही आवेगें। मैने बहुत विचार करके देख लिया, इससे अच्छा कोई काम नही है। लेख लिखना मुझे आता ही है, कवित्त बना ही लेता हूं, पत्रों मे आयुर्वेदमहत्व पर दोचार लेख लिख दूंगा, उनमें जहांतहां दोचार कवित्त भी जोड़ दूंगा और लिखूगां भी जरा चटपटी भाषा मे । फिर देखों कितने उल्लू फसते है यह न समझो कि मै इतने दिनो केवल बूढे तोते ही रटाता रहा हूं। मै नगर के सफल वैद्यो की चालों का अवलोकन करता रहा हू और इतने दिनों के बाद मुझे उनकी सफलता के मूलमंत्र का ज्ञान हुआ है। ईश्वर ने चाहा तो एक दिन तुम सिर से पांव तक सोने से लदी होगी।

  • प्रेमचंद की कहानी बड़े भाईसाहब का वाचन, Narration of Premchand Story Bade Bhaisahab
    20 min 4 sec

    प्रेमचंद की कहानी बड़े भाईसाहब का वाचन, Narration of Premchand Story Bade Bhaisahab

  • प्रेमचंद की कहानी नशा का वाचन Narration of Premchand Story Nasha
    15 min 23 sec

    प्रेमचंद की कहानी नशा का वाचन Narration of Premchand Story Nasha

  • प्रेमचंद की कहानी पूस की रात का वाचन, Narration of Premchand Story Poos Ki Raat
    14 min 59 sec

    प्रेमचंद की कहानी पूस की रात का वाचन, Narration of Premchand Story Poos Ki Raat

  • प्रेमचंद की कहानी बेटों वाली विधवा का वाचन, Narration of Premchand Story Beton Wali Vidhwa
    44 min 8 sec

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  • प्रेमचंद की कहानी शांति का वाचन, Narration of Premchand Story Shanti
    35 min 29 sec

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  • प्रेमचंद की कहानी स्वामिनी का वाचन, Narration of Premchand Story Swamini
    36 min 46 sec

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  • प्रेमचंद की कहानी ठाकुर का कुआँ का वाचन, Narration of Premchand Story Thakur Ka Kuwan
    8 min 42 sec

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  • प्रेमचंद की कहानी घर जमाई का वाचन, Narration of Premchand Story Ghar Jamai
    27 min 15 sec

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  • प्रेमचंद की कहानी अलग्योझा का वाचन, Narration of Premchand Story Algyojha
    44 min 13 sec

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  • प्रेमचंद की कहानी झाँकी का वाचन, Narration of Premchand Story Jhanki
    16 min 29 sec

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  • प्रेमचंद की कहानी दिल की रानी का वाचन, Narration of Premchand Story Dil Ki Raani
    46 min 21 sec

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  • प्रेमचंद की लिखी कहानी ज्योति का वाचन, Narration of Premchand Story Jyoti
    22 min 30 sec

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  • प्रेमचंद की कहानी गुल्ली डंडा का वाचन, Narration of Premchand Story Gulli Danda
    19 min 39 sec

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  • प्रेमचंद की कहानी धिक्कार का वाचन, Narration of Premchand Story Dhikkar
    37 min 4 sec

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  • प्रेमचंद की कहानी कायर का वाचन, Narration of Premchand Story Kaayar
    25 min 12 sec

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  • प्रेमचंद की कहानी शिकार का वाचन, Narration of Premchand Story Shikaar
    31 min 47 sec

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  • प्रेमचंद की लिखी कहानी "सुभागी" का वाचन, Narration of Premchand Story "Subhaagi"
    21 min 27 sec

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  • प्रेमचंद की कहानी अनुभव का वाचन, Narration of Premchand Story Anubhaw
    16 min 25 sec

    प्रेमचंद की कहानी अनुभव का वाचन, Narration of Premchand Story Anubhawhttp://sameergoswami.blogspot.in

  • प्रेमचंद की कहानी आखिरी हीला का वाचन, Narration of Premchand Story Aakhiri Heela
    15 min 38 sec

    http://sameergoswami.blogspot.inप्रेमचंद की कहानी आखिरी हीला का वाचन, Narration of Premchand Story Aakhiri Heela

  • प्रेमचंद की कहानी घासवाली का वाचन, Narration of Premchand Story Ghaaswaali
    25 min 57 sec

    http://sameergoswami.blogspot.inप्रेमचंद की कहानी घासवाली का वाचन, Narration of Premchand Story Ghaaswaali

  • प्रेमचंद की कहानी मनोवृत्ति का वाचन, Narration of Premchand Story Manovratti
    12 min 42 sec

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  • प्रेमचंद की कहानी रसिक संपादक का वाचन, Narration of Premchand Story Rasik Sampadak
    14 min 28 sec

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  • प्रेमचंद की कहानी कुसुम का वाचन, Narration of Premchand Story Kusum
    45 min 3 sec

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  • प्रेमचंद की कहानी ख़ुदाई फौज़दार का वाचन, Narration of Premchand Story Khudai Fauzdar
    24 min 16 sec

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  • प्रेमचंद की कहानी वेश्या का वाचन, Narration of Premchand Story Veshya
    45 min 15 sec

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  • प्रेमचंद की कहानी चमत्कार का वाचन, Narration of Premchand Story Chamatkar
    30 min 23 sec

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  • प्रेमचंद की कहानी मोटर के छींटे का वाचन, Narration of Premchand Story Motor Ke Chheente
    9 min 39 sec

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  • प्रेमचंद की कहानी क़ैदी का वाचन, Narration of Premchand Story Qaidi
    24 min 48 sec

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  • प्रेमचंद की कहानी मिस पद्मा का वाचन, Narration of Premchand Story Miss Padma
    14 min 25 sec

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  • प्रेमचंद की कहानी न्याय नबी का नीति-निर्वाह का वाचन, Narration of Premchand Story Nyaay Nabi Ka Niti Nirwah
    19 min 28 sec

    “हजरत मुहम्मद को इलहाम हुए थोड़े ही दिन हुए थे, दसपांच पड़ोसियों और निकट सम्बन्धियों के सिवा अभी और कोई उनके दीन पर ईमान न लाया था।यहां तक कि उनकी लड़की जैनब और दामाद अबुलआस भी, जिनका विवाह इलहाम के पहले ही हो चुका था, अभी तक नये धर्म में दीक्षित न हुए थे। जैनब कई बार अपने मैके गई थी और अपने पिता के ज्ञानोपदेश सुने थे। वह दिल से इसलाम पर श्रद्ध रखती थी, लेकिन अबुलआस के कारण दीक्षा लेने का साहस न कर सकती थी। अबुलआस विचारस्वातन्त्र्य का समर्थक था।वह कुशल व्यापारी था। मक्के से खजूर, मेवे आदि जिन्सें लेकर बन्दरगाहों को चलाना किया करता था। बहुत ही ईमानदार, लेनदेन का खरा, श्रमशील मनुष्य था, जिसे इहलोक से इतनी फुर्सत न थी कि परलोक की चिन्ता करे। जैनब के सामने कठिन समस्या थी, आत्मा धर्म की ओर थी, हृदय पति की ओर, न धर्म को छोड़ सकती थी, न पति को। घर के अन्य प्राणी मूर्तिपूजक थे और इस नये सम्प्रदाय के शत्रु। जैनब अपनी लगन को छुपाती रहती, यहां तक कि पति से भी अपनी व्यथा न कह सकती। वे धार्मिक सहिष्णुता के दिन न थे। बातबात पर खून की नदियां बहती थीं। खानदान के खानदान मिट जाते थे। अरब की अलौकिक वीरता पारस्परिक कलहों में व्यक्त होती थी। राजनैतिक संगठन का नाम न था। खून का बदल खून, धनहानि का बदला खून, अपमान का बदला खून—मानव रक्त ही से सभी झगड़ों का निबटारा होता था। ऐसी अवस्था में अपने धर्मानुराग को प्रकट करना अबुलआस के शक्तिशाली परिवार को मुहम्मद और उनके गिनेगिनाये अनुयायियों से टकराना था। उधर प्रेम का बन्धन पैरों को जकड़े हुए था। नये धर्म में प्रविष्ट होना अपने प्राणप्रिय पति से सदा के लिए बिछुड़ जाना था। कुरश जाति के लोग ऐसे मिश्रित विवाहों को परिवार के लिए कलंक समझते थे। माया और धर्म की दुविधा में पड़ी हुई जैनब कुढ़ती रहती थी।

  • प्रेमचंद की कहानी विद्रोही का वाचन, Narration of Premchand Story Vidrohi
    28 min 9 sec

    प्रेमचंद की कहानी विद्रोही का वाचन, Narration of Premchand Story Vidrohi

  • प्रेमचंद की कहानी उन्माद का वाचन, Narration of Premchand Story Unmaad
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    प्रेमचंद की कहानी उन्माद का वाचन, Narration of Premchand Story Unmaad, Unmad

  • प्रेमचंद की कहानी कुत्सा का वाचन, Narration of Premchand Story Kutsa
    8 min 24 sec

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  • प्रेमचंद की कहानी दो बैलों की कथा, Premchand Story Do Belon Ki Katha
    28 min 50 sec

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  • प्रेमचंद की कहानी रियासत का दीवान का वाचन, Narration of Premchand Story Riyasat Ka Deewan
    42 min 9 sec

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  • प्रेमचंद की कहानी मुफ्‍त का यश का वाचन, Narration of Premchand Story Muft Ka Yash
    18 min 1 sec

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  • प्रेमचंद की कहानी माँ का वाचन, Narration of Premchand Story Maa
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  • प्रेमचंद की कहानी बासी भात में खुदा का साझा का वाचन, Narration of Premchand Story Baasi Bhaat Mein Khuda Ka Saajhaa
    19 min 20 sec

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  • प्रेमचंद की कहानी जादू का वाचन, Narration of Premchand Story Jaadu
    5 min 29 sec

    प्रेमचंद की कहानी जादू का वाचन, Narration of Premchand Story Jaadu http://sameergoswami.blogspot.in

  • प्रेमचंद की कहानी तावान का वाचन, Narration of Premchand Story Taawaan
    14 min 24 sec

    प्रेमचंद की कहानी तावान का वाचन, Narration of Premchand Story Tawanhttp://sameergoswami.blogspot.in

  • प्रेमचंद की कहानी गिला का वाचन, Narration of Premchand Story Gila
    29 min 9 sec

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  • प्रेमचंद की कहानी बालक का वाचन, Narration of Premchand Story Baalak
    19 min 21 sec

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  • प्रेमचंद की कहानी लांछन का वाचन, Narration of Premchand Story Laanchhan
    24 min 58 sec

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  • प्रेमचंद की कहानी दूध का दाम का वाचन, Narration of Premchand Story Doodh Ka Daam
    21 min 40 sec

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  • प्रेमचंद की कहानी सवा सेर गेहूँ का वाचन, Narration of Premchand Story Sawa Ser Gehun
    17 min 49 sec

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  • प्रेमचंद की कहानी डामुल का क़ैदी का वाचन, Narration of Premchand Story Damul Ka Qaidi
    52 min 1 sec

    दस बजे रात का समय, एक विशाल भवन में एक सजा हुआ कमरा, बिजली की अँगीठी, बिजली का प्रकाश। बड़ा दिन आ गया है। सेठ खूबचन्दजी अफसरों को डालियाँ भेजने का सामान कर रहे हैं। फलों, मिठाइयों, मेवों, खिलौनों की छोटीछोटी पहाड़ियाँ सामने खड़ी हैं। मुनीमजी अफसरों के नाम बोलते जाते हैं। और सेठजी अपने हाथों यथासम्मान डालियाँ लगाते जाते हैं। खूबचन्दजी एक मिल के मालिक हैं, बम्बई के बड़े ठीकेदार। एक बार नगर के मेयर भी रह चुके हैं। इस वक्त भी कई व्यापारीसभाओं के मन्त्री और व्यापार मंडल के सभापति हैं। इस धन, यश, मान की प्राप्ति में डालियों का कितना भाग है, यह कौन कह सकता है, पर इस अवसर पर सेठजी के दसपाँच हज़ार बिगड़ जाते थे। अगर कुछ लोग तुम्हें खुशामदी, टोड़ी, जीहुजूर कहते हैं, तो कहा, करें। इससे सेठजी का क्या बिगड़ता है। सेठजी उन लोगों में नहीं हैं, जो नेकी करके दरिया में डाल दें। पुजारीजी ने आकर कहा, ‘सरकार, बड़ा विलम्ब हो गया। ठाकुरजी का भोग तैयार है।‘ अन्य धानिकों की भाँति सेठजी ने भी एक मन्दिर बनवाया था। ठाकुरजी की पूजा करने के लिए एक पुजारी नौकर रख लिया था। पुजारी को रोषभरी आँखों से देखकर कहा, ‘देखते नहीं हो, क्या कर रहा हूँ यह भी एक काम है, खेल नहीं, तुम्हारे ठाकुरजी ही सबकुछ न दे देंगे। पेट भरने पर ही पूजा सूझती है। घंटेआधाघंटे की देर हो जाने से ठाकुरजी भूखों न मर जायँगे।पुजारीजी अपनासा मुँह लेकर चले गये और सेठजी फिर डालियाँ सजाने में मसरूफ हो गये। सेठजी के जीवन का मुख्य काम धन कमाना था और उसके साधनों की रक्षा करना उनका मुख्य कर्तव्य। उनके सारे व्यवहार इसी सिद्धान्त के अधीन थे। मित्रों से इसलिए मिलते थे कि उनसे धनोपार्जन में मदद मिलेगी। मनोरंजन भी करते थे, तो व्यापार की दृष्टि से दान बहुत देते थे, पर उसमें भी यही लक्ष्य सामने रहता था। सन्ध्या और वन्दना उनके लिए पुरानी लकीर थीं, जिसे पीटते रहने में स्वार्थ सिद्ध होता था, मानो कोई बेगार हो। सब कामों से छुट्टी मिली, तो जाकर ठाकुरद्वारे में खड़े हो गये, चरणामृत लिया और चले आये। एक घंटे के बाद पुजारीजी फिर सिर पर सवार हो गये। खूबचन्द उनका मुँह देखते ही झुँझला उठे। जिस पूजा में तत्काल फायदा होता था, उसमें कोई बारबार विघ्न डाले तो क्यों न बुरा लगे बोले क़ह दिया, ‘अभी मुझे फुरसत नहीं है। खोपड़ी पर सवार हो गये मैं पूजा का गुलाम नहीं हूँ। जब घर में पैसे होते हैं, तभी ठाकुरजी की भी पूजा होती है। घर में पैसे न होंगे, तो ठाकुर जी भी पूछने न आयेंगेपुजारी हताश होकर चला गया और सेठजी फिर अपने काम में लगे। सहसा उनके मित्र केशवरामजी पधारे। सेठजी उठकर उनके गले से लिपट गये और ‘बोले क़िधर से मैं तो अभी तुम्हें बुलाने वाला था।‘

  • प्रेमचंद की कहानी नेउर का वाचन, Narration of Premchand Story Neur
    21 min 33 sec

    प्रेमचंद की कहानी नेउर का वाचन, Narration of Premchand Story Neurhttp://sameergoswami.blogspot.in

  • प्रेमचंद की कहानी कानूनी कुमार का वाचन, Narration of Premchand Story Kanooni Kumar
    26 min 9 sec

    प्रेमचंद की कहानी कानूनी कुमार Premchand Story Kanooni Kumar http://sameergoswami.blogspot.in

  • प्रेमचंद की कहानी "नया विवाह" Premchand Story "Naya Vivaah"
    32 min 7 sec

    प्रेमचंद की कहानी नया विवाह Premchand Story Naya Vivaah http://sameergoswami.blogspot.in

  • प्रेमचंद की कहानी "शूद्रा" Premchand Story "Shudra"
    46 min 16 sec

    मां और बेटी एक झोंपड़ी में गांव के उसे सिरे पर रहती थीं। बेटी बाग से पत्तियां बटोर लाती, मां भाड़झोंकती। यही उनकी जीविका थी। सेरदो सेर अनाज मिल जाता था, खाकर पड़ रहती थीं। माता विधवा था, बेटी क्वांरी, घर में और कोई आदमी न था। मां का नाम गंगा था, बेटी का गौरा गंगा को कई साल से यह चिन्ता लगी हुई थी कि कहीं गौरा की सगाई हो जाय, लेकिन कहीं बात पक्की न होती थी। अपने पति के मर जाने के बाद गंगा ने कोई दूसरा घर न किया था, न कोई दूसरा धन्धा ही करती थी। इससे लोगों को संदेह हो गया था कि आखिर इसका गुजर कैसे होता है और लोग तो छाती फाड़फाड़कर काम करते हैं, फिर भी पेटभर अन्न मयस्सर नहीं होता। यह स्त्री कोई धंधा नहीं करती, फिर भी मांबेटी आराम से रहती हैं, किसी के सामने हाथ नहीं फैलातीं। इसमें कुछनकुछ रहस्य अवश्य है। धीरेधीरे यह संदेह और भी द़ृढ़ हो गया और अब तक जीवित था। बिरादरी में कोई गौरा से सगाई करने पर राजी न होता था। शूद्रों की बिरादरी बहुत छोटी होती है। दसपांच कोस से अधिक उसका क्षेत्र नहीं होता, इसीलिए एक दूसरे के गुणदोष किसी से छिपे नहीं रहते, उन पर परदा ही डाला जा सकता है। इस भ्रांति को शान्त करने के लिए मां ने बेटी के साथ कई तीर्थयात्राएं कीं। उड़ीसा तक हो आयी, लेकिन संदेह न मिटा। गौरा युवती थी, सुन्दरी थी, पर उसे किसी ने कुएं पर या खेतों में हंसतेबोलते नहीं देखा। उसकी निगाह कभी ऊपर उठती ही न थी। लेकिन ये बातें भी संदेह को और पुष्ट करती थीं। अवश्य कोई न कोई रहस्य है। कोई युवती इतनी सती नहीं हो सकती। कुछ गुपचुप की बात अवश्य है। यों ही दिन गुजरते जाते थे। बुढ़िया दिनों दिन चिन्ता से घुल रही थी। उधर सुन्दरी की मुखछवि दिनोंदिन निहरती जाती थी। कली खिल कर फूल हो रही थी।

  • 1: प्रेमचंद की कहानी "विश्वास" Premchand Story "Vishwas"
    37 min 21 sec

    प्रेमचंद की कहानी विश्वास Premchand Story Vishwas http://sameergoswami.blogspot.in

  • 2: प्रेमचंद की कहानी "नरक का मार्ग" Premchand Story "Narak Ka Maarg"
    19 min 13 sec

  • 3: प्रेमचंद की कहानी "स्त्री और पुरुष" Premchand Story "Stree Aur Purush"
    14 min 57 sec

    प्रेमचंद की कहानी स्त्री और पुरुष Premchand Story Stri Aur Purush http://sameergoswami.blogspot.in

  • 4: प्रेमचंद की कहानी "उद्धार" Premchand Story "Uddhaar"
    20 min 1 sec

    प्रेमचंद की कहानी उद्धार Premchand Story Uddhar http://sameergoswami.blogspot.in

  • 5: प्रेमचंद की कहानी "नैराश्य लीला" Premchand Story "Nairashya Leela"
    28 min 35 sec

    प्रेमचंद की कहानी नैराश्य लीला Premchand Story Nairashya Leela http://sameergoswami.blogspot.in

  • 6: प्रेमचंद की कहानी "कौशल" Premchand Story "Kaushal"
    9 min 24 sec

    प्रेमचंद की कहानी कौशल Premchand Story Kaushal

  • 7: प्रेमचंद की कहानी "निर्वासन" Premchand Story "Nirwasan"
    13 min 29 sec

    प्रेमचंद की कहानी निर्वासन Premchand Story Nirwasan

  • 8: प्रेमचंद की कहानी "स्वर्ग की देवी" Premchand Story "Swarg Ki Devi"
    21 min 43 sec

    प्रेमचंद की कहानी स्वर्ग की देवी Premchand Story Swarg Ki Devi

  • 9: प्रेमचंद की कहानी "आधार" Premchand Story "Aadhaar"
    15 min 16 sec

  • 10: प्रेमचंद की कहानी "एक आँच की कसर" Premchand Story "Ek Aanch Ki Kasar"
    12 min 46 sec

    प्रेमचंद की कहानी एक आँच की कसर Premchand Story Ek Aanch Ki Kasar

  • 11: प्रेमचंद की कहानी "परीक्षा" Premchand Story "Pareeksha"
    9 min 11 sec

    प्रेमचंद की कहानी परीक्षा Premchand Story Pareeksha

  • 12: प्रेमचंद की कहानी "माता का हृदय" Premchand Story "Mata Ka Hriday"
    21 min 36 sec

    प्रेमचंद की कहानी माता का हृदय Premchand Story Mata Ka Hriday

  • 13: प्रेमचंद की कहानी "तेंतर" Premchand Story "Tentar"
    19 min 31 sec

    प्रेमचंद की कहानी तेंतर Premchand Story Tentar

  • 14: प्रेमचंद की कहानी "नैराश्य" Premchand Story "Nairashya"
    24 min 27 sec

    प्रेमचंद की कहानी नैराश्य Premchand Story Nairashya

  • 15: प्रेमचंद की कहानी "धिक्कार मानसरोवर ३" Premchand Story "Dhikkar of Mansarovar 3"
    19 min

    प्रेमचंद की कहानी धिक्कार मानसरोवर ३ Premchand Story Dhikkar of Mansarovar 3

  • 16: प्रेमचंद की कहानी "मुक्तिधन" Premchand Story "Muktidhan"
    25 min 58 sec

    प्रेमचंद की कहानी मुक्तिधन Premchand Story Muktidhan

  • 17: प्रेमचंद की कहानी "दीक्षा" Premchand Story "Deeksha"
    36 min 44 sec

    प्रेमचंद की कहानी दीक्षा Premchand Story Deeksha

  • 18: प्रेमचंद की कहानी "क्षमा" Premchand Story "Kshama"
    20 min 1 sec

    मुसलमानों को स्पेनदेश पर राज्य करते कई शताब्दियाँ बीत चुकी थीं। कलीसाओं की जगह मसजिदें बनती जाती थीं, घंटों की जगह अजान की आवाजें सुनाई देती थीं। ग़रनाता और अलहमरा में वे समय की नश्वर गति पर हँसनेवाले प्रासाद बन चुके थे, जिनके खंडहर अब तक देखनेवालों को अपने पूर्व ऐश्वर्य की झलक दिखाते हैं। ईसाइयों के गण्यमान्य स्त्री और पुरुष मसीह की शरण छोड़कर इस्लामी भ्रातृत्व में सम्मिलित होते जाते थे, और आज तक इतिहासकारों को यह आश्चर्य है कि ईसाइयों का निशान वहाँ क्योंकर बाकी रहा जो ईसाईनेता अब तक मुसलमानों के सामने सिर न झुकाते थे, और अपने देश में स्वराज्य स्थापित करने का स्वप्न देख रहे थे उनमें एक सौदागर दाऊद भी था। दाऊद विद्वान और साहसी था। वह अपने इलाके में इस्लाम को कदम न जमाने देता था। दीन और निर्धन ईसाई विद्रोही देश के अन्य प्रांतों से आकर उसके शरणागत होते थे और वह बड़ी उदारता से उनका पालनपोषण करता था। मुसलमान दाऊद से सशंक रहते थे। वे धर्मबल से उस पर विजय न पाकर उसे अस्‍त्रबल से परास्त करना चाहते थे पर दाऊद कभी उनका सामना न करता। हाँ, जहाँ कहीं ईसाइयों के मुसलमान होने की खबर पाता, हवा की तरह पहुँच जाता और तर्क या विनय से उन्हें अपने धर्म पर अचल रहने की प्रेरणा देता। अंत में मुसलमानों ने चारों तरफ से घेर कर उसे गिरफ्तार करने की तैयारी की। सेनाओं ने उसके इलाके को घेर लिया। दाऊद को प्राणरक्षा के लिए अपने सम्बन्धियों के साथ भागना पड़ा। वह घर से भागकर ग़रनाता में आया, जहाँ उन दिनों इस्लामी राजधानी थी। वहाँ सबसे अलग रहकर वह अच्छे दिनों की प्रतीक्षा में जीवन व्यतीत करने लगा। मुसलमानों के गुप्तचर उसका पता लगाने के लिए बहुत सिर मारते थे, उसे पकड़ लाने के लिए बड़ेबड़े इनामों की विज्ञप्ति निकाली जाती थी पर दाऊद की टोह न मिलती थी।

  • 19: प्रेमचंद की कहानी "मनुष्य का परम धर्म" Premchand Story "Manushya Ka Param Dharm"
    12 min 51 sec

    प्रेमचंद की कहानी मनुष्य का परम धर्म Premchand Story Manushya Ka Param Dharm

  • 20: प्रेमचंद की कहानी "गुरु मंत्र" Premchand Story "Guru Mantra"
    6 min 21 sec

    प्रेमचंद की कहानी गुरु मंत्र Premchand Story Guru Mantra

  • 21: प्रेमचंद की कहानी "सौभाग्य के कोड़े" Premchand Story "Saubhagya Ke Kode"
    32 min 9 sec

    प्रेमचंद की कहानी सौभाग्य के कोड़े Premchand Story Saubhagya Ke Kode

  • 22: प्रेमचंद की कहानी "विचित्र होली" Premchand Story "Vichitra Holi"
    14 min 5 sec

    प्रेमचंद की कहानी विचित्र होली Premchand Story Vichitra Holi

  • 23: प्रेमचंद की कहानी "लैला", Premchand Story "Laila"
    39 min 11 sec

    प्रेमचंद की कहानी लैला, Premchand Story Laila

  • 24: प्रेमचंद की कहानी "मुक्ति मार्ग" Premchand Story "Mukti Marg"
    25 min 56 sec

    प्रेमचंद की कहानी मुक्ति मार्ग Premchand Story Mukti Marg

  • 25: प्रेमचंद की कहानी "डिक्री के रुपये" Premchand Story "Decree Ke Rupaye"
    35 min 14 sec

    प्रेमचंद की कहानी डिक्री के रुपये Premchand Story Decree Ke Rupaye

  • 26: प्रेमचंद की कहानी "शतरंज के खिलाड़ी" Premchand Story "Shatranj Ke Khilaadi"
    26 min 5 sec

    मीर साहब की बेगम किसी अज्ञात कारण से मीर साहब का घर से दूर रहना ही उपयुक्त समझती थीं। इसलिए वह उनके शतरंजप्रेम की कभी आलोचना न करती थीं बल्कि कभीकभी मीर साहब को देर हो जाती, तो याद दिला देती थीं। इन कारणों से मीर साहब को भ्रम हो गया था कि मेरी स्त्री अत्यन्त विनयशील और गंभीर है। लेकिन जब दीवानखाने में बिसात बिछने लगी, और मीर साहब दिनभर घर में रहने लगे, तो बेगम साहबा को बड़ा कष्ट होने लगा। उनकी स्वाधीनता में बाधा पड़ गयी। दिनभर दरवाज़े पर झाँकने को तरस जातीं।

  • 27: प्रेमचंद की कहानी "वज्रपात" Premchand Story "Vajrapaat"
    22 min 14 sec

    दिल्ली का ख़ज़ाना लुट रहा है। शाही महल पर पहरा है। कोई अंदर से बाहर या बाहर से अंदर आजा नहीं सकता। बेगमें भी अपने महलों से बाहर बाग़ में निकलने की हिम्मत नहीं कर सकतीं। महज ख़ज़ाने पर ही आफत नहीं आयी हुई है, सोनेचाँदी के बरतनों, बेशकीमत तसवीरों और आराइश की अन्य सामग्रियों पर भी हाथ साफ़ किया जा रहा है। नादिरशाह तख्त पर बैठा हुआ हीरे और जवाहरात के ढेरों को गौर से देख रहा है पर वह चीज़ नजर नहीं आती, जिसके लिए मुद्दत से उसका चित्त लालायित हो रहा था।

  • 28: प्रेमचंद की कहानी "सत्याग्रह" Premchand Story "Satyagrah"
    32 min 53 sec

    पंडितजी इस समय भूमि पर अचेत पड़े हुए थे। रात को कुछ नहीं मिला। दसपाँच छोटीछोटी मिठाइयों का क्या ज़िक्र दोपहर को कुछ नहीं मिला। और इस वक्त भी भोजन की बेला टल गयी थी। भूख में अब आशा की व्याकुलता नहीं निराशा की शिथिलता थी। सारे अंग ढीले पड़ गये थे। यहाँ तक कि आँखें भी न खुलती थीं। उन्हें खोलने की बारबार चेष्टाकरते पर वे आपहीआप बंद हो जातीं। ओंठ सूख गये थे। ज़िंदगी का कोई चिह्न था, तो बस, उनका धीरेधीरे कराहना। ऐसा संकट उनके ऊपर कभी न पड़ा था। अजीर्ण की शिकायत तो उन्हें महीने में दोचार बार हो जाती थी, जिसे वह हड़ आदि की फंकियों से शांत कर लिया करते थे पर अजीर्णावस्था में ऐसा कभी न हुआ था कि उन्होंने भोजन छोड़ दिया हो। नगरनिवासियों को, अमनसभा को, सरकार को, ईश्वर को, काँग्रेस को और धर्मपत्नी को जीभर कर कोस चुके थे। किसी से कोई आशा न थी। अब इतनी शक्ति भी न रही थी कि स्वयं खड़े होकर बाज़ार जा सकें। निश्चय हो गया था कि आज रात को अवश्य प्राणपखेरू उड़ जायँगे। जीवनसूत्र कोई रस्सी तो है नहीं कि चाहे जितने झटके दो, टूटने का नाम न ले

  • 29: प्रेमचंद की कहानी "बाबाजी का भोग" Premchand Story "Babaji Ka Bhog"
    4 min 57 sec

    स्त्री बरतन माँज रही थी, और इस घोर चिंता में मग्न थी कि आज भोजन क्या बनेगा, घर में अनाज का एक दाना भी न था। चैत का महीना था। किंतु यहाँ दोपहर ही को अंधकार छा गया था। उपज सारीकीसारी खलिहान से उठ गयी। आधी महाजन ने ले ली, आधी ज़मींदार के प्यादों ने वसूल की। भूसा बेचा तो बैल के व्यापारी से गला छूटा, बस थोड़ीसी गाँठ अपने हिस्से में आयी। उसी को पीटपीटकर एक मनभर दाना निकाला था। किसी तरह चैत का महीना पार हुआ। अब आगे क्या होगा। क्या बैल खायेंगे, क्या घर के प्राणी खायेंगे, यह ईश्वर ही जाने पर द्वार पर साधु आ गया है, उसे निराश कैसे लौटायें, अपने दिल में क्या कहेगा।

  • 30: प्रेमचंद की कहानी "भाड़े का टट्टू" Premchand Story "Bhaade Ka Tattoo"
    31 min

    रमेश दस बजे घर पहुँचे तो देखा, पुलिस ने उनका मकान घेर रखा है। इन्हें देखते ही एक अफसर ने वारंट दिखाया। तुरंत घर की तलाशी होने लगी। मालूम नहीं, क्योंकर रमेश के मेज की दराज में एक पिस्तौल निकल आया। फिर क्या था, हाथों में हथकड़ी पड़ गयी। अब किसे उनके डाके में शरीक होने से इनकार हो सकता था और भी कितने ही आदमियों पर आफत आयी। सभी प्रमुख नेता चुन लिये गये। मुकदमा चलने लगा।औरों की बात को ईश्वर जाने पर रमेश निरपराध था। इसका उसके पास ऐसा प्रबल प्रमाण था, जिसकी सत्यता से किसी को इनकार न हो सकता था। पर क्या वह इस प्रमाण का उपयोग कर सकता था

  • 31: प्रेमचंद की कहानी "विनोद" Premchand Story "Vinod"
    41 min 46 sec

    प्रेमीजन का धैर्य अपार होता है। निराशा पर निराशा होती है, पर धैर्य हाथ से नहीं छूटता। पंडितजी बेचारे विपुल धन व्यय करने के पश्चात् भी प्रेमिका से सम्भाषण का सौभाग्य न प्राप्त कर सके। प्रेमिका भी विचित्र थी, जो पत्रों में मिसरी की डली घोल देती, मगर प्रत्यक्ष दृष्टिपात भी न करती थी। बेचारे बहुत चाहते थे कि स्वयं ही अग्रसर हों, पर हिम्मत न पड़ती थी। विकट समस्या थी। किंतु इससे भी वह निराश न थे। हवनसंध्या तो छोड़ ही बैठे थे। नये फैशन के बाल कट ही चुके थे। अब बहुधा अँग्रेजी ही बोलते, यद्यपि वह अशुद्ध और भ्रष्ट होती थी। रात को अँग्रेजी मुहावरों की किताब लेकर पाठ की भाँति रटते। नीचे के दरजों में बेचारे ने इतने श्रम से कभी पाठ न याद किया था। उन्हीं रटे हुए मुहावरों को मौकेबेमौके काम में लाते। दोचार लूसी के सामने भी अँग्रेजी बघारने लगे, जिससे उनकी योग्यता का परदा और भी खुल गया

  • 32: प्रेमचंद की कहानी "दंड" Premchand Story "Dand"
    29 min 50 sec

    प्रेमचंद की कहानी दंड Premchand Story Dand

  • 2: प्रेमचंद की कहानी "सद्गति" Premchand Story "Sadgati"
    19 min 11 sec

    दुखी अपने होश में न था। नजाने कौनसी गुप्तशक्ति उसके हाथों को चला रही थी। वह थकान, भूख, कमज़ोरी सब मानो भाग गई। उसे अपने बाहुबल पर स्वयं आश्चर्य हो रहा था। एकएक चोट वज्र की तरह पड़ती थी। आधा घण्टे तक वह इसी उन्माद की दशा में हाथ चलाता रहा, यहाँ तक कि लकड़ी बीच से फट गई और दुखी के हाथ से कुल्हाड़ी छूटकर गिर पड़ी। इसके साथ वह भी चक्कर खाकर गिर पड़ा। भूखा, प्यासा, थका हुआ शरीर जवाब दे गया।

  • 3: प्रेमचंद की कहानी "तगादा" Premchand Story "Tagaadaa"
    19 min 41 sec

    सेठजी की बधिया बैठ गई। इतनी बड़ी रकम उन्होंने उम्र भर इस मद में नहीं खर्च की थी। इतनीसी दूर के लिए इतना किराया, वह किसी तरह न दे सकते थे। मनुष्य के जीवन में एक ऐसा अवसर भी आता है, जब परिणाम की उसे चिन्ता नहीं रहती। सेठजी के जीवन में यह ऐसा ही अवसर था। अगर आनेदोआने की बात होती, तो ख़ून का घूँट पीकर दे देते, लेकिन आठ आने के लिए कि जिसका द्विगुण एक कलदार होता है, अगर तूतू मैंमैं ही नहीं हाथापाई की भी नौबत आये, तो वह करने को तैयार थे। यह निश्चय करके वह दृढ़ता के साथ बैठे रहे। सहसा सड़क के किनारे एक झोंपड़ा नजर आया।

  • 4: प्रेमचंद की कहानी "दो क़ब्रें" Premchand Story "Do Qabren"
    35 min 53 sec

    रामेन्द्र पर मानो लकवासा गिर गया। सिर झुक गया और चेहरे पर कालिमासी पुत गई। न मुँह से बोले, न किसी को बैठने का इशारा किया, न वहाँ से हिले। बस मूर्तिवत् खड़े रह गये। एक बाज़ारी औरत से नातापैदा करने का ख्याल इतना लज्जास्पद था, इतना जघन्य कि उसके सामने सज्जनता भी मौन रह गई। इतना शिष्टाचार भी न कर सके कि सबों को कमरे में ले जाकर बिठा तो देते। आज पहली ही बार उन्हें अपने अध:पतन का अनुभव हुआ। मित्रों की कुटिलता और महिलाओं की उपेक्षा को वह उनका अन्याय समझते थे, अपना अपमान नहीं, लेकिन यह बधावा उनकी अबाध उदारता के लिए भी भारी था। सुलोचना का जिस वातावरण में पालनपोषण हुआ था, वह एक प्रतिष्ठित हिन्दू कुल का वातावरण था। यह सच है कि अब भी सुलोचना नित्य जुहरा के मजार की परिक्रमा करने जाती थी मगर जुहरा अब एक पवित्र स्मृति थी, दुनिया की मलिनताओं और कलुषताओं से रहित। गुलनार से नातेदारी और परस्पर का निबाह दूसरी बात थी।

  • 5: प्रेमचंद की कहानी "ढपोरसंख" Premchand Story "Dhaporsankh"
    45 min 54 sec

    मेरी श्रृद्धा और बढ़ गई। यह व्यक्ति अब मेरे लिए केवल ड्रामा का चरित्र न था, जिसके सुख से सुखी और दु:ख से दुखी होने पर भी हम दर्शक ही रहते हैं। वह अब मेरे इतने निकट पहुँच गया था, कि उस पर आघात होते देखकर मैं उसकी रक्षा करने को तैयार था, उसे डूबते देखकर पानी में कूदने से भी न हिचकता। मैं बड़ी उत्कंठा से उसके बंबई से आने वाले पत्र का इंतज़ार करने लगा। छठवें दिन पत्र आया। वह बंबई में काम खोज रहा था, लिखा था घबड़ाने की कोई बात नहीं है, मैं सबकुछ झेलने को तैयार हूँ। फिर दोदो, चारचार दिन के अन्तर से कई पत्र आये। वह वीरों की भाँति कठिनाइयों के सामने कमर कसे खड़ा था, हालाँकि तीन दिन से उसे भोजन न मिला था।

  • 6: प्रेमचंद की कहानी "डिमॉन्सट्रेशन" Premchand Story "Demonstration"
    21 min 28 sec

    सब लोग पाँवपाँव चलें। वहाँ पहुँचकर किस तरह बातें शुरू होंगी, किस तरह तारीफों के पुल बाँधो जाएंगे, किस तरह ड्रामेटिस्ट साहब को खुश किया जायगा, इस पर बहस होती जाती थी। हम लोग कम्पनी के कैंप में कोई दो बजे पहुँचे। वहाँ मालिक साहब, उनके ऐक्टर, नाटककार सब पहले ही से हमारा इन्तजार कर रहे थे। पान, इलायची, सिगरेट मँगा लिए थे।

  • 7: प्रेमचंद की कहानी "दरोगाजी" Premchand Story "Darogaji"
    17 min 22 sec

    एक मियाँ साहब लम्बी अचकन पहने, तुर्की टोपी लगाये, तांगे के सामने से निकले। दारोगाजी ने उन्हें देखते ही झुककर सलाम किया और शायद मिज़ाज शरीफ़ पूछना चाहते थे कि उस भले आदमी ने सलाम का जवाब गालियों से देना शुरू किया। जब तांगा कई क़दम आगे निकल आया, तो वह एक पत्थर लेकर तांगे के पीछे दौड़ा। तांगेवाले ने घोड़े को तेज किया। उस भलेमानुस ने भी क़दम तेज किये और पत्थर फेंका। मेरा सिर बालबाल बच गया। उसने दूसरा पत्थर उठाया, वह हमारे सामने आकर गिरा। तीसरा पत्थर इतनी ज़ोर से आया कि दारोगाजी के घुटने में बड़ी चोट आयी पर इतनी देर में तांगा इतनी दूर निकल आया था कि हम पत्थरों की मार से दूर हो गये थे। हाँ, गालियों की मार अभी तक जारी थी। जब तक वह आदमी आँखों से ओझल न हो गया, हम उसे एक हाथ में पत्थर उठाये, गालियाँ बकते हुए देखते रहे

  • 8: प्रेमचंद की कहानी "अभिलाषा" Premchand Story "Abhilasha"
    16 min 19 sec

    हाथ में लेते ही मेरी एकएक नस में बिजली दौड़ गई। हृदय के सारे तार कंपित हो गये। वह सूखी हुई पंखड़ियाँ, जो अब पीले रंग की हो गई थीं बोलती हुई मालूम होती थीं। उसके सूखे, मुरझाये हुए मुखों के अस्फुटित, कंपित, अनुराग में डूबे शब्द सायँसायँ करके निकलते हुए जान पड़ते थे किंतु वह रत्नजटित, कांति से दमकता हुआ हार स्वर्ण और पत्थरों का एक समूह था, जिसमें प्राण न थे, संज्ञा न थी, मर्म न था। मैंने फिर गुलदस्ते को चूमा, कंठ से लगाया, आर्द्र नेत्रों से सींचा और फिर संदूक में रख आई। आभूषणों से भरा हुआ संदूक भी उस एक स्मृतिचिह्न के सामने तुच्छ था। यह क्या रहस्य था

  • 9: प्रेमचंद की कहानी "खुचड़" Premchand Story "Khuchad"
    20 min 40 sec

    एक दिन देहात से भैंस का ताजा घी आया। इधर महीनों से बाज़ार का घी खातेखाते नाक में दम हो रहा था। रामेश्वरी ने उसे खौलाया, उसमें लौंग डाली और कड़ाह से निकालकर एक मटकी में रख दिया। उसकी सोंधीसोंधी सुगंध से सारा घर महक रहा था। महरी चौकाबर्तन करने आई तो उसने चाहा कि मटकी चौके से उठाकर छींके या आले पर रख दे। पर संयोग की बात, उसने मटकी उठाई, तो वह उसके हाथ से छूटकर गिर पड़ी। सारा घी बह गया। धमाका सुनकर रामेश्वरी दौड़ी, तो महरी खड़ी रो रही थी और मटकी चूरचूर हो गई थी।

  • 10: प्रेमचंद की कहानी "आगा पीछा" Premchand Story "Aaga Peechha"
    43 min 17 sec

    सोलह वर्ष बीत गये। पहले की भोलीभाली श्रृद्धा अब एक सगर्व, शांत, लज्जाशील नवयौवना थी, जिसे देखकर आँखें तृप्त हो जाती थीं। विद्या की उपासिका थी, पर सारे संसार से विमुख। जिनके साथ वह पढ़ती थी वे उससे बात भी न करना चाहती थीं। मातृस्नेह के वायुमंडल में पड़कर वह घोर अभिमानिनी हो गई थी। वात्सल्य के वायुमंडल, सखीसहेलियों के परित्याग, रातदिन की घोर पढ़ाई और पुस्तकों के एकांतवास से अगर श्रृद्धा को अहंभाव हो आया, तो आश्चर्य की कौनसी बात है उसे किसी से भी बोलने का अधिकार न था। विद्यालय में भले घर की लड़कियाँ उसके सहवास में अपना अपमान समझती थीं। रास्ते में लोग उँगली उठाकर कहते क़ोकिला रंडी की लड़की है। उसका सिर झुक जाता, कपोल क्षण भर के लिए लाल होकर दूसरे ही क्षण फिर चूने की तरह सफेद हो जाते। श्रृद्धा को एकांत से प्रेम था। विवाह को ईश्वरीय कोप समझती थी। यदि कोकिला ने कभी उसकी बात चला दी, तो उसके माथे पर बल पड़ जाते, चमकते हुए लाल चेहरे पर कालिमा छा जाती, आँखों से झरझर आँसू बहने लगते कोकिला चुप हो जाती। दोनों के जीवनआदर्शों में विरोध था। कोकिला समाज के देवता की पुजारिन, श्रृद्धा को समाज से, ईश्वर से और मनुष्य से घृणा। यदि संसार में उसे कोई वस्तु प्यारी थी, तो वह थी उसकी पुस्तकें। श्रृद्धा उन्हीं विद्वानों के संसर्ग में अपना जीवन व्यतीत करती, जहाँ ऊँचनीच का भेद नहीं, जातिपाँति का स्थान नहीं सबके अधिकार समान हैं।

  • 11: प्रेमचंद की कहानी "प्रेम का उदय" Premchand Story "Prem Ka Uday"
    24 min 54 sec

    दारोगाजी को अब विश्वास आया कि इस फ़ौलाद को झुकाना मुश्किल है। भोंदू की मुखाकृति से शहीदों कासा आत्मसमर्पण झलक रहा था। यद्यपि उनके हुक्म की तामील होने लगी, कांस्टेबलों ने भोंदू को एक कोठरी में बंद कर दिया, दो आदमी मिर्चे लाने दौड़े, लेकिन दारोगा की युद्धनीति बदलगयी थी। बंटी का हृदय क्षोभ से फटा जाता था। वह जानती थी, चोरी करके एकबाल कर लेना कंजड़ जाति की नीति में महान् लज्जा की बात है लेकिन क्या यह सचमुच मिर्च की धूनी सुलगा देंगे इतना कठोर है इनका हृदय सालन बघारने में कभी मिर्च जल जाती है, तो छींकों और खाँसियों के मारे दम निकलने लगता है। जब नाक के पास धूनी सुलगाई जायगी तब तो प्राण ही निकल जायँगे।

  • 12: प्रेमचंद की कहानी "सती" मानसरोवर ४ Premchand Story "Sati" Mansarovar 4
    18 min 3 sec

    रोग इतनी भयंकरता से बढ़ने लगा कि आवलों में मवाद पड़ गया और उनमें से ऐसी दुर्गन्ध उड़ने लगी कि पास बैठते नाक फटती थी। देहात में जिस प्रकार का उपचार हो सकता था, वह मुलिया करती थी पर कोई लाभ न होता था और कल्लू की दशा दिनदिन बिगड़ती जाती थी। उपचार की कसर वह अबला अपनी स्नेहमय सेवा से पूरी करती थी। उस पर गृहस्थी चलाने के लिए अब मेहनतमजूरी भी करनी पड़ती थी। कल्लू तो अपने किये का फल भोग रहा था। मुलिया अपने कर्तव्य का पालन करने में मरी जा रही थी। अगर कुछ सन्तोष था, तो यह कल्लू का भ्रम उसकी इस तपस्या से भंग होता जाता था। उसे अब विश्वास होने लगा था कि मुलिया अब भी उसी की है। वह अगर किसी तरह अच्छा हो जाता, तो फिर उसे दिल में छिपाकर रखता और उसकी पूजा करता।

  • 13: प्रेमचंद की कहानी "मृतक भोज" Premchand Story "Mritak Bhoj"
    40 min 21 sec

    तीसरे दिन सेठ रामनाथ का देहान्त हो गया। धनी के जीने से दु:ख बहुतों को होता है, सुख थोड़ों को। उनके मरने से दु:ख थोड़ों को होता है, सुख बहुतों को। महाब्राह्मणों की मण्डली अलग सुखी है, पण्डितजी अलग खुश हैं, और शायद बिरादरी के लोग भी प्रसन्न हैं इसलिए कि एक बराबर का आदमी कम हुआ। दिल से एक काँटा दूर हुआ। और पट्टीदारों का तो पूछना ही क्या। अब वह पुरानी कसर निकालेंगे। हृदय को शीतल करने का ऐसा अवसर बहुत दिनों के बाद मिला है। आज पाँचवाँ दिन है। वह विशाल भवन सूना पड़ा है। लड़के न रोते हैं, न हँसते हैं। मन मारे माँ के पास बैठे हैं और विधवा भविष्य की अपार चिन्ताओं के भार से दबी हुई निर्जीवसी पड़ी है। घर में जो रुपये बच रहे थे, वे दाहक्रिया की भेंट हो गये और अभी सारे संस्कार बाकी पड़े हैं। भगवान्, कैसे बेड़ा पार लगेगा।

  • 14: प्रेमचंद की कहानी "भूत" Premchand Story "Bhoot"
    27 min 55 sec

    एक दिन चौबेजी ने बिन्नी को मंगला के सब गहने दे दिये। मंगला का यह अंतिम आदेश था। बिन्नी फूली न समायी। उसने उस दिन खूब बनावसिंगार किया। जब संध्या के समय पंडितजी कचहरी से आये, तो वहगहनों से लदी हुई उनके सामने कुछ लजाती और मुस्कराती हुई आकर खड़ी हो गयी।पंडितजी ने सतृष्ण नेत्रों से देखा। विंध्येश्वरी के प्रति अब उनके मन में एक नया भाव अंकुरित हो रहा था। मंगला जब तक जीवित थी, वह उनसे पितापुत्री के भाव को सजग और पुष्ट कराती रहती थी। अब मंगला नथी। अतएव वह भाव दिनदिन शिथिल होता जाता था। मंगला के सामने बिन्नी एक बालिका थी। मंगला की अनुपस्थिति में वह एक रूपवती युवती थी। लेकिन सरलहृदया बिन्नी को इसकी रत्तीभर भी खबर न थी कि भैया के भावों में क्या परिवर्तन हो रहा है। उसके लिए वह वही पिता के तुल्य भैया थे। वह पुरुषों के स्वभाव से अनभिज्ञ थी। नारीचरित्र में अवस्था के साथ मातृत्व का भाव दृढ़ होता जाता है। यहाँ तक कि एक समय ऐसा आता है, जब नारी की दृष्टि में युवक मात्र पुत्र तुल्य हो जाते हैं। उसके मन में विषयवासना का लेश भी नहीं रह जाता। किन्तु पुरुषों में यह अवस्था कभी नहीं आती उनकी कामेन्द्रियाँ क्रियाहीन भले ही हो जायँ, पर विषयवासना संभवत: और भी बलवती हो जाती है। पुरुष वासनाओं से कभी मुक्त नहीं हो पाता, बल्कि ज्योंज्यों अवस्था ढलती है त्योंत्यों ग्रीष्मऋतु के अंतिम काल की भाँति उसकी वासना की गरमी भी प्रचंड होती जाती है। वह तृप्ति के लिए नीच साधनों का सहारा लेने को भी प्रस्तुत हो जाता है। जवानी में मनुष्यइतना नहीं गिरता। उसके चरित्र में गर्व की मात्र अधिक रहती है, जो नीच साधनों से घृणा करता है। वह किसी के घर में घुसने के लिए जबरदस्ती कर सकता है, किन्तु परनाले के रास्ते नहीं जा सकता। पंडितजी ने बिन्नी को सतृष्ण नेत्रों से देखा और फिर अपनी इस उच्छृंखलता पर लज्जित होकर आँखें नीची कर लीं बिन्नी इसका कुछ मतलब न समझ सकी।

  • 15: प्रेमचंद की कहानी "सभ्यता का रहस्य" Premchand Story "Sabhyata Ka Rahasya"
    15 min 6 sec

    यह एक रात को गैरहाज़िर होने की सज़ा थी बेचारा दिनभर का काम कर चुका था, रात को यहाँ सोया न था, उसका दण्ड और घर बैठे भत्ते उड़ानेवाले को कोई नहीं पूछता कोई दंड नहीं देता। दंड तो मिले और ऐसा मिले कि ज़िंदगीभर याद रहे पर पकड़ना तो मुश्किल है। दमड़ी भी अगर होशियार होता, तो जरा रात रहे आकर कोठरी में सो जाता। फिर किसे खबर होती कि वह रात को कहाँ रहा। पर गरीब इतना चंट न था।दमड़ी के पास कुल छ: बिस्वे ज़मीन थी। पर इतने ही प्राणियों का खर्च भी था। उसके दो लड़के, दो लड़कियाँ और स्त्री, सब खेती में लगे रहते थे, फिर भी पेट की रोटियाँ नहीं मयस्सर होती थीं। इतनी ज़मीन क्या सोना उगल देती अगर सबकेसब घर से निकल मज़दूरी करने लगते, तो आराम से रह सकते थे लेकिन मौरूसी किसान मज़दूर कहलाने का अपमान न सह सकता था। इस बदनामी से बचने के लिए दो बैल बाँध रखे थे उसके वेतन का बड़ा भाग बैलों के दानेचारे ही में उड़ जाता था। ये सारी तकलीफें मंजूर थीं, पर खेती छोड़कर मज़दूर बन जाना मंजूर न था। किसान की जो प्रतिष्ठा है, वह कहीं मज़दूर की हो सकती है, चाहे वह रुपया रोज ही क्यों न कमाये किसानी के साथ मज़दूरी करना इतने अपमान की बात नहीं, द्वार पर बँधे हुए बैल हुए बैल उसकी मानरक्षा किया करते हैं, पर बैलों को बेचकर फिर कहाँ मुँह दिखलाने की जगह रह सकती है

  • 16: प्रेमचंद की कहानी "समस्या" Premchand Story "Samasya"
    13 min 3 sec

    एक दिन बड़े बाबू ने गरीब से अपनी मेज साफ़ करने को कहा। वह तुरन्त मेज साफ़ करने लगा। दैवयोग से झाड़न का झटका लगा, तो दावात उलट गयी और रोशनाई मेज पर फैल गयी। बड़े बाबू यह देखते ही जामे से बाहर हो गये। उसके कान पकड़कर खूब ऐंठे और भारतवर्ष की सभी प्रचलित भाषाओं से दुर्वचन चुनचुनकर उसे सुनाने लगे। बेचारा गरीब आँखों में आँसू भरे चुपचाप मूर्तिवत् खड़ा सुनता था, मानो उसने कोई हत्या कर डाली हो। मुझे बाबू का जरासी बात पर इतना भयंकर रौद्र रूप धारण करना बुरा मालूम हुआ। यदि किसी दूसरे चपरासी ने इससे भी बड़ा कोई अपराध किया होता, तो भी उस पर इतना वज्रप्रहार न होता। मैंने अंग्रेजी में कहा—बाबू साहब, आप यह अन्याय कर रहे हैं। उसने जानबूझकर तो रोशनाई गिराया नहीं। इसका इतना कड़ा दण्ड अनौचित्य की पराकाष्ठा है।बाबूजी ने नम्रता से कहा—आप इसे जानते नहीं, बड़ा दुष्ट है।‘मैं तो उसकी कोई दुष्टता नहीं देखता।’‘आप अभी उसे जानते नहीं, एक ही पाजी है। इसके घर दो हलों की खेती होती है, हजारों का लेनदेन करता है कई भैंसे लगती हैं। इन्हीं बातों का इसे घमण्ड है।’‘घर की ऐसी दशा होती, तो आपके यहाँ चपरासगिरी क्यों करता’‘विश्वास मानिए, बड़ा पोढ़ा आदमी है और बला का मक्खीचूस।’‘यदि ऐसा ही हो, तो भी कोई अपराध नहीं है।’‘अजी, अभी आप इन बातों को नहीं जानते। कुछ दिन और रहिए तो आपको स्वयं मालूम हो जाएगा कि यह कितना कमीना आदमी है’एक दूसरे महाशय बोल उठे—भाई साहब, इसके घर मनों दूधदही होता है, मनों मटर, जुवार, चने होते हैं, लेकिन इसकी कभी इतनी हिम्मत न हुई कि कभी थोड़ासा दफ़्तरवालों को भी दे दो। यहाँ इन चीजों को तरसकर रह जाते हैं। तो फिर क्यों न जी जले और यह सब कुछ इसी नौकरी के बदौलत हुआ है। नहीं तो पहले इसके घर में भूनी भाँग न थी।बड़े बाबू कुछ सकुचाकर बोले—यह कोई बात नहीं। उसकी चीज़ है, किसी को दे या न दे लेकिन यह बिल्कुल पशु है।मैं कुछकुछ मर्म समझ गया। बोला—यदि ऐसे तुच्छ हृदय का आदमी है, तो वास्तव में पशु ही है। मैं यह न जानता था।अब बड़े बाबू भी खुले। संकोच दूर हुआ। बोले—इन सौगातों से किसी का उबार तो होता नहीं, केवल देने वाले की सहृदयता प्रकट होती है। और आशा भी उसी से की जाती है, जो इस योग्य होता है। जिसमें सामर्थ्य ही नहीं, उससे कोई आशा नहीं करता। नंगे से कोई क्या लेगा रहस्य खुल गया। बड़े बाबू ने सरल भाव से सारी अवस्था दरशा दी थी। समृद्धि के शत्रु सब होते हैं, छोटे ही नहीं, बड़े भी। हमारी ससुराल या ननिहाल दरिद्र हो, तो हम उससे आशा नहीं रखते कदाचित् वह हमें विस्मृत हो जाती है। किन्तु वे सामर्थ्यवान् होकर हमें न पूछें, हमारे यहाँ तीज और चौथ न भेजें, तो हमारे कलेजे पर साँप लोटने लगता है। हम अपने निर्धन मित्र के पास जायँ, तो उसके एक बीड़े पान से ही संतुष्ट हो जाते हैं पर ऐसा कौन मनुष्य है, जो अपने किसी धनी मित्र के घर से बिना जलपान के लौटाकर उसे मन में कोसने न लगे और सदा के लिए उसका तिरस्कार न करने लगे। सुदामा कृष्ण के घर से यदि निराश लौटते तो, कदाचित् वह उनके शिशुपाल और जरासंध से भी बड़े शत्रु होते। यह मानवस्वभाव है।

  • 17: प्रेमचंद की कहानी "दो सखियाँ" Premchand Story "Do Sakhiyan"
    2 hr 12 min 39 sec

    गोरखपुर1925प्यारी पद्मा,तुम्हारा पत्र पढ़कर चित्त को बड़ी शांति मिली। तुम्हारे न आने ही से मैं समझ गई थी कि विनोद बाबू तुम्हें हर ले गए, मगर यह न समझी थी कि तुम मंसूरी पहुँच गयी। अब उस आमोदप्रमोद में भला गरीब चन्दा क्यों याद आने लगी। अब मेरी समझ में आ रहा है कि विवाह के लिए नए और पुराने आदर्श में क्या अन्तर है। तुमने अपनी पसन्द से काम लिया, सुखी हो। मैं लोकलाज की दासी बनी रही, नसीबों को रो रही हूँ।अच्छा, अब मेरी बीती सुनो। दानदहेज के टंटे से तो मुझे कुछ मतलब है नहीं। पिताजी ने बड़ा ही उदारहृदय पाया है। खूब दिल खोलकर दिया होगा। मगर द्वार पर बारात आते ही मेरी अग्निपरीक्षा शुरू हो गयी। कितनी उत्कण्ठा थी—वहदर्शन की, पर देखूँ कैसे। कुल की नाक न कट जाएगी। द्वार पर बारात आयी। सारा जमाना वर को घेरे हुए था। मैंने सोचा—छत पर से देखूँ। छत पर गयी, पर वहाँ से भी कुछ न दिखाई दिया। हाँ, इस अपराध के लिए अम्माँजी की घुड़कियाँ सुननी पड़ीं। मेरी जो बात इन लोगों को अच्छी नहीं लगती, उसका दोष मेरी शिक्षा के माथे मढ़ा जाता है। पिताजी बेचारे मेरे साथ बड़ी सहानुभूति रखते हैं। मगर किसकिस का मुँह पकड़ें। द्वारचार तो यों गुजरा और भाँवरों की तैयारियाँ होने लगी। जनवासे से गहनों और कपड़ों का थाल आया। बहन सारा घर—स्त्रीपुरुष—सब उस पर कुछ इस तरह टूटे, मानो इन लोगों ने कभी कुछ देखा ही नहीं। कोई कहता है, कंठा तो लाये ही नहीं कोई हार के नाम को रोता है अम्माँजी तो सचमुच रोने लगी, मानो मैं डुबा दी गयी। वरपक्षवालों की दिल खोलकर निंदा होने लगी। मगर मैंने गहनों की तरफ आँख उठाकर भी नहीं देखा। हाँ, जब कोई वर के विषय में कोई बात करता था, तो मैं तन्मय होकर सुनने लगती था। मालूम हुआ—दुबलेपतले आदमी हैं। रंग साँवला है, आँखें बड़ीबड़ी हैं, हँसमुख हैं। इन सूचनाओं से दशर्नोत्कंठा और भी प्रबल होती थी। भाँवरों का मुहूर्त ज्योंज्यों समीप आता था, मेरा चित्त व्यग्र होता जाता था। अब तक यद्यपि मैंने उनकी झलक भी न देखी थी, पर मुझे उनके प्रति एक अभूतपूर्व प्रेम का अनुभव हो रहा था। इस वक्त यदि मुझे मालूम हो जाता कि उनके दुश्मनों को कुछ हो गया है, तो मैं बावली हो जाती। अभी तक मेरा उनसे साक्षात् नहीं हुआ हैं, मैंने उनकी बोली तक नहीं सुनी है, लेकिन संसार का सबसे रूपवान् पुरुष भी, मेरे चित्त को आकर्षित नहीं कर सकता। अब वही मेरे सर्वस्व हैं।आधी रात के बाद भाँवरें हुईं। सामने हवनकुण्ड था, दोनों ओर विप्रगण बैठे हुए थे, दीपक जल रहा था, कुल देवता की मूर्ति रखी हुई थीं। वेद मंत्र का पाठ हो रहा था। उस समय मुझे ऐसा मालूम हुआ कि सचमुच देवता विराजमान हैं। अग्नि, वायु, दीपक, नक्षत्र सभी मुझे उस समय देवत्व की ज्योति से प्रदीप्त जान पड़ते थे। मुझे पहली बार आध्यात्मिक विकास का परिचय मिला। मैंने जब अग्नि के सामने मस्तक झुकाया, तो यह कोरी रस्म की पाबंदी न थी, मैं अग्निदेव को अपने सम्मुख मूर्तिवान्, स्वर्गीय आभा से तेजोमय देख रही थी। आखिर भाँवरें भी समाप्त हो गई पर पतिदेव के दर्शन न हुए।अब अन्तिम आशा यह थी कि प्रात:काल जब पतिदेव कलेवा के लिए बुलाये जायँगे, उस समय देखूँगी। तब उनके सिर पर मौर न होगा, सखियों के साथ मैं भी जा बैठूँगी और खूब जी भरकर देखूँगी। पर क्या मालूम था कि विधि कुछ और ही कुचक्र रच रहा है। प्रात:काल देखती हूँ, तो जनवासे के खेमे उखड़ रहे हैं। बात कुछ न थी। बारातियों के नाश्ते के लिए जो सामान भेजा गया था, वह काफ़ी न था। शायद घी भी ख़राब था। मेरे पिताजी को तुम जानती ही हो। कभी किसी से दबे नहीं, जहाँ रहे शेर बनकर रहे। बोले—जाते हैं, तो जाने दो, मनाने की कोई ज़रूरत नहीं कन्यापक्ष का धर्म है बारातियों का सत्कार करना, लेकिन सत्कार का यह अर्थ नहीं कि धमकी और रोब से काम लिया जाय, मानो किसी अफसर का पड़ाव हो। अगर वह अपने लड़के की शादी कर सकते हैं, तो मैं भी अपनी लड़की की शादी कर सकता हूँ।बारात चली गई और मैं पति के दर्शन न कर सकी सारे शहर में हलचल मच गई। विरोधियों को हँसने का अवसर मिला। पिताजी ने बहुत सामान जमा किया था। वह सब ख़राब हो गया। घर में जिसे देखिए, मेरी ससुराल की निंदा कर रहा है—उजड्ड हैं, लोभी हैं, बदमाश हैं, मुझे जरा भी बुरा नहीं लगता। लेकिन पति के विरुद्ध मैं एक शब्द भी नहीं सुनना चाहती। एक दिन अम्माँजी बोली—लड़का भी बेसमझ है। दूध पीता बच्चा नहीं, क़ानून पढ़ता है, मूँछदाढ़ी आ गई है, उसे अपने बाप को समझाना चाहिए था कि आप लोग क्या कर रहे हैं। मगर वह भी भीगी बिल्ली बना रहा। मैं सुनकर तिलमिला उठी। कुछ बोली तो नहीं, पर अम्माँजी को मालूम ज़रूर हो गया कि इस विषय में मैं उनसे सहमत नहीं। मैं तुम्हीं से पूछती हूँ बहन, जैसी समस्या उठ खड़ी हुई थी, उसमें उनका क्या धर

  • 18: प्रेमचंद की कहानी "स्मृति का पुजारी" Premchand Story "Smriti Ka Pujari"
    31 min 38 sec

    देवीजी हिन्दू धर्म की अनुगामिनी थीं, आप इस्लामी सिद्धान्तों के कायल थे मगर अब आप भी पक्के हिन्दू हैं, बल्कि यों कहिए कि आप मानवधर्मी हो गये हैं। एक दिन बोले, मेरी कसौटी तो है मानवता जिस धर्म में मानवता को प्रधानता दी गयी है, बस, उसी धर्म का मैं दास हूँ। कोई देवता हो या नबी या पैगम्बर, अगर वह मानवता के विरुद्ध कुछ कहता है, तो मेरा उसे दूर से सलाम है। इस्लाम का मैं इसलिए कायल था कि वह मनुष्यमात्र को एक समझता है, ऊँचनीच का वहाँ कोई स्थान नहीं है लेकिन अब मालूम हुआ कि यह समता और भाईपन व्यापक नहीं, केवल इस्लाम के दायरे तक परिमित है। दूसरे शब्दों में, अन्य धार्मों की भाँति यह भी गुटबन्द है और इसके सिद्धान्त केवल उस गुट या समूह को सबल और संगठित बनाने के लिए रचे गये हैं। और जब मैं देखता हूँ कि यहाँ भी जानवरों की कुरबानी शरीयत में दाखिल है और हरेक मुसलमान के लिए अपनी सामर्थ्य के अनुसार भेड़, बकरी, गाय, या ऊँट की कुरबानी फर्ज बतायी गयी है, तो मुझे उसके अपौरुषेय होने में सन्देह होने लगता है। हिन्दुओं में भी एक सम्प्रदाय पशुबलि को अपना धर्म समझता है। यहूदियों, ईसाइयों और अन्य मतों ने भी कुरबानी की बड़ी महिमा गायी है। इसी तरह एक समय नरबलि का भी रिवाज था। आज भी कहींकहीं उस सम्प्रदाय के नामलेवा मौजूद हैं, मगर क्या सरकार ने नरबलि को अपराध नहीं ठहराया और ऐसे मजहबी दीवानों को फाँसी नहीं दी अपने स्वाद के लिए आप भेड़ को जबह कीजिएगा, या गाय, ऊँट या घोड़े को मुझे कोई आपत्ति नहीं। लेकिन धर्म के नाम पर कुरबानी मेरी समझ में नहीं आती। अगर आज इन जानवरों का राज हो जाय, तो कहिए, वे इन कुरबानियों के जवाब में हमें और आपको कुरबान कर दें या नहीं मगर हम जानते हैं, जानवरों में कभी यह शक्ति न आयेगी, इसलिए हम बेधड़क कुरबानियाँ करते हैं और समझते हैं, हम बड़े धर्मात्मा हैं। स्वार्थ और लोभ के लिए हम चौबीसों घंटे अधर्म करते हैं। कोई गम नहीं, लेकिन कुरबानी का पुन लूटे बगैर हमसे नहीं रहा जाता। तो जनाब, मैं ऐसे रक्तशोषक धर्मों का भक्त नहीं। यहाँ तो मानवता के पुजारी हैं, चाहे इस्लाम में हो या हिन्दूधर्म में या बौद्ध में या ईसाइयत में अन्यथा मैं विधार्मी ही भला। मुझे किसी मनुष्य से केवल इसलिए द्वेष तो नहीं है कि यह मेरा सहधार्मी नहीं। मैं किसी का खून तो नहीं बहाता, इसलिए कि मुझे पुन होगा। इस तरह के कितने ही परिवर्तन महाशयजी के विचारों में आ गये।

  • 1: प्रेमचंद की कहानी "मंदिर" Premchand Story "Mandir"
    17 min 33 sec

    सुखिया ने घर पहुँचकर बालक के गले में जंतर बाँधा दिया पर ज्योंज्यों रात गुज़रती थी, उसका ज्वर भी बढ़ता जाता था, यहाँ तक कि तीन बजतेबजते उसके हाथपाँव शीतल होने लगे तब वह घबड़ा उठी और सोचने लगी, हाय मैं व्यर्थ ही संकोच में पड़ी रही और बिना ठाकुर जी के दर्शन किये चली आयी। अगर मैं अन्दर चली जाती और भगवान् के चरणों पर गिर पड़ती, तो कोई मेरा क्या कर लेता यही न होता कि लोग मुझे धाक्के देकर निकाल देते, शायद मारते भी, पर मेरा मनोरथ तो पूरा हो जाता। यदि मैं ठाकुर जी के चरणों को अपने आँसुओं से भिगो देती और बच्चे को उनके चरणों में सुला देती, तो क्या उन्हें दया न आती वह तो दयामय भगवान् हैं, दीनों की रक्षा करते हैं, क्या मुझ पर दया न करते यह सोच कर सुखिया का मन अधीर हो उठा। नहीं, अब विलम्ब करने का समय न था। वह अवश्य जायगी और ठाकुर जी के चरणों पर गिर कर रोयेगी। उस अबला के आशंकित हृदय का अब इसके सिवा और कोई अवलम्ब, कोई आसरा न था। मंदिर के द्वार बंद होंगे, तो वह ताले तोड़ डालेगी। ठाकुर जी क्या किसी के हाथों बिक गये हैं कि कोई उन्हें बंद कर रखे। रात के तीन बज गये थे। सुखिया ने बालक को कम्बल से ढाँप कर गोद में उठाया, एक हाथ में थाली उठायी और मंदिर की ओर चली। घर से बाहर निकलते ही शीतल वायु के झोंकों से उसका कलेजा काँपने लगा। शीत से पाँव शिथिल हुए जाते थे। उस पर चारों ओर अंधकार छाया हुआ था। रास्ता दो फरलाँग से कम न था। पगडंडी वृक्षों के नीचेनीचे गयी थी। कुछ दूर दाहिनी ओर एक पोखरा था, कुछ दूर बाँस की कोठियाँ। पोखरे में एक धोबी मर गया था और बाँस की कोठियों में चुड़ैलों का अव था। बायीं ओर हरेभरे खेत थे। चारों ओर सनसन हो रहा था, अंधकार साँयसाँय कर रहा था। सहसा गीदड़ों ने कर्कश स्वर में हुआँहुआँ करना शुरू किया। हाय अगर कोई उसे एक लाख रुपया देता, तो भी इस समय वह यहाँ न आती पर बालक की मंदिर सारी शंकाओं को दबाये हुए थी। हे भगवान् अब तुम्हारा ही आसरा है यह जपती वह मंदिर की ओर चली जा रही थी।मंदिर के द्वार पर पहुँच कर सुखिया ने जंजीर टटोलकर देखी। ताला पड़ा हुआ था। पुजारी जी बरामदे से मिली हुई कोठरी में किवाड़ बंद किये सो रहे थे। चारों ओर अँधेरा छाया हुआ था। सुखिया चबूतरे के नीचे से एक ईंट उठा लायी और ज़ोरज़ोर से ताले पर पटकने लगी। उसके हाथों में न जाने इतनी शक्ति कहाँ से आ गयी थी। दो ही तीन चोटों में ताला और ईंट दोनों टूट कर चौखट पर गिर पड़े। सुखिया ने द्वार खोल दिया और अंदर जाना ही चाहती थी कि पुजारी किवाड़ खोल कर हड़बड़ाये हुए बाहर निकल आये

  • 2: प्रेमचंद की कहानी "निमंत्रण" Premchand Story "Nimantran"
    39 min 38 sec

    सोनादेवी तो लड़कों को कपड़े पहनाने लगीं। उधर फेकू आनंद की उमंग में घर से बाहर निकला। पंडित चिंतामणि रूठ कर तो चले थे पर कुतूहलवश अभी तक द्वार पर दुबके खड़े थे। इन बातों की भनक इतनी देर में उनके कानों में पड़ी, उससे यह तो ज्ञात हो गया कि कहीं निमंत्रण है पर कहाँ है, कौनकौन से लोग निमंत्रित हैं, यह ज्ञात न हुआ था। इतने में फेकू बाहर निकला, तो उन्होंने उसे गोद में उठा लिया और बोले, कहाँ नेवता है, बेटा अपनी जान में तो उन्होंने बहुत धीरे से पूछा था पर नजाने कैसे पंडितमोटेराम के कान में भनक पड़ गयी। तुरन्त बाहर निकल आये। देखा, तो चिंतामणि जी फेकू को गोद में लिये कुछ पूछ रहे हैं। लपक कर लड़के का हाथ पकड़ लिया और चाहा कि उसे अपने मित्र की गोद से छीन लें मगर चिंतामणि जी को अभी अपने प्रश्न का उत्तर न मिला था। अतएव वे लड़के का हाथ छुड़ा कर उसे लिये हुए अपने घर की ओर भागे। मोटेराम भी यह कहते हुए उनके पीछे दौड़े , उसे क्यों लिये जाते हो धूर्त कहीं का, दुष्ट चिंतामणि, मैं कहे देता हूँ, इसका नतीजा अच्छा न होगा फिर कभी किसी निमंत्रण में न ले जाऊँगा। भला चाहते हो, तो उसे उतार दो...। मगर चिंतामणि ने एक न सुनी। भागते ही चले गये। उनकी देह अभी सँभाल के बाहर न हुई थी दौड़ सकते थे मगर मोटेराम जी को एकएक पग आगे बढ़ना दुस्तर हो रहा था। भैंसे की भाँति हाँफते थे और नाना प्रकार के विशेषणों का प्रयोग करते दुलकी चाल से चले जाते थे। और यद्यपि प्रतिक्षण अंतर बढ़ता जाताथा और पीछा न छोड़ते थे। अच्छी घुड़दौड़ थी। नगर के दो महात्मा दौड़ते हुए ऐसे जान पड़ते थे, मानो दो गैंडे चिड़ियाघर से भाग आये हों। सैकड़ों आदमी तमाशा देखने लगे। कितने ही बालक उनके पीछे तालियाँ बजाते हुए दौड़े। कदाचित् यह दौड़ पंडित चिंतामणि के घर पर ही समाप्त होती पर पंडित मोटेराम धोती के ढीली हो जाने के कारण उलझ कर गिर पड़े। चिंतामणि ने पीछे फिर कर यह दृश्य देखा, तो रुक गये।

  • 3: प्रेमचंद की कहानी "रामलीला" Premchand Story "RamLeela"
    18 min 13 sec

    धरी की एक न चली। आबादी के सामने दबना पड़ा। नाच शुरू हुआ। आबादीजान बला की शोख औरत थी। एक तो कमसिन, उस पर हसीन। और उसकी अदाएँ तो इस गज़ब की थीं कि मेरी तबीयत भी मस्त हुई जातीथी। आदमियों के पहचानने का गुण भी उसमें कुछ कम न था। जिसके सामने बैठ गयी, उससे कुछ न कुछ ले ही लिया। पाँच रुपये से कम तो शायद ही किसी ने दिये हों। पिता जी के सामने भी वह बैठी। मैं मारे शर्म के गड़ गया। जब उसने उनकी कलाई पकड़ी, तब तो मैं सहम उठा। मुझे यकीन था कि पिता जी उसका हाथ झटक देंगे और शायद दुत्कार भी दें, किंतु यह क्या हो रहा है ईश्वर मेरी आँखें धोखा तो नहीं खा रही हैं पिता जी मूँछों में हँस रहे हैं। ऐसी मृदुहँसी उनके चेहरे पर मैंने कभी नहीं देखी थी। उनकी आँखों से अनुराग टपका पड़ता था। उनका एकएक रोम पुलकित हो रहा था मगर ईश्वर ने मेरी लाज रख ली। वह देखो, उन्होंने धीरे से आबादी के कोमल हाथों से अपनी कलाई छुड़ा ली। अरे यह फिर क्या हुआ आबादी तो उनके गले में बाहें डाले देती है। अब पिता जी उसे जरूर पीटेंगे। चुड़ैल को जरा भी शर्म नहीं।एक महाशय ने मुस्करा कर कहा , यहाँ तुम्हारी दाल न गलेगी, आबादीजान और दरवाजा देखो।बात तो इन महाशय ने मेरे मन की कही, और बहुत ही उचित कही लेकिन नजाने क्यों पिता जी ने उसकी ओर कुपित नेत्रों से देखा, और मूँछों पर ताव दिया। मुँह से तो वह कुछ न बोले पर उनके मुख की आकृति चिल्ला कर सरोष शब्दों में कह रही थी , ‘ तू बनिया, मुझे समझता क्या है यहाँ ऐसे अवसर पर जान तक निसार करने को तैयार हैं। रुपये की हकीकत ही क्या तेरा जी चाहे, आजमा ले। तुझसे दूनी रकम न दे डालूँ, तो मुँह न दिखाऊँ ‘ महान् आश्चर्य घोर अनर्थ अरे, जमीन तू फट क्यों नहीं जाती आकाश, तू फट क्यों नहीं पड़ता अरे, मुझे मौत क्यों नहीं आ जाती पिता जी जेब में हाथ डाल रहे हैं। वह कोई चीज निकाली, और सेठ जी को दिखा कर आबादीजान को दे डाली। आह यह तो अशर्फी है। चारों ओर तालियाँबजने लगीं। सेठ जी उल्लू बन गये या पिता जी ने मुँह की खायी, इसका निश्चय मैं नहीं कर सकता। मैंने केवल इतना देखा कि पिता जी ने एक अशर्फी निकाल कर आबादीजान को दी। उनकी आँखों में इस समय इतना गर्वयुक्त उल्लास था मानो उन्होंने हातिम की कब्र पर लात मारी हो।यही पिता जी हैं, जिन्होंने मुझे आरती में एक रुपया डालते देख कर मेरी ओर इस तरह से देखा था, मानो मुझे फाड़ ही खायेंगे। मेरे उस परमोचित व्यवहार से उनके रोब में फर्क आता था, और इस समय इस घृणित, कुत्सित और निंदित व्यापार पर गर्व और आनन्द से फूले न समाते थे। आबादीजान ने एक मनोहर मुस्कान के साथ पिता जी को सलाम किया और आगे बढ़ी मगर मुझसे वहाँ न बैठा गया। मारे शर्म के मेरा मस्तक झुका जाता था अगर मेरी आँखोंदेखी बात न होती, तो मुझे इस पर कभी एतबार न होता। मैं बाहर जो कुछ देखतासुनता था, उसकी रिपोर्ट अम्माँ से जरूर करता था। पर इस मामले को मैंने उनसे छिपा रखा। मैं जानता था, उन्हें यह बात सुन कर बड़ा दु:ख होगा। रात भर गाना होता रहा। तबले की धमक मेरे कानों में आ रही थी। जी चाहता था, चल कर देखूँ पर साहस न होता था। मैं किसी को मुँह कैसे दिखाऊँगा कहीं किसी ने पिता जी का जिक्र छेड़ दिया, तो मैं क्या करूँगा प्रात:काल रामचन्द्र की बिदाई होनेवाली थी। मैं चारपाई से उठते ही आँखें मलता हुआ चौपाल की ओर भागा डर रहा था कि कहीं रामचन्द्र चले न गये हों। पहुँचा, तो देखा , तवायफों की सवारियाँ जाने को तैयार हैं। बीसों आदमी हसरतनाक मुँह बनाये उन्हें घेरे खड़े हैं। मैंने उनकी ओर आँख तक न उठायी। सीधा रामचन्द्र के पास पहुँचा। लक्ष्मण और सीता बैठे रो रहे थे और रामचन्द्र खड़े काँधो पर लुटियाडोर डाले उन्हें समझा रहे थे।

  • 4: प्रेमचंद की कहानी "कामना तरु" Premchand Story "Kamna Taru"
    24 min 13 sec

    कुँवर इस समय हवा के घोड़े पर सवार, कल्पना की द्रुतगति से भागा जा रहा था , उस स्थान को, जहाँ उसने सुखस्वप्न देखा था। किले में चारों ओर तलाश हुई, नायक ने सवार दौड़ाये पर कहीं पता न चला। पहाड़ी रास्तों का काटना कठिन, उस पर अज्ञातवास की कैद, मृत्यु के दूत पीछे लगे हुए, जिनसे बचना मुश्किल। कुँवर को कामनातीर्थ में महीनों लग गये। जब यात्रा पूरी हुई, तो कुँवर में एक कामना के सिवा और कुछ शेष न था। दिन भर की कठिन यात्रा के बाद जब वह उस स्थान पर पहुँचे, तो संध्या हो गयी थी। वहाँ बस्ती का नाम भी न था। दोचार टूटेफूटे झोपड़े उस बस्ती के चिह्नस्वरूप शेष रह गये थे। वह झोपड़ा, जिसमें कभी प्रेम का प्रकाश था, जिसके नीचे उन्होंने जीवन के सुखमय दिन काटे थे, जो उनकी कामनाओं का आगार और उपासना का मंदिर था, अब उनकी अभिलाषाओं की भाँति भग्न हो गया था। झोपड़े की भग्नावस्था मूक भाषा में अपनी करुणकथा सुना रही थी कुँवर उसे देखते ही चंदाचंदा पुकारते हुए दौड़े, उन्होंने उस रज को माथे पर मला, मानो किसी देवता की विभूति हो, और उसकी टूटी हुई दीवारों से चिमट कर बड़ी देर तक रोते रहे। हाय रे अभिलाषा वह रोने ही के लिए इतनी दूर से आये थे रोने की अभिलाषा इतने दिनों से उन्हें विकल कर रही थी। पर इस रुदन में कितना स्वर्गीय आनन्द था क्या समस्त संसार का सुख इन आँसुओं की तुलना कर सकता था तब वह झोपड़े से निकले। सामने मैदान में एक वृक्ष हरेहरे नवीन पल्लवों को गोद में लिये मानो उनका स्वागत करने खड़ा था। यह वह पौधा है, जिसे आज से बीस वर्ष पहले दोनों ने आरोपित किया था। कुँवर उन्मत्ता की भाँति दौड़े और जाकर उस वृक्ष से लिपट गये, मानो कोई पिता अपने मातृहीन पुत्र को छाती से लगाये हुए हो। यह उसी प्रेम की निशानी है, उसी अक्षय प्रेम की जो इतने दिनों के बाद आज इतना विशाल हो गया है। कुँवर का हृदय ऐसा हो उठा, मानो इस वृक्ष को अपने अन्दर रख लेगा जिसमें उसे हवा का झोंका भी न लगे। उसके एकएक पल्लव पर चंदा की स्मृति बैठी हुई थी। पक्षियों का इतना रम्य संगीत क्या कभी उन्होंने सुना था उनके हाथों में दम न था, सारी देह भूखप्यास और थकान से शिथिल हो रही थी। पर, वह उस वृक्ष पर चढ़ गये, इतनी फुर्ती से चढ़े कि बन्दर भी न चढ़ता। सबसे ऊँची फुनगी पर बैठ कर उन्होंने चारों ओर गर्वपूर्ण दृष्टि डाली। यही उनकी कामनाओं का स्वर्ग था। सारा दृश्य चंदामय हो रहा था। दूर की नीली पर्वतश्रेणियों पर चंदा बैठी गा रही थी। आकाश में तैरने वाली लालिमामयी नौकाओं पर चंदा ही उड़ी जाती थी। सूर्य की श्वेतपीत प्रकाश की रेखाओं पर चंदा ही बैठी हँस रही थी। कुँवर के मन में आया, पक्षी होता तो इन्हीं डालियों पर बैठा हुआ जीवन के दिन पूरे करता। जब अँधेरा हो गया, तो कुँवर नीचे उतरे और उसी वृक्ष के नीचे थोड़ीसी भूमि झाड़ कर पत्तियों की शय्या बनायी और लेटे। यही उनके जीवन का स्वर्णस्वप्न था आह यही वैराग्य अब वह इस वृक्ष की शरण छोड़ कर कहीं न जाएँगे, दिल्ली के तख्त के लिए भी वह इस आश्रम को न छोड़ेंगे। उसी स्निग्ध, अमल चाँदनी में सहसा एक पक्षी आ कर उस वृक्ष पर बैठा और दर्द में डूबे हुए स्वरों में गाने लगा। ऐसा जान पड़ा, मानो वह वृक्ष सिर धुन रहा है वह नीरव रात्रि उस वेदनामय संगीत से हिल उठी। कुँवर का हृदय इस तरह ऐंठने लगा, मानो वह फट जायगा। स्वर में करुणा और वियोग के तीरसे भरे हुए थे। आह पक्षी तेरा भी जोड़ा अवश्य बिछुड़ गया है। नहीं तो तेरे राग में इतनी व्यथा, इतना विषाद, इतना रुदन कहाँ से आता कुँवर के हृदय के टुकड़े हुए जाते थे, एकएक स्वर तीर की भाँति दिल को छेदे डालता था। वह बैठे न रह सके। उठ कर आत्मविस्मृति की दशा में दौड़े हुए झोपड़े में गये, वहाँ से फिर वृक्ष के नीचे आये। उस पक्षी को कैसे पायें। कहीं दिखायी नहीं देता। पक्षी का गाना बन्द हुआ, तो कुँवर को नींद आ गयी। उन्हें स्वप्न में ऐसा जान पड़ा कि वही पक्षी उनके समीप आया। कुँवर ने ध्यान से देखा, तो वह पक्षी न था, चंदा थी हाँ, प्रत्यक्ष चंदा थी।

  • 5: प्रेमचंद की कहानी "हिंसा परम धर्म" Premchand Story "Hinsa Param Dharm"
    20 min 56 sec

    ज़वान को अपनी ताकत का नशा था। उसने फिर बुड्ढे को चाँटा लगाया, पर चाँटा पड़ने के पहले ही जामिद ने उसकी गरदन पकड़ ली। दोनों में मल्लयुद्ध होने लगा। जामिद करारा जवान था। युवक को पटकनी दी, तो वह चारों खाने चित्त गिर गया। उसका गिरना था कि भक्तों का समुदाय, जो अब तक मंदिर में बैठा तमाशा देख रहा था, लपक पड़ा और जामिद पर चारों तरफ से चोटें पड़ने लगीं। जामिद की समझ में न आता था कि लोग मुझे क्यों मार रहे हैं। कोई कुछ न पूछता। तिलकधारी जवान को कोई कुछ नहीं कहता। बस, जो आता है, मुझ ही पर हाथ साफ़ करता है। आखिर वह बेदम होकर गिर पड़ा। तब लोगों में बातें होने लगीं। दगा दे गया। धत् तेरी जात की कभी म्लेच्छों से भलाई की आशा न रखनी चाहिए। कौआ कौओं के साथ मिलेगा। कमीना जब करेगा कमीनापन, इसे कोई पूछता न था, मंदिर में झाड़ू लगा रहा था। देह पर कपड़े का तार भी न था, हमने इसका सम्मान किया, पशु से आदमी बना दिया, फिर भी अपना न हुआ। इनके धर्म का तो मूल ही यही है।जामिद रात भर सड़क के किनारे पड़ा दर्द से कराहता रहा, उसे मार खाने का दुख न था। ऐसी यातनाएँ वह कितनी बार भोग चुका था। उसे दुख और आश्चर्य केवल इस बात का था कि इन लोगों ने क्यों एक दिन मेरा इतना सम्मान किया और क्यों आज अकारण ही मेरी इतनी दुर्गति की इनकी वह सज्जनता आज कहाँ गई मैं तो वही हूँ। मैने कोई कसूर भी नहीं किया। मैने तो वही किया, जो ऐसी दशा में सभी को करना चाहिए, फिर इन लोगों ने मुझ पर क्यों इतना अत्याचार किया देवता क्यों राक्षस बन गएवह रात भर इसी उलझन में पड़ा रहा। प्रातःकाल उठ कर एक तरफ़ की राह ली।जामिद अभी थोड़ी ही दूर गया था कि वह बुड्ढा उसे मिला। उसे देखते ही बोला कसम ख़ुदा की, तुमने कल मेरी जान बचा दी। सुना, जालिमों ने तुम्हें बुरी तरह पीटा। मैं तो मौक़ा पाते ही निकल भागा। अब तक कहाँ थे। यहाँ लोग रात ही से तुमसे मिलने के लिए बेक़रार हो रहे हैं। काज़ी साहब रात ही से तुम्हारी तलाश में निकले थे, मगर तुम न मिले। कल हम दोनों अकेले पड़ गए थे। दुश्मनों ने हमें पीट लिया। नमाज़ का वक्त था, जहाँ सब लोग मस्जिद में थे, अगर ज़रा भी ख़बर हो जाती, तो एक हज़ार लठैत पहुँच जाते। तब आटेदाल का भाव मालूम होता। कसम ख़ुदा की, आज से मैने तीन कोड़ी मुर्गियां पाली हैं। देखूँ, पंडित जी महाराज अब क्या करते हैं। कसम ख़ुदा की, काज़ी साहब ने कहा है, अगर यह लौंडा ज़रा भी आँख दिखाए, तो तुम आकर मुझ से कहना। या तो बच्चा घर छोड़कर भागेंगे या हड्डीपसली तोड़कर रख दी जाएगी।जामिद को लिए वह बुड्ढा काज़ी जोरावर हुसैन के दरवाज़े पर पहुँचा। काज़ी साहब वजू कर रहे थे। जामिद को देखते ही दौड़कर गले लगा लिया और बोले वल्लाह तुम्हें आँखें ढूंढ़ रही थीं। तुमने अकेले इतने काफ़िरों के दाँत खट्टे कर दिए। क्यों न हो, मोमिन का ख़ून है। काफ़िरों की हक़ीकत क्या सुना, सबकेसब तुम्हारी शुद्धि करने जा रहे थे, मगर तुमने उनके सारे मनसूबे पलट दिए। इस्लाम को ऐसे ही ख़ादिमों की ज़रूरत है। तुम जैसे दीनदारों से इस्लाम का नाम रौशन है। ग़लती यही हुई कि तुमने एक महीने तक सब्र नहीं किया। शादी हो जाने देते, तब मज़ा आता। एक नाजनीन साथ लाते और दौलत मुफ़्त। वल्लाह तुमने उजलत कर दी।दिन भर भक्तों का ताँता लगा रहा। जामिद को एक नज़र देखने का सबको शौक था। सभी उसकी हिम्मत, जोर और मज़हबी जोश की प्रशंसा करते थे।पहर रात बीत चुकी थी। मुसाफ़िरों की आमदरफ़्त कम हो चली थी। जामिद ने काज़ी समाज से धर्मग्रन्थ पढ़ना शुरु किया था। उन्होंने उसके लिए अपने बगल का कमरा ख़ाली कर दिया था। वह काज़ी साहब से सबक लेकर आया और सोने जा रहा था कि सहसा उसे दरवाजे पर एक तांगे के रुकने की आवाज़ सुनाई दी। काज़ी साहब के मुरीद अक्सर आया करते थे। जामिद ने सोचा, कोई मुरीद आया होगा। नीचे आया तो देखा,एक स्त्री तांगे से उतर कर बरामदे में खड़ी है और तांगे वाला उसका असबाब उतार रहा है।महिला ने मकान को इधरउधर देखकर कहा नहीं जी, मुझे अच्छी तरह ख्याल है, यह उनका मकान नहीं है। शायद तुम भूल गए हो।तांगे वाला हुज़ूर तो मानती ही नहीं। कह दिया कि बाबू साहब ने मकान तब्दील कर दिया है। ऊपर चलिए।स्त्री ने कुछ झिझकते हुए कहा बुलाते क्यों नहीं आवाज़ दोतांगे वाला ओ साहब, आवाज़ क्या दूँ, जब जानता हूँ कि साहब का मकान यही है तो नाहक चिल्लाने से क्या फ़ायदा बेचारे आराम कर रहे होंगे। आराम में खलल पड़ेगा। आप निसाखातिर रहिए। चलिए, ऊपर चलिए।औरत ऊपर चली। पीछेपीछे तांगे वाला असबाब लिए हुए चला। जामिद गुमसुम नीचे खड़ा रहा। यह रहस्य उसकी समझ में न आया।

  • 6: प्रेमचंद की कहानी "बहिष्कार" Premchand Story "Bahishkar"
    31 min 58 sec

    सोमदत्त वहाँ से चला गया। गोविंदी कलसा लिये मूर्ति की भाँति खड़ी रह गयी। उसके सम्मुख कठिन समस्या आ खड़ी हुई थी, वह थी कालिंदी घर में एक ही रह सकती थी। दोनों के लिए उस घर में स्थान न था। क्या कालिंदी के लिए वह अपना घर, अपना स्वर्ग त्याग देगी कालिंदी अकेली है, पति ने उसे पहले ही छोड़ दिया है, वह जहाँ चाहे जा सकती है, पर वह अपने प्राणाधार और प्यारे बच्चे को छोड़ कर कहाँ जायगी लेकिन कालिंदी से वह क्या कहेगी जिसके साथ इतने दिनों तक बहनों की तरह रही, उसे क्या वह अपने घर से निकाल देगी उसका बच्चा कालिंदी से कितना हिला हुआ था, कालिंदी उसे कितना चाहती थी क्या उस परित्यक्ता दीना को वह अपने घर से निकाल देगी इसके सिवा और उपाय ही क्या था उसका जीवन अब एक स्वार्थी, दम्भी व्यक्ति की दया पर अवलम्बित था। क्या अपने पति के प्रेम पर वह भरोसा कर सकती थी ज्ञानचंद्र सहृदय थे, उदार थे, विचारशील थे, दृढ़ थे, पर क्या उनका प्रेम अपमान, व्यंग्य और बहिष्कार जैसे आघातों को सहन कर सकता था उसी दिन से गोविंदी और कालिंदी में कुछ पार्थक्यसा दिखायी देने लगा।दोनों अब बहुत कम साथ बैठतीं। कालिंदी पुकारती , बहन, आ कर खाना खा लो। गोविंदी कहती , तुम खा लो, मैं फिर खा लूँगी। पहले कालिंदी बालक को सारे दिन खिलाया करती थी, माँ के पास केवल दूध पीने जाता था। मगर अब गोविंदी हर दम उसे अपने ही पास रखती है। दोनों के बीच में कोई दीवार खड़ी हो गयी है। कालिंदी बारबार सोचती है, आजकल मुझसे यह क्यों रूठी हुई है पर उसे कोई कारण नहीं दिखायी देता। उसे भय हो रहा है कि कदाचित् यह अब मुझे यहाँ नहीं रखना चाहती। इसी चिंता में वह गोते खाया करती है किन्तु गोविंदी भी उससे कम चिंतित नहीं है। कालिंदी से वह स्नेह तोड़ना चाहती है पर उसकी म्लान मूर्ति देख कर उसके हृदय के टुकड़े हो जाते हैं। उससे कुछ कह नहीं सकती। अवहेलना के शब्द मुँह से नहीं निकलते। कदाचित् उसे घर से जाते देख कर वह रो पड़ेगी। और जबरदस्ती रोक लेगी।इसी हैसबैस में तीन दिन गुजर गये। कालिंदी घर से न निकली। तीसरे दिन संध्यासमय सोमदत्त नदी के तट पर बड़ी देर तक खड़ा रहा। अंत में चारों ओर अँधेरा छा गया। फिर भी पीछे फिरफिर कर जलतट की ओर देखता जाता था रात के दस बज गये हैं। अभी ज्ञानचंद्र घर नहीं आये। गोविंदी घबरा रही है। उन्हें इतनी देर तो कभी नहीं होती थी। आज इतनी देर कहाँ लगा रहे हैं शंका से उसका हृदय काँप रहा है। सहसा मरदाने कमरे का द्वार खुलने की आवाज आयी गोविंदी दौड़ी हुई बैठक में आयी लेकिन पति का मुख देखते ही उसकी सारी देह शिथिल पड़ गयी, उस मुख पर हास्य था पर उस हास्य में भाग्यतिरस्कार झलक रहा था। विधिवाम ने ऐसे सीधेसादे मनुष्य को भी अपने क्रीड़ाकौशल के लिए चुन लिया। क्या वह रहस्य रोने के योग्य था रहस्य रोने की वस्तु नहीं, हँसने की वस्तु है।ज्ञानचंद्र ने गोविंदी की ओर नहीं देखा। कपड़े उतार कर सावधनी से अलगनी पर रखे, जूता उतारा और फर्श पर बैठ कर एक पुस्तक के पन्ने उलटने लगा।

  • 7: प्रेमचंद की कहानी "चोरी" Premchand Story "Chori"
    19 min 12 sec

    आखिर जब शाम हो गयी, तो मैंने कुछ रेवड़ियाँ खायीं और हलधर के हिस्से के पैसे जेब में रख कर धीरेधीरे घर चला। रास्ते में खयाल आया, मकतब होता चलूँ। शायद हलधर अभी वहीं हो मगर वहाँ सन्नाटा था। हाँ, एक लड़का खेलता हुआ मिला। उसने मुझे देखते ही जोर से कहकहा मारा और बोला — बचा, घर जाओ, तो कैसी मार पड़ती है। तुम्हारे चचा आये थे। हलधर को मारतेमारते ले गये हैं। अजी, ऐसा तान कर घूँसा मारा कि मियाँ हलधर मुँह के बल गिर पड़े। यहाँ से घसीटते ले गये हैं। तुमने मौलवी साहब की तनख्वाह दे दी थी वह भी ले ली। अभी कोई बहाना सोच लो, नहीं तो बेभाव की पड़ेगी।मेरी सिट्टीपिट्टी भूल गयी, बदन का लहू सूख गया। वही हुआ, जिसका मुझे शक हो रहा था। पैर मनमन भर के हो गये। घर की ओर एकएक कदम चलना मुश्किल हो गया। देवीदेवताओं के जितने नाम याद थे सभी की मानता मानी , किसी को लड्डू, किसी को पेड़े, किसी को बतासे। गाँव के पास पहुँचा, तो गाँव के डीह का सुमिरन किया क्योंकि अपने हलके में डीह ही की इच्छा सर्वप्रधान होती है। यह सब कुछ किया, लेकिन ज्योंज्यों घर निकट आता, दिल की धड़कन बढ़ती जाती थी। घटाएँ उमड़ी आती थीं। मालूम होता था, आसमान फट कर गिरा ही चाहता है। देखता था, लोग अपनेअपने काम छोड़छोड़ भागे जा रहे हैं, गोरू भी पूँछ उठाये घर की ओर उछलतेकूदते चले जाते थे। चिड़ियाँ अपने घोंसलों की ओर उड़ी चली आती थीं, लेकिन मैं उसी मंद गति से चला जाता था मानो पैरों में शक्ति नहीं। जी चाहता था , जोर का बुखार चढ़ आये, या कहीं चोट लग जाए लेकिन कहने से धोबी गधे पर नहीं चढ़ता। बुलाने से मौत नहीं आती। बीमारी का तो कहना ही क्या कुछ न हुआ, और धीरेधीरे चलने पर भी घर सामने आ ही गया। अब क्या हो

  • 8: प्रेमचंद की कहानी "लांछन" मनसरोवर ५ Premchand Story "Laanchhan" Mansarovar 5
    58 min 11 sec

    अब देवी की आँखों से आँसू की नदी बहने लगी। रात के दस बज गये पर श्यामकिशोर घर न लौटे। रोतेरोते देवी की आँखें सूज आयीं। क्रोध में मधुर स्मृतियों का लोप हो जाता है। देवी को ऐसा ज्ञात होता है कि श्यामकिशोर को उसके साथ कभी प्रेम ही न था। हाँ, कुछ दिनों वह उसका मुँह अवश्य जोहते रहते थे लेकिन वह बनावटी प्रेम था। उसके यौवन का आनन्द लूटने ही के लिए उससे मीठीमीठी प्यार की बातें की जाती थीं। उसे छाती से लगाया जाता था, उसे कलेजे पर सुलाया जाता था। वह सब दिखावा था, स्वाँग था। उसे याद ही न आता था कि कभी उससे सच्चा प्रेम किया गया हो। अब वह रूप नहीं रहा, वह यौवन नहीं रहा, वह नवीनता नहीं रही फिर उसके साथ क्यों न अत्याचार किये जाएँ उसने सोचा , कुछ नहीं अब इनका दिल मुझसे फिर गया है, नहीं तो क्या इस जरासी बात पर यों मुझ पर टूट पड़ते। कोई न कोई लांछन लगा कर मुझसे गला छुड़ाना चाहते हैं। यही बात है, तो मैं क्यों इनकी रोटियाँ और इनकी मार खाने के लिए इस घर में पड़ी रहूँ जब प्रेम ही नहीं रहा, तो मेरे यहाँ रहने को धिक्कार है मैके में कुछ न सही यह दुर्गति तो न होगी। इनकी यही इच्छा है, तो यही सही। मैं भी समझ लूँगी कि विधवा हो गयी।ज्योंज्यों रात गुजरती थी, देवी के प्राण सूखे जाते थे। उसे यह धड़का समाया हुआ था कि कहीं वह आकर फिर न मारपीट शुरू कर दें। कितने क्रोध में भरे हुए यहाँ से गये। वाह री तकदीर अब मैं इतनी नीच हो गयी कि मेहतरों से, जूतेवालों से आशनाई करने लगी। इस भले आदमी को ऐसी बातें मुँह से निकालते शर्म भी नहीं आती नाजाने इनके मन में ऐसी बातें कैसे आती हैं। कुछ नहीं, यह स्वभाव के नीच, दिल के मैले, स्वार्थी आदमी हैं। नीचों के साथ नीच ही बनना चाहिए। मेरी भूल थी कि इतने दिनों से इनकी घुड़कियाँ सहती रही। जहाँ इज्जत नहीं, मर्यादा नहीं, प्रेम नहीं, विश्वास नहीं, वहाँ रहना बेहयाई है। कुछ मैं इनके हाथ बिक तो गयी नहीं कि यह जो चाहे करें, मारें या काटें, पड़ी सहा करूँ। सीताजैसी पत्नियाँ होती थीं, तो रामजैसे पति भी होते थे देवी को ऐसी शंका होने लगी कि कहीं श्यामकिशोर आते ही आते सचमुच उसका गला न दबा दें, या छुरी भोंक दें। वह समाचारपत्रों में ऐसी कई हरजाइयों की खबरें पढ़ चुकी थी। शहर ही में ऐसी कई घटनाएँ हो चुकी थीं। मारे भय के थरथरा उठी। यहाँ रहने से प्राणों की कुशल न थी। देवी ने कपड़ों की एक छोटीसी बकुची बाँधी और सोचने लगी , यहाँ से कैसे निकलूँ और फिर यहाँ से निकल कर जाऊँ कहाँ कहीं इस वक्त मुन्नू का पता लग जाता, तो बड़ा काम निकलता। वह मुझे क्या मैके न पहुँचा देता एक बार मैके पहुँच भर जाती। फिर तो लाला सिर पटक कर रह जाएँ, भूल कर भी न आऊँ। यह भी क्या याद करेंगे। रुपये क्यों छोड़ दूँ, जिसमें यह मजे से गुलछर्रे उड़ायें मैंने ही तो काटछाँट कर जमा किये हैं। इनकी कौनसी ऐसी बड़ी कमाई थी। खर्च करना चाहती, तो कौड़ी न बचती। पैसापैसा बचाती रहती थी। देवी ने जा कर नीचे के किवाड़ बंद कर दिये। फिर संदूक खोल कर अपने सारे जेवर और रुपये निकाल कर बकुची में बाँध लिये। सब के सब करेंसी नोट थे विशेष बोझ भी न हुआ। एकाएक किसी ने सदर दरवाजे में जोर से धक्का मारा। देवी सहम उठी। ऊपर से झाँक कर देखा, श्याम बाबू थे। उसकी हिम्मत न पड़ी कि जा कर द्वार खोल दे। फिर तो बाबू साहब ने इतने जोर से धक्के मारने शुरू किये, मानो किवाड़ ही तोड़ डालेंगे। इस तरह द्वार खुलवाना ही उनके चित्त की दशा को साफ प्रकट कर रहा था। देवी शेर के मुँह में जाने का साहस न कर सकी।

  • 9: प्रेमचंद की कहानी "सती" मनसरोवर ५ Premchand Story "Sati" Mansarovar 5
    29 min 2 sec

    एक क्षण में योद्धाओं ने घोड़ों की बागें उठा दीं, और अस्त्र सँभाले हुए शत्रु सेना पर लपके किन्तु पहाड़ी पर पहुँचते ही इन लोगों ने उसके विषय में जो अनुमान किया था, वह मिथ्या था। वह सजग ही न थे स्वयं किले पर धावा करने की तैयारियाँ भी कर रहे थे। इन लोगों ने जब उन्हें सामने आते देखा, तो समझ गये कि भूल हुई लेकिन अब सामना करने के सिवा चारा ही क्या था। फिर भी वे निराश न थे। रत्नसिंह जैसे कुशल योद्धा के साथ इन्हें कोई शंका न थी। वह इससे भी कठिन अवसरों पर अपने रणकौशल से विजयलाभ कर चुका था। क्या आज वह अपना जौहर न दिखाएगा सारी आँखें रत्नसिंह को खोज रही थीं पर उसका वहाँ कहीं पता न था। कहाँ चला गया यह कोई न जानता था। पर वह कहीं नहीं जा सकता। अपने साथियों को इस कठिन अवस्था में छोड़कर वह कहीं नहीं जा सकता , सम्भव नहीं। अवश्य ही वह यहीं है, और हारी हुई बाजी को जिताने की कोई युक्ति सोच रहा है।एक क्षण में शत्रु इनके सामने आ पहुँचे। इतनी बहुसंख्यक सेना के सामने ये मुट्ठी भर आदमी क्या कर सकते थे। चारों ओर से रत्नसिंह की पुकार होने लगी , भैया, तुम कहाँ हो हमें क्या हुक्म देते हो देखते हो, वे लोग सामने आ पहुँचे पर तुम अभी मौन खड़े हो। सामने आकर हमें मार्ग दिखाओ, हमारा उत्साह बढ़ाओ पर अब भी रत्नसिंह न दिखायी दिया। यहाँ तक कि शत्रुदल सिर पर आ पहुँचा, और दोनों दलों में तलवारें चलने लगीं। बुन्देलों ने प्राण हथेली पर ले कर लड़ना शुरू किया पर एक को एक बहुत होता है एक और दस का मुकाबिला ही क्या यह लड़ाई न थी, प्राणों का जुआ था बुन्देलों में निराशा का अलौकिक बल था। खूब लड़े पर क्या मजाल कि कदम पीछे हटें। उनमें अब जरा भी संगठन न था। जिससे जितना आगे बढ़ते बना, बढ़ा। अंत क्या होगा, इसकी किसी को चिंता न थी। कोई तो शत्रुओं की सफें चीरता हुआ सेनापति के समीप पहुँच गया, कोई उनके हाथी पर चढ़ने की चेष्टा करते मारा गया। उनका अमानुषिक साहस देख कर शत्रुओं के मुँह से भी वाहवाह निकलती थी लेकिन ऐसे योद्धाओं ने नाम पाया है, विजय नहीं पायी। एक घंटे में रंगमंच का परदा गिर गया, तमाशा खत्म हो गया। एक आँधी थी जो आयी और वृक्षों को उखाड़ती हुई चली गयी। संगठित रह कर ये मुट्ठी भर आदमी दुश्मनों के दाँत खट्टे कर देते पर जिस पर संगठन का भार था, उसका कहीं पता न था। विजयी मरहठों ने एकएक लाश ध्यान से देखी। रत्नसिंह उसकी आँखों में खटकता था। उसी पर उनके दाँत लगे थे। रत्नसिंह के जीतेजी उन्हें नींद न आती थी। लोगों ने पहाड़ी की एकएक चट्टान का मन्थन कर डाला पर रत्न न हाथ आया। विजय हुई पर अधूरी। चिंता के हृदय में आज न जाने क्यों भाँतिभाँति की शंकाएँ उठ रही थीं। वह कभी इतनी दुर्बल न थी। बुन्देलों की हार ही क्यों होगी, इसका कोई कारण तो वह न बता सकती थी पर यह भावना उसके विकल हृदय से किसी तरह न निकलती थी। उस अभागिन के भाग्य में प्रेम का सुख भोगना लिखा होता, तो क्या बचपन ही में माँ मर जाती, पिता के साथ वनवन घूमना पड़ता, खोहों और कंदराओं में रहना पड़ता और वह आश्रय भी तो बहुत दिन न रहा। पिता भी मुँह मोड़ कर चल दिये। तब से उसे एक दिन भी तो आराम से बैठना नसीब न हुआ। विधाता क्या अब अपना क्रूर कौतुक छोड़ देगा आह उसके दुर्बल हृदय में इस समय एक विचित्र भावना उत्पन्न हुई , ईश्वर उसके प्रियतम को आज सकुशल लाये, तो वह उसे ले कर किसी दूर के गाँव में जा बसेगी। पतिदेव की सेवा और अराधाना में जीवन सफल करेगी। इस संग्राम से सदा के लिए मुँह मोड़ लेगी। आज पहली बार नारीत्व का भाव उसके मन में जाग्रत हुआ।

  • 10: प्रेमचंद की कहानी "कज़ाकी" मनसरोवर ५ Premchand Story "Kazaki" Mansarovar 5
    29 min 23 sec

    कजाकी के पास इसका कोई जवाब न था। आश्चर्य तो यह था कि मेरी भी जबान बंद हो गयी। बाबू जी बड़े गुस्सेवर थे। उन्हें काम करना पड़ता था, इसी से बातबात पर झुँझला पड़ते थे। मैं तो उनके सामने कभी जाता ही न था। वह भी मुझे कभी प्यार न करते थे। घर में केवल दो बार घंटेघंटे भर के लिए भोजन करने आते थे, बाकी सारे दिन दफ्तर में लिखा करते थे। उन्होंने बारबार एक सहकारी के लिए अफसरों से विनय की थी पर इसका कुछ असर न हुआ था। यहाँ तक कि तातील के दिन भी बाबू जी दफ्तर ही में रहते थे। केवल माता जी उनका क्रोध शांत करना जानती थीं पर वह दफ्तर में कैसे आतीं। बेचारा कजाकी उसी वक्त मेरे देखतेदेखते निकाल दिया गया। उसका बल्लम, चपरास और साफा छीन लिया गया और उसे डाकखाने से निकल जाने का नादिरी हुक्म सुना दिया। आह उस वक्त मेरा ऐसा जी चाहता था कि मेरे पास सोने की लंका होती, तो कजाकी को दे देता और बाबू जी को दिखा देता कि आपके निकाल देने से कजाकी का बाल भी बाँका नहीं हुआ। किसी योद्धा को अपनी तलवार पर जितना घमंड होता है, उतना ही घमंड कजाकी को अपनी चपरास पर था। जब वह चपरास खोलने लगा, तो उसके हाथ काँप रहे थे और आँखों से आँसू बह रहे थे।

  • 11: प्रेमचंद की कहानी "आँसुओं की होली" Premchand Story "Aansuon Ki Holi"
    18 min 36 sec

    होली का दिन है। बाहर हाहाकार मचा हुआ है। पुराने जमाने में अबीर और गुलाल के सिवा और कोई रंग न खेला जाता था। अब नीले, हरे, काले, सभी रंगों का मेल हो गया है और इस संगठन से बचना आदमी के लिए तो संभव नहीं। हाँ, देवता बचें। सिलबिल के दोनों साले मुहल्ले भर के मर्दों, औरतों, बच्चों और बूढ़ों का निशाना बने हुए थे। बाहर के दीवानखाने के फर्श, दीवारें , यहाँ तक की तसवीरें भी रंग उठी थीं। घर में भी यही हाल था। मुहल्ले की ननदें भला कब मानने लगी थीं। परनाला तक रंगीन हो गया था। बड़े साले ने पूछा—क्यों री चम्पा, क्या सचमुच उनकी तबीयत अच्छी नहीं खाना खाने भी न आये चम्पा ने सिर झुका कर कहा —हाँ भैया, रात ही से पेट में कुछ दर्द होने लगा। डाक्टर ने हवा में निकलने को मना कर दिया है। जरा देर बाद छोटे साले ने कहा —क्यों जीजी जी, क्या भाई साहब नीचे नहीं आयेंगे ऐसी भी क्या बीमारी है कहो तो ऊपर जा कर देख आऊँ। चम्पा ने उसका हाथ पकड़ कर कहा —नहींनहीं, ऊपर मत जैयो वह रंगवंग न खेलेंगे। डाक्टर ने हवा में निकलने को मना कर दिया है। दोनों भाई हाथ मल कर रह गये। सहसा छोटे भाई को एक बात सूझी , जीजा जी के कपड़ों के साथ क्यों न होली खेलें। वे तो नहीं बीमार हैं। बड़े भाई के मन में यह बात बैठ गयी। बहन बेचारी अब क्या करती सिकंदरों ने कुंजियाँ उसके हाथ से लीं और सिलबिल के सारे कपड़े निकालनिकाल कर रंग डाले। रूमाल तक न छोड़ा। जब चम्पा ने उन कपड़ों को आँगन में अलगनी पर सूखने को डाल दिया तो ऐसा जान पड़ा, मानो किसी रंगरेज ने ब्याह के जोड़े रँगे हों। सिलबिल ऊपर बैठेबैठे यह तमाशा देख रहे थे पर जबान न खोलते थे। छाती पर साँपसा लोट रहा था। सारे कपड़े खराब हो गये, दफ्तर जाने को भी कुछ न बचा। इन दुष्टों को मेरे कपड़ों से न जाने क्या बैर था। घर में नाना प्रकार के स्वादिष्ट व्यंजन बन रहे थे। मुहल्ले की एक ब्राह्मणी के साथ चम्पा भी जुटी हुई थी

  • 12: प्रेमचंद की कहानी "अग्नि समाधि" Premchand Story "Agni Samaadhi"
    26 min 13 sec

    पयाग रक्त के घूँट पीपी कर ये काम करता, क्योंकि अवज्ञा शारीरिक और आर्थिक दोनों ही दृष्टि से महँगी पड़ती थीं। आँसू यों पुछते थे कि चौकीदारी में यदि कोई काम था, तो इतना ही, और महीने में चार दिन के लिए दो रुपये और कुछ आने कम न थे। फिर गाँव में भी अगर बड़े आदमियों पर नहीं, तो नीचों पर रोब था। वेतन पेंशन थी और जब से महात्माओं का सम्पर्क हुआ, वह पयाग के जेबखर्च की मद में आ गयी। अतएव जीविका का प्रश्न दिनोंदिन चिन्तोत्पादक रूप धारण करने लगा। इन सत्संगों के पहले यह दम्पति गाँव में मज़दूरी करता था। रुक्मिन लकड़ियाँ तोड़ कर बाज़ार ले जाती, पयाग कभी आरा चलाता, कभी हल जोतता, कभी पुर हाँकता। जो काम सामने आ जाए, उसमें जुट जाता था। हँसमुख, श्रमशील, विनोदी, निर्द्वन्द्व आदमी था और ऐसा आदमी कभी भूखों नहीं मरता। उस पर नम्र इतना कि किसी काम के लिए नहीं न करता। किसी ने कुछ कहा और वह अच्छा भैया कह कर दौड़ा। इसलिए उसका गाँव में मान था। इसी की बदौलत निरुद्यम होने पर भी दोतीन साल उसे अधिक कष्ट न हुआ। दोनों जून की तो बात ही क्या, जब महतो को यह ऋध्दि न प्राप्त थी, जिनके द्वार पर बैलों की तीनतीन जोड़ियाँ बँधाती थीं, तो पयाग किस गिनती में था। हाँ, एक जून की दालरोटी में संदेह न था। परन्तु अब यह समस्या दिन पर दिन विषमतर होती जाती थी। उस पर विपत्ति यह थी कि रुक्मिन भी अब किसी कारण से उसकी पतिपरायण, उतनी सेवाशील, उतनी तत्पर न थी। नहीं, उतनी प्रगल्भता और वाचालता में आश्चर्यजनक विकास होता जाता था। अतएव पयाग को किसी ऐसी सिध्दि की आवश्यकता थी, जो उसे जीविका की चिंता से मुक्त कर दे और वह निश्चिंत हो कर भगवद्भजन और साधुसेवा में प्रवृत्ता हो जाए। एक दिन रुक्मिन बाज़ार में लकड़ियाँ बेच कर लौटी, तो पयाग ने कहा —ला, कुछ पैसे मुझे दे दे, दम लगा आऊँ। रुक्मिन ने मुँह फेर कर कहा —दम लगाने की ऐसी चाट है, तो काम क्यों नहीं करते क्या आजकल कोई बाबा नहीं हैं, जा कर चिलम भरो पयाग ने त्योरी चढ़ा कर कहा —भला चाहती है तो पैसे दे दे नहीं तो इस तरह तंग करेगी, तो एक दिन कहीं चला जाऊँगा, तब रोयेगी। रुक्मिन अँगूठा दिखा कर बोली — रोये मेरी बला। तुम रहते ही हो, तो कौन सोने का कौर खिला देते हो अब भी छाती फाड़ती हूँ, तब भी छाती फाड़ूँगी। तो अब यही फैसला है हाँहाँ, कह तो दिया, मेरे पास पैसे नहीं हैं। गहने बनवाने के लिए पैसे हैं और मैं चार पैसे माँगता हूँ, तो यों जवाब देती है रुक्मिन तिनक कर बोली — गहने बनवाती हूँ, तो तुम्हारी छाती क्यों फटती है तुमने तो पीतल का छल्ला भी नहीं बनवाया, या इतना भी नहीं देखा जाता पयाग उस दिन घर न आया। रात के नौ बज गये, तब रुक्मिन ने किवाड़ बंद कर लिये। समझी, गाँव में कहीं छिपा बैठा होगा। समझता होगा, मुझे मनाने आयेगी, मेरी बला जाती है। जब दूसरे दिन भी पयाग न आया, तो रुक्मिन को चिंता हुई। गाँव भर छान आयी। चिड़िया किसी अव्े पर न मिली। उस दिन उसने रसोई नहीं बनायी। रात को लेटी भी तो बहुत देर तक आँखें न लगीं। शंका हो रही थी, पयाग सचमुच तो विरक्त नहीं हो गया। उसने सोचा, प्रात:काल पत्तापत्ता छान डालूँगी, किसी साधुसंत के साथ होगा। जा कर थाने में रपट कर दूँगी। अभी तड़का ही था कि रुक्मिन थाने में चलने को तैयार हो गयी। किवाड़ बंद करके निकली ही थी कि पयाग आता हुआ दिखाई दिया। पर वह अकेला न था। उसके पीछेपीछे एक स्त्री भी थी। उसकी छींट की साड़ी, रँगी हुई चादर, लम्बा घूँघट और शर्मीली चाल देख कर रुक्मिन का कलेजा धक्से हो गया। वह एक क्षण हतबुद्धिसी खड़ी रही, तब बढ़ कर नयी सौत को दोनों हाथों के बीच में ले लिया और उसे इस भाँति धीरेधीरे घर के अंदर ले चली, जैसे कोई रोगी जीवन से निराश हो कर विषपान कर रहा हो

  • 13: प्रेमचंद की कहानी "सुजान भगत" Premchand Story "Sujaan Bhagat"
    26 min 54 sec

    सुजान न उठे। बुलाकी हार कर चली गयी। सुजान के सामने अब एक नयी समस्या खड़ी हो गयी थी। वह बहुत दिनों से घर का स्वामी था और अब भी ऐसा ही समझता रहा। परिस्थिति में कितना उलट फेर हो गया था, इसकी उसे खबर न थी। लड़के उसका सेवासम्मान करते हैं, यह बात उसे भ्रम में डाले हुए थी। लड़के उसके सामने चिलम नहीं पीते, खाट पर नहीं बैठते, क्या यह सब उसके गृहस्वामी होने का प्रमाण न था पर आज उसे यह ज्ञात हुआ कि यह केवल श्रृद्धा थी, उसके स्वामित्व का प्रमाण नहीं। क्या इस श्रृद्धा के बदले वह अपना अधिकार छोड़ सकता था कदापि नहीं। अब तक जिस घर में राज किया, उसी घर में पराधीन बन कर वह नहीं रह सकता। उसको श्रृद्धा की चाह नहीं, सेवा की भूख नहीं। उसे अधिकार चाहिए। वह इस घर पर दूसरों का अधिकार नहीं देख सकता। मंदिर का पुजारी बन कर वह नहीं रह सकता। नजाने कितनी रात बाकी थी। सुजान ने उठ कर गँड़ासे से बैलों का चारा काटना शुरू किया। सारा गाँव सोता था, पर सुजान करवी काट रहे थे। इतना श्रम उन्होंने अपने जीवन में कभी न किया था।

  • 14: प्रेमचंद की कहानी "पिसनहारी का कुआँ" Premchand Story "Pisanhari Ka Kuwan"
    23 min 49 sec

    हरनाथ ने रुपये लौटा तो दिये थे, पर मन में कुछ और मनसूबा बाँध रखा था। आधी रात को जब घर में सन्नाटा छा गया, तो हरनाथ चौधरी के कोठरी की चूल खिसका कर अंदर घुसा। चौधरी बेखबर सोये थे। हरनाथ ने चाहा कि दोनों थैलियाँ उठा कर बाहर निकल आऊँ, लेकिन ज्यों ही हाथ बढ़ाया उसे अपने सामने गोमती खड़ी दिखायी दी। वह दोनों थैलियों को दोनों हाथों से पकड़े हुए थी। हरनाथ भयभीत हो कर पीछे हट गया। फिर यह सोच कर कि शायद मुझे धोखा हो रहा हो, उसने फिर हाथ बढ़ाया, पर अबकी वह मूर्ति इतनी भयंकर हो गयी कि हरनाथ एक क्षण भी वहाँ खड़ा न रह सका। भागा, पर बरामदे ही में अचेत होकर गिर पड़ा। हरनाथ ने चारों तरफ से अपने रुपये वसूल करके व्यापारियों को देने के लिए जमा कर रखे थे। चौधरी ने आँखें दिखायीं, तो वही रुपये ला कर पटक दिया। दिल में उसी वक्त सोच लिया था कि रात को रुपये उड़ा लाऊँगा। झूठमूठ चोर का गुल मचा दूँगा, तो मेरी ओर संदेह भी न होगा। पर जब यह पेशबंदी ठीक न उतरी, तो उस पर व्यापारियों के तगादे होने लगे। वादों पर लोगों को कहाँ तक टालता, जितने बहाने हो सकते थे, सब किये। आखिर वह नौबत आ गयी कि लोग नालिश करने की धामकियाँ देने लगे। एक ने तो 300 रु. की नालिश कर भी दी। बेचारे चौधरी बड़ी मुश्किल में फँसे। दूकान पर हरनाथ बैठता था, चौधरी का उससे कोई वास्ता न था, पर उसकी जो साख थी वह चौधरी के कारण लोग चौधरी को खरा और लेनदेन का साफ़ आदमी समझते थे। अब भी यद्यपि कोई उनसे तकाजा न करता था, पर वह सबसे मुँह छिपाते फिरते थे। लेकिन उन्होंने यह निश्चय कर लिया था कि कुएँ के रुपये न छुऊँगा चाहे कुछ आ पड़े। रात को एक व्यापारी के मुसलमान चपरासी ने चौधरी के द्वार पर आ कर हजारों गालियाँ सुनायीं। चौधरी को बारबार क्रोध आता था कि चल कर मूँछें उखाड़ लूँ, पर मन को समझाया, हमसे मतलब ही क्या है, बेटे का कर्ज़ चुकाना बाप का धर्म नहीं है।

  • 15: प्रेमचंद की कहानी "सोहाग का शव" Premchand Story " Sohag Ka Shav"
    54 min 31 sec

    जब युवती चली गयी, तो सुभद्रा फूटफूटकर रोने लगी। ऐसा जान पड़ता था, मानो देह में रक्त ही नहीं, मानो प्राण निकल गये हैं वह कितनी नि:सहाय, कितनी दुर्बल है, इसका आज अनुभव हुआ। ऐसा मालूम हुआ, मानों संसार में उसका कोई नहीं है। अब उसका जीवन व्यर्थ है। उसके लिए अब जीवन में रोने के सिवा और क्या है उनकी सारी ज्ञानेंद्रियॉँ शिथिलसी हो गयी थीं मानों वह किसी ऊँचे वृक्ष से गिर पड़ी हो। हा यह उसके प्रेम और भक्ति का पुरस्कार है। उसने कितना आग्रह करके केशव को यहाँ भेजा था इसलिए कि यहाँ आते ही उसका सर्वनाश कर देंपुरानी बातें याद आने लगी। केशव की वह प्रेमातुर आँखें सामने आ गयीं। वह सरल, सहज मूर्ति आँखों के सामने नाचने लगी। उसका जरा सिर धमकता था, तो केशव कितना व्याकुल हो जाता था। एक बार जब उसे फसली बुखार आ गया था, तो केशव घबरा कर, पंद्रह दिन की छुट्टी लेकर घर आ गया था और उसके सिरहाने बैठा रातभर पंखा झलता रहा था। वही केशव अब इतनी जल्द उससे ऊब उठा उसके लिए सुभद्रा ने कौनसी बात उठा रखी। वह तो उसी का अपना प्राणाधार, अपना जीवन धन, अपना सर्वस्व समझती थी। नहींनहीं, केशव का दोष नहीं, सारा दोष इसी का है। इसी ने अपनी मधुर बातों से अन्हें वशीभूत कर लिया है। इसकी विद्या, बुद्धि और वाकपटुता ही ने उनके हृदय पर विजय पायी है। हाय उसने कितनी बार केशव से कहा था, मुझे भी पढ़ाया करो, लेकिन उन्होंने हमेशा यही जवाब दिया, तुम जैसी हो, मुझे वैसी ही पसन्द हो। मैं तुम्हारी स्वाभाविक सरलता को पढ़ापढ़ा कर मिटाना नहीं चाहता। केशव ने उसके साथ कितना बड़ा अन्याय किया है लेकिन यह उनका दोष नहीं, यह इसी यौवनमतवाली छोकरी की माया है।सुभद्रा को इस ईर्ष्या और दु:ख के आवेश में अपने काम पर जाने की सुध न रही। वह कमरे में इस तरह टहलने लगी, जैसे किसी ने जबरदस्ती उसे बन्द कर दिया हो। कभी दोनों मुट्ठियॉँ बँध जातीं, कभी दॉँत पीसने लगती, कभी ओंठ काटती। उन्माद कीसी दशा हो गयी। आँखों में भी एक तीव्र ज्वाला चमक उठी। ज्योंज्यों केशव के इस निष्ठुर आघात को सोचती, उन कष्टों को याद करती, जो उसने उसके लिए झेले थे, उसका चित्त प्रतिकार के लिए विकल होता जाता था। अगर कोई बात हुई होती, आपस में कुछ मनोमालिन्य का लेश भी होता, तो उसे इतना दु:ख न होता। यह तो उसे ऐसा मालूम होता था कि मानों कोई हँसतेहँसते अचानक गले पर चढ़ बैठे। अगर वह उनके योग्य नहीं थी, तो उन्होंने उससे विवाह ही क्यों किया था विवाह करने के बाद भी उसे क्यों न ठुकरा दिया था क्यों प्रेम का बीज बोया था और आज जब वह बीच पल्लवों से लहराने लगा, उसकी जड़ें उसके अन्तस्तल के एकएक अणु में प्रविष्ट हो गयीं, उसका रक्त उसका सारा उत्सर्ग वृक्ष को सींचने और पालने में प्रवृत्त हो गया, तो वह आज उसे उखाड़ कर फेंक देना चाहते हैं। क्या हृदय के टुकड़ेटुकड़े हुए बिना वृक्ष उखड़ जायगा

  • 16: प्रेमचंद की कहानी "आत्म संगीत" Premchand Story "Aatm Sangeet"
    9 min 36 sec

    आधी रात थी। नदी का किनारा था। आकाश के तारे स्थिर थे और नदी में उनका प्रतिबिम्ब लहरों के साथ चंचल। एक स्वर्गीय संगीत की मनोहर और जीवनदायिनी, प्राणपोषिणी घ्वनियॉँ इस निस्तब्ध और तमोमय दृश्य पर इस प्रकाश छा रही थी, जैसे हृदय पर आशाऍं छायी रहती हैं, या मुखमंडल पर शोक।रानी मनोरमा ने आज गुरुदीक्षा ली थी। दिनभर दान और व्रत में व्यस्त रहने के बाद मीठी नींद की गोद में सो रही थी। अकस्मात् उसकी आँखें खुलीं और ये मनोहर ध्वनियॉँ कानों में पहुँची। वह व्याकुल हो गयी—जैसे दीपक को देखकर पतंग वह अधीर हो उठी, जैसे खॉँड़ की गंध पाकर चींटी। वह उठी और द्वारपालों एवं चौकीदारों की दृष्टियॉँ बचाती हुई राजमहल से बाहर निकल आयी—जैसे वेदनापूर्ण क्रन्दन सुनकर आँखों से आँसू निकल जाते हैं।सरितातट पर कँटीली झाड़िया थीं। ऊँचे कगारे थे। भयानक जंतु थे। और उनकी डरावनी आवाजें शव थे और उनसे भी अधिक भयंकर उनकी कल्पना। मनोरमा कोमलता और सुकुमारता की मूर्ति थी। परंतु उस मधुर संगीत का आकर्षण उसे तन्मयता की अवस्था में खींचे लिया जाता था। उसे आपदाओं का ध्यान न था।वह घंटों चलती रही, यहाँ तक कि मार्ग में नदी ने उसका गतिरोध किया।2मनोरमा ने विवश होकर इधरउधर दृष्टि दौड़ायी। किनारे पर एक नौका दिखाई दी। निकट जाकर बोली—मॉँझी, मैं उस पार जाऊँगी, इस मनोहर राग ने मुझे व्याकुल कर दिया है।मॉँझी—रात को नाव नहीं खोल सकता। हवा तेज है और लहरें डरावनी। जानजोखिम हैंमनोरमा—मैं रानी मनोरमा हूँ। नाव खोल दे, मुँहमॉँगी मज़दूरी दूँगी।मॉँझी—तब तो नाव किसी तरह नहीं खोल सकता। रानियों का इस में निबाह नहीं।मनोरमा—चौधरी, तेरे पॉँव पड़ती हूँ। शीघ्र नाव खोल दे। मेरे प्राण खिंचे चले जाते हैं।मॉँझी—क्या इनाम मिलेगामनोरमा—जो तू मॉँगे।‘मॉँझी—आप ही कह दें, गँवार क्या जानूँ, कि रानियों से क्या चीज़ मॉँगनी चाहिए। कहीं कोई ऐसी चीज़ न मॉँग बैठूँ, जो आपकी प्रतिष्ठा के विरुद्ध होमनोरमा—मेरा यह हार अत्यन्त मूल्यवान है। मैं इसे खेवे में देती हूँ। मनोरमा ने गले से हार निकाला, उसकी चमक से मॉझी का मुखमंडल प्रकाशित हो गया—वह कठोर, और काला मुख, जिस पर झुर्रियॉँ पड़ी थी।अचानक मनोरमा को ऐसा प्रतीत हुआ, मानों संगीत की ध्वनि और निकट हो गयी हो। कदाचित कोई पूर्ण ज्ञानी पुरुष आत्मानंद के आवेश में उस सरितातट पर बैठा हुआ उस निस्तब्ध निशा को संगीतपूर्ण कर रहा है। रानी का हृदय उछलने लगा। आह कितना मनोमुग्धकर राग था उसने अधीर होकर कहा—मॉँझी, अब देर न कर, नाव खोल, मैं एक क्षण भी धीरज नहीं रख सकती।मॉँझी—इस हार हो लेकर मैं क्या करुँगामनोरमा—सच्चे मोती हैं।मॉँझी—यह और भी विपत्ति हैं मॉँझिन गले में पहन कर पड़ोसियों को दिखायेगी, वह सब डाह से जलेंगी, उसे गालियॉँ देंगी। कोई चोर देखेगा, तो उसकी छाती पर सॉँप लोटने लगेगा। मेरी सुनसान झोपड़ी पर दिनदहाड़े डाका पड़ जायगा। लोग चोरी का अपराध लगायेंगे। नहीं, मुझे यह हार न चाहिए।मनोरमा—तो जो कुछ तू मॉँग, वही दूँगी। लेकिन देर न कर। मुझे अब धैर्य नहीं है। प्रतीक्षा करने की तनिक भी शक्ति नहीं हैं। इन राग की एकएक तान मेरी आत्मा को तड़पा देती है।मॉँझी—इससे भी अच्दी कोई चीज़ दीजिए।मनोरमा—अरे निर्दयी तू मुझे बातों में लगाये रखना चाहता हैं मैं जो देती है, वह लेता नहीं, स्वयं कुछ मॉँगता नही। तुझे क्या मालूम मेरे हृदय की इस समय क्या दशा हो रही है। मैं इस आत्मिक पदार्थ पर अपना सर्वस्व न्यौछावर कर सकती हूँ।मॉँझी—और क्या दीजिएगामनोरमा—मेरे पास इससे बहुमूल्य और कोई वस्तु नहीं है, लेकिन तू अभी नाव खोल दे, तो प्रतिज्ञा करती हूँ कि तुझे अपना महल दे दूँगी, जिसे देखने के लिए कदाचित तू भी कभी गया हो। विशुद्ध श्वेत पत्थर से बना है, भारत में इसकी तुलना नहीं।मॉँझी—हँस कर उस महल में रह कर मुझे क्या आनन्द मिलेगा उलटे मेरे भाईबंधु शत्रु हो जाएँगे। इस नौका पर अँधेरी रात में भी मुझे भय न लगता। आँधी चलती रहती है, और मैं इस पर पड़ा रहता हूँ। किंतु वह महल तो दिन ही में फाड़ खायगा। मेरे घर के आदमी तो उसके एक कोने में समा जाएँगे। और आदमी कहाँ से लाऊँगा मेरे नौकरचाकर कहाँ इतना मालअसबाब कहाँ उसकी सफाई और मरम्मत कहाँ से कराऊँगा उसकी फुलवारियॉँ सूख जाएँगी, उसकी क्यारियों में गीदड़ बोलेंगे और अटारियों पर कबूतर और अबाबीलें घोंसले बनायेंगी।मनोरमा अचानक एक तन्मय अवस्था में उछल पड़ी। उसे प्रतीत हुआ कि संगीत निकटतर आ गया है। उसकी सुन्दरता और आनन्द अधिक प्रखर हो गया था—जैसे बत्ती उकसा देने से दीपक अधिक प्रकाशवान हो जाता है। पहले चित्ताकर्षक था, तो अब आवेशजनक हो गया था। मनोरमा ने व्याकुल होकर कहा—आह तू फिर अपने मुँह से क्यों कुछ नहीं मॉँगता आह कितना विरागजनक राग है

  • 17: प्रेमचंद की कहानी "एक्ट्रेस" Premchand Story "Actress"
    25 min 47 sec

    एक महीना गुजर गया, कुँवर साहब दिन में कईकई बार आते। उन्हें एक क्षण का वियोग भी असह्य था। कभी दोनों बजरे पर दरिया की सैर करते, कभी हरीहरी घास पर पार्कों में बैठे बातें करते, कभी गानाबजाना होता, नित्य नये प्रोग्राम बनते थे। सारे शहर में मशहूर था कि ताराबाई ने कुँवर साहब को फॉँस लिया और दोनों हाथों से सम्पत्ति लूट रही है। पर तारा के लिए कुँवर साहब का प्रेम ही एक ऐसी सम्पत्ति थी, जिसके सामने दुनियाभर की दौलत देय थी। उन्हें अपने सामने देखकर उसे किसी वस्तु की इच्छा न होती थी।मगर एक महीने तक इस प्रेम के बाजार में घूमने पर भी तारा को वह वस्तु न मिली, जिसके लिए उसकी आत्मा लोलुप हो रही थी। वह कुँवर साहब से प्रेम की, अपार और अतुल प्रेम की, सच्चे और निष्कपट प्रेम की बातें रोज सुनती थी, पर उसमें ‘विवाह’ का शब्द न आने पाता था, मानो प्यासे को बाजार में पानी छोड़कर और सब कुछ मिलता हो। ऐसे प्यासे को पानी के सिवा और किस चीज से तृप्ति हो सकती है प्यास बुझाने के बाद, सम्भव है, और चीजों की तरफ उसकी रुचि हो, पर प्यासे के लिए तो पानी सबसे मूल्यवान पदार्थ है। वह जानती थी कि कुँवर साहब उसके इशारे पर प्राण तक दे देंगे, लेकिन विवाह की बात क्यों उनकी जबान से नहीं मिलती क्या इस विष्य का कोई पत्र लिख कर अपना आशय कह देना सम्भव था फिर क्या वह उसको केवल विनोद की वस्तु बना कर रखना चाहते हैं यह अपमान उससे न सहा जाएगा। कुँवर के एक इशारे पर वह आग में कूद सकती थी, पर यह अपमान उसके लिए असह्य था। किसी शौकीन रईस के साथ वह इससे कुछ दिन पहले शायद एकदो महीने रह जाती और उसे नोचखसोट कर अपनी राह लेती। किन्तु प्रेम का बदला प्रेम है, कुँवर साहब के साथ वह यह निर्लज्ज जीवन न व्यतीत कर सकती थी।उधर कुँवर साहब के भाई बन्द भी गाफिल न थे, वे किसी भॉँति उन्हें ताराबाई के पंजे से छुड़ाना चाहते थे। कहीं कुंवर साहब का विवाह ठीक कर देना ही एक ऐसा उपाय था, जिससे सफल होने की आशा थी और यही उन लोगों ने किया। उन्हें यह भय तो न था कि कुंवर साहब इस ऐक्ट्रेस से विवाह करेंगे। हॉँ, यह भय अवश्य था कि कही रियासत का कोई हिस्सा उसके नाम कर दें, या उसके आने वाले बच्चों को रियासत का मालिक बना दें। कुँवर साहब पर चारों ओर से दबाव पड़ने लगे। यहॉँ तक कि योरोपियन अधिकारियों ने भी उन्हें विवाह कर लेने की सलाह दी

  • 18: प्रेमचंद की कहानी "ईश्वरीय न्याय" Premchand Story "Ishwariya Nyay"
    46 min 31 sec

    यद्यपि इस गॉँव को अपने नाम लेते समय मुंशी जी के मन में कपट का भाव न था, तथापि दोचार दिन में ही उनका अंकुर जम गया और धीरेधीरे बढ़ने लगा। मुंशी जी इस गॉँव के आयव्यय का हिसाब अलग रखते और अपने स्वामिनों को उसका ब्योरो समझाने की जरुरत न समझते। भानुकुँवरि इन बातों में दख़ल देना उचित न समझती थी पर दूसरे कारिंदों से बातें सुनसुन कर उसे शंका होती थी कि कहीं मुंशी जी दगा तो न देंगे। अपने मन का भाव मुंशी से छिपाती थी, इस खयाल से कि कहीं कारिंदों ने उन्हें हानि पहुँचाने के लिए यह षड़यंत्र न रचा हो।इस तरह कई साल गुजर गये। अब उस कपट के अंकुर ने वृक्ष का रुप धारण किया। भानुकुँवरि को मुंशी जी के उस मार्ग के लक्षण दिखायी देने लगे। उधर मुंशी जी के मन ने क़ानून से नीति पर विजय पायी, उन्होंने अपने मन में फैसला किया कि गॉँव मेरा है। हाँ, मैं भानुकुँवरि का तीस हज़ार का ऋणी अवश्य हूँ। वे बहुत करेंगी तो अपने रुपये ले लेंगी और क्या कर सकती हैं मगर दोनों तरफ यह आग अन्दर ही अन्दर सुलगती रही। मुंशी जी अस्त्रसज्जित होकर आक्रमण के इंतज़ार में थे और भानुकुँवरि इसके लिए अवसर ढूँढ़ रही थी।

  • 19: प्रेमचंद की कहानी "ममता" Premchand Story "Mamta"
    32 min 5 sec

    सेठ गिरधारीलाल इस अन्योक्तिपूर्ण भाषण का हाल सुन कर क्रोध से आग हो गए। मैं बेईमान हूँ ब्याज का धन खानेवाला हूँ विषयी हूँ कुशल हुई, जो तुमने मेरा नाम नहीं लिया किंतु अब भी तुम मेरे हाथ में हो। मैं अब भी तुम्हें जिस तरह चाहूँ, नचा सकता हूँ। खुशामदियों ने आग पर तेल डाला। इधर रामरक्षा अपने काम में तत्पर रहे। यहाँ तक कि ‘वोटिंगडे’ आ पहुँचा। मिस्टर रामरक्षा को उद्योग में बहुत कुछ सफलता प्राप्त हुई थी। आज वे बहुत प्रसन्न थे। आज गिरधारीलाल को नीचा दिखाऊँगा, आज उसको जान पड़ेगा कि धन संसार के सभी पदार्थो को इकट्ठा नहीं कर सकता। जिस समय फैजुलरहमान के वोट अधिक निकलेंगे और मैं तालियॉँ बजाऊँगा, उस समय गिरधारीलाल का चेहरा देखने योग्य होगा, मुँह का रंग बदल जायगा, हवाइयॉँ उड़ने लगेगी, आँखें न मिला सकेगा। शायद, फिर मुझे मुँह न दिखा सके। इन्हीं विचारों में मग्न रामरक्षा शाम को टाउनहाल में पहुँचे। उपस्थित जनों ने बड़ी उमंग के साथ उनका स्वागत किया। थोड़ी देर के बाद ‘वोटिंग’ आरम्भ हुआ। मेम्बरी मिलने की आशा रखनेवाले महानुभाव अपनेअपने भाग्य का अंतिम फल सुनने के लिए आतुर हो रहे थे। छह बजे चेयरमैन ने फैसला सुनाया। सेठ जी की हार हो गयी। फैजुलरहमान ने मैदान मार लिया। रामरक्षा ने हर्ष के आवेग में टोपी हवा में उछाल दी और स्वयं भी कई बार उछल पड़े। मुहल्लेवालों को अचम्भा हुआ। चॉदनी चौक से सेठ जी को हटाना मेरु को स्थान से उखाड़ना था। सेठ जी के चेहरे से रामरक्षा को जितनी आशाऍं थीं, वे सब पूरी हो गयीं। उनका रंग फीका पड़ गया था। खेद और लज्जा की मूर्ति बने हुए थे। एक वकील साहब ने उनसे सहानुभूति प्रकट करते हुए कहा—सेठ जी, मुझे आपकी हार का बहुत बड़ा शोक है। मैं जानता कि खुशी के बदले रंज होगा, तो कभी यहाँ न आता। मैं तो केवल आपके ख्याल से यहाँ आया था। सेठ जी ने बहुत रोकना चाहा, परंतु आँखों में आँसू डबडबा ही गये। वे नि:स्पृह बनाने का व्यर्थ प्रयत्न करके बोले—वकील साहब, मुझे इसकी कुछ चिंता नहीं, कौन रियासत निकल गयी व्यर्थ उलझन, चिंता तथा झंझट रहती थी, चलो, अच्छा हुआ। गला छूटा। अपने काम में हरज होता था। सत्य कहता हूँ, मुझे तो हृदय से प्रसन्नता ही हुई। यह काम तो बेकाम वालों के लिए है, घर न बैठे रहे, यही बेगार की। मेरी मूर्खता थी कि मैं इतने दिनों तक आँखें बंद किये बैठा रहा। परंतु सेठ जी की मुखाकृति ने इन विचारों का प्रमाण न दिया। मुखमंडल हृदय का दर्पण है, इसका निश्चय अलबत्ता हो गया।किंतु बाबू रामरक्षा बहुत देर तक इस आनन्द का मजा न लूटने पाये और न सेठ जी को बदला लेने के लिए बहुत देर तक प्रतीक्षा करनी पड़ी। सभा विसर्जित होते ही जब बाबू रामरक्षा सफलता की उमंग में ऐंठतें, मोंछ पर ताव देते और चारों ओर गर्व की दृष्टि डालते हुए बाहर आये, तो दीवानी की तीन सिपाहियों ने आगे बढ़ कर उन्हें गिरफ्तारी का वारंट दिखा दिया। अबकी बाबू रामरक्षा के चेहरे का रंग उतर जाने की, और सेठ जी के इस मनोवांछित दृश्य से आनन्द उठाने की बारी थी। गिरधारीलाल ने आनन्द की उमंग में तालियॉँ तो न बजायीं, परंतु मुस्करा कर मुँह फेर लिया। रंग में भंग पड़ गया।

  • 20: प्रेमचंद की कहानी "मंत्र" Premchand Story "Mantra"
    35 min 35 sec

    रात के दस बज गये थे। हिन्दूसभा के कैंप में सन्नाटा था। केवल चौबे जी अपनी रावटी में बैठे हिन्दूसभा के मंत्री को पत्र लिख रहे थे , यहाँ सबसे बड़ी आवश्यकता धन की है। रुपया, रुपया, रुपया जितना भेज सकें, भेजिए। डेपुटेशन भेज कर वसूल कीजिए, मोटे महाजनों की जेब टटोलिए, भिक्षा माँगिए। बिना धन के इन अभागों का उद्धार न होगा। जब तक कोई पाठशाला न खुले, कोई चिकित्सालय न स्थापित हो, कोई वाचनालय न हो, इन्हें कैसे विश्वास आयेगा कि हिन्दूसभा उनकी हितचिंतक है। तबलीगवाले जितना खर्च कर रहे हैं, उसका आधा भी मुझे मिल जाए, तो हिंदूधर्म की पताका फहराने लगे। केवल व्याख्यानों से काम न चलेगा। असीसों से कोई जिंदा नहीं रहता। सहसा किसी की आहट पा कर वह चौंक पड़े। आँखें ऊपर उठायीं तो देखा, दो आदमी सामने खड़े हैं। पंडित जी ने शंकित हो कर पूछा , तुमकौन हो क्या काम है उत्तर मिला , हम इजराईल के फरिश्ते हैं। तुम्हारी रूह कब्ज करने आये हैं। इजराईल ने तुम्हें याद किया है।पंडित जी यों बहुत ही बलिष्ठ पुरुष थे, उन दोनों को एक धक्के में गिरा सकते थे। प्रात:काल तीन पाव मोहनभोग और दो सेर दूध का नाश्ता करते थे। दोपहर के समय पाव भर घी दाल में खाते, तीसरे पहर दूधिया भंग छानते, जिसमें सेर भर मलाई और आधा सेर बदाम मिली रहती। रात को डट कर ब्यालू करते क्योंकि प्रात:काल तक फिर कुछ न खाते थे। इस पर तुर्रा यह कि पैदल पग भर भी न चलते थे पालकी मिले, तो पूछना ही क्या, जैसे घर पर पलंग उड़ा जा रहा हो। कुछ न हो, तो इक्का तो था ही यद्यपि काशी में ही दो ही चार इक्केवाले ऐसे थे जो उन्हें देख कर कह न दें कि इक्का ख़ाली नहीं है। ऐसा मनुष्य नर्म अखाड़े में पट पड़ कर ऊपरवाले पहलवान को थका सकता था, चुस्ती और फुर्ती के अवसर पर तो वह रेत पर निकला हुआ कछुआ था। पंडित जी ने एक बार कनखियों से दरवाज़े की तरफ देखा। भागने का कोई मौक़ा न था। तब उनमें साहस का संचार हुआ। भय की पराकाष्ठा ही साहस है। अपने सोंटे की तरफ हाथ बढ़ाया और गरज कर बोले , निकल जाओ यहाँ से बात मुँह से पूरी न निकली थी कि लाठियों का वार पड़ा। पंडित जी मूर्च्छित हो कर गिर पड़े। शत्रुओं ने समीप आ कर देखा, जीवन का कोई लक्षण न था। समझ गये, काम तमाम हो गया। लूटने का विचार न था पर जब कोई पूछनेवाला न हो, तो हाथ बढ़ाने में क्या हर्ज जो कुछ हाथ लगा, लेदे कर चलते बने।प्रात:काल बूढ़ा भी उधर से निकला, तो सन्नाटा छाया हुआ था, न आदमी, न आदमजाद। छौलदारियाँ भी गायब चकराया, यह माजरा क्या है रात ही भर में अलादीन के महल की तरह सब कुछ गायब हो गया। उन महात्माओं में से एक भी नजर नहीं आता, जो प्रात:काल मोहनभोग उड़ाते और संध्या समय भंग घोटते दिखायी देते थे। जरा और समीप जा कर पंडित लीलाधर की रावटी में झाँका, तो कलेजा सन्न से हो गया

  • 21: प्रेमचंद की कहानी "प्रायश्चित" Premchand Story "Prayashchit"
    30 min 50 sec

    सुबोधचन्द्र कोई घंटेभर में लौटे। तब उनके कमरे का द्वार बन्द था। दफ़्तर में आकर मुस्कराते हुए बोले—मेरा कमरा किसने बन्द कर दिया है, भाई क्या मेरी बेदख़ली हो गयीमदारीलाल ने खड़े होकर मृदु तिरस्कार दिखाते हुए कहा—साहब, गुस्ताखी माफ हो, आप जब कभी बाहर जाएँ, चाहे एक ही मिनट के लिए क्यों न हो, तब दरवाज़ाबन्द कर दिया करें। आपकी मेज पर रुपयेपैसे और सरकारी कागजपत्र बिखरे पड़े रहते हैं, न जाने किस वक्त किसकी नीयत बदल जाए। मैंने अभी सुना कि आप कहीं गये हैं, जब दरवाज़े बन्द कर दिये।सुबोधचन्द्र द्वार खोल कर कमरे में गये ओर सिगार पीने लगें मेज पर नोट रखे हुए है, इसके खबर ही न थी।सहसा ठेकेदार ने आकर सलाम कियां सुबोध कुर्सी से उठ बैठे और बोले—तुमने बहुत देर कर दी, तुम्हारा ही इन्तजार कर रहा था। दस ही बजे रुपये मँगवा लिये थे। रसीद लिखवा लाये हो नठेकेदार—हुज़ूर रसीद लिखवा लाया हूँ।सुबोध—तो अपने रुपये ले जाओ। तुम्हारे काम से मैं बहुत खुश नहीं हूँ। लकड़ी तुमने अच्छी नहीं लगायी और काम में सफाई भी नहीं हे। अगर ऐसा काम फिर करोंगे, तो ठेकेदारों के रजिस्टर से तुम्हारा नाम निकाल दिया जायगा।यह कह कर सुबोध ने मेज पर निगाह डाली, तब नोटों के पुलिंदे न थे। सोचा, शायद किसी फाइल के नीचे दब गये हों। कुरसी के समीप के सब काग़ज़ उलटपुलट डाले मगर नोटो का कहीं पता नहीं। ऐं नोट कहाँ गये अभी तो यही मेने रख दिये थे। जा कहाँ सकते हें। फिर फाइलों को उलटने पुलटने लगे। दिल में जराजरा धड़कन होने लगी। सारी मेज के काग़ज़ छान डाले, पुलिंदों का पता नहीं। तब वे कुरसी पर बैठकर इस आध घंटे में होने वाली घटनाओं की मन में आलोचना करने लगे—चपरासी ने नोटों के पुलिंदे लाकर मुझे दिये, खूब याद है। भला, यह भी भूलने की बात है और इतनी जल्द मैने नोटों को लेकर यहीं मेज पर रख दिया, गिना तक नहीं। फिर वकील साहब आ गये, पुराने मुलाकाती हैं। उनसे बातें करता जरा उस पेड़ तक चला गया। उन्होंने पान मँगवाये, बस इतनी ही देर र्हु। जब गया हूँ तब पुलिंदे रखे हुए थे। खूब अच्छी तरह याद है। तब ये नोट कहाँ गायब हो गये मैंने किसी संदूक, दराज या आलमारी में नहीं रखे। फिर गये तो कहाँ शायद दफ़्तर में किसी ने सावधानी के लिए उठा कर रख दिये हों, यही बात है। मैं व्यर्थ ही इतना घबरा गया। छि:तुरन्त दफ़्तर में आकर मदारीलाल से बोले—आपने मेरी मेज पर से नोट तो उठा कर नहीं रख दियमदारीलाल ने भौंचक्के होकर कहा—क्या आपकी मेज पर नोट रखे हुए थे मुझे तो खबर ही नहीं। अभी पंडित सोहनलाल एक फाइल लेकर गये थे, तब आपको कमरे में न देखा। जब मुझे मालूम हुआ कि आप किसी से बातें करने चले गये हैं, वब दरवाज़े बन्द करा दिये। क्या कुछ नोट नहीं मिल रहे हैसुबोध आँखें फैला कर बोले—अरे साहब, पूरे पॉँच हज़ार के है। अभीअभी चेक भुनाया है।मदारीलाल ने सिर पीट कर कहा—पूरे पाँच हजार हा भगवान आपने मेज पर खूब देख लिया है‘अजी पंद्रह मिनट से तलाश कर रहा हूँ।’‘चपरासी से पूछ लिया कि कौनकौन आया था’‘आइए, जरा आप लोग भी तलाश कीजिए। मेरे तो होश उड़े हुए है।’सारा दफ़्तर सेक्रेटरी साहब के कमरे की तलाशी लेने लगा। मेज, आलमारियॉँ, संदूक सब देखे गये। रजिस्टरों के वर्क उलटपुलट कर देंखे गये मगर नोटों का कहीं पता नहीं। कोई उड़ा ले गया, अब इसमें कोई शबहा न था। सुबोध ने एक लम्बी सॉँस ली और कुर्सी पर बैठ गये। चेहरे का रंग फक हो गया। जरसा मुँह निकल आया। इस समय कोई उन्हे देखत तो समझता कि महीनों से बीमार है।मदारीलाल ने सहानुभूति दिखाते हुए कहा— गजब हो गया और क्या आज तक कभी ऐसा अंधेर न हुआ था। मुझे यहाँ काम करते दस साल हो गये, कभी धेले की चीज़ भी गायब न हुई। मैं आपको पहले दिन सावधान कर देना चाहता था कि रुपयेपैसे के विषय में होशियार रहिएगा मगर शुदनी थी, ख्याल न रहा। ज़रूर बाहर से कोई आदमी आया और नोट उड़ा कर गायब हो गया। चपरासी का यही अपराध है कि उसने किसी को कमरे में जोने ही क्यों दिया। वह लाख कसम खाये कि बाहर से कोई नहीं आया लेकिन में इसे मान नहीं सकता। यहाँ से तो केवल पण्डित सोहनलाल एक फाइल लेकर गये थे मगर दरवाज़े ही से झॉँक कर चले आये।सोहनलाल ने सफाई दी—मैंने तो अन्दर क़दम ही नहीं रखा, साहब अपने जवान बेटे की कसम खाता हूँ, जो अन्दर क़दम रखा भी हो।मदारीलाल ने माथा सिकोड़कर कहा—आप व्यर्थ में कसम क्यों खाते हैं। कोई आपसे कुछ कहता सुबोध के कान मेंबैंक में कुछ रुपये हों तो निकाल कर ठेकेदार को दे लिये जाएँ, वरना बड़ी बदनामी होगी। नुकसान तो हो ही गया, अब उसके साथ अपमान क्यों हो।सुबोध ने करूणस्वर में कहा— बैंक में मुश्किल से दोचार सौ रुपये होंगे, भाईजान रुपये होते तो क्या चिन्ता थी। समझ लेता, जैसे पचीस हज़ार उड़ गये, वैसे

  • 22: प्रेमचंद की कहानी "कप्तान साहब" Premchand Story "Kaptan Sahab"
    15 min 50 sec

    ज्योंज्यों घर वालें को उसकी चोरकला के गुप्त साधनों का ज्ञान होता जाता था, वे उससे चौकन्ने होते जाते थे। यहाँ तक कि एक बार पूरे महीनेभर तक उसकी दाल न गली। चरस वाले के कई रुपये ऊपर चढ़ गये। गॉँजे वाले ने धुआँधार तकाजे करने शुरू किय। हलवाई कड़वी बातें सुनाने लगा। बेचारे जगत् को निकलना मुश्किल हो गया। रातदिन ताकझॉँक में रहता पर घात न मिलत थी। आखिर एक दिन बिल्ली के भागों छींका टूटा। भक्तसिंह दोपहर को डाकखानें से चले, जो एक बीमारजिस्ट्री जेब में डाल ली। कौन जाने कोई हरकारा या डाकिया शरारत कर जाए किंतु घर आये तो लिफाफे को अचकन की जेब से निकालने की सुधि न रही। जगतसिंह तो ताक लगाये हुए था ही। पेसे के लोभ से जेब टटोली, तो लिफाफा मिल गया। उस पर कई आने के टिकट लगे थे। वह कई बार टिकट चुरा कर आधे दामों पर बेच चुका था। चट लिफाफा उड़ा दिया। यदि उसे मालूम होता कि उसमें नोट हें, तो कदाचित वह न छूता लेकिन जब उसने लिफाफा फाड़ डाला और उसमें से नोट निक पड़े तो वह बड़े संकट में पड़ गया। वह फटा हुआ लिफाफा गलाफाड़ कर उसके दुष्कृत्य को धिक्कारने लगा। उसकी दशा उस शिकारी कीसी हो गयी, जो चिड़ियों का शिकार करने जाए और अनजान में किसी आदमी पर निशाना मार दे। उसके मन में पश्चाताप था, लज्जा थी, दु:ख था, पर उसे भूल का दंड सहने की शक्ति न थी। उसने नोट लिफाफे में रख दिये और बाहर चला गया।गरमी के दिन थे। दोपहर को सारा घर सो रहा था पर जगत् की आँखें में नींद न थी। आज उसकी बुरी तरह कुंदी होगी— इसमें संदेह न था। उसका घर पर रहना ठीक नहीं, दसपॉँच दिन के लिए उसे कहीं खिसक जाना चाहिए। तब तक लोगों का क्रोध शांत हो जाता। लेकिन कहीं दूर गये बिना काम न चलेगा। बस्ती में वह क्रोध दिन तक अज्ञातवास नहीं कर सकता। कोई न कोई ज़रूर ही उसका पता देगा ओर वह पकड़ लिया जायगा। दूर जाने केक लिए कुछ न कुछ खर्च तो पास होना ही चहिए। क्यों न वह लिफाफे में से एक नोट निकाल ले यह तो मालूम ही हो जायगा कि उसी ने लिफाफा फाड़ा है, फिर एक नोट निकल लेने में क्या हानि है दादा के पास रुपये तो हे ही, झक मार कर दे देंगे। यह सोचकर उसने दस रुपये का एक नोट उड़ा लिया मगर उसी वक्त उसके मन में एक नयी कल्पना का प्रादुर्भाव हुआ। अगर ये सब रुपये लेकर किसी दूसरे शहर में कोई दूकान खोल ले, तो बड़ा मजा हो। फिर एकएक पैसे के लिए उसे क्यों किसी की चोरी करनी पड़े कुछ दिनों में वह बहुतसा रुपया जमा करके घर आयेगा तो लोग कितने चकित हो जाएेंगेउसने लिफाफे को फिर निकाला। उसमें कुल दो सौ रूपए के नोट थे। दो सौ में दूध की दूकान खूब चल सकती है। आखिर मुरारी की दूकान में दोचार कढ़ाव और दोचार पीतल के थालों के सिवा और क्या है लेकिन कितने ठाट से रहता हे रुपयों की चरस उड़ा देता हे। एकएक दॉँव पर दसदस रूपए रख देता है, नफा न होता, तो वह ठाट कहाँ से निभाता इस आननदकल्पना में वह इतना मग्न हुआ कि उसका मन उसके काबू से बाहर हो गया, जैसे प्रवाह में किसी के पॉँव उखड़ जाएें ओर वह लहरों में बह जाए।उसी दिन शाम को वह बम्बई चल दिया। दूसरे ही दिन मुंशी भक्तसिंह पर गबन का मुकदमा दायर हो गया।

  • 23: प्रेमचंद की कहानी "इस्तीफ़ा" Premchand Story "Isteefa"
    21 min 41 sec

    साहब सन्नाटे में आ गये। फ़तहचन्द की तरफ डर और क्रोध की दृष्टि से देख कर कॉंप उठे। फ़तहचन्द के चेहरे पर पक्का इरादा झलक रहा था। साहब समझ गये, यह मनुष्य इस समय मरनेमारने के लिए तैयार होकर आयाहै। ताकत में फ़तहचन्द उनसे पासंग भी नहीं था। लेकिन यह निश्चय था कि वह ईट का जवाब पत्थर से नहीं, बल्कि लोहे से देने को तैयार है। यदि पह फ़तहचन्द को बुराभला कहते है, तो क्या आश्चर्य है कि वह डंडा लेकर पिल पड़े। हाथापाई करने में यद्यपि उन्हें जीतने में जरा भी संदेह नहीं था, लेकिन बैठेबैठाये डंडे खाना भी तो कोई बुद्धिमानी नहीं है। कुत्ते को आप डंडे से मारिये, ठुकराइये, जो चाहे कीजिए मगर उसी समय तक, जब तक वह गुर्राता नहीं। एक बार गुर्रा कर दौड़ पड़े, तो फिर देखे आप हिम्मत कहाँ जाती हैं यही हाल उस वक्त साहब बहादुर का थां जब तक यकीन था कि फ़तहचन्द घुड़की, गाली, हंटर, ठाकर सब कुछ खामोशी से सह लेगा,. तब तक आप शेर थे अब वह त्योरियॉँ बदले, ड़डा सँभाले, बिल्ली की तरह घात लगाये खडा है। जबान से कोई कड़ा शब्द निकला और उसने ड़डा चलाया। वह अधिक से अधिक उसे बरखास्त कर सकते हैं। अगर मारते हैं, तो मार खाने का भी डर है। उस पर फ़ौजदारी में मुकदमा दायर हो जाने का संदेशा—माना कि वह अपने प्रभाव और ताकत को जेल में डलवा देगे परन्तु परेशानी और बदनामी से किसी तरह न बच सकते थे।

  • 1: प्रेमचंद की कहानी "यह मेरी मातृभूमि है" Premchand Story "Yeh Meri MatraBhoomi Hai"
    15 min 48 sec

    रेलगाड़ी जंगलों, पहाड़ों, नदियों और मैदानों को पार करती हुई मेरे प्यारे गाँव के निकट पहुँची जो किसी समय में फूल, पत्तों और फलों की बहुतायत तथा नदीनालों की अधिकता से स्वर्ग की होड़ कर रहा था। मैं उस गाड़ी से उतरा तो मेरा हृदय बाँसों उछल रहा था अब अपना प्यारा घर देखूँगा अपने बालपन के प्यारे साथियों से मिलूँगा। मैं इस समय बिलकुल भूल गया था कि मैं 90 वर्ष का बूढ़ा हूँ। ज्योंज्यों मैं गाँव के निकट आता था, मेरे पग शीघ्रशीघ्र उठते थे और हृदय में अकथनीय आनंद का श्रोत उमड़ रहा था। प्रत्येक वस्तु पर आँखें फाड़फाड़ कर दृष्टि डालता। अहा यह वही नाला है जिसमें हम रोज घोड़े नहलाते थे और स्वयं भी डुबकियाँ लगाते थे किंतु अब उसके दोनों ओर काँटेदार तार लगे हुए थे। सामने एक बँगला था जिसमें दो अँग्रेज बंदूकें लिये इधरउधर ताक रहे थे। नाले में नहाने की सख्त मनाही थी।गाँव में गया और निगाहें बालपन के साथियों को खोजने लगीं किन्तु शोक वे सब के सब मृत्यु के ग्रास हो चुके थे। मेरा घरमेरा टूटाफूटा झोंपड़ा जिसकी गोद में मैं बरसों खेला था, जहाँ बचपन और बेफिक्री के आनंद लूटे थे और जिसका चित्र अभी तक मेरी आँखों में फिर रहा था, वही मेरा प्यारा घर अब मिट्टी का ढेर हो गया था।यह स्थान गैरआबाद न था। सैकड़ों आदमी चलतेचलते दृष्टि आते थे जो अदालतकचहरी और थानापुलिस की बातें कर रहे थे उनके मुखों से चिंता निर्जीवता और उदासी प्रदर्शित होती थी और वे अब सांसारिक चिंताओं से व्यथित मालूम होते थे। मेरे साथियों के समान हृष्टपुष्ट बलवान लाल चेहरे वाले नवयुवक कहीं न देख पड़ते थे। उस अखाड़े के स्थान पर जिसकी जड़ मेरे हाथों ने डाली थी अब एक टूटाफूटा स्कूल था। उसमें दुर्बल तथा कांतिहीन रोगियों कीसी सूरतवाले बालक फटे कपड़े पहिने बैठे ऊँघ रहे थे। उनको देख कर सहसा मेरे मुख से निकल पड़ा कि नहींनहीं यह मेरा प्यारा देश नहीं है। यह देश देखने मैं इतनी दूर से नहीं आया हूँ यह मेरा प्यारा भारतवर्ष नहीं है।बरगद के पेड़ की ओर मैं दौड़ा जिसकी सुहावनी छाया में मैंने बचपन के आनंद उड़ाये थे, जो हमारे छुटपन का क्रीड़ास्थल और युवावस्था का सुखप्रद वासस्थान था। आह इस प्यारे बरगद को देखते ही हृदय पर एक बड़ा आघात पहुँचा और दिल में महान् शोक उत्पन्न हुआ। उसे देख कर ऐसीऐसी दुःखदायक तथा हृदयविदारक स्मृतियाँ ताजी हो गयीं कि घंटों पृथ्वी पर बैठेबैठे मैं आँसू बहाता रहा। हाँ यही बरगद है जिसकी डालों पर चढ़ कर मैं फुनगियों तक पहुँचता था, जिसकी जटाएँ हमारा झूला थीं और जिसके फल हमें सारे संसार की मिठाइयों से अधिक स्वादिष्ट मालूम होते थे। मेरे गले में बाँहें डाल कर खेलने वाले लँगोटिया यार जो कभी रूठते थे, कभी मनाते थे, कहाँ गये, हाय बिना घरबार का मुसाफिर अब क्या अकेला ही हूँ क्या मेरा कोई भी साथी नहीं इस बरगद के निकट अब थाना था और बरगद के नीचे कोई लाल साफ़ा बाँधे बैठा था। उसके आसपास दसबीस लाल पगड़ी वाले करबद्ध खड़े थे वहाँ फटेपुराने कपड़े पहने दुर्भिक्षग्रस्त पुरुष जिस पर अभी चाबुकों की बौछार हुई थी, पड़ा सिसक रहा था। मुझे ध्यान आया कि यह मेरा प्यारा देश नहीं है, कोई और देश है। यह योरोप है, अमेरिका है, मगर मेरी प्यारी मातृभूमि नहीं है कदापि नहीं है।

  • 2: प्रेमचंद की कहानी "राजा हरदौल" Premchand Story "Raja Hardaul"
    30 min 58 sec

    दूसरे दिन क़िले के सामने तालाब के किनारे बड़े मैदान में ओरछे के छोटेबड़े सभी जमा हुए। कैसेकैसे सजीले, अलबेले जवान थे, सिर पर खुशरंग बांकी पगड़ी, माथे पर चंदन का तिलक, आँखों में मर्दानगी का सरूर, कमर में तलवार। और कैसेकैसे बूढ़े थे, तनी हुईं मूँछें, सादी पर तिरछी पगड़ी, कानों में बँधी हुई दाढ़ियाँ, देखने में तो बूढ़े, पर काम में जवान, किसी को कुछ न समझने वाले। उनकी मर्दाना चालढाल नौजवानों को लजाती थी। हर एक के मुँह से वीरता की बातें निकल रही थीं। नौजवान कहते थे, देखें आज ओरछे की लाज रहती है या नहीं। पर बूढ़े कहते ओरछे की हार कभी नहीं हुई, न होगी। वीरों का यह जोश देख कर राजा हरदौल ने बड़े ज़ोर से कह दिया, खबरदार, बुंदेलों की लाज रहे या न रहे पर उनकी प्रतिष्ठा में बल न पड़ने पाए यदि किसी ने औरों को यह कहने का अवसर दिया कि ओरछे वाले तलवार से न जीत सके तो धांधली कर बैठे, वह अपने को जाति का शत्रु समझे।सूर्य निकल आया था। एकाएक नगाड़े पर चोट पड़ी और आशा तथा भय ने लोगों के मन को उछाल कर मुँह तक पहुँचा दिया। कालदेव और कादिर खाँ दोनों लँगोट कसे शेरों की तरह अखाड़े में उतरे और गले मिल गए। तब दोनों तरफ़ से तलवारें निकलीं और दोनों के बगलों में चली गईं। फिर बादल के दो टुकड़ों से बिजलियाँ निकलने लगीं। पूरे तीन घंटे तक यही मालूम होता रहा कि दो अंगारे हैं। हज़ारों आदमी खड़े तमाशा देख रहे थे और मैदान में आधी रात कासा सन्नाटा छाया था। हाँ, जब कभी कालदेव गिरहदार हाथ चलाता या कोई पेंचदार वार बचा जाता, तो लोगों की गर्दन आप ही आप उठ जाती पर किसी के मुँह से एक शब्द भी नहीं निकलता था। अखाड़े के अंदर तलवारों की खींचतान थी पर देखनेवालों के लिए अखाड़े से बाहर मैदान में इससे भी बढ़ कर तमाशा था। बारबार जातीय प्रतिष्ठा के विचार से मन के भावों को रोकना और प्रसन्नता या दु:ख का शब्द मुँह से बाहर न निकलने देना तलवारों के वार बचाने से अधिक कठिन काम था। एकाएक कादिर खाँ अल्लाहोअकबर चिल्लाया, मानो बादल गरज उठा और उसके गरजते ही कालदेव के सिर पर बिजली गिर पड़ी।कालदेव के गिरते ही बुंदेलों को सब्र न रहा। हर एक के चेहरे पर निर्बल क्रोध और कुचले हुए घमंड की तस्वीर खिंच गई। हज़ारों आदमी जोश में आ कर अखाड़े पर दौड़े, पर हरदौल ने कहा, खबरदार अब कोई आगे न बढ़े। इस आवाज़ ने पैरों के साथ जंजीर का काम किया। दर्शकों को रोक कर जब वे अखाड़े में गए और कालदेव को देखा, तो आँखों में आँसू भर आए। जख्मी शेर ज़मीन पर पड़ा तड़प रहा था। उसके जीवन की तरह उसकी तलवार के दो टुकड़े हो गए थे।

  • 3: प्रेमचंद की कहानी "त्यागी का प्रेम" Premchand Story "Tyagi Ka Prem"
    35 min 21 sec

    दो साल हो गये हैं। लाला गोपीनाथ ने एक कन्यापाठशाला खोली है और उसके प्रबंधक हैं। शिक्षा की विभिन्न पद्धतियों का उन्होंने खूब अध्ययन किया है और इस पाठशाला में वह उनका व्यवहार कर रहे हैं। शहर में यह पाठशाला बहुत ही सर्वप्रिय है। उसने बहुत अंशों में उस उदासीनता का परिशोध कर दिया है जो मातापिता को पुत्रियों की शिक्षा की ओर होती है। शहर के गण्यमान्य पुरुष अपनी लड़कियों को सहर्ष पढ़ने भेजते हैं। वहाँ की शिक्षाशैली कुछ ऐसी मनोरंजक है कि बालिकाएँ एक बार जा कर मानो मंत्रमुग्ध हो जाती हैं। फिर उन्हें घर पर चैन नहीं मिलता। ऐसी व्यवस्था की गयी है कि तीनचार वर्षों में ही कन्याओं का गृहस्थी के मुख्य कामों से परिचय हो जाय। सबसे बड़ी बात यह है कि यहाँ धर्मशिक्षा का भी समुचित प्रबंध किया गया है। अबकी साल से प्रबंधक महोदय ने अँग्रेजी की कक्षाएँ भी खोल दी हैं। एक सुशिक्षित गुजराती महिला को बम्बई से बुला कर पाठशाला उनके हाथ में दे दी है। इन महिला का नाम है आनंदी बाई। विधवा हैं। हिंदी भाषा से भलीभाँति परिचित नहीं हैं किंतु गुजराती में कई पुस्तकें लिख चुकी हैं। कई कन्यापाठशालाओं में काम कर चुकी हैं। शिक्षासम्बन्धी विषयों में अच्छी गति है। उनके आने से मदरसे में और भी रौनक आ गयी है। कई प्रतिष्ठित सज्जनों ने जो अपनी बालिकाओं को मंसूरी और नैनीताल भेजना चाहते थे अब उन्हें यहीं भरती करा दिया है। आनंदी रईसों के घरों में जाती हैं और स्त्रियों में शिक्षा का प्रचार करती हैं। उनके वस्त्रभूषणों से सुरुचि का बोध होता है। हैं भी उच्चकुल की इसलिए शहर में उनका बड़ा सम्मान होता है। लड़कियाँ उन पर जान देती हैं उन्हें माँ कह कर पुकारती हैं। गोपीनाथ पाठशाला की उन्नति देखदेख कर फूले नहीं समाते। जिससे मिलते हैं आनंदी बाई का ही गुणगान करते हैं। बाहर से कोई सुविख्यात पुरुष आता है तो उससे पाठशाला का निरीक्षण अवश्य कराते हैं। आनंदी की प्रशंसा से उन्हें वही आनंद प्राप्त होता है जो स्वयं अपनी प्रशंसा से होता। बाई जी को भी दर्शन से प्रेम है और सबसे बड़ी बात यह है कि उन्हें गोपीनाथ पर असीम श्रद्धा है। वह हृदय से उनका सम्मान करती हैं। उनके त्याग और निष्काम जातिभक्ति ने उन्हें वशीभूत कर लिया है। वह मुँह पर उनकी बड़ाई नहीं करतीं पर रईसों के घरों में बड़े प्रेम से उनका यशोगान करती हैं। ऐसे सच्चे सेवक आजकल कहाँ लोग कीर्ति पर जान देते हैं। जो थोड़ीबहुत सेवा करते हैं दिखावे के लिए। सच्ची लगन किसी में नहीं। मैं लाला जी को पुरुष नहीं देवता समझती हूँ। कितना सरल संतोषमय जीवन है। न कोई व्यसन न विलास। भोर से सायंकाल तक दौड़ते रहते हैं न खाने का कोई समय न सोने का समय। उस पर कोई ऐसा नहीं जो उनके आराम का ध्यान रखे। बेचारे घर गये जो कुछ किसी ने सामने रख दिया चुपके से खा लिया फिर छड़ी उठायी और किसी तरफ चल दिये। दूसरी औरत कदापि अपनी पत्नी की भाँति सेवासत्कार नहीं कर सकती।

  • 4: प्रेमचंद की कहानी "रानी सारंधा" Premchand Story "Rani Sarandha"
    34 min 20 sec

    संसार एक रणक्षेत्र है। इस मैदान में उसी सेनापति को विजयलाभ होता है जो अवसर को पहचानता है। वह अवसर पर जितने उत्साह से आगे बढ़ता है उतने ही उत्साह से आपत्ति के समय पीछे हट जाता है। वह वीर पुरुष राष्ट्र का निर्माता होता है और इतिहास उसके नाम पर यश के फूलों की वर्षा करता है।पर इस मैदान में कभीकभी ऐसे सिपाही भी जाते हैं जो अवसर पर क़दम बढ़ाना जानते हैं लेकिन संकट में पीछे हटाना नहीं जानते। ये रणवीर पुरुष विजय को नीति की भेंट कर देते हैं। वे अपनी सेना का नाम मिटा देंगे किन्तु जहाँ एक बार पहुँच गये हैं वहाँ से क़दम पीछे न हटायेंगे। उनमें कोई विरला ही संसारक्षेत्र में विजय प्राप्त करता है किंतु प्रायः उसकी हार विजय से भी अधिक गौरवात्मक होती है। अगर अनुभवशील सेनापति राष्ट्रों की नींव डालता है तो आन पर जान देनेवाला मुँह न मोड़नेवाला सिपाही राष्ट्र के भावों को उच्च करता है और उसके हृदय पर नैतिक गौरव को अंकित कर देता है। उसे इस कार्यक्षेत्र में चाहे सफलता न हो किन्तु जब किसी वाक्य या सभा में उसका नाम जबान पर आ जाता है श्रोतागण एक स्वर से उसके कीर्तिगौरव को प्रतिध्वनित कर देते हैं। सारन्धा आन पर जान देनेवालों में थी।शाहजादा मुहीउद्दीन चम्बल के किनारे से आगरे की ओर चला तो सौभाग्य उसके सिर पर मोर्छल हिलाता था। जब वह आगरे पहुँचा तो विजयदेवी ने उसके लिए सिंहासन सजा दिया औरंगजेब गुणज्ञ था। उसने बादशाही अफसरों के अपराध क्षमा कर दिये उनके राज्यपद लौटा दिये और राजा चम्पतराय को उसके बहुमूल्य कृत्यों के उपलक्ष्य में बारह हजारी मनसब प्रदान किया। ओरक्षा से बनारस और बनारस से जमुना तक उसकी जागीर नियत की गयी। बुन्देला राजा फिर राजसेवक बना वह फिर सुखविलास में डूबा और रानी सारन्धा फिर पराधीनता के शोक से घुलने लगी।

  • 5: प्रेमचंद की कहानी "शाप" Premchand Story "Shaap"
    1 hr 10 min 19 sec

    यात्र का सातवाँ वर्ष था और ज्येष्ठ का महीना। मैं हिमालय के दामन में ज्ञानसरोवर के तट पर हरीहरी घास पर लेटा हुआ था ऋतु अत्यंत सुहावनी थी। ज्ञानसरोवर के स्वच्छ निर्मल जल में आकाश और पर्वत श्रेणी का प्रतिबिम्ब जलपक्षियों का पानी पर तैरना शुभ्र हिमश्रेणी का सूर्य के प्रकाश से चमकना आदि दृश्य ऐसे मनोहर थे कि मैं आत्मोल्लास से विह्वल हो गया। मैंने स्विटजरलैंड और अमेरिका के बहुप्रशंसित दृश्य देखे हैं पर उनमें यह शांतिप्रद शोभा कहाँ मानव बुद्धि ने उनके प्राकृतिक सौंदर्य को अपनी कृत्रिमता से कलंकित कर दिया है। मैं तल्लीन हो कर इस स्वर्गीय आनंद का उपभोग कर रहा था कि सहसा मेरी दृष्टि एक सिंह पर जा पड़ी जो मंदगति से क़दम बढ़ाता हुआ मेरी ओर आ रहा था। उसे देखते ही मेरा ख़ून सूख गया होश उड़ गये। ऐसा वृहदाकार भयंकर जंतु मेरी नजर से न गुजरा था। वहाँ ज्ञानसरोवर के अतिरिक्त कोई ऐसा स्थान नहीं था जहाँ भाग कर अपनी जान बचाता। मैं तैरने में कुशल हूँ पर मैं ऐसा भयभीत हो गया कि अपने स्थान से हिल न सका। मेरे अंगप्रत्यंग मेरे काबू से बाहर थे। समझ गया कि मेरी ज़िंदगी यहीं तक थी। इस शेर के पंजे से बचने की कोई आशा न थी। अकस्मात् मुझे स्मरण हुआ कि मेरी जेब में एक पिस्तौल गोलियों से भरी हुई रखी है जो मैंने आत्मरक्षा के लिए चलते समय साथ ले ली थी और अब तक प्राणपण से इसकी रक्षा करता आया था। आश्चर्य है कि इतनी देर तक मेरी स्मृति कहाँ सोई रही। मैंने तुरंत ही पिस्तौल निकाली और निकट था कि शेर पर वार करूँ कि मेरे कानों में यह शब्द सुनायी दिए मुसाफिर ईश्वर के लिए वार न करना अन्यथा मुझे दुःख होगा। सिंहराज से तुझे हानि न पहुँचेगी।मैंने चकित होकर पीछे की ओर देखा तो एक युवती रमणी आती हुई दिखायी दी। उसके हाथ में एक सोने का लोटा था और दूसरे में एक तश्तरी। मैंने जर्मनी की हूरें और कोहकाफ की परियाँ देखी हैं पर हिमाचल पर्वत की यह अप्सरा मैंने एक ही बार देखी और उसका चित्र आज तक हृदयपट पर खिंचा हुआ है। मुझे स्मरण नहीं कि रफैल या कोरेजियो ने भी कभी ऐसा चित्र खींचा हो। बैंडाइक और रेमब्राँड के आकृतिचित्रों ने भी ऐसी मनोहर छवि नहीं देखी। पिस्तौल मेरे हाथ से गिर पड़ी। कोई दूसरी शक्ति इस समय मुझे अपनी भयावह परिस्थिति से निश्चिंत न कर सकती थी।मैं उस सुंदरी की ओर देख ही रहा था कि वह सिंह के पास आयी। सिंह उसे देखते ही खड़ा हो गया और मेरी ओर सशंक नेत्रों से देख कर मेघ की भाँति गर्जा। रमणी ने एक रूमाल निकाल कर उसका मुँह पोंछा और फिर लोटे से दूध उँडेल कर उसके सामने रख दिया। सिंह दूध पीने लगा। मेरे विस्मय की अब कोई सीमा न थी। चकित था कि यह कोई तिलिस्म है या जादू। व्यवहारलोक में हूँ अथवा विचारलोक में। सोता हूँ या जागता। मैंने बहुधा सरकसों में पालतू शेर देखे हैं किंतु उन्हें काबू में रखने के लिए किनकिन रक्षाविधानों से काम लिया जाता है उसके प्रतिकूल यह मांसाहारी पशु उस रमणी के सम्मुख इस भाँति लेटा हुआ है मानो वह सिंह की योनि में कोई मृगशावक है। मन में प्रश्न हुआ सुंदरी में कौनसी चमत्कारिक शक्ति है जिसने सिंह को इस भाँति वशीभूत कर लिया क्या पशु भी अपने हृदय में कोमल और रसिक भाव छिपाये रखते हैं कहते हैं कि महुअर का अलाप काले नाग को भी मस्त कर देता है। जब ध्वनि में यह सिद्धि है तो सौंदर्य की शक्ति का अनुमान कौन कर सकता है। रूपलालित्य संसार का सबसे अमूल्य रत्न है प्रकृति के रचनानैपुण्य का सर्वश्रेष्ठ अंश है।जब सिंह दूध पी चुका तो सुंदरी ने रूमाल से उसका मुँह पोंछा और उसका सिर अपने जाँघ पर रख कर उसे थपकियाँ देने लगी। सिंह पूँछ हिलाता था और सुंदरी की अरुणवर्ण हथेलियों को चाटता था। थोड़ी देर के बाद दोनों एक गुफा में अंतर्हित हो गये। मुझे भी धुन सवार हुई कि किसी प्रकार इस तिलिस्म को खोलूँ इस रहस्य का उद्घाटन करूँ। जब दोनों अदृश्य हो गये तो मैं भी उठा और दबे पाँव उस गुफा के द्वार तक जा पहुँचा। भय से मेरे शरीर की बोटीबोटी काँप रही थी मगर इस रहस्यपट को खोलने की उत्सुकता भय को दबाये हुए थी। मैंने गुफा के भीतर झाँका तो क्या देखता हूँ कि पृथ्वी पर जरी का फर्श बिछा हुआ है और कारचोबी गावतकिये लगे हुए हैं। सिंह मसनद पर गर्व से बैठा हुआ है। सोनेचाँदी के पात्र सुंदर चित्र फूलों के गमले सभी अपनेअपने स्थान पर सजे हुए हैं वह गुफा राजभवन को भी लज्जित कर रही है।द्वार पर मेरी परछाईं देख कर वह सुंदरी बाहर निकल आयी और मुझसे कहा यात्री तू कौन है और इधर क्योंकर आ निकला

  • 6: प्रेमचंद की कहानी "मर्यादा की वेदी" Premchand Story "Maryada Ki Vedi"
    34 min 13 sec

    चित्तौड़ के रंगमहल में प्रभा उदास बैठी सामने के सुन्दर पौधों की पत्तियाँ गिन रही थी। संध्या का समय था। रंगबिरंग के पक्षी वृक्षों पर बैठे कलरव कर रहे थे। इतने में राणा ने कमरे में प्रवेश किया। प्रभा उठ कर खड़ी हो गयी।राणा बोलेप्रभा मैं तुम्हारा अपराधी हूँ। मैं बलपूर्वक तुम्हें मातापिता की गोद से छीन लाया पर यदि मैं तुमसे कहूँ कि यह सब तुम्हारे प्रेम से विवश हो कर मैंने किया तो तुम मन में हँसोगी और कहोगी कि यह निराले अनूठे ढंग की प्रीति है पर वास्तव में यही बात है। जबसे मैंने रणछोड़ जी के मंदिर में तुमको देखा तब से एक क्षण भी ऐसा नहीं बीता कि मैं तुम्हारी सुधि में विकल न रहा होऊँ। तुम्हें अपनाने का अन्य कोई उपाय होता तो मैं कदापि इस पाशविक ढंग से काम न लेता। मैंने रावसाहब की सेवा में बारंबार संदेशे भेजे पर उन्होंने हमेशा मेरी उपेक्षा की। अंत में जब तुम्हारे विवाह की अवधि आ गयी और मैंने देखा कि एक ही दिन में तुम दूसरे की प्रेमपात्री हो जाओगी और तुम्हारा ध्यान करना भी मेरी आत्मा को दूषित करेगा तो लाचार होकर मुझे यह अनीति करनी पड़ी। मैं मानता हूँ कि यह सर्वथा मेरी स्वार्थान्धता है। मैंने अपने प्रेम के सामने तुम्हारे मनोगत भावों को कुछ न समझा पर प्रेम स्वयं एक बढ़ी हुई स्वार्थपरता है जब मनुष्य को अपने प्रियतम के सिवाय और कुछ नहीं सूझता। मुझे पूरा विश्वास था कि मैं अपने विनीत भाव और प्रेम से तुमको अपना लूँगा। प्रभा प्यास से मरता हुआ मनुष्य यदि किसी गढ़े में मुँह डाल दे तो वह दंड का भागी नहीं है। मैं प्रेम का प्यासा हूँ। मीरा मेरी सहधर्मिणी है। उसका हृदय प्रेम का अगाध सागर है। उसका एक चुल्लू भी मुझे उन्मत्त करने के लिए काफ़ी था पर जिस हृदय में ईश्वर का वास हो वहाँ मेरे लिए स्थान कहाँ तुम शायद कहोगी कि यदि तुम्हारे सिर पर प्रेम का भूत सवार था तो क्या सारे राजपूताने में स्त्रियाँ न थीं। निस्संदेह राजपूताने में सुन्दरता का अभाव नहीं है और न चित्तौड़ाधिपति की ओर से विवाह की बातचीत किसी के अनादर का कारण हो सकती है पर इसका जवाब तुम आप ही हो। इसका दोष तुम्हारे ही ऊपर है। राजस्थान में एक ही चित्तौड़ है एक ही राणा और एक ही प्रभा। सम्भव है मेरे भाग्य में प्रेमानंद भोगना न लिखा हो। यह मैं अपने कर्मलेख को मिटाने का थोड़ासा प्रयत्न कर रहा हूँ परंतु भाग्य के अधीन बैठे रहना पुरुषों का काम नहीं है। मुझे इसमें सफलता होगी या नहीं इसका फैसला तुम्हारे हाथ है।प्रभा की आँखें ज़मीन की तरफ थीं और मन फुदकनेवाली चिड़िया की भाँति इधरउधर उड़ता फिरता था। वह झालावाड़ को मारकाट से बचाने के लिए राणा के साथ आयी थी मगर राणा के प्रति उसके हृदय में क्रोध की तरंगें उठ रही थीं। उसने सोचा था कि वे यहाँ आयेंगे तो उन्हें राजपूत कुलकलंक अन्यायी दुराचारी दुरात्मा कायर कह कर उनका गर्व चूरचूर कर दूँगी। उसको विश्वास था कि यह अपमान उनसे न सहा जायगा और वे मुझे बलात् अपने काबू में लाना चाहेंगे। इस अंतिम समय के लिए उसने अपने हृदय को खूब मज़बूत और अपनी कटार को खूब तेज कर रखा था। उसने निश्चय कर लिया था कि इसका एक वार उन पर होगा दूसरा अपने कलेजे पर और इस प्रकार यह पापकांड समाप्त हो जायगा। लेकिन राणा की नम्रता उनकी करुणात्मक विवेचना और उनके विनीत भाव ने प्रभा को शांत कर दिया। आग पानी से बुझ जाती है। राणा कुछ देर वहाँ बैठे रहे फिर उठ कर चले गये।

  • 7: प्रेमचंद की कहानी "मृत्यु के पीछे" Premchand Story "Mrityu Ke Peechhe"
    24 min 19 sec

    लेकिन ईश्वरचंद्र को बहुत जल्द मालूम हो गया कि पत्र सम्पादन एक बहुत ही ईर्ष्यायुक्त कार्य है जो चित्त की समग्र वृत्तियों का अपहरण कर लेता है। उन्होंने इसे मनोरंजन का एक साधन और ख्यातिलाभ का एक यंत्र समझा था। उसके द्वारा जाति की कुछ सेवा करना चाहते थे। उससे द्रव्योपार्जन का विचार तक न किया था। लेकिन नौका में बैठ कर उन्हें अनुभव हुआ कि यात्र उतनी सुखद नहीं है जितनी समझी थी। लेखों के संशोधन परिवर्धन और परिवर्तन लेखकगण से पत्रव्यवहार और चित्ताकर्षक विषयों की खोज और सहयोगियों से आगे बढ़ जाने की चिंता में उन्हें क़ानून का अध्ययन करने का अवकाश ही न मिलता था। सुबह को किताबें खोल कर बैठते कि 100 पृष्ठ समाप्त किये बिना कदापि न उठूँगा किन्तु ज्यों ही डाक का पुलिंदा आ जाता वे अधीर हो कर उस पर टूट पड़ते किताब खुली की खुली रह जाती थी। बारबार संकल्प करते कि अब नियमित रूप से पुस्तकावलोकन करूँगा और एक निर्दिष्ट समय से अधिक सम्पादनकार्य में न लगाऊँगा। लेकिन पत्रिकाओं का बंडल सामने आते ही दिल काबू के बाहर हो जाता। पत्रों के नोकझोंक पत्रिकाओं के तर्कवितर्क आलोचनाप्रत्यालोचना कवियों के काव्यचमत्कार लेखकों का रचनाकौशल इत्यादि सभी बातें उन पर जादू का काम करतीं। इस पर छपाई की कठिनाइयाँ ग्राहकसंख्या बढ़ाने की चिंता और पत्रिका को सर्वांगसुंदर बनाने की आकांक्षा और भी प्राणों को संकट में डाले रहती थी। कभीकभी उन्हें खेद होता कि व्यर्थ ही इस झमेले में पड़ा यहाँ तक कि परीक्षा के दिन सिर पर आ गये और वे इसके लिए बिलकुल तैयार न थे। वे उसमें सम्मिलित न हुए। मन को समझाया कि अभी इस काम का श्रीगणेश है इसी कारण यह सब बाधाएँ उपस्थित होती हैं। अगले वर्ष यह काम एक सुव्यवस्थित रूप में आ जायगा और तब मैं निश्चिंत हो कर परीक्षा में बैठूँगा पास कर लेना क्या कठिन है। ऐसे बुद्धू पास हो जाते हैं जो एक सीधासा लेख भी नहीं लिख सकते तो क्या मैं ही रह जाऊँगा मानकी ने उनकी यह बातें सुनीं तो खूब दिल के फफोले फोड़े मैं तो जानती थी कि यह धुन तुम्हें मटियामेट कर देगी। इसलिए बारबार रोकती थी लेकिन तुमने मेरी एक न सुनी। आप तो डूबे ही मुझे भी ले डूबे। उनके पूज्य पिता भी बिगड़े हितैषियों ने भी समझाया अभी इस काम को कुछ दिनों के लिए स्थगित कर दो क़ानून में उत्तीर्ण हो कर निर्द्वंद्व देशोद्धार में प्रवृत्त हो जाना। लेकिन ईश्वरचंद्र एक बार मैदान में आ कर भागना निंद्य समझते थे। हाँ उन्होंने दृढ़ प्रतिज्ञा की कि दूसरे साल परीक्षा के लिए तनमन से तैयारी करूँगा। अतएव नये वर्ष के पदार्पण करते ही उन्होंने क़ानून की पुस्तकें संग्रह कीं पाठ्यक्रम निश्चित किया रोजनामचा लिखने लगे और अपने चंचल और बहानेबाज चित्त को चारों ओर से जकड़ा मगर चटपटे पदार्थों का आस्वादन करने के बाद सरल भोजन कब रुचिकर होता है क़ानून में वे घातें कहाँ वह उन्माद कहाँ वे चोटें कहाँ वह उत्तेजना कहाँ वह हलचल कहाँ बाबू साहब अब नित्य एक खोयी हुई दशा में रहते। जब तक अपने इच्छानुकूल काम करते थे चौबीस घंटों में घंटेदो घंटे क़ानून भी देख लिया करते थे। इस नशे ने मानसिक शक्तियों को शिथिल कर दिया। स्नायु निर्जीव हो गये। उन्हें ज्ञात होने लगा कि अब तैं क़ानून के लायक़ नहीं रहा और इस ज्ञान ने क़ानून के प्रति उदासीनता का रूप धारण किया। मन में संतोषवृत्ति का प्रादुर्भाव हुआ। प्रारब्ध और पूर्वसंस्कार के सिद्धांतों की शरण लेने लगे।

  • 8: प्रेमचंद की कहानी "पाप का अग्निकुंड" Premchand Story "Paap Ka Agnikund"
    23 min 35 sec

    यह कहतेकहते पिता जी के प्राण निकल गये। मैं उसी दिन से तलवार को कपड़ों में छिपाये उस नौजवान राजपूत की तलाश में घूमने लगी। वर्षों बीत गये। मैं कभी बस्तियों में जाती कभी पहाड़ोंजंगलों की खाक छानती पर उस नौजवान का कहीं पता न मिलता। एक दिन मैं बैठी हुई अपने फूटे भाग पर रो रही थी कि वही नौजवान आदमी आता हुआ दिखाई दिया। मुझे देखकर उसने पूछा तू कौन है मैंने कहा मैं दुखिया ब्राह्मणी हूँ आप मुझ पर दया कीजिए और मुझे कुछ खाने को दीजिए। राजपूत ने कहा अच्छा मेरे साथ आ मैं उठ खड़ी हुई। वह आदमी बेसुध था। मैंने बिजली की तरह लपक कर कपड़ों में से तलवार निकाली और उसके सीने में भोंक दी। इतने में कई आदमी आते दिखायी पड़े। मैं तलवार छोड़कर भागी। तीन वर्ष तक पहाड़ों और जंगलों में छिपी रही। बारबार जी में आया कि कहीं डूब मरूँ पर जान बड़ी प्यारी होती है। न जाने क्याक्या मुसीबतें और कठिनाइयाँ भोगनी हैं जिनको भोगने को अभी तक जीती हूँ। अंत में जब जंगल में रहतेरहते जी उकता गया तो जोधपुर चली आयी। यहाँ आपकी दयालुता की चर्चा सुनी। आपकी सेवा में आ पहुँची और तब से आपकी कृपा से मैं आराम से जीवन बिता रही हूँ। यही मेरी रामकहानी है।राजनंदिनी ने लम्बी साँस ले कर कहादुनिया में कैसेकैसे लोग भरे हुए हैं। खैर तुम्हारी तलवार ने उसका काम तो तमाम कर दियाब्रजविलासिनीकहाँ बहन वह बच गया जखम ओछा पड़ा था। उसी शक्ल के एक नौजवान राजपूत को मैंने जंगल में शिकार खेलते देखा था। नहीं मालूम वह था या और कोई शक्ल बिलकुल मिलती थी।

  • 9: प्रेमचंद की कहानी "आभूषण" Premchand Story "Abhooshan"
    42 min 3 sec

    मगर मंगला की केवल अपनी रूपहीनता ही का रोना न था। शीतला का अनुपम रूपलालित्य भी उसकी कामनाओं का बाधक था बल्कि यह उसकी आशालताओं पर पड़नेवाला तुषार था। मंगला सुन्दरी न सही पर पति पर जान देती थी। जो अपने को चाहे उससे हम विमुख नहीं हो सकते। प्रेम की शक्ति अपार है पर शीतला की मूर्ति सुरेश के हृदयद्वार पर बैठी हुई मंगला को अंदर न जाने देती थी चाहे वह कितना ही वेष बदल कर आवे। सुरेश इस मूर्ति को हटाने की चेष्टा करते थे उसे बलात् निकाल देना चाहते थे किंतु सौंदर्य का आधिपत्य धन के आधिपत्य से कम दुर्निवार नहीं होता। जिस दिन शीतला इस घर में मंगला का मुख देखने आयी थी उसी दिन सुरेश की आँखों ने उसकी मनोहर छवि की एक झलक देख ली थी। वह एक झलक मानो एक क्षणिक क्रिया थी जिसने एक ही धावे में समस्त हृदयराज्य को जीत लिया उस पर अपना आधिपत्य जमा लिया।सुरेश एकांत में बैठे हुए शीतला के चित्र को मंगला से मिलाते यह निश्चय करने के लिए कि उनमें क्या अंतर है एक क्यों मन को खींचती है दूसरी क्यों उसे हटाती है पर उसके मन का यह खिंचाव केवल एक चित्रकार या कवि का रसास्वादनमात्र था। वह पवित्र और वासनाओं से रहित था। वह मूर्ति केवल उसके मनोरंजन की सामग्रीमात्र थी। यह अपने मन को बहुत समझाते संकल्प करते कि अब मंगला को प्रसन्न रखूँगा। यदि वह सुन्दर नहीं है तो उसका क्या दोष पर उनका यह सब प्रयास मंगला के सम्मुख जाते ही विफल हो जाता था। वह बड़ी सूक्ष्म दृष्टि से मंगला के मन के बदलते हुए भावों को देखते थे पर एक पक्षाघातपीड़ित मनुष्य की भाँति घी के घड़े को लुढ़कते देख कर भी रोकने का कोई उपाय न कर सकते थे। परिणाम क्या होगा यह सोचने का उन्हें साहस ही न होता था। पर जब मंगला ने अंत को बातबात में उनकी तीव्र आलोचना करना शुरू कर दिया वह उनसे उच्छृङ्खलता का व्यवहार करने लगी तो उसके प्रति उनका वह उतना सौहार्द भी विलुप्त हो गया घर में आनाजाना छोड़ दिया।

  • 10: प्रेमचंद की कहानी "जुगनू की चमक" Premchand Story "Jugnu Ki Chamak"
    23 min 57 sec

    प्रातःकाल चुनार के दुर्ग में प्रत्येक मनुष्य अचम्भित और व्याकुल था। संतरी चौकीदार और लौंडियाँ सब सिर नीचे किये दुर्ग के स्वामी के सामने उपस्थित थे। अन्वेषण हो रहा था परन्तु कुछ पता न चलता था।उधर रानी बनारस पहुँची। परन्तु वहाँ पहले से ही पुलिस और सेना का जाल बिछा हुआ था। नगर के नाके बन्द थे। रानी का पता लगानेवाले के लिए एक बहुमूल्य पारितोषिक की सूचना दी गयी थी।बन्दीगृह से निकल कर रानी को ज्ञात हो गया कि वह और दृढ़ कारागार में है। दुर्ग में प्रत्येक मनुष्य उसका आज्ञाकारी था। दुर्ग का स्वामी भी उसे सम्मान की दृष्टि से देखता था। किंतु आज स्वतंत्र हो कर भी उसके ओंठ बन्द थे। उसे सभी स्थानों में शत्रु देख पड़ते थे। पंखरहित पक्षी को पिंजरे के कोने में ही सुख है।पुलिस के अफसर प्रत्येक आनेजानेवालों को ध्यान से देखते थे किंतु उस भिखारिनी की ओर किसी का ध्यान नहीं जाता था जो एक फटी हुई साड़ी पहने यात्रियों के पीछेपीछे धीरेधीरे सिर झुकाये गंगा की ओर चली आ रही है। न वह चौंकती है न हिचकती है न घबराती है। इस भिखारिनी की नसों में रानी का रक्त है।यहाँ से भिखारिनी ने अयोध्या की राह ली। वह दिन भर विकट मार्गों में चलती और रात को किसी सुनसान स्थान पर लेट रहती थी। मुख पीला पड़ गया था। पैरों में छाले थे। फूलसा बदन कुम्हला गया था।वह प्रायः गाँवों में लाहौर की रानी के चरचे सुनती। कभीकभी पुलिस के आदमी भी उसे रानी की टोह में दत्तचित्त देख पड़ते। उन्हें देखते ही भिखारिनी के हृदय में सोयी हुई रानी जाग उठती। वह आँखें उठा कर उन्हें घृणादृष्टि से देखती और शोक तथा क्रोध से उसकी आँखें जलने लगतीं। एक दिन अयोध्या के समीप पहुँच कर रानी एक वृक्ष के नीचे बैठी हुई थी। उसने कमर से कटार निकाल कर सामने रख दी थी। वह सोच रही थी कि कहाँ जाऊँ मेरी यात्र का अंत कहाँ है क्या इस संसार में अब मेरे लिए कहीं ठिकाना नहीं है वहाँ से थोड़ी दूर पर आमों का एक बहुत बड़ा बाग़ था। उसमें बड़ेबड़े डेरे और तम्बू गड़े हुए थे। कई एक संतरी चमकीली वर्दियाँ पहने टहल रहे थे कई घोड़े बँधे हुए थे। रानी ने इस राजसी ठाटबाट को शोक की दृष्टि से देखा। एक बार वह भी काश्मीर गयी थी। उसका पड़ाव इससे कहीं बढ़ गया था।

  • 11: प्रेमचंद की कहानी "गृह दाह" Premchand Story "Grih Daah"
    38 min 13 sec

    सौत का पुत्र विमाता की आँखों में क्यों इतना खटकता है इसका निर्णय आज तक किसी मनोभाव के पंडित ने नहीं किया। हम किस गिनती में हैं। देवप्रिया जब तक गर्भिणी न हुई वह सत्यप्रकाश से कभीकभी बातें करती कहानियाँ सुनातीं किंतु गर्भिणी होते ही उसका व्यवहार कठोर हो गया और प्रसवकाल ज्योंज्यों निकट आता था उसकी कठोरता बढ़ती ही जाती थी। जिस दिन उसकी गोद में एक चाँदसे बच्चे का आगमन हुआ सत्यप्रकाश खूब उछलाकूदा और सौरगृह में दौड़ा हुआ बच्चे को देखने लगा। बच्चा देवप्रिया की गोद में सो रहा था। सत्यप्रकाश ने बड़ी उत्सुकता से बच्चे को विमाता की गोद से उठाना चाहा कि सहसा देवप्रिया ने सरोष स्वर में कहाखबरदार इसे मत छूना नहीं तो कान पकड़ कर उखाड़ लूँगी बालक उल्टे पाँव लौट आया और कोठे की छत पर जा कर खूब रोया। कितना सुन्दर बच्चा है मैं उसे गोद में ले कर बैठता तो कैसा मजा आता मैं उसे गिराता थोड़े ही फिर इन्होंने क्यों मुझे झिड़क दिया भोला बालक क्या जानता था कि इस झिड़की का कारण माता की सावधानी नहीं कुछ और ही है।एक दिन शिशु सो रहा था। उसका नाम ज्ञानप्रकाश रखा गया था। देवप्रिया स्नानागार में थी। सत्यप्रकाश चुपके से आया और बच्चे का ओढ़ना हटा कर उसे अनुरागमय नेत्रों से देखने लगा। उसका जी कितना चाहा कि उसे गोद में ले कर प्यार करूँ पर डर के मारे उसने उसे उठाया नहीं केवल उसके कपोलों को चूमने लगा। इतने में देवप्रिया निकल आयी। सत्यप्रकाश को बच्चे को चूमते देख कर आग हो गयी। दूर ही से डाँटा हट जा वहाँ से सत्यप्रकाश माता को दीननेत्रों से देखता हुआ बाहर निकल आया संध्या समय उसके पिता ने पूछातुम लल्ला को क्यों रुलाया करते होसत्य.मैं तो उसे कभी नहीं रुलाता। अम्माँ खिलाने को नहीं देतीं।देव.झूठ बोलते हो। आज तुमने बच्चे को चुटकी काटी।सत्य.जी नहीं मैं तो उसकी मुच्छियाँ ले रहा था।देव.झूठ बोलता है सत्य.मैं झूठ नहीं बोलता।देवप्रकाश को क्रोध आ गया। लड़के को दोतीन तमाचे लगाये। पहली बार यह ताड़ना मिली और निरपराध इसने उसके जीवन की कायापलट कर दी।

  • 12: प्रेमचंद की कहानी "धोखा" Premchand Story "Dhokha"
    19 min 39 sec

    प्रभा राजा हरिश्चंद्र के नवीन विचारों की चर्चा सुन कर इस संबंध से बहुत संतुष्ट न थी। पर जब से उसने इस प्रेममय युवा योगी का गाना सुना था तब से तो वह उसी के ध्यान में डूबी रहती। उमा उसकी सहेली थी। इन दोनों के बीच कोई परदा न था परंतु इस भेद को प्रभा ने उससे भी गुप्त रखा। उमा उसके स्वभाव से परिचित थी ताड़ गयी। परंतु उसने उपदेश करके इस अग्नि को भड़काना उचित न समझा। उसने सोचा कि थोड़े दिनों में यह अग्नि आप से आप शांत हो जायगी। ऐसी लालसाओं का अंत प्रायः इसी तरह हो जाया करता है किंतु उसका अनुमान ग़लत सिद्ध हुआ। योगी की वह मोहिनी मूर्ति कभी प्रभा की आँखों से न उतरती उसका मधुर राग प्रतिक्षण उसके कानों में गूँजा करता। उसी कुण्ड के किनारे वह सिर झुकाये सारे दिन बैठी रहती। कल्पना में वही मधुर हृदयग्राही राग सुनती और वही योगी की मनोहारिणी मूर्ति देखती। कभीकभी उसे ऐसा भास होता कि बाहर से यह आवाज़ आ रही है। वह चौंक पड़ती और तृष्णा से प्रेरित हो कर वाटिका की चहारदीवारी तक जाती और वहाँ से निराश हो कर लौट आती। फिर आप ही विचार करतीयह मेरी क्या दशा है मुझे यह क्या हो गया है मैं हिंदू कन्या हूँ मातापिता जिसे सौंप दें उसकी दासी बन कर रहना धर्म है। मुझे तनमन से उसकी सेवा करनी चाहिए। किसी अन्य पुरुष का ध्यान तक मन में लाना मेरे लिए पाप है आह यह कलुषित हृदय ले कर मैं किस मुँह से पति के पास जाऊँगी इन कानों से क्योंकर प्रणय की बातें सुन सकूँगी जो मेरे लिए व्यंग्य से भी अधिक कर्णकटु होंगी इन पापी नेत्रों से वह प्यारीप्यारी चितवन कैसे देख सकूँगी जो मेरे लिए वज्र से भी हृदयभेदी होगी इस गले में वे मृदुल प्रेमबाहु पड़ेंगे जो लौहदंड से भी अधिक भारी और कठोर होंगे। प्यारे तुम मेरे हृदय मंदिर से निकल जाओ। यह स्थान तुम्हारे योग्य नहीं। मेरा वश होता तो तुम्हें हृदय की सेज पर सुलाती परंतु मैं धर्म की रस्सियों में बँधी हूँ।इस तरह एक महीना बीत गया। ब्याह के दिन निकट आते जाते थे और प्रभा का कमलसा मुख कुम्हलाया जाता था। कभीकभी विरह वेदना एवं विचारविप्लव से व्याकुल होकर उसका चित्त चाहता कि सतीकुण्ड की गोद में शांति लूँ किंतु रावसाहब इस शोक में जान ही दे देंगे यह विचार कर वह रुक जाती। सोचती मैं उनकी जीवन सर्वस्व हूँ मुझ अभागिनी को उन्होंने किस लाड़प्यार से पाला है मैं ही उनके जीवन का आधार और अंतकाल की आशा हूँ। नहीं यों प्राण दे कर उनका आशाओं की हत्या न करूँगी। मेरे हृदय पर चाहे जो बीते उन्हें न कुढ़ाऊँगी प्रभा का एक योगी गवैये के पीछे उन्मत्त हो जाना कुछ शोभा नहीं देता। योगी का गान तानसेन के गानों से भी अधिक मनोहर क्यों न हो पर एक राजकुमारी का उसके हाथों बिक जाना हृदय की दुर्बलता प्रकट करता है रावसाहब के दरबार में विद्या की शौर्य की और वीरता से प्राण हवन करने की चर्चा न थी। यहाँ तो रातदिन रागरंग की धूम रहती थी। यहाँ इसी शास्त्र के आचार्य प्रतिष्ठा के मसनद पर विराजित थे और उन्हीं पर प्रशंसा के बहुमूल्य रत्न लुटाये जाते थे। प्रभा ने प्रारंभ ही से इसी जलवायु का सेवन किया था और उस पर इनका गाढ़ा रंग चढ़ गया था। ऐसी अवस्था में उसकी गानलिप्सा ने यदि भीषण रूप धारण कर लिया तो आश्चर्य ही क्या है

  • 13: प्रेमचंद की कहानी "अमावस्या की रात्रि" Premchand Story "Amavasya Ki Raatri"
    22 min 33 sec

    पंडित देवदत्त उठे लेकिन हृदय ठंडा हो रहा था। शंका होने लगी कि कहीं भाग्य हरे बाग़ न दिखा रहा हो। कौन जाने वह पुर्जा जल कर राख हो गया या नहीं। यदि न मिला तो रुपये कौन देता है। शोक कि दूध का प्याला सामने आ कर हाथ से छूट जाता है हे भगवान् वह पत्री मिल जाय। हमने अनेक कष्ट पाये हैं अब हम पर दया करो। इस प्रकार आशा और निराशा की दशा में देवदत्त भीतर गये और दीया के टिमटिमाते हुए प्रकाश में बचे हुए पत्रों को उलटपुलट कर देखने लगे। वे उछल पड़े और उमंग में भरे हुए पागलों की भाँति आनंद की अवस्था में दोतीन बार कूदे। तब दौड़ कर गिरिजा को गले से लगा लिया और बोलेप्यारी यदि ईश्वर ने चाहा तो तू अब बच जायगी। उन्मत्तता में उन्हें एकदम यह नहीं जान पड़ा कि गिरिजा अब नहीं है केवल उसकी लोथ है।

  • 14: प्रेमचंद की कहानी "चकमा" Premchand Story "Chakma"
    12 min 49 sec

    सेठ चंदूमल की दूकान चाँदनी चौक दिल्ली में थी। मुफस्सिल में भी कई दूकानें थीं। जब शहर काँग्रेस कमेटी ने उनसे बिलायती कपड़े की ख़रीद और बिक्री के विषय में प्रतीक्षा करानी चाही तो उन्होंने कुछ ध्यान न दिया। बाज़ार के कई आढ़तियों ने उनकी देखादेखी प्रतिज्ञापत्र पर हस्ताक्षर करने से इनकार कर दिया। चंदूमल को जो नेतृत्व कभी न नसीब हुआ था वह इस अवसर पर बिना हाथपैर हिलाये ही मिल गया। वे सरकार के खैरख्वाह थे। साहब बहादुरों को समयसमय पर डालियाँ नजर देते थे। पुलिस से भी घनिष्ठता थी। म्युनिसिपैलिटी के सदस्य भी थे। काँग्रेस के व्यापारिक कार्यक्रम का विरोध करके अमनसभा के कोषाध्यक्ष बन बैठे। यह इसी खैरख्वाही की बरकत थी। युवराज का स्वागत करने के लिए अधिकारियों ने उनसे पचीस हज़ार के कपड़े ख़रीदे। ऐसा सामर्थी पुरुष काँग्रेस से क्यों डरे काँग्रेस है किस खेत की मूली पुलिसवालों ने भी बढ़ावा दिया मुआहिदे पर हरगिज दस्तखत न कीजिएगा। देखें ये लोग क्या करते हैं। एकएक को जेल न भिजवा दिया तो कहिएगा। लाला जी के हौसले बढ़े। उन्होंने काँग्रेस से लड़ने की ठान ली। उसी के फलस्वरूप तीन महीनों से उनकी दूकान पर प्रातःकाल से 9 बजे रात तक पहरा रहता था। पुलिसदलों ने उनकी दूकान पर वालंटियरों को कई बार गालियाँ दीं कई बार पीटा खुद सेठ जी ने भी कई बार उन पर बाण चलाये परंतु पहरेवाले किसी तरह न टलते थे। बल्कि इन अत्याचारों के कारण चंदूमल का बाज़ार और भी गिरता जाता। मुफस्सिल की दूकानों से मुनीम लोग और भी दुराशाजनक समाचार भेजते रहते थे। कठिन समस्या थी। इस संकट से निकलने का कोई उपाय न था। वे देखते थे कि जिन लोगों ने प्रतिज्ञापत्र पर हस्ताक्षर कर दिये हैं वे चोरीछिपे कुछनकुछ विदेशी माल लेते हैं। उनकी दूकानों पर पहरा नहीं बैठता। यह सारी विपत्ति मेरे ही सिर पर है।

  • 15: प्रेमचंद की कहानी "पछतावा" Premchand Story "Pachhtawa"
    27 min 36 sec

    इस घटना के तीसरे दिन चाँदपार के असामियों पर बकाया लगान की नालिश हुई। सम्मन आये। घरघर उदासी छा गयी। सम्मन क्या थे यम के दूत थे। देवीदेवताओं की मिन्नतें होने लगीं। स्त्रियाँ अपने घरवालों को कोसने लगीं और पुरुष अपने भाग्य को। नियत तारीख के दिन गाँव के गँवार कंधे पर लोटाडोर रखे और अँगोछे में चबेना बाँधे कचहरी को चले। सैकड़ों स्त्रियाँ और बालक रोते हुए उनके पीछेपीछे जाते थे। मानो अब वे फिर उनसे न मिलेंगे।पंडित दुर्गानाथ के तीन दिन कठिन परीक्षा के थे। एक ओर कुँवर साहब की प्रभावशालिनी बातें दूसरी ओर किसानों की हायहाय परन्तु विचारसागर में तीन दिन निमग्न रहने के पश्चात् उन्हें धरती का सहारा मिल गया। उनकी आत्मा ने कहायह पहली परीक्षा है। यदि इसमें अनुत्तीर्ण रहे तो फिर आत्मिक दुर्बलता ही हाथ रह जायगी। निदान निश्चय हो गया कि मैं अपने लाभ के लिए इतने ग़रीबों को हानि न पहुँचाऊँगा।दस बजे दिन का समय था। न्यायालय के सामने मेलासा लगा हुआ था। जहाँतहाँ श्यामवस्त्रच्छादित देवताओं की पूजा हो रही थी। चाँदपार के किसान झुंड के झुंड एक पेड़ के नीचे आकर बैठे। उनसे कुछ दूर पर कुँवर साहब के मुख्तारआम सिपाहियों और गवाहों की भीड़ थी। ये लोग अत्यंत विनोद में थे। जिस प्रकार मछलियाँ पानी में पहुँच कर किलोलें करती हैं उसी भाँति ये लोग भी आनंद में चूर थे। कोई पान खा रहा था। कोई हलवाई की दूकान से पूरियों की पत्तल लिये चला आता था। उधर बेचारे किसान पेड़ के नीचे चुपचाप उदास बैठे थे कि आज न जाने क्या होगा कौन आफत आयेगी भगवान का भरोसा है। मुकदमे की पेशी हुई। कुँवर साहब की ओर के गवाह गवाही देने लगे कि असामी बड़े सरकश हैं। जब लगान माँगा जाता है तो लड़ाईझगड़े पर तैयार हो जाते हैं। अबकी इन्होंने एक कौड़ी भी नहीं दी।कादिर खाँ ने रो कर अपने सिर की चोट दिखायी। सबसे पीछे पंडित दुर्गानाथ की पुकार हुई। उन्हीं के बयान पर निपटारा होना था। वकील साहब ने उन्हें खूब तोते की भाँति पढ़ा रखा था किंतु उनके मुख से पहला वाक्य निकला ही था कि मैजिस्ट्रेट ने उनकी ओर तीव्र दृष्टि से देखा। वकील साहब बगलें झाँकने लगे। मुख्तारआम ने उनकी ओर घूर कर देखा। अहलमद पेशकार आदि सबके सब उनकी ओर आश्चर्य की दृष्टि से देखने लगे।

  • 16: प्रेमचंद की कहानी "आप बीती" Premchand Story "Aap Beeti"
    19 min 6 sec

    कविताएँ तो मेरी समझ में खाक न आयीं पर मैंने तारीफों के पुल बाँध दिये। झूमझूम कर वाह वाह करने लगा जैसे मुझसे बढ़ कर कोई काव्य रसिक संसार में न होगा। संध्या को हम रामलीला देखने गये। लौटकर उन्हें फिर भोजन कराया। अब उन्होंने अपना वृत्तांत सुनाना शुरू किया। इस समय वह अपनी पत्नी को लेने के लिए कानपुर जा रहे हैं। उसका मकान कानपुर ही में है। उनका विचार है कि एक मासिक पत्रिका निकालें। उनकी कविताओं के लिए एक प्रकाशक 1000 रु. देता है पर उनकी इच्छा तो यह है कि उन्हें पहले पत्रिका में क्रमशः निकाल कर फिर अपनी ही लागत से पुस्तकाकार छपवायें। कानपुर में उनकी जमींदारी भी है पर वह साहित्यिक जीवन व्यतीत करना चाहते हैं। जमींदारी से उन्हें घृणा है। उनकी स्त्री एक कन्याविद्यालय में प्रधानाध्यापिका है। आधी रात तक बातें होती रहीं। अब उनमें से अधिकांश याद नहीं हैं। हाँ इतना याद है कि हम दोनों ने मिल कर अपने भावी जीवन का एक कार्यक्रम तैयार कर लिया था। मैं अपने भाग्य को सराहता था कि भगवान् ने बैठेबैठाये ऐसा सच्चा मित्र भेज दिया। आधी रात बीत गयी तो सोये। उन्हें दूसरे दिन 8 बजे की गाड़ी से जाना था। मैं जब सो कर उठा तब 7 बज चुके थे। उमापति जी हाथमुँह धोये तैयार बैठे थे। बोलेअब आज्ञा दीजिए लौटते समय इधर ही से जाऊँगा। इस समय आपको कुछ कष्ट दे रहा हूँ। क्षमा कीजिएगा। मैं कल चला तो प्रातःकाल के 4 बजे थे। दो बजे रात से पड़ा जाग रहा था कि कहीं नींद न आ जाये। बल्कि यों समझिए कि सारी रात जागना पड़ा क्योंकि चलने की चिंता लगी हुई थी। गाड़ी में बैठा तो झपकियाँ आने लगीं। कोट उतार कर रख दिया और लेट गया तुरंत नींद आ गयी। मुग़लसराय में नींद खुली। कोट गायब नीचेऊपर चारों तरफ देखा कहीं पता नहीं। समझ गया किसी महाशय ने उड़ा दिया। सोने की सज़ा मिल गयी। कोट में 50 रु. खर्च के लिए रखे थे वे भी उसके साथ उड़ गये। आप मुझे 50 रु. दें। पत्नी को मैके से लाना है कुछ कपड़े वगैरह ले जाने पड़ेंगे। फिर ससुराल में सैकड़ों तरह के नेगजोग लगने हैं। कदमकदम पर रुपये खर्च होते हैं। न खर्च कीजिए तो हँसी हो। मैं इधर से लौटूँगा तो देता जाऊँगा।मैं बड़े संकोच में पड़ गया। एक बार पहले भी धोखा खा चुका था। तुरंत भ्रम हुआ कहीं अबकी फिर वही दशा न हो। लेकिन शीघ्र ही मन के इस अविश्वास पर लज्जित हुआ। संसार में सभी मनुष्य एकसे नहीं होते। यह बेचारे इतने सज्जन हैं। इस समय संकट में पड़ गये हैं। और मिथ्या संदेह में पड़ा हुआ हूँ। घर में आकर पत्नी से कहातुम्हारे पास कुछ रुपये तो नहीं हैं

  • 17: प्रेमचंद की कहानी "राज्य भक्ति" Premchand Story "Rajy Bhakti"
    37 min 40 sec

    बादशाह की आदत थी कि वह बहुधा अपनी अँग्रेजी टोपी हाथ में ले कर उसे उँगली पर नचाने लगते थे। रोजरोज नचातेनचाते टोपी में उँगली का घर हो गया था। इस समय जो उन्होंने टोपी उठा कर उँगली पर रखी तो टोपी में छेद हो गया। बादशाह का ध्यान अँग्रेजों की तरफ था। बख्तावरसिंह बादशाह के मुँह से ऐसी बात सुन कर कबाब हुए जाते थे। उक्त कथन में कितनी खुशामद कितनी नीचता और अवध की प्रजा तथा राजों का कितना अपमान था और लोग तो टोपी का छिद्र देख कर हँसने लगे पर राजा बख्तावरसिंह के मुँह से अनायास निकल गयाहुज़ूर ताज में सुराख हो गया।राजा साहब के शत्रुओं ने तुरंत कानों पर उँगलियाँ रख लीं। बादशाह को भी ऐसा मालूम हुआ कि राजा ने मुझ पर व्यंग्य किया। उनके तेवर बदल गये। अँग्रेजों और अन्य सभासदों ने इस प्रकार कानाफूसी शुरू की जैसे कोई महान् अनर्थ हो गया। राजा साहब के मुँह से अनर्गल शब्द अवश्य निकले। इसमें कोई संदेह नहीं था। संभव है उन्होंने जानबूझ कर व्यंग्य न किया हो उनके दुःखी हृदय ने साधारण चेतावनी को यह तीव्र रूप दे दिया पर बात बिगड़ ज़रूर गयी थी। अब उनके शत्रु उन्हें कुचलने के ऐसे सुन्दर अवसर को हाथ से क्यों जाने देतेराजा साहब ने सभा का यह रंग देखा तो ख़ून सर्द हो गया। समझ गये आज शत्रुओं के पंजे में फँस गया और ऐसा बुरा फँसा कि भगवान् ही निकालें तो निकल सकता हूँ।

  • 18: प्रेमचंद की कहानी "अधिकार चिंता" Premchand Story "Adhikar Chinta"
    9 min 40 sec

    इतना शांतिप्रिय होने पर भी टामी के शत्रुओं की संख्या दिनोंदिन बढ़ती जाती थी। उसके बराबरवाले उससे इसलिए जलते कि वह इतना मोटाताजा हो कर इतना भीरु क्यों है। बाजारी दल इसलिए जलता कि टामी के मारे घूरों पर की हड्डियाँ भी न बचने पाती थीं। वह घड़ीरात रहे उठता और हलवाइयों की दूकानों के सामने के दोने और पत्तल कसाईखाने के सामने की हड्डियाँ और छीछड़े चबा डालता। अतएव इतने शत्रुओं के बीच में रह कर टामी का जीवन संकटमय होता जाता था। महीनों बीत जाते और पेट भर भोजन न मिलता। दोतीन बार उसे मनमाने भोजन करने की ऐसी प्रबल उत्कंठा हुई कि उसने संदिग्ध साधनों द्वारा उसको पूरा करने की चेष्टा की पर जब परिणाम आशा के प्रतिकूल हुआ और स्वादिष्ट पदार्थों के बदले अरुचिकर दुर्ग्राह्य वस्तुएँ भरपेट खाने को मिलींजिससे पेट के बदले कई दिन तक पीठ में विषम वेदना होती रहीतो उसने विवश हो कर फिर सन्मार्ग का आश्रय लिया। पर डंडों से पेट चाहे भर गया हो वह उत्कंठा शांत न हुई। वह किसी ऐसी जगह जाना चाहता था जहाँ खूब शिकार मिले खरगोश हिरन भेड़ों के बच्चे मैदानों में विचर रहे हों और उनका कोई मालिक न हो जहाँ किसी प्रतिद्वंद्वी की गंध तक न हो आराम करने को सघन वृक्षों की छाया हो पीने को नदी का पवित्र जल। वहाँ मनमाना शिकार करूँ खाऊँ और मीठी नींद सोऊँ। वहाँ चारों ओर मेरी धाक बैठ जाय सब पर ऐसा रोब छा जाय कि मुझी को अपना राजा समझने लगें और धीरेधीरे मेरा ऐसा सिक्का बैठ जाय कि किसी द्वेषी को वहाँ पैर रखने का साहस ही न हो।

  • 19: प्रेमचंद का प्रहसन "दुराशा" Premchand Prahasan "Duraasha"
    24 min 21 sec

    ज्योतिस्वरूप आते हैं ज्योति.सेवक भी उपस्थित हो गया। देर तो नहीं हुई डबल मार्च करता आया हूँ।दयाशंकर नहीं अभी तो देर नहीं हुई। शायद आपकी भोजनाभिलाषा आपको समय से पहले खींच लायी।आनंदमोहन आपका परिचय कराइए। मुझे आपसे देखादेखी नहीं है।दयाशंकर अँगरेजी में मेरे सुदूर के सम्बन्ध में साले होते हैं। एक वकील के मुहर्रिर हैं। जबरदस्ती नाता जोड़ रहे हैं। सेवती ने निमंत्रण दिया होगा मुझे कुछ भी ज्ञात नहीं। ये अँगरेजी नहीं जानते।आनंदमोहन इतना तो अच्छा है। अँगरेजी में ही बातें करेंगे।दयाशंकर सारा मजा किरकिरा हो गया। कुमानुषों के साथ बैठ कर खाना फोड़े के आप्रेशन के बराबर है।आनंदमोहन किसी उपाय से इन्हें विदा कर देना चाहिए।दयाशंकर मुझे तो चिंता यह है कि अब संसार के कार्यकर्त्ताओं में हमारी और तुम्हारी गणना ही न होगी। पाला इसके हाथ रहेगा।आनंदमोहन खैर ऊपर चलो। आनंद तो जब आवे कि इन महाशय को आधे पेट ही उठना पड़े।तीनों आदमी ऊपर जाते हैं दयाशंकर अरे कमरे में भी रोशनी नहीं घुप अँधेरा है। लाला ज्योतिस्वरूप देखिएगा कहीं ठोकर खा कर न गिर पड़ियेगा।आनंदमोहन अरे गजब...अलमारी से टकरा कर धम् से गिर पड़ता है।दयाशंकर लाला ज्योतिस्वरूप क्या आप गिरे चोट तो नहीं आयीआनंदमोहन अजी मैं गिर पड़ा। कमर टूट गयी। तुमने अच्छी दावत की।दयाशंकर भले आदमी सैकड़ों बार तो आये हो। मालूम नहीं था कि सामने आलमारी रखी हुई है। क्या ज़्यादा चोट लगीआनंदमोहन भीतर जाओ। थालियाँ लाओ और भाभी जी से कह देना कि थोड़ासा तेल गर्म कर लें। मालिश कर लूँगा।

  • 1: प्रेमचंद की कहानी "जेल" Premchand Story "Jail"
    26 min 49 sec

    मृदुला ने देखा, क्षमा की आँखें डबडबायी हुई थीं। ढाढ़स देती हुई बोलीज़रूर मिलूँगी दीदी मुझसे तो खुद न रहा जायगा। भान को भी लाऊँगी। कहूँगीचल, तेरी मौसी आयी है, तुझे बुला रही है। दौड़ा हुआ आयेगा। अब तुमसे आज कहती हूँ बहन, मुझे यहाँ किसी की याद थी, तो भान की। बेचारा रोया करता होगा। मुझे देख कर रूठ जायगा। तुम कहाँ चली गयीं मुझे छोड़ कर क्यों चली गयीं जाओ, मैं तुमसे नहीं बोलता, तुम मेरे घर से निकल जाओ। बड़ा शैतान है बहन छनभर निचला नहीं बैठता, सबेरे उठते ही गाता है‘झन्ना ऊँता लये अमाला’ ‘छोलाज का मन्दिर देल में है।’ जब एक झंडी कन्धे पर रख कर कहता है‘तालीछलाब पीनी हलाम है’ तो देखते ही बनता है। बाप को तो कहता हैतुम ग़ुलाम हो। वह एक अँगरेजी कम्पनी में हैं, बारबार इस्तीफा देने का विचार करके रह जाते हैं। लेकिन गुजरबसर के लिए कोई उद्यम करना ही पडे़गा। कैसे छोड़ें। वह तो छोड़ बैठे होते। तुमसे सच कहती हूँ, ग़ुलामी से उन्हें घृणा है, लेकिन मैं ही समझाती रहती हूँ। बेचारे कैसे दफ़्तर जाते होंगे, कैसे भान को सँभालते होंगे। सास जी के पास तो रहता ही नहीं। वह बेचारी बूढ़ी, उसके साथ कहाँकहाँ दौड़ें चाहती हैं कि मेरी गोद में दबक कर बैठा रहे। और भान को गोद से चिढ़ है। अम्माँ मुझ पर बहुत बिगडे़ंगी, बस यही डर लग रहा है। मुझे देखने एक बार भी नहीं आयीं। कल अदालत में बाबू जी मुझसे कहते थे, तुमसे बहुत खफा हैं। तीन दिन तक तो दानापानी छोड़े रहीं। इस छोकरी ने कुलमरजाद डुबा दी, ख़ानदान में दाग़ लगा दिया, कलमुँही, कुलच्छनी न जाने क्याक्या बकती रहीं। मैं उनकी बातों को बुरा नहीं मानती पुराने जमाने की हैं। उन्हें कोई चाहे कि आ कर हम लोगों में मिल जायँ, तो यह उसका अन्याय है। चल कर मनाना पड़ेगा। बड़ी मिन्नतों से मानेंगी। कल ही कथा होगी, देख लेना। ब्राह्मण खायेंगे। बिरादरी जमा होगी। जेल का प्रायश्चित्त तो करना ही पड़ेगा। तुम हमारे घर दोचार दिन रह कर तब जाना बहन मैं आ कर तुम्हें ले जाऊँगी।क्षमा आनन्द के इन प्रसंगों से वंचित है। वह विधवा है, अकेली है। जलियानवाला बाग़ में उसका सर्वस्व लुट चुका है, पति और पुत्र दोनों ही की आहुति जा चुकी है। अब कोई ऐसा नहीं, जिसे वह अपना कह सके। अभी उसका हृदय इतना विशाल नहीं हुआ है कि प्राणीमात्र को अपना समझ सके। इन दस बरसों से उसका व्यथित हृदय जाति सेवा में धैर्य और शांति खोज रहा है। जिन कारणों ने उसके बसे हुए घर को उजाड़ दिया, उसकी गोद सूनी कर दी, उन कारणों का अन्त करनेउनको मिटानेमें वह जीजान से लगी हुई थी। बड़ेसेबड़े बलिदान तो वह पहले ही कर चुकी थी। अब अपने हृदय के सिवाय उसके पास होम करने को और क्या रह गया था औरों के लिए जातिसेवा सभ्यता का एक संस्कार हो, या यशोपार्जन का एक साधन क्षमा के लिए तो यह तपस्या थी और वह नारीत्व की सारी शक्ति और श्रद्धा के साथ उसकी साधना में लगी हुई थी। लेकिन आकाश में उड़ने वाले पक्षी को भी तो अपने बसेरे की याद आती ही है। क्षमा के लिए वह आश्रय कहाँ था यही वह अवसर थे, जब क्षमा भी आत्मसमवेदना के लिए आकुल हो जाती थी। यहाँ मृदुला को पाकर वह अपने को धन्य मान रही थी पर यह छाँह भी इतनी जल्दी हट गयी क्षमा ने व्यथित कंठ से कहायहाँ से जा कर भूल जाओगी मृदुला। तुम्हारे लिए तो यह रेलगाड़ी का परिचय है और मेरे लिए तुम्हारे वादे उसी परिचय के वादे हैं। कभी भेंट हो जायगी तो या तो पहचानोगी ही नहीं, या जरा मुस्करा कर नमस्ते करती हुई अपनी राह चली जाओगी। यही दुनिया का दस्तूर है। अपने रोने से छुट्टी ही नहीं मिलती, दूसरों के लिए कोई क्योंकर रोये। तुम्हारे लिए तो मैं कुछ नहीं थी, मेरे लिए तुम बहुत अच्छी थीं। मगर अपने प्रियजनों में बैठ कर कभीकभी इस अभागिनी को ज़रूर याद कर लिया करना। भिखारी के लिए चुटकी भर आटा ही बहुत है।दूसरे दिन मैजिस्ट्रेट ने फैसला सुना दिया। मृदुला बरी हो गयी। संध्या समय वह सब बहनों से गले मिल कर, रो कररुला कर चली गयी, मानो मैके से विदा हुई हो।

  • 2: प्रेमचंद की कहानी "पत्नि से पति" Premchand Story "Patni Se Pati"
    27 min 29 sec

    दूसरे दिन प्रातःकाल कांग्रेस की तरफ से एक आम जलसा हुआ। मिस्टर सेठ ने विलायती टूथ पाउडर विलायती ब्रुश से दाँतों पर मला, विलायती साबुन से नहाया, विलायती चाय विलायती प्यालियों में पी, विलायती बिस्कुट विलायती मक्खन के साथ खाया, विलायती दूध पिया। फिर विलायती सूट धारण करके विलायती सिगार मुँह में दबा कर घर से निकले, और अपनी मोटर साइकिल पर बैठ फ्लावर शो देखने चले गये।गोदावरी को रात भर नींद नहीं आयी थी। दुराशा और पराजय की कठिन यंत्रणा किसी कोड़े की तरह उसके हृदय पर पड़ रही थी। ऐसा मालूम होता था कि उसके कंठ में कोई कड़वी चीज़ अटक गयी है। मिस्टर सेठ को अपने प्रभाव में लाने की उसने वह सब योजनाएँ कीं, जो एक रमणी कर सकती है पर उस भले आदमी पर उसके सारे हावभाव, मृदुमुस्कान और वाणीविलास का कोई असर न हुआ। खुद तो स्वदेशी वस्त्रों के व्यवहार करने पर क्या राजी होते, गोदावरी के लिए एक खद्दर की साड़ी लाने पर भी सहमत न हुए। यहाँ तक कि गोदावरी ने उनसे कभी कोई चीज़ माँगने की कसम खा ली।क्रोध और ग्लानि ने उसकी सद्भावना को इस तरह विकृत कर दिया जैसे कोई मैली वस्तु निर्मल जल को दूषित कर देती है। उसने सोचा, जब यह मेरी इतनीसी बात नहीं मान सकते, तब फिर मैं क्यों इनके इशारों पर चलूँ, क्यों इनकी इच्छाओं की लौंडी बनी रहूँ मैंने इनके हाथ कुछ अपनी आत्मा नहीं बेची है। अगर आज ये चोरी या गबन करें, तो क्या मैं सज़ा पाऊँगी उसकी सज़ा ये खुद झेलेंगे। उसका अपराध इनके ऊपर होगा। इन्हें अपने कर्म और वचन का अख्तियार है, मुझे अपने कर्म और वचन का अख्तियार। यह अपनी सरकार की ग़ुलामी करें, अँगरेजों की चौखट पर नाक रगड़ें, मुझे क्या गरज है कि उसमें उनका सहयोग करूँ। जिसमें आत्माभिमान नहीं, जिसने अपने को स्वार्थ के हाथों बेच दिया, उसके प्रति अगर मेरे मन में भक्ति न हो तो मेरा दोष नहीं। यह नौकर हैं या ग़ुलाम नौकरी और ग़ुलामी में अन्तर है। नौकर कुछ नियमों के अधीन अपना निर्दिष्ट काम करता है। वह नियम स्वामी और सेवक दोनों ही पर लागू होते हैं। स्वामी अगर अपमान करे, अपशब्द कहे तो नौकर उसको सहन करने के लिए मजबूर नहीं। ग़ुलाम के लिए कोई शर्त नहीं, उसकी दैहिक ग़ुलामी पीछे होती है, मानसिक ग़ुलामी पहले ही हो जाती है। सरकार ने इनसे कब कहा है कि देशी चीज़ें न ख़रीदो। सरकारी टिकटों तक पर यह शब्द लिखे होते हैं, ‘स्वदेशी चीज़ें ख़रीदो।’ इससे विदित है कि सरकार देशी चीजों का निषेध नहीं करती, फिर भी यह महाशय सुर्खरू बनने की फ़िक्र में सरकार से भी दो अंगुल आगे बढ़ना चाहते हैं

  • 3: प्रेमचंद की कहानी "शराब की दुकान" Premchand Story "Sharaab Ki Dukaan"
    35 min 52 sec

    मगर दर्शकों का समूह बढ़ता जाता था। अभी तक चारपाँच आदमी बेगम बैठे हुए कुल्हड़ पर कुल्हड़ चढ़ा रहे थे। एक मनचले आदमी ने जा कर उस बोतल को उठा लिया, जो उनके बीच में रखी हुई थी और उसे पटकना चाहता था कि चारों शराबी उठ खड़े हुए और उसे पीटने लगे। जयराम और उसके स्वयंसेवक तुरन्त वहाँ पहुँच गये और उसे बचाने की चेष्टा करने लगे कि चारों उसे छोड़ कर जयराम की तरफ लपके। दर्शकों ने देखा कि जयराम पर मार पड़ा चाहती है, तो कई आदमी झल्ला कर उन चारों शराबियों पर टूट पड़े। लातें, घूँसे और डंडे चलाने लगे। जयराम को इसका कुछ अवसर न मिलता था कि किसी को समझाये। दोनों हाथ फैलाये उन चारों के वारों से बच रहा था वह चारों भी आपे से बाहर हो कर दर्शकों पर डंडे चला रहे थे। जयराम दोनों तरफ से मार खाता था। शराबियों के वार भी उस पर पड़ते थे, तमाशाइयों के वार भी उसी पर पड़ते थे, पर वह उनके बीच से हटता न था। अगर वह इस वक्त अपनी जान बचा कर हट जाता, तो शराबियों की खैरियत न थी। इसका दोष कांग्रेस पर पड़ता। वह कांग्रेस को इस आक्षेप से बचाने के लिए अपने प्राण देने पर तैयार था। मिसेज सक्सेना को अपने ऊपर हँसने का मौक़ा वह न देना चाहता था। आखिर उसके सिर पर डंडा इस ज़ोर से पड़ा कि वह सिर पकड़ कर बैठ गया। आँखों के सामने तितलियाँ उड़ने लगीं। फिर उसे होश न रहा।

  • 4: प्रेमचंद की कहानी "मैकू" Premchand Story "Maikoo"
    9 min 9 sec

    कादिर और मैकू ताड़ीखाने के सामने पहुँचे, तो वहाँ कांग्रेस के वालंटियर झंडा लिये खड़े नजर आये। दरवाज़े के इधरउधर हजारों दर्शक खड़े थे। शाम का वक्त था। इस वक्त गली में पियक्कड़ों के सिवा और कोई न आता था। भले आदमी इधर से निकलते झिझकते। पियक्कड़ों की छोटीछोटी टोलियाँ आतीजाती रहती थीं। दोचार वेश्याएँ दूकान के सामने खड़ी नजर आती थीं। आज यह भीड़भाड़ देखकर मैकू ने कहाबड़ी भीड़ है बे, कोई दोतीन सौ आदमी होंगे।कादिर ने मुस्करा कर कहाभीड़ देख कर डर गये क्या यह सब हुर्र हो जायँगे, एक भी न टिकेगा। यह लोग तमाशा देखने आये हैं, लाठियाँ खाने नहीं आये हैं।मैकू ने संदेह के स्वर में कहापुलिस के सिपाही भी बैठे हैं। ठीकेदार ने तो कहा था, पुलिस न बोलेगी।कादिरहाँ बे, पुलिस न बोलेगी, तेरी नानी क्यों मरी जा रही है। पुलिस वहाँ बोलती है, जहाँ चार पैसे मिलते हैं या जहाँ कोई औरत का मामला होता है। ऐसी बेफजूल बातों में पुलिस नहीं पड़ती। पुलिस तो और शह दे रही है। ठीकेदार से साल में सैकड़ों रुपये मिलते हैं। पुलिस इस वक्त उसकी मदद न करेगी तो कब करेगी मैकूचलो, आज दस हमारे भी सीधे हुए। मुफ़्त में पियेंगे वह अलग, मगर सुनते हैं, कांग्रेसवालों में बड़ेबड़े मालदार लोग शरीक हैं। वह कहीं हम लोगों से कसर निकालें तो बुरा होगा।कादिरअबे, कोई कसरवसर नहीं निकालेगा, तेरी जान क्यों निकल रही है कांग्रेसवाले किसी पर हाथ नहीं उठाते, चाहे कोई उन्हें मार ही डाले। नहीं तो उस दिन जुलूस में दसबारह चौकीदारों की मजाल थी कि दस हज़ार आदमियों को पीटकर रख देते। चार तो वहीं ठंडे हो गये थे, मगर एक ने हाथ नहीं उठाया। इनके जो महात्मा हैं, वह बड़े भारी फ़कीर हैं उनका हुक्म है कि चुपके से मार खा लो, लड़ाई मत करो।यों बातें करतेकरते दोनों ताड़ीखाने के द्वार पर पहुँच गये। एक स्वयंसेवक हाथ जोड़कर सामने आ गया और बोलाभाई साहब, आपके मज़हब में ताड़ी हराम है।मैकू ने बात का जवाब चाँटे से दिया। ऐसा तमाचा मारा कि स्वयंसेवक की आँखों में ख़ून आ गया। ऐसा मालूम होता था, गिरा चाहता है। दूसरे स्वयंसेवक ने दौड़कर उसे सँभाला। पाँचों उँगलियों का रक्तमय प्रतिबिम्ब झलक रहा था।मगर वालंटियर तमाचा खा कर भी अपने स्थान पर खड़ा रहा। मैकू ने कहाअब हटता है कि और लेगा स्वयंसेवक ने नम्रता से कहाअगर आपकी यही इच्छा है, तो सिर सामने किये हुए हूँ। जितना चाहिए, मार लीजिए। मगर अंदर न जाइए।यह कहता हुआ वह मैकू के सामने बैठ गया।मैकू ने स्वयंसेवक के चेहरे पर निगाह डाली। उसकी पाँचों उँगलियों के निशान झलक रहे थे। मैकू ने इसके पहले अपनी लाठी से टूटे हुए कितने ही सिर देखे थे, पर आज कीसी ग्लानि उसे कभी न हुई थी। वह पाँचों उँगलियों के निशान किसी पंचशूल की भाँति उसके हृदय में चुभ रहे थे।

  • 5: प्रेमचंद की कहानी "समर यात्रा" Premchand Story "Samar Yatra"
    28 min 30 sec

    आज सवेरे ही से गाँव में हलचल मची हुई थी। कच्ची झोंपड़ियाँ हँसती हुई जान पड़ती थीं। आज सत्याग्रहियों का जत्था गाँव में आयेगा। कोदई चौधरी के द्वार पर चँदोवा तना हुआ है। आटा, घी, तरकारी, दूध और दही जमा किया जा रहा है। सबके चेहरों पर उमंग है, हौसला है, आनन्द है। वही बिंदा अहीर, जो दौरे के हाकिमों के पड़ाव पर पावपाव भर दूध के लिए मुँह छिपाता फिरता था, आज दूध और दही के दो मटके अहिराने से बटोर कर रख गया है। कुम्हार, जो घर छोड़कर भाग जाया करता था, मिट्टी के बर्तनों का अटम लगा गया है। गाँव के नाईकहार सब आप ही आप दौड़े चले आ रहे हैं। अगर कोई प्राणी दुखी है, तो वह नोहरी बुढ़िया है। वह अपनी झोंपड़ी के द्वार पर बैठी हुई अपनी पचहत्तर साल की बूढ़ी सिकुड़ी हुई आँखों से यह समारोह देख रही है और पछता रही है। उसके पास क्या है, जिसे ले कर कोदई के द्वार पर जाय और कहेमैं यह लायी हूँ। वह तो दानों को मुहताज है।मगर नोहरी ने अच्छे दिन भी देखे हैं। एक दिन उसके पास धन, जन सब कुछ था। गाँव पर उसी का राज्य था। कोदई को उसने हमेशा नीचे दबाये रखा। वह स्त्री होकर भी पुरुष थी। उसका पति घर में सोता था, वह खेत में सोने जाती थी। मामलेमुकदमे की पैरवी खुद ही करती थी। लेनादेना सब उसी के हाथों में था लेकिन वह सब कुछ विधाता ने हर लिया न धन रहा, न जन रहेअब उनके नामों को रोने के लिए वही बाकी थी। आँखों से सूझता न था, कानों से सुनायी न देता था, जगह से हिलना मुश्किल था। किसी तरह ज़िंदगी के दिन पूरे कर रही थी और उधर कोदई के भाग उदय हो गये थे। अब चारों ओर से कोदई की पूछ थीपहुँच थी। आज जलसा भी कोदई के द्वार पर हो रहा है। नोहरी को अब कौन पूछेगा। यह सोचकर उसका मनस्वी हृदय मानो किसी पत्थर से कुचल उठा। हाय मगर भगवान ने उसे इतना अपंग न कर दिया होता, तो आज झोपड़े को लीपती, द्वार पर बाजे बजवाती, कढ़ाव चढ़ा देती, पूड़ियाँ बनवाती और जब वह लोग खा चुकते तो अँजुली भर रुपये उनकी भेंट कर देती।उसे वह दिन याद आया, जब वह अपने बूढ़े पति को ले कर यहाँ से बीस कोस महात्मा जी के दर्शन करने गयी थी। वह उत्साह, वह सात्विक प्रेम, वह श्रद्धा, आज उसके हृदय में आकाश के मटियाले मेघों की भाँति उमड़ने लगी।

  • 6: प्रेमचंद की कहानी "बैंक का दिवाला" Premchand Story "Bank Ka Diwala"
    52 min 59 sec

    परंतु डाइरेक्टरों ने हिसाबकिताब, आयव्यय देखना आवश्यक समझा, और यह काम लाला साईंदास के सिपुर्द हुआ, क्योंकि और किसी को अपने काम से फुर्सत न थी कि वह एक पूरे दफ़्तर का मुआयना करता। साईंदास ने नियमपालन किया। तीनचार दिन तक हिसाब जाँचते रहे। तब अपने इतमीनान के अनुकूल रिपोर्ट लिखी। मामला तय हो गया। दस्तावेज़ लिखा गया, रुपये दे दिये गये। नौ रुपये सैकड़े ब्याज ठहरा।तीन साल तक बैंक के कारोबार में अच्छी उन्नति हुई। छठे महीने बिना कहेसुने पैंतालीस हज़ार रुपयों की थैली दफ़्तर में आ जाती थी। व्यवहारियों को पाँच रुपये सैकड़े ब्याज दे दिया जाता था। हिस्सेदारों को सात रुपये सैकड़े लाभ था।साईंदास से सब लोग प्रसन्न थे, सब लोग उनकी सूझबूझ की प्रशंसा करते। यहाँ तक कि बंगाली बाबू भी धीरेधीरे उनके कायल होते जाते थे। साईंदास उनसे कहा करतेबाबू जी, विश्वास संसार से न लुप्त हुआ है और न होगा। सत्य पर विश्वास रखना प्रत्येक मनुष्य का धर्म है। जिस मनुष्य के चित्त से विश्वास जाता रहता है उसे मृतक समझना चाहिए। उसे जान पड़ता है, मैं चारों ओर शत्रुओं से घिरा हुआ हूँ। बड़े से बड़े सिद्ध महात्मा भी उसे रँगेसियार जान पड़ते हैं। सच्चे से सच्चे देशप्रेमी उसकी दृष्टि में अपनी प्रशंसा के भूखे ही ठहरते हैं। संसार उसे धोखे और छल से परिपूर्ण दिखायी देता है। यहाँ तक कि उसके मन से परमात्मा पर श्रद्धा और भक्ति लुप्त हो जाती है। एक प्रसिद्ध फिलासफर का कथन है कि प्रत्येक मनुष्य को जब तक कि उसके विरुद्ध कोई प्रत्यक्ष प्रमाण न पाओ भलामानस समझो। वर्तमान शासन प्रथा इसी महत्त्वपूर्ण सिद्धांत पर गठित है। और घृणा तो किसी से करनी ही न चाहिए। हमारी आत्माएँ पवित्र हैं। उनसे घृणा करना परमात्मा से घृणा करने के समान है। मैं यह नहीं कहता हूँ कि संसार में कपटछल है ही नहीं है, और बहुत अधिकता से है परंतु उसका निवारण अविश्वास से नहीं मानव चरित्र के ज्ञान से होता है और यह ईश्वरदत्त गुण है। मैं यह दावा तो नहीं करता परंतु मुझे विश्वास है कि मैं मनुष्य को देख कर उसके आंतरिक भावों तक पहुँच जाता हूँ। कोई कितना ही वेश बदले, रंगरूप सँवारे, परंतु मेरी अंतर्दृष्टि को धोखा नहीं दे सकता। यह भी ध्यान रखना चाहिए कि विश्वास से विश्वास उत्पन्न होता है और अविश्वास से अविश्वास। यह प्राकृतिक नियम है। जिस मनुष्य को आप शुरू से ही धूर्त, कपटी, दुर्जन, समझ लेंगे, वह कभी आपसे निष्कपट व्यवहार न करेगा। वह एकाएक आपको नीचा दिखाने का यत्न करेगा। इसके विपरीत आप एक चोर पर भी भरोसा करें, तो वह आपका दास हो जायेगा। सारे संसार को लूटे परंतु आपको धोखा न देगा। वह कितना ही कुकर्मी, अधर्मी क्यों न हो, पर आप उसके गले में विश्वास की जंजीर डाल कर उसे जिस ओर चाहें, ले जा सकते हैं। यहाँ तक कि वह आपके हाथों पुण्यात्मा भी बन सकता है।बंगाली बाबू के पास इन दार्शनिक तर्कों का कोई उत्तर न था।

  • 7: प्रेमचंद की कहानी "आत्माराम" Premchand Story "Aatmaram"
    16 min 34 sec

    एक दिन संयोगवश किसी लड़के ने पिंजड़े का द्वार खोल दिया। तोता उड़ गया। महादेव ने सिर उठाकर जो पिंजड़े की ओर देखा, तो उसका कलेजा सन्नसे हो गया। तोता कहाँ गया। उसने फिर पिंजड़े को देखा, तोता गायब था महादेव घबड़ा कर उठा और इधरउधर खपरैलों पर निगाह दौड़ाने लगा। उसे संसार में कोई वस्तु अगर प्यारी थी, तो वह यही तोता। लड़केबालों, नातीपोतों से उसका जी भर गया था। लड़कों की चुलबुल से उसके काम में विघ्न पड़ता था। बेटों से उसे प्रेम न था इसलिए नहीं कि वे निकम्मे थे, बल्कि इसलिए कि उनके कारण वह अपने आनंददायी कुल्हड़ों की नियमित संख्या से वंचित रह जाता था। पड़ोसियों से उसे चिढ़ थी, इसलिए कि वे अँगीठी से आग निकाल ले जाते थे। इन समस्त विघ्नबाधाओं से उसके लिए कोई पनाह थी, तो वह यही तोता था। इससे उसे किसी प्रकार का कष्ट न होता था। वह अब उस अवस्था में था जब मनुष्य को शांति भोग के सिवा और कोई इच्छा नहीं रहती।तोता एक खपरैल पर बैठा था। महादेव ने पिंजरा उतार लिया और उसे दिखा कर कहने लगा‘आआ’ ‘सत्त गुरुदत्त शिवदत्त दाता।’ लेकिन गाँव और घर के लड़के एकत्र हो कर चिल्लाने और तालियाँ बजाने लगे। ऊपर से कौओं ने काँवकाँव की रट लगायी तोता उड़ा और गाँव से बाहर निकल कर एक पेड़ पर जा बैठा। महादेव ख़ाली पिंजड़ा लिये उसके पीछे दौड़ा, सो दौड़ा। लोगों को उसकी दु्रतगामिता पर अचम्भा हो रहा था। मोह की इससे सुंदर, इससे सजीव, इससे भावमय कल्पना नहीं की जा सकती।दोपहर हो गयी थी। किसान लोग खेतों से चले आ रहे थे। उन्हें विनोद का अच्छा अवसर मिला। महादेव को चिढ़ाने में सभी को मजा आता था। किसी ने कंकड़ फेंके, किसी ने तालियाँ बजायीं। तोता फिर उड़ा और वहाँ से दूर आम के बाग़ में एक पेड़ की फुनगी पर जा बैठा। महादेव फिर ख़ाली पिंजड़ा लिये मेंढक की भाँति उचकता चला। बाग़ में पहुँचा तो पैर के तलुओं से आग निकल रही थी सिर चक्कर खा रहा था। जब जरा सावधान हुआ, तो फिर पिंजड़ा उठा कर कहने लगा‘सत्त गुरुदत्त शिवदत्त दाता।’ तोता फुनगी से उतर कर नीचे की एक डाल पर आ बैठा, किन्तु महादेव की ओर सशंक नेत्रों से ताक रहा था। महादेव ने समझा, डर रहा है। वह पिंजड़े को छोड़ कर आप एक दूसरे पेड़ की आड़ में छिप गया। तोते ने चारों ओर गौर से देखा, निश्शंक हो गया, उतरा और आ कर पिंजड़े के ऊपर बैठ गया। महादेव का हृदय उछलने लगा। ‘सत्त गुरुदत्त शिवदत्त दाता’ का मंत्र जपता हुआ धीरेधीरे तोते के समीप आया और लपका कि तोते को पकड़ ले किन्तु तोता हाथ न आया, फिर पेड़ पर जा बैठा।शाम तक यही हाल रहा। तोता कभी इस डाल पर जाता, कभी उस डाल पर। कभी पिंजड़े पर आ बैठता, कभी पिंजड़े के द्वार पर बैठ अपने दानापानी की प्यालियों को देखता, और फिर उड़ जाता। बुड्ढा अगर मूर्तिमान मोह था, तो तोता मूर्तिमयी माया। यहाँ तक कि शाम हो गयी। माया और मोह का यह संग्राम अंधकार में विलीन हो गया।

  • 8: प्रेमचंद की कहानी "दुर्गा का मंदिर" Premchand Story "Durga Ka Mandir"
    25 min 44 sec

    आज पहली तारीख की संध्या है। ब्रजनाथ दरवाज़े पर बैठे गोरेलाल का इंतज़ार कर रहे हैं।पाँच बज गये गोरेलाल अभी तक नहीं आये। ब्रजनाथ की आँखें रास्ते की तरफ लगी हुई थीं। हाथ में एक पत्र था लेकिन पढ़ने में जी नहीं लगता था। हर तीसरे मिनट रास्ते की ओर देखने लगते थे। लेकिन सोचते थेआज वेतन मिलने का दिन है। इसी कारण आने में देर हो रही है। आते ही होंगे। छः बजे गोरेलाल का पता नहीं। कचहरी के कर्मचारी एकएक करके चले आ रहे थे। ब्रजनाथ को कई बार धोखा हुआ। वह आ रहे हैं। ज़रूर वही हैं। वैसी ही अचकन है। वैसी ही टोपी है। चाल भी वही है। हाँ, वही हैं, इसी तरफ आ रहे हैं। अपने हृदय से एक बोझासा उतरता मालूम हुआ लेकिन निकट आने पर ज्ञात हुआ कि कोई और है। आशा की कल्पित मूर्ति दुराशा में बदल गयी।ब्रजनाथ का चित्त खिन्न होने लगा। वह एक बार कुरसी से उठे। बरामदे की चौखट पर खड़े हो, सड़क पर दोनों तरफ निगाह दौड़ायी। कहीं पता नहीं। दोतीन बार दूर से आते हुए इक्कों को देख कर गोरेलाल को भ्रम हुआ। आकांक्षा की प्रबलता सात बजे चिराग जल गये। सड़क पर अँधेरा छाने लगा। ब्रजनाथ सड़क पर उद्विग्न भाव से टहलने लगे। इरादा हुआ, गोरेलाल के घर चलूँ। उधर क़दम बढ़ाया लेकिन हृदय काँप रहा था कि कहीं वह रास्ते में आते हुए न मिल जायँ, तो समझें कि थोड़ेसे रुपयों के लिए इतने व्याकुल हो गये। थोड़ी ही दूर गये कि किसी को आते देखा। भ्रम हुआ, गोरेलाल हैं, मुड़े और सीधे बरामदे में आ कर दम लिया, लेकिन फिर वही धोखा। फिर वही भ्रांति। तब सोचने लगे कि इतनी देर क्यों हो रही है क्या अभी तक वह कचहरी से न आये होंगे ऐसा कदापि नहीं हो सकता। उनके दफ़्तरवाले मुद्दत हुई, निकल गये। बस दो बातें हो सकती हैं, या तो उन्होंने कल आने का निश्चय कर लिया, समझे होंगे, रात को कौन जाय, या जानबूझ कर बैठे होंगे, देना न चाहते होंगे, उस समय उनको गरज थी, इस समय मुझे गरज है। मैं ही किसी को क्यों न भेज दूँ लेकिन किसे भेजूँ मुन्नू जा सकता है। सड़क ही पर मकान है। यह सोच कर कमरे में गये, लैंप जलाया और पत्र लिखने बैठे, मगर आँखें द्वार ही की ओर लगी हुई थीं। अकस्मात् किसी के पैरों की आहट सुनाई दी। परन्तु पत्र को एक किताब के नीचे दबा लिया और बरामदे में चले आये। देखा, पड़ोस का एक कुँजड़ा तार पढ़ाने आया है। उससे बोलेभाई, इस समय फुरसत नहीं है थोड़ी देर में आना। उसने कहाबाबू जी, घर भर के आदमी घबराये हैं, जरा एक निगाह देख लीजिए। निदान ब्रजनाथ ने झुँझला कर उसके हाथ से तार ले लिया, और सरसरी नजर से देख कर बोलेकलकत्ते से आया है। माल नहीं पहुँचा। कुँजड़े ने डरतेडरते कहाबाबूजी इतना और देख लीजिए, किसने भेजा है। इस पर ब्रजनाथ ने तार फेंक दिया और बोलेमुझे इस वक्त फुरसत नहीं है।आठ बज गये। ब्रजनाथ को निराशा होने लगीमुन्नू इतनी रात बीते नहीं जा सकता। मन में निश्चय किया, आज ही जाना चाहिए, बला से बुरा मानेंगे। इसकी कहाँ तक चिंता करूँ। स्पष्ट कह दूँगा मेरे रुपये दो दो। भलमनसी भलेमानसों से निभाई जा सकती है। ऐसे धूर्तों के साथ भलमनसी का व्यवहार करना मूर्खता है। अचकन पहनी घर में जा कर भामा से कहाजरा एक काम से बाहर जाता हूँ, किवाड़ें बंद कर लो।चलने को तो चले लेकिन पगपग पर रुकते जाते थे। गोरेलाल का घर दूर से दिखायी दिया लैंप जल रहा था। ठिठक गये और सोचने लगे चल कर क्या कहूँगा कहीं उन्होंने जातेजाते रुपये निकाल कर दे दिये, और देर के लिए क्षमा माँगी तो मुझे बड़ी झेंप होगी। वह मुझे क्षुद्र, ओछा, धैर्यहीन समझेंगे। नहीं, रुपयों की बातचीत करूँ ही क्यों कहूँगाभाई घर में बड़ी देर से पेट दर्द कर रहा है। तुम्हारे पास पुराना तेज सिरका तो नहीं है मगर नहीं, यह बहाना कुछ भद्दासा प्रतीत होता है। साफ़ कलई खुल जायेगी। ऊँह इस झंझट की ज़रूरत ही क्या है। वह मुझे देख कर आप ही समझ जायेंगे। इस विषय में बातचीत की कुछ नौबत ही न आवेगी। ब्रजनाथ इसी उधेड़बुन में आगे बढ़ते चले जाते थे, जैसे नदी में लहरें चाहे किसी ओर चलें, धारा अपना मार्ग नहीं छोड़ती।

  • 9: प्रेमचंद की कहानी "बड़े घर की बेटी" Premchand Story "Bade Ghar Ki Beti"
    20 min 54 sec

    एक दिन दोपहर के समय लालबिहारी सिंह दो चिड़िया लिये हुए आया और भावज से बोलाजल्दी से पका दो, मुझे भूख लगी है। आनंदी भोजन बनाकर उसकी राह देख रही थी। अब वह नया व्यंजन बनाने बैठी। हाँड़ी में देखा, तो घी पावभर से अधिक न था। बड़े घर की बेटी, किफायत क्या जाने। उसने सब घी मांस में डाल दिया। लालबिहारी खाने बैठा, तो दाल में घी न था, बोलादाल में घी क्यों नहीं छोड़ा आनंदी ने कहाघी सब मांस में पड़ गया। लालबिहारी ज़ोर से बोलाअभी परसों घी आया है। इतना जल्द उठ गया आनंदी ने उत्तर दियाआज तो कुल पावभर रहा होगा। वह सब मैंने मांस में डाल दिया।जिस तरह सूखी लकड़ी जल्दी से जल उठती हैउसी तरह क्षुधा से बावला मनुष्य जराजरा सी बात पर तिनक जाता है। लालबिहारी को भावज की यह ढिठाई बहुत बुरी मालूम हुई, तिनक कर बोलामैके में तो चाहे घी की नदी बहती हो स्त्री गालियाँ सह लेती है, मार भी सह लेती है पर मैके की निंदा उससे नहीं सही जाती। आनंदी मुँह फेर कर बोलीहाथी मरा भी, तो नौ लाख का। वहाँ इतना घी नित्य नाईकहार खा जाते हैं।लालबिहारी जल गया, थाली उठाकर पलट दी, और बोलाजी चाहता है, जीभ पकड़ कर खींच लूँ।आनंदी को भी क्रोध आ गया। मुँह लाल हो गया, बोलीवह होते तो आज इसका मजा चखाते।अब अपढ़, उजड्ड ठाकुर से न रहा गया। उसकी स्त्री एक साधारण ज़मींदार की बेटी थी। जब जी चाहता, उस पर हाथ साफ़ कर लिया करता था। खड़ाऊँ उठाकर आनंदी की ओर ज़ोर से फेंकी, और बोलाजिसके गुमान पर भूली हुई हो, उसे भी देखूँगा और तुम्हें भी।आनंदी ने हाथ से खड़ाऊँ रोकी, सिर बच गया। पर उँगली में बड़ी चोट आयी। क्रोध के मारे हवा से हिलते पत्ते की भाँति काँपती हुई अपने कमरे में आ कर खड़ी हो गयी। स्त्री का बल और साहस, मान और मर्यादा पति तक है। उसे अपने पति के ही बल और पुरुषत्व का घंमड होता है। आनंदी ख़ून का घूँट पी कर रह गयी।

  • 10: प्रेमचंद की कहानी "पंच परमेश्वर" Premchand Story "Panch Parmeshwar"
    27 min 34 sec

    इसके बाद कई दिन तक बूढ़ी खाला हाथ में एक लकड़ी लिये आसपास के गाँवों में दौड़ती रहीं। कमर झुक कर कमान हो गयी थी। एकएक पग चलना दूभर था मगर बात आ पड़ी थी। उसका निर्णय करना ज़रूरी था।बिरला ही कोई भला आदमी होगा, जिसके सामने बुढ़िया ने दुःख के आँसू न बहाये हां। किसी ने तो यों ही ऊपरी मन से हूँहाँ करके टाल दिया, और किसी ने इस अन्याय पर जमाने को गालियाँ दीं कहाक़ब्र में पाँव लटके हुए हैं, आज मरे कल दूसरा दिन पर हवस नहीं मानती। अब तुम्हें क्या चाहिए रोटी खाओ और अल्लाह का नाम लो। तुम्हें अब खेतीबारी से क्या काम है कुछ ऐसे सज्जन भी थे, जिन्हें हास्यरस के रसास्वादन का अच्छा अवसर मिला। झुकी हुई कमर, पोपला मुँह, सन केसे बालइतनी सामग्री एकत्र हों, तब हँसी क्यों न आवे ऐसे न्यायप्रिय, दयालु, दीनवत्सल पुरुष बहुत कम थे, जिन्होंने उस अबला के दुखड़े को गौर से सुना हो और उसको सांत्वना दी हो। चारों ओर से घूमघाम कर बेचारी अलगू चौधरी के पास आयी। लाठी पटक दी और दम ले कर बोलीबेटा, तुम भी दम भर के लिए मेरी पंचायत में चले आना।अलगूमुझे बुला कर क्या करोगी कई गाँव के आदमी तो आवेंगे ही।खालाअपनी विपद तो सबके आगे रो आयी। अब आनेनआने का अख्तियार उनको है।अलगूयों आने को आ जाऊँगा मगर पंचायत में मुँह न खोलूँगा।खालाक्यों बेटा अलगूअब इसका क्या जवाब दूँ अपनी खुशी। जुम्मन मेरा पुराना मित्र है। उससे बिगाड़ नहीं कर सकता।खालाबेटा, क्या बिगाड़ के डर से ईमान की बात न कहोगे हमारे सोये हुए धर्मज्ञान की सारी सम्पत्ति लुट जाय, तो उसे खबर नहीं होती, परन्तु ललकार सुन कर वह सचेत हो जाता है। फिर उसे कोई जीत नहीं सकता। अलगू इस सवाल का कोई उत्तर न दे सका, पर उसके हृदय में ये शब्द गूँज रहे थेक्या बिगाड़ के डर से ईमान की बात न कहोगे

  • 11: प्रेमचंद की कहानी "शंखनाद" Premchand Story "Shankhnaad"
    18 min 5 sec

    तीसरे लड़के का नाम गुमान था। वह बड़ा रसिक, साथ ही उद्दंड भी था। मुहर्रम में ढोल इतने जोरों से बजाता कि कान के पर्दे फट जाते। मछली फँसाने का बड़ा शौकीन था। बड़ा रँगीला जवान था। खँजड़ी बजाबजाकर जब वह मीठे स्वर से ख्याल गाता, तो रंग जम जाता। उसे दंगल का ऐसा शौक़ था कि कोसों तक धावा मारता पर घरवाले कुछ ऐसे शुष्क थे कि उसके इन व्यसनों से तनिक भी सहानुभूति न रखते थे। पिता और भाइयों ने तो उसे ऊसर खेत समझ रखा था। घुड़कीधमकी, शिक्षा और उपदेश, स्नेह और विनय, किसी का उस पर कुछ भी असर न हुआ। हाँ, भावजें अभी तक उसकी ओर से निराश न हुई थीं। वे अभी तक उसे कड़वी दवाइयाँ पिलाये जाती थीं पर आलस्य वह राज रोग है जिसका रोगी कभी नहीं सँभलता। ऐसा कोई बिरला ही दिन जाता होगा कि बाँके गुमान को भावजों के कटु वाक्य न सुनने पड़ते हों। ये विषैले शर कभीकभी उसके कठोर हृदय में चुभ जाते किन्तु यह घाव रात भर से अधिक न रहता। भोर होते ही थकान के साथ ही यह पीड़ा भी शांत हो जाती। तड़का हुआ, उसने हाथमुँह धोया, बंशी उठायी और तालाब की ओर चल खड़ा हुआ। भावजें फूलों की वर्षा किया करतीं बूढ़े चौधरी पैंतरे बदलते रहते और भाई लोग तीखी निगाह से देखा करते, पर अपनी धुन का पूरा बाँका गुमान उन लोगों के बीच से इस तह अकड़ता चला जाता, जैसे कोई मस्त हाथी कुत्तों के बीच से निकल जाता है। उसे सुमार्ग पर लाने के लिए क्याक्या उपाय नहीं किये गये। बाप समझाताबेटा ऐसी राह चलो जिसमें तुम्हें भी पैसे मिलें और गृहस्थी का भी निर्वाह हो। भाइयों के भरोसे कब तक रहोगे मैं पका आम हूँआज टपक पड़ा या कल। फिर तुम्हारा निबाह कैसे होगा भाई बात भी न पूछेंगे भावजों का रंग देख ही रहे हो। तुम्हारे भी लड़केबाले हैं, उनका भार कैसे सँभालोगे खेती में जी न लगे, कहो कांस्टिबली में भरती करा दूँ बाँका गुमान खड़ाखड़ा यह सब सुनता, लेकिन पत्थर का देवता था, कभी न पसीजता। इन महाशय के अत्याचार का दंड उनकी स्त्री बेचारी को भोगना पड़ता था। मेहनत के घर के जितने काम होते, वे उसी के सिर थोपे जाते। उपले पाथती, कुएँ से पानी लाती, आटा पीसती और तिस पर भी जेठानियाँ सीधे मुँह बात न करतीं, वाक्यबाणों से छेदा करतीं। एक बार जब वह पति से कई दिन रूठी रही, तो बाँके गुमान कुछ नर्म हुए। बाप से जा कर बोलेमुझे कोई दूकान खोलवा दीजिए। चौधरी ने परमात्मा को धन्यवाद दिया। फूले न समाये। कई सौ रुपये लगा कर कपड़े की दूकान खुलवा दी। गुमान के भाग जगे। तनजेब के चुन्नटदार कुरते बनवाये, मलमल का साफ़ा धानी रंग में रँगवाया। सौदा बिके या न बिके, उसे लाभ ही होना था दूकान खुली हुई है, दसपाँच गाढ़े मित्र जमे हुए हैं, चरस की दम और ख्याल की तानें उड़ रही हैंचल झटपट री, जमुनातट री, खड़ो नटखट री।इस तरह तीन महीने चैन से कटे। बाँके गुमान ने खूब दिल खोल कर अरमान निकाले, यहाँ तक कि सारी लागत लाभ हो गयी। टाट के टुकडे़ के सिवा और कुछ न बचा। बूढ़े चौधरी कुएँ में गिरने चले, भावजों ने घोर आन्दोलन मचायाअरे राम हमारे बच्चे और हम चीथड़ों को तरसें, गाढे़ का एक कुरता भी नसीब न हो, और इतनी बड़ी दूकान इस निखट्टू का कफ़न बन गयी। अब कौन मुँह दिखायेगा कौन मुँह ले कर घर में पैर रखेगा किंतु बाँके गुमान के तेवर जरा भी मैले न हुए। वही मुँह लिये वह फिर घर आया और फिर वही पुरानी चाल चलने लगा। क़ानूनदाँ बितान उनके ये ठाटबाट देख कर जल जाता। मैं सारे दिन पसीना बहाऊँ, मुझे नैनसुख का कुरता भी न मिले, यह अपाहिज सारे दिन चारपाई तोड़े और यों बनठन कर निकले ऐसे वस्त्र तो शायद मुझे अपने ब्याह में भी न मिले होंगे। मीठे शान के हृदय में भी कुछ ऐसे ही विचार उठते थे। अंत में यह जलन न सही गयी, और अग्नि भड़की, तो एक दिन क़ानूनदाँ बितान की पत्नी गुमान के सारे कपड़े उठा लायी और उन पर मिट्टी का तेल उँड़ेल कर आग लगा दी। ज्वाला उठी, सारे कपड़े देखतेदेखते जल कर राख हो गये। गुमान रोते थे। दोनों भाई खड़े तमाशा देखते थे। बूढ़े चौधरी ने यह दृश्य देखा, और सिर पीट लिया। यह द्वेषाग्नि है। घर को जला कर तब बुझेगी।

  • 12: प्रेमचंद की कहानी "जिहाद" Premchand Story "Jihad"
    22 min 53 sec

    श्यामा हृदय को दोनों हाथों से थामे यह दृश्य देख रही थी। वह मन में पछता रही थी कि मैंने क्यों इन्हें पानी लाने भेजा अगर मालूम होता कि विधि यों धोखा देगा, तो मैं प्यासों मर जाती, पर इन्हें न जाने देती। श्यामा से कुछ दूर ख़ज़ाँचंद भी खड़ा था। श्यामा ने उसकी ओर क्षुब्ध नेत्रों से देख कर कहा अब इनकी जान बचती नहीं मालूम होती।ख़ज़ाँचंदबंदूक भी हाथ से छूट पड़ी है।श्यामान जाने क्या बातें हो रही हैं। अरे गजब दुष्ट ने उनकी ओर बंदूक तानी है ख़ज़ाँ.जरा और समीप आ जायँ, तो मैं बंदूक चलाऊँ। इतनी दूर की मार इसमें नहीं है।श्यामाअरे देखो, वे सब धर्मदास को गले लगा रहे हैं। यह माजरा क्या है ख़ज़ाँ.कुछ समझ में नहीं आता।श्यामाकहीं इसने कलमा तो नहीं पढ़ लिया ख़ज़ाँ.नहीं, ऐसा क्या होगा, धर्मदास से मुझे ऐसी आशा नहीं है।श्यामामैं समझ गयी। ठीक यही बात है। बंदूक चलाओ।ख़ज़ाँ.धर्मदास बीच में हैं। कहीं उन्हें न लग जाय।श्यामाकोई हर्ज नहीं। मैं चाहती हूँ, पहला निशाना धर्मदास ही पर पड़े। कायर निर्लज्ज प्राणों के लिए धर्म त्याग किया। ऐसी बेहयाई की ज़िंदगी से मर जाना कहीं अच्छा है। क्या सोचते हो। क्या तुम्हारे भी हाथपाँव फूल गये। लाओ, बंदूक मुझे दे दो। मैं इस कायर को अपने हाथों से मारूँगी।ख़ज़ाँ.मुझे तो विश्वास नहीं होता कि धर्मदास ...श्यामातुम्हें कभी विश्वास न आयेगा। लाओ, बंदूक मुझे दो। खडे़ क्या ताकते हो क्या जब वे सिर पर आ जायँगे, तब बंदूक चलाओ क्या तुम्हें भी यह मंजूर है कि मुसलमान हो कर जान बचाओ अच्छी बात है, जाओ। श्यामा अपनी रक्षा आप कर सकती है मगर उसे अब मुँह न दिखाना।ख़ज़ाँचंद ने बंदूक चलायी। एक सवार की पगड़ी को उड़ाती हुई निकल गयी। जिहादियों ने ‘अल्लाहो अकबर ’ की हाँक लगायी। दूसरी गोली चली और घोड़े की छाती पर बैठी। घोड़ा वहीं गिर पड़ा। जिहादियों ने फिर ‘अल्लाहो अकबर ’ की सदा लगायी और आगे बढ़े। तीसरी गोली आयी। एक पठान लोट गया पर इसके पहले कि चौथी गोली छूटे, पठान ख़ज़ाँचंद के सिर पर पहुँच गये और बंदूक उसके हाथ से छीन ली।एक सवार ने ख़ज़ाँचंद की ओर बंदूक तान कर कहाउड़ा दूँ सिर मरदूद का, इससे ख़ून का बदला लेना है।दूसरे सवार ने जो इनका सरदार मालूम होता था, कहानहींनहीं, यह दिलेर आदमी है। ख़ज़ाँचंद, तुम्हारे ऊपर दगा, ख़ून और कुफ्र, ये तीन इल्ज़ाम हैं, और तुम्हें कत्ल कर देना ऐन सवाब है, लेकिन हम तुम्हें एक मौक़ा और देते हैं। अगर तुम अब भी खुदा और रसूल पर ईमान लाओ, तो हम तुम्हें सीने से लगाने को तैयार हैं। इसके सिवा तुम्हारे गुनाहों का और कोई कफारा प्रायश्चित्त नहीं है। यह हमारा आखिरी फैसला है। बोलो, क्या मंजूर है चारों पठानों ने कमर से तलवारें निकाल लीं, और उन्हें ख़ज़ाँचंद के सिर पर तान दिया मानो ‘नहीं’ का शब्द मुँह से निकलते ही चारों तलवारें उसकी गर्दन पर चल जायँगी ख़ज़ाँचंद का मुखमंडल विलक्षण तेज से आलोकित हो उठा। उसकी दोनों आँखें स्वर्गीय ज्योति से चमकने लगीं। दृढ़ता से बोलातुम एक हिन्दू से यह प्रश्न कर रहे हो क्या तुम समझते हो कि जान के खौफ से वह अपना ईमान बेच डालेगा हिंदू को अपने ईश्वर तक पहुँचने के लिए किसी नबी, वली या पैगम्बर की ज़रूरत नहीं चारों पठानों ने कहाकाफिर काफिर ख़ज़ाँ.अगर तुम मुझे काफिर समझते हो तो समझो। मैं अपने को तुमसे ज़्यादा खुदापरस्त समझता हूँ। मैं उस धर्म को मानता हूँ, जिसकी बुनियाद अक्ल पर है। आदमी में अक्ल ही खुदा का नूर प्रकाश है और हमारा ईमान हमारी अक्ल ...चारों पठानों के मुँह से निकला ‘काफिर काफिर ’ और चारों तलवारें एक साथ ख़ज़ाँचंद की गर्दन पर गिर पड़ीं। लाश ज़मीन पर फड़कने लगी। धर्मदास सिर झुकाये खड़ा रहा। वह दिल में खुश था कि अब ख़ज़ाँचंद की सारी सम्पत्ति उसके हाथ लगेगी और वह श्यामा के साथ सुख से रहेगा पर विधाता को कुछ और ही मंजूर था। श्यामा अब तक मर्माहतसी खड़ी यह दृश्य देख रही थी। ज्यों ही ख़ज़ाँचंद की लाश ज़मीन पर गिरी, वह झपट कर लाश के पास आयी और उसे गोद में लेकर आँचल से रक्तप्रवाह को रोकने की चेष्टा करने लगी। उसके सारे कपड़े ख़ून से तर हो गये। उसने बड़ी सुंदर बेलबूटोंवाली साड़ियाँ पहनी होंगी, पर इस रक्तरंजित साड़ी की शोभा अतुलनीय थी। बेलबूटोंवाली साड़ियाँ रूप की शोभा बढ़ाती थीं, यह रक्तरंजित साड़ी आत्मा की छवि दिखा रही थी।

  • 13: प्रेमचंद की कहानी "फ़ातिहा" Premchand Story "Fatiha"
    44 min 35 sec

    इसी समय एक अफ्रीदी रमणी धीरेधीरे आ कर सरदार साहब के मकान के सामने खड़ी हो गयी। ज्यों ही सरदार साहब ने देखा, उनका मुँह सफेद पड़ गया। उनकी भयभीत दृष्टि उसकी ओर से फिर कर मेरी ओर हो गयी। मैं भी आश्चर्य से उनके मुँह की ओर निहारने लगा। उस रमणी का सा सुगठित शरीर मरदों का भी कम होता है। खाकी रंग के मोटे कपड़े का पायजामा और नीले रंग का मोटा कुरता पहने हुए थी। बलूची औरतों की तरह सिर पर रूमाल बाँध रखा था। रंग चंपई था और यौवन की आभा फूटफूट कर बाहर निकली पड़ती थी। इस समय उसकी आँखों में ऐसी भीषणता थी, जो किसी के दिल में भय का संचार करती। रमणी की आँखें सरदार साहब की ओर से फिर कर मेरी ओर आयीं और उसने यों घूरना शुरू किया कि मैं भी भयभीत हो गया। रमणी ने सरदार साहब की ओर देखा और फिर ज़मीन पर थूक दिया और फिर मेरी ओर देखती हुई धीरेधीरे दूसरी ओर चली गयी।रमणी को जाते देख कर सरदार साहब की जान में जान आयी। मेरे सिर पर से भी एक बोझ हट गया।मैंने सरदार साहब से पूछाक्यों, क्या आप जानते हैं सरदार साहब ने एक गहरी ठंडी साँस लेकर कहाहाँ, बखूबी। एक समय था, जब यह मुझ पर जान देती थी और वास्तव में अपनी जान पर खेल कर मेरी रक्षा भी की थी लेकिन अब इसको मेरी सूरत से नफरत है। इसी ने मेरी स्त्री की हत्या की है। इसे जब कभी देखता हूँ मेरे होशहवास काफ़ूर हो जाते हैं और वही दृश्य मेरी आँखों के सामने नाचने लगता है।मैंने भयविह्वल स्वर में पूछासरदार साहब, उसने मेरी ओर भी तो बड़ी भयानक दृष्टि से देखा था। न मालूम क्यों मेरे भी रोएँ खड़े हो गये थे।सरदार साहब ने सिर हिलाते हुए बड़ी गम्भीरता से कहाअसदखाँ, तुम भी होशियार रहो। शायद इस बूढे़ अफ्रीदी से इसका संपर्क है। मुमकिन है, यह उसका भाई या बाप हो। तुम्हारी ओर उसका देखना कोई मानी रखता है। बड़ी भयानक स्त्री है।सरदार साहब की बात सुनकर मेरी नसनस काँप उठी। मैंने बातों का सिलसिला दूसरी ओर फेरते हुए कहासरदार साहब, आप इसको पुलिस के हवाले क्यों नहीं ंकर देते इसको फाँसी हो जायगी।सरदार साहब ने कहाभाई असदखाँ, इसने मेरे प्राण बचाये थे और शायद अब भी मुझे चाहती है। इसकी कथा बहुत लम्बी है। कभी अवकाश मिला तो कहूँगा।सरदार की बातों से मुझे भी कुतूहल हो रहा था। मैंने उनसे वह वृत्तंात सुनाने के लिए आग्रह करना शुरू किया। पहले तो उन्होंने टालना चाहा पर जब मैंने बहुत ज़ोर दिया तो विवश हो कर बोलेअसद, मैं तुम्हें अपना भाई समझता हूँ इसलिए तुमसे कोई परदा न रखूँगा। लो, सुनो

  • 14: प्रेमचंद की कहानी "वैर का अंत" Premchand Story "Vair Ka Ant"
    17 min 59 sec

    जागेश्वर ने सोचा, जब चाचा साहब की मुट्ठी से ज़मीन निकल आयेगी तब मैं दसपाँच रुपये साल पर इनसे ले लूँगा। इन्हें अभी कौड़ी नहीं मिलती। जो कुछ मिलेगा, उसी को बहुत समझेंगी। दूसरे दिन दावा कर दिया। मुंसिफ के इजलास में मुकदमा पेश हुआ। विश्वेश्वरराय ने सिद्ध किया कि तपेश्वरी सिद्धेश्वर की कन्या ही नहीं है।गाँव के आदमियों पर विश्वेश्वरराय का दबाव था। सब लोग उससे रुपयेपैसे उधार ले जाते थे। मामलेमुकदमे में उनसे सलाह लेते। सबने अदालत में बयान किया कि हम लोगों ने कभी तपेश्वरी को नहीं देखा। सिद्धेश्वर के कोई लड़की ही न थी। जागेश्वर ने बड़ेबड़े वकीलों से पैरवी करायी, बहुत धन खर्च किया, लेकिन मुंसिफ ने उसके विरुद्ध फैसला सुनाया। बेचारा हताश हो गया। विश्वेश्वर की अदालत में सबसे जानपहचान थी। जागेश्वर को जिस काम के लिए मुट्ठियों रुपये खर्च करने पड़ते थे, वह विश्वेश्वर मुरौवत में करा लेता।जागेश्वर ने अपील करने का निश्चय किया। रुपये न थे, गाड़ीबैल बेच डाले। अपील हुई। महीनों मुकदमा चला। बेचारा सुबह से शाम तक कचहरी के अमलों और वकीलों की खुशामद किया करता, रुपये भी उठ गये, महाजनों से ऋण लिया। बारे अबकी उसकी डिग्री हो गयी। पाँच सौ का बोझ सिर पर हो गया था, पर अब जीत ने आँसू पोंछ दिये।विश्वेश्वर ने हाईकोर्ट में अपील की। जागेश्वर को अब कहीं से रुपये न मिले। विवश होकर अपने हिस्से की ज़मीन रेहन रखी। फिर घर बेचने की नौबत आयी। यहाँ तक कि स्त्रियों के गहने भी बिक गये। अंत में हाईकोर्ट से भी उसकी जीत हो गयी। आनंदोत्सव में बचीखुची पूँजी भी निकल गयी। एक हज़ार पर पानी फिर गया। हाँ, संतोष यही था कि ये पाँचों बीघे मिल गये। तपेश्वरी क्या इतनी निर्दय हो जायगी कि थाली मेरे सामने से खींच लेगी।लेकिन खेतों पर अपना नाम चढ़ते ही तपेश्वरी की नीयत बदली। उसने एक दिन गाँव में आकर पूछताछ की तो मालूम हुआ कि पाँचों बीघे 100 रु. में उठ सकते हैं। लगान केवल 25 रु. था, 75 रु. साल का नफा था। इस रकम ने उसे विचलित कर दिया। उसने असामियों को बुला कर उनके साथ बंदोबस्त कर दिया। जागेश्वरराय हाथ मलता रह गया।

  • 15: प्रेमचंद की कहानी "दो भाई" Premchand Story "Do Bhai"
    13 min 57 sec

    दोनों भाई संतानवान हुए। हराभरा वृक्ष खूब फैला और फलों से लद गया। कुत्सित वृक्ष में केवल एक फल दृष्टिगोचर हुआ, वह भी कुछ पीलासा, मुरझाया हुआ किंतु दोनों अप्रसन्न थे। माधव को धनसम्पत्ति की लालसा थी और केदार को संतान की अभिलाषा।भाग्य की इस कूटनीति ने शनैःशनैः द्वेष का रूप धारण किया, जो स्वाभाविक था। श्यामा अपने लड़कों को सँवारनेसुधारने में लगी रहती उसे सिर उठाने की फुरसत नहीं मिलती थी। बेचारी चम्पा को चूल्हे में जलना और चक्की में पिसना पड़ता। यह अनीति कभीकभी कटु शब्दों में निकल जाती। श्यामा सुनती, कुढ़ती और चुपचाप सह लेती। परन्तु उसकी यह सहनशीलता चम्पा के क्रोध को शांत करने के बदले और बढ़ाती। यहाँ तक कि प्याला लबालब भर गया। हिरन भागने की राह न पा कर शिकारी की तरफ लपका। चम्पा और श्यामा समकोण बनानेवाली रेखाओं की भाँति अलग हो गयीं। उस दिन एक ही घर में दो चूल्हे जले, परन्तु भाइयों ने दाने की सूरत न देखी और कलावती सारे दिन रोती रही।कई वर्ष बीत गये। दोनों भाई जो किसी समय एक ही पालथी पर बैठते थे, एक ही थाली में खाते थे और एक ही छाती से दूध पीते थे, उन्हें अब एक घर में, एक गाँव में रहना कठिन हो गया। परन्तु कुल की साख में बट्टा न लगे, इसलिए ईर्ष्या और द्वेष की धधकी हुई आग को राख के नीचे दबाने की व्यर्थ चेष्टा की जाती थी। उन लोगों में अब भ्रातृस्नेह न था। केवल भाई के नाम की लाज थी। माँ भी जीवित थी, पर दोनों बेटों का वैमनस्य देख कर आँसू बहाया करती। हृदय में प्रेम था, पर नेत्रों में अभिमान न था। कुसुम वही था, परंतु वह छटा न थी।दोनों भाई जब लड़के थे, तब एक को रोते देख दूसरा भी रोने लगता था, तब वह नादान बेसमझ और भोले थे। आज एक को रोते हुए देख दूसरा हँसता और तालियाँ बजाता। अब वह समझदार और बुद्धिमान हो गये थे।जब उन्हें अपनेपराये की पहचान न थी, उस समय यदि कोई छेड़ने के लिए एक को अपने साथ ले जाने की धमकी देता, तो दूसरा ज़मीन पर लोट जाता और उस आदमी का कुर्ता पकड़ लेता। अब यदि एक भाई को मृत्यु भी धमकाती तो दूसरे के नेत्रों में आँसू न आते। अब उन्हें अपनेपराये की पहचान हो गयी थी।बेचारे माधव की दशा शोचनीय थी। खर्च अधिक था और आमदनी कम। उस पर कुलमर्यादा का निर्वाह। हृदय चाहे रोये, पर होंठ हँसते रहें। हृदय चाहे मलिन हो, पर कपड़े मैले न हों। चार पुत्र थे, चार पुत्रियाँ और आवश्यक वस्तुएँ मोतियों के मोल। कुछ पाइयों की जमींदारी कहाँ तक सम्हालती। लड़कों का ब्याह अपने वश की बात थी। पर लड़कियों का विवाह कैसे टल सकता। दो पाई ज़मीन पहली कन्या के विवाह में भेंट हो गयी। उस पर भी बराती बिना भात खाये आँगन से उठ गये। शेष दूसरी कन्या के विवाह में निकल गयी। साल भर बाद तीसरी लड़की का विवाह हुआ, पेड़पत्ते भी न बचे। हाँ, अब की डाल भरपूर थी। परन्तु दरिद्रता और धरोहर में वही सम्बन्ध है जो मांस और कुत्ते में।

  • 16: प्रेमचंद की कहानी "महातीर्थ" Premchand Story "Mahateerth"
    25 min 48 sec

    कैलासी संसार में अकेली थी। किसी समय उसका परिवार गुलाब की तरह फूला हुआ था परंतु धीरेधीरे उसकी सब पत्तियाँ गिर गयीं। अब उसकी सब हरियाली नष्टभ्रष्ट हो गयी, और अब वही एक सूखी हुई टहनी उस हरेभरे पेड़ की चिह्न रह गयी थी।परंतु रुद्र को पाकर इस सूखी हुई टहनी में जान पड़ गयी थी। इसमें हरीभरी पत्तियाँ निकल आयी थीं। वह जीवन, जो अब तक नीरस और शुष्क था अब सरस और सजीव हो गया था। अँधेरे जंगल में भटके हुए पथिक को प्रकाश की झलक आने लगी। अब उसका जीवन निरर्थक नहीं बल्कि सार्थक हो गया था।कैलासी रुद्र की भोलीभाली बातों पर निछावर हो गयी पर वह अपना स्नेह सुखदा से छिपाती थी, इसलिए कि माँ के हृदय में द्वेष न हो। वह रुद्र के लिए माँ से छिप कर मिठाइयाँ लाती और उसे खिला कर प्रसन्न होती। वह दिन में दोतीन बार उसे उबटन मलती कि बच्चा खूब पुष्ट हो। वह दूसरों के सामने उसे कोई चीज़ नहीं खिलाती कि उसे नजर लग जायेगी। सदा वह दूसरों से बच्चे के अल्पाहार का रोना रोया करती। उसे बुरी नजर से बचाने के लिए ताबीज और गंडे लाती रहती। यह उसका विशुद्ध प्रेम था। उसमें स्वार्थ की गंध भी न थी।इस घर से निकल कर आज कैलासी की वह दशा थी, जो थियेटर में यकायक बिजली लैम्पों के बुझ जाने से दर्शकों की होती है। उसके सामने वही सूरत नाच रही थी। कानों में वही प्यारीप्यारी बातें गूँज रही थीं। उसे अपना घर काटे खाता था। उस कालकोठरी में दम घुटा जाता था।रात ज्योंत्यों कर कटी। सुबह को वह घर में झाड़ू लगा रही थी। बाहर ताजे हलवे की आवाज़ सुन कर बड़ी फुर्ती से घर से बाहर निकल आयी। तब याद आ गया, आज हलुवा कौन खायेगा आज गोद में बैठ कर कौन चहकेगा वह मधुर गान सुनने के लिए जो हलवा खाते समय रुद्र की आँखों से, होंठों से, और शरीर के एकएक अंग से बरसता, कैलासी का हृदय तड़प गया। वह व्याकुल होकर घर से बाहर निकली कि चलूँ रुद्र को देख आऊँ। पर आधे रास्ते से लौट गयी।रुद्र कैलासी के ध्यान से एक क्षण भर के लिए भी नहीं उतरता था। वह सोतेसोते चौंक पड़ती, जान पड़ता रुद्र डंडे का घोड़ा दबाये चला आता है। पड़ोसियों के पास जाती, तो रुद्र ही की चर्चा करती। रुद्र उसके दिल और जान में बसा हुआ था। सुखदा के कठोरतापूर्ण कुव्यवहार का उसके हृदय में ध्यान नहीं था। वह रोज इरादा करती थी कि आज रुद्र को देखने चलूँगी। उसके लिए बाज़ार से मिठाइयाँ और खिलौने लाती। घर से चलती, पर रास्ते से लौट आती। कभी दोचार क़दम से आगे नहीं बढ़ा जाता। कौन मुँह लेकर जाऊँ। जो प्रेम को धूर्तता समझता हो, उसे कौनसा मुँह दिखाऊँ कभी सोचती यदि रुद्र मुझे न पहचाने तो बच्चों के प्रेम का ठिकाना ही क्या नयी दाई से हिलमिल गया होगा। यह खयाल उसके पैरों पर जंजीर का काम कर जाता था।इस तरह दो हफ्ते बीत गये। कैलासी का जी उचटा रहता, जैसे उसे कोई लम्बी यात्रा करनी हो। घर की चीज़ें जहाँ की तहाँ पड़ी रहतीं, न खाने की सुधि थी, न कपड़े की। रातदिन रुद्र ही के ध्यान में डूबी रहती थी। संयोग से इन्हीं दिनों बद्रीनाथ की यात्रा का समय आ गया। मुहल्ले के कुछ लोग यात्रा की तैयारियाँ करने लगे। कैलासी की दशा इस समय उस पालतू चिड़िया कीसी थी, जो पिंजड़े से निकल कर फिर किसी कोने की खोज में हो। उसे विस्मृति का यह अच्छा अवसर मिल गया। यात्रा के लिए तैयार हो गयी।

  • 17: प्रेमचंद की कहानी "विस्मृति" Premchand Story "Vismriti"
    51 min 35 sec

    प्रातःकाल ग्रामवासियों ने आश्चर्यपूर्वक सुना कि ठाकुर ललनसिंह की किसी ने हत्या कर डाली। सारे गाँव के स्त्रीपुरुष, वृद्धयुवा सहस्त्रों की संख्या में चौपाल के सामने जमा हो गये। स्त्रियाँ पनघटों को जाती हुई रुक गयीं। किसान हलबैल लिये ज्यों के त्यों खड़े रह गये। किसी की समझ में न आता था कि यह हत्या किसने की। कैसा मिलनसार, हँसमुख, सज्जन मनुष्य था उनका कौन ऐसा शत्रु था। बेचारे ने किसी पर इजाफ़ा लगान या बेदख़ली की नालिश तक नहीं की। किसी को दो बात तक नहीं कही। दोनों भाइयों के नेत्रों से आँसू की धारा बहती थी। उनका घर उजड़ गया। सारी आशाओं पर तुषारपात हो गया। गुमानसिंह ने रोकर कहाहम तीन भाई थे, अब दो ही रह गये। हमसे तो दाँतकाटी रोटी थी। साथ उठना, हँसीदिल्लगी, भोजनछाजन एक हो गया था। हत्यारे से इतना भी नहीं देखा गया। हाय अब हमको कौन सहारा देगा शानसिंह ने आँसू पोंछते हुए कहाहम दोनों भाई कपास निराने जा रहे थे। ललनसिंह से कई दिन से भेंट नहीं हुई थी। सोचे कि इधर से होते चलें, किंतु पिछवाड़े आते ही सेंध दिखायी पड़ी। हाथों के तोते उड़ गये। दरवाज़े पर जाकर देखा तो चौकीदारसिपाही सब सो रहे हैं। उन्हें जगा कर ललनसिंह के किवाड़ खटखटाने लगे। परंतु बहुत बल करने पर भी किवाड़ अंदर से न खुले तो संेध के रास्ते से झाँका। आह कलेजे में तीर लग गया संसार अँधेरा दिखायी दिया। प्यारे ललनसिंह का सिर धड़ से अलग था। रक्त की नदी बह रही थी। शोक भैया सदा के लिए बिछुड़ गये।मध्याह्न काल तक इसी प्रकार विलाप होता रहा। दरवाज़े पर मेला लगा हुआ था। दूरदूर से लोग इस दुर्घटना का समाचार पाकर इकट्ठे होते जाते थे। संध्या होतेहोते हलके के दारोगा साहब भी चौकीदार और सिपाहियों का एक झुंड लिये आ पहुँचे। कढ़ाही चढ़ गयी। पूड़ियाँ छनने लगीं। दारोगा जी ने जाँच करनी शुरू की। घटनास्थल देखा। चौकीदारों का बयान हुआ। दोनों भाइयों के बयान लिखे। आसपास के पासी और चमार पकड़े गये और उन पर मार पड़ने लगी। ललनसिंह की लाश लेकर थाने पर गये। हत्यारे का पता न चला। दूसरे दिन इन्स्पेक्टरपुलिस का आगमन हुआ। उन्होंने भी गाँव का चक्कर लगाया, चमारों और पासियों की मरम्मत हुई। हलुआमोहन, गोश्तपूड़ी के स्वाद लेकर सायंकाल को उन्होंने भी अपनी राह ली। कुछ पासियों पर जो कि कई बार डाकेचोरी में पकड़े जा चुके थे, संदेह हुआ। उनका चालान किया। मजिस्ट्रेट ने गवाही पुष्ट पाकर अपराधियों को सेशन सुपुर्द किया और मुकदमे की पेशी होने लगी।मध्याह्न का समय था। आकाश पर मेघ छाये हुए थे। कुछ बूँदें भी पड़ रही थीं। सेशन जज कुँवर विनयकृष्ण बघेल के इजलास में मुकदमा पेश था। कुँवर साहब बड़े सोचविचार में थे कि क्या करूँ। अभियुक्तों के विरुद्ध साक्षी निर्बल थी। किंतु सरकारी वकील, जो एक प्रसिद्ध नीतिज्ञ थे, नजीरों पर नजीर पेश करते जाते थे कि अचानक दूजी श्वेत साड़ी पहने, घूँघट निकाले हुए निर्भय न्यायालय में आ पहुँची और हाथ जोड़ कर बोलीश्रीमान् मैं शानसिंह और गुमानसिंह की बहन हूँ। इस मामले में जो कुछ जानती हूँ वह मुझसे भी सुन लिया जाये, इसके बाद सरकार जो फैसला चाहें करें।

  • 18: प्रेमचंद की कहानी "प्रारब्ध" Premchand Story "Prarabdh"
    25 min 20 sec

    आधी रात गुजर चुकी। जीवनदास की हालत आज बहुत नाजुक थी। बारबार मूर्च्छा आ जाती। बारबार हृदय की गति रुक जाती। उन्हें ज्ञात होता था कि अब अन्त निकट है। कमरे में एक लैम्प जल रहा था। उनकी चारपाई के समीप ही प्रभावती और उसका बालक साथ सोए हुए थे। जीवनदास ने कमरे की दीवारों को निराशापूर्ण नेत्रों से देखा जैसे कोई भटका हुआ पथिक निवासस्थान की खोज में हो चारों ओर से घूम कर उनकी आँखें प्रभावती के चेहरे पर जम गयीं। हा यह सुन्दरी एक क्षण में विधवा हो जायेगी यह बालक पितृहीन हो जायेगा। यही दोनों व्यक्ति मेरी जीवनआशाओं के केन्द्र थे। मैंने जो कुछ किया, इन्हीं के लिए किया। मैंने अपना जीवन इन्हीं पर समर्पण कर दिया था और अब इन्हें मँझधार में छोड़े जाता हूँ। इसलिए कि वे विपत्ति भँवर के कौर बन जायँ। इन विचारों ने उनके हृदय को मसोस दिया। आँखों से आँसू बहने लगे।अचानक उनके विचारप्रवाह में एक विचित्र परिवर्तन हुआ। निराशा की जगह मुख पर एक दृढ़ संकल्प की आभा दिखायी दी, जैसे किसी गृहस्वामिनी की झिड़कियाँ सुन कर एक दीन भिक्षुक के तेवर बदल जाते हैं। नहीं, कदापि नहीं मैं अपने प्रिय पुत्र और अपनी प्राणप्रिया पत्नी पर प्रारब्ध का अत्याचार न होने दूँगा। अपने कुल की मर्यादा को भ्रष्ट न होने दूँगा। अबला को जीवन की कठिन परीक्षा में न डालूँगा। मैं मर रहा हूँ, लेकिन प्रारब्ध के सामने सिर न झुकाऊँगा। उसका दास नहीं, स्वामी बनूँगा। अपनी नौका को निर्दय तरंगों के आश्रित न बनने दूँगा।‘‘निःसन्देह संसार मुँह बनायेगा। मुझे दुरात्मा, घातक नराधम कहेगा। इसलिए कि उसके पाशविक आमोद में, उसकी पैशाचिक क्रीड़ाओं में एक व्यवस्था कम हो जायगी। कोई चिन्ता नहीं, मुझे सन्तोष तो रहेगा कि उसका अत्याचार मेरा बाल भी बाँका नहीं कर सकता। उसकी अनर्थ लीला से मैं सुरक्षित हूँ।’’जीवनदास के मुख पर वर्णहीन संकल्प अंकित था। वह संकल्प जो आत्महत्या का सूचक है। वह बिछौने से उठे, मगर हाथपाँव थरथर काँप रहे थे। कमरे की प्रत्येक वस्तु उन्हें आँखें फाड़फाड़ कर देखती हुई जान पड़ती थीं। आलमारी के शीशे में अपनी परछाईं दिखायी दी। चौंक पड़े, वह कौन खयाल आ गया, यह तो अपनी छाया है। उन्होंने आलमारी से एक चमचा और एक प्याला निकाला। प्याले में वह ज़हरीली दवा थी जो डॉक्टर ने उनकी छाती पर मलने के लिए दी थी प्याले को हाथ में लिये चारों ओर सहमी हुई दृष्टि से ताकते हुए वह प्रभावती के सिरहाने आ कर खड़े हो गये। हृदय पर करुणा का आवेग हुआ। ‘‘आह इन प्यारों को क्या मेरे ही हाथों मरना लिखा था मैं ही इनका यमदूत बनूँगा। यह अपने ही कर्मों का फल है। मैं आँखें बन्द करके वैवाहिक बन्धन में फँसा। इन भावी आपदाओं की ओर क्यों मेरा ध्यान न गया मैं उस समय ऐसा हर्षित और प्रफुल्लित था, मानो जीवन एक अनादि सुखस्वर है, एकएक सुधामय आनन्द सरोवर। यह इसी अदूरदर्शिता का परिणाम है कि आज मैं यह दुर्दिन देख रहा हूँ।’’हठात् उनके पैरों में कम्पन हुआ, आँखों में अँधेरा छा गया, नाड़ी की गति बन्द होने लगी। वे करुणामयी भावनाएँ मिट गयीं। शंका हुई, कौन जाने यही दौरा जीवन का अन्त न हो। वह सँभल कर उठे और प्याले से दवा का एक चम्मच निकाल कर प्रभावती के मुँह में डाल दिया। उसने नींद में दोएक बार मुँह डुला कर करवट बदल ली। तब उन्होंने लखनदास का मुँह खोल कर उसमें भी एक चम्मच भर दवा डाल दी और प्याले को ज़मीन पर पटक दिया।

  • 19: प्रेमचंद की कहानी "सुहाग की साड़ी" Premchand Story "Suhag Ki Saree"
    20 min 53 sec

    रतनसिंह ने कुछ उत्तर न दिया। तब गौरा ने अपना संदूक खोला और जलन के मारे स्वदेशीविदेशी सभी कपड़े निकालनिकाल कर फेंकने लगी। वह आवेशप्रवाह में आ गयी। उनमें कितनी ही बहुमूल्य फैंसी जाकेट और साड़ियाँ थीं जिन्हें किसी समय पहन कर वह फूली न समाती थी। बाजबाज साड़ियों के लिए तो उसे रतनसिंह से बारबार तकाजे करने पड़े थे। पर इस समय सब की सब आँखों में खटक रही थीं। रतनसिंह उसके भावों को ताड़ रहे थे। स्वदेशी कपड़ों का निकाला जाना उन्हें अखर रहा था, पर इस समय चुप रहने ही में कुशल समझते थे। तिस पर भी दोएक बार वादविवाद की नौबत आ ही गयी। एक बनारसी साड़ी के लिए तो वह झगड़ बैठे, उसे गौरा के हाथों से छीन लेना चाहा, पर गौरा ने एक न मानी, निकाल ही फेंका। सहसा संदूक में से एक केसरिया रंग की तनजेब की साड़ी निकल आयी जिस पर पक्के आँचल और पल्ले टँके हुए थे। गौरा ने उसे जल्दी से लेकर अपनी गोद में छिपा लिया।

  • 20: प्रेमचंद की कहानी "लोकमत का सम्मान" Premchand Story "Lokmat Ka Samman"
    18 min 4 sec

    बेचू शहर में आया तो ऐसा जान पड़ा कि मेरे लिए पहले से ही जगह ख़ाली थी। उसे केवल एक कोठरी किराये पर लेनी पड़ी और काम चल निकला। पहले तो वह किराया सुनकर चकराया। देहात में तो उसे महीने में इतनी धुलाई भी न मिलती थी। पर जब धुलाई की दर मालूम हुई तो किराये की अखर मिट गयी। एक ही महीने में गाहकों की संख्या उसकी गणनाशक्ति से अधिक हो गयी। यहाँ पानी की कमी न थी। वह वादे का पक्का था। अभी नागरिक जीवन के कुसंस्कारों से मुक्त था। कभीकभी उसकी एक दिन की मज़दूरी देहात की वार्षिक आय से बढ़ जाती थी।लेकिन तीन ही चार महीने में उसे शहर की हवा लगने लगी। पहले नारियल पीता था, अब एक गुड़गुड़ी लाया। नंगे पाँव जूते से वेष्टित हो गये और मोटे अनाज से पाचनक्रिया में विघ्न पड़ने लगा। पहले कभीकभी तीजत्यौहार के दिन शराब पी लिया करता था, अब थकान मिटाने के लिए नित्य उसका सेवन होने लगा। स्त्री को आभूषणों की चाट पड़ी। और धोबिनें बनठनकर निकलती हैं, मैं किससे कम हूँ। लड़के खोंचे पर लट्टू हुए, हलवे और मूँगफली की आवाज़ सुनकर अधीर हो जाते। उधर मकान के मालिक ने किराया बढ़ा दिया भूसा और खली भी मोतियों के मोल बिकती थी। लादी के दोनों बैलों का पेट भरने में एक ख़ासी रकम निकल जाती थी। अतएव पहले कई महीनों में जो बचत हो जाती थी, वह अब गायब हो गयी। कभीकभी खर्च का पलड़ा भारी हो जाता लेकिन किफायत करने की कोई विधि समझ में न आती थी। निदान स्त्री ने बेचू की नज़र बचाकर गाहकों के कपड़े पछाई देने शुरू किये।

  • 21: प्रेमचंद की कहानी "नागपूजा" Premchand Story "Naagpooja"
    23 min 9 sec

    तिलोत्तमा अभी कुछ जवाब न देने पायी थी कि अचानक बारात की ओर से रोने के शब्द सुनायी दिये, एक क्षण में हाहाकार मच गया। भयंकर शोकघटना हो गयी। वर को साँप ने काट लिया। वह बहू को विदा कराने आ रहा था। पालकी में मसनद के नीचे एक काला साँप छिपा हुआ था। वर ज्यों ही पालकी में बैठा, साँप ने काट लिया।चारों ओर कुहराम मच गया। तिलोत्तमा पर तो मानो वज्रपात हो गया। उसकी माँ सिर पीटपीट कर रोने लगी। उसके पिता बाबू जगदीशचंद्र मूर्छित हो कर गिर पड़े। हृद्रोग से पहले ही से ग्रस्त थे। झाड़फूँक करने वाले आये, डॉक्टर बुलाये गये, पर विष घातक था। जरा देर में वर के होंठ नीले पड़ गये, नख काले हो गये, मूर्च्छा आने लगी। देखतेदेखते शरीर ठंडा पड़ गया। इधर उषा की लालिमा ने प्रकृति को आलोकित किया, उधर टिमटिमाता हुआ दीपक बुझ गया।जैसे कोई मनुष्य बोरों से लदी हुई नाव पर बैठा हुआ मन में झुँझलाता है कि यह और तेज क्यों् नहीं चलती, कहीं आराम से बैठने की जगह नहीं, यह इतनी हिल क्यों रही है, मैं व्यर्थ ही इसमें बैठा पर अकस्मात् नाव को भँवर में पड़ते देख कर उसके मस्तूल से चिपट जाता है, वही दशा तिलोत्तमा की हुई। अभी तक वह वियोगदुःख में ही मग्न थी, ससुराल के कष्टों और दुर्व्यवस्थाओं की चिंताओं में पड़ी हुई थी। पर, अब उसे होश आया कि इस नाव के साथ मैं भी डूब रही हूँ। एक क्षण पहले वह कदाचित् जिस पुरुष पर झुँझला रही थी, जिसे लुटेरा और डाकू समझ रही थी, वह अब कितना प्यारा था। उसके बिना अब जीवन एक दीपक था, बुझा हुआ। एक वृक्ष था, फलफूल विहीन। अभी एक क्षण पहले वह दूसरों की ईर्ष्या का कारण थी, अब दया और करुणा की।

  • 1: प्रेमचंद की कहानी "ख़ून सफ़ेद" Premchand Story "Khoon Safed"
    24 min 12 sec

    देवकी ने पति को करुण दृष्टि से देखा। उसकी आँखों में आँसू उमड़ आये। पति दिन भर का थकामाँदा घर आया है। उसे क्या खिलाए लज्जा के मारे वह हाथपैर धोने के लिए पानी भी न लायी। जब हाथपैर धोकर आशाभरी चितवन से वह उसकी ओर देखेगा, तब वह उसे क्या खाने को देगी उसने आप कई दिन से दाने की सूरत नहीं देखी थी। लेकिन इस समय उसे जो दु:ख हुआ, वह क्षुधातुरता के कष्ट से कई गुना अधिक था। स्त्री घर की लक्ष्मी है घर के प्राणियों को खिलानापिलाना वह अपना कर्त्तव्य समझती है। और चाहे यह उसका अन्याय ही क्यों न हो, लेकिन अपनी दीनहीन दशा पर जो मानसिक वेदना उसे होती है, वह पुरुषों को नहीं हो सकती।हठात् उसका बच्चा साधो नींद से चौंका और मिठाई के लालच में आकर वह बाप से लिपट गया। इस बच्चे ने आज प्रायः काल चने की रोटी का एक टुकड़ा खाया था। और तब से कई बार उठा और कई बार रोतेरोते सो गया। चार वर्ष का नादान बच्चा, उसे वर्षा और मिठाई में कोई संबंध नहीं दिखाई देता था। जादोराय ने उसे गोद में उठा लिया और उसकी ओर दुःख भरी दृष्टि से देखा। गर्दन झुक गई और हृदयपीड़ा आँखों में न समा सकी।दूसरे दिन वह परिवार भी घर से बाहर निकला। जिस तरह पृरुष के चित्त अभिमान और स्त्री की आँख से लज्जा नहीं निकलती, उसी तरह अपनी मेहनत से रोटी कमाने वाला किसान भी मज़दूरी की खोज में घर से बाहर नहीं निकलता। लेकिन हा पापी पेट तू सब कुछ कर सकता है मान और अभिमान, ग्लानि और लज्जा के सब चमकते हुए तारे तेरी काली घटाओं की ओट में छिप जाते हैं।प्रभात का समय था। ये दोनों विपत्ति के सताए घर से निकले। जादोराय ने लड़के को पीठ पर लिया। देवकी ने फटेपुराने कपड़ों की वह गठरी सिर पर रखी, जिस पर विपत्ति को भी तरस आता। दोनों की आँखें आँसुओं से भरी थीं। देवकी रोती रही। जादोराय चुपचाप था।

  • 2: प्रेमचंद की कहानी "ग़रीब की हाय" Premchand Story "Ghareeb Ki Hai"
    29 min 28 sec

    अब कोई मूँगा का दुःख सुननेवाला और सहायक न था। दरिद्रता से जो कुछ दुःख भोगने पड़ते हैं, वह सब उसे झेलने पड़े। वह शरीर से पुष्ट थी, चाहती तो परिश्रम कर सकती थी पर जिस दिन पंचायत पूरी हुई, उसी दिन उसने काम न करने की कसम खा ली। अब उसे रातदिन रुपयों की रट लगी रहती। उठतेबैठते, सोतेजागते, उसे केवल एक काम था और वह मुंशी रामसेवक का भला मनाना। अपने झोपड़े के दरवाज़े पर बैठी हुई वह रातदिन उन्हें सच्चे मन से असीसा करती। बहुधा अपने असीस के वाक्यों में ऐसे कविता के वाक्य और उपमाओं का व्यवहार करती कि लोग सुनकर अचम्भे में आ जाते।धीरेधीरे मूँगा पगली हो चली। नंगेसिर, नंगे शरीर, हाथ में एक कुल्हाड़ी लिये हुए सुनसान स्थानों में जा बैठती।झोपड़ी के बदले अब वह मरघट पर, नदी के किनारे खंडहरों में घूमती दिखाई देती। बिखरी हुई लटें, लाललाल आँखें, पागलोंसा चेहरा, सूखे हुए हाथपाँव। उसका यह स्वरूप देखकर लोग डर जाते थे। अब कोई उसे हँसी में भी नहीं छेड़ता। यदि वह कभी गाँव में निकल आती, तो स्त्रियाँ घरों के किवाड़ बंद कर लेतीं। पुरुष कतराकर इधरउधर से निकल जाते और बच्चे चीख मारकर भागते। यदि कोई लड़का भागता न था, तो वह मुंशी रामसेवक का सुपुत्र रामगुलाम था। बाप में जो कुछ कोरकसर रह गई थी, वह बेटे में पूरी हो गई थी लड़कों का उसके मारे नाक में दम था। गाँव के काने लँगड़े आदमी उसकी सूरत से चिढ़ते थे और गालियाँ खाने में तो शायद ससुराल में आनेवाले दमाद को भी इतना आनंद न आता हो वह मूँगा के पीछे तालियाँ बजाता, कुत्तों को साथ लिए हुए उस समय तक रहता, जब तक वह बेचारी तंग आकर गाँव से निकल न जाती। रुपयापैसा, होशहवास खोकर उसे पगली की पदवी मिली और अब वह सचमुच पगली थी। अकेली बैठी अपनेआप घण्टों बातें किया करती जिसमें रामसेवक के मांस, हड्डी, चमड़े, आँखें, कलेजा आदि को खाने, मसलने, नोचने, खसोटने की बड़ी उत्कट इच्छा प्रकट की जाती थी और जब उसकी यह इच्छा सीमा तक पहुंच जाती, तो वह रामसेवक के घर की ओर मुँह करके खूब चिल्लाकर और डरावने शब्दों में हाँक लगाती, तेरा लोहू पीऊँगी।प्रायः रात के सन्नाटे में यह गरजती हुई आवाज़ सुनकर स्त्रियाँ चौंक पड़ती थीं। परन्तु इस आवाज़ से भयानक उसका ठठाकर हँसना था मुंशीजी के लहू पीने की कल्पित खुशी में वह ज़ोर से हँसा करती थी। इस, ठठाने से ऐसी आसुरिक उद्दण्डता, ऐसी पाशविक उग्रता टपकती थी कि रात को सुनकर लोगों का ख़ून ठंडा हो जाता था। मालूम होता, मानो, सैकड़ों उल्लू एक साथ हँस रहे हैं।

  • 3: प्रेमचंद की कहानी "बेटी का धन" Premchand Story "Beti Ka Dhan"
    21 min 50 sec

    इस गाँव के ज़मींदार ठाकुर जीतनसिंह थे, जिनकी बेगार के मारे गाँववालों का नाकों दम था। उस साल जब ज़िला मजिस्ट्रेट का दौरा हुआ और वह यहाँ के पुरातन चिह्नों की सैर करने के लिए पधारे, तो सुक्खू चौधरी ने दबी जबान से अपने गाँववालों की दुःखकहानी उन्हें सुनायी। हाकिमों से वार्तालाप करने में उसे तनिक भी भय न होता था। सुक्खू चौधरी को खूब मालूम था कि जीतनसिंह से रार मचाना सिंह के मुँह में सिर देना है। किंतु जब गाँववाले कहते थे कि चौधरी तुम्हारी ऐसेऐसे हाकिमों से मिताई है और हम लोगों को रातदिन रोते कटता है तो फिर तुम्हारी यह मित्रता किस दिन काम आवेगी। परोपकाराय सताम् विभूतयः। तब सुक्खू का मिज़ाज आसमान पर चढ़ जाता था। घड़ी भर के लिए वह जीतनसिंह को भूल जाता था। मजिस्ट्रेट ने जीतनसिंह से इसका उत्तर माँगा। उधर झगडू साहु ने चौधरी के इस साहसपूर्ण स्वामीद्रोह की रिपोर्ट जीतनसिंह को दी। ठाकुर साहब जल कर आग हो गये। अपने कारिंदे से बकाया लगान की बही माँगी। संयोगवश चौधरी के जिम्मे इस साल का कुछ लगान बाकी था। कुछ तो पैदावार कम हुई, उस पर गंगाजली का ब्याह करना पड़ा। छोटी बहू नथ की रट लगाये हुए थी वह बनवानी पड़ी। इन सब खर्चों ने हाथ बिलकुल ख़ाली कर दिया था। लगान के लिए कुछ अधिक चिंता नहीं थी। वह इस अभिमान में भूला हुआ था कि जिस जबान में हाकिमों को प्रसन्न करने की शक्ति है, क्या वह ठाकुर साहब को अपना लक्ष्य न बना सकेगी बूढ़े चौधरी इधर तो अपने गर्व में निश्चिंत थे और उधर उन पर बकाया लगान की नालिश ठुक गयी। सम्मन आ पहुँचा। दूसरे दिन पेशी की तारीख पड़ गयी। चौधरी को अपना जादू चलाने का अवसर न मिला।जिन लोगों के बढ़ावे में आ कर सुक्खू ने ठाकुर से छेड़छाड़ की थी, उनका दर्शन मिलना दुर्लभ हो गया। ठाकुर साहब के सहने और प्यादे गाँव में चील की तरह मँडराने लगे। उनके भय से किसी को चौधरी की परछाईं काटने का साहस न होता था। कचहरी वहाँ से तीन मील पर थी। बरसात के दिन, रास्ते में ठौरठौर पानी, उमड़ी हुई नदियाँ, रास्ता कच्चा, बैलगाड़ी का निबाह नहीं, पैरों में बल नहीं, अतः अदमपैरवी में मुकदमे एकतरफा फैसला हो गया।कुर्की का नोटिस पहुँचा तो चौधरी के हाथपाँव फूल गये। सारी चतुराई भूल गयी। चुपचाप अपनी खाट पर पड़ापड़ा नदी की ओर ताकता और अपने मन में कहता, क्या मेरे जीते जी घर मिट्टी में मिल जायगा।

  • 4: प्रेमचंद की कहानी "धर्मसंकट" Premchand Story "DharmSankat"
    16 min 30 sec

    मि. कैलाश पश्चिमी सभ्यता के प्रवाह में बहने वाले अपने अन्य सहयोगियों की भाँति हिंदू जाति, हिंदू सभ्यता, हिंदी भाषा और हिंदुस्तान के कट्टर विरोधी थे। हिंदू सभ्यता उन्हें दोषपूर्ण दिखाई देती थी अपने इन विचारों को वे अपने ही तक परिमित न रखते थे, बल्कि बड़ी ही ओजस्विनी भाषा में इन विषयों पर लिखते और बोलते थे। हिंदू सभ्यता के विवेकी भक्त उनके इन विवेकशून्य विचारों पर हँसते थे परन्तु उपहास और विरोध तो सुधारक के पुरस्कार हैं। मि. कैलाश उनकी कुछ परवाह न करते थे। वे कोरे वाक्यवीर ही न थे, कर्मवीर भी पूरे थे। कामिनी की स्वतंत्रता उनके विचारों का प्रत्यक्ष स्वरूप थी। सौभाग्यवश कामिनी के पति गोपालनारायण भी इन्हीं विचारों में रँगे हुए थे। वे साल भर से अमेरिका में विद्याध्ययन करते थे। कामिनी भाई और पति के उपदेशों से पूरापूरा लाभ उठाने में कमी न करती थी।लखनऊ में अल्फ्रेड थिएटर कम्पनी आयी हुई थी। शहर में जहाँ देखिए, उसी तमाशे की चर्चा थी। कामनी की रातें बड़े आनंद से कटती थीं रात भर थियेटर देखती, दिन को कुछ सोती और कुछ देर वही थियेटर के गीत अलापती सौंदर्य और प्रीति के नव रमणीय संसार में रमण करती थी, जहाँ का दुःख और क्लेश भी इस संसार के सुख और आनंद से बढ़कर मोददायी है। यहाँ तक कि तीन महीने बीत गए, प्रणय की नित्य नई मनोहर शिक्षा और प्रेम के आनंदमय अलापविलाप का हृदय पर कुछनकुछ असर होना चाहिए था, सो भी इस चढ़ती जवानी में। वह असर हुआ। इसका श्रीगणेश उसी तरह हुआ, जैसा कि बहुधा हुआ करता है।

  • 5: प्रेमचंद की कहानी "सेवा मार्ग" Premchand Story "Sewa Maarg"
    18 min 36 sec

    धनी लोग तारा के भय से थर्राने लगे। उसके आश्चर्यजनक सौंदर्य ने संसार को चकित कर दिया। बड़ेबड़े महीपति उसकी चौखट पर माथा रगड़ने लगे। जिसकी ओर उसकी कृपादृष्टि हो जाती, वह अपना अहौभाग्य समझता, सदैव के लिए उसका बेदाम का ग़ुलाम बन जाता।एक दिन तारा अपनी आनंदवाटिका में टहल रही थी। अचानक किसी के गाने का मनोहर शब्द सुनाई दिया। तारा विक्षिप्त हो गई। उसके दरबार में संसार के अच्छेअच्छे गवैये मौजूद थे पर वह चित्ताकर्षकता, जो इन सुरों में थी, कभी अवगत न हुई थी। तारा ने गायक को बुला भेजा।एक क्षण के अनंतर में वाटिका में एक साधु आया, सिर पर जटाएँ, शरीर में भस्म रमाए। उसके साथ एक टूटा हुआ बीन था। उसी से वह प्रभावशाली स्वर निकालता था, जो हृदय के अनुरक्त स्वरों से कहीं प्रिय था। साधु आकर हौज़ के किनारे बैठ गया। उसने तारा के सामने शिष्टभाव नहीं दिखाया। आश्चर्य से इधरउधर दृष्टि नहीं डाली। उस रमणीय स्थान में वह अपना सुर अलापने लगा। तारा का चित्त विचलित हो उठा। दिल में अनुराग का संचार हुआ। मदमत्त होकर टहलने लगी। साधु के सुमनोहर मधुर अलाप से पक्षी मग्न हो गए। पानी में लहरें उठने लगीं। वृक्ष झूमने लगे। तारा ने उन चित्ताकर्षक सुरों से एक चित्र खिंचते हुए देखा। धीरेधीरे चित्र प्रकट होने लगा। उसमें स्फूर्ति आयी। और तब वह खड़ी नृत्य करने लगी। तारा चौंक पड़ी। उसने देखा कि यह मेरा ही चित्र है, नहीं, मैं ही हूं। मैं ही बीन की तान पर नृत्य कर रही हूं। उसे आश्चर्य हुआ कि मैं संसार की अलभ्य वस्तुओं की रानी हूँ अथवा एक स्वरचित्र। वह सिर धुनने लगी और मतवाली होकर साधु के पैरों से जा लगी।। उसकी दृष्टि में आश्चर्यजनक परिवर्तन हो गया सामने के फलेफूले वृक्ष और तरंगे मारता हुआ हौज़ और मनोहर कुंज सब लोप हो गए। केवल वही साधु बैठा बीन बजा रहा था, और वह स्वयं उसकी तानों पर थिरक रही थी। वह साधु अब प्रकाश मय तारा और अलौकिक सौंदर्य की मूर्ति बन गया था। जब मधुर अलाप बंद हुआ तब तारा होश में आयी। उसका चित्त हाथ से जा चुका था। वह उस विलक्षण साधु के हाथों बिक चुकी थी।

  • 6: प्रेमचंद की कहानी "शिकारी राजकुमार" Premchand Story "Shikaari Raajkumar"
    18 min 23 sec

    मई का महीना और मध्याह्न का समय था। सूर्य की आँखें सामने से हटकर सिर पर जा पहुँची थीं, इसलिए उनमें शील न था। ऐसा विदित होता था मानो पृथ्वी उनके भय से थरथर काँप रही थी। ठीक ऐसी ही समय एक मनुष्य एक हिरन के पीछे उन्मत्त चाल से घोड़ा फेंके चला आता था। उसका मुँह लाल हो रहा था और घोड़ा पसीने से लथपथ। किन्तु मृग भी ऐसा भागता था, मानो वायुवेग से जा रहा था। ऐसा प्रतीत होता था कि उसके पद भूमि को स्पर्श नहीं करते इस दौड़ की जीतहार पर उसका जीवननिर्भर था।पछुआ हवा बड़े ज़ोर से चल रही थी। ऐसा जान पड़ता था, मानो अग्नि और धूल की वर्षा हो रही हो। घोड़े के नेत्र रक्तवर्ण हो रहे थे और अश्वारोही के सारे शरीर का रुधिर उबलसा रहा था। किन्तु मृग का भागना उसे इस बात का अवसर न देता था कि अपनी बंदूक को सम्हाले। कितने ही ऊँख के खेत, ढाक के वन और पहाड़ सामने पड़े और तुरन्त ही सपनों की सम्पत्ति की भाँति अदृश्य हो गए।क्रमश: मृग और अश्वारोही के बीच अधिक अंतर होता जाता था कि अचानक मृग पीछे की ओर मुड़ा। सामने एक नदी का बड़ा ऊंचा कगार दीवार की भाँति खड़ा था। आगे भागने की राह बन्द थी और उस पर से कूंदना मानो मृत्यु के मुख में कूंदना था। हिरन का शरीर शिथिल पड़ गया। उसने एक करुणा भरी दृष्टि चारों ओर फेरी। किन्तु उसे हर तरफ मृत्युहीमृत्यु दृष्टिगोचर होती थी। अश्वारोही के लिए इतना समय बहुत था। उसकी बंदूक से गोली क्या छूटी, मानो मृत्यु के एक महाभयंकर जयध्वनि के साथ अग्नि की एक प्रचंड ज्वाला उगल दी। हिरन भूमि पर लोट गया।

  • 7: प्रेमचंद की कहानी "बलिदान" Premchand Story "Balidaan"
    20 min 6 sec

    गिरधारी उदास और निराश होकर घर आया। 100 रुपये का प्रबंध करना उसके काबू के बाहर था। सोचने लगा, अगर दोनों बैल बेच दूँ तो खेत ही लेकर क्या करूँगा घर बेचूँ तो यहाँ लेने वाला ही कौन है और फिर बाप दादों का नाम डूबता है। चारपाँच पेड़ हैं, लेकिन उन्हें बेचकर 25 रुपये या 30 रुपये से अधिक न मिलेंगे। उधार लूँ तो देता कौन है अभी बनिये के 50 रुपये सिर पर चढ़ हैं। वह एक पैसा भी न देगा। घर में गहने भी तो नहीं हैं, नहीं उन्हीं को बेचता। ले देकर एक हँसली बनवायी थी, वह भी बनिये के घर पड़ी हुई है। सालभर हो गया, छुड़ाने की नौबत न आयी। गिरधारी और उसकी स्त्री सुभागी दोनों ही इसी चिंता में पड़े रहते, लेकिन कोई उपाय न सूझता था। गिरधारी को खानापीना अच्छा न लगता, रात को नींद न आती। खेतों के निकलने का ध्यान आते ही उसके हृदय में हूकसी उठने लगती। हाय वह भूमि जिसे हमने वर्षों जोता, जिसे खाद से पाटा, जिसमें मेड़ें रखीं, जिसकी मेड़ें बनायी, उसका मजा अब दूसरा उठाएगा।वे खेत गिरधारी के जीवन का अंश हो गए थे। उनकी एकएक अंगुल भूमि उसके रक्त में रँगी हुई थी। उनके एकएक परमाणु उसके पसीने से तर हो रहा था।उनके नाम उसकी जिह्वा पर उसी तरह आते थे, जिस तरह अपने तीनों बच्चों के। कोई चौबीसो था, कोई बाईसो था, कोई नालबेला, कोई तलैयावाला। इन नामों के स्मरण होते ही खेतों का चित्र उसकी आँखों के सामने खिंच जाता था। वह इन खेतों की चर्चा इस, तरह करता, मानो वे सजीव हैं। मानो उसके भलेबुरे के साथी हैं। उसके जीवन की सारी आशाएँ, सारी इच्छाएँ, सारे मनसूबे, सारी मिठाइयाँ, सारे हवाई किले, इन्हीं खेतों पर अवलम्बित थे।इनके बिना वह जीवन की कल्पना ही नहीं कर सकता था। और वे ही सब हाथ से निकले जाते हैं। वह घबराकर घर से निकल जाता और घंटों खेतों की मेडों पर बैठा हुआ रोता, मानो उनसे विदा हो रहा है। इस तरह एक सप्ताह बीत गया और गिरधारी रुपये का कोई बंदोबस्त न कर सका। आठवें दिन उसे मालूम हुआ कि कालिकादीन ने 100 रुपये नजराने देकर 10 रुपये बीघे पर खेत ले लिये। गिरधारी ने एक ठंडी साँस ली। एक क्षण के बाद वह अपने दादा का नाम लेकर बिलखबिलखकर रोने लगा। उस दिन घर में चूल्हा नहीं जला। ऐसा मालूम होता था, मानो हरखू आज ही मरा है।

  • 8: प्रेमचंद की कहानी "बोध" Premchand Story "Bodh"
    16 min 37 sec

    यह कहकर उसने और भी पाँव फैला दिये और क्रोधपूर्ण नेत्रों से देखने लगा। पंडितजी अब तक चुपचाप खड़े थे। डरते थे कि कहीं मारपीट न हो जाय। अवसर पाकर ठाकुर साहब को समझाया। ज्योंही तीसरा स्टेशन आया, ठाकुर साहब ने बालबच्चों को वहाँ से निकालकर दूसरे कमरे में बैठाया। इन दोनों दुष्टों ने उनका असबाब उठाउठाकर ज़मीन पर फेंक दिया। जब ठाकुर साहब गाड़ी से उतरने लगे, तो उन्होंने उनको ऐसा धक्का दिया कि बेचारे प्लेटफार्म पर गिर पड़े। गार्ड से कहने दौड़े थे कि इंजन ने सीटी दी। जाकर गाड़ी में बैठ गए।उधर मुंशी बैजनाथ की और भी बुरी दशा थी। सारी रात जागते गुजरी। जरा पैर फैलाने की जगह न थी। आज उन्होंने जेब में बोतल भरकर रख ली थी प्रत्येक स्टेशन पर कोयलापानी ले लेते थे। फल यह हुआ कि पाचनक्रिया में विघ्न पड़ गया। एक बार उल्टी हुई और पेट में मरोड़ होने लगी। बेचारे बड़े मुश्किल में पड़े। चाहते थे कि किसी भाँति लेट जायँ, पर वहाँ पैर हिलाने को भी जगह न थी। लखनऊ तक तो उन्होंने किसी प्रकार जब्त किया। आगे चलकर विवश हो गए। एक स्टेशन पर उतर पड़े। खड़े न हो सकते थे। प्लेटफार्म पर लेट गए। पत्नी भी घबरायी। बच्चों को लेकर उतर पड़ी। असबाब उतारा, पर जल्दी में ट्रंक उतारना भूल गई। गाड़ी चल दी। दरोगा जी ने अपने मित्र को इस दशा में देखा तो वह भी उतर पड़े। समझ गए कि हजरत आज ज़्यादा चढ़ा गए। देखा तो मुंशी जी की दशा बिगड़ गई थी। ज्वर, पेट में दर्द, नसों में तनाव, कै और दस्त। बड़ा खटका हुआ। स्टेशन मास्टर ने यह दशा देखी तो समझा, हैजा हो गया है। हुक्म दिया कि रोगी को अभी बाहर ले जाओ। विवश होकर मुंशीजी को लोग एक पेड़ के नीचे उठा लाये। उनकी पत्नी रोने लगीं। हकीम डाक्टर की तलाश हुई।

  • 9: प्रेमचंद की कहानी "सच्चाई का उपहार" Premchand Story "Sachchai Ka Uphaar"
    17 min 11 sec

    यह कहते ही वह बाजबहादुर की तरफ घूँसा तानकर बढ़ा। जगत सिंह ने उसके दोनों हाथ पकड़ने चाहे। जयराम का छोटा भाई शिवराम अमरूद की एक टहनी लेकर झपटा। शेष लड़के चारों तरफ खड़े होकर तमाशा देखने लगे यह ‘रिजर्व’ सेना थी, जो आवश्यकता पड़ने पर मित्रदल की सहायता के लिए तैयार थी। बाजबहादुर दुर्बल लड़का था। उसकी मरम्मत करने को वह तीन मज़बूत लड़के काफ़ी थे। सब लोग यही समझ रहे थे कि क्षणभर में यह तीनों उसे गिरा लेंगे। बाजबहादुर ने देखा कि शत्रुओं ने शस्त्रप्रहार करना शुरू कर दिया, तो उसने कनखियों से इधरउधर देखा। तब तेजी से झपटकर शिवराम के हाथ से अमरूद की टहनी छीन ली और दो क़दम पीछे हटकर टहनी ताने हुए बोला—तुम मुझे सचाई का इनाम या, सज़ा देनेवाले कौन होते हो दोनों ओर से दाँव पेंच होंने लगे। बाजबहादुर था तो कमज़ोर, पर अत्यंत चपल और सतर्क था, उस पर सत्य का विश्वास हृदय को और भी बलवान बनाए हुए था। सत्य चाहे सिर कटा दे, लेकिन क़दम पीछे नहीं हटता। कई मिनट तक बाजबहादुर उछलउछलकर वार करता और हटाता रहा। लेकिन अमरूद की टहनी कहाँ तक थाम सकती। जरा देर में उसकी धज्जियाँ उड़ गईं। जब तक उसके हाथ में वह हरी तलवार रही कोई उसके निकट आने की हिम्मत न करता था। निहत्था होने पर भी वह ठोकरो और घूँसों से जबाव देता रहा। मगर अंत में अधिक संख्या ने विजय पायी। बाजबहादुर की पसली में जयराम का एक घूंसा ऐसा पड़ा कि वह बेदम होकर गिर पड़ा। आँखें पथरा गईं और मूर्च्छासी आ गई। शत्रुओं ने यह दशा देखी, तो उनके हाथों के तोते उड़ गए। समझे, इसकी जान निकल गई। बेतहाशा भागे।कोई दस मिनट के पीछे बाजबहादुर सचेत हुआ। कलेजे पर चोट लग गई थी। घाव ओछा पड़ा था, जिस पर भी खड़े होने की शक्ति न थी। साहस करके उठा और लँगड़ाता हुआ घर की ओर चला।

  • 10: प्रेमचंद की कहानी "ज्वालामुखी" Premchand Story "Jwalamukhi"
    31 min 15 sec

    मुझे यहाँ रहते एक महीने से अधिक हो गया, पर अब तक मुझ पर यह रहस्य न खुला कि यह सुन्दरी कौन है मैं किसका सेवक हूँ इसके पास इतना अतुल धन, ऐसीऐसी विलास की सामग्रियाँ कहाँ से आती हैं जिधर देखता था, ऐश्वर्य ही का आडम्बर दिखाई देता था। मेरे आश्चर्य की सीमा न थी, मानो किसी तिलिस्म में फँसा हूँ। इन जिज्ञासाओं का इस रमणी से क्या सम्बन्ध है यह भेद भी न खुलता था। मुझे नित्य उससे साक्षात् होता था, उसके सम्मुख आते ही मैं अचेतसा हो जाता था, उसकी चितवनों में एक आकर्षण था, जो मेरे प्राणों को खींच लिया करता था। मैं वाक्यशून्य हो जाता, केवल छिपी हुई आँखों से उसे देखा करता था। पर मुझे उसकी मृदुल मुस्कान और रसमयी आलोचनाओं तथा मधुर, काव्यमय भावों में प्रेमानंद की जगह एक प्रबल मानसिक अशांति का अनुभव होता था। उसकी चितवनें केवल हृदय को बाणों के समान छेदती थीं, उसके कटाक्ष चित्त को व्यस्त करते थे। शिकारी अपने शिकार को खिलाने में जो आनंद पाता है, वही उस परम सुंदरी को मेरी प्रेमातुरता में प्राप्त होता था। वह एक सौंदर्य ज्वाला थी जलाने के सिवाय और क्या कर सकती है तिस, पर मैं पतंग की भाँति उस ज्वाला पर अपने को समर्पण करना चाहता था। यही आकांक्षा होती कि उन पदकमलों पर सिर रखकर प्राण दे दूँ। यह केवल उपासक की भक्ति थी, काम और वासनाओं से शून्य।कभीकभी वह संध्या के समय अपने मोटरवोट पर बैठकर सागर की सैर करती तो ऐसा जान पड़ता, मानो चंद्रमा आकाशलालिमा में तैर रहा है। मुझे इस दृश्य में सुख प्राप्त होता था।

  • 11: प्रेमचंद की कहानी "पशु से मनुष्य" Premchand Story "Pashu Se Manushya"
    27 min 51 sec

    संध्या का समय था, चैत का महीना। मित्रगण आ कर बगीचे के हौज़ के किनारे कुरसियों पर बैठे थे। बर्फ़ और दूध का प्रबन्ध पहले ही से कर लिया गया था, पर अभी तक फल न तोड़े गये थे। डॉक्टर साहब पहले फलों को पेड़ में लगे हुए दिखला कर तब उन्हें तोड़ना चाहते थे, जिसमें किसी को यह संदेह न हो कि फल इनके बाग़ के नहीं हैं। जब सब सज्जन जमा हो गये तब उन्होंने कहा आप लोगों को कष्ट होगा, पर जरा चलकर फलों को पेड़ में लटके हुए देखिए। बड़ा ही मनोहर दृश्य है। गुलाब में भी ऐसी लोचनप्रिय लाली न होगी। रंग से स्वाद टपक पड़ता है। मैंने इसकी कलम ख़ास मलीहाबाद से मँगवायी थी और उसका विशेष रीति से पालन किया है।मित्रगण उठे। डॉक्टर साहब आगेआगे चले रविशों के दोनों ओर गुलाब की क्यारियाँ थीं। उनकी छटा दिखाते हुए वे अन्त में सुफेदे के पेड़ के सामने आ गये। मगर, आश्चर्य वहाँ एक फल भी न था। डॉक्टर साहब ने समझा, शायद वह यह पेड़ नहीं है। दो पग और आगे चले, दूसरा पेड़ मिल गया। और आगे बढ़े, तीसरा पेड़ मिला। फिर पीछे लौटे और एक विस्मित दशा में सुफेदे के वृक्ष के नीचे आ कर रुक गये। इसमें सन्देह नहीं कि वृक्ष यही है, पर फल क्या हुए बीसपच्चीस आम थे, एक का भी पता नहीं

  • 12: प्रेमचंद की कहानी "मूठ" Premchand Story "Mooth"
    33 min 22 sec

    डॉक्टर साहब डाक्टरी आय की कमी को कपड़े और शक्कर के कारखानों में हिस्से लेकर पूरा करते थे। आज संयोगवश बम्बई के कारखाने ने उनके पास वार्षिक लाभ के साढ़े सात सौ रुपये भेजे। डॉक्टर साहब ने बीमा खोला, नोट गिने, डाकिये को विदा किया, पर डाकिये के पास रुपये अधिक थे, बोझ से दबा जाता था। बोला हुज़ूर रुपये ले लें और मुझे नोट दे दें तो बड़ा अहसान हो, बोझ हलका हो जाय। डॉक्टर साहब डाकियों को प्रसन्न रखा करते थे, उन्हें मुफ़्त दवाइयाँ दिया करते थे। सोचा कि हाँ, मुझे बैंक जाने के लिए ताँगा मँगाना ही पड़ेगा, क्यों न बिन कौड़ी के उपकार वाले सिद्धांत से काम लूँ। रुपये गिन कर एक थैली में रख दिये और सोच ही रहे थे कि चलूँ उन्हें बैंक में रखता आऊँ कि एक रोगी ने बुला भेजा। ऐसे अवसर यहाँ कदाचित् ही आते थे। यद्यपि डॉक्टर साहब को बक्स पर भरोसा न था, पर विवश हो कर थैली बक्स में रखी और रोगी को देखने चले गये। वहाँ से लौटे तो तीन बज चुके थे, बैंक बंद हो चुका था। आज रुपये किसी तरह जमा न हो सकते थे। प्रतिदिन की भाँति औषधालय में बैठ गये। आठ बजे रात को जब घर के भीतर जाने लगे, तो थैली को घर ले जाने के लिए बक्स से निकाला, थैली कुछ हलकी जान पड़ी, तत्काल उसे दवाइयों के तराजू पर तौला, होश उड़ गये। पूरे पाँच सौ रुपये कम थे। विश्वास न हुआ। थैली खोल कर रुपये गिने। पाँच सौ रुपये कम निकले। विक्षिप्त अधीरता के साथ बक्स के दूसरे खानों को टटोला परंतु व्यर्थ। निराश होकर एक कुरसी पर बैठ गये और स्मरणशक्ति को एकत्र करने के लिए आँखें बँद कर दीं और सोचने लगे, मैंने रुपये कहीं अलग तो नहीं रखे, डाकिये ने रुपये कम तो नहीं दिये, मैंने गिनने में भूल तो नहीं की, मैंने पचीसपचीस रुपये की गड्डियाँ लगायी थीं, पूरी तीस गड्डियाँ थीं, खूब याद है। मैंने एकएक गड्डी गिन कर थैली में रखी, स्मरणशक्ति मुझे धोखा नहीं दे रही है। सब मुझे ठीकठीक याद है। बक्स का ताला भी बंद कर दिया था, किंतु ओह, अब समझ में आ गया, कुंजी मेज पर ही छोड़ दी, जल्दी के मारे उसे जेब में रखना भूल गया, वह अभी तक मेज पर पड़ी है। बस यही बात है, कुंजी जेब में डालने की याद नहीं रही, परंतु ले कौन गया, बाहर दरवाज़े बंद थे। घर में धरे रुपयेपैसे कोई छूता नहीं, आज तक कभी ऐसा अवसर नहीं आया। अवश्य यह किसी बाहरी आदमी का काम है। हो सकता है कि कोई दरवाज़ा खुला रह गया हो, कोई दवा लेने आया हो, कुंजी मेज पर पड़ी देखी हो और बक्स खोल कर रुपये निकाल लिये हों।इसी से मैं रुपये नहीं लिया करता, कौन ठिकाना डाकिये की ही करतूत हो, बहुत सम्भव है, उसने मुझे बक्स में थैली रखते देखा था। रुपये जमा हो जाते तो मेरे पास पूरे ... हज़ार रुपये हो जाते, ब्याज जोड़ने में सरलता होती। क्या करूँ। पुलिस को खबर दूँ व्यर्थ बैठेबिठाये उलझन मोल लेनी है। टोले भर के आदमियों की दरवाज़े पर भीड़ होगी। दसपाँच आदमियों को गालियाँ खानी पड़ेंगी और फल कुछ नहीं तो क्या धीरज धर कर बैठ रहूँ कैसे धीरज धरूँ यह कोई सेंतमेंत मिला धन तो था नहीं, हराम की कौड़ी होती तो समझता कि जैसे आयी, वैसे गयी। यहाँ एकएक पैसा अपने पसीने का है। मैं जो इतनी मितव्ययिता से रहता हूँ, इतने कष्ट से रहता हूँ, कंजूस प्रसिद्ध हूँ, घर के आवश्यक व्यय में भी काटछाँट करता हूँ, क्या इसीलिए कि किसी उचक्के के लिए मनोरंजन का सामान जुटाऊँ मुझे रेशम से घृणा नहीं, न मेवे ही अरुचिकर हैं, न अजीर्ण का रोग है कि मलाई खाऊँ और अपच हो जाय, न आँखों में दृष्टि कम है कि थियेटर और सिनेमा का आनन्द न उठा सकूँ। मैं सब ओर से अपने मन को मारे रहता हूँ, इसीलिए तो कि मेरे पास चार पैसे हो जायँ, काम पड़ने पर किसी के आगे हाथ फैलाना न पड़े। कुछ जायदाद ले सकूँ, और नहीं तो अच्छा घर ही बनवा लूँ। पर इस मन मारने का यह फल गाढ़े परिश्रम के रुपये लुट जायँ। अन्याय है कि मैं यों दिनदहाड़े लुट जाऊँ और उस दुष्ट का बाल भी टेढ़ा न हो। उसके घर दीवाली हो रही होगी, आनंद मनाया जा रहा होगा, सबकेसब बगलें बजा रहे होंगे।डॉक्टर साहब बदला लेने के लिए व्याकुल हो गये। मैंने कभी किसी फ़कीर को, किसी साधु को, दरवाज़े पर खड़ा होने नहीं दिया। अनेक बार चाहने पर भी मैंने कभी मित्रों को अपने यहाँ निमंत्रित नहीं किया, कुटुम्बियों और संबंधियों से सदा बचता रहा, क्या इसीलिए उसका पता लग जाता तो मैं एक विषैली सुई से उसके जीवन का अंत कर देता।

  • 13: प्रेमचंद की कहानी "ब्रह्म का स्वांग" Premchand Story "Brahm Ka Swaang"
    17 min 57 sec

    मैं वास्तव में अभागिन हूँ, नहीं तो क्या मुझे नित्य ऐसेऐसे घृणित दृश्य देखने पड़ते शोक की बात यह है कि वे मुझे केवल देखने ही नहीं पड़ते, वरन् दुर्भाग्य ने उन्हें मेरे जीवन का मुख्य भाग बना दिया है। मैं उस सुपात्र ब्राह्मण की कन्या हूँ, जिसकी व्यवस्था बड़ेबड़े गहन धार्मिक विषयों पर सर्वमान्य समझी जाती है। मुझे याद नहीं, घर पर कभी बिना स्नान और देवोपासना किये पानी की एक बूँद भी मुँह में डाली हो। मुझे एक बार कठिन ज्वर में स्नानादि के बिना दवा पीनी पड़ी थी उसका मुझे महीनों खेद रहा। हमारे घर में धोबी क़दम नहीं रखने पाता चमारिन दालान में भी नहीं बैठ सकती थी। किंतु यहाँ आ कर मैं मानो भ्रष्टलोक में पहुँच गयी हूँ। मेरे स्वामी बड़े दयालु, बड़े चरित्रवान और बड़े सुयोग्य पुरुष हैं उनके यह सद्गुण देख कर मेरे पिताजी उन पर मुग्ध हो गये थे। लेकिन वे क्या जानते थे कि यहाँ लोग अघोरपंथ के अनुयायी हैं। संध्या और उपासना तो दूर रही, कोई नियमित रूप से स्नान भी नहीं करता। बैठक में नित्य मुसलमान, क्रिस्तान सब आयाजाया करते हैं और स्वामी जी वहीं बैठेबैठे पानी, दूध, चाय पी लेते हैं। इतना ही नहीं, वह वहीं बैठेबैठे मिठाइयाँ भी खा लेते हैं। अभी कल की बात है, मैंने उन्हें लेमोनेड पीते देखा था। साईस जो चमार है, बेरोकटोक घर में चला आता है। सुनती हूँ वे अपने मुसलमान मित्रों के घर दावतें खाने भी जाते हैं। यह भ्रष्टाचार मुझसे नहीं देखा जाता। मेरा चित्त घृणा से व्याप्त हो जाता है। जब वे मुस्कराते हुए मेरे समीप आ जाते हैं और हाथ पकड़ कर अपने समीप बैठा लेते हैं तो मेरा जी चाहता है कि धरती फट जाय और मैं उसमें समा जाऊँ। हा हिंदू जाति तूने हम स्त्रियों को पुरुषों की दासी बनना ही क्या हमारे जीवन का परम कर्तव्य बना दिया हमारे विचारों का, हमारे सिद्धांतों का, यहाँ तक कि हमारे धर्म का भी कुछ मूल्य नहीं रहा।अब मुझे धैर्य नहीं। आज मैं इस अवस्था का अंत कर देना चाहती हूँ। मैं इस आसुरिक भ्रष्टजाल से निकल जाऊँगी। मैंने अपने पिता की शरण में जाने का निश्चय कर लिया है। आज यहाँ सहभोजन हो रहा है, मेरे पति उसमें सम्मिलित ही नहीं, वरन् उसके मुख्य प्रेषकों में हैं। इन्हीं के उद्योग तथा प्रेरणा में यह विधर्मीय अत्याचार हो रहा है। समस्त जातियों के लोग एक साथ बैठ कर भोजन कर रहे हैं। सुनती हूँ, मुसलमान भी एक ही पंक्ति में बैठे हुए हैं। आकाश क्यों नहीं गिर पड़ता क्या भगवान् धर्म की रक्षा करने के लिए अवतार न लेंगे। ब्राह्मण जाति अपने निजी बन्धुओं के सिवाय अन्य ब्राह्मणों का भी पकाया भोजन नहीं करती, वही महान् जाति इस अधोगति को पहुँच गयी कि कायस्थों, बनियों, मुसलमानों के साथ बैठ कर खाने में लेशमात्र भी संकोच नहीं करती, बल्कि इसे जातीय गौरव, जातीय एकता का हेतु समझती है।

  • 14: प्रेमचंद की कहानी "विमाता" Premchand Story "Vimata"
    12 min 19 sec

    मैं घर की ओर चला तो मन में विचार करने लगा कि किस प्रकार अपने क्रोध को प्रकट करूँ। क्यों न मुँह ढाँक कर सो रहूँ। अम्बा जब पूछे तो कठोरता से कह दूँ कि सिर में पीड़ा है, मुझे तंग मत करो। भोजन के लिए उठाये तो झिड़क कर उत्तर दूँ। अम्बा अवश्य समझ जायगी कि कोई बात मेरी इच्छा के प्रतिकूल हुई है। मेरे पाँव पकड़ने लगेगी। उस समय अपनी व्यंग्यपूर्ण बातों से उसका हृदय बेध डालूँगा। ऐसा रुलाऊँगा कि वह भी याद करे। पुनः विचार आया कि उसका हँसमुख चेहरा देख कर मैं अपने हृदय को वश में रख सकूँगा या नहीं। उसकी एक प्रेमपूर्ण दृष्टि, एक मीठी बात, एक रसीली चुटकी मेरी शिलातुल्य रुष्टता के टुकड़ेटुकड़े कर सकती है। परन्तु हृदय की इस निर्बलता पर मेरा मन झुँझला उठा। यह मेरी क्या दशा है, क्यों इतनी जल्दी मेरे चित्त की काया पलट गयी मुझे पूर्ण विश्वास था कि मैं इन मृदुल वाक्यों की आँधी और ललित कटाक्षों के बहाव में भी अचल रह सकता हूँ और कहाँ अब यह दशा हो गयी कि मुझमें साधारण झोंके को भी सहन करने की सामर्थ्य नहीं इन विचारों से हृदय में कुछ दृढ़ता आयी, तिस पर भी क्रोध की लगाम पगपग पर ढीली होती जाती थी। अंत में मैंने हृदय को बहुत दबाया और बनावटी क्रोध का भाव धारण किया। ठान लिया कि चलते ही चलते एकदम से बरस पडूँगा।

  • 15: प्रेमचंद की कहानी "बूढ़ी काकी" Premchand Story "Boodhi Kaaki"
    21 min 16 sec

    बूढ़ी काकी की कल्पना में पूड़ियों की तस्वीर नाचने लगी। ख़ूब लाललाल, फूलीफूली, नरमनरम होंगीं। रूपा ने भलीभाँति भोजन किया होगा। कचौड़ियों में अजवाइन और इलायची की महक आ रही होगी। एक पूड़ी मिलती तो जरा हाथ में लेकर देखती। क्यों न चल कर कड़ाह के सामने ही बैठूँ। पूड़ियाँ छनछनकर तैयार होंगी। कड़ाह से गरमगरम निकालकर थाल में रखी जाती होंगी। फूल हम घर में भी सूँघ सकते हैं, परन्तु वाटिका में कुछ और बात होती है। इस प्रकार निर्णय करके बूढ़ी काकी उकड़ूँ बैठकर हाथों के बल सरकती हुई बड़ी कठिनाई से चौखट से उतरीं और धीरेधीरे रेंगती हुई कड़ाह के पास जा बैठीं। यहाँ आने पर उन्हें उतना ही धैर्य हुआ जितना भूखे कुत्ते को खाने वाले के सम्मुख बैठने में होता है।रूपा उस समय कार्यभार से उद्विग्न हो रही थी। कभी इस कोठे में जाती, कभी उस कोठे में, कभी कड़ाह के पास जाती, कभी भंडार में जाती। किसी ने बाहर से आकर कहामहाराज ठंडई मांग रहे हैं। ठंडई देने लगी। इतने में फिर किसी ने आकर कहाभाट आया है, उसे कुछ दे दो। भाट के लिए सीधा निकाल रही थी कि एक तीसरे आदमी ने आकर पूछाअभी भोजन तैयार होने में कितना विलम्ब है जरा ढोल, मजीरा उतार दो। बेचारी अकेली स्त्री दौड़तेदौड़ते व्याकुल हो रही थी, झुंझलाती थी, कुढ़ती थी, परन्तु क्रोध प्रकट करने का अवसर न पाती थी। भय होता, कहीं पड़ोसिनें यह न कहने लगें कि इतने में उबल पड़ीं। प्यास से स्वयं कंठ सूख रहा था। गर्मी के मारे फुँकी जाती थी, परन्तु इतना अवकाश न था कि जरा पानी पी ले अथवा पंखा लेकर झले। यह भी खटका था कि जरा आँख हटी और चीज़ों की लूट मची। इस अवस्था में उसने बूढ़ी काकी को कड़ाह के पास बैठी देखा तो जल गई। क्रोध न रुक सका। इसका भी ध्यान न रहा कि पड़ोसिनें बैठी हुई हैं, मन में क्या कहेंगीं। पुरुषों में लोग सुनेंगे तो क्या कहेंगे। जिस प्रकार मेंढक केंचुए पर झपटता है, उसी प्रकार वह बूढ़ी काकी पर झपटी और उन्हें दोनों हाथों से झटक कर बोली ऐसे पेट में आग लगे, पेट है या भाड़ कोठरी में बैठते हुए क्या दम घुटता था अभी मेहमानों ने नहीं खाया, भगवान को भोग नहीं लगा, तब तक धैर्य न हो सका आकर छाती पर सवर हो गई। जल जाए ऐसी जीभ। दिन भर खाती न होती तो जाने किसकी हांडी में मुँह डालती गाँव देखेगा तो कहेगा कि बुढ़िया भरपेट खाने को नहीं पाती तभी तो इस तरह मुँह बाए फिरती है। डायन न मरे न मांचा छोड़े। नाम बेचने पर लगी है। नाक कटवा कर दम लेगी। इतनी ठूँसती है न जाने कहां भस्म हो जाता है। भला चाहती हो तो जाकर कोठरी में बैठो, जब घर के लोग खाने लगेंगे, तब तुम्हे भी मिलेगा। तुम कोई देवी नहीं हो कि चाहे किसी के मुँह में पानी न जाए, परन्तु तुम्हारी पूजा पहले ही हो जाए।बूढ़ी काकी ने सिर उठाया, न रोईं न बोलीं। चुपचाप रेंगती हुई अपनी कोठरी में चली गईं। आवाज़ ऐसी कठोर थी कि हृदय और मष्तिष्क की सम्पूर्ण शक्तियाँ, सम्पूर्ण विचार और सम्पूर्ण भार उसी ओर आकर्षित हो गए थे। नदी में जब कगार का कोई वृहद खंड कटकर गिरता है तो आसपास का जल समूह चारों ओर से उसी स्थान को पूरा करने के लिए दौड़ता है।

  • 16: प्रेमचंद की कहानी "हार की जीत" Premchand Story "Haar Ki Jeet"
    36 min 33 sec

    दीवान साहब ने मुझसे हाथ मिलाया और कोई घंटे भर तक आर्थिक और सामाजिक प्रश्नों पर वार्तालाप करते रहे। मुझे उनकी बहुज्ञता पर आश्चर्य होता था। ऐसा वाक्चतुर पुरुष मैंने कभी न देखा था। साठ वर्ष की वयस थी, पर हास्य और विनोद के मानो भंडार थे। न जाने कितने श्लोक, कितने कवित्त, कितने शेर उन्हें याद थे। बातबात पर कोई न कोई सुयुक्ति निकाल लाते थे। खेद है उस प्रकृति के लोग अब गायब होते जाते हैं। वह शिक्षा प्रणाली न जाने कैसी थी, जो ऐसेऐसे रत्न उत्पन्न करती थी। अब तो सजीवता कहीं दिखायी ही नहीं देती। प्रत्येक प्राणी चिन्ता की मूर्ति है, उसके होंठों पर कभी हँसी आती ही नहीं। खैर, दीवान साहब ने पहले चाय मँगवायी, फिर फल और मेवे मँगवाये। मैं रहरह कर इधरउधर उत्सुक नेत्रों से देखता था। मेरे कान उसके स्वर का रसपान करने के लिए मुँह खोले हुए थे, आँखें द्वार की ओर लगी हुई थीं। भय भी था और लगाव भी, झिझक भी थी और खिंचाव भी। बच्चा झूले से डरता है पर उस पर बैठना भी चाहता है।लेकिन रात के नौ बज गये, मेरे लौटने का समय आ गया। मन में लज्जित हो रहा था कि दीवान साहब दिल में क्या कह रहे होंगे। सोचते होंगे इसे कोई काम नहीं है जाता क्यों नहीं, बैठेबैठे दो ढाई घंटे तो हो गये।सारी बातें समाप्त हो गयीं। उनके लतीफे भी खत्म हो गये। वह नीरवता उपस्थित हो गयी, जो कहती है कि अब चलिए फिर मुलाकात होगी। यार जिंदा व सोहबत बाकी। मैंने कई बार उठने का इरादा किया, लेकिन इंतज़ार में आशिक की जान भी नहीं निकलती, मौत को भी इंतज़ार का सामना करना पड़ता है। यहाँ तक कि साढ़े नौ बज गये और अब मुझे विदा होने के सिवाय कोई मार्ग न रहा, जैसे दिल बैठ गया।जिसे मैंने भय कहा है, वह वास्तव में भय नहीं था, वह उत्सुकता की चरम सीमा थी।यहाँ से चला तो ऐसा शिथिल और निर्जीव था मानो प्राण निकल गये हों। अपने को धिक्कारने लगा। अपनी क्षुद्रता पर लज्जित हुआ। तुम समझते हो कि हम भी कुछ हैं। यहाँ किसी की तुम्हारे मरनेजीने की परवाह नहीं। माना उसके लक्षण क्वाँरियों केसे हैं। संसार में क्वाँरी लड़कियों की कमी नहीं। सौंदर्य भी ऐसी दुर्लभ वस्तु नहीं। अगर प्रत्येक रूपवती और क्वाँरी युवती को देख कर तुम्हारी वही हालत होती रही तो ईश्वर ही मालिक है।वह भी तो अपने दिल में यही विचार करती होगी। प्रत्येक रूपवान युवक पर उसकी आँखें क्यों उठें। कुलवती स्त्रियों के यह ढंग नहीं होते। पुरुषों के लिए अगर यह रूपतृष्णा निंदाजनक है तो स्त्रियों के लिए विनाशकारक है। द्वैत से अद्वैत को भी इतना आघात नहीं पहुँच सकता, जितना सौंदर्य को।दूसरे दिन शाम को मैं अपने बरामदे में बैठा पत्र देख रहा था। क्लब जाने को भी जी नहीं चाहता था। चित्त कुछ उदास था। सहसा मैंने दीवान साहब को फिटन पर आते देखा। मोटर से उन्हें घृणा थी। वह उसे पैशाचिक उड़नखटोला कहा करते थे। उसके बगल में सुशीला थी। मेरा हृदय धक्धक् करने लगा। उसकी निगाह मेरी तरफ उठी हो या न उठी हो, पर मेरी टकटकी उस वक्त तक लगी रही जब तक फिटन अदृश्य न हो गयी।तीसरे दिन मैं फिर बरामदे में आ बैठा। आँखें सड़क की ओर लगी हुई थीं। फिटन आयी और चली गयी। अब यही उसका नित्यप्रति का नियम हो गया है। मेरा अब यही काम था कि सारे दिन बरामदे में बैठा रहूँ। मालूम नहीं फिटन कब निकल जाय। विशेषतः तीसरे पहर तो मैं अपनी जगह से हिलने का नाम भी न लेता था।

  • 17: प्रेमचंद की कहानी "दफ्तरी" Premchand Story "Daftari"
    13 min

    सौभाग्य से उसकी पत्नी भी साध्वी थी। यद्यपि उसका घर बहुत छोटा था, पर किसी ने द्वार पर उसकी आवाज़ नहीं सुनी। किसी ने उसे द्वार पर झाँकते नहीं देखा। वह गहनेकपड़ों के तगादों से पति की नींद हराम न करती थी। दफ़्तरी उसकी पूजा करता था। वह गाय का गोबर उठाती, घोड़ों को घास डालती, बिल्ली को अपने साथ बिठा कर खिलाती, यहाँ तक कि कुत्ते को नहलाने से भी उसे घृणा न होती थी।बरसात थी, नदियों में बाढ़ आयी हुई थी। दफ़्तर के कर्मचारी मछलियों का शिकार खेलने चले। शामत का मारा रफाकत भी उनके साथ हो लिया। दिन भर लोग शिकार खेला किये, शाम को मूसलाधार पानी बरसने लगा। कर्मचारियों ने तो एक गाँव में रात काटी, दफ़्तरी घर चला, पर अँधेरी रात राह भूल गया और सारी रात भटकता फिरा। प्रातःकाल घर पहुँचा तो अभी अँधेरा ही था, लेकिन दोनों द्वारपट खुले हुए थे। उसका कुत्ता पूँछ दबाये करुणस्वर से कराहता हुआ आकर, उसके पैरों पर लोट गया। द्वार खुले देख कर दफ़्तरी का कलेजा सन्नसे हो गया। घर में क़दम रखे तो बिलकुल सन्नाटा था। दोतीन बार स्त्री को पुकारा, किंतु कोई उत्तर न मिला। घर भाँयभाँय कर रहा था। उसने दोनों कोठरियों में जा कर देखा। जब वहाँ भी उसका पता न मिला तो पशुशाला में गया। भीतर जाते हुए अज्ञात भय हो रहा था जो किसी अँधेरे खोह में जाते हुए होता है। उसकी स्त्री वहीं भूमि पर चित पड़ी हुई थी। मुँह पर मक्खियाँ बैठी हुई थीं, होंठ नीले पड़ गये थे, आँखें पथरा गयी थीं। लक्षणों से अनुमान होता था कि साँप ने डस लिया है।दूसरे दिन रफाकत आया तो उसे पहचानना मुश्किल था। मालूम होता था, बरसों का रोगी है। बिलकुल खोया हुआ, गुमसुम बैठा रहा मानो किसी दूसरी दुनिया में है। संध्या होते ही वह उठा और स्त्री की क़ब्र पर जा कर बैठ गया। अँधेरा हो गया। तीनचार घड़ी रात बीत गयी, पर दीपक के टिमटिमाते हुए प्रकाश में उसी क़ब्र पर नैराश्य और दुःख की मूर्ति बना बैठा रहा, मानो मृत्यु की राह देख रहा हो। मालूम नहीं, कब घर आया। अब यही उसका नित्य का नियम हो गया। प्रातःकाल उठ कर मजार पर जाता, झाडू लगाता, फूलों के हार चढ़ाता, लोबान जलाता और नौ बजे तक क़ुरआन का पाठ करता, संध्या समय फिर यही क्रम शुरू होता। अब यही उसके जीवन का नियमित कर्म था। अब वह अंतर्जगत में बसता था। बाह्य जगत् से उसने मुँह मोड़ लिया था। शोक ने विरक्त कर दिया था।कई महीने तक यही हाल रहा। कर्मचारियों को दफ़्तरी से सहानुभूति हो गयी थी। उसके काम कर लेते, उसे कष्ट न देते। उसकी पत्नीभक्ति पर लोगों को विस्मय होता था।लेकिन मनुष्य सर्वदा प्राणलोक में नहीं रह सकता। वहाँ का जलवायु उसके अनुकूल नहीं। वहाँ वह रूपमय, रसमय, भावनाएँ कहाँ विराग में वह चिंतामय उल्लास कहाँ वह आशामय आनंद कहाँ दफ़्तरी को आधी रात तक ध्यान में डूबे रहने के बाद चूल्हा जलाना पड़ता, प्रातःकाल पशुओं की देखभाल करनी पड़ती। यह बोझा उसके लिए असह्य था। अवस्था ने भावुकता पर विजय पायी। मरुभूमि के प्यासे पथिक की भाँति दफ़्तरी फिर दाम्पत्यसुख जल स्त्रोत की ओर दौड़ा। वह फिर जीवन का यही सुखद अभिनय देखना चाहता था। पत्नी की स्मृति दाम्पत्यसुख के रूप में विलीन होने लगी। यहाँ तक कि छह महीने में उस स्थिति का चिह्न भी शेष न रहा।

  • 18: प्रेमचंद की कहानी "विध्वंस" Premchand Story "Vidhwans"
    9 min 47 sec

    भुनगी को अब रोटियों का कोई सहारा न रहा। गाँववालों को भी भाड़ के विध्वंस हो जाने से बहुत कष्ट होने लगा। कितने ही घरों में दोपहर को दाना ही न मयस्सर होता। लोगों ने जा कर पंडित जी से कहा कि बुढ़िया को भाड़ जलाने की आज्ञा दे दीजिए, लेकिन पंडित जी ने कुछ ध्यान न दिया। वह अपना रोब न घटा सकते थे। बुढ़िया से उसके कुछ शुभचिंतकों ने अनुरोध किया कि जा कर किसी दूसरे गाँव में क्यों नहीं बस जाती। लेकिन उसका हृदय इस प्रस्ताव को स्वीकार न करता। इस गाँव में उसने अपने अदिन के पचास वर्ष काटे थे। यहाँ के एकएक पेड़पत्ते से उसे प्रेम हो गया था जीवन के सुखदुःख इसी गाँव में भोगे थे। अब अंतिम समय वह इसे कैसे त्याग दे यह कल्पना ही उसे संकटमय जान पड़ती थी। दूसरे गाँव के सुख से यहाँ का दुःख भी प्यारा था।इस प्रकार एक पूरा महीना गुजर गया। प्रातःकाल था। पंडित उदयभान अपने दोतीन चपरासियों को लिये लगान वसूल करने जा रहे थे। कारिंदों पर उन्हें विश्वास न था। नजराने में, डाँड़बाँध में, रसूम में वह किसी अन्य व्यक्ति को शरीक न करते थे। बुढ़िया के भाड़ की ओर ताका तो बदन में आगसी लग गयी। उसका पुनरुद्धार हो रहा था। बुढ़िया बड़े वेग से उस पर मिट्टी के लोंदे रख रही थी। कदाचित् उसने कुछ रात रहते ही काम में हाथ लगा दिया था और सूर्योदय से पहले ही उसे समाप्त कर देना चाहती थी। उसे लेशमात्र भी शंका न थी कि मैं ज़मींदार के विरुद्ध कोई काम कर रही हूँ। क्रोध इतना चिरजीवी हो सकता है इसका समाधान भी उसके मन में न था। एक प्रतिभाशाली पुरुष किसी दीन अबला से इतना कीना रख सकता है उसे उसका ध्यान भी न था। वह स्वभावतः मानवचरित्र को इससे कहीं ऊँचा समझती थी। लेकिन हा हतभागिनी तूने धूप में ही बाल सफेद किये।

  • 19: प्रेमचंद की कहानी "स्वत्व रक्षा" Premchand Story "Swatwa Raksha"
    12 min 13 sec

    लेकिन मुंशी जी भी चतुर खिलाड़ी थे। तुरंत घर से थोड़ासा दाना मँगवाया और घोड़े के सामने रख दिया। घोड़े ने इधर बहुत दिनों से दाने की सूरत न देखी थी बड़ी रुचि से खाने लगा और तब कृतज्ञ नेत्रों से मुंशी जी की ओर ताका, मानो अनुमति दी कि मुझे आपके साथ चलने में कोई आपत्ति नहीं है।मुंशी जी के द्वार पर बाजे बज रहे थे। वर वस्त्राभूषण पहने हुए घोड़े की प्रतीक्षा कर रहा था। मुहल्ले की स्त्रियाँ उसे विदा करने के लिए आरती लिये खड़ी थीं। पाँच बज गये थे। सहसा मुंशी जी घोड़ा लाते हुए दिखायी दिये। बाजेवालों ने आगे की तरफ क़दम बढ़ाया। एक आदमी मीर साहब के घर से दौड़ कर साज लाया।घोड़े को खींचने की ठहरी, मगर वह लगाम देख कर मुँह फेर लेता था। मुंशी जी ने चुमकारापुचकारा, पीठ सहलायी, फिर दाना दिखलाया। पर घोड़े ने मुँह तक न खोला, तब उन्हें क्रोध आ गया। ताबड़तोड़ कई चाबुक लगाये। घोड़े ने जब अब भी मुँह में लगाम न ली, तो उन्होंने उसके नथनों पर चाबुक के बेंत से कई बार मारा। नथनों से ख़ून निकलने लगा। घोड़े ने इधरउधर दीन और विवश आँखों से देखा। समस्या कठिन थी। इतनी मार उसने कभी न खायी थी। मीर साहब की अपनी चीज़ थी। यह इतनी निर्दयता से कभी न पेश आते थे। सोचा मुँह नहीं खोलता तो नहीं मालूम और कितनी मार पड़े। लगाम ले ली। फिर क्या था, मुंशी जी की फ़तह हो गयी। उन्होंने तुरंत जीन भी कस दी। दूल्हा कूद कर घोड़े पर सवार हो गया।जब वर ने घोड़े की पीठ पर आसन जमा लिया, तो घोड़ा मानो नींद से जागा। विचार करने लगा, थोड़ेसे दाने के बदले अपने इस स्वत्व से हाथ धोना एक कटोरे कढ़ी के लिए अपने जन्मसिद्ध अधिकारों को बेचना है। उसे याद आया कि मैं कितने दिनों से आज के दिन आराम करता रहा हूँ, तो आज क्यों यह बेगार करूँ ये लोग मुझे न जाने कहाँ ले जायँगे, लौंडा आसन का पक्का जान पड़ता है, मुझे दौड़ायेगा, एँड़ लगायेगा, चाबुक से मारमार कर अधमुँआ कर देगा, फिर न जाने भोजन मिले या नहीं। यह सोचविचार कर उसने निश्चय किया कि मैं यहाँ से क़दम न उठाऊँगा। यही न होगा मारेंगे, सवार को लिये हुए ज़मीन पर लोट जाऊँगा। आप ही छोड़ देंगे। मेरे मालिक मीर साहब भी तो यहीं कहीं होंगे। उन्हें मुझ पर इतनी मार पड़ती कभी पसंद न आयेगी कि कल उन्हें कचहरी भी न ले जा सकूँ।वर ज्यों ही घोड़े पर सवार हुआ स्त्रियों ने मंगलगान किया, फूलों की वर्षा हुई। बारात के लोग आगे बढ़े। मगर घोड़ा ऐसा अड़ा कि पैर ही नहीं उठाता। वर उसे एँड लगाता है, चाबुक मारता है, लगाम को झटके देता है, मगर घोड़े के क़दम मानों ज़मीन में ऐसे गड़ गये हैं कि उखड़ने का नाम नहीं लेते।

  • 20: प्रेमचंद की कहानी "पूर्व संस्कार" Premchand Story "Poorv Sanskar"
    15 min 38 sec

    अब कोई खेती को सँभालने वाला न था। इधर रामटहल को खेती का मजा मिल गया था उस पर विलासिता ने उनका स्वास्थ्य भी नष्ट कर डाला था। अब वह देहात के स्वच्छ जलवायु में रहना चाहते थे। निश्चय किया कि खुद ही गाँव में जाकर खेतीबारी करूँ। लड़का जवान हो गया था। शहर का लेनदेन उसे सौंपा और देहात चले आये।यहाँ उनका समय और चित्त विशेष कर गौओं की देखभाल में लगता था। उनके पास एक जमुनापारी बड़ी रास की गाय थी। उसे कई साल हुए बड़े शौक़ से ख़रीदा था। दूध खूब देती थी, और सीधी वह इतनी कि बच्चा भी सींग पकड़ ले, तो न बोलती। वह इन दिनों गाभिन थी। उसे बहुत प्यार करते थे। शामसबेरे उसकी पीठ सुहलाते, अपने हाथों से नाज खिलाते। कई आदमी उसके ड्योढे़ दाम देते थे, पर रामटहल ने न बेची। जब समय पर गऊ ने बच्चा दिया, तो रामटहल ने धूमधाम से उसका जन्मोत्सव मनाया, कितने ही ब्राह्मणों को भोजन कराया। कई दिन तक गानाबजाना होता रहा। इस बछड़े का नाम रखा गया ‘जवाहिर’। एक ज्योतिषी से उसका जन्मपत्रा भी बनवाया गया। उसके अनुसार बछड़ा बड़ा होनहार, बड़ा भाग्यशाली, स्वामिभक्त निकला। केवल छठे वर्ष उस पर एक संकट की शंका थी। उससे बच गया तो फिर जीवनपर्यन्त सुख से रहेगा।बछड़ा श्वेतवर्ण था। उसके माथे पर एक लाल तिलक था। आँखें कजरी थीं। स्वरूप का अत्यन्त मनोहर और हाथपाँव का सुडौल था। दिन भर कलोलें किया करता। रामटहल का चित्त उसे छलाँगें भरते देख कर प्रफुल्लित हो जाता था। वह उनसे इतना हिलमिल गया कि उनके पीछेपीछे कुत्ते की भाँति दौड़ा करता था। जब वह शाम और सुबह को अपनी खाट पर बैठ कर असामियों से बातचीत करने लगते, तो जवाहिर उनके पास खड़ा हो कर उनके हाथ या पाँव को चाटता था। वह प्यार से उसकी पीठ पर हाथ फेरने लगते, तो उसकी पूँछ खड़ी हो जाती और आँखें हृदय के उल्लास से चमकने लगतीं। रामटहल को भी उससे इतना स्नेह था कि जब तक वह उनके सामने चौके में न बैठा हो, भोजन में स्वाद न मिलता। वह उसे बहुधा गोद में चिपटा लिया करते। उसके लिए चाँदी का हार, रेशमी फूल, चाँदी की झाँझें बनवायीं। एक आदमी उसे नित्य नहलाता और झाड़तापोंछता रहता था। जब कभी वह किसी काम से दूसरे गाँव में चले जाते तो उन्हें घोड़े पर आते देख कर जवाहिर कुलेलें मारता हुआ उसके पास पहुँच जाता और उनके पैरों को चाटने लगता। पशु और मनुष्य में यह पितापुत्रासा प्रेम देख कर लोग चकित हो जाते।जवाहिर की अवस्था ढाई वर्ष की हुई। रामटहल ने उसे अपनी सवारी की बहली के लिए निकालने का निश्चय किया। वह अब बछड़े से बैल हो गया था। उसका ऊँचा डील, गठे हुए अंग, सुदृढ़ मांसपेशियाँ, गर्दन के ऊपर ऊँचा डील, चौड़ी छाती और मस्तानी चाल थी। ऐसा दर्शनीय बैल सारे इलाके में न था। बड़ी मुश्किल से उसका बाँधा मिला। पर देखने वाले साफ़ कहते थे कि जोड़ नहीं मिला। रुपये आपने बहुत खर्च किये हैं, पर कहाँ जवाहिर और कहाँ यह कहाँ लैंप और कहाँ दीपक

  • 21: प्रेमचंद की कहानी "दुस्साहस" Premchand Story "Dussahas"
    17 min 20 sec

    लखनऊ के नौबस्ते मोहल्ले में एक मुंशी मैकूलाल मुख्तार रहते थे। बड़े उदार, दयालु और सज्जन पुरुष थे। अपने पेशे में इतने कुशल थे कि ऐसा बिरला ही कोई मुकदमा होता था जिसमें वह किसी न किसी पक्ष की ओर से न रखे जाते हों। साधुसंतों से भी उन्हें प्रेम था। उनके सत्संग से उन्होंने कुछ तत्त्वज्ञान और कुछ गाँजेचरस का अभ्यास प्राप्त कर लिया था। रही शराब, यह उनकी कुलप्रथा थी। शराब के नशे में वह क़ानूनी मसौदे खूब लिखते थे, उनकी बुद्धि प्रज्वलित हो जाती थी। गाँजे और चरस का प्रभाव उनके ज्ञान पर पड़ता था। दम लगा कर वह वैराग्य और ध्यान में तल्लीन हो जाते थे। मोहल्लेवालों पर उनका बड़ा रोब था। लेकिन यह उनकी क़ानूनी प्रतिभा का नहीं, उनकी उदार सज्जनता का फल था। मोहल्ले के एक्केवान, ग्वाले और कहार उनके आज्ञाकारी थे, सौ काम छोड़ कर उनकी खिदमत करते थे। उनकी मद्यजनित उदारता ने सबों को वशीभूत कर लिया था। वह नित्य कचहरी से आते ही अलगू कहार के सामने दो रुपये फेंक देते थे। कुछ कहनेसुनने की ज़रूरत न थी, अलगू इसका आशय समझता था। शाम को शराब की एक बोतल और कुछ गाँजा तथा चरस मुंशी जी के सामने आ जाता था। बस, महफिल जम जाती। यार लोग आ पहुँचते। एक ओर मुवक्किलों की कतार बैठती, दूसरी ओर सहवासियों की। वैराग्य की और ज्ञान की चर्चा होने लगती। बीचबीच में मुवक्किलों से भी मुकदमे की दोएक बातें कर लेते दस बजे रात को वह सभा विसर्जित होती थी। मुंशी जी अपने पेशे और ज्ञान चर्चा के सिवा और कोई दर्द सिर मोल न लेते थे। देश के किसी आन्दोलन, किसी सभा, किसी सामाजिक सुधार से उनका सम्बन्ध न था। इस विषय में वह सच्चे विरक्त थे। बंगभंग हुआ, नरमगरम दल बने, राजनीतिक सुधारों का आविर्भाव हुआ, स्वराज्य की आकांक्षा ने जन्म लिया, आत्मरक्षा की आवाजें देश में गूँजने लगीं, किंतु मुंशी जी की अविरल शांति में जरा भी विघ्न न पड़ा। अदालत और शराब के सिवाय वह संसार की सभी चीजों को माया समझते थे, सभी से उदासीन रहते थे।चिराग जल चुके थे। मुंशी मैकूलाल की सभा जम गयी थी, उपासकगण जमा हो गये थे, अभी तक मदिरा देवी प्रकट न हुई थी। अलगू बाज़ार से न लौटा था। सब लोग बारबार उत्सुक नेत्रों से ताक रहे थे। एक आदमी बरामदे में प्रतीक्षास्वरूप खड़ा था, दोतीन सज्जन टोह लेने के लिए सड़क पर खड़े थे, लेकिन अलगू आता नजर न आता था। आज जीवन में पहला अवसर था कि मुंशी जी को इतना इंतज़ार खींचना पड़ा। उनकी प्रतीक्षाजनक उद्विग्नता ने गहरी समाधि का रूप धारण कर लिया था, न कुछ बोलते थे, न किसी ओर देखते थे। समस्त शक्तियाँ प्रतीक्षाबिंदु पर केंद्रीभूत हो गयीं।अकस्मात् सूचना मिली कि अलगू आ रहा है। मुंशी जी जाग पड़े, सहवासीगण खिल गये, आसन बदल कर सँभल बैठे, उनकी आँखें अनुरक्त हो गयीं। आशामय विलम्ब आनन्द को और बढ़ा देता है।एक क्षण में अलगू आ कर सामने खड़ा हो गया। मुंशी जी ने उसे डाँटा नहीं, यह पहला अपराध था, इसका कुछ न कुछ कारण अवश्य होगा, दबे हुए पर उत्कंठायुक्त नेत्रों से अलगू के हाथ की ओर देखा। बोतल न थी। विस्मय हुआ, विश्वास न आया, फिर गौर से देखा बोतल न थी। यह अप्राकृतिक घटना थी, पर इस पर उन्हें क्रोध न आया, नम्रता के साथ पूछा बोतल कहाँ है

  • 22: प्रेमचंद की कहानी "बौड़म" Premchand Story "Baudham"
    16 min 6 sec

    मुझे देवीपुर गये पाँच दिन हो चुके थे, पर ऐसा एक दिन भी न होगा कि बौड़म की चर्चा न हुई हो। मेरे पास सुबह से शाम तक गाँव के लोग बैठे रहते थे। मुझे अपनी बहुज्ञता को प्रदर्शित करने का न कभी ऐसा अवसर ही मिला था और न प्रलोभन ही। मैं बैठाबैठा इधरउधर की गप्पें उड़ाया करता। बड़े लाट ने गाँधी बाबा से यह कहा और गाँधी बाबा ने यह जवाब दिया। अभी आप लोग क्या देखते हैं, आगे देखिएगा क्याक्या गुल खिलते हैं। पूरे 50 हज़ार जवान जेल जाने को तैयार बैठे हुए हैं। गाँधी जी ने आज्ञा दी है कि हिन्दुओं में छूतछात का भेद न रहे, नहीं तो देश को और भी अदिन देखने पड़ेंगे। अस्तु लोग मेरी बातों को तन्मय हो कर सुनते। उनके मुख फूल की तरह खिल जाते। आत्माभिमान की आभा मुख पर दिखायी देती। गद्‍गद कंठ से कहते, अब तो महात्मा जी ही का भरोसा है। न हुआ बौड़म नहीं आपका गला न छोड़ता। आपको खानापीना कठिन हो जाता। कोई उससे ऐसी बातें किया करे तो रात की रात बैठा रहे। मैंने एक दिन पूछा, आखिर यह बौड़म है कौन कोई पागल है क्या एक सज्जन ने कहा, ‘महाशय, पागल क्या है, बस बौड़म है। घर में लाखों की सम्पत्ति है, शक्कर की एक मिल सिवान में है, दो कारखाने छपरे में हैं, तीनतीन, चारचार सौ के तलबवाले आदमी नौकर हैं, पर इसे देखिए, फटेहाल घूमा करता है। घरवालों ने सिवान भेज दिया था कि जा कर वहाँ निगरानी करे। दो ही महीने में मैनेजर से लड़ बैठा, उसने यहाँ लिखा, मेरा इस्तीफा लीजिए। आपका लड़का मज़दूरों को सिर चढ़ाये रहता है, वे मन से काम नहीं करते। आखिर घरवालों ने बुला लिया। नौकरचाकर लूटते खाते हैं उसकी तो जरा भी चिन्ता नहीं, पर जो सामने आम का बाग़ है उसकी रातदिन रखवाली किया करता है, क्या मजाल कि कोई एक पत्थर भी फेंक सके।’ एक मियाँ जी बोले, ‘बाबू जी, घर में तरहतरह के खाने पकते हैं, मगर इसकी तकदीर में वही रोटी और दाल लिखी है और कुछ नहीं। बाप अच्छेअच्छे कपड़े ख़रीदते हैं, लेकिन वह उनकी तरफ निगाह भी नहीं उठाता। बस, वही मोटा कुरता, गाढ़े की तहमत बाँधे मारामारा फिरता है। आपसे उसकी सिफत कहाँ तक कहें, बस पूरा बौड़म है।’ये बातें सुन कर भी इस विचित्र व्यक्ति से मिलने की उत्कंठा हुई। सहसा एक आदमी ने कहा ‘वह देखिये, बौड़म आ रहा है।’ मैने कुतूहल से उसकी ओर देखा। एक 2021 वर्ष का हृष्टपुष्ट युवक था। नंगे सिर, एक गाढ़े का कुरता पहने, गाढ़े का ढीला पाजामा पहने चला आता था पैरों में जूते थे। पहले मेरी ही ओर आया। मैंने कहा, ‘आइए बैठिए।’ उसने मंडली की ओर अवहेलना की दृष्टि से देखा और बोला, ‘अभी नहीं, फिर आऊँगा।’ यह कहकर चला गया।

  • 23: प्रेमचंद की कहानी "गुप्त धन" Premchand Story "Gupt Dhan"
    16 min 2 sec

    हरिदास धन को भोगना चाहते थे, पर इस तरह कि किसी को कानोंकान खबर न हो। काम कष्टसाध्य था। नाम पर धब्बा लगने की प्रबल आशंका थी जो संसार में सबसे बड़ी यंत्रणा है। कितनी घोर नीचता थी। जिस अनाथ की रक्षा की, जिसे बच्चे की भाँति पाला, उसके साथ विश्वासघात कई दिनों तक आत्मवेदना की पीड़ा सहते रहे। अंत में कुतर्कों ने विवेक को परास्त कर दिया। मैंने कभी धर्म का परित्याग नहीं किया और न कभी करूँगा। क्या कोई ऐसा प्राणी भी है जो जीवन में एक बार भी विचलित न हुआ हो। यदि है तो वह मनुष्य नहीं, देवता है। मैं मनुष्य हूँ। मुझे देवताओं की पंक्ति में बैठने का दावा नहीं है।मन को समझाना बच्चे को फुसलाना है। हरिदास साँझ को सैर करने के लिए घर से निकल जाते। जब चारों ओर सन्नाटा छा जाता तो मंदिर के चबूतरे पर आ बैठते और एक कुदाली से उसे खोदते। दिन में दोएक बार इधरउधर ताकझाँक करते कि कोई चबूतरे के पास खड़ा तो नहीं है। रात की निस्तब्धता में उन्हें अकेले बैठे ईंटों को हटाते हुए उतना ही भय होता था जितना किसी भ्रष्ट वैष्णव को आमिष भोजन से होता है।चबूतरा लम्बाचौड़ा था। उसे खोदते एक महीना लग गया और अभी आधी मंज़िल भी तय न हुई। इन दिनों उनकी दशा उस पुरुष कीसी थी जो कोई मंत्र जगा रहा हो। चित्त पर चंचलता छायी रहती। आँखों की ज्योति तीव्र हो गयी थी। बहुत गुमसुम रहते, मानो ध्यान में हों। किसी से बातचीत न करते, अगर कोई छेड़ कर बात करता तो झुँझला पड़ते। पजावे की ओर बहुत कम जाते। विचारशील पुरुष थे। आत्मा बारबार इस कुटिल व्यापार से भागती, निश्चय करते कि अब चबूतरे की ओर न जाऊँगा, पर संध्या होते ही उन पर एक नशासा छा जाता, बुद्धिविवेक का अपहरण हो जाता। जैसे कुत्ता मार खा कर थोड़ी देर के बाद टुकड़े की लालच में जा बैठता है, वही दशा उनकी थी। यहाँ तक कि दूसरा मास भी व्यतीत हुआ।अमावस की रात थी। हरिदास मलिन हृदय में बैठी हुई कालिमा की भाँति चबूतरे पर बैठे हुए थे। आज चबूतरा खुद जायगा। जरा देर तक और मेहनत करनी पड़ेगी। कोई चिंता नहीं। घर में लोग चिंतित हो रहे होंगे। पर अभी निश्चित हुआ जाता है कि चबूतरे के नीचे क्या है। पत्थर का तहखाना निकल आया तो समझ जाऊँगा कि धन अवश्य होगा। तहखाना न मिले तो मालूम हो जायगा कि सब धोखा ही धोखा है। कहीं सचमुच तहखाना न मिले तो बड़ी दिल्लगी हो। मुफ़्त में उल्लू बनूँ। पर नहीं, कुदाली खटखट बोल रही है। हाँ, पत्थर की चट्टान है। उन्होंने टटोल कर देखा। भ्रम दूर हो गया। चट्टान थी। तहखाना मिल गया लेकिन हरिदास खुशी से उछलेकूदे नहीं।आज वे लौटे तो सिर में दर्द था। समझे थकान है। लेकिन यह थकान नींद से न गयी। रात को ही उन्हें ज़ोर से बुखार हो गया। तीन दिन तक ज्वर में पड़े रहे। किसी दवा से फ़ायदा न हुआ।इस रुग्णावस्था में हरिदास को बारबार भ्रम होता था कहीं यह मेरी तृष्णा का दंड तो नहीं है। जी में आता था, मगनसिंह को बीजक दे दूँ और क्षमा की याचना करूँ पर भंडाफोड़ होने का भय मुँह बंद कर देता था। न जाने ईसा के अनुयायी अपने पादरियों के सम्मुख कैसे अपने जीवन भर के पापों की कथा सुनाया करते थे।हरिदास की मृत्यु के पीछे यह बीजक उनके सुपुत्र प्रभुदास के हाथ लगा। बीजक मगनसिंह के पुरखों का लिखा हुआ है, इसमें लेशमात्र भी संदेह न था। लेकिन उन्होंने सोचा पिताजी ने कुछ सोच कर ही इस मार्ग पर पग रखा होगा। वे कितने नीतिपरायण, कितने सत्यवादी पुरुष थे। उनकी नीयत पर कभी किसी को संदेह नहीं हुआ। जब उन्होंने इस आचार को घृणित नहीं समझा तो मेरी क्या गिनती है। कहीं यह धन हाथ आ जाय तो कितने सुख से जीवन व्यतीत हो। शहर के रईसों को दिखा दूँ कि धन का सदुपयोग क्योंकर होना चाहिए। बड़ेबड़ों का सिर नीचा कर दूँ। कोई आँखें न मिला सके। इरादा पक्का हो गया।

  • 24: प्रेमचंद की कहानी "अनिष्ट शंका" Premchand Story "Anisht Shanka"
    14 min 11 sec

    मनोरमा वियोगदुःख से विकल रहने लगी। वह अव्यवस्थित दशा में उदास बैठी रहती, कभी नीचे आती, कभी ऊपर जाती, कभी बाग़ में जा बैठती। जब तक पत्र न आ जाता वह इसी भाँति व्यग्र रहती, पत्र मिलते ही सूखे धान में पानी पड़ जाता।लेकिन जब पत्रों के आने में देर होने लगी तो उसका वियोगविकलहृदय अधीर हो गया। बारबार पछताती कि मैं नाहक उनके कहने में आ गयी, मुझे उनके साथ जाना चाहिए था। उसे किताबों से प्रेम था पर अब उनकी ओर ताकने का भी जी न चाहता। विनोद की वस्तुओं से उसे अरुचिसी हो गयी इस प्रकार एक महीना गुजर गया।एक दिन उसने स्वप्न देखा कि अमरनाथ द्वार पर नंगे सिर, नंगे पैर, खड़े रो रहे हैं। वह घबरा कर उठ बैठी और उग्रावस्था में दौड़ी द्वार तक आयी। यहाँ का सन्नाटा देख कर उसे होश आ गया। उसी दम मुनीम को जगाया और कुँवर साहब के नाम तार भेजा। किंतु जवाब न आया। सारा दिन गुजर गया मगर कोई जवाब नहीं। दूसरी रात भी गुजरी लेकिन जवाब का पता न था। मनोरमा निर्जल, निराहार मूर्च्छित दशा में अपने कमरे में पड़ी रहती। जिसे देखती उसी से पूछती जवाब आया कोई द्वार पर आवाज़ देता तो दौड़ी हुई जाती और पूछती कुछ जवाब आया उसके मन में विविध शंकाएँ उठतीं लौंडियों से स्वप्न का आशय पूछती। स्वप्नों के कारण और विवेचना पर कई ग्रंथ पढ़ डाले, पर कुछ रहस्य न खुला। लौंडियाँ उसे दिलासा देने के लिए कहतीं, कुँवर जी कुशल से हैं। स्वप्न में किसी को नंगे पैर देखें तो समझो वह घोड़े पर सवार है। घबराने की कोई बात नहीं। लेकिन रमा को इस बात से तस्कीन न होती। उसे तार के जवाब की रट लगी हुई थी, यहाँ तक कि चार दिन गुजर गए।किसी मुहल्ले में मदारी का आ जाना बालवृन्द के लिए एक महत्त्व की बात है। उसके डमरू की आवाज़ में खोंचेवाले की क्षुधावर्धक ध्वनि से भी अधिक आकर्षण होता है। इसी प्रकार मुहल्ले में किसी ज्योतिषी का आ जाना मारके की बात है। एक क्षण में इसकी खबर घरघर फैल जाती है। सास अपनी बहू को लिये आ पहुँचती है, माता भाग्यहीन कन्या को ले कर आ जाती है। ज्योतिषी जी दुःखसुख की अवस्थानुसार वर्षा करने लगते हैं। उनकी भविष्यवाणियों में बड़ा गूढ़ रहस्य होता है। उनका भाग्य निर्माण भाग्यरेखाओं से भी जटिल और दुर्ग्राह्य होता है। संभव है कि वर्तमान शिक्षा विधान ने ज्योतिष का आदर कुछ कम कर दिया हो पर ज्योतिषी जी के माहात्म्य में जरा कमी नहीं हुई। उनकी बातों पर चाहे किसी को विश्वास न हो पर सुनना सभी चाहते हैं। उनके एकएक शब्दों में आशा और भय को उत्तेजित करने की शक्ति भरी रहती है, विशेषतः उसकी अमंगल सूचना तो वज्रपात के तुल्य है, घातक और दग्धकारी।तार भेजे हुए आज पाँचवाँ दिन था कि कुँवर साहब के द्वार पर एक ज्योतिषी का आगमन हुआ। तत्काल मुहल्ले की महिलाएँ जमा हो गयीं। ज्योतिषी जी भाग्यविवेचन करने लगे, किसी को रुलाया, किसी को हँसाया। मनोरमा को खबर मिली। उन्हें तुरंत अंदर बुला भेजा और स्वप्न का आशय पूछा।

  • 25: प्रेमचंद की कहानी "सौत" Premchand Story "Saut"
    20 min 1 sec

    रामु दिल में इतना तो समझता था कि यह गृहस्थी रजिया की जोड़ी हुई हैं, चाहे उसके रूप में उसके लोचनविलास के लिए आकर्षण न हो। सम्भव था, कुछ देर के बाद वह जाकर रजिया को मना लेता, पर दासी भी कूटनीति में कुशल थी। उसने गम्र लोहे पर चोटें जमाना शूरू कीं। बोली—आज देवी की किस बात पर बिगड़ रही थीरामु ने उदास मन से कहा—तेरी चुंदरी के पीछे रजिया महाभारत मचाये हुए है। अब कहती है, अलग रहूंगी। मैंने कह दिया, तेरी जरे इच्छा हो कर।दसिया ने ऑखें मटकाकर कहा—यह सब नखरे है कि आकर हाथपांव जोड़े, मनावन करें, और कुछ नहीं। तुम चुपचाप बैठे रहो। दोचार दिन में आप ही गरमी उतर जायेगी। तुम कुछ बोलना नहीं, उसका मिज़ाज और आसमान पर चढ़ जायगा।रामू ने गम्भीर भाव से कहा—दासी, तुम जानती हो, वह कितनी घमण्डिन है। वह मुंह से जो बात कहती है, उसे करके छोड़ती है।रजिया को भी रामू से ऐसी कृतध्नता की आशा न थी। वह जब पहले कीसी सुन्दर नहीं, इसलिए रामू को अब उससे प्रेम नहीं है। पुरुष चरित्र में यह कोई असाधारण बात न थी, लेकिन रामू उससे अलग रहेगा, इसका उसे विश्वास ना आता था। यह घर उसी ने पैसापैसा जोड़ेकर बनवाया। गृहस्थी भी उसी की जोड़ी हुई है। अनाज का लेनदेन उसी ने शुरू किया। इस घर में आकर उसने कौनकौन से कष्ट नहीं झेले, इसीलिए तो कि पौरूख थक जाने पर एक टुकड़ा चैन से खायगी और पड़ी रहेगी, और आज वह इतनी निर्दयता से दूध की मक्खी की तरह निकालकर फेंक दी गई रामू ने इतना भी नहीं कहा—तू अलग नहीं रहने पायेगी। मैं या खुद मर जाऊंगा या तुझे मार डालूंगा, पर तुझे अलग न होने दूंगा। तुझसे मेरा ब्याह हुआ है। हंसीठट्ठा नहीं है। तो जब रामू को उसकी परवाह नहीं है, तो वह रामू को क्यों परवाह करे। क्या सभी स्त्रियों के पुरुष बैठे होते हैं। सभी के मांबाप, बेटेपोते होते हैं। आज उसके लड़के जीते होते, तो मजाल थी कि यह नई स्त्री लाते, और मेरी यह दुर्गति करते इस निदई को मेरे ऊपर इतनी भी दया न आईनारीहृदय की सारी परवशता इस अत्याचार से विद्रोह करने लगी। वही आग जो मोटी लकड़ी को स्पर्श भी नहीं कर सकती, फूस को जलाकर भस्म कर देती है।

  • 26: प्रेमचंद की कहानी "सज्जनता का दंड" Premchand Story "Sajjanata Ka Dand"
    16 min 20 sec

    रामा ने यह जवाब पहले ही सोच लिया। वह बोली, मैं तुमसे विवाद तो करती नहीं, मगर जरा अपने दिल में विचार करके देखो कि तुम्हारी इस सचाई का दूसरों पर क्या असर पड़ता है तुम तो अच्छा वेतन पाते हो। तुम अगर हाथ न बढ़ाओ तो तुम्हारा निर्वाह हो सकता है रूखी रोटियाँ मिल ही जायँगी, मगर ये दसदस पाँचपाँच रुपये के चपरासी, मुहर्रिर, दफ़्तरी बेचारे कैसे गुजर करें। उनके भी बालबच्चे हैं। उनके भी कुटुम्बपरिवार हैं। शादीगमी, तिथित्योहार यह सब उनके पास लगे हुए हैं। भलमनसी का भेष बनाये काम नहीं चलता। बताओ उनका गुजर कैसे हो अभी रामदीन चपरासी की घरवाली आयी थी। रोतेरोते आँचल भीगता था। लड़की सयानी हो गयी है। अब उसका ब्याह करना पड़ेगा। ब्राह्मण की जाति हजारों का खर्च। बताओ उसके आँसू किसके सिर पड़ेंगे ये सब बातें सच थीं। इनसे सरदार साहब को इनकार नहीं हो सकता था। उन्होंने स्वयं इस विषय में बहुत कुछ विचार किया था। यही कारण था कि वह अपने मातहतों के साथ बड़ी नरमी का व्यवहार करते थे। लेकिन सरलता और शालीनता का आत्मिक गौरव चाहे जो हो, उनका आर्थिक मोल बहुत कम है। वे बोले, तुम्हारी बातें सब यथार्थ हैं, किंतु मैं विवश हूँ। अपने नियमों को कैसे तोडूँ यदि मेरा वश चले तो मैं उन लोगों का वेतन बढ़ा दूँ। लेकिन यह नहीं हो सकता कि मैं खुद लूट मचाऊँ और उन्हें लूटने दूँ।रामा ने व्यंग्यपूर्ण शब्दों में कहा, तो यह हत्या किस पर पड़ेगी सरदार साहब ने तीव्र हो कर उत्तर दिया, यह उन लोगों पर पड़ेगी जो अपनी हैसियत और आमदनी से अधिक खर्च करना चाहते हैं। अरदली बनकर क्यों वकील के लड़के से लड़की ब्याहने को ठानते हैं। दफ़्तरी को यदि टहलुवे की ज़रूरत हो तो यह किसी पाप कार्य से कम नहीं। मेरे साईस की स्त्री अगर चाँदी की सिल गले में डालना चाहे तो यह उसकी मूर्खता है। इस झूठी बड़ाई का उत्तरदाता मैं नहीं हो सकता।इंजीनियरों का ठेकेदारों से कुछ ऐसा ही सम्बन्ध है जैसे मधुमक्खियों का फूलों से। अगर वे अपने नियत भाग से अधिक पाने की चेष्टा न करें तो उनसे किसी को शिकायत नहीं हो सकती। यह मधुरस कमीशन कहलाता है। रिश्वत लोक और परलोक दोनों का ही सर्वनाश कर देती है। उसमें भय है, चोरी है, बदमाशी है। मगर कमीशन एक मनोहर वाटिका है, जहाँ न मनुष्य का डर है, न परमात्मा का भय, यहाँ तक कि वहाँ आत्मा की छिपी हुई चुटकियों का भी गुजर नहीं है। और कहाँ तक कहें उसकी ओर बदनामी आँख भी नहीं उठा सकती। यह वह बलिदान है जो हत्या होते हुए भी धर्म का एक अंश है। ऐसी अवस्था में यदि सरदार शिवसिंह अपने उज्ज्वल चरित्र को इस धब्बे से साफ़ रखते थे और उस पर अभिमान करते थे तो क्षमा के पात्र थे।मार्च का महीना बीत रहा था। चीफ इंजीनियर साहब ज़िले में मुआयना करने आ रहे थे। मगर अभी तक इमारतों का काम अपूर्ण था। सड़कें ख़राब हो रही थीं, ठेकेदारों ने मिट्टी और कंकड़ भी नहीं जमा किये थे।

  • 27: प्रेमचंद की कहानी "नमक का दरोगा" Premchand Story "Namak Ka Daroga"
    20 min 53 sec

    पं. अलोपीदीन स्तम्भित हो गए। गाडीवानों में हलचल मच गई। पंडितजी के जीवन में कदाचित यह पहला ही अवसर था कि पंडितजी को ऐसी कठोर बातें सुननी पडीं। बदलूसिंह आगे बढा, किन्तु रोब के मारे यह साहस न हुआ कि उनका हाथ पकड सके। पंडितजी ने धर्म को धन का ऐसा निरादर करते कभी न देखा था। विचार किया कि यह अभी उद्दंड लडका है। मायामोह के जाल में अभी नहीं पडा। अल्हड है, झिझकता है। बहुत दीनभाव से बोले, बाबू साहब, ऐसा न कीजिए, हम मिट जाएँगे। इज्जत धूल में मिल जाएगी। हमारा अपमान करने से आपके हाथ क्या आएगा। हम किसी तरह आपसे बाहर थोडे ही हैं।वंशीधर ने कठोर स्वर में कहा, हम ऐसी बातें नहीं सुनना चाहते।अलोपीदीन ने जिस सहारे को चट्टान समझ रखा था, वह पैरों के नीचे खिसकता हुआ मालूम हुआ। स्वाभिमान और धनऐश्वर्य की कडी चोट लगी। किन्तु अभी तक धन की सांख्यिक शक्ति का पूरा भरोसा था। अपने मुख्तार से बोले, लालाजी, एक हज़ार के नोट बाबू साहब की भेंट करो, आप इस समय भूखे सिंह हो रहे हैं।वंशीधर ने गरम होकर कहा, एक हज़ार नहीं, एक लाख भी मुझे सच्चे मार्ग से नहीं हटा सकते।धर्म की इस बुध्दिहीन दृढता और देवदुर्लभ त्याग पर मन बहुत झुँझलाया। अब दोनों शक्तियों में संग्राम होने लगा। धन ने उछलउछलकर आक्रमण करने शुरू किए। एक से पाँच, पाँच से दस, दस से पंद्रह और पंद्रह से बीस हज़ार तक नौबत पहुँची, किन्तु धर्म अलौकिक वीरता के साथ बहुसंख्यक सेना के सम्मुख अकेला पर्वत की भाँति अटल, अविचलित खडा था।अलोपीदीन निराश होकर बोले, अब इससे अधिक मेरा साहस नहीं। आगे आपको अधिकार है।वंशीधर ने अपने जमादार को ललकारा। बदलूसिंह मन में दारोगाजी को गालियाँ देता हुआ पंडित अलोपीदीन की ओर बढा। पंडितजी घबडाकर दोतीन क़दम पीछे हट गए। अत्यंत दीनता से बोले, बाबू साहब, ईश्वर के लिए मुझ पर दया कीजिए, मैं पच्चीस हज़ार पर निपटारा करने का तैयार हूँ।

  • 28: प्रेमचंद की कहानी "उपदेश" Premchand Story "Updesh"
    46 min 58 sec

    एक बार प्रयाग में प्लेग का प्रकोप हुआ। शहर के रईस लोग निकल भागे। बेचारे ग़रीब चूहों की भाँति पटापट मरने लगे। शर्मा जी ने भी चलने की ठानी। लेकिन सोशल सर्विस लीग के वे मंत्री ठहरे। ऐसे अवसर पर निकल भागने में बदनामी का भय था। बहाना ढूँढ़ा। लीग के प्रायः सभी लोग कॉलेज में पढ़ते थे। उन्हें बुला कर इन शब्दों में अपना अभिप्राय प्रकट किया मित्रवृन्द आप अपनी जाति के दीपक हैं। आप ही इस मरणोन्मुख जाति के आशास्थल हैं। आज हम पर विपत्ति की घटाएँ छायी हुई हैं। ऐसी अवस्था में हमारी आँखें आपकी ओर न उठें तो किसकी ओर उठेंगी। मित्र, इस जीवन में देशसेवा के अवसर बड़े सौभाग्य से मिला करते हैं। कौन जानता है कि परमात्मा ने तुम्हारी परीक्षा के लिए ही यह वज्रप्रहार किया हो। जनता को दिखा दो कि तुम वीरों का हृदय रखते हो, जो कितने ही संकट पड़ने पर भी विचलित नहीं होता। हाँ, दिखा दो कि वह वीरप्रसविनी पवित्र भूमि जिसने हरिश्चंद्र और भरत को उत्पन्न किया, आज भी शून्यगर्भा नहीं है। जिस जाति के युवकों में अपने पीड़ित भाइयों के प्रति ऐसी करुणा और यह अटल प्रेम है वह संसार में सदैव यशकीर्ति की भागी रहेगी। आइए, हम कमर बाँध कर कर्मक्षेत्र में उतर पड़ें। इसमें संदेह नहीं कि काम कठिन है, राह बीहड़ है, आपको अपने आमोदप्रमोद, अपने हाकीटेनिस, अपने मिल और मिल्टन को छोड़ना पड़ेगा। तुम जरा हिचकोगे, हटोगे और मुँह फेर लोगे, परन्तु भाइयो जातीय सेवा का स्वर्गीय आनंद सहज में नहीं मिल सकता हमारा पुरुषत्व, हमारा मनोबल, हमारा शरीर यदि जाति के काम न आवे तो वह व्यर्थ है। मेरी प्रबल आकांक्षा थी कि इस शुभ कार्य में मैं तुम्हारा हाथ बँटा सकता, पर आज ही देहातों में भी बीमारी फैलने का समाचार मिला है। अतएव मैं यहाँ का काम आपके सुयोग्य, सुदृढ़, हाथों में सौंपकर देहात में जाता हूँ कि यथासाध्य देहाती भाइयों की सेवा करूँ। मुझे विश्वास है कि आप सहर्ष मातृभूमि के प्रति अपना कर्तव्य पालन करेंगे।इस तरह गला छुड़ा कर शर्मा जी संध्या समय स्टेशन पहुँचे। पर मन कुछ मलिन था। वे अपनी इस कायरता और निर्बलता पर मन ही मन लज्जित थे।

  • 29: प्रेमचंद की कहानी "परीक्षा" Premchand Story "Pareeksha"
    10 min 2 sec

    इस विज्ञापन ने सारे मुल्क में तहलका मचा दिया। ऐसा ऊँचा पद और किसी प्रकार की क़ैद नहीं केवल नसीब का खेल है। सैकड़ों आदमी अपनाअपना भाग्य परखने के लिए चल खड़े हुए। देवगढ़ में नयेनये और रंगबिरंगे मनुष्य दिखायी देने लगे। प्रत्येक रेलगाड़ी से उम्मीदवारों का एक मेलासा उतरता। कोई पंजाब से चला आता था, कोई मद्रास से, कोई नई फैशन का प्रेमी, कोई पुरानी सादगी पर मिटा हुआ। पंडितों और मौलवियों को भी अपनेअपने भाग्य की परीक्षा करने का अवसर मिला। बेचारे सनद के नाम रोया करते थे, यहाँ उसकी कोई ज़रूरत नहीं थी। रंगीन एमामे, चोगे और नाना प्रकार के अंगरखे और कंटोप देवगढ़ में अपनी सजधज दिखाने लगे। लेकिन सबसे विशेष संख्या ग्रेजुएटों की थी, क्योंकि सनद की क़ैद न होने पर भी सनद से परदा तो ढका रहता है।सरदार सुजानसिंह ने इन महानुभावों के आदरसत्कार का बड़ा अच्छा प्रबंध कर दिया था। लोग अपनेअपने कमरों में बैठे हुए रोजेदार मुसलमानों की तरह महीने के दिन गिना करते थे। हर एक मनुष्य अपने जीवन को अपनी बुद्धि के अनुसार अच्छे रूप में दिखाने की कोशिश करता था। मिस्टर अ नौ बजे दिन तक सोया करते थे, आजकल वे बगीचे में टहलते हुए ऊषा का दर्शन करते थे। मि. ब को हुक्का पीने की लत थी, आजकल बहुत रात गये किवाड़ बन्द करके अँधेरे में सिंगार पीते थे। मि. द स और ज से उनके घरों पर नौकरों की नाक में दम था, लेकिन ये सज्जन आजकल आप और जनाब के बगैर नौकरों से बातचीत नहीं करते थे। महाशय क नास्तिक थे, हक्सले के उपासक, मगर आजकल उनकी धर्मनिष्ठा देख कर मन्दिर के पुजारी को पदच्युत हो जाने की शंका लगी रहती थी मि. ल को किताब से घृणा थी, परन्तु आजकल वे बड़ेबड़े ग्रन्थ देखनेपढ़ने में डूबे रहते थे। जिससे बात कीजिए, वह नम्रता और सदाचार का देवता बना मालूम देता था। शर्मा जी घड़ी रात से ही वेदमंत्रा पढ़ने में लगते थे और मौलवी साहब को नमाज और तलावत के सिवा और कोई काम न था। लोग समझते थे कि एक महीने का झंझट है, किसी तरह काट लें, कहीं कार्य सिद्ध हो गया तो कौन पूछता है लेकिन मनुष्यों का वह बूढ़ा जौहरी आड़ में बैठा हुआ देख रहा था कि इन बगुलों में हंस कहाँ छिपा हुआ है।

  • 32: प्रेमचंद की कहानी "जीवन का शाप" Premchand Story "Jeevan Ka Shaap"
    26 min 38 sec

    कावसजी ने कभी मन में भी इसे स्वीकार करने का साहस नहीं किया मगर उनके हृदय में यह लालसा छिपी हुई थी कि गुलशन की जगह शीरीं होती, तो उनका जीवन कितना गुलज़ार होता कभीकभी गुलशन की कटूक्तियों से वह इतने दुखी हो जाते कि यमराज का आवाहन करते। घर उनके लिए कैदखाने से कम जानलेवा न था और उन्हें जब अवसर मिलता, सीधे शीरीं के घर जाकर अपने दिल की जलन बुझा आते। एक दिन कावसजी सबेरे गुलशन से झल्लाकर शापूरजी के टेरेस में पहुँचे, तो देखा शीरीं बानू की आँखें लाल हैं और चेहरा भभराया हुआ है, जैसे रोकर उठी हो। कावसजी ने चिन्तित होकर पूछा, ‘आपका जी कैसा है, बुखार तो नहीं आ गया।‘ शीरीं ने दर्दभरी आँखों से देखकर रोनी आवाज़ से कहा, ‘नहीं, बुखार तो नहीं है, कमसेकम देह का बुखार तो नहीं है।‘ कावसजी इस पहेली का कुछ मतलब न समझे। शीरीं ने एक क्षण मौन रहकर फिर कहा, ‘आपको मैं अपना मित्र समझती हूँ मि. कावसजी आपसे क्या छिपाऊँ। मैं इस जीवन से तंग आ गयी हूँ। मैंने अब तक हृदय की आग हृदय में रखी लेकिन ऐसा मालूम होता है कि अब उसे बाहर न निकालूँ, तो मेरी हड्डियाँ तक जल जायेंगी। इस वक्त आठ बजे हैं, लेकिन मेरे रंगीले पिया का कहीं पता नहीं। रात को खाना खाकर वह एक मित्र से मिलने का बहाना करके घर से निकले थे और अभी तक लौटकर नहीं आये। यह आज कोई नई बात नहीं है, इधर कई महीनों से यह इनकी रोज की आदत है। मैंने आज तक आपसे कभी अपना दर्द नहीं कहा,मगर उस समय भी, जब मैं हँसहँसकर आपसे बातें करती थी, मेरी आत्मा रोती रहती थी

  • 30: प्रेमचंद की कहानी "आदर्श विरोध" Premchand Story "Aadarsh Virodh"
    20 min 27 sec

    मेहता महोदय ने बजट पर जो विचार प्रकट किये, उनसे समस्त देश में हलचल मच गयी। एक दल उन विचारों को देववाणी समझता था, दूसरा दल भी कुछ अंशों को छोड़कर शेष विचारों से सहमत था, किंतु तीसरा दल वक्तृता के एकएक शब्द पर निराशा से सिर धुनता और भारत की अधोगति पर रोता था। उसे विश्वास ही न आता था कि ये शब्द मेहता की जबान से निकले होंगे।मुझे आश्चर्य है कि गैरसरकारी सदस्यों ने एक स्वर से प्रस्तावित व्यय के उस भाग का विरोध किया है, जिस पर देश की रक्षा, शान्ति, सुदशा और उन्नति अवलम्बित है। आप शिक्षासम्बन्धी सुधारों को, आरोग्य विधान को, नहरों की वृद्धि को अधिक महत्त्वपूर्ण समझते हैं। आपको अल्प वेतन वाले कर्मचारियों का अधिक ध्यान है। मुझे आप लोगों के राजनैतिक ज्ञान पर इससे अधिक विश्वास था। शासन का प्रधान कर्तव्य भीतर और बाहर की अशांतिकारी शक्तियों से देश को बचाना है। शिक्षा और चिकित्सा, उद्योग और व्यवसाय गौण कर्तव्य हैं। हम अपनी समस्त प्रजा को अज्ञानसागर में निमग्न देख सकते हैं, समस्त देश को प्लेग और मलेरिया में ग्रस्त रख सकते हैं, अल्प वेतन वाले कर्मचारियों को दारुण चिंता का आहार बना सकते हैं, कृषकों को प्रकृति की अनिश्चित दशा पर छोड़ सकते हैं, किन्तु अपनी सीमा पर किसी शत्रु को खड़े नहीं देख सकते। अगर हमारी आय सम्पूर्णतः देशरक्षा पर समर्पित हो जाय, तो भी आपको आपत्ति न होनी चाहिए। आप कहेंगे इस समय किसी आक्रमण की सम्भावना नहीं है। मैं कहता हूँ संसार में असम्भव का राज्य है। हवा में रेल चल सकती है, पानी में आग लग सकती है, वृक्षों में वार्तालाप हो सकता है। जड़ चैतन्य हो सकता है। क्या ये रहस्य नित्यप्रति हमारी नजरों से नहीं गुजरते आप कहेंगे राजनीतिज्ञों का काम सम्भावनाओं के पीछे दौड़ना नहीं, वर्तमान और निकट भविष्य की समस्याओं को हल करना है। राजनीतिज्ञों के कर्तव्य क्या हैं, मैं इस बहस में नहीं पड़ना चाहता लेकिन इतना तो सभी मानते हैं कि पथ्य, औषधि सेवन से अच्छा होता है। आपका केवल यही धर्म नहीं कि सरकार के सैनिक व्यय का समर्थन करें, बल्कि यह मन्तव्य आपकी ओर से पेश होना चाहिए आप कहेंगे कि स्वयंसेवकों की सेना बढ़ायी जाय। सरकार को हाल के महासंग्राम में इसका बहुत ही खेदजनक अनुभव हो चुका है। शिक्षित वर्ग विलासप्रिय, साहसहीन और स्वार्थसेवी हैं। देहात के लोग शांतिप्रिय, संकीर्णहृदय मैं भीरु न कहूँगा और गृहसेवी हैं। उनमें वह आत्मत्याग कहाँ, वह वीरता कहाँ, अपने पुरखों की वह वीरता कहाँ और शायद मुझे यह याद दिलाने की जरूरत नहीं कि किसी शांतिप्रिय जनता को आप दोचार वर्षों में रणकुशल और समरप्रवीण नहीं बना सकते।

  • 34: प्रेमचंद की कहानी "जुलूस" Premchand Story "Juloos"
    25 min 42 sec

    शम्भू एक मिनट तक मौन खड़ा रहा। एकाएक उसने भी दूकान बढ़ायी और बोलाएक दिन तो मरना ही है, जो कुछ होना है, हो। आखिर वे लोग सभी के लिए तो जान दे रहे हैं। देखतेदेखते अधिकांश दूकानें बंद हो गयीं। वह लोग, जो दस मिनट पहले तमाशा देख रहे थे इधरउधर से दौड़ पड़े और हजारों आदमियों का एक विराट दल घटनास्थल की ओर चला। यह उन्मत्त, हिंसामद से भरे हुए मनुष्यों का समूह था, जिसे सिद्धांत और आदर्श की परवाह न थी। जो मरने के लिए ही नहीं, मारने के लिए भी तैयार थे। कितनों ही के हाथों में लाठियाँ थीं, कितने ही जेबों में पत्थर भरे हुए थे। न कोई किसी से कुछ बोलता था, न पूछता था। बस, सबकेसब मन में एक दृढ़ संकल्प किये लपके चले जा रहे थे, मानो कोई घटा उमड़ी चली आती हो।इस दल को दूर से देखते ही सवारों में कुछ हलचल पड़ी। बीरबल सिंह के चेहरे पर हवाइयाँ उड़ने लगीं। डी. एस. पी. ने अपनी मोटर बढ़ायी। शांति और अहिंसा के व्रतधारियों पर डंडे बरसाना और बात थी, एक उन्मत्त दल से मुकाबला करना दूसरी बात। सवार और सिपाही पीछे खिसक गये।

  • 33: प्रेमचंद की कहानी "लाग डाट" Premchand Story "Laag Daat"
    15 min 44 sec

    चौधरी के उपदेश सुनने के लिए जनता टूटती थी। लोगों को खड़े होने को जगह न मिलती। दिनोंदिन चौधरी का मान बढ़ने लगा। उनके यहाँ नित्य पंचायतों की राष्ट्रोन्नति की चर्चा रहती जनता को इन बातों में बड़ा आनंद और उत्साह होता। उनके राजनीतिक ज्ञान की वृद्धि होती। वह अपना गौरव और महत्त्व समझने लगे उन्हें अपनी सत्ता का अनुभव होने लगा। निरंकुशता और अन्याय पर अब उनकी तिउरियाँ चढ़ने लगीं। उन्हें स्वतंत्रता का स्वाद मिला। घर की रुई घर का सूत घर का कपड़ा घर का भोजन घर की अदालत न पुलिस का भय न अमला की खुशामद सुख और शांति से जीवन व्यतीत करने लगे। कितनों ही ने नशेबाजी छोड़ दी और सद्भावों की एक लहरसी दौड़ने लगी।लेकिन भगत जी इतने भाग्यशाली न थे। जनता को दिनोंदिन उनके उपदेशों से अरुचि होती जाती थी। यहाँ तक कि बहुधा उनके श्रोताओं में पटवारी चौकीदार मुदर्रिस और इन्हीं कर्मचारियों के मित्रों के अतिरिक्त और कोई न होता था। कभीकभी बड़े हाकिम भी आ निकलते और भगत जी का बड़ा आदरसत्कार करते। जरा देर के लिए भगत जी के आँसू पुँछ जाते लेकिन क्षणभर का सम्मान आठों पहर के अपमान की बराबरी कैसे करता जिधर निकल जाते उधर ही उँगलियाँ उठने लगतीं। कोई कहता खुशामदी टट्टू है कोई कहता खुफिया पुलिस का भेदी है। भगत जी अपने प्रतिद्वंद्वी की बड़ाई और अपनी लोकनिंदा पर दाँत पीसपीस कर रह जाते थे। जीवन में यह पहला ही अवसर था कि उन्हें सबके सामने नीचा देखना पड़ा। चिरकाल से जिस कुलमर्यादा की रक्षा करते आये थे और जिस पर अपना सर्वस्व अर्पण कर चुके थे वह धूल में मिल गयी। यह दाहमय चिंता उन्हें एक क्षण के लिए चैन न लेने देती। नित्य समस्या सामने रहती कि अपना खोया हुआ सम्मान क्योंकर पाऊँ अपने प्रतिपक्षी को क्योंकर पददलित करूँ कैसे उसका गरूर तोडूँअंत में उन्होंने सिंह को उसी की माँद में पछाड़ने का निश्चय किया।

  • 1: प्रेमचंद की कहानी "दुनिया का सबसे अनमोल रत्न" Premchand Story "Duniya Ka Sabse Anmol Ratn"
    22 min 47 sec

    एक रोज वह शाम के वक्त किसी नदी के किनारे खस्ताहाल पड़ा हुआ था। बेखुदी के नशे से चौंका तो क्या देखता है कि चन्दन की एक चिता बनी हुई है और उस पर एक युवती सुहाग के जोड़े पहने सोलहों सिंगार किये बैठी हुई है। उसकी जाँघ पर उसके प्यारे पति का सर है। हज़ारों आदमी गोल बाँधे खड़े हैं और फूलों की बरखा कर रहे हैं। यकायक चिता में से खुदबखुद एक लपट उठी। सती का चेहरा उस वक्त एक पवित्र भाव से आलोकित हो रहा था। चिता की पवित्र लपटें उसके गले से लिपट गयीं और दमकेदम में वह फूलसा शरीर राख का ढेर हो गया। प्रेमिका ने अपने को प्रेमी पर न्योछावर कर दिया और दो प्रेमियों के सच्चे, पवित्र, अमर प्रेम की अन्तिम लीला आँख से ओझल हो गयी। जब सब लोग अपने घरों को लौटे तो दिलफ़िगार चुपके से उठा और अपने चाकदामन कुरते में यह राख का ढेर समेट लिया और इस मुट्ठी भर राख को दुनिया की सबसे अनमोल चीज़ समझता हुआ, सफलता के नशे में चूर, यार के कूचे की तरफ चला। अबकी ज्योंज्यों वह अपनी मंज़िल के क़रीब आता था, उसकी हिम्मतें बढ़ती जाती थीं। कोई उसके दिल में बैठा हुआ कह रहा थाअबकी तेरी जीत है और इस ख़याल ने उसके दिल को जोजो सपने दिखाए उनकी चर्चा व्यर्थ है। आख़िकार वह शहर मीनोसवाद में दाख़िल हुआ और दिलफ़रेब की ऊँची ड्योढ़ी पर जाकर ख़बर दी कि दिलफ़िगार सुर्ख़रू होकर लौटा है और हुज़ूर के सामने आना चाहता है। दिलफ़रेब ने जाँबाज़ आशिक़ को फ़ौरन दरबार में बुलाया और उस चीज़ के लिए, जो दुनिया की सबसे बेशक़ीमत चीज़ थी, हाथ फैला दिया। दिलफ़िगार ने हिम्मत करके उसकी चाँदी जैसी कलाई को चूम लिया और मुठ्ठी भर राख को उसकी हथेली में रखकर सारी कैफ़ियत दिल को पिघला देने वाले लफ़्जों में कह सुनायी और सुन्दर प्रेमिका के होठों से अपनी क़िस्मत का मुबारक फ़ैसला सुनने के लिए इन्तज़ार करने लगा। दिलफ़रेब ने उस मुठ्ठी भर राख को आँखों से लगा लिया और कुछ देर तक विचारों के सागर में डूबे रहने के बाद बोलीऐ जान निछावर करने वाले आशिक़ दिलफ़िगार बेशक यह राख जो तू लाया है, जिसमें लोहे को सोना कर देने की सिफ़त है, दुनिया की बहुत बेशक़ीमत चीज़ है और मैं सच्चे दिल से तेरी एहसानमन्द हूँ कि तूने ऐसी अनमोल भेंट मुझे दी। मगर दुनिया में इससे भी ज़्यादा अनमोल कोई चीज़ है, जा उसे तलाश कर और तब मेरे पास आ। मैं तहेदिल से दुआ करती हूँ कि खुदा तुझे कामयाब करे। यह कहकर वह सुनहरे परदे से बाहर आयी और माशूक़ाना अदा से अपने रूप का जलवा दिखाकर फिर नजरों से ओझल हो गयी। एक बिजली थी कि कौंधी और फिर बादलों के परदे में छिप गयी। अभी दिलफ़िगार के होशहवास ठिकाने पर न आने पाये थे कि चोबदार ने मुलायमियत से उसका हाथ पकडक़र यार के कूचे से उसको निकाल दिया और फिर तीसरी बार वह प्रेम का पुजारी निराशा के अथाह समुन्दर में गोता खाने लगा।

  • 2: प्रेमचंद की कहानी "शेख़ मख़मूर" Premchand Story "Shekh Makhmoor"
    36 min 36 sec

    मुल्के जन्नतनिशाँ के इतिहास में बहुत अँधेरा वक़्त था जब शाह किशवर की फ़तहों की बाढ़ बड़े ज़ोरशोर के साथ उस पर आयी। सारा देश तबाह हो गया। आज़ादी की इमारतें ढह गयीं और जानोमाल के लाले पड़ गये। शाह बामुराद खूब जी तोडक़र लड़ा, खूब बहादुरी का सबूत दिया और अपने ख़ानदान के तीन लाख़ सूरमाओं को अपने देश पर चढ़ा दिया मगर विजेता की पत्थर काट देने वाली तलवार के मुक़ाबले में उसकी यह मर्दाना जाँबाजि़याँ बेअसर साबित हुईं। मुल्क पर शाह किशवरकुशा की हुकूमत का सिक्का जम गया और शाह बामुराद अकेला और तनहा बेयारो मददगार अपना सब कुछ आज़ादी के नाम पर कुर्बान करके एक झोंपड़े में जि़न्दगी बसर करने लगा।यह झोंपड़ा पहाड़ी इलाक़े में था। आसपास जंगली क़ौमें आबाद थीं और दूरदूर तक पहाड़ों के सिलसिले नज़र आते थे। इस सुनसान जगह में शाह बामुराद मुसीबत के दिन काटने लगा, दुनिया में अब उसका कोई दोस्त न था। वह दिन भर आबादी से दूर एक चट्टान पर अपने ख़याल में मस्त बैठा रहता था। लोग समझते थे कि यह कोई ब्रह्म ज्ञान के नशे में चूर सूफ़ी है। शाह बामुराद को यों बसर करते एक ज़माना बीत गया और जवानी की बिदाई और बुढ़ापे के स्वागत की तैयारियाँ होने लगीं।तब एक रोज़ शाह बामुराद बस्ती के सरदार के पास गया और उससे कहा मैं अपनी शादी करना चाहता हूँ। उसकी तरफ़ से पैग़ाम सुनकर वह अचम्भे में आ गया मगर चूँकि दिल में शाह साहब के कमाल और फ़कीरी में गहरा विश्वास रखता था, पलटकर जवाब न दे सका और अपनी कुँवारी नौजवान बेटी उनको भेंट की। तीसरे साल इस युवती की क़ामनाओं की बाटिका में एक नौरस पौधा उगा। शाह साहब खुशी के मारे जामे में फूले न समाये। बच्चे को गोद में उठा लिया और हैरत में डूबी हुई माँ के सामने जोशभरे लहजे में बोले “खुदा का शुक्र है कि मुल्के जन्नतनिशाँ का वारिस पैदा हुआ।”बच्चा बढऩे लगा। अक़्ल और ज़हानत में, हिम्मत और ताक़त में वह अपनी दुगनी उमर के बच्चों से बढक़र था। सुबह होते ही ग़रीब रिन्दा बच्चे का बनावसिंगार करके और उसे नाश्ता खिलाकर अपने कामधन्धे में लग जाती थी और शाह साहब बच्चे की उँगली पकडक़र उसे आबादी से दूर चट्टान पर ले जाते। वहाँ कभी उसे पढ़ाते, कभी हथियार चलाने की मश्क़ कराते और कभी उसे शाही क़ायदे समझाते। बच्चा था तो कमसिन, मगर इन बातों में ऐसा जी लगाता और ऐसे चाव से लगा रहता गोया उसे अपने वंश का हाल मालूम है। मिज़ाज भी बादशाहों जैसा था। गाँव का एकएक लडक़ा उसके हुक्म का फ़रमाबरदार था। माँ उस पर गर्व करती, बाप फूला न समाता और सारे गाँव के लोग समझते कि यह शाह साहब के जपतप का असर है।बच्चा मसऊद देखतेदेखते एक सात साल का नौजवान शहज़ादा हो गया। देखकर देखने वाले के दिल को एक नशासा होता था। एक रोज़ शाम का वक़्त था, शाह साहब अकेले सैर करने गये और जब लौटे तो उनके सर पर एक जड़ाऊ ताज शोभा दे रहा था। रिन्दा उनकी यह हुलिया देखकर सहम गयी और मुँह से कुछ बोल न सकी। तब उन्होंने नौजवान मसऊद को गले से लगाया, उसी वक़्त उसे नहलायाधुलाया और एक चट्टान के तख़्त पर बैठाकर दर्दभरे लहजे में बोलेमसऊद, मैं आज तुमसे रुख़सत होता हूँ और तुम्हारी अमानत तुम्हें सौंपता हूँ। यह उसी मुल्के जन्नतनिशाँ का ताज है। कोई वह ज़माना था, कि यह ताज तुम्हारे बदनसीब बाप के सर पर ज़ेब देता था, अब वह तुम्हें मुबारक हो। रिन्दा प्यारी बीबी तेरा बदक़िस्मत शौहर किसी ज़माने में इस मुल्क का बादशाह था और अब तू उसकी मलिका है। मैंने यह राज़ तुमसे अब तक छिपाया था मगर हमारे अलग होने का वक़्त बहुत पास है। अब छिपाकर क्या करूँ। मसऊद, तुम अभी बच्चे हो, मगर दिलेर और समझदार हो। मुझे यक़ीन है कि तुम अपने बूढ़े बाप की अख़िरी वसीयत पर ध्यान दोगे और उस पर अमल करने की कोशिश करोगे। यह मुल्क तुम्हारा है, यह ताज तुम्हारा है और यह रिआया तुम्हारी है। तुम इन्हें अपने कब्जे में लाने की मरते दम तक कोशिश करते रहना और अगर तुम्हारी तमाम कोशिशें नाक़ाम हो जाएँ और तुम्हें भी यही बेसरोसामानी की मौत नसीब हो तो यही वसीयत तुम अपने बेटे से कर देना और ताज जो उसकी अमानत होगी उसके सुपुर्द करना। मुझे तुमसे और कुछ नहीं कहना है, खुदा तुम दोनों को खुशोख़ुर्रम रक्खे और तुम्हें मुराद को पहुँचाये।यह कहतेकहते शाह साहब की आँखें बन्द हो गयीं। रिन्दा दौडक़र उनके पैरों से लिपट गयी और मसऊद रोने लगा। दूसरे दिन सुबह को गाँव के लोग जमा हुए और एक पहाड़ी गुफ़ा की गोद में लाश रख दी।

  • 3: प्रेमचंद की कहानी "यही मेरा वतन" Premchand Story "Yahi Mera Watan"
    15 min 3 sec

    उस बरगद के पेड़ की तरफ़ दौड़ा जिसकी सुहानी छाया में हमने बचपन के मज़े लूटे थे, जो हमारे बचपन का हिण्डोला और ज़वानी की आरामगाह था। इस प्यारे बरगद को देखते ही रोनासा आने लगा और ऐसी हसरतभरी, तड़पाने वाली और दर्दनाक यादें ताज़ी हो गयीं कि घण्टों ज़मीन पर बैठकर रोता रहा। यही प्यारा बरगद है जिसकी फुनगियों पर हम चढ़ जाते थे, जिसकी जटाएँ हमारा झूला थीं और जिसके फल हमें सारी दुनिया की मिठाइयों से ज़्यादा मज़ेदार और मीठे मालूम होते थे। वह मेरे गले में बाँहें डालकर खेलने वाले हमजोली जो कभी रूठते थे, कभी मनाते थे, वह कहाँ गये आह, मैं बेघरबार मुसाफ़िर क्या अब अकेला हूँ क्या मेरा कोर्ई साथी नहीं। इस बरगद के पास अब थाना और पेड़ के नीचे एक कुर्सी पर कोई लाल पगड़ी बाँधे बैठा हुआ था। उसके आसपास दसबीस और लाल पगड़ीवाले हाथ बाँधे खड़े थे और एक अधनंगा अकाल का मारा आदमी जिस पर अभीअभी चाबुकों की बौछार हुई थी, पड़ा सिसक रहा था। मुझे ख़याल आया, यह मेरा प्यारा देश नहीं है, यह कोई और देश है, यह योरप है, अमरीका है, मगर मेरा प्यारा देश नहीं है, हरगिज़ नहीं।इधर से निराश होकर मैं उस चौपाल की ओर चला जहाँ शाम को पिताजी गाँव के और बड़ेबूढ़ों के साथ हुक़्क़ा पीते और हँसीदिल्लगी करते थे। हम भी उस टाट पर क़लाबाजियाँ खाया करते। कभीकभी वहाँ पंचायत भी बैठती थी जिसके सरपंच हमेशा पिताजी ही होते थे। इसीचौपाल से लगी हुई एक गोशाला थी। जहाँ गाँव भर की गायें रक्खी जाती थीं और हम यहीं बछड़ों के साथ कुलेलें किया करते थे। अफ़सोस, अब इस चौपाल का पता न था। वहाँ अब गाँव के टीका लगाने का स्टेशन और एक डाकख़ाना था। उन दिनों इसी चौपाल से लगा हुआ एक कोल्हाड़ा था जहाँ जाड़े के दिनों मे ऊख पेरी जाती थी और गुड़ की महक से दिमाग़ तर हो जाता था। हम और हमारे हमजोली घण्टों गँडेरियों के इन्तज़ार में बैठे रहते थे और गँडेरियाँ काटने वाले मज़दूरो के हाथों की तेज़ी पर अचरज करते थे, जहाँ सैकड़ों बार मैंने कच्चा रस और पक्का दूध मिलाकर पिया था। यहाँ आसपास के घरों से औरतें और बच्चे अपनेअपने घड़े लेकर आते और उन्हें रस से भरवाकर ले जाते। अफ़सोस, वह कोल्हू अभी ज्यों के त्यों गड़े हुए हैं मगर देखो, कोल्हाड़े की जगह पर अब एक सन लपेटने वाली मशीन है और उसके सामने एक तम्बोली और सिगरेट की दूकान है। इन दिल को छलनी करने वाले दृश्यों से दुखी होकर मैंने एक आदमी से जो सूरत से शरीफ़ नज़र आता था, कहाबाबा, मैं परदेशी मुसाफ़िर हूँ, रात भर पड़े रहने के लिए मुझे जगह दे दो। इस आदमी ने मुझे सर से पैर तक घूरकर देखा और बोलाआगे जाओ, यहाँ जगह नहीं है। मैं आगे गया और यहाँ से फिर हुक्म मिला आगे जाओ। पाँचवीं बार सवाल करने पर एक साहब ने मुठ्ठी भर चने मेरे हाथ पर रख दिये। चने मेरे हाथ से छूटकर गिर पड़े और आँखों से आँसू बहने लगे। हाय, यह मेरा प्यारा देश नहीं है, यह कोई और देश है। यह हमारा मेहमान और मुसाफ़िर की आवभगत करने वाला प्यारा देश नहीं, हरगिज़ नहीं।

  • 4: प्रेमचंद की कहानी "शोक का पुरस्कार" Premchand Story "Shok Ka Puraskar"
    21 min 57 sec

    निरंजनदास यह कहकर चले गये। मैंने हजामत बनायी, कपड़े बदले और मिस लीलावती से मिलने का चाव मन में लेकर चला। वहाँ जाकर देखा तो ताला पड़ा हुआ है। मालूम हुआ कि मिस साहिबा की तबीयत दोतीन दिन से ख़राब थी। आबहवा बदलने के लिए नैनीताल चली गयीं। अफ़सोस, मैं हाथ मलकर रह गया। क्या लीला मुझसे नाराज़ थी उसने मुझे क्यों ख़बर नहीं दी। लीला, क्या तू बेवफा है, तुझसे बेवफ़ाई की उम्मीद न थी। फ़ौरन पक्का इरादा कर लिया कि आज की डाक से नैनीताल चल दूँ। मगर घर आया तो लीला का ख़त मिला। काँपते हुए हाँथों से खोला, लिखा थामैं बीमार हूँ, मेरी जीने की कोई उम्मीद नहीं है, डाक्टर कहते हैं कि प्लेग है। जब तक तुम आओगे, शायद मेरा क़िस्सा तमाम हो जाएगा। आखिरी वक़्त तुमसे न मिलने का सख्त सदमा है। मेरी याद दिल में क़ायम रखना। मुझे सख्त अफ़सोस है कि तुमसे मिलकर नहीं आयी। मेरा क़सूर माफ करना और अपनी अभागिनी लीला को भुला मत देना। ख़त मेरे हाथ से छूटकर गिर पड़ा। दुनिया आँखों में अँधेरी हो गयी, मुँह से एक ठण्डी आह निकली। बिना एक क्षण गँवाये मैंने बिस्तर बाँधा और नैनीताल चलने के लिए तैयार हो गया। घर से निकला ही था कि प्रोफेसर बोस से मुलाक़ात हो गयी। कालेज से चले आ रहे थे, चेहरे पर शोक लिखा हुआ था। मुझे देखते ही उन्होंने जेब से एक तार निकालकर मेरे सामने फेंक दिया। मेरा कलेजा धक् से हो गया। आँखों में अँधेरा छा गया, तार कौन उठाता है। और हाय मारकर बैठ गया। लीला, तू इतनी जल्दी मुझसे जुदा हो गयी

  • 5: प्रेमचंद की कहानी "सांसारिक प्रेम और देश प्रेम" Premchand Story "Sansarik Prem Aur Desh Prem"
    25 min 39 sec

    मैग्डलीन का घर स्विटज़रलैण्ड में था। वह एक समृद्घ व्यापारी की बेटी थी और अनिन्द्य सुन्दरी। आन्तरिक सौन्दर्य में भी उसका जोड़ मिलना मुश्किल था। कितने ही अमीर और रईस लोग उसका पागलपन सर में रखते थे, मगर वह किसी को कुछ ख़याल में न लाती थी। मैजि़नी जब इटली से भागा तो स्विटज़रलैण्ड में आकर शरण ली। मैग्डलीन उस वक़्त भोलीभाली, जवानी की गोद में खेल रही थी। मैजि़नी की हिम्मत और कुर्बानियों की तारीफें पहले ही सुन चुकी थी। कभीकभी अपनी माँ के साथ उसके यहाँ आने लगी और आपस का मिलनाजुलना जैसेजैसे बढ़ा और मैजि़नी के भीतरी सौन्दर्य का ज्योंज्यों उसके दिल पर गहरा असर होता गया, उसकी मुहब्बत उसके दिल मे पक्की होती गयी। यहाँ तक कि उसने एक दिन खुद लाज शर्म को किनारे रखकर मैजि़नी के पैरों पर सिर रख़ दिया और कहामुझे अपनी सेवा मे स्वीकार कर लीजिए।मैजि़नी पर भी उस वक़्त जवानी छाई हुई थी, देश की चिन्ताओं ने अभी दिल को ठण्डा नहीं किया था। जवानी की पुरजोश उम्मीदें दिल में लहरें मार रही थीं, मगर उसने संकल्प कर लिया था कि मैं देश और जाति पर अपने को न्योछावर कर दूँगा। और इस संकल्प पर क़ायम रहा। एक ऐसी सुन्दर युवती के नाजुकनाजुक होंठों से ऐसी दरख्वास्त सुनकर रद्द कर देना मैजि़नी ही जैसे संकल्प के पक्के हियाव के पूरे आदमी का काम था।मैग्डलीन भीगीभीगी आँखें लिये उठी मगर निराश न हुई थी। इस असफलता ने उसके दिल में प्रेम की आग और भी तेज़ कर दी और गोया आज मैजि़नी को स्विटज़रलैन्ड छोड़े कई साल गुज़रे मगर वफ़ादार मैग्डलीन अभी तक मैजि़नी को नहीं भूली। दिनों के साथ उसकी मुहब्बत और भी गाढ़ी और सच्ची होती जाती है।मैजि़नी ख़त पढ़ चुका तो एक लम्बी आह भरकर रफेती से बोलादेखा मैग्डलीन क्या कहती हैरफेतीउस ग़रीब की जान लेकर दम लोगेमैजि़नी फिर ख़याल में डूबामैग्डलीन, तू नौजवान है, सुन्दर है, भगवान ने तुझे अकूत दौलत दी है, तू क्यों एक ग़रीब, दुखियारे, कंगाल, फक्कड़, परदेश में मारेमारे फिरने वाले आदमी के पीछे अपनी जि़न्दगी मिट्टी में मिला रही है मुझ जैसा मायूस, आफ़त का मारा हुआ आदमी तुझे क्योंकर खुश रख सकेगा नहीं, नहीं मैं ऐसा स्वार्थी नहीं हूँ। दुनिया में बहुत से ऐसे हँसमुख खुशहाल नौजवान हैं जो तुझे खुश रख सकते हैं जो तेरी पूजा कर सकते हैं। क्यों तू उनमें से किसी को अपनी ग़ुलामी में नहीं ले लेती मैं तेरे प्रेम, सच्चे, नेक और नि:स्वार्थ प्रेम का आदर करता हूँ। मगर मेरे लिए, जिसका दिल देश और जाति पर समर्पित हो चुका है, तू एक प्यारी और हमदर्द बहन के सिवा और कुछ नहीं हो सकती। मुझमें ऐसी क्या खूबी है, ऐसे कौन से गुण हैं कि तुझ जैसी देवी मेरे लिए ऐसी मुसीबतें झेल रही है। आह मैजि़नी , कम्बख्त मैजि़नी, तू कहीं का न हुआ। जिनके लिए तूने अपने को न्योछावर कर दिया , वह तेरी सूरत से नफ़रत करते हैं। जो तेरे हमदर्द हैं, वह समझते हैं तू सपने देख रहा है।

  • 6: प्रेमचंद की कहानी "जीवन सार" Premchand Story "Jeevan Saar"
    23 min 34 sec

    मैंने समझा बेड़ा पार हुआ। फार्म लिया, खानापुरी की और पेश कर दिया। साहब उस समय कोई क्लास ले रहे थे। तीन बजे मुझे फार्म वापस मिला। उस पर लिखा थाइसकी योग्यता की जाँच की जाय।यह नई समस्या उपस्थित हुई। मेरा दिल बैठ गया। अँग्रेजी के सिवा और किसी विषय में पास होने की मुझे आशा न थी। और बीजगणित और रेखागणित से तो रूह काँपती थी। जो कुछ याद था, वह भी भूलभाल गया था लेकिन दूसरा उपाय ही क्या था भाग्य का भरोसा करके क्लास में गया और अपना फार्म दिखाया। प्रोफेसर साहब बंगाली थे अंग्रेजी पढ़ा रहे थे। वाशिंगटन इर्विंग का ‘रिपिवान विंकिल’ था। मैं पीछे की कतार में जाकर बैठ गया और दोहीचार मिनिट में मुझे ज्ञात हो गया कि प्रोफेसर साहब अपने विषय के ज्ञाता हैं। घण्टा समाप्त होने पर उन्होंने आज के पाठ पर मुझसे कई प्रश्न किये और फ़ार्म पर ‘सन्तोषजनक’ लिख दिया।दूसरा घण्टा बीजगणित का था। इसके प्रोफेसर भी बंगाली थे। मैंने अपना फ़ार्म दिखाया। नई संस्थाओं मंस प्राय: वही छात्र आते हैं, जिन्हें कहीं जगह नहीं मिलती। यहाँ भी यही हाल था। क्लासों में अयोग्य छात्र भरे हुए थे। पहले रेले में जो आया, वह भरती हो गया। भूख में सागपात सभी रुचिकर होता है। अब पेट भर गया था। छात्र चुनचुनकर लिये जाते थे। इन प्रोफेसर साहब ने गणित में मेरी परीक्षा ली और मैं फेल हो गया। फ़ार्म पर गणित के खाने में ‘असन्तोषजनक’ लिख दिया।मैं इतना हताश हुआ कि फ़ार्म लेकर फिर प्रिन्सिपल के पास न गया। सीधा घर चला आया। गणित मेरे लिए गौरीशंकर की चोटी थी। कभी उस पर न चढ़ सका। ‘इण्टरमीडिएट’ में दो बार गणित में फेल हुआ और निराश होकर इम्तहान देना छोड़ दिया। दसबारह साल के बाद जब गणित की परीक्षा में अख्तियारी हो गयी तब मैंने दूसरे विषय लेकर उसे आसानी से पास कर लिया। उस समय तक यूनिवर्सिटी के इस नियम ने, कितने युवकों की आकांक्षाओं का ख़ून किया, कौन कह सकता है। खैर मैं निराश होकरघर तो लौट आया लेकिन पढ़ने की लालसा अभी तक बनी हुई थी। घर बैठकर क्या करता किसी तरह गणित को सुधारूँ और कालेज में भरती हो जाऊँ, यही धुन थी। इसके लिए शहर में रहना ज़रूरी था। संयोग से एक वकील साहब के लडक़ों को पढ़ाने का काम मिल गया। पाँच रुपये वेतन ठहरा मैंने दो रुपये में अपना गुजर करके तीन रुपये घर पर देने का निश्चय किया। वकील साहब के अस्तबल के ऊपर एक छोटीसी कच्ची कोठरी थी। उसी में रहने की आज्ञा ले ली एक टाट का टुकड़ा बिछा दिया बाज़ार से एक छोटा सा लैम्प लाया और शहर में रहने लगा। घर से कुछ बरतन भी लाया। एक वक्त खिचड़ी पका लेता और बरतन धोमाँजकर लाइब्रेरी चला जाता। गणित तो बहाना था, उपन्यास आदि पढ़ा करता। पण्डित रतननाथ दर का ‘फसानाएआज़ाद’ उन्हीं दिनों पढ़ा। ‘चन्द्रकान्तासन्तति’ भी पढ़ी। बंकिम बाबू के उर्दू अनुवाद, जितने पुस्तकालय में मिले, सब पढ़ डाले। जिन वकील साहब के लडक़ों को पढ़ाता था, उनके साले मेरे साथ मैट्रिकुलेशन में पढ़ते थे। उन्हीं की सिफ़ारिश से मुझे यह पद मिला था। उनसे दोस्ती थी, इसलिए जब ज़रूरत होती, पैसे उधार ले लिया करता था। वेतन मिलने पर हिसाब हो जाता था। कभी दो रुपये हाथ आते, कभी तीन। जिस दिन वेतन के दोतीन रुपये मिलते, मेरा संयम हाथ से निकल जाता। प्यासी तृष्णा हलवाई की दूकान की ओर खींच ले जाती। दोतीन आने पैसे खाकर ही उठता। उसी दिन घर जाता और दोढाई रुपये दे आता। दूसरे दिन से फिर उधार लेना शुरू कर देता लेकिन कभीकभी उधार माँगने में भी संकोच होता और दिनकादिन निराहारव्रत रखना पड़ जाता।

  • 7: प्रेमचंद की कहानी "तथ्य" Premchand Story "Tathya"
    22 min 53 sec

    इतना कहकर अमृत चुप हो गया। अभी तक यह बात कभी उसके ध्यान में ही नहीं आयी थी कि पूर्णिमा कहीं चली भी जाएगी। इतनी दूर तक सोचने की उसे फुरसत ही नहीं थी। प्रसन्नता तो वर्तमान में ही मस्त रहती है। यदि भविष्य की बातें सोचने लगे तो फिर प्रसन्नता ही क्यों रहे और अमृत जितनी जल्दी इस दुर्घटना के होने की कल्पना कर सकता था, उससे पहले ही यह दुर्घटना एक खबर के रूप में सामने आ ही गयी। पूर्णिमा के ब्याह की एक जगह बातचीत हो गयी। अच्छा दौलतमन्द ख़ानदान था और साथ ही इज्जतदार भी। पूर्णिमा की माँ ने उसे बहुत खुशी से मंजूर भी कर लिया। ग़रीबी की उस हालत में उसकी नजरों में जो चीज़ सबसे ज़्यादा प्यारी थी,वह दौलत थी। और यहाँ पूर्णिमा के लिए सब तरह से सुखी रहकर ज़िन्दगी बिताने के सामान मौजूद थे। मानो उसे मुँहमाँगी मुराद मिल गयी हो। इससे पहले वह मारे फ़िक्र के घुली जाती थी। लडक़ी के ब्याह का ध्यान आते ही उसका कलेजा धडक़ने लगता था। अब मानो परमात्मा ने अपने एक ही कटाक्ष से उसकी सारी चिन्ताओं और विकलताओं का अन्त कर दिया।अमृत ने सुना तो उसकी हालत पागलों कीसी हो गई। वह बेतहाशा पूर्णिमा के घर की तरफ दौड़ा, मगर फिर लौट पड़ा। होश ने उसके पैर रोक दिये। वह सोचने लगा कि वहाँ जाने से क्या फ़ायदा आखिर उसमें उसका कसूर ही क्या है और किसी का क्या कसूर है अपने घर आया और मुँह ढँककर लेट रहा। पूर्णिमा चली जाएगी। फिर वह कैसे रहेगा वह विचलितसा होने लगा। वह ज़िन्दा ही क्यों रहे ज़िन्दगी में रखा ही क्या है लेकिन यह भाव भी दूर हो गया। और उसका स्थान लिया उस नि:स्तब्धता ने, जो तूफ़ान के बाद आती है। वह उदासीन हो गया। जब पूर्णिमा जाती ही है, तो वह उसके साथ कोई सम्बन्ध क्यों रखे क्यों मिलेजुले और अब पूर्णिमा को उसकी परवाह ही क्यों होने लगी और परवाह थी ही कब वह आप ही उसके पीछे कुत्तों की तरह दुम हिलाता रहता था। पूर्णिमा ने तो कभी बात भी नहीं पूछी। और अब उसे क्यों न अभिमान हो एक लखपति की स्त्री बनने जा रही है शौक़ से बने। अमृत भी ज़िन्दा रहेगा। मरेगा नहीं। यही इस जमाने की वफ़ादारी की रस्म है।

  • 8: प्रेमचंद की कहानी "दो बहने" Premchand Story "Do Bahne"
    34 min 31 sec

    देखने या बनावसिंगार की आदी नहीं है। ये औरतें दिल में न जाने क्या समझें। मगर यहाँ कोई आईना तो होगा ही। ड्राइंगरूम में ज़रूर ही होगा। वह उठकर ड्रांइगरूम में गयी और क़द्देआदम शीशे में अपनी सूरत देखी। वहाँ इस वक्त और कोई न था। मर्द बाहर सहन में थे, औरतें गानेबजाने में लगी हुई थीं। उसने आलोचनात्मक दृष्टि से एकएक अंग को, अंगों के एकएक विन्यास को देखा। उसका अंगविन्यास, उसकी मुखछवि निष्कलंक है। मगर वह ताजगी, वह मादकता, वह माधुर्य नहीं है। हाँ, नहीं है। वह अपने को धोखे में नहीं डाल सकती। कारण क्या है यही कि रामदुलारी आज खिली है, उसे खिले जमाना हो गया। लेकिन इस ख्याल से उसका चित्त शान्त नहीं होता। वह रामदुलारी से हेठी बनकर नहीं रह सकती। ये पुरुष भी कितने गावदी होते हैं। किसी में भी सच्चे सौन्दर्य की परख नहीं। इन्हें तो जवानी और चंचलता और हावभाव चाहिए। आँखें रखकर भी अन्धे बनते हैं। भला इन बातों का आपसे क्या सम्बन्ध ये तो उम्र के तमाशे हैं। असली रूप तो वह है, जो समय की परवाह न करे। उसके कपड़ों में रामदुलारी को खड़ा कर दो, फिर देखो, यह सारा जादू कहाँ उड़ जाता है। चुड़ैलसी नजर आये। मगर इन अन्धों को कौन समझाये। मगर रामदुलारी के घरवाले तो इतने सम्पन्न न थे। विवाह में जो जोड़े और गहने आये थे, वे तो बहुत ही निराशाजनक थे। खुशहाली का दूसरा कोई सामान भी न था। इसके ससुर एक रियासत के मुख्तारआम थे, और दूल्हा कालेज में पढ़ता था। इस दो साल में कहाँ से यह हुन बरस गया। कौन जाने, गहने कहीं से माँग लायी हो। कपड़े भी माँगे हो सकते हैं। कुछ औरतों को अपनी हैसियत बढ़ाकर दिखाने की लत होती है। तो वह स्वाँग रामदुलारी को मुबारक रहे। मैं जैसी हूँ, वैसी अच्छी हूँ। प्रदर्शन का यह रोग कितना बढ़ता जाता है। घर में रोटियों का ठिकाना नहीं है, मर्द 2530 रुपये पर क़लम घिस रहा है लेकिन देवीजी घर से निकलेंगी तो इस तरह बनठनकर, मानों कहीं की राजकुमारी हैं। बिसातियों के और दरजियों के तकाजे सहेंगी, बजाज के सामने हाथ जोड़ेंगी, शौहर की घुड़कियाँ खाएँगी, रोएँगी, रूठेंगी, मगर प्रदर्शन के उन्माद को नहीं रोकतीं। घरवाले भी सोचते होंगे, कितनी छिछोरी तबियत है इसकी मगर यहाँ तो देवीजी ने बेहयाई पर कमर बाँध ली है। कोई कितना ही हँसे, बेहया की बला दूर। उन्हें तो बस यही धुन सवार है कि जिधर से निकल जाएँ, उधर लोग हृदय पर हाथ रखकर रह जाएँ। रामदुलारी ने ज़रूर किसी से गहने और जेवर माँग लिये बेशर्म जो हैउसके चेहरे पर आत्मसम्मान की लाली दौड़ गयी। न सही उसके पास जेवर और कपड़े। उसे किसी के सामने लज्जित तो नहीं होना पड़ता किसी से मुँह तो नहीं चुराना पड़ता। एकएक लाख के तो उसके दो लड़के हैं। भगवान् उन्हें चिरायु करे, वह इसी में खुश है। खुद अच्छा पहन लेने और अच्छा खा लेने से जीवन का उद्देश्य नहीं पूरा हो जाता। उसके घरवाले ग़रीब हैं, पर उनकी इज्जत तो है, किसी का गला तो नहीं दबाते, किसी का शाप तो नहीं लेते

  • 9: प्रेमचंद की कहानी "आहुती" Premchand Story "Aahuti"
    22 min 46 sec

    आनन्द और विशम्भर दोनों ही यूनिवर्सिटी के विद्यार्थी थे। आनन्द के हिस्से में लक्ष्मी भी पड़ी थी, सरस्वती भी विशम्भर फूटी तकदीर लेकर आया था। प्रोफेसरों ने दया करके एक छोटासा वजीफा दे दिया था। बस, यही उसकी जीविका थी। रूपमणि भी साल भर पहले उन्हीं के समकक्ष थी पर इस साल उसने कालेज छोड़ दिया था। स्वास्थ्य कुछ बिगड़ गया था। दोनों युवक कभीकभी उससे मिलने आते रहते थे। आनन्द आता था। उसका हृदय लेने के लिए, विशम्भर आता था यों ही। जी पढ़ने में न लगता या घबड़ाता, तो उसके पास आ बैठता था। शायद उससे अपनी विपत्तिकथा कहकर उसका चित्त कुछ शान्त हो जाता था। आनन्द के सामने कुछ बोलने की उसकी हिम्मत न पड़ती थी। आनन्द के पास उसके लिए सहानुभूति का एक शब्द भी न था। वह उसे फटकारता था ज़लील करता था और बेवकूफ बनाता था। विशम्भर में उससे बहस करने की सामथ्र्य न थी। सूर्य के सामने दीपक की हस्ती ही क्या आनन्द का उस पर मानसिक आधिपत्य था। जीवन में पहली बार उसने उस आधिपत्य को अस्वीकार किया था। और उसी की शिकायत लेकर आनन्द रूपमणि के पास आया था। महीनों विशम्भर ने आनन्द के तर्क पर अपने भीतर के आग्रह को ढाला पर तर्क से परास्त होकर भी उसका हृदय विद्रोह करता रहा। बेशक उसका यह साल ख़राब हो जाएगा। सम्भव है, छात्रजीवन ही का अन्त हो जाए, फिर इस 1415 वर्षों की मेहनत पर पानी फिर जाएगा न खुदा ही मिलेगा, न सनम का विसाल ही नसीब होगा। आग में कूदने से क्या फ़ायदा। यूनिवर्सिटी में रहकर भी तो बहुत कुछ देश का काम किया जा सकता है। आनन्द महीने में कुछनकुछ चन्दा जमा करा देता है, दूसरे छात्रों से स्वदेशी की प्रतिज्ञा करा ही लेता है। विशम्भर को भी आनन्द ने यही सलाह दी। इस तर्क ने उसकी बुद्धि को तो जीत लिया, पर उसके मन को न जीत सका। आज जब आनन्द कालेज गया तो विशम्भर ने स्वराज्यभवन की राह ली। आनन्द कालेज से लौटा तो उसे अपनी मेज पर विशम्भर का पत्र मिला। लिखा था

  • 10: प्रेमचंद की कहानी "होली का उपहार" Premchand Story "Holi Ka Uphar"
    13 min 2 sec

    सन्ध्या हो गयी थी। अमीनाबाद में आकर्षण का उदय हो गया था। सूर्य की प्रतिभा विद्युतप्रकाश के बुलबुलों में अपनी स्मृति छोड़ गयी थी।अमरकान्त दबे पाँव हाशिम की दूकान के सामने पहुँचा। स्वयंसेवकों का धरना भी था और तमाशाइयों की भीड़ भी। उसने दोतीन बार अन्दर जाने के लिए कलेजा मज़बूत किया, पर फुटपाथ तक जातेजाते हिम्मत ने जवाब दे दिया।मगर साड़ी लेना ज़रूरी था। वह उसकी आँखों में खुब गयी थी। वह उसके लिए पागल हो रहा था।आखिर उसने पिछवाड़े के द्वार से जाने का निश्चय किया। जाकर देखा, अभी तक वहाँ कोई वालण्टियर न था। जल्दी से एक सपाटे में भीतर चला गया और बीसपचीस मिनट में उसी नमूने की एक साड़ी लेकर फिर उसी द्वार पर आया पर इतनी ही देर में परिस्थिति बदल चुकी थी। तीन स्वयंसेवक आ पहुँचे थे। अमरकान्त एक मिनट तक द्वार पर दुविधे में खड़ा रहा। फिर तीर की तरह निकल भागा और अन्धाधुन्ध भागता चला गया। दुर्भाग्य की बात एक बुढिय़ा लाठी टेकती हुई चली आ रही थी। अमरकान्त उससे टकरा गया। बुढिय़ा गिर पड़ी और लगी गालियाँ देनेआँखों में चर्बी छा गयी है क्या देखकर नहीं चलते यह जवानी ढै जाएगी एक दिन।अमरकान्त के पाँव आगे न जा सके। बुढिय़ा को उठाया और उससे क्षमा माँग रहे थे कि तीनों स्वयंसेवकों ने पीछे से आकर उन्हें घेर लिया। एक स्वयंसेवक ने साड़ी के पैकेट पर हाथ रखते हुए कहाबिल्लाती कपड़ा ले जाए का हुक्म नहीं ना। बुलाइत है, तो सुनत नाहीं हौ।दूसरा बोलाआप तो ऐसे भागे, जैसे कोई चोर भागेतीसराहज्जारन मनई पकरपकरि के जेहल में भरा जात अहैं, देश में आग लगी है, और इनका मन बिल्लाती माल से नहीं भरा।अमरकान्त ने पैकेट को दोनों हाथों से मज़बूत करके कहातुम लोग मुझे जाने दोगे या नहीं।पहले स्वयंसेवक ने पैकेट पर हाथ बढ़ाते हुए कहाजाए कसन देई। बिल्लाती कपड़ा लेके तुम यहाँ से कबौं नाहीं जाय सकत हौ।अमरकान्त ने पैकेट को एक झटके से छुड़ाकर कहातुम मुझे हर्गिज नहीं रोक सकते।उन्होंने क़दम आगे बढ़ाया, मगर दो स्वयंसेवक तुरन्त उसके सामने लेट गये। अब बेचारे बड़ी मुश्किल में फँसे। जिस विपत्ति से बचना चाहते थे, वह जबरदस्ती गले पड़ गयी। एक मिनट में बीसों आदमी जमा हो गये। चारों तरफ से उन टिप्पणियाँ होने लगीं।

  • 11: प्रेमचंद की कहानी "पंडित मोटेराम की डायरी" Premchand Story "Pandit Moteram Ki Diary"
    38 min 22 sec

    अच्छा, अब दूसरी बात लीजिए। धन तो आप सबका बराबर कर देना चाहते हैं लेकिन कृपा करके यह बतलाइए कि आप सबके पेट कैसे बराबर कर देंगे आचार्य नरेन्द्रदेवजी एकदो फुलके और आध घूँट दूध पीकर रह सकते हैं मगर मुझे तो पूजा करने के बाद, मध्याह्न, तीसरे पहर और रात को, चार बार तर माल चकाचक चाहिए, जिसमें लड्डू, हलवा, मलाई, बादाम, कलाकन्द आदि का प्राधान्य हो। अगर आपका साम्यवाद इसकी गारण्टी करे कि वह मुझे इच्छापूर्ण भोजन देगा तो मैं उस पर विचार कर सकता हूँ और अगर आप चाहते हों कि मैं भी दो फुलके और तोले भर दूध और दो तोले भाजी खाकर रहूँ तो ऐसे साम्यवाद को मेरा दूर ही से प्रणाम है। मैं धन नहीं माँगता लेकिन भोजन आँतफाड़ चाहता हूँ, अगर इस तरह की गारण्टी दी गयी, तो वचन देता हूँ कि मैं और मेरे अनेक मित्र साम्यवादी बनने को तैयार हो जाएँगे।लेकिन एक भोजन ही से तो काम नहीं चलता। कपड़ा ही ले लीजिए। आपको एक कुरता और एक टोपी चाहिए। कुरते में एक गज से अधिक खद्दर न लगेगा। मैं लम्बी अँगरखी पहनता हूँ, जिसमें सात गज से कम कपड़ा नहीं लगता। मैंने दरजी के सामने बैठकर खुद कटवाया है और इसका विश्वास दिलाता हूँ कि इससे कम में मेरी अँगरखी नहीं बन सकती। फिर बारह गज का साफ़ा, 5 गज की चादर ऊपर से। साम्यवाद इसकी गारण्टी ले सकता है धन लेकर मुझे क्या करना है, लेकिन भोजन और वस्त्र तो चाहिए ही।आप कहेंगे, काम सबके बराबर करना पड़ेगा। मैं स्वीकार करता हूँ, अगर कोई सज्जन घड़ी भर पूजा करें, तो मैं दो घड़ी कर दूँगा वह घड़ी भर स्नान करें तो मैं दो घड़ी पानी में रह सकता हूँ, वह एक घड़ी शास्त्रार्थ करें तो मैं भोजनपूजन आदि को छोडक़र दिन भर शास्त्रार्थ कर सकता हूँ। इसमें मैं किसी से पीछे हटने वाला नहीं।एक बात और। स्थान की मुझे परवाह नहीं झोपड़ी भी हो तो मैं अपना निबाह कर सकता हूँ। लेकिन रेल यात्रा करते समय अगर मुझे सबके बराबर जगह मिली, तो उस पटरी पर बैठने वालों को छोडक़र भागना पड़ेगा क्योंकि मैं एक पूरी पटरी से कम में समा नहीं सकता। दूसरी बात यह है कि मैं सन्नाटा मारकर नहीं सो सकता। निद्रा में एक विचित्र प्रकार का खर्राटा लेता हूँ। कभी कोई सज्जन मेरे समीप सोते हैं तो उन्हें रात को उठकर भागना पड़ता है। इसलिए अपने हित के लिए नहीं, दूसरों के हित के लिए मैं यह चाहूँगा कि मुझे एक पूरी कोठरी सोने को मिले। अगर साम्यवाद इसमें मीनमेख निकाले तो मैं उसकी ओर आँख उठाकर भी न देखूँगा।

  • 12: प्रेमचंद की कहानी "प्रेम की होली" Premchand Story "Prem Ki Holi"
    12 min 8 sec

    होली आयी, सबने गुलाबी साडिय़ाँ पहनीं, गंगी की साड़ी न रंगी गयी। माँ ने पूछाबेटी, तेरी साड़ी भी रंग दूँ। गंगी ने कहानहीं अम्माँ, यों ही रहने दो। भावज ने फाग गाया। वह पकवान बनाती रही। उसे इसी में आनन्द था।तीसरे पहर दूसरे गाँव के लोग होली खेलने आये। यह लोग भी होली लौटाने जाएँगे। गाँवों में यही परस्पर व्यवहार है। मैकू महतो ने भंग बनवा रखी थी, चरसगाँजा, माजूम सब कुछ लाये थे। गंगी ने ही भंग पीसी थी, मीठी अलग बनायी थी, नमकीन अलग। उसका भाई पिलाता था, वह हाथ धुलाती थी। जवान सिर नीचा किये पीकर चले जाते, बूढ़े, गंगी से पूछ लेतेअच्छी तरह हो न बेटी, या चुहल करतेक्यों री गंगिया भावज तुझे खाना नहीं देती क्या, जो इतनी दुबली हो गयी है गंगिया हँसकर रह जाती।। देह क्या उसके बस की थी। न जाने क्यों वह मोटी हुई थी।भंग पीने के बाद लोग फाग गाने लगे। गंगिया अपनी चौखट पर खड़ी सुन रही थी। एक जवान ठाकुर गा रहा था। कितना अच्छा स्वर था, कैसा मीठा। गंगिया को बड़ा आनन्द आ रहा था। माँ ने कई बार पुकारासुन जा। वह न गयी। एक बार गयी भी तो जल्दी से लौट आयी। उसका ध्यान उसी गाने पर था। न जाने क्या बात उसे खींचे लेती थी, बाँधे लेती थी। जवान ठाकुर भी बारबार गंगिया की ओर देखता और मस्त होहोकर गाता। उसके साथ वालों को आश्चर्य हो रहा था। ठाकुर को यह सिद्धि कहाँ मिल गयी वह लोग विदा हुए तो गंगिया चौखटे पर खड़ी थी। जवान ठाकुर ने भी उसकी ओर देखा और चला गया।

  • 13: प्रेमचंद की कहानी "ये भी नशा वो भी नशा" Premchand Story "Yeh Bhi Nasha Wo Bhi Nasha"
    7 min 16 sec

    साहब ने पिचकारी उठा ली। सामने मटकों में गुलाल रखा हुआ था। बुल ने पिचकारी भरकर पण्डितजी के मुँह पर छोड़ दी तो पण्डितजी नहीं उठे। धन्य भाग कैसे यह सौभाग्य प्राप्त हो सकता है। वाह रे हाकिम इसे प्रजावात्सल्य कहते हैं। आह इस वक्त सेठ जोखनराम होते तो दिखा देता कि यहाँ ज़िला में अफसर इतनी कृपा करते हैं। बताएँ आकर कि उन पर किसी गोरे ने भी पिचकारी छोड़ी है, जिलाधीश का कहना ही क्या। यह पूर्वतपस्या का फल है, और कुछ नहीं। कोई पहले एक सहस्र वर्ष तपस्या करे, तब यह परम पद पा सकता है। हाथ जोडक़र बोलेधर्मावतार, आज जीवन सफल हो गया। जब सरकार ने होली खेली है तो मुझे भी हुक्म मिले कि अपने हृदय की अभिलाषा पूरी कर लूँ।

  • 14: प्रेमचंद की कहानी "त्रिया चरित्र" Premchand Story "Triya Charitra"
    39 min 4 sec

    मगनदास का किताबी ज्ञान बहुत कम था। मगर स्वभाव की सज्जनता से वह खाली हाथ न था। हाथों की उदारता ने, जो समृद्धि का वरदान है, हृदय को भी उदार बना दिया था। उसे घटनाओं की इस कायापलट से दुख तो जरुर हुआ, आखिर इन्सान ही था, मगर उसने धीरज से काम लिया और एक आशा और भय की मिलीजुली हालत में देश को रवाना हुआ। रात का वक्त था। जब अपने दरवाजे पर पहुँचा तो नाचगाने की महफिल सजी देखी। उसके कदम आगे न बढ़े लौट पड़ा और एक दुकान के चबूतरे पर बैठकर सोचने लगा कि अब क्या करना चाहिऐ। इतना तो उसे यकीन था कि सेठ जी उसक साथ भी भलमनसी और मुहब्बत से पेश आयेंगे बल्कि शायद अब और भी कृपा करने लगें। सेठानियॉँ भी अब उसके साथ गैरों कासा वर्ताव न करेंगी। मुमकिन है मझली बहू जो इस बच्चे की खुशनसीब मॉँ थीं, उससे दूरदूर रहें मगर बाकी चारों सेठानियों की तरफ से सेवासत्कार में कोई शक नहीं था। उनकी डाह से वह फायदा उठा सकता था। ताहम उसके स्वाभिमान ने गवारा न किया कि जिस घर में मालिक की हैसियत से रहता था उसी घर में अब एक आश्रित की हैसियत से जिन्दगी बसर करे। उसने फैसला कर लिया कि सब यहॉँ रहना न मुनासिब है, न मसलहत। मगर जाऊँ कहॉं न कोई ऐसा फन सीखा, न कोई ऐसा इल्म हासिल किया जिससे रोजी कमाने की सूरत पैदा होती। रईसाना दिलचस्पियॉँ उसी वक्त तक कद्र की निगाह से देखी जाती हैं जब तक कि वे रईसों के आभूषण रहें। जीविका बन कर वे सम्मान के पद से गिर जाती है। अपनी रोजी हासिल करना तो उसके लिए कोई ऐसा मुश्किल काम न था। किसी सेठसाहूकार के यहॉँ मुनीम बन सकता था, किसी कारखाने की तरफ से एजेंट हो सकता था, मगर उसके कन्धे पर एक भारी जुआ रक्खा हुआ था, उसे क्या करे। एक बड़े सेठ की लड़की जिसने लाड़प्यार मे परिवरिश पाई, उससे यह कंगाली की तकलीफें क्योंकर झेली जाऍंगीं क्या मक्खनलाल की लाड़ली बेटी एक ऐसे आदमी के साथ रहना पसन्द करेगी जिसे रात की रोटी का भी ठिकाना नहीं मगर इस फिक्र में अपनी जान क्यों खपाऊँ। मैंने अपनी मर्जी से शादी नहीं की मैं बराबर इनकार करता रहा। सेठ जी ने जबर्दस्ती मेरे पैरों में बेड़ी डाली है। अब वही इसके जिम्मेदार हैं। मुझ से कोई वास्ता नहीं। लेकिन जब उसने दुबारा ठंडे दिल से इस मसले पर गौर किया तो वचाव की कोई सूरत नजर न आई। आखिकार उसने यह फैसला किया कि पहले नागपुर चलूँ, जरा उन महारानी के तौरतरीके को देखूँ, बाहरहीबाहर उनके स्वभाव की, मिजाज की जॉँच करूँ। उस वक्त तय करूँगा कि मुझे क्या करके चाहिये। अगर रईसी की बू उनके दिमाग से निकल गई है और मेरे साथ रूखी रोटियॉँ खाना उन्हें मंजूर है, तो इससे अच्छा फिर और क्या, लेकिन अगर वह अमीरी ठाटबाट के हाथों बिकी हुई हैं तो मेरे लिए रास्ता साफ है। फिर मैं हूँ और दुनिया का गम। ऐसी जगह जाऊँ जहॉँ किसी परिचित की सूरत सपने में भी न दिखाई दे। गरीबी की जिल्लत नहीं रहती, अगर अजनबियों में जिन्दगी बसरा की जाए। यह जाननेपहचानने वालों की कनखियाँ और कनबतियॉँ हैं जो गरीबी को यन्त्रणा बना देती हैं। इस तरह दिल में जिन्दगी का नक्शा बनाकर मगनदास अपनी मर्दाना हिम्मत के भरोसे पर नागपुर की तरफ चला, उस मल्लाह की तरह जो किश्ती और पाल के बगैर नदी की उमड़ती हुई लहरों में अपने को डाल दे।

  • 15: प्रेमचंद की कहानी "तांगेवाले की बड़" Premchand Story "Tangewale Ki Badh"
    11 min 52 sec

    ऐ हुजूर, औरतों भी इक्केतांगे को बड़ी बेदर्दी से इस्तेमाल करती है। कल की बात है, सातआठ औरते आई और पूछने लगी कि तिरेबेनी का क्यो लोगे। हुजूर निर्ख तो तय है, कोई व्हाइटवे की दुकान तो है नहीं कि साल मे चार बार सेल हो। निर्ख से हमारी मजदूरी चुका दो और दुआए लो। यों तो हुजूर मालिक है, चाहें एक बर कुछ न दें मगर सरकार, औरतें एक रूपए का काम हे तो आठ ही आना देती हैं। हुजूर हम तो साहब लोगों का काम करते है। शरीफ हमशा शरीफ रहते है ओर हुजूर औरत हर जगह औरत ही रहेगी। एक तो पर्दे के बहाने से हम लोग हटा दिए जाते है। इक्केतांगे मे दर्जनों सवरियां और बच्चे बैठ जाते है। एक बार इक्के की कमानी टूटी तो उससे एक न दो पूरी तेरह औरते निकल आई। मै गरीब आदमी मर गयां। हुजूर सबको हैरत होती है कि किस तरह ऊपर नीचें बैठ लेती है कि कैची मारकर बैठती है। तांगे मे भी जान नही बचती। दोनों घुटनो पर एकएक बच्चा को भी ले लेती है। इस तरह हुजूर तांगे के अन्दर सर्कस कासा नक्शा हो जाता है। इस पर भी पूरीपूरी मजदूरी यह देना जानती ही नहीं। पहले तो पर्दे को जारे था। मर्दो से बातचीत हुई और मजदूरी मिल गई। जब से नुमाइश हुई, पर्दा उखड गया और औरतें बाहन आनेजानें लगी। हम गरीबों का सरासर नुकसान होता है। हुजूर हमारा भी अल्लाह मालिक है। साल मे मै भी बराबर हो रहता हूं। सौ सुनार की तो एक लोहार की भी हो जाती है। पिछले महीने दो घंटे सवारी के बाद आठ आने पैसे देकर बी अन्दर भागीं। मेरी निगाह जो तांगे पर पड़ी तो क्या देखताहूं कि एक सोने का झुमका गिरकर रह गया। मै चिल्लाया माई यह क्या, तो उन्होने कहा अब एक हब्बा और न मिलेग और दरवाजा बन्द। मै दोचार मिनट तक तो तकता रह गया मगर फिर वापस चला आया। मेरी मजूदरी माई के पास रही गई और उनका झुमका मेरे पास।

  • 1: समीर गोस्वामी की लिखी कहानी "ग्लानि", "Glani" Written By Sameer Goswami
    12 min 7 sec

    रात के करीब 1 बज रहे होंगे कमरे में दीवार घड़ी की अावाज़ साफ साफ सुनाई दे रही थी। रोमेश की अाँखों से नींद जैसे गायब थी एेसी भरी ठंड में भी उसके चेहरे पर अाई पसीने की बूंदें उसकी घबराहट को बयाँ कर रही थीं चेहरा फक्क सफेद सा हो गया था। अजीब ग्लानि जैसे भाव लिये वो छत की अोर निहार रहा था बाजू में उसकी पत्नि सुलेखा गहरी नींद में सो रही थी। रोमेश ने बिना कोई अावाज़ किये रजाई को एक तरफ किया अौर पलंग से उतर कर बाथरूम की अोर चल दिया। बाथरूम में उसने अपना मुँह धोया अौर तौलिये से मुँह पोछकर अाईने में देखा, अब कुछ ठीक लग रहा था। वापिस अाकर धीरे से बिना अाहट के रजाई के अंदर हो गया एक तरफ करवट की अौर सामने दीवार की अोर ताकने लगा। अाँखों से नींद गायब थी यूँ ही अाँखों ही अाँखों में सारी रात कट गयी।अगली रात रोमेश अपने लेपटाप पर कुछ काम कर रहा था सुलेखा बस अभी कमरे में अाई ही थी दूध का गिलास रोमेश की टेबल पर रखकर पलंग पर बैठ गयी अौर रिमोट से टीवी के चैनल बदलने लगी।कितनी देर लगेगी अचानक सुलेखा ने बड़ी अात्मीयता से पूछामुझे थोड़ा समय लगेगा तुम सो जाअो रोमेश ने बड़े प्यार से जवाब दियाहाँ ठीक है लेकिन दूध ज़रूर पी लेना सुलेखा ने कहाहाँ ठीक है रोमेश ने जवाब दियागुड नाईट सुलेखा ने कहावेरी गुड नाईट स्वीटहार्टसुलेखा ने रजाई खींची अौर मुँह ढंक कर सो गईकरीब एक घंटे काम करने के पश्चात रोमेश बिस्तर पर पहुँचा। वैसे तो रोमेश सुलेखा को अटूट प्यार करता था लेकिन जब भी सुलेखा नींद में होती अौर उसके चेहरे पर जो निश्छल भाव होते उन्हे देखकर उसके मन में प्रेम दुगना हो जाता प्रेम के इसी वेग में बहकर रोमेश ने उसके माथे पर अपना हाथ रखा। हाथ रखते ही जैसे हाई वोल्टेज का कंरट रोमेश को लगा हो बड़ी तीव्रता से उसने अपना हाथ अलग कर लिया, ह्रदय की धड़कने फिर बढ़ गयी थीं चेहरा पसीने से तरबतर हुअा जाता था। स्मृति में पुरानी घटनाअों का अाना शुरु हो गया था।लेंप पोस्ट के नीचे वो लड़की शायद अगली बस का इंतज़ार कर रही थी। इस वक़्त रात का लगभग 8 बज रहा होेगा। लेंप पोस्ट के अलावा सभी जगह घुप्प अंधेरा था। लड़की कुछ असहज महसूस कर रही थी। दो अाँखें उसको लगातार देख रही थीं। कोई बस ना अाते देख वो कुछ ज़्यादा ही असहज हो चली थी। अब उसने चारो अोर निगाह दौड़ाई। कोई अाहट ना देख अब वो अंधेरे की अोर बढ़ने लगी अौर एक झाड़ी के पीछे जाकर बैठ गयी। शायद ये लघुशंका की असहजता थी।अचानक ये दोनो अाँखें तेज़ी से उसकी अोर लपकी, इससे पहले की लड़की कुछ समझ पाती, एक भरे पूरे शरीर ने उस पर झपट्टा मारा अौर उसके बाद वो लड़की चीखती रही, चिल्लाती रही, अपनी अस्मिता की भीख माँगती रही। लेकिन न ही इस बीच कोई रक्षक इस सड़क से निकला न ही उस दंरिन्दे को उस पर दया अायी।पता नहीं दंरिंदे ने उसे कब छोड़ा, वो तो बेसुध हो गयी थी, अाधा घंटे तक लगभग बेहोशी की हालत में सुलेखा वहीं पड़ी रही, जब होश अाया तो किसी तरह अपने अाप को सम्हाला, एकबारगी तो ख़्याल अाया कि जान दे दे। लेकिन जब घर वालों का ख़्याल अाया अौर ये भी कि जान देना कायरता है तो किसी तरह इस विचार को मन से निकाला अौर भावशून्य होकर बस स्टाप पर फिर से खड़ी हो गयी। अब दिमाग ने काम करना बंद कर दिया था, एक जड़वत मूर्ति की तरह वो खड़ी थी। इक्का दुक्का अाटोरिक्शा निकले लेकिन उसमें हाथ उठाकर आटो रोकने की हिम्मत न बची थी या यूँ कहें कि क्षण भर में उसका विश्वास पुरुष प्रजाति से उठ गया था। अब या तो उसे किसी बस का इंतज़ार था या किसी अपने का।एक बार तो एक अाटो वाले ने रुककर कहा भी कि मेडम घर छोड़ दूँ अाज शाम से ही बस वालों ने हड़ताल कर दी है लेकिन या तो उसने सुना नहीं या उसे किसी अजनबी की बातों पर बिश्वास नहीं रहा वो वैसे ही भावशून्य खड़ी रही। आटो वाला एक अजीब सा मुँह बना कर चला गया। सड़क पर फिर से सन्नाटा छा गया।सहसा एक मोटर साईकिल अाकर रुकी अौर चालक ने अावाज़ दी सुलेखाये रोमेश था।रोमेश सुलेखा की ही काॅलोनी में रहता था, वैसे था तो अच्छा लड़का, अच्छी खासी नौकरी करता था, सभी से अदब से पेश अाता ़था, देखने में भी स्मार्ट था लेकिन सुलेखा ना जाने क्यों उसको नापसंद करती थी। शायद नापसादगी का कारण रोमेश का शराब पीना था, वो अक्सर शराब पीकर किसी से भी लड़ जाता अौर नशा उतरने के बाद, जो अक्सर एक घंटे में उतर जाया करता ़था, उन सभी से पैर पकड़कर माफी माँगता जिनसे उसने बदसलूकी की थी। काॅलोनी वाले उसके सामान्यत: किये जाने वाले अच्छे व्यवहार के कारण उसे माफ कर देते लेकिन सुलेखा को ये सख्त नापसंद था। हालांकि सुलेखा ये भी जानती थी कि रोमेश उसे पसंद करता है लेकिन ना कभी रोमेश ने प्रेम का इजहार किया अौर ना सुलेखा को कभी उसको इनकार करने की अावश्यकता पड़ी। परंतु ये

  • 2: जयशंकर प्रसाद की लिखी कहानी तानसेन, Tansen - Story Written By Jaishankar Prasad
    11 min 27 sec

    यह छोटा सा परिवार भी क्या ही सुन्दर है, सुहावने आम और जामुन के वृक्ष चारों ओर से इसे घेरे हुए हैं। दूर से देखने में यहॉँ केवल एक बड़ासा वृक्षों का झुरमुट दिखाई देता है, पर इसका स्वच्छ जल अपने सौन्दर्य को ऊँचे ढूहों में छिपाये हुए है। कठोरहृदया धरणी के वक्षस्थल में यह छोटासा करुणा कुण्ड, बड़ी सावधानी से, प्रकृति ने छिपा रक्खा है। सन्ध्या हो चली है। विहँगकुल कोमल कलरव करते हुए अपनेअपने नीड़ की ओर लौटने लगे हैं। अन्धकार अपना आगमन सूचित कराता हुआ वृक्षों के ऊँचे टहनियों के कोमल किसलयों को धुँधले रंग का बना रहा है। पर सूर्य की अन्तिम किरणें अभी अपना स्थान नहीं छोडऩा चाहती हैं। वे हवा के झोकों से हटाई जाने पर भी अन्धकार के अधिकार का विरोध करती हुई सूर्यदेव की उँगलियों की तरह हिल रही हैं। सन्ध्या हो गई। कोकिल बोल उठा। एक सुन्दर कोमल कण्ठ से निकली हुई रसीली तान ने उसे भी चुप कर दिया। मनोहरस्वरलहरी उस सरोवरतीर से उठकर तट के सब वृक्षों को गुंजरित करने लगी। मधुरमलयानिलताड़ित जललहरी उस स्वर के ताल पर नाचने लगी। हरएक पत्ता ताल देने लगा। अद्‌भुत आनन्द का समावेश था। शान्ति का नैसर्गिक राज्य उस छोटी रमणीय भूमि में मानों जमकर बैठ गया था। यह आनन्दकानन अपना मनोहर स्वरूप एक पथिक से छिपा न सका, क्योंकि वह प्यासा था। जल की उसे आवश्यकता थी। उसका घोड़ा, जो बड़ी शीघ्रता से आ रहा था, रुका, ओर वह उतर पड़ा। पथिक बड़े वेग से अश्व से उतरा, पर वह भी स्तब्ध खड़ा हो गया क्योंकि उसको भी उसी स्वरलहरी ने मन्त्रमुग्ध फणी की तरह बना दिया। मृगयाशील पथिक क्लान्त थावृक्ष के सहारे खड़ा हो गया। थोड़ी देर तक वह अपने को भूल गया। जब स्वरलहरी ठहरी, तब उसकी निद्रा भी टूटी। युवक सारे श्रम को भूल गया, उसके अंग में एक अद्‌भुत स्फूर्ति मालूम हुई। वह, जहाँ से स्वर सुनाई पड़ता था, उसी ओर चला। जाकर देखा, एक युवक खड़ा होकर उस अन्धकाररंजित जल की ओर देख रहा है। पथिक ने उत्साह के साथ जाकर उस युवक के कंधे को पकड़ कर हिलाया। युवक का ध्यान टूटा। उसने पलटकर देखा।भाग 2पथिक का वीरवेश भी सुन्दर था। उसकी खड़ी मूँछें उसके स्वाभाविक गर्व को तनकर जता रही थीं। युवक को उसके इस असभ्य बर्ताव पर क्रोध तो आया, पर कुछ सोचकर वह चुप हो रहा। और, इधर पथिक ने सरल स्वर से एक छोटासा प्रश्न कर दियाक्यों भई, तुम्हारा नाम क्या है युवक ने उत्तर दियारामप्रसाद। पथिकयहाँ कहाँ रहते हो अगर बाहर के रहने वाले हो, तो चलो, हमारे घर पर आज ठहरो। युवक कुछ न बोला, किन्तु उसने एक स्वीकारसूचक इंगित किया। पथिक और युवक, दोनों, अश्व के समीप आये। पथिक ने उसकी लगाम हाथ में ले ली। दोनों पैदल ही सड़क की ओर बढ़े। दोनों एक विशाल दुर्ग के फाटक पर पहुँचे और उसमें प्रवेश किया। द्वार के रक्षकों ने उठकर आदर के साथ उस पथिक को अभिवादन किया। एक ने बढक़र घोड़ा थाम लिया। अब दोनों ने बड़े दालानों और अमराइयों को पार करके एक छोटे से पाईं बाग में प्रवेश किया। रामप्रसाद चकित था, उसे यह नहीं ज्ञात होता था कि वह किसके संग कहाँ जा रहा है। हाँ, यह उसे अवश्य प्रतीत हो गया कि यह पथिक इस दुर्ग का कोई प्रधान पुरुष है। पाईं बाग में बीचोबीच एक चबूतरा था, जो संगमरमर का बना था। छोटीछोटी सीढिय़ाँ चढक़र दोनों उस पर पहुँचे। थोड़ी देर में एक दासी पानदान और दूसरी वारुणी की बोतल लिये हुए आ पहुँची। पथिक, जिसे अब हम पथिक न कहेंगे, ग्वालियरदुर्ग का किलेदार था, मुग़ल सम्राट अकबर के सरदारों में से था। बिछे हुए पारसी कालीन पर मसनद के सहारे वह बैठ गया। दोनों दासियाँ फिर एक हुक़्क़ा ले आईं और उसे रखकर मसनद के पीछे खड़ी होकर चँवर करने लगीं। एक ने रामप्रसाद की ओर बहुत बचाकर देखा। युवक सरदार ने थोड़ीसी वारुणी ली। दोचार गिलौरी पान की खाकर फिर वह हुक़्क़ा खींचने लगा। रामप्रसाद क्या करे बैठेबैठे सरदार का मुँह देख रहा था। सरदार के ईरानी चेहरे पर वारुणी ने वार्निश का काम किया। उसका चेहरा चमक उठा। उत्साह से भरकर उसने कहारामप्रसाद, कुछकुछ गाओ। यह उस दासी की ओर देख रहा था।

  • 3: जयशंकर प्रसाद की लिखी कहानी चंदा, Chanda - Story Written By Jaishankar Prasad
    17 min 24 sec

    युवती मुँह ढाँपकर रो रही है, और युवक रक्ताक्त छूरा लिये, घृणा की दृष्टि से खड़े हुए, हीरा की ओर देख रहा है। विमल चन्द्रिका में चित्र की तरह वे दिखाई दे रहे हैं। वृद्ध को जब चंदा ने देखा, तो और वेग से रोने लगी। उस दृश्य को देखते ही वृद्ध कोलपति सब बात समझ गया, और रामू के समीप जाकर छूरा उसके हाथ से ले लिया, और आज्ञा के स्वर में कहातुम दोनों हीरा को उठाकर नदी के समीप ले चलो।इतना कहकर वृद्ध उन सबों के साथ आकर नदीतट पर जल के समीप खड़ा हो गया। रामू और चंदा दोनों ने मिलकर उसके घाव को धोया और हीरा के मुँह पर छींटा दिया, जिससे उसकी मूच्र्छा दूर हुई। तब वृद्ध ने सब बातें हीरा से पूछीं पूछ लेने पर रामू से कहाक्यों, यह सब ठीक हैरामू ने कहासब सत्य है।वृद्धतो तुम अब चंदा के योग्य नहीं हो, और यह छूरा भीजिसे हमने तुम्हें दिया था। तुम्हारे योग्य नहीं है। तुम शीघ्र ही हमारे जंगल से चले जाओ, नहीं तो तुम्हारा हाल महाराज से कह देंगे, और उसका क्या परिणाम होगा सो तुम स्वयं समझ सकते हो। हीरा की ओर देखकर बेटा तुम्हारा घाव शीघ्र अच्छा हो जायगा, घबड़ाना नहीं, चंदा तुम्हारी ही होगी।यह सुनकर चंदा और हीरा का मुख प्रसन्नता से चमकने लगा, पर हीरा ने लेटेहीलेटे हाथ जोड़कर कहापिता एक बात कहनी है, यदि आपकी आज्ञा हो।वृद्धहम समझ गये, बेटा रामू विश्वासघाती है।हीरानहीं पिता अब वह ऐसा कार्य नहीं करेगा। आप क्षमा करेंगे, मैं ऐसी आशा करता हूँ।वृद्धजैसी तुम्हारी इच्छा।कुछ दिन के बाद जब हीरा अच्छी प्रकार से आरोग्य हो गया, तब उसका ब्याह चंदा से हो गया। रामू भी उस उत्सव में सम्मिलित हुआ, पर उसका बदन मलीन और चिन्तापूर्ण था। वृद्ध कुछ ही काल में अपना पद हीरा को सौंप स्वर्ग को सिधारा। हीरा और चंदा सुख से विमल चाँदनी में बैठकर पहाड़ी झरनों का कलनादमय आनन्दसंगीत सुनते थे।

  • 4: जयशंकर प्रसाद की लिखी कहानी ग्राम, Gram - Story Written By Jaishankar Prasad
    12 min 33 sec

    सरलस्वभावा ग्रामवासिनी कुलकामिनीगण का सुमधुर संगीत धीरेधीरे आम्रकानन में से निकलकर चारों ओर गूँज रहा है। अन्धकार गगन में जुगनूतारे चमकचमक कर चित्त को चंचल कर रहे हैं। ग्रामीण लोग अपना हल कंधे पर रक्खे, बिरहा गाते हुए, बैलों की जोड़ी के साथ, घर की ओर प्रत्यावर्तन कर रहे हैं।एक विशाल तरुवर की शाखा में झूला पड़ा हुआ है, उस पर चार महिलाएँ बैठी हैं, और पचासों उसको घेरकर गाती हुई घूम रही हैं। झूले के पेंग के साथ ‘अबकी सावन सइयाँ घर रहु रे’ की सुरीली पचासों कोकिलकण्ठ से निकली हुई तान पशुगणों को भी मोहित कर रही है। बालिकाएँ स्वछन्द भाव से क्रीड़ा कर रही हैं। अकस्मात् अश्व के पदशब्द ने उन सरला कामिनियों को चौंका दिया। वे सब देखती हैं, तो हमारे पूर्वपरिचित बाबू मोहनलाल घोड़े को रोककर उस पर से उतर रहे हैं। वे सब उनका भेष देखकर घबड़ा गयीं और आपस में कुछ इंगित करके चुप रह गयीं।बाबू मोहनलाल ने निस्तब्धता को भंग किया, और बोलेभद्रे यहाँ से कुसुमपुर कितनी दूर है और किधर से जाना होगा एक प्रौढ़ा ने सोचा कि ‘भद्रे’ कोई परिहासशब्द तो नहीं है, पर वह कुछ कह न सकी, केवल एक ओर दिखाकर बोलीइहाँ से डेढ़ कोस तो बाय, इहै पैंड़वा जाई।बाबू मोहनलाल उसी पगडंडी से चले। चलतेचलते उन्हें भ्रम हो गया, और वह अपनी छावनी का पथ छोड़कर दूसरे मार्ग से जाने लगे। मेघ घिर आये, जल वेग से बरसने लगा, अन्धकार और घना हो गया। भटकतेभटकते वह एक खेत के समीप पहुँचे वहाँ उस हरेभरे खेत में एक ऊँचा और बड़ा मचान था, जो कि फूस से छाया हुआ था, और समीप ही में एक छोटासा कच्चा मकान था।उस मचान पर बालक और बालिकाएँ बैठी हुई कोलाहल मचा रही थीं। जल में भीगते हुए भी मोहनलाल खेत के समीप खड़े होकर उनके आनन्दकलरव को श्रवण करने लगे।भ्रान्त होने से उन्हें बहुत समय व्यतीत हो गया। रात्रि अधिक बीत गयी। कहाँ ठहरें इसी विचार में वह खड़े रहे, बूँदें कम हो गयीं। इतने में एक बालिका अपने मलिन वसन के अंचल की आड़ में दीप लिये हुए उसी मचान की ओर जाती हुई दिखाई पड़ी।

  • 16: प्रेमचंद की कहानी "होली की छुट्टी" Premchand Story "Holi Ki Chhutti"
    33 min 42 sec

    वर्नाक्युलर फ़ाइनल पास करने के बाद मुझे एक प्राइमरी स्कूल में जगह मिली, जो मेरे घर से ग्यारह मील पर था। हमारे हेडमास्टर साहब को छुट्टियों में भी लड़कों को पढ़ाने की सनक थी। रात को लड़के खाना खाकर स्कूल में आ जाते और हेडमास्टर साहब चारपाई पर लेटकर अपने खर्राटों से उन्हें पढ़ाया करते। जब लड़कों में धौलधप्पा शुरु हो जाता और शोरगुल मचने लगता तब यकायक वह खरगोश की नींद से चौंक पड़ते और लड़को को दो चार तकाचे लगाकर फिर अपने सपनों के मजे लेने लगते। ग्यायहबारह बजे रात तक यही ड्रामा होता रहता, यहां तक कि लड़के नींद से बेक़रार होकर वहीं टाट पर सो जाते। अप्रैल में सलाना इम्तहान होनेवाला था, इसलिए जनवरी ही से हायतौ बा मची हुई थी। नाइट स्कूलों पर इतनी रियायत थी कि रात की क्लासों में उन्हें न तलब किया जाता था, मगर छुट्टियां बिलकुल न मिलती थीं। सोमवती अमावस आयी और निकल गयी, बसन्त आया और चला गया,शिवरात्रि आयी और गुजर गयी। और इतवारों का तो जिक्र ही क्या है। एक दिन के लिए कौन इतना बड़ा सफ़र करता, इसलिए कई महीनों से मुझे घर जाने का मौका न मिला था। मगर अबकी मैंने पक्का इरादा कर लिया था कि होली परर जरुर घर जाऊंगा, चाहे नौकरी से हाथ ही क्यों न धोने पड़ें। मैंने एक हफ्ते पहले से ही हेडमास्टर साहब को अल्टीमेटम दे दिया कि २० मार्च को होली की छुट्टी शुरु होगी और बन्दा १९ की शाम को रुखसत हो जाएगा। हेडमास्टर साहब ने मुझे समझाया कि अभी लड़के हो, तुम्हें क्या मालूम नौकरी कितनी मुश्किलों से मिलती है और कितनी मुश्किपलों से निभती है, नौकरी पाना उतना मुश्किल नहीं जितना उसको निभाना। अप्रैल में इम्तहान होनेवाला है, तीनचार दिन स्कूल बन्द रहा तो बताओ कितने लड़के पास होंगे सालभर की सारी मेहनत पर पानी फिर जाएगा कि नहीं मेरा कहना मानो, इस छुट्टी में न जाओ, इम्तसहान के बाद जो छुट्टी पड़े उसमें चले जाना। ईस्टर की चार दिन की छुट्टी होगी, मैं एक दिन के लिए भी न रोकूंगा।मैं अपने मोर्चे पर काय़म रहा, समझानेबुझाने, डराने धमकाने और जवाबतलब किये जाने के हथियारों का मुझ पर असर न हुआ। १९ को ज्यों ही स्कूल बन्द हुआ, मैंने हेडमास्टर साहब को सलाम भी न किया और चुपके से अपने डेरे पर चला आया। उन्हें सलाम करने जाता तो वह एक न एक काम निकालकर मुझे रोक लेते रजिस्टर में फ़ीस की मीज़ान लगाते जाओ, औसत हाज़िरी निकालते जाओ, लड़को की कापियां जमा करके उन पर संशोधन और तारीख सब पूरी कर दो। गोया यह मेरा आखिरी सफ़र है और मुझे जिन्दगी के सारे काम अभी खतम कर देने चाहिए।

  • 5: जयशंकर प्रसाद की लिखी कहानी ग़ुलाम, Gulaam - Story Written By Jaishankar Prasad
    16 min 8 sec

    फूल नहीं खिलते हैं, बेले की कलियाँ मुरझाई जा रही हैं। समय में नीरद ने सींचा नहीं, किसी माली की भी दृष्टि उस ओर नहीं घूमी अकाल में बिना खिले कुसुमकोरक म्लान होना ही चाहता है। अकस्मात् डूबते सूर्य की पीली किरणों की आभा से चमकता हुआ एक बादल का टुकड़ा स्वर्णवर्षा कर गया। परोपकारी पवन उन छींटों को ढकेलकर उन्हें एक कोरक पर लाद गया। भला इतना भार वह कैसे सह सकता है सब ढुलककर धरणी पर गिर पड़े। कोरक भी कुछ हरा हो गया।यमुना के बीच धारा में एक छोटी, पर बहुत ही सुन्दर तरणी, मन्द पवन के सहारे धीरेधीरे बह रही है। सामने के महल से अनेक चन्द्रमुख निकलकर उसे देख रहे हैं। चार कोमल सुन्दरियाँ डाँड़ें चला रही हैं, और एक बैठी हुई सितारी बजा रही है। सामने, एक भव्य पुरुष बैठा हुआ उसकी ओर निर्निमेष दृष्टि से देख रहा है।पाठक यह प्रसिद्ध शाहआलम दिल्ली के बादशाह हैं। जलक्रीड़ा हो रही है।सान्ध्यसूर्य की लालिमा जीनतमहल के अरुण मुखमण्डल की शोभा और भी बढ़ा रही है। प्रणयी बादशाह उस आतपमण्डित मुखारविन्द की ओर सतृष्ण नयन से देख रहे हैं, जिस पर बारबार गर्व और लज्जा का दुबारा रंग चढ़ताउतरता है, और इसी कारण सितार का स्वर भी बहुत शीघ्र चढ़ताउतरता है। संगीत, तार पर चढक़र दौड़ता हुआ, व्याकुल होकर घूम रहा है क्षणभर भी विश्राम नहीं।जीनत के मुखमण्डल पर स्वेदबिन्दु झलकने लगे। बादशाह ने व्याकुल होकर कहाबस करो, प्यारी जीनत बस करो बहुत अच्छा बजाया, वाह, क्या बात है साकी, एक प्याला शीराजी शर्बत‘हुज़ूर आया’कहता हुआ एक सुकुमार बालक सामने आया, हाथ में पानपात्र था। उस बालक की मुखकान्ति दर्शनीय थी। भरा प्याला छलकना चाहता था, इधर घुँघराली अलकें उसकी आँखों पर बरजोरी एक पर्दा डालना चाहती थीं। बालक प्याले को एक हाथ में लेकर जब केशगुच्छ को हटाने लगा, तब जीनत और शाहआलम दोनों चकित होकर देखने लगे। अलकें अलग हुईं। बेगम ने एक ठण्डी साँस ली। शाहआलम के मुख से भी एक आह निकलना ही चाहती थी, पर उसे रोककर निकल पड़ा‘बेगम को दो।’बालक ने दोनों हाथों से पानपात्र जीनत की ओर बढ़ाया। बेगम ने उसे लेकर पान कर लिया।नहीं कह सकते कि उस शर्बत ने बेगम को कुछ तरी पहुँचाई या गर्मी किन्तु हृदयस्पन्दन अवश्य कुछ बढ़ गया। शाहआलम ने झुककर कहाएक औरबालक विचित्र गति से पीछे हटा और थोड़ी देर में दूसरा प्याला लेकर उपस्थित हुआ। पानपात्र निश्शेष कर शाहआलम ने हाथ कुछ और फैला दिया, और बालक की ओर इंगित करके बोलेकादिर, जरा उँगलियाँ तो बुला दे।बालक अदब से सामने बैठ गया और उनकी उँगलियों को हाथ में लेकर बुलाने लगा।मालूम होता है कि जीनत को शर्बत ने कुछ ज़्यादा गर्मी पहुँचाई। वह छोटे बजरे के मेहराब में से झुककर यमुनाजल छूने लगी। कलेजे के नीचे एक मखमली तकिया मसली जाने लगी, या न मालूम वही कामिनी के वक्षस्थल को पीडऩ करने लगी।शाहआलम की उँगलियाँ, उस कोमल बालरविकरसमान स्पर्श से, कलियों की तरह चटकने लगीं। बालक की निर्निमेष दृष्टि आकाश की ओर थी। अकस्मात् बादशाह ने कहामीना ख्वाजासरा से कह देना कि इस कादिर को अपनी ख़ास तालीम में रखें, और उसके सुपुर्द कर देना।एक डाँड़े चलाने वाली ने झुककर कहाबहुत अच्छा हुज़ूरबेगम ने अपने सीने से तकिये को और दबा दिया किन्तु वह कुछ न बोल सकी, दबकर रह गयी।

  • 6: जयशंकर प्रसाद की लिखी कहानी जहाँआरा, Jahanara - Story Written By Jaishankar Prasad
    12 min 4 sec

    यमुना के किनारेवाले शाही महल में एक भयानक सन्नाटा छाया हुआ है, केवल बारबार तोपों की गड़गड़ाहट और अस्त्रों की झनकार सुनाई दे रही है। वृद्ध शाहजहाँ मसनद के सहारे लेटा हुआ है, और एक दासी कुछ दवा का पात्र लिए हुए खड़ी है। शाहजहाँ अन्यमनस्क होकर कुछ सोच रहा है, तोपों की आवाज़ से कभीकभी चौंक पड़ता है। अकस्मात् उसके मुख से निकल पड़ा। नहींनहीं, क्या वह ऐसा करेगा, क्या हमको तख्तताऊस से निराश हो जाना चाहिएहाँ, अवश्य निराश हो जाना चाहिए।शाहजहाँ ने सिर उठाकर कहाकौन जहाँआरा क्या यह तुम सच कहती होजहाँआरासमीप आकर हाँ, जहाँपनाह यह ठीक है क्योंकि आपका अकर्मण्य पुत्र ‘दारा’ भाग गया, और नमकहराम ‘दिलेर खाँ’ क्रूर औरंगजेब से मिल गया, और किला उसके अधिकार में हो गया।शाहजहाँलेकिन जहाँआरा क्या औरंगजेब क्रूर है क्या वह अपने बूढ़े बाप की कुछ इज्जत न करेगा क्या वह मेरे जीते ही तख्तताऊस पर बैठेगाजहाँआराजिसकी आँखों में अभिमान का अश्रुजल भरा था जहाँपनाह आपके इसी पुत्रवात्सल्य ने आपकी यह अवस्था की। औरंगजेब एक नारकीय पिशाच है उसका किया क्या नहीं हो सकता, एक भले कार्य को छोड़कर।शाहजहाँनहीं जहाँआरा ऐसा मत कहो।जहाँआराहाँ जहाँपनाह मैं ऐसा ही कहती हूँ।शाहजहाँऐसा तो क्या जहाँआरा इस बदन में मुग़लरक्त नहीं है क्या तू मेरी कुछ भी मदद कर सकती हैजहाँआराजहाँपनाह की जो आज्ञा हो।शाहजहाँतो मेरी तलवार मेरे हाथ में दे। जब तक वह मेरे हाथ में रहेगी, कोई भी तख्तताऊस मुझसे न छुड़ा सकेगा।जहाँआरा आवेश के साथ‘हाँ’, जहाँपनाह ऐसा ही होगा’। कहती हुई वृद्ध शाहजहाँ की तलवार उसके हाथ में देकर खड़ी हो गयी। शाहजहाँ उठा और लडख़ड़ाकर गिरने लगा, शाहजादी जहाँआरा ने बादशाह को पकड़ लिया, और तख्तताऊस के कमरे की ओर ले चली।

  • 7: जयशंकर प्रसाद की लिखी कहानी रसिया बालम, Rasiya Baalam - Story Written By Jaishankar Prasad
    13 min 35 sec

    निशा का अन्धकार काननप्रदेश में अपना पूरा अधिकार जमाये हुए है। प्राय: आधी रात बीत चुकी है। पर केवल उन अग्निस्फुलिंगों से कभीकभी थोड़ासा जुगनू कासा प्रकाश हो जाता है, जो कि रसिया के शस्त्रप्रहार से पत्थर में से निकल पड़ते हैं। दनादन् चोट चली जा रही हैविराम नहीं है क्षण भर भीन तो उस शैल को और न उस शस्त्र को। अलौकिक शक्ति से वह युवक अविराम चोट लगाये ही जा रहा है। एक क्षण के लिये भी इधरउधर नहीं देखता। देखता है, तो केवल अपना हाथ और पत्थर उंगली एक तो पहले ही कुचली जा चुकी थी, दूसरे अविराम परिश्रम इससे रक्त बहने लगा था। पर विश्राम कहाँ उस वज्रसार शैल पर वज्र के समान कर से वह युवक चोट लगाये ही जाता है। केवल परिश्रम ही नहीं, युवक सफल भी हो रहा है। उसकी एकएक चोट में दसदस सेर के ढोके कटकटकर पहाड़ पर से लुढक़ते हैं, जो सोये हुए जंगली पशुओं को घबड़ा देते हैं। यह क्या है केवल उसकी तन्मयताकेवल प्रेम ही उस पाषाण को भी तोड़े डालता है।फिर वही दनादन्बराबर लगातार परिश्रम, विराम नहीं है इधर उस खिडक़ी में से आलोक भी निकल रहा है और कभीकभी एक मुखड़ा उस खिडक़ी से झॉंककर देख रहा है। पर युवक को कुछ ध्यान नहीं, वह अपना कार्य करता जा रहा है।अभी रात्रि के जाने के लिए पहरभर है। शीतल वायु उस कानन को शीतल कर रही है। अकस्मात् ‘तरुणकुक्कुटकण्ठनाद’ सुनाई पड़ा, फिर कुछ नहीं। वह कानन एकाएक शून्य हो गया। न तो वह शब्द ही है और न तो पत्थरों से अग्निस्फुलिंग निकलते हैं।अकस्मात् उस खिडक़ी में से एक सुन्दर मुख निकला। उसने आलोक डालकर देखा कि रसिया एक पात्र हाथ में लिये है और कुछ कह रहा है। इसके उपरान्त वह उस पात्र को पी गया और थोड़ी देर में वह उसी शिलाखंड पर गिर पड़ा। यह देख उस मुख से भी एक हल्का चीत्कार निकल गया। खिडक़ी बंद हो गयी। फिर केवल अन्धकार रह गया।

  • 8: जयशंकर प्रसाद की लिखी कहानी शरणागत, Sharnaagat - Story Written By Jaishankar Prasad
    10 min 26 sec

    चन्दनपुर के ज़मींदार के यहाँ आश्रय लिये हुए योरोपियनदम्पति सब प्रकार सुख से रहने पर भी सिपाहियों का अत्याचार सुनकर शंकित रहते थे। दयालु किशोर सिंह यद्यपि उन्हें बहुत आश्वासन देते, तो भी कोमल प्रकृति की सुन्दरी एलिस सदा भयभीत रहती थी।दोनों दम्पति कमरे में बैठे हुए यमुना का सुन्दर जलप्रवाह देख रहे हैं। विचित्रता यह है कि ‘सिगार’ न मिल सकने के कारण विल्फर्ड साहब सटक के सड़ाके लगा रहे हैं। अभ्यास न होने के कारण सटक से उन्हें बड़ी अड़चन पड़ती थी, तिस पर सिपाहियों के अत्याचार का ध्यान उन्हें और भी उद्विग्न किये हुए था क्योंकि एलिस का भय से पीला मुख उनसे देखा न जाता था।इतने में बाहर कोलाहल सुनाई पड़ा। एलिस के मुख से ‘ओ माई गाड’ Oh My God निकल पड़ा और भय से वह मूर्च्छित हो गयी। विल्फर्ड और किशोर सिंह ने एलिस को पलंग पर लिटाया, और आप ‘बाहर क्या है’ सो देखने के लिये चले।विल्फर्ड ने अपनी राइफल हाथ में ली और साथ में जान चाहा, पर किशोर सिंह ने उन्हें समझाकर बैठाला और आप खूँटी पर लटकती तलवार लेकर बाहर निकल गये।किशोर सिंह बाहर आ गये, देखा तो पाँच कोस पर जो उनका सुन्दरपुर ग्राम है, उसे सिपाहियों ने लूट लिया और प्रजा दुखी होकर अपने ज़मींदार से अपनी दु:खगाथा सुनाने आयी है। किशोर सिंह ने सबको आश्वासन दिया, और उनके खानेपीने का प्रबन्ध करने के लिए कर्मचारियों को आज्ञा देकर आप विल्फर्ड और एलिस को देखने के लिये भीतर चले आये।किशोर सिंह स्वाभाविक दयालु थे और उनकी प्रजा उन्हें पिता के समान मानती थी, और उनका उस प्रान्त में भी बड़ा सम्मान था। वह बहुत बड़े इलाकेदार होने के कारण छोटेसे राजा समझे जाते थे। उनका प्रेम सब पर बराबर था। किन्तु विल्फर्ड और सरला एलिस को भी वह बहुत चाहने लगे, क्योंकि प्रियतमा सुकुमारी की उन लोगों ने प्राणरक्षा की थी।

  • 9: जयशंकर प्रसाद की लिखी कहानी सिकंदर की शपथ, Sikandar Ki Shapath - Story Written By Jaishankar Prasad
    10 min 41 sec

    सूर्य की चमकीली किरणों के साथ, यूनानियों के बरछे की चमक से ‘मिंगलौर’दुर्ग घिरा हुआ है। यूनानियों के दुर्ग तोड़नेवाले यन्त्र दुर्ग की दीवालों से लगा दिये गये हैं, और वे अपना कार्य बड़ी शीघ्रता के साथ कर रहे हैं। दुर्ग की दीवाल का एक हिस्सा टूटा और यूनानियों की सेना उसी भग्न मार्ग से जयनाद करती हुई घुसने लगी। पर वह उसी समय पहाड़ से टकराये हुए समुद्र की तरह फिरा दी गयी, और भारतीय युवक वीरों की सेना उनका पीछा करती हुई दिखाई पड़ने लगी। सिकंदर उनके प्रचण्ड अस्त्राघात को रोकता पीछे हटने लगा।अफ़ग़ानिस्तान में ‘अश्वक’ वीरों के साथ भारतीय वीर कहाँ से आ गये यह शंका हो सकती है, किन्तु पाठकगण वे निमन्त्रित होकर उनकी रक्षा के लिये सुदूर से आये हैं, जो कि संख्या में केवल सात हज़ार होने पर भी ग्रीकों की असंख्य सेना को बराबर पराजित कर रहे हैं।सिकंदर को उस सामान्य दुर्ग के अवरोध में तीन दिन व्यतीत हो गये। विजय की सम्भावना नहीं है, सिकंदर उदास होकर कैम्प में लौट गया, और सोचने लगा। सोचने की बात ही है। ग़ाजा और परसिपोलिस आदि के विजेता को अफ़ग़ानिस्तान के एक छोटेसे दुर्ग के जीतने में इतना परिश्रम उठाकर भी सफलता मिलती नहीं दिखाई देती, उलटे कई बार उसे अपमानित होना पड़ा।बैठेबैठे सिकंदर को बहुत देर हो गयी। अन्धकार फैलकर संसार को छिपाने लगा, जैसे कोई कपटाचारी अपनी मन्त्रणा को छिपाता हो। केवल कभीकभी दोएक उल्लू उस भीषण रणभूमि में अपने भयावह शब्द को सुना देते हैं। सिकंदर ने सीटी देकर कुछ इंगित किया, एक वीर पुरुष सामने दिखाई पड़ा। सिकंदर ने उससे कुछ गुप्त बातें कीं, और वह चला गया। अन्धकार घनीभूत हो जाने पर सिंकदर भी उसी ओर उठकर चला, जिधर वह पहला सैनिक जा चुका था।दुर्ग के उस भाग में, जो टूट चुका था, बहुत शीघ्रता से काम लगा हुआ था, जो बहुत शीघ्र कल की लड़ाई के लिये प्रस्तुत कर दिया गया और सब लोग विश्राम करने के लिये चले गये। केवल एक मनुष्य उसी स्थान पर प्रकाश डालकर कुछ देख रहा है। वह मनुष्य कभी तो खड़ा रहता है और कभी अपनी प्रकाश फैलानेवाली मशाल को लिये हुए दूसरी ओर चला जाता है। उस समय उस घोर अन्धकार में उस भयावह दुर्ग की प्रकाण्ड छाया और भी स्पष्ट हो जाती है। उसी छाया में छिपा हुआ सिकंदर खड़ा है। उसके हाथ में धनुष और बाण है, उसके सब अस्त्र उसके पास हैं। उसका मुख यदि कोई इस समय प्रकाश में देखता, तो अवश्य कहता कि यह कोई बड़ी भयानक बात सोच रहा है, क्योंकि उसका सुन्दर मुखमण्डल इस समय विचित्र भावों से भरा है। अकस्मात् उसके मुख से एक प्रसन्नता का चीत्कार निकल पड़ा, जिसे उसने बहुत व्यग्र होकर छिपाया।

  • 19: चंद्रधर शर्मा गुलेरी की कहानी उसने कहा था, Usne Kaha Tha - Story Writer Chandradhar Sharma Guleri
    25 min 52 sec

    बडेबडे शहरों के इक्केगाड़ी वालों की जवान के कोड़ो से जिनकी पीठ छिल गई है, और कान पक गये हैं, उनसे हमारी प्रार्थना है कि अमृतसर के बम्बूकार्ट वालों की बोली का मरहम लगायें। जब बडे़बडे़ शहरों की चौड़ी सड़कों पर घोड़े की पीठ चाबुक से धुनते हुए, इक्केवाले कभी घोड़े की नानी से अपना निकटसम्बन्ध स्थिर करते हैं, कभी राह चलते पैदलों की आँखों के न होने पर तरस खाते हैं, कभी उनके पैरों की अंगुलियों के पोरे को चींघकर अपनेही को सताया हुआ बताते हैं, और संसारभर की ग्लानि, निराशा और क्षोभ के अवतार बने, नाक की सीध चले जाते हैं, तब अमृतसर में उनकी बिरादरी वाले तंग चक्करदार गलियों में, हरएक लङ्ढी वाले के लिए ठहर कर सब्र का समुद्र उमड़ा कर, बचो खालसाजी। हटो भाईजी।ठहरना भाई जी।आने दो लाला जी।हटो बाछा। कहते हुए सफेद फेटों, खच्चरों और बत्तकों, गन्नें और खोमचे और भारेवालों के जंगल में से राह खेते हैं। क्या मजाल है कि जी और साहब बिना सुने किसी को हटना पडे़। यह बात नहीं कि उनकी जीभ चलती नहीं पर मीठी छुरी की तरह महीन मार करती हुई। यदि कोई बुढ़िया बारबार चितौनी देने पर भी लीक से नहीं हटती, तो उनकी बचनावली के ये नमूने हैं हट जा जीणे जोगिए हट जा करमा वालिए हट जा पुतां प्यारिए बच जा लम्बी वालिए। समष्टि में इनके अर्थ हैं, कि तू जीने योग्य है, तू भाग्योंवाली है, पुत्रों को प्यारी है, लम्बी उमर तेरे सामने है, तू क्यों मेरे पहिये के नीचे आना चाहती है बच जा। ऐसे बम्बूकार्टवालों के बीच में होकर एक लड़का और एक लड़की चौक की एक दूकान पर आ मिले।उसके बालों और इसके ढीले सुथने से जान पड़ता था कि दोनों सिक्ख हैं। वह अपने मामा के केश धोने के लिए दही लेने आया था, और यह रसोई के लिए बडि़यां। दुकानदार एक परदेसी से गुँथ रहा था, जो सेरभर गीले पापड़ों की गड्डी को गिने बिना हटता न था।तेरे घर कहाँ हैमगरे में और तेरेमाँझे में यहाँ कहाँ रहती हैअतरसिंह की बैठक में वे मेरे मामा होते हैं।मैं भी मामा के यहाँ आया हूँ , उनका घर गुरूबाजार में हैं।इतने में दुकानदार निबटा, और इनका सौदा देने लगा। सौदा लेकर दोनों साथसाथ चले। कुछ दूर जा कर लड़के ने मुस्करा कर पूछा, तेरी कुड़माई हो गईइस पर लड़की कुछ आँखें चढ़ा कर धत् कह कर दौड़ गई, और लड़का मुँह देखता रह गया।दूसरेतीसरे दिन सब्जीवाले के यहाँ, दूधवाले के यहाँ अकस्मात दोनों मिल जाते। महीनाभर यही हाल रहा। दोतीन बार लड़के ने फिर पूछा, तेरी कुडमाई हो गई और उत्तर में वही धत् मिला। एक दिन जब फिर लड़के ने वैसे ही हँसी में चिढ़ाने के लिये पूछा तो लड़की, लड़के की संभावना के विरूध्द बोली, हाँ, हो गई।कबकल, देखते नहीं, यह रेशम से कढा हुआ सालू।लड़की भाग गई। लड़के ने घर की राह ली। रास्ते में एक लड़के को मोरी में ढकेल दिया, एक छावड़ी वाले की दिनभर की कमाई खोई, एक कुत्ते पर पत्थर मारा और एक गोभीवाले के ठेले में दूध उडेल दिया। सामने नहा कर आती हुई किसी वैष्णवी से टकरा कर अन्धे की उपाधि पाई। तब कहीं घर पहुँचा।

  • 10: जयशंकर प्रसाद की लिखी कहानी चित्तौड़ उद्धार, Chittod Uddhar - Story Written By Jaishankar Prasad
    11 min 4 sec

    कैलवाड़ा प्रदेश के छोटेसे दुर्ग के एक प्रकोष्ठ में राजकुमार हम्मीर बैठे हुए चिन्ता में निमग्न हैं। सोच रहे थे जिस दिन मुंज का सिर मैंने काटा, उसी दिन एक भारी बोझ मेरे सिर दिया गया, वह पितृव्य का दिया हुआ महाराणा वंश का राजतिलक है, उसका पूरा निर्वाह जीवन भर करना कर्तव्य है। चित्तौर का उद्धार करना ही मेरा प्रधान लक्ष्य है। पर देखूँ, ईश्वर कैसे इसे पूरा करता है। इस छोटीसी सेना से, यथोचित धन का अभाव रहते, वह क्योंकर हो सकता है रानी मुझे चिन्ताग्रस्त देखकर यही समझती है कि विवाह ही मेरे चिन्तित होने का कारण है। मैं उसकी ओर देखकर मालदेव पर कोई अत्याचार करने पर संकुचित होता हूँ। ईश्वर की कृपा से एक पुत्र भी हुआ, किन्तु मुझे नित्य चिन्तित देखकर रानी पिता के यहाँ चली गयी है। यद्यपि देवतापूजन करने के लिये ही वहाँ उनका जाना हुआ है, किन्तु मेरी उदासीनता भी कारण है। भगवान एकलिंगेश्वर कैसे इस दु:साध्य कार्य को पूर्ण करते हैं, यह वही जानें।इसी तरह की अनेक विचारतरंगें मानस में उठ रही थीं। सन्ध्या की शोभा सामने की गिरिश्रेणी पर अपनी लीला दिखा रखी है, किन्तु चिन्तित हम्मीर को उसका आनन्द नहीं। देखतेदेखते अन्धकार ने गिरिप्रदेश को ढँक लिया। हम्मीर उठे, वैसे ही द्वारपाल ने आकर कहा महाराज विजयी हों। चित्तौर से एक सैनिक, महारानी का भेजा हुआ, आया है।थोड़ी ही देर में सैनिक लाया गया और अभिवादन करने के बाद उसने एक पत्र हम्मीर के हाथ में दिया। हम्मीर ने उसे लेकर सैनिक को विदा किया, और पत्र पढऩे लगेप्राणनाथ, जीवनसर्वस्व के चरणों मेंकोटिश: प्रणाम।देव आपकी कृपा ही मेरे लिये कुशल है। मुझे यहाँ आये इतने दिन हुए, किन्तु एक बार भी आपने पूछा नहीं। इतनी उदासीनता क्यों क्या, साहस में भरकर जो मुझे आपने स्वीकार किया, उसका प्रतिकार कर रहे हैं देवता ऐसा न चाहिये। मेरा अपराध ही क्या मैं आपका चिन्तित मुख नहीं देख सकती, इसीलिए कुछ दिनों के लिए यहाँ चली आयी हूँ, किन्तु बिना उस मुख के देखे भी शान्ति नहीं। अब कहिये, क्या करूँ देव जिस भूमि की दर्शनाभिलाषा ने ही आपको मुझसे ब्याह करने के लिये बाध्य किया, उसी भूमि में आने से मेरा हृदय अब कहता है कि आप ब्याह करके नहीं पश्चात्ताप कर रहे हैं, किन्तु आपकी उदासीनता केवल चित्तौरउद्धार के लिये है। मैं इसमें बाधास्वरूप आपको दिखाई पड़ती हूँ। मेरे ही स्नेह से आप पिता के ऊपर चढ़ाई नहीं कर सकते, और पितरों के ऋण से उद्धार नहीं पा रहे हैं। इस जन्म में तो आपसे उद्धार नहीं हो सकती और होने की इच्छा भी नहीं कभी, किसी भी जन्म में। चित्तौरअधिष्ठात्री देवी ने मुझे स्वप्न में जो आज्ञा दी है, मैं उसी कार्य के लिये रुकी हूँ। पिता इस समय चित्तौर में नहीं हैं, इससे यह न समझिये कि मैं आपको कायर समझती हूँ, किन्तु इसलिये कि युद्ध में उनके न रहने से उनकी कोई शारीरिक क्षति नहीं होगी। मेरे कारण जिसे आप बचाते हैं, वह बात बच जायेगी। सरदारों से रक्षित चित्तौर दुर्ग के वीर सैनिकों के साथ सम्मुख युद्ध में इस समय विजय प्राप्त कर सकते हैं। मुझे निश्चय है, भवानी आपकी रक्षा करेगी। और, मुझे चित्तौर से अपने साथ लिवा न जाकर यहीं सिंहासन पर बैठिये। दासी चरणसेवा करके कृतार्थ होगी।

  • 11: जयशंकर प्रसाद की लिखी कहानी अशोक, Ashok - Story Written By Jaishankar Prasad
    22 min 29 sec

    राजकीय कानन में अनेक प्रकार के वृक्ष, सुरभित सुमनों से भरे झूम रहे हैं। कोकिला भी कूककूक कर आम की डालों को हिलाये देती है। नववसंत का समागम है। मलयानिल इठलाता हुआ कुसुमकलियों को ठुकराता जा रहा है।इसी समय कानननिकटस्थ शैल के झरने के पास बैठकर एक युवक जललहरियों की तरंगभंगी देख रहा है। युवक बड़े सरल विलोकन से कृत्रिम जलप्रपात को देख रहा है। उसकी मनोहर लहरियाँ जो बहुत ही जल्दीजल्दी लीन हो स्रोत में मिलकर सरल पथ का अनुकरण करती हैं, उसे बहुत ही भली मालूम हो रही हैं। पर युवक को यह नहीं मालूम कि उसकी सरल दृष्टि और सुन्दर अवयव से विवश होकर एक रमणी अपने परम पवित्र पद से च्युत होना चाहती है।देखो, उस लताकुंज में, पत्तियों की ओट में, दो नीलमणि के समान कृष्णतारा चमककर किसी अदृश्य आश्चर्य का पता बता रहे हैं। नहींनहीं, देखो, चन्द्रमा में भी कहीं तारे रहते हैं वह तो किसी सुन्दरी के मुखकमल का आभास है।युवक अपने आनन्द में मग्न है। उसे इसका कुछ भी ध्यान नहीं है कि कोई व्याघ्र उसकी ओर अलक्षित होकर बाण चला रहा है। युवक उठा, और उसी कुंज की ओर चला। किसी प्रच्छन्न शक्ति की प्रेरणा से वह उसी लताकुञ्ज की ओर बढ़ा। किन्तु उसकी दृष्टि वहाँ जब भीतर पड़ी, तो वह अवाक् हो गया। उसके दोनों हाथ आप जुट गये। उसका सिर स्वयं अवनत हो गया।रमणी स्थिर होकर खड़ी थी। उसके हृदय में उद्वेग और शरीर में कम्प था। धीरेधीरे उसके होंठ हिले और कुछ मधुर शब्द निकले। पर वे शब्द स्पष्ट होकर वायुमण्डल में लीन हो गये। युवक का सिर नीचे ही था। फिर युवती ने अपने को सम्भाला, और बोलीकुनाल, तुम यहाँ कैसे अच्छे तो हो

  • 12: जयशंकर प्रसाद की लिखी कहानी मदन मृणालिनी, Madan Mrinalini - Story Written By Jaishankar Prasad
    40 min 43 sec

    विजयादशमी का त्योहार समीप है, बालक लोग नित्य रामलीला होने से आनन्द में मग्न हैं।हाथ में धनुष और तीर लिये हुए एक छोटासा बालक रामचन्द्र बनने की तैयारी में लगा हुआ है। चौदह वर्ष का बालक बहुत ही सरल और सुन्दर है।खेलतेखेलते बालक को भोजन की याद आई। फिर कहाँ का राम बनना और कहाँ की रामलीला। चट धनुष फेंककर दौड़ता हुआ माता के पास जा पहुँचा और उस ममतामोहमयी माता के गले से लिपटकरमाँ खाने को दे, माँ खाने को देकहता हुआ जननी के चित्त को आनन्दित करने लगा।जननी बालक का मचलना देखकर प्रसन्न हो रही थी और थोड़ी देर तक बैठी रहकर और भी मचलना देखा चाहती थी। उसके यहाँ एक पड़ोसिन बैठी थी, अतएव वह एकाएक उठकर बालक को भोजन देने में असमर्थ थी। सहज ही असन्तुष्ट हो जाने वाली पड़ोस की स्त्रियों का सहज क्रोधमय स्वभाव किसी से छिपा न होगा। यदि वह तत्काल उठकर चली जाती, तो पड़ोसिन क्रुद्ध होती। अत: वह उठकर बालक को भोजन देने में आनाकानी करने लगी। बालक का मचलना और भी बढ़ चला। धीरेधीरे वह क्रोधित हो गया, दौड़कर अपनी कमान उठा लाया तीर चढ़ाकर पड़ोसिन को लक्ष्य किया और कहातू यहाँ से जा, नहीं तो मैं मारता हूँ।दोनों स्त्रियाँ केवल हँसकर उसको मना करती रहीं। अकस्मात् वह तीर बालक के हाथ से छूट पड़ा और पड़ोसिन की गर्दन में कुछ धँस गया अब क्या था, वह अर्जुन और अश्वत्थामा का पाशुपतास्त्र हो गया। बालक की माँ बहुत घबरा गयी, उसने अपने हाथ से तीर निकाला, उसके रक्त को धोया, बहुत कुछ ढाढ़स दिया। किन्तु घायल स्त्री का चिल्लानाकराहना सहज में थमने वाला नहीं था।बालक की माँ विधवा थी, कोई उसका रक्षक न था। जब उसका पति जीता था, तब तक उसका संसार अच्छी तरह चलता था अब जो कुछ पूँजी बच रही थी, उसी में वह अपना समय बिताती थी। ज्योंत्यों करके उसने चिरसंरक्षित धन में से पचीस रुपये उस घायल स्त्री को दिये।वह स्त्री किसी से यह बात न कहने का वादा करके अपने घर गयी। परन्तु बालक का पता नहीं, वह डर के मारे घर से निकल किसी ओर भाग गया।माता ने समझा कि पुत्र कहीं डर से छिपा होगा, शाम तक आ जायगा। धीरेधीरे सन्ध्यापरसन्ध्या, सप्ताहपरसप्ताह, मासपरमास, बीतने लगे परन्तु बालक का कहीं पता नहीं। शोक से माता का हृदय जर्जर हो गया, वह चारपाई पर लग गयी। चारपाई ने भी उसका ऐसा अनुराग देखकर उसे अपना लिया, और फिर वह उस पर से न उठ सकी। बालक को अब कौन पूछने वाला है

  • 13: जयशंकर प्रसाद की लिखी कहानी प्रसाद, Prasad - Story Written By Jaishankar Prasad
    5 min 1 sec

    मधुप अभी किसलयशय्या पर, मकरन्दमदिरा पान किये सो रहे थे। सुन्दरी के मुखमण्डल पर प्रस्वेद बिन्दु के समान फूलों के ओस अभी सूखने न पाये थे। अरुण की स्वर्णकिरणों ने उन्हें गरमी न पहुँचायी थी। फूल कुछ खिल चुके थे परन्तु थे अर्धविकसित। ऐसे सौरभपूर्ण सुमन सवेरे ही जाकर उपवन से चुन लिये थे। पर्णपुट का उन्हें पवित्र वेष्ठन देकर अञ्चल में छिपाये हुए सरला देवमन्दिर में पहुँची। घण्टा अपने दम्भ का घोर नाद कर रहा था। चन्दन और केसर की चहलपहल हो रही थी। अगुरुधूपगन्ध से तोरण और प्राचीर परिपूर्ण था। स्थानस्थान पर स्वर्णश्रृंगार और रजत के नैवेद्यपात्र, बड़ीबड़ी आरतियाँ, फूलचंगेर सजाये हुए धरे थे। देवप्रतिमा रत्नआभूषणों से लदी हुई थी।सरला ने भीड़ में घुस कर उसका दर्शन किया और देखा कि वहाँ मल्लिका की माला, पारिजात के हार, मालती की मालिका, और भी अनेक प्रकार के सौरभित सुमन देवप्रतिमा के पदतल में विकीर्ण हैं। शतदल लोट रहे हैं और कला की अभिव्यक्तिपूर्ण देवप्रतिमा के ओष्ठाधार में रत्न की ज्योति के साथ बिजलीसी मुसक्यानरेखा खेल रही थी, जैसे उन फूलों का उपहास कर रही हो। सरला को यही विदित हुआ कि फूलों की यहाँ गिनती नहीं, पूछ नहीं। सरला अपने पाणिपल्लव में पर्णपुट लिये कोने में खड़ी हो गयी।भक्तवृन्द अपने नैवेद्य, उपहार देवता को अर्पण करते थे, रत्नखण्ड, स्वर्णमुद्राएँ देवता के चरणों में गिरती थीं। पुजारी भक्तों को फलफूलों का प्रसाद देते थे। वे प्रसन्न होकर जाते थे। सरला से न रहा गया। उसने अपने अर्धविकसित फूलों का पर्णपुट खोला भी नहीं। बड़ी लज्जा से, जिसमें कोई देखे नहीं, ज्योंकात्यों, फेंक दिया परन्तु वह गिरा ठीक देवता के चरणों पर। पुजारी ने सब की आँख बचा कर रख लिया। सरला फिर कोने में जाकर खड़ी हो गयी। देर तक दर्शकों का आना, दर्शन करना, घण्टे का बजाना, फूलों का रौंद, चन्दनकेसर की कीच और रत्नस्वर्ण की क्रीड़ा होती रही। सरला चुपचाप खड़ी देखती रही।शयन आरती का समय हुआ। दर्शक बाहर हो गये। रत्नजटित स्वर्ण आरती लेकर पुजारी ने आरती आरम्भ करने के पहले देवप्रतिमा के पास के फूल हटाये। रत्नआभूषण उतारे, उपहार के स्वर्णरत्न बटोरे। मूर्ति नग्न और विरलश्रृंगार थी। अकस्मात् पुजारी का ध्यान उस पर्णपुट की ओर गया। उसने खोल कर उन थोड़ेसे अर्धविकसित कुसुमों को, जो अवहेलना से सूखा ही चाहते थे, भगवान् के नग्न शरीर पर यथावकाश सजा दिया। कई जन्म का अतृत्प शिल्पी ही जैसे पुजारी होकर आया है। मूर्ति की पूर्णता का उद्योग कर रहा है। शिल्पी की शेष कला की पूर्ति हो गयी। पुजारी विशेष भावापन्न होकर आरती करने लगा। सरला को देखकर भी किसी ने न देखा, न पूछा कि ‘तुम इस समय मन्दिर में क्यों हो’आरती हो रही थी, बाहर का घण्टा बज रहा था। सरला मन में सोच रही थी, मैं दोचार फूलपत्ते ही लेकर आयी। परन्तु चढ़ाने का, अर्पण करने का हृदय में गौरव था। दान की सो भी किसे भगवान को मन में उत्साह था। परन्तु हाय ‘प्रसाद’ की आशा ने, शुभ कामना के बदले की लिप्सा ने मुझे छोटा बनाकर अभी तक रोक रक्खा। सब दर्शक चले गये, मैं खड़ी हूँ, किस लिए। अपने उन्हीं अर्पण किये हुए दोचार फूल लौटा लेने के लिए, ‘‘तो चलूँ।’’अकस्मात् आरती बन्द हुई। सरला ने जाने के लिए आशा का उत्सर्ग करके एक बार देवप्रतिमा की ओर देखा। देखा कि उसके फूल भगवान के अंग पर सुशोभित हैं। वह ठिठक गयी। पुजारी ने सहसा घूम कर देखा और कहा,‘‘अरे तुम अभी यहीं हो, तुम्हें प्रसाद नहीं मिला, लो।’’ जान में या अनजान में, पुजारी ने भगवान् की एकावली सरला के नत गले में डाल दी प्रतिमा प्रसन्न होकर हँस पड़ी।

  • 14: जयशंकर प्रसाद की लिखी कहानी गूदड़ साई, Goodad Sai - Story Written By Jaishankar Prasad
    3 min 44 sec

    ‘‘साईं ओ साईं’’ एक लड़के ने पुकारा। साईं घूम पड़ा। उसने देखा कि एक 8 वर्ष का बालक उसे पुकार रहा है।आज कई दिन पर उस मुहल्ले में साईं दिखलाई पड़ा है। साईं वैरागी था,माया नहीं, मोह नहीं। परन्तु कुछ दिनों से उसकी आदत पड़ गयी थी कि दोपहर को मोहन के घर जाना, अपने दोतीन गन्दे गूदड़ यत्न से रख कर उन्हीं पर बैठ जाता और मोहन से बातें करता। जब कभी मोहन उसे ग़रीब और भिखमंगा जानकर माँ से अभिमान करके पिता की नजर बचाकर कुछ सागरोटी लाकर दे देता, तब उस साईं के मुख पर पवित्र मैत्री के भावों का साम्राज्य हो जाता। गूदड़ साईं उस समय 10 बरस के बालक के समान अभिमान, सराहना और उलाहना के आदानप्रदान के बाद उसे बड़े चाव से खा लेता मोहन की दी हुई एक रोटी उसकी अक्षयतृप्ति का कारण होती।एक दिन मोहन के पिता ने देख लिया। वह बहुत बिगड़े। वह थे कट्टर आर्यसमाजी, ‘ढोंगी फ़कीरों पर उनकी साधारण और स्वाभाविक चिढ़ थी।’ मोहन को डाँटा कि वह इन लोगों के साथ बातें न किया करे। साईं हँस पड़ा, चला गया।उसके बाद आज कई दिन पर साईं आया और वह जानबूझकर उस बालक के मकान की ओर नहीं गया परन्तु पढक़र लौटते हुए मोहन ने उसे देखकर पुकारा और वह लौट भी आया।‘‘मोहन’’‘‘तुम आजकल आते नहीं’’‘‘तुम्हारे बाबा बिगड़ते थे।’’‘‘नहीं, तुम रोटी ले जाया करो।’’‘‘भूख नहीं लगती।’’‘‘अच्छा, कल ज़रूर आना भूलना मत’’इतने में एक दूसरा लडक़ा साईं का गूदड़ खींचकर भागा। गूदड़ लेने के लिए साईं उस लड़के के पीछे दौड़ा। मोहन खड़ा देखता रहा, साईं आँखों से ओझल हो गया।चौराहे तक दौड़तेदौड़ते साईं को ठोकर लगी, वह गिर पड़ा। सिर से ख़ून बहने लगा। खिझाने के लिए जो लडक़ा उसका गूदड़ लेकर भागा था, वह डर से ठिठका रहा। दूसरी ओर से मोहन के पिता ने उसे पकड़ लिया, दूसरे हाथ से साईं को पकड़ कर उठाया। नटखट लड़के के सर पर चपत पड़ने लगी साईं उठकर खड़ा हो गया।‘‘मत मारो, मत मारो, चोट आती होगी’’ साईं ने कहाऔर लड़के को छुड़ाने लगा मोहन के पिता ने साईं से पूछा‘‘तब चीथड़े के लिए दौड़ते क्यों थे’’सिर फटने पर भी जिसको रुलाई नहीं आयी थी, वह साईं लड़के को रोते देखकर रोने लगा। उसने कहा‘‘बाबा, मेरे पास, दूसरी कौन वस्तु है, जिसे देकर इन ‘रामरूप’ भगवान को प्रसन्न करता’’‘‘तो क्या तुम इसीलिए गूदड़ रखते हो’’‘‘इस चीथड़े को लेकर भागते हैं भगवान् और मैं उनसे लड़कर छीन लेता हूँ रखता हूँ फिर उन्हीं से छिनवाने के लिए, उनके मनोविनोद के लिए। सोने का खिलौना तो उचक्के भी छीनते हैं, पर चीथड़ों पर भगवान् ही दया करते हैं’’ इतना कहकर बालक का मुँह पोंछते हुए मित्र के समान गलबाँही डाले हुए साईं चला गया।मोहन के पिता आश्चर्य से बोले‘‘गूदड़ साईं तुम निरे गूदड़ नहीं गुदड़ी के लाल हो’’

  • 15: जयशंकर प्रसाद की लिखी कहानी गुदड़ी में लाल, Gudadi Mein Lal - Story Written By Jaishankar Prasad
    6 min 56 sec

    दीर्घ निश्वासों का क्रीड़ास्थल, गर्मगर्म आँसुओं का फूटा हुआ पात्र कराल काल की सारंगी, एक बुढिय़ा का जीर्ण कंकाल, जिसमें अभिमान के लय में करुणा की रागिनी बजा करती है।अभागिनी बुढिय़ा, एक भले घर की बहूबेटी थी। उसे देखकर दयालु वयोवृद्ध, हे भगवान कहके चुप हो जाते थे। दुष्ट कहते थे कि अमीरी में बड़ा सुख लूटा है। नवयुवक देशभक्त कहते थे, देश दरिद्र है खोखला है। अभागे देश में जन्मग्रहण करने का फल भोगती है। आगामी भविष्य की उज्ज्वलता में विश्वास रखकर हृदय के रक्त पर सन्तोष करे। जिस देश का भगवान् ही नहीं उसे विपत्ति क्या सुख क्यापरन्तु बुढिय़ा सबसे यही कहा करती थी‘‘मैं नौकरी करूँगी। कोई मेरी नौकरी लगा दो।’’ देता कौन जो एक घड़ा जल भी नहीं भर सकती, जो स्वयं उठ कर सीधा खड़ी नहीं हो सकती थी, उससे कौन काम कराये किसी की सहायता लेना पसन्द नहीं, किसी की भिक्षा का अन्न उसके मुख में पैठता ही न था। लाचार होकर बाबू रामनाथ ने उसे अपनी दुकान में रख लिया। बुढिय़ा की बेटी थी, वह दो पैसे कमाती थी। अपना पेट पालती थी, परन्तु बुढिय़ा का विश्वास था कि कन्या का धन खाने से उस जन्म में बिल्ली, गिरगिट और भी क्याक्या होता है। अपनाअपना विश्वास ही है, परन्तु धार्मिक विश्वास हो या नहीं, बुढिय़ा को अपने आत्माभिमान का पूर्ण विश्वास था। वह अटल रही। सर्दी के दिनों में अपने ठिठुरे हुए हाथ से वह अपने लिए पानी भर के रखती। अपनी बेटी से सम्भवत: उतना ही काम कराती, जितना अमीरी के दिनों में कभीकभी उसे अपने घर बुलाने पर कराती।बाबू रामनाथ उसे मासिक वृत्ति देते थे। और भी तीनचार पैसे उसे चबेनी के, जैसे और नौकरों को मिलते थे, मिला करते थे। कई बरस बुढिय़ा के बड़ी प्रसन्नता से कटे। उसे न तो दु:ख था और न सुख। दुकान में झाड़ू लगाकर उसकी बिखरी हुई चीजों को बटोरे रहना और बैठेबैठे थोड़ाघना जो काम हो, करना बुढिय़ा का दैनिक कार्य था। उससे कोई नहीं पूछता था कि तुमने कितना काम किया। दुकान के और कोई नौकर यदि दुष्टतावश उसे छेड़ते भी थे, तो रामनाथ उन्हें डाँट देता था।वसन्त, वर्षा, शरद और शिशिर की सन्ध्या में जब विश्व की वेदना, जगत् की थकावट, धूसर चादर में मुँह लपेट कर क्षितिज के नीरव प्रान्त में सोने जाती थी बुढिय़ा अपनी कोठरी में लेट रहती। अपनी कमाई के पैसे से पेट भरकर, कठोर पृथ्वी की कोमल रोमावली के समान हरीहरी दूब पर भी लेट रहना किसीकिसी के सुखों की संख्या है, वह सबको प्राप्त नहीं। बुढिय़ा धन्य हो जाती थी, उसे सन्तोष होता।एक दिन उस दुर्बल, दीन, बुढिय़ा को बनिये की दुकान में लाल मिरचे फटकना पड़ा। बुढिय़ा ने किसीकिसी कष्ट से उसे सँवारा। परन्तु उसकी तीव्रता वह सहन न कर सकी। उसे मूच्र्छा आ गयी। रामनाथ ने देखा, और देखा अपने कठोर ताँबे के पैसे की ओर। उसके हृदय ने धिक्कारा, परन्तु अन्तरात्मा ने ललकारा। उस बनिया रामनाथ को साहस हो गया। उसने सोचा, क्या इस बुढिय़ा को ‘पिन्सिन’ नहीं दे सकता क्या उनके पास इतना अभाव है अवश्य दे सकता है। उसने मन में निश्चय किया। ‘‘तुम बहुत थक गयी हो, अब तुमसे काम नहीं हो सकता।’’ बुढिय़ा के देवता कूच कर गये। उसने कहा‘‘नहीं नहीं, अभी तो मैं अच्छी तरह काम कर लेती हूँ।’’ ‘‘नहीं, अब तुम काम करना बन्द कर दो, मैं तुमको घर बैठे दिया करूँगा।’’‘‘नहीं बेटा अभी तुम्हारा काम मैं अच्छाभला किया करूँगी।’’ बुढिय़ा के गले में काँटे पड़ गये थे। किसी सुख की इच्छा से नहीं, पेन्शन के लोभ से भी नहीं। उसके मन में धक्का लगा। वह सोचने लगी‘‘मैं बिना किसी काम के किये इसका पैसा कैसे लूँगी’’ क्या यह भीख नहीं’’ आत्माभिमान झनझना उठा। हृदयतन्त्री के तार कड़े होकर चढ़ गये। रामनाथ ने मधुरता से कहा‘‘तुम घबराओ मत, तुमको कोई कष्ट न होगा।’’बुढिय़ा चली आयी। उसकी आँखों में आँसू न थे। आज वह सूखे काठसी हो गयी। घर जाकर बैठी, कोठरी में अपना सामान एक ओर सुधारने लगी। बेटी ने कहा‘‘माँ, यह क्या करती हो’’माँ ने कहा‘‘चलने की तैयारी करो।’’रामनाथ अपने मन में अपनी प्रशंसा कर रहा था, अपने को धन्य समझता था। उसने समझ लिया कि हमने आज एक अच्छा काम करने का संकल्प किया है। भगवान् इससे अवश्य प्रसन्न होंगे।बुढिय़ा अपनी कोठरी में बैठीबैठी विचारती थी, ‘‘जीवन भर के सञ्चित इस अभिमानधन को एक मुठ्ठी अन्न की भिक्षा पर बेच देना होगा। असह्य भगवान् क्या मेरा इतना सुख भी नहीं देख सकते उन्हें सुनना होगा।’’ वह प्रार्थना करने लगी।‘‘इस अनन्त ज्वालामयी सृष्टि के कत्र्ता क्या तुम्हीं करुणानिधान हो क्या इसी डर से तुम्हारा अस्तित्व माना जाता है अभाव, आशा, असन्तोष और आर्तनादों के आचार्य क्या तुम्हीं दीनानाथ हो तुम्हीं ने वेदना का विषम जाल फैलाया है तुम्हीं ने निष्ठुर दु:खों के सहने के लिए

  • 16: जयशंकर प्रसाद की लिखी कहानी अघोरी का मोह, Aghori Ka Moh - Story Written By Jaishankar Prasad
    9 min 11 sec

    ‘आज तो भैया, मूँग की बरफी खाने को जी नहीं चाहता, यह साग तो बड़ा ही चटकीला है। मैं तो....’’‘‘नहींनहीं जगन्नाथ, उसे दो बरफी तो ज़रूर ही दे दो।’’‘‘ननन। क्या करते हो, मैं गंगा जी में फेंक दूँगा।’’‘‘लो, तब मैं तुम्ही को उलटे देता हूँ।’’ ललित ने कह कर किशोर की गर्दन पकड़ ली। दीनता से भोली और प्रेमभरी आँखों से चन्द्रमा की ज्योति में किशोर ने ललित की ओर देखा। ललित ने दो बरफी उसके खुले मुख में डाल दी। उसने भरे हुए मुख से कहा,भैया, अगर ज़्यादा खाकर मैं बीमार हो गया।’’ ललित ने उसके बर्फ़ के समान गालों पर चपत लगाकर कहा‘‘तो मैं सुधाविन्दु का नाम गरलधारा रख दूँगा। उसके एक बूँद में सत्रह बरफी पचाने की ताकत है। निर्भय होकर भोजन और भजन करना चाहिए।’’शरद की नदी अपने करारों में दबकर चली जा रही है। छोटासा बजरा भी उसी में अपनी इच्छा से बहता हुआ जा रहा है, कोई रोकटोक नहीं है। चाँदनी निखर रही थी, नाव की सैर करने के लिए ललित अपने अतिथि किशोर के साथ चला आया है। दोनों में पवित्र सौहाद्र्र है। जाह्नवी की धवलता आ दोनों की स्वच्छ हँसी में चन्द्रिका के साथ मिलकर एक कुतूहलपूर्ण जगत् को देखने के लिए आवाहन कर रही है। धनी सन्तान ललित अपने वैभव में भी किशोर के साथ दीनता का अनुभव करने में बड़ा उत्सुक है। वह सानन्द अपनी दुर्बलताओं को, अपने अभाव को, अपनी करुणा को, उस किशोर बालक से व्यक्त कर रहा है। इसमें उसे सुख भी है, क्योंकि वह एक न समझने वाले हिरन के समान बड़ीबड़ी भोली आँखों से देखते हुए केवल सुन लेने वाले व्यक्ति से अपनी समस्त कथा कहकर अपना बोझ हलका कर लेता है। और उसका दु:ख कोई समझने वाला व्यक्ति न सुन सका, जिससे उसे लज्जित होना पड़ता, यह उसे बड़ा सुयोग मिला है।ललित को कौन दु:ख है उसकी आत्मा क्यों इतनी गम्भीर है यह कोई नहीं जानता। क्योंकि उसे सब वस्तु की पूर्णता है, जितनी संसार में साधारणत: चाहिए फिर भी उसकी नील नीरदमालासी गम्भीर मुखाकृति में कभीकभी उदासीनता बिजली की तरह चमक जाती है।ललित और किशोर बात करतेकरते हँसतेहँसते अब थक गये हैं। विनोद के बाद अवसाद का आगमन हुआ। पान चबातेचबाते ललित ने कहा‘‘चलो जी, अब घर की ओर।’’माँझियों ने डाँड़ लगाना आरम्भ किया। किशोर ने कहा‘‘भैया, कल दिन में इधर देखने की बड़ी इच्छा है। बोलो, कल आओगे’’ ललित चुप था। किशोर ने कान में चिल्ला कर कहा‘‘भैया कल आओगे न’’ ललित ने चुप्पी साध ली। किशोर ने फिर कहा‘‘बोलो भैया, नहीं तो मैं तुम्हारा पैर दबाने लगूँगा।’’ललित पैर छूने से घबरा कर बोला‘‘अच्छा, तुम कहो कि हमको किसी दिन अपनी सूखी रोटी खिलाओगे...’’किशोर ने कहा‘‘मैं तुमको खीरमोहन, दिलखुश..’’ ललित ने कहा‘‘ननन.. मैं तुम्हारे हाथ से सूखी रोटी खाऊँगाबोलो, स्वीकार है नहीं तो मैं कल नहीं आऊँगा।’’किशोर ने धीरे से स्वीकार कर लिया। ललित ने चन्द्रमा की ओर देखकर आँख बंद कर लिया। बरौनियों की जाली से इन्दु की किरणें घुसकर फिर कोर में से मोती बनबन कर निकल भागने लगीं। यह कैसी लीला थी

  • 15: जयशंकर प्रसाद की लिखी कहानी पाप की पराजय, Paap Ki Parajay - Story Written By Jaishankar Prasad
    11 min 38 sec

    घने हरे कानन के हृदय में पहाड़ी नदी झिरझिर करती बह रही है। गाँव से दूर, बन्दूक लिये हुए शिकारी के वेश में, घनश्याम दूर बैठा है। एक निरीह शशक मारकर प्रसन्नता से पतलीपतली लकड़ियों में उसका जलना देखता हुआ प्रकृति की कमनीयता के साथ वह बड़ा अन्याय कर रहा है। किन्तु उसे दायित्वविहीन विचारपति की तरह बेपरवाही है। जंगली जीवन का आज उसे बड़ा अभिमान है। अपनी सफलता पर आप ही मुग्ध होकर मानवसमाज की शैशवावस्था की पुनरावृत्ति करता हुआ निर्दय घनश्याम उस अधजले जन्तु से उदर भरने लगा। तृप्त होने पर वन की सुधि आई। चकित होकर देखने लगा कि यह कैसा रमणीय देश है। थोड़ी देर में तन्द्रा ने उसे दबा दिया। वह कोमल वृत्ति विलीन हो गयी। स्वप्न ने उसे फिर उद्वेलित किया। निर्मल जलधारा से धुले हुए पत्तों का घना कानन, स्थानस्थान पर कुसुमित कुञ्ज, आन्तरिक और स्वाभाविक आलोक में उन कुञ्जों की कोमल छाया, हृदयस्पर्शकारी शीतल पवन का सञ्चार, अस्फुट आलेख्य के समान उसके सामने स्फुरित होने लगे।घनश्याम को सुदूर से मधुर झंकारसी सुनाई पड़ने लगी। उसने अपने को व्याकुल पाया। देखा तो एक अद्‌भुत दृश्य इन्द्रनील की पुतली फूलों से सजी हुई झरने के उस पार पहाड़ी से उतर कर बैठी है। उसके सहजकुञ्चित केश से वन्य कुरुवक कलियाँ कूदकूद कर जललहरियों से क्रीड़ा कर रही हैं। घनश्याम को वह वनदेवीसी प्रतीत हुई। यद्यपि उसका रंग कंचन के समान नहीं, फिर भी गठन साँचे में ढला हुआ है। आकर्ण विस्तृत नेत्र नहीं, तो भी उनमें एक स्वाभाविक राग है। यह कवि की कल्पनासी कोई स्वर्गीया आकृति नहीं, प्रत्युत एक भिल्लिनी है। तब भी इसमें सौन्दर्य नहीं है, यह कोई साहस के साथ नहीं कह सकता। घनश्याम ने तन्द्रा से चौंककर उस सहज सौन्दर्य को देखा और विषम समस्या में पड़कर यह सोचने लगा‘‘क्या सौन्दर्य उपासना की ही वस्तु है, उपभोग की नहीं’’ इस प्रश्न को हल करने के लिए उसने हण्टिंग कोट के पाकेट का सहारा लिया। क्लान्तिहारिणी का पान करने पर उसकी आँखों पर रंगीन चश्मा चढ़ गया। उसकी तन्द्रा का यह काल्पनिक स्वर्ग धीरेधीरे विलासमन्दिर में परिणत होने लगा। घनश्याम ने देखा कि अदभुत रूप, यौवन की चरम सीमा और स्वास्थ्य का मनोहर संस्करण, रंग बदलकर पाप ही सामने आया।पाप का यह रूप, जब वह वासना को फाँस कर अपनी ओर मिला चुकता है, बड़ा कोमल अथच कठोर एवं भयानक होता है और तब पाप का मुख कितना सुन्दर होता है सुन्दर ही नहीं, आकर्षक भी, वह भी कितना प्रलोभनपूर्ण और कितना शक्तिशाली, जो अनुभव में नहीं आ सकता। उसमें विजय का दर्प भरा रहता है। वह अपने एक मृदु मुस्कान से सुदृढ़ विवेक की अवहेलना करता है। घनश्याम ने धोखा खाया और क्षण भर में वह सरल सुषमा विलुप्त होकर उद्दीपन का अभिनय करने लगी। यौवन ने भी उस समय काम से मित्रता कर ली। पाप की सेना और उसका आक्रमण प्रबल हो चला। विचलित होते ही घनश्याम को पराजित होना पड़ा। वह आवेश में बाँहें फैलाकर झरने को पार करने लगा।नील की पुतली ने उस ओर देखा भी नहीं। युवक की मांसल पीन भुजायें उसे आलिंगन किया ही चाहती थीं कि ऊपर पहाड़ी पर से शब्द सुनाई पड़ा‘‘क्यों नीला, कब तक यहीं बैठी रहेगी मुझे देर हो रही है। चल, घर चलें।’’घनश्याम ने सिर उठा कर देखा तो ज्योतिर्मयी दिव्य मूर्ति रमणी सुलभ पवित्रता का ज्वलन्त प्रमाण, केवल यौवन से ही नहीं, बल्कि कला की दृष्टि से भी, दृष्टिगत हुई। किन्तु आत्मगौरव का दुर्ग किसी की सहज पापवासना को वहाँ फटकने नहीं देता था। शिकारी घनश्याम लज्जित तो हुआ ही, पर वह भयभीत भी था। पुण्यप्रतिमा के सामने पाप की पराजय हुई। नीला ने घबराकर कहा‘‘रानी जी, आती हूँ। जरा मैं थक गयी थी।’’ रानी और नीला दोनों चली गयीं। अबकी बार घनश्याम ने फिर सोचने का प्रयास कियाक्या सौन्दर्य उपभोग के लिये नहीं, केवल उपासना के लिए है’’ खिन्न होकर वह घर लौटा। किन्तु बारबार वह घटना याद आती रही। घनश्याम कई बार उस झरने पर क्षमा माँगने गया। किन्तु वहाँ उसे कोई न मिला।

  • 17: प्रेमचंद की कहानी "वफ़ा का खंजर" Premchand Story "Wafa Ka Khanjar"
    30 min 7 sec

    जयगढ़ और विजयगढ़ दो बहुत ही हरेभ्ररे, सुसंस्कृत, दूरदूर तक फैले हुए, मजबूत राज्य थे। दोनों ही में विद्या और कलाद खूब उन्न्त थी। दोनों का धर्म एक, रस्मरिवाज एक, दर्शन एक, तरक्की का उसूल एक, जीवन मानदण्ड एक, और जबान में भी नाम मात्र का ही अन्तर था। जयगढ़ के कवियों की कविताओं पर विजयगढ़ वाले सर धुनते और विजयगढ़ी दार्शनिकों के विचार जयगढ़ के लिए धर्म की तरह थे। जयगढ़ी सुन्दरियों से विजयगढ़ के घरबार रोशन होते थे और विजयगढ़ की देवियां जयगढ़ में पुजती थीं। तब भी दोनों राज्यों में ठनी ही नहीं रहती थी बल्कि आपसी फूट और ईर्ष्याद्वेष का बाजार बुरी तरह गर्म रहता और दोनों ही हमेशा एकदूसरे के खिलाफ़ खंजर उठाए थे। जयगढ़ में अगर कोई देश को सुधार किया जाता तो विजयगढ़ में शोर मच जाता कि हमारी जिंदगी खतरे में है। इसी तरह तो विजयगढ़ में कोई व्यापारिक उन्नति दिखायी देती तो जयगढ़ में शोर मच जाता था। जयगढ़ अगर रेलवे की कोई नई शाख निकालता तो विजयगढ़ उसे अपने लिए काला सांप समझता और विजयगढ़ में कोई नया जहाज तैयार होता तो जयगढ़ को वह खून पीने वाला घडियाल नजर आता था। अगर यह बदुगमानियॉँ अनपढ़ या साधारण लोगों में पैदा होतीं तो एक बात थी, मजे की बात यह थी कि यह रागद्वेष, विद्या और जागृति, वैभव और प्रताप की धरती में पैदा होता था। अशिक्षा और जड़ता की जमीन उनके लिए ठीक न थी। खास सोचविचार और नियमव्यवस्था के उपजाऊ क्षेत्र में तो इस बीज का बढ़ना कल्पना की शक्ति को भी मात कर देता था। नन्हासा बीज पलक मारतेभर में ऊंचापूरा दख्त हो जाता था। कूचे और बाजारों में रोनेपीटने की सदाएं गूंजने लगतीं, देश की समस्याओं में एक भूचालसा आता, अख़बारों के दिल जलाने वाले शब्द राज्य में हलचल मचा देते, कहीं से आवाज आ जाती—जयगढ़, प्यारे जयगढ़, पवित्र के लिए यह कठिन परीक्षा का अवसर है। दुश्मन ने जो शिक्षा की व्यवस्था तैयार की है, वह हमारे लिए मृत्यु का संदेश है। अब जरूरत और बहुत सख्त जरूरत है कि हम हिम्मत बांधें और साबित कर दें कि जयगढ़, अमर जयगढ़ इन हमलों से अपनी प्राणरक्षा कर सकता है। नहीं, उनका मुंहतोड़ जवाब दे सकता है। अगर हम इस वक्त न जागें तो जयगढ़, प्यारा जयगढ़, हस्ती के परदे से हमेशा के लिए मिट जाएगा और इतिहास भी उसे भुला देगा।दूसरी तरफ़ से आवाज आती—विजयगढ़ के बेखबर सोने वालो, हमारे मेहरबान पड़ोसियों ने अपने अखबारों की जबान बन्द करने के लिए जो नये क़ायदे लागू किये हैं, उन पर नाराज़गी का इजहार करना हमारा फ़र्ज है। उनकी मंशा इसके सिवा और कुछ नहीं है कि वहां के मुआमलों से हमको बेखबर रक्खा जाए और इस अंधेरे के परदे में हमारे ऊपर धावे किये जाएं, हमारे गलों पर फेरने के लिए नयेनये हथियार तैयार किए जाएं, और आख़िरकार हमारा नामनिशान मिटा दिया जाए। लेकिन हम अपने दोस्तों को जता देना अपना फ़र्ज समझते हैं कि अगर उन्हें शरारत के हथियारों की ईजाद के कमाल हैं तो हमें भी उनकी काट करने में कमाल है। अगर शैतान उनका मददगार है तो हमको भी ईश्वर की सहायता प्राप्त है और अगर अब तक हमारे दोस्तों को मालूम नहीं है तो अब होना चाहिए कि ईश्वर की सहायता हमेशा शैतान को दबा देती है।

  • 16: जयशंकर प्रसाद की लिखी कहानी सहयोग, Sahyog - Story Written By Jaishankar Prasad
    7 min 59 sec

    मनोरमा, एक भूल से सचेत होकर जब तक उसे सुधारने में लगती है, तब तक उसकी दूसरी भूल उसे अपनी मनुष्यता पर ही सन्देह दिलाने लगती है। प्रतिदिन प्रतिक्षण भूल की अविच्छिन्न शृंखला मानवजीवन को जकड़े हुए है, यह उसने कभी हृदयंगम नहीं किया। भ्रम को उसने शत्रु के रूप में देखा। वह उससे प्रतिपद शंकित और संदिग्ध रहने लगी उसकी स्वाभाविक सरलता, जो बनावटी भ्रम उत्पन्न कर दिया करती थी, और उसके अस्तित्व में सुन्दरता पालिश कर दिया करती थी, अब उससे बिछुड़ने लगी। वह एक बनावटी रूप और आवभगत को अपना आभरण समझने लगी।मोहन, एक हृदयहीन युवक उसे दिल्ली से ब्याह लाया था। उसकी स्वाभाविकता पर अपने आतंक से क्रूर शासन करके उसे आत्मचिन्ताशून्य पतिगतप्राणा बनाने की उत्कट अभिलाषा से हृदयहीन कल से चलतीफिरती हुई पुतली बना डाला और वह इसी में अपनी विजय और पौरुष की पराकाष्ठा समझने लगा था।धीरेधीरे अब मनोरमा में अपना निज का कुछ नहीं रहा। वह उसे एक प्रकार से भूलसी गयी थी। दिल्ली के समीप का यमुनातट का वह गाँव, जिसमें वह पली थी, बढ़ी थी, अब उसे कुछ विस्मृतसा हो चला था। वह ब्याह करने के बाद द्विरागमन के अवसर पर जब से अपनी ससुराल आयी थी, वह एक अद्‌भुत दृश्य था। मनुष्यसमाज में पुरुषों के लिए वह कोई बड़ी बात न थी, किन्तु जब उन्हें घर छोड़कर कभी किसी काम में परदेश जाना पड़ता है, तभी उनको उस कथा के अधम अंश का आभास सूचित होता है। वह सेवा और स्नेहवृत्तिवाली स्त्रियाँ ही कर सकती हैं। जहाँ अपना कोई नहीं है, जिससे कभी की जानपहचान नहीं, जिस स्थान पर केवल बधूदर्शन का कुतूहल मात्र उसकी अभ्यर्थना करने वाला है, वहाँ वह रोते और सिसकते किसी साहस से आयी और किसी को अपने रूप से, किसी को विनय से, किसी को स्नेह से उसने वश करना आरम्भ किया। उसे सफलता भी मिली। जिस तरह एक महाउद्योगी किसी भारी अनुसन्धान के लिए अपने घर से अलग होकर अपने सहारे अपना साधन बनाता है, वा कथासरित्सागर के साहसिक लोग बैताल या विद्याधरत्त्व की सिद्धि के असम्भवनीय साहस का परिचय देते हैं, वह इन प्रतिदिन साहसकारिणी मनुष्यजाति की किशोरियों के सामने क्या है, जिनकी बुद्धि और अवस्था कुछ भी इसके अनुकूल नहीं है।

  • 18: प्रेमचंद की कहानी "बोहनी" Premchand Story "Bohni"
    12 min 21 sec

    उस दिन जब मेरे मकान के सामने सड़क की दूसरी तरफ एक पान की दुकान खुली तो मैं बागबाग हो उठा। इधर एक फर्लांग तक पान की कोई दुकान न थी और मुझे सड़क के मोड़ तक कई चक्कर करने पड़ते थे। कभी वहां कईकई मिनट तक दुकान के सामने खड़ा रहना पड़ता था। चौराहा है, गाहकों की हरदम भीड़ रहती है। यह इन्तजार मुझको बहुत बुरा लगता थां पान की लत मुझे कब पड़ी, और कैसे पड़ी, यह तो अब याद नहीं आता लेकिन अगर कोई बनाबनाकर गिलौरियां देता जाय तो शायद मैं कभी इन्कार न करूं। आमदनी का बड़ा हिस्सा नहीं तो छोटा हिस्सा जरूर पान की भेंट चढ़ जाता है। कई बार इरादा किया कि पानदान खरीद लूं लेकिन पानदान खरीदना कोई खला जी का घर नहीं और फिर मेरे लिए तो हाथी खरीदने से किसी तरह कम नहीं है। और मान लो जान पर खेलकर एक बार खरीद लूं तो पानदान कोई परी की थैली तो नहीं कि इधर इच्छा हुई और गिलोरियां निकल पड़ीं। बाजार से पान लाना, दिन में पांच बार फेरना, पानी से तर करना, सड़े हुए टुकड़ों को तराश्कर अलग करना क्या कोई आसान काम है मैंने बड़े घरों की औरतों को हमेशा पानदान की देखभाल और प्रबन्ध में ही व्यस्त पाया है। इतना सरदर्द उठाने की क्षमता होती तो आज मैं भी आदमी होता। और अगर किसी तहर यह मुश्किल भी हल हो जाय तो सुपाड़ी कौन काटे यहां तो सरौते की सूरत देखते ही कंपकंपी छूटने लगती है। जब कभी ऐसी ही कोई जरूरत आ पड़ी, जिसे टाला नहीं जा सकता, तो सिल पर बट्टे से तोड़ लिया करता हूं लेकिन सरौते से काम लूं यह गैरमुमकिन। मुझे तो किसी को सुपाड़ी काटते देखकर उतना ही आश्चर्य होता है जितना किसी को तलवार की धार पर नाचते देखकर। और मान लो यह मामला भी किसी तरह हल हो जाय, तो आखिरी मंजिल कौन फतह करे। कत्था और चूना बराबर लगाना क्या कोई आसान काम है कम से कम मुझे तो उसका ढंग नहीं आता। जब इस मामले में वे लोग रोज गलतियां करते हैं तो इस कला में दक्ष हैं तो मैं भला किस खेत की मूली हूं। तमोली ने अगर चूना ज्यादा कर दिया ता कत्था और ले लिया, उस पर उसे एक डांट भी बतायी, आंसू पूंछ गये। मुसीबत का सामना तो उस वक्त हो होता है, जब किसी दोस्त के घर जायँ। पान अन्दर से आयी तो इसके सिवाय कि जानबूझकर मक्खी निगलें, समझबूझकर जहर का घूंट गले से नीचे उतारें और चारा ही क्या है। शिकायत नहीं कर सकते, सभ्यता बाधक होती है। कभीकभी पान मुंह में डालते ही ऐसा मालूम होता है, कि जीभ पर कोई चिनगारी पड़ गयी, गले से लेकर छाती तक किसी ने पारा गरम करके उड़ेल दिया, मगर घुटकर रह जाना पड़ता है। अन्दाजे में इस हद तक गलती हो जाय यह तो समझ में आने वाली बात नहीं। मैं लाख अनाड़ी हूं लेकिन कभी इतना ज्यादा चूना नहीं डालता,हां दोचार छाले पड़ जाते हैं। तो मैं समझता हूं, यही अन्त:पुर के कोप की अभिव्यक्ति है। आखिर वह आपकी ज्यादतियों का प्रोटेस्ट क्यों कर करें। खामोश बायकाट से आप राजी नहीं होते, दूसरा कोई हथियार उनके हाथ में है नही। भंवों की कमान और बरौनियों का नेजा और मुस्कराहट का तीर उस वक्त बिलकुल कोई असर नहीं करते जब आप आंखें लाल किये, आस्तीनें समेटे इसलिए आसमान सर पर उठा लेते हैं कि नाश्ता और पहले क्यों नहीं तैयार हुआ, तब सालन में नमक और पान में चूना ज्यादा कर देने के सिवाय बदला लेने का उनके हाथ में और क्या साधन रह जाता है।

  • 17: जयशंकर प्रसाद की लिखी कहानी पत्थर की पुकार, Patthar Ki Pukaar - Story Written By Jaishankar Prasad
    4 min 57 sec

    नवल और विमल दोनों बात करते हुए टहल रहे थे। विमल ने कहा‘‘साहित्यसेवा भी एक व्यसन है।’’‘‘नहीं मित्र यह तो विश्व भर की एक मौन सेवासमिति का सदस्य होना है।’’‘‘अच्छा तो फिर बताओ, तुमको क्या भला लगता है कैसा साहित्य रुचता है’’‘‘अतीत और करुणा का जो अंश साहित्य में हो, वह मेरे हृदय को आकर्षित करता है।’’नवल की गम्भीर हँसी कुछ तरल हो गयी। उन्होंने कहा‘‘इससे विशेष और हम भारतीयों के पास धरा क्या है स्तुत्य अतीत की घोषणा और वर्तमान की करुणा, इसी का गान हमें आता है। बस, यह भी एक भाँगगाँजे की तरह नशा है।’’ विमल का हृदय स्तब्ध हो गया। चिर प्रसन्नवदन मित्र को अपनी भावना पर इतना कठोर आघात करते हुए कभी भी उसने नहीं देखा था। वह कुछ विरक्त हो गया। मित्र ने कहा‘‘कहाँ चलोगे’’ उसने कहा‘‘चलो, मैं थोड़ा घूम कर गंगातट पर मिलूँगा।’’ नवल भी एक ओर चला गया।चिन्ता में मग्न विमल एक ओर चला। नगर के एक सूने मुहल्ले की ओर जा निकला। एक टूटी चारपाई अपने फूटे झिलँगे में लिपटी पड़ी है। उसी के बगल में दीन कुटी फूस से ढँकी हुई, अपना दरिद्र मुख भिक्षा के लिए खोले हुए बैठी है। दोएक ढाँकी और हथौड़े, पानी की प्याली, कूची, दो काले शिलाखण्ड परिचारक की तरह उस दीन कुटी को घेरे पड़े हैं। किसी को न देखकर एक शिलाखण्ड पर न जाने किसके कहने से विमल बैठ गया। यह चुपचाप था। विदित हुआ कि दूसरा पत्थर कुछ धीरेधीरे कह रहा है। वह सुनने लगा‘‘मैं अपने सुखद शैल में संलग्न था। शिल्पी तूने मुझे क्यों ला पटका यहाँ तो मानव की हिंसा का गर्जन मेरे कठोर वक्ष:स्थल का भेदन कर रहा है। मैं तेरे प्रलोभन में पड़ कर यहाँ चला आया था, कुछ तेरे बाहुबल से नहीं, क्योंकि मेरी प्रबल कामना थी कि मैं एक सुन्दर मूर्ति में परिणत हो जाऊँ। उसके लिए अपने वक्ष:स्थल को क्षतविक्षत कराने को प्रस्तुत था। तेरी टाँकी से हृदय चिराने में प्रसन्न था कि कभी मेरी इस सहनशीलता का पुरस्कार, सराहना के रूप में मिलेगा और मेरी मौन मूर्ति अनन्तकाल तक उस सराहना को चुपचाप गर्व से स्वीकार करती रहेगी। किन्तु निष्ठुर तूने अपने द्वार पर मुझे फूटे हुए ठीकरे की तरह ला पटका। अब मैं यहीं पर पड़ापड़ा कब तक अपने भविष्य की गणना करूँगा’’पत्थर की करुणामयी पुकार से विमल को क्रोध का सञ्चार हुआ। और वास्तव में इस पुकार में अतीत और करुणा दोनों का मिश्रण था, जो कि उसके चित्त का सरल विनोद था। विमल भावप्रवण होकर रोष से गर्जन करता हुआ पत्थर की ओर से अनुरोध करने को शिल्पी के दरिद्र कुटीर में घुस पड़ा।‘‘क्यों जी, तुमने इस पत्थर को कितने दिनों से यहाँ ला रक्खा है भला वह भी अपने मन में क्या समझता होगा सुस्त होकर पड़े हो, उसकी कोई सुन्दर मूर्ति क्यों न बना डाली’’ विमल ने रुक्ष स्वर में कहा।पुरानी गुदड़ी में ढँकी हुई जीर्णशीर्ण मूर्ति खाँसी से कँप कर बोली‘‘बाबू जी आपने तो मुझे कोई आज्ञा नहीं दी थी।’’‘‘अजी तुम बना लिये होते, फिर कोईनकोई तो इसे ले लेता। भला देखो तो यह पत्थर कितने दिनों से पड़ा तुम्हारे नाम को रो रहा है।’’विमल ने कहा। शिल्पी ने कफ निकाल कर गला साफ़ करते हुए कहा‘‘आप लोग अमीर आदमी है। अपने कोमल श्रवणेन्द्रियों से पत्थर का रोना, लहरों का संगीत, पवन की हँसी इत्यादि कितनी सूक्ष्म बातें सुन लेते हैं, और उसकी पुकार में दत्तचित्त हो जाते हैं। करुणा से पुलकित होते हैं, किन्तु क्या कभी दुखी हृदय के नीरव क्रन्दन को भी अन्तरात्मा की श्रवणेन्द्रियों को सुनने देते हैं, जो करुणा का काल्पनिक नहीं, किन्तु वास्तविक रूप है’’विमल के अतीत और करुणासम्बन्धी समस्त सद्‌भाव कठोर कर्मण्यता का आवाहन करने के लिए उसी से विद्रोह करने लगे। वह स्तब्ध होकर उसी मलिन भूमि पर बैठ गया।

  • 19: प्रेमचंद की कहानी "तिरसूल" Premchand Story "Tirsool"
    31 min 2 sec

    अंधेरी रात है, मूसलाधार पानी बरस रहा है। खिड़कियों पर पानीके थप्पड़ लग रहे हैं। कमरे की रोशनी खिड़की से बाहर जाती है तो पानी की बड़ीबड़ी बूंदें तीरों की तरह नोकदार, लम्बी, मोटी, गिरती हुई नजर आ जाती हैं। इस वक्त अगर घर में आग भी लग जाय तो शायद मैं बाहर निकलने की हिम्मत न करूं। लेकिन एक दिन जब ऐसी ही अंधेरी भयानक रात के वक्त मैं मैदान में बन्दूक लिये पहरा दे रहा था। उसे आज तीस साल गुजर गये। उन दिनों मैं फौज में नौकर था। आह वह फौजी जिन्दगी कितने मजे से गुजरती थी। मेरी जिन्दगी की सबसे मीठी, सबसे सुहानी यादगारें उसी जमाने से जुड़ी हुई हैं। आज मुझे इस अंधेरी कोठरी में अखबारों के लिए लेख लिखते देखकर कौन समझेगा कि इस नीमजान, झुकी हुई कमरवाले खस्ताहाल आदमी में भी कभी हौसला और हिम्मत और जोश का दरिया लहरे मारता था। क्याक्या दोस्त थे जिनके चेहरों पर हमेशा मुसकराहट नाचती रहती थी। शेरदिल रामसिंह और मीठे गलेवाले देवीदास की याद क्या कभी दिल से मिट सकती है वह अदन, वह बसरा, वह मिस्त्र बस आज मेरे लिए सपने हैं। यथार्थ है तो यह तंग कमरा और अखबार का दफ्तर।हां, ऐसी ही अंधेरी डरावनी सुनसान रात थी। मैं बारक के सामने बरसाती पहने हुए खड़ा मैग्जीन का पहरा दे रहा था। कंधे पर भरा हुआ राइफल था। बारक के से दोचार सिपाहियों के गाने की आवाजें आ रही थीं, रहरहकर जब बिजली चमक जाती थी तो सामने के ऊंचे पहाड और दरख्त और नीचे का हराभरा मैदान इस तरह नजर आ जातेथे जैसे किसी बच्चे की बड़ीबड़ी काली भोली पुतलियों में खुशी की झलक नजर आ जाती है।धीरेधीरे बारिश ने तुफानी सूरत अख्तियार की। अंधकार और भी अंधेरा, बादल की गरज और भी डरावनी और बिजली की चमक और भी तेज हो गयी। मालूम होता था प्रकृति अपनी सारी शक्ति से जमीन को तबाह कर देगी।यकायक मुझे ऐसा मालूम हुआ कि मेरे सामने से किसी चीज की परछाईसी निकल गयी। पहले तो मुझे खयाल हुआ कि कोई जंगली जानवर होगा लेकिन बिजली की एक चमक ने यह खयाल दूर कर दिया। वह कोई आदमी था, जो बदन को चुराये पानी में भिगता हुआ एक तरफ जा रहा था। मुझे हैरत हुई कि इस मूलसाधार वर्षा में कौन आदमी बारक से निकल सकता है और क्यों

  • 18: जयशंकर प्रसाद की लिखी कहानी उस पार का योगी, Us Paar Ka Yogi - Story Written By Jaishankar Prasad
    5 min 17 sec

    सामने सन्ध्याधूसरति जल की एक चादर बिछी है। उसके बाद बालू की बेला है, उसमें अठखेलियाँ करके लहरों ने सीढ़ी बना दी है। कौतुक यह है कि उस पर भी हरीहरी दूब जम गयी है। उस बालू की सीढ़ी की ऊपरी तह पर जाने कब से एक शिला पड़ी है। कई वर्षाओं ने उसे अपने पेट में पचाना चाहा, पर वह कठोर शिला गल न सकी, फिर भी निकल ही आती थी। नन्दलाल उसे अपने शैशव से ही देखता था। छोटीसी नदी, जो उसके गाँव से सटकर बहती थी, उसी के किनारे वह अपनी सितारी लेकर पश्चिम की धूसर आभा में नित्य जाकर बैठ जाता। जिस रात को चाँदनी निकल आती, उसमें देर तक और अँधेरी रात के प्रदोष में जब तक अन्धकार नहीं हो जाता था, बैठकर सितारी बजाता अपनी टपरियों में चला जाता था।नन्दलाल अँधेरे में डरता न था। किन्तु चन्द्रिका में देर तक किसी अस्पष्ट छाया को देख सकता था। इसलिए, आज भी उसी शिला पर वह मूर्ति बैठी है। गैरिक वसन की आभा सान्ध्यसूर्य से रञ्जित नभ से होड़ कर रही है। दोचार लटें इधरउधर मांसल अंश पर वन के साथ खेल रही हैं। नदी के किनारे प्राय: पवन का बसेरा रहता है, इसी से यह सुविधा है। जब से शैशवसहचरी नलिनी से नन्दलाल का वियोग हुआ है, वह अपनी सितारी से ही मन बहलाता है, सो भी एकान्त में क्योंकि नलिनी से भी वह किसी के सामने मिलने पर सुख नहीं पाता था। किन्तु हाय रे सुख उत्तेजनामय आनन्द को अनुभव करने के लिए एक साक्षी भी चाहिए। बिना किसी दूसरे को अपना सुख दिखाए हदय भलीभाँति से गर्व का अनुभव नहीं कर पाता। चन्द्रकिरण, नदीतरंग, मलयहिल्लोल, कुसुमसुरभि और रसालवृक्ष के साथ ही नन्दलाल को यह भी विश्वास था। कि उस पार का योगी भी कभीकभी उस सितारी की मीड़ से मरोड़ खाता है। लटें उसके कपोल पर ताल देने लगती हैं।चाँदनी निखरी थी। आज अपनी सितारी के साथ नन्दलाल भी गाने लगा था। वह प्रणयसंगीत थाभावुकता और काल्पनिक प्रेम का सम्भार बड़े वेग से उच्छ्वसित हुआ। अन्त:करण से दबी हुई तरलवृत्ति, जो विस्मृत स्वप्न के समान हलका प्रकाश देती थी, आज न जाने क्यों गैरिक निर्झर की तरह उबल पड़ी। जो वस्तु आज तक मैत्री का सुखचिह्न थीजो सरल हृदय का उपहार थीजो उदारता की कृतज्ञता थीउसने ज्वाला, लालसापूर्ण प्रेम का रूप धारण किया। संगीत चलने लगा।‘‘अरे कौन है.....मुझे बचाओ.....आह.....’’, पवन ने उपयुक्त दूत की तरह यह सन्देश नन्दलाल के कानों तक पहुँचाया। वह व्याकुल होकर सितारी छोड़ कर दौड़ा। नदी में फाँद पड़ा। उसके कानों में नलिनी का सा स्वर सुनाई पड़ा। नदी छोटी थीखरस्रोता थी। नन्दलाल हाथ मारता हुआ लहरों को चीर रहा था। उसके बाहुपाश में एक सुकुमार शरीर आ गया।चन्द्रकिरणों और लहरियों को बातचीत करने का एक आधार मिला। लहरी कहने लगी‘‘अभागे तू इस दुखिया नलिनी को बचाने क्यों आया, इसने तो आज अपने समस्त दु:खों का अन्त कर दिया था।’’किरण‘‘क्यों जी, तुम लोगों ने नन्दलाल को बहुत दिन तक बीच में बहा कर हल्लागुल्ला मचाकर, बचाया था।’’लहरी‘‘और तुम्हीं तो प्रकाश डालकर उसे सचेत कराती रही हो।’’किरण‘‘आज तक उस बेचारे को अँधेरे में रक्खा था। केवल आलोक की कल्पना करके वह अपने आलेख्य पट को उद्‌भासित कर लेता था। उस पार का योगी सुदूरवर्ती परदेशी की रम्य स्मृति को शान्त तपोवन का दृश्य था।’’लहरी‘‘पगली सुखस्वप्न के सदृश और आशा में आनन्द के समान मैं बीच में पड़ीपड़ी उसके सरल नेह का बहुत दिनों तक सञ्चय करती रहीआन्तरिक आकर्षणपूर्ण सम्मिलन होने पर भी, वासनारहित निष्काम सौन्दर्यमय व्यवधान बन कर मैं दोनों के बीच में बहती थी किन्तु नन्दलाल इतने में सन्तुष्ट न हो सका। उछलकूद कर हाथ चलाकर मुझे भी गँदला कर दिया। उसे बहने, डूबने और उतराने का आवेश बढ़ गया था।’’किरण‘‘हूँ, तब डूबें बहें।’’पवन चुपचाप इन बातों को सुन कर नदी के बहाव की ओर सर्राटा मार कर सन्देशा कहने को भगा। किन्तु वे दूर निकल गये थे। सितारी मूच्र्छना में पड़ी रही।

  • 20: प्रेमचंद की कहानी "प्रेम सूत्र" Premchand Story "Prem Sootra"
    31 min 35 sec

    संसार में कुछ ऐसे मनुष्य भी होते हैं जिन्हें दूसरों के मुख से अपनी स्त्री की सौंदर्यप्रशंसा सुनकर उतना ही आनन्द होता है जितनी अपनी कीर्ति की चर्चा सुनकर। पश्चिमी सभ्यता के प्रसार के साथ ऐसे प्राणियों की संख्या बढ़ती जा रही है। पशुपतिनाथ वर्मा इन्हीं लोगों में थे। जब लोग उनकी परम सुन्दरी स्त्री की तारीफ करते हुए कहते — ओहो कितनी अनुपम रूपराशि है, कितना अलौकिक सौन्दर्य है, तब वर्माजी मारे खुशी और गर्व के फूल उठते थे।संध्या का समय था। मोटर तैयार खड़ी थी। वर्माजी सैर करने जा रहे थे, किन्तु प्रभा जाने को उत्सुक नहीं मालूम होती थी। वह एक कुर्सी पर बैठी हुई कोई उपन्यास पढ़ रही थी।वर्मा जी ने कहा — तुम तो अभी तक बैठी पढ़ रही हो।‘मेरा तो इस समय जाने को जी नहीं चाहता।’‘नहीं प्रिये, इस समय तुम्हारा न चलना सितम हो जाएगा। मैं चाहता हूँ कि तुम्हारी इस मधुर छवि को घर से बाहर भी तो लोग देखें।’‘जी नहीं, मुझे यह लालसा नहीं है। मेरे रूप की शोभा केवल तुम्हारे लिए है और तुम्हीं को दिखाना चाहती हूँ।’‘नहीं, मैं इतना स्वार्थान्ध नहीं हूँ। जब तुम सैर करने निकलो, मैं लोगों से यह सुनना चाहता हूँ कि कितनी मनोहर छवि है पशुपति कितना भाग्यशाली पुरुष है’‘तुम चाहो, मैं नहीं चाहती। तो इसी बात पर आज मैं कहीं नहीं जाऊँगी। तुम भी मत जाओ, हम दोनों अपने ही बाग में टहलेंगे। तुम हौज के किनारे हरी घास पर लेट जाना, मैं तुम्हें वीणा बजाकर सुनाऊंगी। तुम्हारे लिए फूलों का हार बनाऊँगी, चांदनी में तुम्हारे साथ आंखमिचौनी खेलूंगी।’‘नहींनहीं, प्रभा, आज हमें अवश्य चलना पड़ेगा। तुम कृष्णा से आज मिलने का वादा कर आई हो। वह बैठी हमारा रास्ता देख रही होगी। हमारे न जाने से उसे कितना दु:ख होगा’हाय वही कृष्णा बारबार वही कृष्णा पति के मुख से नित्य यह नाम चिनगारी की भांति उड़कर प्रभा को जलाकर भस्म् कर देता था।प्रभा को अब मालूम हुआ कि आज ये बाहर जाने के लिए क्यों इतने उत्सुक हैं इसीलिए आज इन्होंने मुझसे केशों को संवारने के लिए इतना आग्रह किया था। वह सारी तैयारी उसी कुलटा कृष्णा से मिलने के लिए थीउसने दृढ़ स्वर में कहा—तुम्हें जाना हो जाओ, मैं न जाऊँगी।वर्माजी ने कहा—अच्छी बात है, मैं ही चला जाऊँगा।

  • 19: जयशंकर प्रसाद की लिखी कहानी करुणा की विजय, Karuna Ki Vijay - Story Written By Jaishankar Prasad
    4 min 59 sec

    सन्ध्या की दीनता गोधूली के साथ दरिद्र मोहन की रिक्त थाली में धूल भर रही है। नगरोपकण्ठ में एक कुएँ के समीप बैठा हुआ अपनी छोटी बहन को वह समझा रहा है। फटे हुए कुरते की कोर से उसके अश्रु पोंछने में वह सफल नहीं हो रहा था, क्योंकि कपड़े के सूत से अश्रु विशेष थे। थोड़ासा चना, जो उसके पात्र में बेचने का बचा था, उसी को रामकली माँगती थी। तीन वर्ष की रामकली को तेरह वर्ष का मोहन सँभालने में असमर्थ था।ढाई पैसे का वह बेच चुका है। अभी दोतीन पैसे का चना जो जल और मिर्चे में उबाला हुआ था, और बचा है। मोहन चाहता था कि चार पैसे उसके रोकड़ में और बचे रहें, डेढ़दो पैसे का कुछ लेकर अपना और रामकली का पेट भर लेगा। चार पैसे से सबेरे चने उबाल कर फिर अपनी दूकान लगा लेगा। किन्तु विधाता को यह नहीं स्वीकार था। जब से उसके मातापिता मरे, साल भर से वह इसी तरह अपना जीवन निर्वाह करता था। किसी सम्बन्धी या सज्जन की दृष्टि उसकी ओर न पड़ी। मोहन अभिमानी था। वह धुन का भी पक्का था। किन्तु आज वह विचलित हुआ। रामकली की कौन कहे, वह भी भूख की ज्वाला सहन न कर सका। अपने अदृष्ट के सामने हार मानकर रामकली को उसने खिलाया। बचा हुआ जो था, उसने मोहन के पेट की गरमी और बढ़ा दी। ढाई पैसे का और भी कुछ लाकर अपनी भूख मिटायी। दोनों कुएँ की जगत् पर सो गये।

  • 21: प्रेमचंद की कहानी "राजहठ" Premchand Story "Rajhath"
    19 min 47 sec

    दशहरे के दिन थे, अचलगढ़ में उत्सव की तैयारियॉँ हो रही थीं। दरबारे आम में राज्य के मंत्रियों के स्थान पर अप्सराऍं शोभायमान थीं। धर्मशालों और सरायों में घोड़े हिनहिना रहे थे। रियासत के नौकर, क्या छोटे, क्या बड़े, रसद पहुँचाने के बहाने से दरबाजे आम में जमे रहते थे। किसी तरह हटाये न हटते थे। दरबारे खास में पंडित और पुजारी और महन्त लोग आसन जमाए पाठ करते हुए नजर आते थे। वहॉँ किसी राज्य के कर्मचारी की शकल न दिखायी देती थी। घी और पूजा की सामग्री न होने के कारण सुबह की पूजा शाम को होती थी। रसद न मिलने की वजह से पंडित लोग हवन के घी और मेवों के भोग के अग्निकुंड में डालते थे। दरबारे आम में अंग्रेजी प्रबन्ध था और दरबारे खास में राज्य का। राजा देवमल बड़े हौसलेमन्द रईस थे। इस वार्षिक आनन्दोत्सव में वह जी खोलकर रुपया खर्च करते। जिन दिनों अकाल पड़ा, राज्य के आधे आदमी भूखों तड़पकर मर गए। बुखार, हैजा और प्लेग में हजारों आदमी हर साल मृत्यु का ग्रास बन जाते थे। राजय निर्धन था इसलिए न वहॉँ पाठशालाऍं थीं, न चिकित्सालय, न सड़कें। बरसात में रनिवास दलदल हो जाता और अँधेरी रातों में सरेशाम से घरों के दरवाजे बन्द हो जाते। अँधेरी सड़कों पर चलना जान जोखिम था। यह सब और इनसे भी ज्यादा कष्टप्रद बातें स्वीकार थीं मगर यह कठिन था, असम्भव था कि दुर्गा देवी का वार्षिक आनन्दोत्सव न हो। इससे राज्य की शान बट्टा लगने का भय था। राज्य मिट जाए, महलों की ईटें बिक जाऍं मगर यह उत्सव जरुर हो। आस पास के राजेरईस आमंत्रित होते, उनके शामियानों से मीलों तक संगमरमर का एक शहर बस जाता, हफ्तों तक खूब चहलपहल धूमधाम रहती। इसी की बदौलत अचलगढ़ का नाम अटलगढ़ हो गया था।

  • 20: जयशंकर प्रसाद की लिखी कहानी खंडहर की लिपि, Khandahar Ki Lipi - Story Written By Jaishankar Prasad
    4 min 52 sec

    जब बसन्त की पहली लहर अपना पीला रंग सीमा के खेतों पर चढ़ा लायी, काली कोयल ने उसे बरजना आरम्भ किया और भौंरे गुनगुना कर कानाफूँसी करने लगे, उसी समय एक समाधि के पास लगे हुए गुलाब ने मुँह खोलने का उपक्रम किया। किन्तु किसी युवक के चञ्चल हाथ ने उसका हौसला भी तोड़ दिया। दक्षिण पवन ने उससे कुछ झटक लेना चाहा, बिचारे की पंखुडिय़ाँ झड़ गयीं। युवक ने इधरउधर देखा। एक उदासी और अभिलाषामयी शून्यता ने उसकी प्रत्याशी दृष्टि को कुछ उत्तर न दिया। बसन्तपवन का एक भारी झोंका ‘हाहा’ करता उसकी हँसी उड़ाता चला गया।सटी हुई टेकरी की टूटीफूटी सीढ़ी पर युवक चढऩे लगा। पचास सीढिय़ाँ चढऩे के बाद वह बगल की बहुत पुरानी दालान में विश्राम लेने के लिए ठहर गया। ऊपर जो जीर्ण मन्दिर था, उसका ध्वंसावशेष देखने को वह बारबार जाता था। उस भग्न स्तूप से युवक को आमन्त्रित करती हुई ‘आओ आओ’ की अपरिस्फुट पुकार बुलाया करती। जाने कब के अतीत ने उसे स्मरण कर रक्खा है। मण्डप के भग्न कोण में एक पत्थर के ऊपर न जाने कौनसी लिपि थी, जो किसी कोरदार पत्थर में लिखी गयी थी। वह नागरी तो कदापि नहीं थी। युवक ने आज फिर उसी ओर देखतेदेखते उसे पढऩा चाहा। बहुत देर तक घूमताघूमता वह थक गया था, इससे उसे निद्रा आने लगी। वह स्वप्न देखने लगा।कमलों का कमनीय विकास झील की शोभा को द्विगुणित कर रहा है। उसके आमोद के साथ वीणा की झनकार, झील के स्पर्श के शीतल और सुरभित पवन में भर रही थी। सुदूर प्रतीचि में एक सहस्रदल स्वर्णकमल अपनी शेष स्वर्णकिरण की भी मृणाल पर व्योमनिधि में खिल रहा है। वह लज्जित होना चाहता है। वीणा के तारों पर उसकी अन्तिम आभा की चमक पड़ रही है। एक आनन्दपूर्ण विषाद से युवक अपनी चञ्चल अँगुलियों को नचा रहा है। एक दासी स्वर्णपात्र में केसर, अगुरु, चन्दनमिश्रित अंगराग और नवमल्लिका की माला, कई ताम्बूल लिये हुए आयी, प्रणाम करके उसने कहा‘‘महाश्रेष्ठि धनमित्र की कन्या ने श्रीमान् के लिए उपहार भेजकर प्रार्थना की है कि आज के उद्यान गोष्ठ में आप अवश्य पधारने की कृपा करें। आनन्द विहार के समीप उपवन में आपकी प्रतीक्षा करती हुई कामिनी देवी बहुत देर तक रहेंगी।’’

  • 22: प्रेमचंद की कहानी "प्रतिशोध" Premchand Story "Pratishodh"
    26 min 31 sec

    माया अपने तिमंजिले मकान की छत पर खड़ी सड़क की ओर उद्विग्न और अधीर आंखों से ताक रही थी और सोच रही थी, वह अब तक आये क्यों नहीं कहां देर लगायी इसी गाड़ी से आने को लिखा था। गाड़ी तो आ गयी होगी, स्टेशन से मुसाफिर चले आ रहे हैं। इस वक्त तो कोई दूसरी गाड़ी नहीं आती। शायद असबाब वगैरह रखने में देर हुई, यारदोस्त स्टेशन पर बधाई देने के लिए पहुँच गये हों, उनसे फुर्सत मिलेगी, तब घर की सुध आयेगी उनकी जगह मैं होती तो सीधे घर आती। दोस्तों से कह देती , जनाब, इस वक्त मुझे माफ़ कीजिए, फिर मिलिएगा। मगर दोस्तों में तो उनकी जान बसती है मिस्टर व्यास लखनऊ के नौजवान मगर अत्यंत प्रतिष्ठित बैरिस्टरों में हैं। तीन महीने से वह एक राजीतिक मुकदमें की पैरवी करने के लिए सरकार की ओर से लाहौर गए हुए हें। उन्होंने माया को लिखा था—जीत हो गयी। पहली तारीख को मैं शाम की मेल में जरूर पहुंचूंगा। आज वही शाम है। माया ने आज सारा दिन तैयारियों में बिताया। सारा मकान धुलवाया। कमरों की सजावट के सामान साफ करायें, मोटर धुलवायी। ये तीन महीने उसने तपस्या के काटे थे। मगर अब तक मिस्टर व्यास नहीं आये। उसकी छोटी बच्ची तिलोत्तमा आकर उसके पैरों में चिमट गयी और बोली—अम्मां, बाबूजी कब आयेंगे माया ने उसे गोद में उठा लिया और चूमकर बोली—आते ही होंगे बेटी, गाड़ी तो कब की आ गयी।तिलोत्तमा—मेरे लिए अच्छी गुड़ियां लाते होंगे।माया ने कुछ जवाब न दिया। इन्तजार अब गुस्से में बदलता जाता था। वह सोच रही थी, जिस तरह मुझे हजरत परेशान कर रहे हैं, उसी तरह मैं भी उनको परेशान करूँगी। घण्टेभर तक बोलूंगी ही नहीं। आकर स्टेशन पर बैठे हुए है जलाने में उन्हें मजा आता है । यह उनकी पुरानी आदत है। दिल को क्या करूँ। नहीं, जी तो यही चाहता है कि जैसे वह मुझसे बेरुखी दिखलाते है, उसी तरह मैं भी उनकी बात न पूछूँ।यकायक एक नौकर ने ऊपर आकर कहा—बहू जी, लाहौर से यह तार आया है।माया अन्दरहीअन्दर जल उठी। उसे ऐसा मालूम हुआ कि जैसे बड़े जोर की हरारत हो गयी हो। बरबस खयाल आया—सिवाय इसके और क्या लिखा होगा कि इस गाड़ी से न आ सकूंगा। तार दे देना कौन मुश्किल है। मैं भी क्यों न तार दे दूं कि मै एक महीने के लिए मैके जा रही हूँ। नौकर से कहा—तार ले जाकर कमरे में मेज पर रख दो। मगर फिर कुछ सोचकर उसने लिफाफा ले लिया और खोला ही था कि कागज़ हाथ से छूटकर गिर पड़ा। लिखा था—मिस्टर व्यास को आज दस बजे रात किसी बदमाश ने कत्ल कर दिया।

  • 19: प्रेमचंद की कहानी "आल्हा" Premchand Story "Aalha"
    29 min 34 sec

    आल्हा का नाम किसने नहीं सुना। पुराने जमाने के चन्देल राजपूतों में वीरता और जान पर खेलकर स्वामी की सेवा करने के लिए किसी राजा महाराजा को भी यह अमर कीर्ति नहीं मिली। राजपूतों के नैतिक नियमों में केवल वीरता ही नहीं थी बल्कि अपने स्वामी और अपने राजा के लिए जान देना भी उसका एक अंग था। आल्हा और ऊदल की जिन्दगी इसकी सबसे अच्छी मिसाल है। सच्चा राजपूत क्या होता था और उसे क्या होना चाहिये इसे लिस खूबसूरती से इन दोनों भाइयों ने दिखा दिया है, उसकी मिसाल हिन्दोस्तान के किसी दूसरे हिस्से में मुश्किल से मिल सकेगी। आल्हा और ऊदल के मार्के और उसको कारनामे एक चन्देली कवि ने शायद उन्हीं के जमाने में गाये, और उसको इस सूबे में जो लोकप्रियता प्राप्त है वह शायद रामायण को भी न हो। यह कविता आल्हा ही के नाम से प्रसिद्ध है और आठनौ शताब्दियॉँ गुजर जाने के बावजूद उसकी दिलचस्पी और सर्वप्रियता में अन्तर नहीं आया। आल्हा गाने का इस प्रदेश मे बड़ा रिवाज है। देहात में लोग हजारों की संख्या में आल्हा सुनने के लिए जमा होते हैं। शहरों में भी कभीकभी यह मण्डलियॉँ दिखाई दे जाती हैं। बड़े लोगों की अपेक्षा सर्वसाधारण में यह किस्सा अधिक लोकप्रिय है। किसी मजलिस में जाइए हजारों आदमी जमीन के फर्श पर बैठे हुए हैं, सारी महाफिल जैसे बेसुध हो रही है और आल्हा गाने वाला किसी मोढ़े पर बैठा हुआ आपनी अलाप सुना रहा है। उसकी आवज आवश्यकतानुसार कभी ऊँची हो जाती है और कभी मद्धिम, मगर जब वह किसी लड़ाई और उसकी तैयारियों का जिक्र करने लगता है तो शब्दों का प्रवाह, उसके हाथों और भावों के इशारे, ढोल की मर्दाना लय उन पर वीरतापूर्ण शब्दों का चुस्ती से बैठना, जो जड़ाई की कविताओं ही की अपनी एक विशेषता है, यह सब चीजें मिलकर सुनने वालों के दिलों में मर्दाना जोश की एक उमंग सी पैदा कर देती हैं। बयान करने का तर्ज ऐसा सादा और दिलचस्प और जबान ऐसी आमफहम है कि उसके समझने में जरा भी दिक्कत नहीं होती। वर्णन और भावों की सादगी, कला के सौंदर्य का प्राण है।राजा परमालदेव चन्देल खानदान का आखिरी राजा था। तेरहवीं शताब्दी के आरम्भ में वह खानदान समाप्त हो गया। महोबा जो एक मामूली कस्बा है उस जमाने में चन्देलों की राजधानी था। महोबा की सल्तनत दिल्ली और कन्नौज से आंखें मिलाती थी। आल्हा और ऊदल इसी राजा परमालदेव के दरबार के सम्मनित सदस्य थे। यह दोनों भाई अभी बच्चे ही थे कि उनका बाप जसराज एक लड़ाई में मारा गया। राजा को अनाथों पर तरस आया, उन्हें राजमहल में ले आये और मोहब्बत के साथ अपनी रानी मलिनहा के सुपुर्द कर दिया। रानी ने उन दोनों भाइयों की परवरिश और लालनपालन अपने लड़के की तरह किया। जवान होकर यही दोनों भाई बहादुरी में सारी दुनिया में मशहूर हुए। इन्हीं दिलावरों के कारनामों ने महोबे का नाम रोशन कर दिया है।

  • 21: जयशंकर प्रसाद की लिखी कहानी चक्रवर्ती का स्तंभ, Chakrawarti Ka Stambh - Story Written By Jaishankar Prasad
    4 min 50 sec

    ‘‘बाबा यह कैसे बना इसको किसने बनाया इस पर क्या लिखा है’’ सरला ने कई सवाल किये। बूढ़ा धर्मरक्षित, भेड़ों के झुण्ड को चरते हुए देख रहा था। हरी टेकरी झारल के किनारे सन्ध्या के आपत की चादर ओढ़ कर नया रंग बदल रही थी। भेड़ों की मण्डली उस पर धीरेधीरे चरती हुई उतरनेचढऩे में कई रेखा बना रही थी।अब की ध्यान आकर्षित करने के लिए सरला ने धर्मरक्षित का हाथ खींचकर उस स्तम्भ को दिखलाया। धर्मरक्षित ने निश्वास लेकर कहा‘‘बेटी, महाराज चक्रवर्ती अशोक ने इसे कब बनाया था। इस पर शील और धर्म की आज्ञा खुदी है। चक्रवर्ती देवप्रिय ने यह नहीं विचार किया कि ये आज्ञाएँ बकबक मानी जायँगी। धर्मोन्मत्त लोगों ने इस स्थान को ध्वस्त कर डाला। अब विहार में डर से कोईकोई भिक्षुक भी कभी दिखाई पड़ता है।’’वृद्ध यह कहकर उद्विग्न होकर कृष्ण सन्ध्या का आगमन देखने लगा। सरला उसी के बगल में बैठ गयी। स्तम्भ के ऊपर बैठा हुआ आज्ञा का रक्षक सिंह धीरेधीरे अन्धकार में विलीन हो गया।थोड़ी देर में एक धर्मशील कुटुम्ब उसी स्थान पर आया। जीर्ण स्तूप पर देखतेदेखते दीपावली हो गयी। गन्धकुसुम से वह स्तूप अर्चित हुआ। अगुरु की गन्ध, कुसुमसौरभ तथा दीपमाला से वह जीर्ण स्थान एक बार आलोकपूर्ण हो गया। सरला का मन उस दृश्य से पुलकित हो उठा। वह बारबार वृद्ध को दिखाने लगी, धार्मिक वृद्ध की आँखों में उस भक्तिमयी अर्चना से जलबिन्दु दिखाई देने लगे। उपासकों में मिलकर धर्मरक्षित और सरला ने भी भरे हुए हृदय से उस स्तूप को भगवान् के उद्देश्य से नमस्कार किया। टापों के शब्द वहाँ से सुनाई पड़ रहे हैं। समस्त भक्ति के स्थान पर भय ने अधिकार कर लिया। सब चकित होकर देखने लगे। उल्काधारी अश्वारोही और हाथों में नंगी तलवार आकाश के तारों ने भी भय से मुँह छिपा लिया। मेघमण्डली रोरो कर मना करने लगी, किन्तु निष्ठुर सैनिकों ने कुछ न सुना। तोड़ताड़, लूटपाट करके सब पुजारियों को, ‘बुतपरस्तों’ को बाँध कर उनके धर्मविरोध का दण्ड देने के लिए ले चले। सरला भी उन्हीं में थी।धर्मरक्षित ने कहा‘‘सैनिकों, तुम्हारा भी कोई धर्म है’’एक ने कहा‘‘सर्वोत्तम इस्लाम धर्म।’’धर्मरक्षित‘‘क्या उसमें दया की आज्ञा नहीं है’’ उत्तर न मिला।धर्मरक्षित‘‘क्या जिस धर्म में दया नहीं है, उसे भी तुम धर्म कहोगे’’एक दूसरा‘‘है क्यों नहीं दया करना हमारे धर्म में भी है। पैगम्बर का हुक्म है, तुम बूढ़े हो, तुम पर दया की जा सकती है। छोड़ दो जी, उसको।’’ बूढ़ा छोड़ दिया गया।धर्मरक्षित‘‘मुझे चाहे बाँध लो, किन्तु इन सबों को छोड़ दो। वह भी सम्राट् था, जिसने इस स्तम्भ पर समस्त जीवों के प्रति दया करने की आज्ञा खुदवा दी है। क्या तुम भी देश विजय करके सम्राट् हुआ चाहते हो तब दया क्यों नहीं करते’’एक बोल उठा‘‘क्या पागल बूढ़े से बकबक कर रहे हो कोई ऐसी फ़िक्र करो कि यह किसी बुत की परस्तिश का ऊँचा मीनार तोड़ा जाय।’’सरला ने कहा‘‘बाबा, हमको यह सब लिये जा रहे हैं।’’धर्मरक्षित‘‘बेटी, असहाय हूँ, वृद्ध बाँहों में बल भी नहीं है, भगवान् की करुणा का स्मरण कर। उन्होंने स्वयं कहा है कि‘‘संयोग: विप्रयोगन्ता:।’’निष्ठुर लोग हिंसा के लिए परिक्रमण करने लगे। किन्तु पत्थरों में चिल्लाने की शक्ति नहीं है कि उसे सुनकर वे क्रूर आत्माएँ तुष्ट हों। उन्हें नीरव रोने में भी असमर्थ देखकर मेघ बरसने लगे। चपला चमकने लगी। भीषण गर्जन होने लगा। छिपने के लिए वे निष्ठुर भी स्थान खोजने लगे। अकस्मात् एक भीषण गर्जन और तीव्र आलोक, साथ ही धमाका हुआ।चक्रवर्ती का स्तम्भ अपने सामने यह दृश्य न देख सका। अशनिपात से खण्डखण्ड होकर गिर पड़ा। कोई किसी का बन्दी न रहा।

  • प्रेमचंद की कहानी "इज़्ज़त का ख़ून" Premchand Story "Izzat Ka Khoon"
    23 min 18 sec

    मैंने कहानियों और इतिहासो मे तकदीर के उलट फेर की अजीबो गरीब दास्ताने पढी हैं । शाह को भिखमंगा और भिखमंगें को शाह बनते देखा है तकदीर एक छिपा हुआ भेद हैं । गालियों में टुकड़े चुनती हुई औरते सोने के सिंहासन पर बैठ गई और वह ऐश्वर्य के मतवाले जिनके इशारे पर तकदीर भी सिर झुकाती थी ,आन की शान में चील कौओं का शिकार बन गये है।पर मेरे सर पर जो कुछ बीती उसकी नजीर कहीं नहीं मिलती आह उन घटानाओं को आज याद करतीहूं तो रोगटे खड़े हो जाते है ।और हैरत होती है । कि अब तक मै क्यो और क्योंकर जिन्दा हूँ । सौन्दर्य लालसाओं का स्त्रोत हैं । मेरे दिल में क्या लालसाएं न थीं पर आह ,निष्ठूर भाग्य के हाथों में मिटीं । मै क्या जानती थी कि वह आदमी जो मेरी एकएक अदा पर कुर्बान होता था एक दिन मुझे इस तरह जलील और बर्बाद करेगा ।                आज तीन साल हुए जब मैने इस घर में कदम रक्खा उस वक्त यह एक हरा भरा चमन था ।मै इस चमन की बुलबूल थी , हवा में उड़ती थीख् डालियों पर चहकती थी , फूलों पर सोती थी । सईद मेरा था। मै सईद की थी । इस संगमरमर के हौज के किनारे हम मुहब्बत के पासे खेलते थे । तुम मेरी जान हो। मै उनसे कहती थी –तुम मेरे दिलदार हो । हमारी जायदाद लम्बी चौड़ी थी। जमाने की कोई फ्रिक,जिन्दगी का कोई गम न था । हमारे लिए जिन्दगी सशरीर आनन्द एक अनन्त चाह और बहार का तिलिस्म थी, जिसमें मुरादे खिलती थी । और ाखुशियॉँ हंसती थी जमाना हमारी इच्छाओं पर चलने वाला था। आसमान हमारी भलाई चाहता था। और तकदीर हमारी साथी थी।     एक दिन सईद ने आकर कहा मेरी जान , मै तुमसे एक विनती करने आया हूँ । देखना इन मुस्कराते हुए होठों पर इनकार का हर्फ न आये । मै चाहता हूँ कि अपनी सारी मिलकियत, सारी जायदाद तुम्हारे नाम चढ़वा दूँ मेरे लिए तुम्हारी मुहब्बत काफी है। यही मेरे लिए सबसे बड़ी नेमत है मै अपनी हकीकत को मिटा देना चाहता हूँ । चाहता हूँ कि तुम्हारे दरवाजे का फकीर बन करके रहूँ । तुम मेरी नूरजहॉँ बन जाओं मैं तुम्हारा सलीम बनूंगा , और तुम्हारी मूंगे जैसी हथेली के प्यालों पर उम्र बसर करुंगा।मेरी आंखें भर आयी। खुशिंयां चोटी पर पहुँचकर आंसु की बूंद बन गयीं।पर अभी पूरा साल भी न गुजरा था कि मुझे सईद के मिजाज में कुछ तबदीली नजर आने लगी । हमारे दरमियान कोई लड़ाईझगड़ा या बदमजगी न हुई थी मगर अब वह सईद न था। जिसे एक लमहे के लिए भी मेरी जुदाई दूभर थी वह अब रात की रात गयाब रहता ।उसकी आंखो में प्रेम की वह उंमग न थी न अन्दाजों में वह प्यास ,न मिजाज में वह गर्मी।कुछ दिनों तक इस रुखेपन ने मुझे खूब रुलाया। मुहब्बत के मजे याद आ आकर तड़पा देते । मैने पढ़ा था कि प्रेम अमर होता है ।क्या, वह स्त्रोत इतनी जल्दी सूख गया आह, नहीं वह अब किसी दूसरे चमन को शादाब करता था। आखिर मै भी सईद से आंखे चूराने लगी । बेदिली से नहीं, सिर्फ इसलिए कि अब मुझे उससे आंखे मिलाने की ताव न थी। उसे देखते ही महुब्बत के हजारों करिश्मे नजरो के सामने आ जाते और आंखे भर आती । मेरा दिल अब भी उसकी तरफ खिचंता था कभी – कभी बेअख्तियार जी चाहता कि उसके पैरों पर गिरुं और कहूं –मेरे दिलदार , यह बेरहमी क्यो क्या तुमने मुझसे मुंह फेर लिया है । मुझसे क्या खता हुई लेकिन इस स्वाभिमान का बुरा हो जो दीवार बनकर रास्ते में खड़ा हो जाता ।यहां तक कि धीरधीरे दिल में भी मुहब्बत की जगह हसद ने ले ली। निराशा के धैर्य ने दिल को तसकीन दी । मेरे लिए सईद अब बीते हुए बसन्त का एक भूला हुआ गीत था। दिल की गर्मी ठण्डी हो गयी । प्रेम का दीपक बुझ गया। यही नही, उसकी इज्जत भी मेरे दिल से रुखसत हो गयी। जिस आदमी के प्रेम के पवित्र मन्दिर मे मैल भरा हुंआ होवह हरगिज इस योग्य नही कि मै उसके लिए घुलूं और मरुं ।एक रोज शाम के वक्त मैं अपने कमरे में पंलग पर पड़ी एक किस्सा पढ़ रही थी , तभी अचानक एक सुन्दर स्त्री मेरे कमरे मे आयी। ऐसा मालूम हूआ कि जैसे कमरा जगमगा उठा ।रुप की ज्योति ने दरो दीवार को रोशान कर दिया। गोया अभी सफेदी हुईहैं उसकी अलंकृत शोभा, उसका खिला हुआ फूला जैसा लुभावना चेहरा उसकी नशीली मिठास, किसी तारीफ करुं मुझ पर एक रोब सा छा गया । मेरा रुप का घमंड धूल में मिल गया है। मै आश्चर्य में थी कि यह कौन रमणी है और यहां क्योंकर आयी। बेअख्तियार उठी कि उससे मिलूं और पूछूं कि सईद भी मुस्कराता हुआ कमरे में आया मैं समझ गयी कि यह रमणी उसकी प्रेमिका है। मेरा गर्व जाग उठा । मैं उठी जरुर पर शान से गर्दन उठाए हुए आंखों में हुस्न के रौब की जगह घृणा का भाव आ बैठा । मेरी आंखों में अब वह रमणी रुप की देवी नहीं डसने वाली नागिन थी।मै फिर चारपाई पर बैठगई और किताब खोलकर सामने रख ली वह रमणी एक क्षण तक खड़ी मेरी तस्वीरों को देखती रही तब कमरे से निकली चलते वक्त उसने एक बार मेरी त

  • 22: जयशंकर प्रसाद की लिखी कहानी दुखिया, Dukhiya - Story Written By Jaishankar Prasad
    6 min 40 sec

    पहाड़ी देहात, जंगल के किनारे के गाँव और बरसात का समय वह भी ऊषाकाल बड़ा ही मनोरम दृश्य था। रात की वर्षा से आम के वृक्ष तराबोर थे। अभी पत्तों से पानी ढुलक रहा था। प्रभात के स्पष्ट होने पर भी धुँधले प्रकाश में सड़क के किनारे आम्रवृक्ष के नीचे बालिका कुछ देख रही थी। ‘टप’ से शब्द हुआ, बालिका उछल पड़ी, गिरा हुआ आम उठाकर अञ्चल में रख लिया। जो पाकेट की तरह खोंस कर बना हुआ था।दक्षिण पवन ने अनजान में फल से लदी हुई डालियों से अठखेलियाँ कीं। उसका सञ्चित धन अस्तव्यस्त हो गया। दोचार गिर पड़े। बालिका ऊषा की किरणों के समान ही खिल पड़ी। उसका अञ्चल भर उठा। फिर भी आशा में खड़ी रही। व्यर्थ प्रयास जान कर लौटी, और अपनी झोंपड़ी की ओर चल पड़ी। फूस की झोंपड़ी में बैठा हुआ उसका अन्धा बूढ़ा बाप अपनी फूटी हुई चिलम सुलगा रहा था। दुखिया ने आते ही आँचल से सात आमों में से पाँच निकाल कर बाप के हाथ में रख दिये। और स्वयं बरतन माँजने के लिए ‘डबरे’ की ओर चल पड़ी।बरतनों का विवरण सुनिए, एक फूटी बटुली, एक लोंहदी और लोटा, यही उस दीन परिवार का उपकरण था। डबरे के किनारे छोटीसी शिला पर अपने फटे हुए वस्त्र सँभाले हुए बैठकर दुखिया ने बरतन मलना आरम्भ किया।अपने पीसे हुए बाजरे के आटे की रोटी पकाकर दुखिया ने बूढ़े बाप को खिलाया और स्वयं बचा हुआ खापीकर पास ही के महुए के वृक्ष की फैली जड़ों पर सिर रख कर लेट रही। कुछ गुनगुनाने लगी। दुपहरी ढल गयी। अब दुखिया उठी और खुरपीजाला लेकर घास छीलने चली। ज़मींदार के घोड़े के लिए घास वह रोज दे आती थी, कठिन परिश्रम से उसने अपने काम भर घास कर लिया, फिर उसे डबरे में रख कर धोने लगी।सूर्य की सुनहली किरणें बरसाती आकाश पर नवीन चित्रकार की तरह कई प्रकार के रंग लगाना सीखने लगीं। अमराई और ताड़वृक्षों की छाया उस शाद्वल जल में पड़कर प्राकृतिक चित्र का सृजन करने लगी। दुखिया को विलम्ब हुआ, किन्तु अभी उसकी घास धो नहीं गयी, उसे जैसे इसकी कुछ परवाह न थी। इसी समय घोड़े की टापों के शब्द ने उसकी एकाग्रता को भंग किया।ज़मींदार कुमार सन्ध्या को हवा खाने के लिए निकले थे। वेगवान ‘बालोतरा’ जाति का कुम्मेद पचकल्यान आज गरम हो गया था। मोहनसिंह से बेकाबू होकर वह बगटूट भाग रहा था। संयोग जहाँ पर दुखिया बैठी थी, उसी के समीप ठोकर लेकर घोड़ा गिरा। मोहनसिंह भी बुरी तरह घायल होकर गिरे। दुखिया ने मोहनसिंह की सहायता की। डबरे से जल लाकर घावों को धोने लगी। मोहन ने पट्टी बाँधी, घोड़ा भी उठकर शान्त खड़ा हुआ। दुखिया जो उसे टहलाने लगी थी। मोहन ने कृतज्ञता की दृष्टि से दुखिया को देखा, वह एक सुशिक्षित युवक था। उसने दरिद्र दुखिया को उसकी सहायता के बदले ही रुपया देना चाहा। दुखिया ने हाथ जोड़कर कहा‘‘बाबू जी , हम तो आप ही के ग़ुलाम हैं। इसी घोड़े को घास देने से हमारी रोटी चलती है।’’अब मोहन ने दुखिया को पहिचाना। उसने पूछा‘‘क्या तुम रामगुलाम की लडक़ी हो’’‘‘हाँ, बाबूजी।’’‘‘वह बहुत दिनों से दिखता नहीं’’‘‘बाबू जी, उनकी आँखों से दिखाई नहीं पड़ता।’’‘‘अहा, हमारे लड़कपन में वह हमारे घोड़े को, जब हम उस पर बैठते थे, पकड़कर टहलाता था। वह कहाँ है’’‘‘अपनी मड़ई में।’’‘‘चलो, हम वहाँ तक चलेंगे।’’किशोरी दुखिया को कौन जाने क्यों संकोच हुआ, उसने कहा‘‘बाबूजी, घास पहुँचाने में देर हुई है। सरकार बिगड़ेंगे।’’‘‘कुछ चिन्ता नहीं तुम चलो।’’लाचार होकर दुखिया घास का बोझा सिर पर रखे हुए झोंपड़ी की ओर चल पड़ी। घोड़े पर मोहन पीछेपीछे था।‘‘रामगुलाम, तुम अच्छे तो हो’’‘‘राज सरकार जुगजुग जीओ बाबू’’ बूढ़े ने बिना देखे अपनी टूटी चारपाई से उठते हुए दोनों हाथ अपने सिर तक ले जाकर कहा।‘‘रामगुलाम, तुमने पहचान लिया’’‘‘न कैसे पहचानें, सरकार यह देह पली है।’’ उसने कहा।‘‘तुमको कुछ पेन्शन मिलती है कि नहीं’’‘‘आप ही का दिया खाते हैं, बाबूजी। अभी लडक़ी हमारी जगह पर घास देती है।’’भावुक नवयुवक ने फिर प्रश्न किया, ‘‘क्यों रामगुलाम, जब इसका विवाह हो जायेगा, तब कौन घास देगा’’रामगुलाम के आनन्दाश्रु दु:ख की नदी होकर बहने लगे। बड़े कष्ट से उसने कहा‘‘क्या हम सदा जीते रहेंगे’’अब मोहन से नहीं रहा गया, वहीं दो रुपये उस बुड्ढे को देकर चलते बने। जातेजाते कहा‘‘फिर कभी।’’दुखिया को भी घास लेकर वहीं जाना था। वह पीछे चली।ज़मींदार की पशुशाला थी। हाथी, ऊँट, घोड़ा, बुलबुल, भैंसा, गाय, बकरे, बैल, लाल, किसी की कमी नहीं थी। एक दुष्ट नजीब खाँ इन सबों का निरीक्षक था। दुखिया को देर से आते देखकर उसे अवसर मिला। बड़ी नीचता से उसने कहा‘‘मारे जवानी के तेरा मिज़ाज ही नहीं मिलता कल से तेरी नौकरी बन्द कर दी जायगी। इतनी देर’’दुखिया कुछ नहीं बोलती, किन्तु उसको अपने बूढ़े बाप की याद आ गयी। उ

  • 29: प्रेमचंद की कहानी "आख़िरी तोहफ़ा" Premchand Story "Aakhiri Tohfa"
    29 min 24 sec

    सारे शहर में सिर्फ एक ऐसी दुकान थी, जहॉँ विलायती रेशमी साड़ी मिल सकती थीं।और सभी दुकानदारों ने विलायती कपड़े पर कांग्रेस की मुहर लगवायी थी। मगर अमरनाथ की प्रेमिका की फ़रमाइश थी, उसको पूरा करना जरुरी था। वह कई दिन तक शहर की दुकानोंका चक्कर लगाते रहे, दुगुना दाम देने पर तैयार थे, लेकिन कहीं सफलमनोरथ न हुए और उसके तक़ाजे बराबर बढ़ते जाते थे। होली आ रही थी। आख़िर वह होली के दिन कौनसी साड़ी पहनेगी। उसके सामने अपनी मजबूरी को जाहिर करना अमरनाथ के पुरुषोचित अभिमान के लिए कठिन था। उसके इशारे से वह आसमान के तारे तोड़ लाने के लिए भी तत्पर हो जाते।आख़िर जब कहीं मक़सद पूरा न हुआ, तो उन्होंने उसी खास दुकान पर जाने का इरादा कर लिया। उन्हें यह मालूम था कि दुकान पर धरना दिया जा रहा है। सुबह से शाम तक स्वयंसेवक तैनात रहते हैं और तमाशाइयों की भी हरदम खासी भीड़ रहती है। इसलिए उस दुकान में जाने के लिए एक विशेष प्रकार के नैतिक साहस की जरुरत थी और यह साहस अमरनाथ में जरुरत से कम था। पड़ेलिखे आदमी थे, राष्ट्रीय भावनाओं से भी अपरिचित न थे, यथाशक्ति स्वदेशी चीजें ही इस्तेमाल करते थे। मगर इस मामले में बहुत कट्टर न थे। स्वदेशी मिल जाय तो बेहतर वर्ना विदेशी ही सही इस उसूल के मानने वाले थे। और खासकर जब उसकी फरमाइश थी तब तो कोई बचाव की सूरत ही न थी। अपनी जरुरतों को तो वह शायद कुछ दिनों के लिए टाल भी देते, मगर उसकी फरमाइश तो मौत की तरह अटल है। उससे मुक्ति कहां तय कर लिया कि आज साड़ी जरुर लायेंगे। कोई क्यों रोके किसी को रोकने का क्या अधिकर हैं माना स्वदेशी का इस्तेमाल अच्छी बात है लेकिन किसी को जबर्दस्ती करने का क्या हक़ है अच्छी आजादी की लड़ाई है जिसमें व्यक्ति की आजादी का इतना बेदर्दी से खून हो यों दिल को मजबूत करके वह शाम को दुकान पर पहुँचे। देखा तो पॉँच वालण्टियर पिकेटिंग कर रहे हैं और दुकान के सामने सड़क पर हज़ारों तमाशाई खड़े हैं। सोचने लगे, दुकान में कैसे जाएं। कई बार कलेजा मज़बूत किया और चले मगर बरामदे तक जातेजाते हिम्मत ने जवाब दे दिया।

  • 23: जयशंकर प्रसाद की लिखी कहानी प्रतिमा, Pratima - Story Written By Jaishankar Prasad
    8 min 29 sec

    जब अनेक प्रार्थना करने पर यहाँ तक कि अपनी समस्त उपासना और भक्ति का प्रतिदान माँगने पर भी ‘कुञ्जबिहारी’ की प्रतिमा न पिघली, कोमल प्राणों पर दया न आयी, आँसुओं के अघ्र्य देने पर भी न पसीजी, और कुञ्जनाथ किसी प्रकार देवता को प्रसन्न न कर सके, भयानक शिकारी ने सरला के प्राण ले ही लिये, किन्तु पाषाणी प्रतिमा अचल रही, तब भी उसका रागभोग उसी प्रकार चलता रहा शंख, घण्टा और दीपमाला का आयोजन यथानियम होता रहा। केवल कुञ्जनाथ तब से मन्दिर की फुलवारी में पत्थर पर बैठकर हाथ जोड़कर चला आता। ‘‘कुञ्जबिहारी’’ के समक्ष जाने का साहस नहीं होता। न जाने मूर्ति में उसे विश्वास ही कम हो गया था कि अपनी श्रद्धा की, विश्वास की दुर्बलता उसे संकुचित कर देती।आज चाँदनी निखर रही थी। चन्द्र के मनोहर मुख पर रीझकर सुरबालाएँ तारककुसुम की वर्षा कर रही थीं। स्निग्ध मलयानिल प्रत्येक कुसुमस्तवक को चूमकर मन्दिर की अनेक मालाओं को हिला देता था। कुञ्ज पत्थर पर बैठा हुआ सब देख रहा था। मनोहर मदनमोहन मूर्ति की सेवा करने को चित्त उत्तेजित हो उठा। कुञ्जनाथ ने सेवा, पुजारी के हाथ से ले ली। बड़ी श्रद्धा से पूजा करने लगा। चाँदी की आरती लेकर जब देवविग्रह के सामने युवक कुञ्जनाथ खड़ा हुआ, अकस्मात् मानसिक वृत्ति पलटी और सरला का मुख स्मरण हो आया। कुञ्जबिहारी जी की प्रतिमा के मुखमण्डल पर उसने अपनी दृष्टि जमायी।‘‘मैं अनन्त काल तक तरंगों का आघात, वर्षा, पवन, धूप, धूल से तथा मनुष्यों के अपमान श्लाघा से बचने के लिए गिरिगर्भ में छिपा पड़ा रहा, मूर्ति मेरी थी या मैं स्वयं मूर्ति था, यह सम्बन्ध व्यक्त नहीं था। निष्ठुर लौहअस्त्र से जब काटकर मैं अलग किया गया, तब किसी प्राणी ने अपनी समस्त सहृदयता मुझे अर्पण की, उसकी चेतावनी मेरे पाषाण में मिली, आत्मानुभव की तीव्र वेदना यह सब मुझे मिलते रहे, मुझमें विभ्रम था, विलास था, शक्ति थी। अब तो पुजारी भी वेतन पाता है और मैं भी उसी के अवशिष्ट से अपना निर्वाह......’’और भी क्या मूर्ति कह रही थी, किन्तु शंख और घण्टा भयानक स्वर से बज उठे। स्वामी को देख कर पुजारी लोगों ने धातुपात्रों को और भी वेग से बजाना आरम्भ कर दिया। कुञ्जनाथ ने आरती रख दी। दूर से कोई गाता हुआ जा रहा था:‘‘सच कह दूँ ऐ बिरहमन गर तू बुरा न माने।तेरे सनमकदे के बुत हो गये पुराने।’’कुञ्जनाथ ने स्थिर दृष्टि से देखा, मूर्ति में वह सौन्दर्य नहीं, वह भक्ति स्फुरित करने वाली कान्ति नहीं। वह ललित भावलहरी का आविर्भावतिरोभाव मुखमण्डल से जाने कहाँ चला गया है। धैर्य छोड़कर कुञ्जनाथ चला आया। प्रणाम भी नहीं कर सका।भाग 2‘‘कहाँ जाती है’’‘‘माँ आज शिवजी की पूजा नहीं की।’’‘‘बेटी, तुझे कल रात से ज्वर था, फिर इस समय जाकर क्या नदी में स्नान करेगी’’‘‘हाँ, मैं बिना पूजा किये जल न पियूँगी।’’‘‘रजनी, तू बड़ी हठीली होती जा रही है। धर्म की ऐसी कड़ी आज्ञा नहीं है कि वह स्वास्थ्य को नष्ट करके पालन की जाय।’’‘‘माँ, मेरे गले से जल न उतरेगा। एक बार वहाँ तक जाऊँगी।’’‘‘तू क्यों इतनी तपस्या कर रही है’’‘‘तू क्यों पड़ीपड़ी रोया करती है’’‘‘तेरे लिए।’’‘‘और मैं भी पूजा करती हूँ तेरे लिए कि तेरा रोना छूट जाय’’ इतना कहकर कलसी लेकर रजनी चल पड़ी।’’ वटवृक्ष के नीचे उसी की जड़ में पत्थर का छोटासा जीर्ण मन्दिर है। उसी में शिवमूर्ति है, वट की जटा से लटकता हुआ मिट्टी का बर्तन अपने छिद्र से जलबिन्दु गिराकर जाह्नवी और जटा की कल्पना को सार्थक कर रहा है। बैशाख के कोमल विल्वदल उस श्यामल मूर्ति पर लिपटे हैं। गोधूली का समय, शीतलवाहिनी सरिता में स्नान करके रजनी ने दीपक जलाकर आँचल की ओट में छिपाकर उसी मूर्ति के सामने लाकर धर दिया। भक्तिभाव से हाथ जोड़कर बैठ गयी और करुणा, प्रेम तथा भक्ति से भगवान् को प्रसन्न करने लगी। सन्ध्या की मलिनता दीपक के प्रकाश में सचमुच वह पत्थर की मूर्ति मांसल हो गयी। प्रतिमा में सजीवता आ गयी। दीपक की लौ जब पवन से हिलती थी, तब विदित होता था कि प्रतिमा प्रसन्न होकर झूमने लगी है। एकान्त में भक्त भगवान् को प्रसन्न करने लगा। अन्तरात्मा के मिलन से उस जड़ प्रतिमा को आद्र्र बना डाला। रजनी ने विधवा माता की विकलता की पुष्पाञ्जलि बनाकर देवता के चरणों में डाल दी। बेले का फूल और विल्वदल सान्ध्यपवन से हिल कर प्रतिमा से खिसककर गिर पड़ा। रजनी ने कामना पूर्ण होने का संकेत पाया। प्रणाम करके कलसी उठाकर गाँव की झोपड़ी की ओर अग्रसर हुई।

  • 30: प्रेमचंद की कहानी "अपनी करनी" Premchand Story "Apni Karni"
    23 min 34 sec

    आह, अभागा मैं मेरे कर्मो के फल ने आज यह दिन दिखाये कि अपमान भी मेरे ऊपर हंसता है। और यह सब मैंने अपने हाथों किया। शैतान के सिर इलजाम क्यों दूं, किस्मत को खरीखोटी क्यों सुनाऊँ, होनी का क्यों रोऊं जों कुछ किया मैंने जानते और बूझते हुए किया। अभी एक साल गुजरा जब मैं भाग्यशाली था, प्रतिष्ठित था और समृद्धि मेरी चेरी थी। दुनिया की नेमतें मेरे सामने हाथ बांधे खड़ी थीं लेकिन आज बदनामी और कंगाली और शंर्मिदगी मेरी दुर्दशा पर आंसू बहाती है। मैं ऊंचे खानदान का, बहुत पढ़ालिखा आदमी था, फारसी का मुल्ला, संस्कृत का पंण्डित, अंगेजी का ग्रेजुएट। अपने मुंह मियां मिट्ठू क्यों बनूं लेकिन रुप भी मुझको मिला था, इतना कि दूसरे मुझसे ईर्ष्या कर सकते थे। ग़रज एक इंसान को खुशी के साथ जिंदगी बसर करने के लिए जितनी अच्छी चीजों की जरुरत हो सकती है वह सब मुझे हासिल थीं। सेहत का यह हाल कि मुझे कभी सरदर्द की भी शिकायत नहीं हुई। फ़िटन की सैर, दरिया की दिलफ़रेबियां, पहाड़ के सुंदर दृश्य –उन खुशियों का जिक्र ही तकलीफ़देह है। क्या मजे की जिंदगी थीआह, यहॉँ तक तो अपना दर्देदिल सुना सकता हूँ लेकिन इसके आगे फिर होंठों पर खामोशी की मुहर लगी हुई है। एक सतीसाध्वी, प्रतिप्राणा स्त्री और दो गुलाब के फूलसे बच्चे इंसान के लिए जिन खुशियों, आरजुओं, हौसलों और दिलफ़रेबियों का खजाना हो सकते हैं वह सब मुझे प्राप्त था। मैं इस योग्य नहीं कि उस पतित्र स्त्री का नाम जबान पर लाऊँ। मैं इस योग्य नहीं कि अपने को उन लड़कों का बाप कह सकूं। मगर नसीब का कुछ ऐसा खेल था कि मैंने उन बिहिश्ती नेमतों की कद्र न की। जिस औरत ने मेरे हुक्म और अपनी इच्छा में कभी कोई भेद नहीं किया, जो मेरी सारी बुराइयों के बावजूद कभी शिकायत का एक हर्फ़ ज़बान पर नहीं लायी, जिसका गुस्सा कभी आंखो से आगे नहीं बढ़ने पायागुस्सा क्या था कुआर की बरखा थी, दोचार हलकीहलकी बूंदें पड़ी और फिर आसमान साफ़ हो गया—अपनी दीवानगी के नशे में मैंने उस देवी की कद्र न की। मैने उसे जलाया, रुलाया, तड़पाया।मैंने उसके साथ दग़ा की। आह जब मैं दोदो बजे रात को घर लौटता था तो मुझे कैसेकैसे बहाने सूझते थे, नित नये हीले गढ़ता था, शायद विद्यार्थी जीवन में जब बैण्ड के मजे से मदरसे जाने की इजाज़त न देते थे, उस वक्त भी बुद्धि इतनी प्रखर न थी। और क्या उस क्षमा की देवी को मेरी बातों पर यक़ीन आता था वह भोली थी मगर ऐसी नादान न थी। मेरी खुमारभरी आंखे और मेरे उथले भाव और मेरे झूठे प्रेमप्रदर्शन का रहस्य क्या उससे छिपा रह सकता था लेकिन उसकी रगरग में शराफत भरी हुई थी, कोई कमीना ख़याल उसकी जबान पर नहीं आ सकता था। वह उन बातों का जिक्र करके या अपने संदेहों को खुले आम दिखलाकर हमारे पवित्र संबंध में खिचाव या बदमज़गी पैदा करना बहुत अनुचित समझती थी। मुझे उसके विचार, उसके माथे पर लिखे मालूम होते थे। उन बदमज़गियों के मुकाबले में उसे जलना और रोना ज्यादा पसंद था, शायद वह समझती थी कि मेरा नशा खुदबखुद उतर जाएगा। काश, इस शराफत के बदले उसके स्वभाव में कुछ ओछापन और अनुदारता भी होती। काश, वह अपने अधिकारों को अपने हाथ में रखना जानती। काश, वह इतनी सीधी न होती। काश, वह अपने मन के भावों को छिपाने में इतनी कुशल न होती। काश, वह इतनी मक्कार न होती। लेकिन मेरी मक्कारी और उसकी मक्कारी में कितना अंतर था, मेरी मक्कारी हरामकारी थी, उसकी मक्कारी आत्मबलिदानी।

  • 24: जयशंकर प्रसाद की लिखी कहानी आकाशदीप, AakashDeep - Story Written By Jaishankar Prasad
    21 min 7 sec

    ‘‘बन्दी’’‘‘क्या है सोने दो।’’‘‘मुक्त होना चाहते हो’’‘‘अभी नहीं, निद्रा खुलने पर, चुप रहो।’’‘‘फिर अवसर न मिलेगा।’’‘‘बड़ा शीत है, कहीं से एक कम्बल डालकर कोई शीत से मुक्त करता।’’‘‘आँधी की सम्भावना है। यही अवसर है। आज मेरे बन्धन शिथिल हैं।’’‘‘तो क्या तुम भी बन्दी हो’’‘‘हाँ, धीरे बोलो, इस नाव पर केवल दस नाविक और प्रहरी हैं।’’‘‘शस्त्र मिलेगा’’‘‘मिल जायगा। पोत से सम्बद्ध रज्जु काट सकोगे’’‘‘हाँ।’’समुद्र में हिलोरें उठने लगीं। दोनों बन्दी आपस में टकराने लगे। पहले बन्दी ने अपने को स्वतन्त्र कर लिया। दूसरे का बन्धन खोलने का प्रयत्न करने लगा। लहरों के धक्के एकदूसरे को स्पर्श से पुलकित कर रहे थे। मुक्ति की आशास्नेह का असम्भावित आलिंगन। दोनों ही अन्धकार में मुक्त हो गये। दूसरे बन्दी ने हर्षातिरेक से उसको गले से लगा लिया। सहसा उस बन्दी ने कहा‘‘यह क्या तुम स्त्री हो’’‘‘क्या स्त्री होना कोई पाप है’’अपने को अलग करते हुए स्त्री ने कहा।‘‘शस्त्र कहाँ हैतुम्हारा नाम’’‘‘चम्पा।’’तारकखचित नील अम्बर और समुद्र के अवकाश में पवन ऊधम मचा रहा था। अन्धकार से मिलकर पवन दुष्ट हो रहा था। समुद्र में आन्दोलन था। नौका लहरों में विकल थी। स्त्री सतर्कता से लुढक़ने लगी। एक मतवाले नाविक के शरीर से टकराती हुई सावधानी से उसका कृपाण निकालकर, फिर लुढक़ते हुए, बन्दी के समीप पहुँच गई। सहसा पोत से पथप्रदर्शक ने चिल्लाकर कहा‘‘आँधी’’आपत्तिसूचक तूर्य बजने लगा। सब सावधान होने लगे। बन्दी युवक उसी तरह पड़ा रहा। किसी ने रस्सी पकड़ी, कोई पाल खोल रहा था। पर युवक बन्दी ढुलक कर उस रज्जु के पास पहुँचा, जो पोत से संलग्न थी। तारे ढँक गये। तरंगें उद्वेलित हुईं, समुद्र गरजने लगा। भीषण आँधी, पिशाचिनी के समान नाव को अपने हाथों में लेकर कन्दुकक्रीड़ा और अट्टहास करने लगी।एक झटके के साथ ही नाव स्वतन्त्र थी। उस संकट में भी दोनों बन्दी खिलखिला कर हँस पड़े। आँधी के हाहाकार में उसे कोई न सुन सका।अनन्त जलनिधि में ऊषा का मधुर आलोक फूट उठा। सुनहली किरणों और लहरों की कोमल सृष्टि मुस्कराने लगी। सागर शान्त था। नाविकों ने देखा, पोत का पता नहीं। बन्दी मुक्त हैं।नायक ने कहा‘‘बुधगुप्त तुमको मुक्त किसने किया’’कृपाण दिखाकर बुधगुप्त ने कहा‘‘इसने।’’नायक ने कहा‘‘तो तुम्हें फिर बन्दी बनाऊँगा।’’‘‘किसके लिये पोताध्यक्ष मणिभद्र अतल जल में होगानायक अब इस नौका का स्वामी मैं हूँ।’’‘‘तुम जलदस्यु बुधगुप्त कदापि नहीं।’’चौंक कर नायक ने कहा और अपना कृपाण टटोलने लगा चम्पा ने इसके पहले उस पर अधिकार कर लिया था। वह क्रोध से उछल पड़ा।‘‘तो तुम द्वंद्वयुद्ध के लिये प्रस्तुत हो जाओ जो विजयी होगा, वह स्वामी होगा।’’इतना कहकर बुधगुप्त ने कृपाण देने का संकेत किया। चम्पा ने कृपाण नायक के हाथ में दे दिया।भीषण घातप्रतिघात आरम्भ हुआ। दोनों कुशल, दोनों त्वरित गतिवाले थे। बड़ी निपुणता से बुधगुप्त ने अपना कृपाण दाँतों से पकड़कर अपने दोनों हाथ स्वतन्त्र कर लिये। चम्पा भय और विस्मय से देखने लगी। नाविक प्रसन्न हो गये। परन्तु बुधगुप्त ने लाघव से नायक का कृपाण वाला हाथ पकड़ लिया और विकट हुंकार से दूसरा हाथ कटि में डाल, उसे गिरा दिया। दूसरे ही क्षण प्रभात की किरणों में बुधगुप्त का विजयी कृपाण हाथों में चमक उठा। नायक की कातर आँखें प्राणभिक्षा माँगने लगीं।बुधगुप्त ने कहा‘‘बोलो, अब स्वीकार है कि नहीं’’‘‘मैं अनुचर हूँ, वरुणदेव की शपथ। मैं विश्वासघात नहीं करूँगा।’’ बुधगुप्त ने उसे छोड़ दिया।चम्पा ने युवक जलदस्यु के समीप आकर उसके क्षतों को अपनी स्निग्ध दृष्टि और कोमल करों से वेदना विहीन कर दिया। बुधगुप्त के सुगठित शरीर पर रक्तबिन्दु विजयतिलक कर रहे थे।विश्राम लेकर बुधगुप्त ने पूछा ‘‘हम लोग कहाँ होंगे’’‘‘बालीद्वीप से बहुत दूर, सम्भवत: एक नवीन द्वीप के पास, जिसमें अभी हम लोगों का बहुत कम आनाजाना होता है। सिंहल के वणिकों का वहाँ प्राधान्य है।’’‘‘कितने दिनों में हम लोग वहाँ पहुँचेंगे’’‘‘अनुकूल पवन मिलने पर दो दिन में। तब तक के लिये खाद्य का अभाव न होगा।’’सहसा नायक ने नाविकों को डाँड़ लगाने की आज्ञा दी, और स्वयं पतवार पकड़कर बैठ गया। बुधगुप्त के पूछने पर उसने कहा‘‘यहाँ एक जलमग्न शैलखण्ड है। सावधान न रहने से नाव टकराने का भय है।’’

  • 31: प्रेमचंद की कहानी "अंधेर" Premchand Story "Andher"
    13 min 51 sec

    नागपंचमी आई। साठे के जिन्दादिल नौजवानों ने रंगबिरंगे जॉँघिये बनवाये। अखाड़े में ढोल की मर्दाना सदायें गूँजने लगीं। आसपास के पहलवान इकट्ठे हुए और अखाड़े पर तम्बोलियों ने अपनी दुकानें सजायीं क्योंकि आज कुश्ती और दोस्ताना मुकाबले का दिन है। औरतों ने गोबर से अपने आँगन लीपे और गातीबजाती कटोरों में दूधचावल लिए नाग पूजने चलीं।साठे और पाठे दो लगे हुए मौजे थे। दोनों गंगा के किनारे। खेती में ज्यादा मशक्कत नहीं करनी पड़ती थी इसीलिए आपस में फौजदारियॉँ खूब होती थीं। आदिकाल से उनके बीच होड़ चली आती थी। साठेवालों को यह घमण्ड था कि उन्होंने पाठेवालों को कभी सिर न उठाने दिया। उसी तरह पाठेवाले अपने प्रतिद्वंद्वियों को नीचा दिखलाना ही जिन्दगी का सबसे बड़ा काम समझते थे। उनका इतिहास विजयों की कहानियों से भरा हुआ था। पाठे के चरवाहे यह गीत गाते हुए चलते थे:साठेवाले कायर सगरे पाठेवाले हैं सरदारऔर साठे के धोबी गाते:साठेवाले साठ हाथ के जिनके हाथ सदा तरवार।उन लोगन के जनम नसाये जिन पाठे मान लीन अवतार।।गरज आपसी होड़ का यह जोश बच्चों में मॉँ दूध के साथ दाखिल होता था और उसके प्रदर्शन का सबसे अच्छा और ऐतिहासिक मौका यही नागपंचमी का दिन था। इस दिन के लिए साल भर तैयारियॉँ होती रहती थीं। आज उनमें मार्के की कुश्ती होने वाली थी। साठे को गोपाल पर नाज था, पाठे को बलदेव का गर्रा। दोनों सूरमा अपनेअपने फरीक की दुआएँ और आरजुएँ लिए हुए अखाड़े में उतरे। तमाशाइयों पर चुम्बक कासा असर हुआ। मौजें के चौकीदारों ने लट्ठ और डण्डों का यह जमघट देखा और मर्दों की अंगारे की तरह लाल आँखें तो पिछले अनुभव के आधार पर बेपता हो गये। इधर अखाड़े में दॉँवपेंच होते रहे। बलदेव उलझता था, गोपाल पैंतरे बदलता था। उसे अपनी ताकत का जोम था, इसे अपने करतब का भरोसा। कुछ देर तक अखाड़े से ताल ठोंकने की आवाजें आती रहीं, तब यकायक बहुतसे आदमी खुशी के नारे मारमार उछलने लगे, कपड़े और बर्तन और पैसे और बताशे लुटाये जाने लगे। किसी ने अपना पुराना साफा फेंका, किसी ने अपनी बोसीदा टोपी हवा में उड़ा दी साठे के मनचले जवान अखाड़े में पिल पड़े। और गोपाल को गोद में उठा लाये। बलदेव और उसके साथियों ने गोपाल को लहू की आँखों से देखा और दॉँत पीसकर रह गये।दस बजे रात का वक्त और सावन का महीना। आसमान पर काली घटाएँ छाई थीं। अंधेरे का यह हाल था कि जैसे रोशनी का अस्तित्व ही नहीं रहा। कभीकभी बिजली चमकती थी मगर अँधेरे को और ज्यादा अंधेरा करने के लिए। मेंढकों की आवाजें जिन्दगी का पता देती थीं वर्ना और चारों तरफ मौत थी। खामोश, डरावने और गम्भीर साठे के झोंपड़े और मकान इस अंधेरे में बहुत गौर से देखने पर कालीकाली भेड़ों की तरह नजर आते थे। न बच्चे रोते थे, न औरतें गाती थीं। पावित्रात्मा बुड्ढे राम नाम न जपते थे।

  • 25: जयशंकर प्रसाद की कहानी स्वर्ग के खंडहर में, Swarg Ke Khandahar Mein - Story By Jaishankar Prasad
    27 min 33 sec

    वन्य कुसुमों की झालरें सुख शीतल पवन से विकम्पित होकर चारों ओर झूल रही थीं। छोटेछोटे झरनों की कुल्याएँ कतराती हुई बह रही थीं। लतावितानों से ढँकी हुई प्राकृतिक गुफाएँ शिल्परचनापूर्ण सुन्दर प्रकोष्ठ बनातीं, जिनमें पागल कर देनेवाली सुगन्ध की लहरें नृत्य करती थीं। स्थानस्थान पर कुञ्जों और पुष्पशय्याओं का समारोह, छोटेछोटे विश्रामगृह, पानपात्रों में सुगन्धित मदिरा, भाँतिभाँति के सुस्वादु फलफूलवाले वृक्षों के झुरमुट, दूध और मधु की नहरों के किनारे गुलाबी बादलों का क्षणिक विश्राम। चाँदनी का निभृत रंगमंच, पुलकित वृक्षफूलों पर मधुमक्खियों की भन्नाहट, रहरहकर पक्षियों की हृदय में चुभने वाली तान, मणिदीपों पर लटकती हुई मुकुलित मालायें। तिस पर सौन्दर्य के छँटे हुए जोड़ोंरूपवान बालक और बालिकाओं का हृदयहारी हासविलास संगीत की अबाध गति में छोटीछोटी नावों पर उनका जलविलास किसकी आँखें यह देखकर भी नशे में न हो जायँगीहृदय पागल, इंद्रियाँ विकल न हो रहेंगी। यही तो स्वर्ग है।झरने के तट पर बैठे हुए एक बालक ने बालिका से कहा‘‘मैं भूलभूल जाता हूँ मीना, हाँ मीना, मैं तुम्हें मीना नाम से कब तक पुकारूँ’’‘‘और मैं तुमको गुल कहकर क्यों बुलाऊँ’’‘‘क्यों मीना, यहाँ भी तो हम लोगों को सुख ही है। है न अहा, क्या ही सुन्दर स्थान है हम लोग जैसे एक स्वप्न देख रहे हैं कहीं दूसरी जगह न भेजे जायँ, तो क्या ही अच्छा हो’’‘‘नहीं गुल, मुझे पूर्वस्मृति विकल कर देती है। कई बरस बीत गयेवह माता के समान दुलार, उस उपासिका की स्नेहमयी करुणाभरी दृष्टि आँखों में कभीकभी चुटकी काट लेती है। मुझे तो अच्छा नहीं लगता बन्दी होकर रहना तो स्वर्ग में भी.....अच्छा, तुम्हें यहाँ रहना नहीं खलता’’‘‘नहीं मीना, सबके बाद जब मैं तुम्हें अपने पास ही पाता हूँ, तब और किसी आकांक्षा का स्मरण ही नहीं रह जाता। मैं समझता हूँ कि.....’’‘‘तुम ग़लत समझते हो......’’मीना अभी पूरा कहने न पाई थी कि तितलियों के झुण्ड के पीछे, उन्हीं के रंग के कौषेय वसन पहने हुए, बालक और बालिकाओं की दौड़ती हुई टोली ने आकर मीना और गुल को घेर लिया।‘‘जलविहार के लिए रंगीली मछलियों का खेल खेला जाय।’’एक साथ ही तालियाँ बज उठीं। मीना और गुल को ढकेलते हुए सब उसी कलनादी स्रोत में कूद पड़े। पुलिन की हरी झाड़ियों में से वंशी बजने लगी। मीना और गुल की जोड़ी आगेआगे और पीछेपीछे सब बालकबालिकाओं की टोली तैरने लगी। तीर पर की झुकी डालों के अन्तराल में लुकछिपकर निकलना, उन कोमल पाणिपल्लवों से क्षुद्र वीचियों का कटना, सचमुच उसी स्वर्ग में प्राप्त था।तैरतेतैरते मीना ने कहा‘‘गुल, यदि मैं बह जाऊँ और डूबने लगूँ’’‘‘मैं नाव बन जाऊँगा, मीना’’‘‘और जो मैं यहाँ से सचमुच चली जाऊँ’’‘‘ऐसा न कहो फिर मैं क्या करूँगा‘‘क्यों, क्या तुम मेरे साथ न चलोगे’’इतने में एक दूसरी सुन्दरी, जो कुछ पास थी, बोली‘‘कहाँ चलोगे गुल मैं भी चलूँगी, उसी कुञ्ज में। अरे देखो, वह कैसा हराभरा अन्धकार है’’ गुल उसी ओर लक्ष्य करके सन्तरण करने लगा। बहार उसके साथ तैरने लगी। वे दोनों त्वरित गति से तैर रहे थे, मीना उनका साथ न दे सकी, वह हताश होकर और भी पिछड़ने के लिए धीरेधीरे तैरने लगी।बहार और गुल जल से टकराती हुई डालों को पकड़कर विश्राम करने लगे। किसी को समीप में न देखकर बहार ने गुल से कहा‘‘चलो, हम लोग इसी कुञ्ज में छिप जायँ।’’वे दोनों उसी झुरमुट में विलीन हो गये।मीना से एक दूसरी सुन्दरी ने पूछा‘‘गुल किधर गया, तुमने देखा’’मीना जानकर भी अनजान बन गई। वह दूसरे किनारे की ओर लौटती हुई बोली‘‘मैं नहीं जानती।’’इतने में एक विशेष संकेत से बजती हुई सीटी सुनाई पड़ी। सब तैरना छोड़ कर बाहर निकले। हरा वस्त्र पहने हुए, एक गम्भीर मनुष्य के साथ, एक युवक दिखाई पड़ा। युवक की आँखें नशे में रंगीली हो रही थीं पैर लडख़ड़ा रहे थे। सबने उस प्रौढ़ को देखते ही सिर झुका लिया। वे बोल उठे‘‘महापुरुष, क्या कोई हमारा अतिथि आया है’’

  • 32: प्रेमचंद की कहानी "मिट्ठू" Premchand Story "Mitthoo"
    4 min 26 sec

    बंदरों के तमाशे तो तुमने बहुत देखे होंगे। मदारी के इशारों पर बंदर कैसीकैसी नकलें करता है, उसकी शरारतें भी तुमने देखी होंगी। तुमने उसे घरों से कपड़े उठाकर भागते देखा होगा। पर आज हम तुम्हें एक ऐसा हाल सुनाते हैं, जिससे मालूम होगा कि बंदर लड़कों से भी दोस्ती कर सकता है। कुछ दिन हुए लखनऊ में एक सरकसकंपनी आयी थी। उसके पास शेर, भालू, चीता और कई तरह के और भी जानवर थे। इनके सिवा एक बंदर मिट्ठू भी था। लड़कों के झुंडकेझुंड रोज इन जानवरों को देखने आया करते थे। मिट्ठू ही उन्हें सबसे अच्छा लगता। उन्हीं लड़कों में गोपाल भी था। वह रोज आता और मिट्ठू के पास घंटों चुपचाप बैठा रहता। उसे शेर, भालू, चीते आदि से कोई प्रेम न था। वह मिट्ठू के लिए घर से चने, मटर, केले लाता और खिलाता। मिट्ठू भी उससे इतना हिल गया था कि बगैर उसके खिलाए कुछ न खाता। इस तरह दोनों में बड़ी दोस्ती हो गयी।एक दिन गोपाल ने सुना कि सरकस कंपनी वहां से दूसरे शहर में जा रही है। यह सुनकर उसे बड़ा रंज हुआ। वह रोता हुआ अपनी मां के पास आया और बोला, अम्मा, मुझे एक अठन्नी1 दो, मैं जाकर मिट्ठू को खरीद लाऊं। वह न जाने कहां चला जायेगा फिर मैं उसे कैसे देखूंगा वह भी मुझे न देखेगा तो रोयेगा।मां ने समझाया, बेटा, बंदर किसी को प्यार नहीं करता। वह तो बड़ा शैतान होता है। यहां आकर सबको काटेगा, मुफ्त में उलाहने सुनने पड़ेंगे। लेकिन लड़के पर मां के समझाने का कोई असर न हुआ। वह रोने लगा। आखिर मां ने मजबूर होकर उसे एक अठन्नी निकालकर दे दी। अठन्नी पाकर गोपाल मारे खुशी के फूल उठा। उसने अठन्नी को मिट्टी से मलकर खूब चमकाया, फिर मिट्ठू को खरीदने चला। लेकिन मिट्ठू वहां दिखाई न दिया। गोपाल का दिल भर आयामिट्ठू कहीं भाग तो नहीं गया मालिक को अठन्नी दिखाकर गोपाल बोला, क्यों साहब, मिट्टू को मेरे हाथ बेचेंगे

  • 26: जयशंकर प्रसाद की लिखी कहानी सुनहला साँप, Sunahala Saanp - Story Written By Jaishankar Prasad
    9 min 7 sec

    ‘‘यह तुम्हारा दुस्साहस है, चन्द्रदेव’’‘‘मैं सत्य कहता हूँ, देवकुमार।’’‘‘तुम्हारे सत्य की पहचान बहुत दुर्बल है, क्योंकि उसके प्रकट होने का साधन असत् है। समझता हूँ कि तुम प्रवचन देते समय बहुत ही भावात्मक हो जाते हो। किसी के जीवन का रहस्य, उसका विश्वास समझ लेना हमारीतुम्हारी बुद्धिरूपी ‘एक्सरेज़’ की पारदर्शिता के परे है।’’कहता हुआ देवकुमार हँस पड़ा उसकी हँसी में विज्ञता की अवज्ञा थी।चन्द्रदेव ने बात बदलने के लिए कहा‘‘इस पर मैं फिर वादविवाद करूँगा। अभी तो वह देखो, झरना आ गयाहम लोग जिसे देखने के लिए आठ मील से आये हैं।’’‘‘सत्य और झूठ का पुतला मनुष्य अपने ही सत्य की छाया नहीं छू सकता, क्योंकि वह सदैव अन्धकार में रहता है। चन्द्रदेव, मेरा तो विश्वास है कि तुम अपने को भी नहीं समझ पाते।’’देवकुमार ने कहा।चन्द्रदेव बैठ गया। वह एकटक उस गिरते हुए प्रपात को देख रहा था। मसूरी पहाड़ का यह झरना बहुत प्रसिद्ध है। एक गहरे गड्ढे में गिरकर, यह नाला बनता हुआ, ठुकराये हुए जीवन के समान भागा जाता है।चन्द्रदेव एक ताल्लुकेदार का युवक पुत्र था। अपने मित्र देवकुमार के साथ मसूरी के ग्रीष्मनिवास में सुख और स्वास्थ्य की खोज में आया था। इस पहाड़ पर कब बादल छा जायेंगे, कब एक झोंका बरसाता हुआ निकल जायेगा, इसका कोई निश्चय नहीं। चन्द्रदेव का नौकर पानभोजन का सामान लेकर पहुँचा। दोनों मित्र एक अखरोटवृक्ष के नीचे बैठकर खाने लगे। चन्द्रदेव थोड़ी मदिरा भी पीता था, स्वास्थ्य के लिए।देवकुमार ने कहा‘‘यदि हम लोगों को बीच ही में भीगना न हो, तो अब चल देना चाहिये।’’पीते हुए चन्द्रदेव ने कहा‘‘तुम बड़े डरपोक हो। तनिक भी साहसिक जीवन का आनन्द लेने का उत्साह तुममें नहीं। सावधान होकर चलना, समय से कमरे में जाकर बन्द हो जाना और अत्यन्त रोगी के समान सदैव पथ्य का अनुचर बने रहना हो, तो मनुष्य घर ही बैठा रहे’’देवकुमार हँस पड़ा। कुछ समय बीतने पर दोनों उठ खड़े हुए। अनुचर भी पीछे चला। बूँदें पड़ने लगी थीं। सबने अपनीअपनी बरसाती सँभाली।परन्तु उस वर्षा में कहीं विश्राम करना आवश्यक प्रतीत हुआ, क्योंकि उससे बचा लेना बरसाती के बूते का काम न था। तीनों छाया की खोज में चले। एक पहाड़ी चट्टान की गुफा मिली, छोटीसी। ये तीनों उसमें घुस पड़े।भवों पर से पानी पोंछते हुए चन्द्रदेव ने देखा, एक श्याम किन्तु उज्ज्वल मुख अपने यौवन की आभा में दमक रहा है। वह एक पहाड़ी स्त्री थी। चन्द्रदेव कलाविज्ञ होने का ढोंग करके उस युवती की सुडौल गढऩ देखने लगा। वह कुछ लज्जित हुई। प्रगल्भ चन्द्रदेव ने पूछा‘‘तुम यहाँ क्या करने आई हो’’‘‘बाबू जी, मैं दूसरे पहाड़ी गाँव की रहने वाली हूँ, अपनी जीविका के लिए आई हूँ।’’‘‘तुम्हारी क्या जीविका है’’‘‘साँप पकड़ती हूँ।’’चन्द्रदेव चौंक उठा। उसने कहा‘‘तो क्या तुम यहाँ भी साँप पकड़ रही हो इधर तो बहुत कम साँप होते हैं।’’‘‘हाँ, कभी खोजने से मिल जाते हैं। यहाँ एक सुनहला साँप मैंने अभी देखा है। उसे ....’’ कहतेकहते युवती ने एक ढोंके की ओर संकेत किया।चन्द्रदेव ने देखा, दो तीव्र ज्योतिपानी का झोंका निकल गया था। चन्द्रदेव ने कहा‘‘चलो देवकुमार, हम चलें। रामू, तू भी तो साँप पकड़ता है न देवकुमार यह बड़ी सफाई से बिना किसी मन्त्रजड़ी के साँप पकड़ लेता है’’ देवकुमार ने सिर हिला दिया।रामू ने कहा‘‘हाँ सरकार, पकड़ूँ इसे’’‘‘नहींनहीं, उसे पकड़ने दे हाँ, उसे होटल में लिवा लाना, हम लोग देखेंगे। क्यों देव अच्छा मनोरंजन रहेगा न’’ कहते हुए चन्द्रदेव और देवकुमार चल पड़े।किसी क्षुद्र हृदय के पास, उसके दुर्भाग्य से दैवी सम्पत्ति या विद्या, बल, धन और सौन्दर्य उसके सौभाग्य का अभिनय करते हुए प्राय: देखे जाते हैं, तब उन विभूतियों का दुरुपयोग अत्यन्त अरुचिकर दृश्य उपस्थित कर देता है। चन्द्रदेव का होटलनिवास भी वैसा ही था। राशिराशि विडम्बनाएँ उसके चारों ओर घिरकर उसकी हँसी उड़ातीं, पर उनमें चन्द्रदेव को तो जीवन की सफलता ही दिखलायी देती।

  • 33: प्रेमचंद की कहानी "सैलानी बंदर" Premchand Story "Sailani Bandar"
    21 min 48 sec

    जीवनदास नाम का एक गरीब मदारी अपने बन्दर मन्नू को नचाकर अपनी जीविका चलाया करता था। वह और उसकी स्त्री बुधिया दोनों मन्नू को बहुत प्यार करते थे। उनके कोई सन्तान न थी, मन्नू ही उनके स्नेह और प्रेम का पात्र था। दोनों उसे अपने साथ खिलाते और अपने साथ सुलाते थे: उनकी दृष्टि में मन्नू से अधिक प्रिय वस्तु न थी। जीवनदास उसके लिए एक गेंद लाया था। मन्नू आंगन में गेंद खेला करता था। उसके भोजन करने को एक मिट्टी का प्याला था, ओढ़ने को कम्बल का एक टुकड़ा, सोने को एक बोरिया, और उचकने के लिए छप्पर में एक रस्सी। मन्नू इन वस्तुओं पर जान देता था। जब तक उसके प्याले में कोई चीज न रख दी जाय वह भोजन न करता था। अपना टाट और कम्बल का टुकड़ा उसे शाल और गद्दे से भी प्यारा था। उसके दिन बड़े सुख से बीतते थे। वह प्रात:काल रोटियां खाकर मदारी के साथ तमाशा करने जाता था। वह नकलें करने मे इतना निपुण था कि दर्शकवृन्द तमाशा देखकर मुग्ध हो जाते थे। लकड़ी हाथ में लेकर वृद्धों की भांति चलता, आसन मारकर पूजा करता, तिलकमुद्रा लगाता, फिर पोथी बगल में दबाकर पाठ करने चलता। ढोल बजाकर गाने की नकल इतनी मनोहर थी कि दर्शक लोटपोट हो जाते थे। तमाशा खतम हो जाने पर वह सबको सलाम करता था, लोगों के पैर पकड़कर पैसे वसूल करता था। मन्नू का कटोरा पैसों से भर जाता था। इसके उपरान्त कोई मन्नू को एक अमरूद खिला देता, काई उसके सामने मिठाई फेंक देता। लड़कों को तो उसे देखने से जी ही न भरता था। वे अपनेअपने घर से दौड़दौड़कर रोटियां लाते और उसे खिलाते थे। मुहल्ले के लोगों के लिए भी मन्नू मनोरंजन की एक सामग्री थी। जब वह घर पर रहता तो एक न एक आदमी आकर उससे खेलता रहाता। खोंचेवाले फेरी करते हुए उसे कुछ न कुछ दे देते थे। जो बिना दिए निकल जाने की चेष्टा करता उससे भी मन्नू पैर पकड़ कर वसूल कर लिया करता था। मन्नू को अगर चिढ़ थी तो कुत्तों से। उसके मारे उधर से कोई कुत्ता न निकलने पाता था और कोई आ जाता, तो मन्नू उसे अवश्य ही दोचार कनेठियां और झंपड़ लगाता था। उसके सर्वप्रिय होने का यह एक और कारण था। दिन को कभीकभी बुधिया धूप में लेट जाती, तो मन्नू उसके सिर की जुएं निकालता और वह उसे गाना सुनाती। वह जहां कहीं जाती थी वहीं मन्नू उसके पीछेपीछे जाता था। माता और पुत्र में भी इससे अधिक प्रेम न हो सकता था।

  • 27: जयशंकर प्रसाद की लिखी कहानी हिमालय का पथिक, Himalaya Ka Pathik - Story Written By Jaishankar Prasad
    7 min 46 sec

    ‘‘गिरिपथ में हिमवर्षा हो रही है, इस समय तुम कैसे यहाँ पहुँचे किस प्रबल आकर्षण से तुम खिंच आये’’ खिडक़ी खोलकर एक व्यक्ति ने पूछा। अमलधवल चन्द्रिका तुषार से घनीभूत हो रही थी। जहाँ तक दृष्टि जाती है, गगनचुम्बी शैलशिखर, जिन पर बर्फ़ का मोटा लिहाफ पड़ा था, ठिठुरकर सो रहे थे। ऐसे ही समय पथिक उस कुटीर के द्वार पर खड़ा था। वह बोला‘‘पहले भीतर आने दो, प्राण बचें’’बर्फ़ जम गई थी, द्वार परिश्रम से खुला। पथिक ने भीतर जाकर उसे बन्द कर लिया। आग के पास पहुँचा, और उष्णता का अनुभव करने लगा। ऊपर से और दो कम्बल डाल दिये गये। कुछ काल बीतने पर पथिक होश में आया। देखा, शैलभर में एक छोटासा गृह धुँधली प्रभा से आलोकित है। एक वृद्ध है और उसकी कन्या। बालिकायुवती हो चली है।वृद्ध बोला‘‘कुछ भोजन करोगे’’पथिक‘‘हाँ, भूख तो लगी है।’’वृद्ध ने बालिका की ओर देखकर कहा‘‘किन्नरी, कुछ ले आओ।’’किन्नरी उठी और कुछ खाने को ले आई। पथिक दत्तचित्त होकर उसे खाने लगा।किन्नरी चुपचाप आग के पास बैठी देख रही थी। युवकपथिक को देखने में उसे कुछ संकोच न था। पथिक भोजन कर लेने के बाद घूमा, और देखा। किन्नरी सचमुच हिमालय की किन्नरी है। ऊनी लम्बा कुरता पहने है, खुले हुए बाल एक कपड़े से कसे हैं, जो सिर के चारों ओर टोप के समान बँधा है। कानों में दो बड़ेबड़े फीरोजे लटकते हैं। सौन्दर्य है, जैसे हिमानीमण्डित उपत्यका में वसन्त की फूली हुई वल्लरी पर मध्याह्न का आतप अपनी सुखद कान्ति बरसा रहा हो। हृदय को चिकना कर देने वाला रूखा यौवन प्रत्येक अंग में लालिमा की लहरी उत्पन्न कर रहा है। पथिक देख कर भी अनिच्छा से सिर झुकाकर सोचने लगा।वृद्ध ने पूछा‘‘कहो, तुम्हारा आगमन कैसे हुआ’’पथिक‘‘निरुद्देश्य घूम रहा हूँ, कभी राजमार्ग, कभी खड्ढ, कभी सिन्धुतट और कभी गिरिपथ देखताफिरता हूँ। आँखों की तृष्णा मुझे बुझती नहीं दिखाई देती। यह सब क्यों देखना चाहता हूँ, कह नहीं सकता।’’‘‘तब भी भ्रमण कर रहे हो’’पथिक‘‘हाँ, अबकी इच्छा है, कि हिमालय में ही विचरण करूँ। इसी के सामने दूर तक चला जाऊँ’’वृद्ध‘‘तुम्हारे पितामाता हैं’’पथिक‘‘नहीं।’’किन्नरी‘‘तभी तुम घूमते हो मुझे तो पिताजी थोड़ी दूर भी नहीं जाने देते।’’वह हँसने लगी।वृद्ध ने उसकी पीठ पर हाथ रखकर कहा‘‘बड़ी पगली है’’किन्नरी खिलखिला उठी।पथिक‘‘अपरिचित देशों में एक रात रमना और फिर चल देना। मन के समान चञ्चल हो रहा हूँ, जैसे पैरों के नीचे चिनगारी हो’’किन्नरी‘‘हम लोग तो कहीं जाते नहीं सबसे अपरिचित हैं, कोई नहीं जानता। न कोई यहाँ आता है। हिमालय की निर्जर शिखरश्रेणी और बर्फ़ की झड़ी, कस्तूरी मृग और बर्फ़ के चूहे, ये ही मेरे स्वजन हैं।’’वृद्ध‘‘क्यों री किन्नरी मैं कौन हूँ’’‘‘किन्नरीतुम्हारा तो कोई नया परिचय नहीं है वही मेरे पुराने बाबा बने हो’’वृद्ध सोचने लगा।पथिक हँसने लगा। किन्नरी अप्रतिभ हो गई। वृद्ध गम्भीर होकर कम्बल ओढऩे लगा।पथिक को उस कुटी में रहते कई दिन हो गये। न जाने किस बन्धन ने उसे यात्रा से वञ्चित कर दिया है। पर्यटक युवक आलसी बनकर चुपचाप खुली धूप में, बहुधा देवदारु की लम्बी छाया में बैठा हिमालय खण्ड की निर्जन कमनीयता की ओर एकटक देखा करता है। जब कभी अचानक आकर किन्नरी उसका कन्धा पकड़कर हिला देती है, तो उसके तुषारतुल्य हृदय में बिजलीसी दौड़ जाती है। किन्नरी हँसने लगती हैजैसे बर्फ़ गल जाने पर लता के फूल निखर आते हैं।’’एक दिन पथिक ने कहा‘‘कल मैं जाऊँगा।’’किन्नरी ने पूछा‘‘किधर’’

  • 34: प्रेमचंद की कहानी "वासना की कड़ियाँ" Premchand Story "Wasna Ki Kadiyan"
    23 min 58 sec

    बहादुर, भाग्यशाली क़ासिम मुलतान की लड़ाई जीतकर घमंउ के नशे से चूर चला आता था। शाम हो गयी थी, लश्कर के लोग आरामगाह की तलाश मे नज़रें दौड़ाते थे, लेकिन क़ासिम को अपने नामदार मालिक की ख़िदमत में पहुंचन का शौक उड़ाये लिये आता था। उन तैयारियों का ख़याल करके जो उसके स्वागत के लिए दिल्ली में की गयी होंगी, उसका दिल उमंगो से भरपूर हो रहा था। सड़कें बन्दनवारों और झंडियों से सजी होंगी, चौराहों पर नौबतखाने अपना सुहाना राग अलापेंगे, ज्योंहि मैं सरे शहर के अन्दर दाखिल हूँगा। शहर में शोर मच जाएगा, तोपें अगवानी के लिए जोरशोर से अपनी आवाजें बूलंद करेंगी। हवेलियों के झरोखों पर शहर की चांद जैसी सुन्दर स्त्रियां ऑखें गड़ाकर मुझे देखेंगी और मुझ पर फूलों की बारिश करेंगी। जड़ाऊ हौदों पर दरबार के लोग मेरी अगवानी को आयेंगे। इस शान से दीवाने खास तक जाने के बद जब मैं अपने हुजुर की ख़िदमत में पहुँचूँगा तो वह बॉँहे खोले हुए मुझे सीने से लगाने के लिए उठेंगे और मैं बड़े आदर से उनके पैरों को चूम लूंगा। आह, वह शुभ घड़ी कब आयेगी क़ासिम मतवाला हो गया, उसने अपने चाव की बेसुधी में घोड़े को एड़ लगायी।कासिम लश्कर के पीछे था। घोड़ा एड़ लगाते ही आगे बढा, कैदियों का झुण्ड पीछे छूट गया। घायल सिपाहियों की डोलियां पीछे छूटीं, सवारों का दस्ता पीछे रहा। सवारों के आगे मुलतान के राजा की बेगमों और मैं उन्हें और शहजादियों की पनसें और सुखपाल थे। इन सवारियों के आगेपीछे हथियारबन्द ख्व़ाजासराओं की एक बड़ी जमात थी। क़ासिम अपने रौ में घोड़ा बढाये चला आता था। यकायक उसे एक सजी हुई पालकी में से दो आंखें झांकती हुई नजर आयीं। क्रासिंग ठिठक गया, उसे मालूम हुआ कि मेरे हाथों के तोते उड़ गये, उसे अपने दिल में एक कंपकंपी, एक कमजोरी और बुद्धि पर एक उन्मादसा अनुभव हुआ। उसका आसन खुदबखुद ढ़ीला पड़ गया। तनी हुई गर्दन झुक गयी। नजरें नीची हुईं। वह दोनों आंखें दो चमकते और नाचते हुए सितारों की तरह, जिनमें जादू कासा आकर्षण था, उसके आदिल के गोशे में बैठीं। वह जिधर ताकता था वहीं दोनों उमंग की रोशनी से चमकते हुए तारे नजर आते थे। उसे बर्छी नहीं लगी, कटार नहीं लगी, किसी ने उस पर जादू नहीं किया, मंतर नहीं किया, नहीं उसे अपने दिल में इस वक्त एक मजेदार बेसुधी, दर्द की एक लज्जत, मीठीमीठीसी एक कैफ्रियत और एक सुहानी चुभन से भरी हुई रोने कीसी हालत महसूस हो रही थी। उसका रोने को जी चाहता था, किसी दर्द की पुकार सुनकर शायद वह रो पड़ता, बेताब हो जाता। उसका दर्द का एहसास जाग उठा था जो इश्क की पहली मंजिल है।क्षणभर बाद उसने हुक्म दिया—आज हमारा यहीं कयाम होगा।

  • 28: जयशंकर प्रसाद की लिखी कहानी भिखारिन, Bhikhaarin - Story Written By Jaishankar Prasad
    5 min 57 sec

    जाह्नवी अपने बालू के कम्बल में ठिठुरकर सो रही थी। शीत कुहासा बनकर प्रत्यक्ष हो रहा था। दोचार लाल धारायें प्राची के क्षितिज में बहना चाहती थीं। धार्मिक लोग स्नान करने के लिए आने लगे थे।निर्मल की माँ स्नान कर रही थी, और वह पण्डे के पास बैठा हुआ बड़े कुतूहल से धर्मभीरु लोगों की स्नानक्रिया देखकर मुस्करा रहा था। उसकी माँ स्नान करके ऊपर आई। अपनी चादर ओढ़ते हुए स्नेह से उसने निर्मल से पूछा‘‘क्या तू स्नान न करेगा’’निर्मल ने कहा‘‘नहीं माँ, मैं तो धूप निकलने पर घर पर ही स्नान करूँगा।’’पण्डाजी ने हँसते हुए कहा‘‘माता, अबके लड़के पुण्यधर्म क्या जानें यह सब तो जब तक आप लोग हैं, तभी तक है।’’निर्मल का मुँह लाल हो गया। फिर भी वह चुप रहा। उसकी माँ संकल्प लेकर कुछ दान करने लगी। सहसा जैसे उजाला हो गयाएक धवल दाँतों की श्रेणी अपना भोलापन बिखेर गई ‘‘कुछ हमको दे दो, रानी माँ’’निर्मल ने देखा, एक चौदह बरस की भिखारिन भीख माँग रही है। पण्डाजी झल्लाये, बीच ही में संकल्प अधूरा छोड़कर बोल उठे‘‘चल हट’’निर्मल ने कहा ‘‘माँ कुछ इसे भी दे दो।’’माता ने उधर देखा भी नहीं, परन्तु निर्मल ने उस जीर्ण मलिन वसन में एक दरिद्र हृदय की हँसी को रोते हुए देखा। उस बालिका की आँखों मे एक अधूरी कहानी थी। रूखी लटों में सादी उलझन थी, और बरौनियों के अग्रभाग में संकल्प के जलबिन्दु लटक रहे थे, करुणा का दान जैसे होने ही वाला था।धर्मपरायण निर्मल की माँ स्नान करके निर्मल के साथ चली। भिखारिन को अभी आशा थी, वह भी उन लोगों के साथ चली।निर्मल एक भावुक युवक था। उसने पूछा‘‘तुम भीख क्यों माँगती हो’’भिखारिन की पोटली के चावल फटे कपड़े के छिद्र से गिर रहे थे। उन्हें सँभालते हुए उसने कहा‘‘बाबूजी, पेट के लिए।’’निर्मल ने कहा‘‘नौकरी क्यों नहीं करतीं माँ, इसे अपने यहाँ रख क्यों नहीं लेती हो धनिया तो प्राय: आती भी नहीं।’’माता ने गम्भीरता से कहा‘‘रख लो कौन जाति है, कैसी है, जाना न सुना बस रख लो।’’निर्मल ने कहा‘‘माँ, दरिद्रों की तो एक ही जाति होती है।’’माँ झल्ला उठी, और भिखारिन लौट चली। निर्मल ने देखा, जैसे उमड़ी हुई मेघमाला बिना बरसे हुए लौट गई। उसका जी कचोट उठा। विवश था, माता के साथ चला गया।‘‘सुने री निर्धन के धन राम सुने री’’भैरवी के स्वर पवन में आन्दोलन कर रहे थे। धूप गंगा के वक्ष पर उजली होकर नाच रही थी। भिखारिन पत्थर की सीढिय़ों पर सूर्य की ओर मुँह किये गुनगुना रही थी। निर्मल आज अपनी भाभी, के संग स्नान करने के लिए आया है। गोद में अपने चार बरस के भतीजे को लिये वह भी सीढिय़ों से उतरा। भाभी ने पूछा‘‘निर्मल आज क्या तुम भी पुण्यसञ्चय करोगे’’‘‘क्यों भाभी जब तुम इस छोटे से बच्चे को इस सरदी में नहला देना धर्म समझती हो, तो मै ही क्यों वञ्चित रह जाऊँ’’सहसा निर्मल चौंक उठा। उसने देखा, बगल में वही भिखारिन बैठी गुनगुना रही है। निर्मल को देखते ही उसने कहाबाबूजी, तुम्हारा बच्चा फलेफूले, बहू का सोहाग बना रहे आज तो मुझे कुछ मिले।’’निर्मल अप्रतिभ हो गया। उसकी भाभी हँसती हुई बोली‘‘दुर पगली’’भिखारिन सहम गई। उसके दाँतो का भोलापन गम्भीरता के परदे में छिप गया। वह चुप हो गई।निर्मल ने स्नान किया। सब ऊपर चलने के लिए प्रस्तुत थे। सहसा बादल हट गये, उन्हीं अमलधवल दाँतो की श्रेणी ने फिर याचना की‘‘बाबूजी, कुछ मिलेगा’’‘‘अरे , अभी बाबूजी का ब्याह नहीं हुआ। जब होगा, तब तुझे न्योता देकर बुलावेंगे। तब तक सन्तोष करके बैठी रह।’’ भाभी ने हँसकर कहा।‘‘तुम लोग बड़ी निष्ठुर हो, भाभी उस दिन माँ से कहा कि इसे नौकर रख लो, तो वह इसकी जाति पूछने लगी और आज तुम भी हँसी ही कर रही हो’’निर्मल की बात काटते हुए भिखारिन ने कहा‘‘बहूजी, तुम्हें देखकर मैं तो यही जानती हूँ कि ब्याह हो गया है। मुझे कुछ न देने के लिए बहाना कर रही हो’’‘‘मर पगली बड़ी ढीठ है’’ भाभी ने कहा।‘‘भाभी उस पर क्रोध न करो। वह क्या जाने, उसकी दृष्टि में सब अमीर और सुखी लोग विवाहित हैं। जाने दो, घर चलें’’‘‘अच्छा चलो, आज माँ से कहकर इसे तुम्हारे लिए टहलनी रखवा दूँगी।’’कहकर भाभी हँस पड़ी।युवक हृदय उत्तेजित हो उठा। बोला‘‘यह क्या भाभी मैं तो इससे ब्याह करने के लिए भी प्रस्तुत हो जाऊँगा तुम व्यंग क्यों कर रही हो’’भाभी अप्रतिभ हो गई। परन्तु भिखारिन अपने स्वाभाविक भोलेपन से बोली‘‘दो दिन माँगने पर भी तुम लोगों से एक पैसा तो देते नहीं बना, फिर क्यों गाली देते हो, बाबू ब्याह करके निभाना तो बड़ी दूर की बात है’’भिखारिन भारी मुँह किये लौट चली।बालक रामू अपनी चालाकी में लगा था। माँ की जेब से छोटी दुअन्नी अपनी छोटी उँगलियों से उसने निकाल ली और भिखारिन की ओर फेंककर बोला‘‘लेती जाओ, ओ भिख

  • 35: प्रेमचंद की कहानी "मुबारक़ बीमारी" Premchand Story "Mubaraq Beemari"
    18 min 29 sec

    रात के नौ बज गये थे, एक युवती अंगीठी के सामने बैठी हुई आग फूंकती थी और उसके गाल आग के कुन्दनी रंग में दहक रहे थ। उसकी बड़ीबड़ी आंखें दरवाजे की तरफ़ लगी हुई थीं। कभी चौंककर आंगन की तरफ़ ताकती, कभी कमरे की तरफ़। फिर आनेवालों की इस देरी से त्योरियों पर बल पड़ जाते और आंखों में हलकासा गुस्सा नजर आता। कमल पानी में झकोले खाने लगता।इसी बीच आनेवालों की आहट मिली। कहर बाहर पड़ा खर्राटे ले रहा था। बूढ़े लाला हरनामदास ने आते ही उसे एक ठोकर लगाकर कहाकम्बख्त, अभी शाम हुई है और अभी से लम्बी तान दीनौजवान लाला हरिदास घर मे दाखिल हुए—चेहरा बुझा हुआ, चिन्तित। देवकी ने आकर उनका हाथ पकड़ लिया और गुस्से व प्यार की मिली ही हुई आवाज में बोली—आज इतनी देर क्यों हुईदोनों नये खिले हुए फूल थे—एक पर ओस की ताज़गी थी, दूसरा धूप से मुरझाया हुआ।हरिदास—हां, आज देर हो गयी, तुम यहां क्यों बैठी रहींदेवकी—क्या करती, आग बुझी जाती थी, खाना न ठन्डा हो जाता।हरिदास—तुम ज़रासेकाम के लिए इतनी आग के सामने न बैठा करो। बाज आया गरम खाने से।देवकी—अच्छा, कपड़े तो उतारो, आज इतनी देर क्यों कीहरिदास—क्या बताऊँ, पिताजी ने ऐसा नाक में दम कर दिया है कि कुछ कहते नहीं बनता। इस रोजरोज की झंझट से तो यही अच्छा कि मैं कहीं और नौकरी कर लूं।लाला हरनामदास एक आटे की चक्की के मालिक थे। उनकी जवानी के दिनों में आसपास दूसरी चक्की न थी। उन्होंने खूब धन कमाया। मगर अब वह हालत न थी। चक्कियां कीड़ेमकोडों की तरह पैदा हो गयी थीं, नयी मशीनों और ईजादों के साथ। उसके काम करनेवाले भी जोशीले नौजवान थे, मुस्तैदी से काम करते थे। इसलिए हरनामदास का कारखाना रोज गिरता जाता था। बूढ़े आदमियों को नयी चीजों से चिढ़ हो जाती है। वह लाला हरनामदास को भी थी। वह अपनी पुरानी मशीन ही को चलाते थे, किसी किस्म की तरक्की या सुधार को पाप समझते थे, मगर अपनी इस मन्दी पर कुढा करते थे। हरिदास ने उनकी मर्जी के खिलाफ़ कालेजियेट शिक्षा प्राप्त की थी और उसका इरादा था कि अपने पिता के कारखाने को नये उसूलों पर चलाकर आगे बढायें। लेकिन जब वह उनसे किसी परिवर्तन या सुधार का जिक्र करता तो लाला साहब जामे से बाहर हो जाते और बड़े गर्व से कहते—कालेज में पढ़ने से तजुर्बा नहीं आता। तुम अभी बच्चे हो, इस काम में मेरे बाल सफेद हो गये हैं, तुम मुझे सलाह मत दो। जिस तरह मैं कहता हूँ, काम किये जाओ।कई बार ऐसे मौके आ चुके थे कि बहुत ही छोटे मसलों में अपने पिता की मर्जी के खिलाफ काम करने के जुर्म में हरिदास को सख्त फटकारें पड़ी थीं। इसी वजह से अब वह इस काम में कुछ उदासीन हो गया थ और किसी दूसरे कारखाने में किस्मत आजमाना चाहता था जहां उसे अपने विचारों को अमली सूरत देने की ज्यादा सहूलतें हासिल हों।देवकी ने सहानुभूतिपूर्वक कहा—तुम इस फिक्र में क्यों जान खपाते हो, जैसे वह कहें, वैसे ही करो, भला दूसरी जगह नौकरी कर लोगे तो वह क्या कहेगे और चाहे वे गुस्से के मारे कुछ न बोलें, लेकिन दुनिया तो तुम्हीं को बुरा कहेगी।देवकी नयी शिक्षा के आभूषण से वंचित थी। उसने स्वार्थ का पाठ न पढा था, मगर उसका पति अपने ‘अलमामेटर’ का एक प्रतिष्ठित सदस्य था। उसे अपनी योग्यता पर पूरा भरोसा था। उस पर नाम कमाने का जोश। इसलिए वह बूढ़े पिता के पुराने ढर्रो को देखकर धीरज खो बैठता था। अगर अपनी योग्यताओं के लाभप्रद उपयोग की कोशिश के लिए दुनिया उसे बुरा कहे, तो उसकी परवाह न थी। झुंझलाकर बोला—कुछ मैं अमरित की घरिया पीकर तो नहीं आया हूँ कि सारी उम्र उनके मरने का इंतजार करूँ। मूर्खों की अनुचित टीकाटिप्पणियों के डर से क्या अपनी उम्र बरबार कर दूं मैं अपने कुछ हमउम्रों को जानता हूँ जो हरगिज मेरीसी योग्यता नहीं रखते। लेकिन वह मोटर पर हवा खाने निकलते हैं, बंगलों में रहते हैं और शान से जिन्दगी बसर करते हैं तो मैं क्यों हाथ पर हाथ रखे जिन्दगी को अमर समझे बैठा रहूँ सन्तोष और निस्पृहता का युग बीत गया। यह संघर्ष का युग है। यह मैं जानता हूँ कि पिता का आदर करना मेरा धर्म है। मगर सिद्धांतों के मामले में मैं उनसे क्या, किसी से भी नहीं दब सकता।इसी बीच कहार ने आकर कहा—लाला जी थाली मांगते हैं।लाल हरनामदास हिन्दू रस्मरिवाज के बड़े पाबन्द थे। मगर बुढापे के कारण चौक के चक्कर से मुक्ति पा चुके थे। पहले कुछ दिनों तक जाड़ों में रात को पूरियां न हजम होती थीं इसलिए चपातियां ही अपनी बैठक में मंगा लिया करते थे। मजबूरी ने वह कराया था जो हुज्जत और दलील के काबू से बाहर था।हरिदास के लिए भी देवकी ने खाना निकाला। पहले तो वह हजरत बहुत दुखी नजर आते थे, लेकिन बघार की खुशबू ने खाने के लिए चाव पैदा कर दिया था। अक्सर हम अपनी आंख और नाक से हाजमे का काम लिया करते हैं।

  • 40: जयशंकर प्रसाद की लिखी कहानी ममता, Mamta - Story Written By Jaishankar Prasad
    9 min 6 sec

    रोहतासदुर्ग के प्रकोष्ठ में बैठी हुई युवती ममता, शोण के तीक्ष्ण गम्भीर प्रवाह को देख रही है। ममता विधवा थी। उसका यौवन शोण के समान ही उमड़ रहा था। मन में वेदना, मस्तक में आँधी, आँखों में पानी की बरसात लिये, वह सुख के कण्टकशयन में विकल थी। वह रोहतासदुर्गपति के मंत्री चूड़ामणि की अकेली दुहिता थी, फिर उसके लिए कुछ अभाव होना असम्भव था, परन्तु वह विधवा थीहिन्दूविधवा संसार में सबसे तुच्छ निराश्रय प्राणी हैतब उसकी विडम्बना का कहाँ अन्त थाचूड़ामणि ने चुपचाप उसके प्रकोष्ठ में प्रवेश किया। शोण के प्रवाह में, उसके कलनाद में अपना जीवन मिलाने में वह बेसुध थी। पिता का आना न जान सकी। चूड़ामणि व्यथित हो उठे। स्नेहपालिता पुत्री के लिए क्या करें, यह स्थिर न कर सकते थे। लौटकर बाहर चले गये। ऐसा प्राय: होता, पर आज मंत्री के मन में बड़ी दुश्चिन्ता थी। पैर सीधे न पड़ते थे।एक पहर बीत जाने पर वे फिर ममता के पास आये। उस समय उनके पीछे दस सेवक चाँदी के बड़े थालों में कुछ लिये हुए खड़े थे कितने ही मनुष्यों के पदशब्द सुन ममता ने घूम कर देखा। मंत्री ने सब थालों को रखने का संकेत किया। अनुचर थाल रखकर चले गये।ममता ने पूछायह क्या है, पिताजीतेरे लिये बेटी उपहार है।कहकर चूड़ामणि ने उसका आवरण उलट दिया। स्वर्ण का पीलापन उस सुनहली सन्ध्या में विकीर्ण होने लगा। ममता चौंक उठीइतना स्वर्ण यहा कहाँ से आयाचुप रहो ममता, यह तुम्हारे लिये हैतो क्या आपने म्लेच्छ का उत्कोच स्वीकार कर लिया पिताजी यह अनर्थ है, अर्थ नहीं। लौटा दीजिये। पिताजी हम लोग ब्राह्मण हैं, इतना सोना लेकर क्या करेंगेइस पतनोन्मुख प्राचीन सामन्तवंश का अन्त समीप है, बेटी किसी भी दिन शेरशाह रोहिताश्व पर अधिकार कर सकता है उस दिन मन्त्रित्व न रहेगा, तब के लिए बेटीहे भगवान तब के लिए विपद के लिए इतना आयोजन परम पिता की इच्छा के विरुद्ध इतना साहस पिताजी, क्या भीख न मिलेगी क्या कोई हिन्दू भूपृष्ठ पर न बचा रह जायेगा, जो ब्राह्मण को दो मुठ्ठी अन्न दे सके यह असम्भव है। फेर दीजिए पिताजी, मैं काँप रही हूँइसकी चमक आँखों को अन्धा बना रही है।मूर्ख हैकहकर चूड़ामणि चले गये।दूसरे दिन जब डोलियों का ताँता भीतर आ रहा था, ब्राह्मणमंत्री चूड़ामणि का हृदय धक्धक करने लगा। वह अपने को रोक न सका। उसने जाकर रोहिताश्व दुर्ग के तोरण पर डोलियों का आवरण खुलवाना चाहा। पठानों ने कहा यह महिलाओं का अपमान करना है।बात बढ़ गई। तलवारें खिंचीं, ब्राह्मण वहीं मारा गया और राजारानी और कोष सब छली शेरशाह के हाथ पड़े निकल गई ममता। डोली में भरे हुए पठानसैनिक दुर्ग भर में फैल गये, पर ममता न मिली।

  • 36: प्रेमचंद की कहानी "खुदी" Premchand Story "Khudi"
    11 min 31 sec

    मुन्नी जिस वक्त दिलदारनगर में आयी, उसकी उम्र पांच साल से ज्यादा न थी। वह बिलकुल अकेली न थी, माँबाप दोनों न मालूम मर गये या कहीं परदेस चले गये थे। मुत्री सिर्फ इतना जानती थी कि कभी एक देवी उसे खिलाया करती थी और एक देवता उसे कंधे पर लेकर खेतों की सैर कराया करता था। पर वह इन बातों का जिक्र कुछ इस तरह करती थी कि जैसे उसने सपना देखा हो। सपना था या सच्ची घटना, इसका उसे ज्ञान न था। जब कोई पूछता तेरे मॉँबाप कहां गये तो वह बेचारी कोई जवाब देने के बजाय रोने लगती और यों ही उन सवालों को टालने के लिए एक तरफ हाथ उठाकर कहती—ऊपर। कभी आसमान की तरफ़ देखकर कहती—वहां। इस ‘ऊपर’ और ‘वहां’ से उसका क्या मतलब था यह किसी को मालूम न होता। शायद मुन्नी को यह खुद भी मालूम न था। बस, एक दिन लोगों ने उसे एक पेड़ के नीचे खेलते देखा और इससे ज्यादा उसकी बाबत किसी को कुछ पता न था। लड़की की सूरत बहुत प्यारी थी। जो उसे देखता, मोह जाता। उसे खानेपीने की कुछ फ़िक्र न रहती। जो कोई बुलाकर कुछ दे देता, वही खा लेती और फिर खेलने लगती। शक्लसूरज से वह किसी अच्छे घर की लड़की मालूम होती थी। ग़रीबसेग़रीब घर में भी उसके खाने को दो कौर और सोने को एक टाट के टुकड़े की कमी न थी। वह सबकी थी, उसका कोई न था। इस तरह कुछ दिन बीत गये। मुन्नी अब कुछ काम करने के क़ाबिल हो गयी। कोई कहता, ज़रा जाकर तालाब से यह कपड़े तो धो ला। मुन्नी बिना कुछ कहेसुने कपड़े लेकर चली जाती। लेकिन रास्ते में कोई बुलाकर कहता, बेटी, कुऍं से दो घड़े पानी तो खींच ला, तो वह कपड़े वहीं रखकर घड़े लेकर कुऍं की तरफ चल देती। जरा खेत से जाकर थोड़ा साग तो ले आ और मुन्नी घड़े वहीं रखकर साग लेने चली जाती। पानी के इन्तज़ार में बैठी हुई औरत उसकी राह देखतेदेखते थक जाती। कुऍं पर जाकर देखती है तो घड़े रखे हुए हैं। वह मुन्नी को गालियॉँ देती हुई कहती, आज से इस कलमुँही को कुछ खाने को न दूँगी। कपड़े के इन्तज़ार में बैठी हुई औरत उसकी राह देखतेदेखते थक जाती और गुस्से में तालाब की तरफ़ जाती तो कपड़े वहीं पड़े हुए मिलते। तब वह भी उसे गालियॉँ देकर कहती, आज से इसको कुछ खाने को न दूँगी। इस तरह मुन्नी को कभीकभी कुछ खाने को न मिलता और तब उसे बचपन याद आता, जब वह कुछ काम न करती थी और लोग उसे बुलाकर खाना खिला देते थे। वह सोचती किसका काम करुँ, किसका न करुँ जिसे जवाब दूँ वही नाराज़ हो जायेगा। मेरा अपना कौन है, मैं तो सब की हूँ। उसे ग़रीब को यह न मालूम था कि जो सब का होता है वह किसी का नहीं होता। वह दिन कितने अच्छे थे, जब उसे खानेपीने की और किसी की खुशी या नाखुशी की परवाह न थी। दुर्भाग्य में भी बचपन का वह समय चैन का था। कुछ दिन और बीते, मुन्नी जवान हो गयी। अब तक वह औरतों की थी, अब मर्दो की हो गयी। वह सारे गॉँव की प्रेमिका थी पर कोई उसका प्रेमी न था। सब उससे कहते थे—मैं तुम पर मरता हूँ, तुम्हारे वियोग में तारे गिनता हूँ, तुम मेरे दिलोजान की मुराद हो, पर उसका सच्चा प्रेमी कौन है, इसकी उसे खबर न होती थी। कोई उससे यह न कहता था कि तू मेरे दुखदर्द की शरीक हो जा। सब उससे अपने दिल का घर आबाद करना चाहते थे। सब उसकी निगाह पर, एक मद्धिमसी मुस्कराहट पर कुर्बान होना चाहते थे पर कोई उसकी बाँह पकड़नेवाला, उसकी लाज रखनेवाला न था। वह सबकी थी, उसकी मुहब्बत के दरवाजे सब पर खुले हुए थे पर कोई उस पर अपना ताला न डालता था जिससे मालूम होता कि यह उसका घर है, और किसी का नहीं।

  • 41: जयशंकर प्रसाद की लिखी कहानी प्रतिध्वनि, Pratidhwani - Story Written By Jaishankar Prasad
    9 min 36 sec

    मनुष्य की चिता जल जाती है, और बुझ भी जाती है परन्तु उसकी छाती की जलन, द्वेष की ज्वाला, सम्भव है, उसके बाद भी धक्धक करती हुई जला करे।तारा जिस दिन विधवा हुई, जिस समय सब लोग रोपीट रहे थे, उसकी ननद ने, भाई के मरने पर भी, रोदन के साथ, व्यंग स्वर में कहा‘‘अरे मैया रे, किसका पाप किसे खा गया रे’’ तभी आसन्न वैधव्य ठेलकर, अपने कानों को ऊँचा करके, तारा ने वह तीक्ष्ण व्यंग रोदन के कोलाहल में भी सुन लिया था।तारा सम्पन्न थी, इसलिए वैधव्य उसे दूर ही से डराकर चला जाता। उसका पूर्ण अनुभव वह कभी न कर सकी। हाँ, ननद रामा अपनी दरिद्रता के दिन अपनी कन्या श्यामा के साथ किसी तरह काटने लगी। दहेज मिलने की निराशा से कोई ब्याह करने के लिए प्रस्तुत न होता। श्यामा चौदह बरस की हो चली। बहुत चेष्टा करके भी रामा उसका ब्याह न कर सकी। वह चल बसी।श्यामा निस्सहाय अकेली हो गई। पर जीवन के जितने दिन हैं , वे कारावासी के समान काटने ही होंगे। वह अकेली ही गंगातट पर अपनी बारी से सटे हुए कच्चे झोपड़े में रहने लगी।मन्नी नाम की एक बुढिय़ा, जिसे ‘दादी’ कहती थी, रात को उसके पास सो रहती, और न जाने कहाँ से, कैसे उसके खानेपीने का कुछ प्रबन्ध कर ही देती। धीरेधीरे दरिद्रता के सब अवशिष्ट चिह्न बिककर श्यामा के पेट में चले गये।पर, उसकी आम की बारी अभी नीलाम होने के लिए हरीभरी थीकोमल आतप गंगा के शीतल शरीर में अभी ऊष्मा उत्पन्न करने में असमर्थ था। नवीन किसलय उससे चमक उठे थे। वसन्त की किरणों की चोट से कोयल कुहुक उठी। आम की कैरियों के गुच्छे हिलने लगे। उस आम की बारी में माधवऋतु का डेरा था और श्यामा के कमनीय कलेवर में यौवन था।श्यामा अपने कच्चे घर के द्वार पर खड़ी हुई मेघसंक्रान्ति का पर्वस्नान करने वालों को कगार के नीचे देख रही थी। समीप होने पर भी वह मनुष्यों की भीड़ उसे चींटियाँ रेंगती हुई जैसी दिखायी पड़ती थी। मन्नी ने आते ही उसका हाथ पकड़कर कहा‘‘चलो बेटी, हम लोग भी स्नान कर आवें।’’उसने कहा‘‘नहीं दादी, आज अंगअंग टूट रहा है, जैसे ज्वर आने को है।’’मन्नी चली गई।तारा स्नान करके दासी के साथ कगारे के ऊपर चढऩे लगी। श्यामा की बारी के पास से ही पथ था। किसी को वहाँ न देखकर तारा ने सन्तुष्ट होकर साँस ली। कैरियों से गदराई हुई डाली से उसका सिर लग गया। डाली राह में झुकी पड़ती थी। तारा ने देखा, कोई नहीं है हाथ बढ़ाकर कुछ कैरियाँ तोड़ लीं।सहसा किसी ने कहा‘‘और तोड़ लो मामी, कल तो यह नीलाम ही होगा’’तारा की अग्निबाणसी आँखें किसी को जला देने के लिए खोजने लगीं। फिर उसके हृदय में वही बहुत दिन की बात प्रतिध्वनित होने लगी‘‘किसका पाप किसको खा गया, रे’’तारा चौंक उठी। उसने सोचा, रामा की कन्या व्यंग कर रही है भीख लेने के लिए कह रही है। तारा होंठ चबाती हुई चली गई।

  • 37: प्रेमचंद की कहानी "नादान दोस्त" Premchand Story "Nadan Dost"
    10 min 21 sec

    केशव के घर में कार्निस के ऊपर एक चिड़िया ने अण्डे दिए थे। केशव और उसकी बहन श्यामा दोनों बड़े ध्यान से चिड़ियों को वहां आतेजाते देखा करते । सवेरे दोनों आंखें मलते कार्निस के सामने पहुँच जाते और चिड़ा या चिड़िया दोनों को वहां बैठा पाते। उनको देखने में दोनों बच्चों को न मालूम क्या मजा मिलता, दूध और जलेबी की भी सुध न रहती थी।दोनों के दिल में तरहतरह के सवाल उठते। अण्डे कितने बड़े होंगे किस रंग के होंगे कितने होंगे क्या खाते होंगे उनमें बच्चे किस तरह निकल आयेंगे बच्चों के पर कैसे निकलेंगे घोंसला कैसा है लेकिन इन बातों का जवाब देने वाला कोई नहीं। न अम्मां को घर के कामधंधों से फुर्सत थी न बाबूजी को पढ़नेलिखने से । दोनों बच्चे आपस ही में सवालजवाब करके अपने दिल को तसल्ली दे लिया करते थे।श्यामा कहती क्यों भइया, बच्चे निकलकर फुर से उड़ जायेंगे केशव विद्वानों जैसे गर्व से कहता नहीं री पगली, पहले पर निकलेंगे। बगैर परों के बेचारे कैसे उड़ेगे श्यामा बच्चों को क्या खिलायेगी बेचारी केशव इस पेचीदा सवाल का जवाब कुछ न दे सकता था।इस तरह तीनचान दिन गुजर गए। दोनों बच्चों की जिज्ञासा दिनदिन बढ़ती जाती थी। अण्डों को देखने के लिए वह अधीर हो उठते थे। उन्होंने अनुमान लगाया कि अब बच्चे जरूर निकल आये होंगे। बच्चों के चारों का सवाल अब उनके सामने आ खड़ा हुआ। चिड़ियां बेचारी इतना दाना कहां पायेंगी कि सारे बच्चों का पेट भरे। गरीब बच्चे भूख के मारे चूंचूं करके मर जायेंगे।इस मुसीबत का अन्दाजा करके दोनों घबरा उठे। दोनों ने फैसला किया कि कार्निस पर थोड़ासा दाना रख दिया जाये। श्यामा खुश होकर बोली तब तो चिड़ियों को चारे के लिए कहीं उड़कर न जाना पड़ेगा न केशव नहीं, तब क्यों जायेंगी श्यामा क्यों भइया, बच्चों को धूप न लगती होगीकेशव का ध्यान इस तकलीफ की तरफ न गया था। बोला जरूर तकलीफ हो रही होगी। बेचारे प्यास के मारे पड़फ रहे होंगे। ऊपर छाया भी तो कोई नहीं ।आखिर यही फैसला हुआ कि घोंसले के ऊपर कपड़े की छत बना देनी चाहिए। पानी की प्याली और थोड़ेसे चावल रख देने का प्रस्ताव भी स्वीकृत हो गया।दोनों बच्चे बड़े चाव से काम करने लगे। श्यामा मां की आंख बचाकर मटके से चावल निकाल लायी। केशव ने पत्थर की प्याली का तेल चुपके से जमीन पर गिरा दिया और खूब साफ करके उसमें पानी भरा।अब चांदनी के लिए कपड़ा कहां से लाए फिर ऊपर बगैर छड़ियों के कपड़ा ठहरेगा कैसे और छड़ियां खड़ी होंगी कैसे केशव बड़ी देर तक इसी उधेड़बुन में रहा। आखिरकार उसने यह मुश्किल भी हल कर दी। श्यामा से बोला जाकर कूड़ा फेंकने वाली टोकरी उठा लाओ। अम्मांजी को मत दिखाना।श्यामा वह तो बीच में फटी हुई है। उसमें से धूप न जाएगी केशव ने झुंझलाकर कहा तू टोकरी तो ला, मैं उसका सुराख बन्द करने की कोई हिकमत निकालूंगा।श्यामा दौड़कर टोकरी उठा लायी। केशव ने उसके सुराख में थोड़ासा कागज ठूँस दिया और तब टोकरी को एक टहनी से टिकाकर बोला देख ऐसे ही घोंसले पर उसकी आड़ दूंगा। तब कैसे धूप जाएगी श्यामा ने दिल में सोचा, भइया कितने चालाक हैं।

  • 42: जयशंकर प्रसाद की लिखी कहानी बंजारा, Banjara - Story Written By Jaishankar Prasad
    7 min 49 sec

    धीरेधीरे रात खिसक चली, प्रभात के फूलों के तारे चू पडऩा चाहते थे। विन्ध्य की शैलमाला में गिरिपथ पर एक झुण्ड बैलों का बोझ लादे आता था। साथ के बनजारे उनके गले की घण्टियों के मधुर स्वर में अपने ग्रामगीतों का आलाप मिला रहे थे। शरद ऋतु की ठण्ड से भरा हुआ पवन उस दीर्घ पथ पर किसी को खोजता हुआ दौड़ रहा था।वे बनजारे थे। उनका काम था सरगुजा तक के जंगलों में जाकर व्यापार की वस्तु क्रयविक्रय करना। प्राय: बरसात छोड़कर वे आठ महीनें यही उद्यम करते। उस परिचित पथ में चलते हुए वे अपने परिचित गीतों को कितनी ही बार उन पहाड़ी चट्टानों से टकरा चुके थे। उन गीतों में आशा, उपालम्भ, वेदना और स्मृतियों की कचोट, ठेस और उदासी भरी रहती।सबसे पीछेवाले युवक ने अभी अपने आलाप को आकाश में फैलाया था उसके गीत का अर्थ थामैं बारबार लाभ की आशा से लादने जाता हूँ परन्तु है उस जंगल की हरियाली में अपने यौवन को छिपानेवाली कोलकुमारी, तुम्हारी वस्तु बड़ी महँगी है मेरी सब पूँजी भी उसको क्रय करने के लिए पर्याप्त नहीं। पूँजी बढ़ाने के लिए व्यापार करता हूँ एक दिन धनी होकर आऊँगा परन्तु विश्वास है कि तब भी तुम्हारे सामने रंक ही रह जाऊँगाआलाप लेकर वह जंगली वनस्पतियों की सुगन्ध में अपने को भूल गया। यौवन के उभार में नन्दू अपरिचित सुखों की ओर जैसे अग्रसर हो गया था। सहसा बैलों की श्रेणी के अग्रभाग में हलचल मची। तड़ातड़ का शब्द, चिल्लाने और कूदने का उत्पात होने लगा। नन्दू का सुखस्वप्न टूट गया, बाप रे, डाकाकहकर वह एक पहाड़ी की गहराई में उतरने लगा। गिर पड़ा, लुढक़ता हुआ नीचे चला। मूर्च्छित हो गया।हाकिम परगना और इंजीनियर का पड़ाव अधिक दूर न था। डाका पड़नेवाला स्थान दूसरे ही दिन भीड़ से भर गया। गोड़ैत और सिपाहियों की दौड़धूप चलने लगी। छोटीसी पहाड़ी के नीचे, फूस की झोपड़ी में, ऊषा किरणों का गुच्छा सुनहले फूल के सदृश झूलने लगा था। अपने दोनो हाथों पर झुकी हुई एक साँवलीसी युवती उस आहत पुरुष के मुख को एकटक देख रही थी। धीरेधीरे युवती के मुख पर मुस्कराहट और पुरुष के मुख पर सचेष्टता के लक्षण दिखलाई देने लगे। पुरुष ने आँखे खोल दी। युवती पास ही धरा हुआ गरम दूध उसके मुँह में डालने लगी। और युवक पीने लगा।

  • 38: प्रेमचंद की कहानी "पागल हाथी" Premchand Story "Paagal Haathi"
    5 min 22 sec

    मोती राजा साहब की खास सवारी का हाथी। यों तो वह बहुत सीधा और समझदार था, पर कभीकभी उसका मिजाज गर्म हो जाता था और वह आपे में न रहता था। उस हालत में उसे किसी बात की सुधि न रहती थी, महावत का दबाव भी न मानता था। एक बार इसी पागलपन में उसने अपने महावत को मार डाला। राजा साहब ने वह खबर सुनी तो उन्हें बहुत क्रोध आया। मोती की पदवी छिन गयी। राजा साहब की सवारी से निकाल दिया गया। कुलियों की तरह उसे लकड़ियां ढोनी पड़तीं, पत्थर लादने पड़ते और शाम को वह पीपल के नीचे मोटी जंजीरों से बांध दिया जाता। रातिब बंद हो गया। उसके सामने सूखी टहनियां डाल दी जाती थीं और उन्हीं को चबाकर वह भूख की आग बुझाता। जब वह अपनी इस दशा को अपनी पहली दशा से मिलाता तो वह बहुत चंचल हो जाता। वह सोचता, कहां मैं राजा का सबसे प्यारा हाथी था और कहां आज मामूली मजदूर हूं। यह सोचकर जोरजोर से चिंघाड़ता और उछलता। आखिर एक दिन उसे इतना जोश आया कि उसने लोहे की जंजीरें तोड़ डालीं और जंगल की तरफ भागा।थोड़ी ही दूर पर एक नदी थी। मोती पहले उस नदी में जाकर खूब नहाया। तब वहां से जंगल की ओर चला। इधर राजा साहब के आदमी उसे पकड़ने के लिए दौड़े, मगर मारे डर के कोई उसके पास जा न सका। जंगल का जानवर जंगल ही में चला गया।जंगल में पहुंचकर अपने साथियों को ढूंढ़ने लगा। वह कुछ दूर और आगे बढ़ा तो हाथियों ने जब उसके गले में रस्सी और पांव में टूटी जंजीर देखी तो उससे मुंह फेर लिया। उसकी बात तक न पूछी। उनका शायद मतलब था कि तुम गुलाम तो थे ही, अब नमकहरामगुलाम हो, तुम्हारी जगह इस जंगल में नहीं है। जब तक वे आंखों से ओझल न हो गये, मोती वहीं खड़ा ताकता रहा। फिर न जाने क्या सोचकर वहां से भागता हुआ महल की ओर चला।वह रास्ते ही में था कि उसने देखा कि राजा साहब शिकारियों के साथ घोड़े पर चले आ रहे हैं। वह फौरन एक बड़ी चट्टान की आड़ में छिप गया। धूप तेज थी, राजा साहब जरा दम लेने को घोड़े से उतरे। अचानक मोती आड़ से निकल पड़ा और गरजता हुआ राजा साहब की ओर दौड़ा। राजा साहब घबराकर भागे और एक छोटी झोंपड़ी में घुस गये। जरा देर बाद मोती भी पहुंचा। उसने राजा साहब को अंदर घुसते देख लिया था। पहले तो उसने अपनी सूंड़ से ऊपर का छप्पर गिरा दिया, फिर उसे पैरों से रौंदकर चूरचूर कर डाला।भीतर राजा साहब का मारे डर के बुरा हाल था। जान बचने की कोई आशा न थी।आखिर कुछ न सूझी तो वह जान पर खेलकर पीछे दीवार पर चढ़ गये, और दूसरी तरफ कूद कर भाग निकले। मोती द्वार पर खड़ा छप्पर रौंद रहा था और सोच रहा था कि दीवार कैसे गिराऊं आखिर उसने धक्का देकर दीवार गिरा दी। मिट्टी की दीवार पागल हाथी का धक्का क्या सहती मगर जब राजा साहब भीतर न मिले तो उसने बाकी दीवारें भी गिरा दीं और जंगल की तरफ चला गया।घर लौटकर राजा साहब ने ढिंढोरा पिटवा दिया कि जो आदमी मोती को जीता पकड़कर लायेगा, उसे एक हजार रुपया इनाम दिया जायेगा। कई आदमी इनाम के लालच में उसे पकड़ने के लिए जंगल गये। मगर उनमें से एक भी न लौटा। मोती के महावत के एक लड़का था। उसका नाम था मुरली। अभी वह कुल आठनौ बरस का था, इसलिए राजा साहब दया करके उसे और उसकी मां को खानेपहनने के लिए कुछ खर्च दिया करते थे। मुरली था तो बालक पर हिम्मत का धनी था, कमर बांधकर मोती को पकड़ लाने के लिए तैयार हो गया। मगर मां ने बहुतेरा समझाया, और लोगों ने भी मना किया, मगर उसने किसी की एक न सुनी और जंगल की ओर चल दिया। जंगल में गौर से इधरउधर देखने लगा। आखिर उसने देखा कि मोती सिर झुकाये उसी पेड़ की ओर चला आ रहा है। उसकी चाल से ऐसा मालूम होता था कि उसका मिजाज ठंडा हो गया है। ज्यों ही मोती उस पेड़ के नीचे आया, उसने पेड़ के ऊपर से पुचकारा, मोतीमोती इस आवाज को पहचानता था। वहीं रुक गया और सिर उठाकर ऊपर की ओर देखने लगा। मुरली को देखकर पहचान गया। यह वही मुरली था, जिसे वह अपनी सूंड़ से उठाकर अपने मस्तक पर बिठा लेता था मैंने ही इसके बाप को मार डाला है, यह सोचकर उसे बालक पर दया आयी। खुश होकर सूंड़ हिलाने लगा। मुरली उसके मन के भाव को पहचान गया। वह पेड़ से नीचे उतरा और उसकी सूंड़ को थपकियां देने लगा। फिर उसे बैठने का इशारा किया। मोती बैठा नहीं, मुरली को अपनी सूंड़ से उठाकर पहले ही की तरह अपने मस्तक पर बिठा लिया और राजमहल की ओर चला। मुरली जब मोती को लिए हुए राजमहल के द्वार पर पहुंचा तो सबने दांतों उंगली दबाई। फिर भी किसी की हिम्मत न होती थी कि मोती के पास जाये। मुरली ने चिल्लाकर कहा, डरो मत, मोती बिल्कुल सीधा हो गया है, अब वह किसी से न बोलेगा। राजा साहब भी डरतेडरते मोती के सामने आये। उन्हें कितना अचंभा हुआ कि वही पागल मोती अब गाय की तरह सीधा हो गया है। उन्होंने मुरली को एक हजार रुपया इनाम तो दिया ही, उसे अपना खास महावत बना लिया

  • 44: जयशंकर प्रसाद की लिखी अपराधी, Apradhi - Story Written By Jaishankar Prasad
    9 min 59 sec

    वनस्थली के रंगीन संसार में अरुण किरणों ने इठलाते हुए पदार्पण किया और वे चमक उठीं, देखा तो कोमल किसलय और कुसुमों की पंखुरियाँ, बसन्तपवन के पैरों के समान हिल रही थीं। पीले पराग का अंगराग लगने से किरणें पीली पड़ गई। बसन्त का प्रभात था।युवती कामिनी मालिन का काम करती थी। उसे और कोई न था। वह इस कुसुमकानन से फूल चुन ले जाती और माला बनाकर बेचती। कभीकभी उसे उपवास भी करना पड़ता। पर, वह यह काम न छोड़ती। आज भी वह फूले हुए कचनार के नीचे बैठी हुई, अर्द्धविकसित कामिनीकुसुमों को बिना बेधे हुए, फन्दे देकर माला बना रही थी। भँवर आये, गुनगुनाकर चले गये। बसन्त के दूतों का सन्देश उसने न सुना। मलयपवन अञ्चल उड़ाकर, रूखी लटों को बिखराकर, हट गया। मालिन बेसुध थी, वह फन्दा बनाती जाती थी और फूलों को फँसाती जाती थी।द्रुतगति से दौड़ते हुए अश्व के पदशब्द ने उसे त्रस्त कर दिया। वह अपनी फूलों की टोकरी उठाकर भयभीत होकर सिर झुकाये खड़ी हो गई। राजकुमार आज अचानक उधर वायुसेवन के लिये आ गये थे। उन्होंने दूर ही से देखा, समझ गये कि वह युवती त्रस्त है। बलवान अश्व वहीं रुक गया। राजकुमार ने पूछातुम कौन होकुरंगी कुमारी के समान बड़ीबड़ी आँखे उठाकर उसने कहामालिनक्या तुम माला बनाकर बेचती होहाँ।यहाँ का रक्षक तुम्हें रोकता नहींनहीं, यहाँ कोई रक्षक नहीं है।आज तुमने कौनसी माला बनाई हैयही कामिनी की माला बना रही थी।तुम्हारा नाम क्या हैकामिनी।वाह अच्छा, तुम इस माला को पूरी करो, मैं लौटकरउसे लूँगा। डरने पर भी मालिन ढीठ थी। उसने कहाधूप निकल आने पर कामिनी का सौरभ कम हो जायगा।मैं शीघ्र आऊँगाकहकर राजकुमार चले गये।मालिन ने माला बना डाली। किरणें प्रतीक्षा में लालपीली होकर धवल हो चलीं। राजकुमार लौटकर नहीं आये। तब उसी ओर चलीजिधर राजकुमार गये थे।युवती बहुत दूर न गई होगी कि राजकुमार लौटकर दूसरे मार्ग से उसी स्थान पर आये। मालिन को न देखकर पुकारने लगेमालिन ओ मालिनदूरागत कोकिल की पुकारसा वह स्वर उसके कान में पड़ा था। वह लौट आई। हाथों में कामिनी की माला लिये वह वनलक्ष्मी के समान लौटी। राजकुमार उसी दिनसौन्दर्य को सकुतूहल देख रहे थे। कामिनी ने माला गले में पहना दी। राजकुमार ने अपना कौशेय उष्णीश खोलकर मालिन के ऊपर फेंक दिया। कहाजाओ, इसे पहनकर आओ। आश्चर्य और भय से लताओं की झुरमुट में जाकर उसने आज्ञानुसार कौशेय वसन पहना।बाहर आई, तो उज्ज्वल किरणें उसके अंगअंग पर हँसतेहँसते लोटपोट हो रही थीं। राजकुमार मुस्कराये और कहाआज से तुम इस कुसुमकानन की वनपालिका हुई हो। स्मरण रखना।राजकुमार चले गये। मालिन किंकर्तव्यविमूढ़ होकर मधूकवृक्ष के नीचे बैठ गई।

  • 39: प्रेमचंद की कहानी "बड़े बाबू" Premchand Story "Bade Babu"
    26 min 16 sec

    तीन सौ पैंसठ दिन, कई घण्टे और कई मिनट की लगातार और अनथक दौड़धूप के बाद मैं आखिर अपनी मंजिल पर धड़ से पहुँच गया। बड़े बाबू के दर्शन हो गए। मिट्टी के गोले ने आग के गोले का चक्कर पूरा कर लिया। अब तो आप भी मेरी भूगोल की लियाकत के कायल हो गए। इसे रुपक न समझिएगा। बड़े बाबू में दोपहर के सूरज की गर्मी और रोशनी थी और मैं क्या और मेरी बिसात क्या, एक मुठ्ठी खाक। बड़े बाबू मुझे देखकर मुस्कराये। हाय, यह बड़े लोगों की मुस्कराहट, मेरा अधमरासा शरीर कांपते लगा। जी में आया बड़े बाबू के कदमों पर बिछ जाऊँ। मैं काफिर नहीं, गालिब का मुरीद नहीं, जन्नत के होने पर मुझे पूरा यकीन है, उतरा ही पूरा जितना अपने अंधेरे घर पर। लेकिन फरिश्ते मुझे जन्नत ले जाने के लिए आए तो भी यकीनन मुझे वह जबरदस्त खुशी न होती जो इस चमकती हुई मुस्कराहट से हुई। आंखों में सरसों फूल गई। सारा दिल और दिमाग एक बगीचा बन गया। कल्पना ने मिस्र के ऊंचे महल बनाने शुरु कर दिय। सामने कुर्सियों, पर्दो और खस की टट्टियों से सजासजाया कमरा था। दरवाजे पर उम्मीदवारों की भीड़ लगी हुई थी और ईजानिब एक कुर्सी पर शान से बैठे हुए सबको उसका हिस्सा देने वाले खुदा के दुनियाबी फ़र्ज अदा कर रहे थे। नजरमियाज़ का तूफ़ान बरपा था और मैं किसी तरफ़ आंख उठाकर न देखता था कि जैसे मुझे किसी से कुछ लेनादेना नहीं।     अचानक एक शेर जैसी गरज ने मेरे बनते हुए महल में एक भूचालसा ला दिया—क्या काम है हाय रे, ये भोलापन इस पर सारी दुनिया के हसीनों का भोलापन और बेपरवाही निसार है। इस ड्याढ़ी पर माथा रगड़तेरगड़ते तीने सौ पैंसठ दिन, कई घण्टे और कई मिनट गुजर गए। चौखट का पत्थर घिसकर जमीन से मिल गया। ईदू बिसाती की दुकान के आधे खिलौने और गोवर्द्धन हलवाई की आधी दुकान इसी ड्यौढ़ी की भेंट चढ़ गयी और मुझसे आज सवाल होता है, क्या काम है      मगर नहीं, यह मेरी ज्यादती हैं सरासर जुल्म। जो दिमाग़ बड़ेबड़े मुल्की और माली तमद्दुनी मसलों में दिनरात लगा रहता है, जो दिमाग़ डाकूमेंटों, सरकुलरों, परवानों, हुक्मनामों, नक्शों वग़ैरह के बोझ से दबा जा रहा हो, उसके नजदीक मुझ जैसे खाक के पुतले की हस्ती ही क्या। मच्छर अपने को चाहे हाथी समझ ले पर बैल के सींग को उसकी क्या खबर। मैंने दबी जबान में कहा—हुजूर की क़दमबोसी के लिए हाजिर हुआ।     बड़े बाबू गरजे—क्या काम है     अबकी बार मेरे रोएं खड़े हो गए। खुदा के फ़जल से लहीमशहीम आदमी हूँ, जिन दिनों कालेज में था, मेरे डीलडौल और मेरी बहादुरी और दिलेरी की धूम थी। हाकी टीम का कप्तान, फुटवाल टीम का नायब कप्तान और क्रिकेट का जनरल था। कितने ही गोरों के जिस्म पर अब भी मेरी बहादुरी के दाग़ बाकी होंगे। मुमकिन है, दोचार अब भी बैसाखियां लिए चलते या रेंगते हों। ‘बम्बई क्रानिकल’ और ‘टाइम्स’ में मेरे गेंदों की धूम थी। मगर इस वक्त बाबू साहब की गरज सुनकर मेरा शरीर कांपने लगा। कांपते हुए बोला—हुजूर की कदमबोसी के लिए हाजिर हुआ।

  • 43: जयशंकर प्रसाद की लिखी अमिट स्मृति Amit Smriti - Story Written By Jaishankar Prasad
    9 min 5 sec

    फाल्गुनी पूर्णिमा का चन्द्र गंगा के शुभ्र वक्ष पर आलोकधारा का सृजन कर रहा था। एक छोटासा बजरा वसन्तपवन में आन्दोलित होता हुआ धीरेधीरे बह रहा था। नगर का आनन्दकोलाहल सैकड़ों गलियों को पार करके गंगा के मुक्त वातावरण में सुनाई पड़ रहा था। मनोहरदास हाथमुँह धोकर तकिये के सहारे बैठ चुके थे। गोपाल ने ब्यालू करके उठते हुए पूछाबाबूजी, सितार ले आऊँआज और कल, दो दिन नहीं। मनोहरदास ने कहा।वाह बाबूजी, आज सितार न बजा तो फिर बात क्या रहीनहीं गोपाल, मैं होली के इन दो दिनों में न तो सितार ही बजाता हूँ और न तो नगर में ही जाता हूँ।तो क्या आप चलेंगे भी नहीं, त्योहार के दिन नाव पर ही बीतेंगे, यह तो बड़ी बुरी बात है।यद्यपि गोपाल बरसबरस का त्योहार मनाने के लिए साधारणत: युवकों की तरह उत्कण्ठित था परन्तु सत्तर बरस के बूढ़े मनोहरदास को स्वयं बूढ़ा कहने का साहस नहीं रखता। मनोहरदास का भरा हुआ मुँह, दृढ़ अवयव और बलिष्ठ अंगविन्यास गोपाल के यौवन से अधिक पूर्ण था। मनोहरदास ने कहागोपाल मैं गन्दी गालियों या रंग से भगता हूँ। इतनी ही बात नहीं, इसमें और भी कुछ है। होली इसी तरह बिताते मुझे पचास बरस हो गये।गोपाल ने नगर में जाकर उत्सव देखने का कुतूहल दबाते हुए पूछाऐसा क्यों बाबूजीऊँचे तकिये पर चित्त लेकर लम्बी साँस लेते हुए मनोहरदास ने कहना आरम्भ कियाहम और तुम्हारे बड़े भाई गिरिधरदास साथहीसाथ जवाहिरात का व्यवसाय करते थे। इस साझे का हाल तुम जानते ही हो। हाँ, तब बम्बई की दूकान न थी और न तो आजजैसी रेलगाड़ियों का जाल भारत में बिछा था इसलिए रथों और इक्कों पर भी लोग लम्बीलम्बी यात्रायें करते। विशाल सफेद अजगरसी पड़ी हुई उत्तरीय भारत की वह सड़क, जो बंगाल से काबुल तक पहुँचती है सदैव पथिकों से भरी रहती थी। कहींकहीं बीच में दोचार कोस की निर्जनता मिलती, अन्यथा प्याऊ, बनिये की दूकानें, पड़ाव और सरायों से भरी हुई इस सड़क पर बड़ी चहलपहल रहती। यात्रा के लिए प्रत्येक स्थान में घण्टे में दस कोस जानेवाले इक्के तो बहुतायत से मिलते। बनारस इसमें विख्यात था।हम और गिरिधरदास होलिकादाह का उत्सव देखकर दस बजे लौटे थे कि प्रयाग के एक व्यापारी का पत्र मिला। इसमें लाखों के माल बिक जाने की आशा थी और कल तक ही वह व्यापारी प्रयाग में ठहरेगा। उसी समय इक्केवान को बुलाकर सहेज दिया और हम लोग ग्यारह बजे सो गये। सूर्य की किरणें अभी न निकली थी दक्षिण पवन से पत्तियाँ अभी जैसे झूम रही थीं, परन्तु हम लोग इक्के पर बैठकर नगर को कई कोस पीछे छोड़ चुके थे। इक्का बड़े वेग में जा रहा था। सड़क के दोनो ओर लगे हुए आम की मञ्जरियों की सुगन्ध तीव्रता से नाक में घुस कर मादकता उत्पन्न कर रही थी। इक्केवान की बगल में बैठे हुए रघुनाथ महाराज ने कहासरकार बड़ी ठण्ड है।कहना न होगा कि रघुनाथ महाराज बनारस के एक नामी लठैत थे। उन दिनों ऐसी यात्राओं में ऐसे मनुष्यों का रखना आवश्यक समझा जाता था।

  • जयशंकर प्रसाद की लिखी कहानी कला, Kala - Story Written By Jaishankar Prasad
    8 min 51 sec

    उसके पिता ने बड़े दुलार से उसका नाम रक्खा था‘कला’। नवीन इन्दुकलासी वह आलोकमयी और आँखों की प्यास बुझानेवाली थी। विद्यालय में सबकी दृष्टि उस सरलबालिका की ओर घूम जाती थी परन्तु रूपनाथ और रसदेव उसके विशेष भक्त थे। कला भी कभीकभी उन्हीं दोनों से बोलती थी, अन्यथा वह एक सुन्दर नीरवता ही बनी रहती।तीनों एकदूसरे से प्रेम करते थे, फिर भी उनमें डाह थी। वे एकदूसरे को अधिकाधिक अपनी ओर आकर्षित देखना चाहते थे। छात्रावास में और बालकों से उनका सौहार्द नहीं। दूसरे बालक और बालिकायें आपस में इन तीनों की चर्चा करतीं।कोई कहता‘‘कला तो इधर आँख उठाकर देखती भी नहीं।’’दूसरा कहता‘‘रूपनाथ सुन्दर तो है, किन्तु बड़ा कठोर।’’तीसरा कहता‘‘रसदेव पागल है। उसके भीतर न जाने कितनी हलचल है। उसकी आँखों में निश्छल अनुराग है पर कला को जैसे सबसे अधिक प्यार करता है।’’उन तीनों को इधर ध्यान देने का अवकाश नहीं। वे छात्रावास की फुलवारी में, अपनी धुन में मस्त विचरते थे। सामने गुलाब के फूल पर एक नीली तितली बैठी थी। कला उधर देखकर गुनगुना रही थी। उसकी सजन स्वरलहरी अवगुण्ठित हो रही थी। पतलेपतले अधरों से बना हुआ छोटेसे मुँह का अवगुण्ठन उसे ढँकने में असमर्थ था। रूप एकटक देख रहा था और रस नीले आकाश में आँखे गड़ाकर उस गुञ्जार की मधुर श्रुति में काँप रहा था।रूप ने कहा‘‘आह, कला जब तुम गुनगुनाने लगती हो, तब तुम्हारे अधरों में कितनी लहरें खेलती है। भवें जैसे अभिव्यक्ति के मंच पर चढ़तीउतरती कितनी अमिट रेखायें हृदय पर बना देती हैं।’’ रूप की बातें सुनकर कला ने गुनगुनाना बन्द कर दिया। रस ने व्याघात समझ कर भ्रूभंग सहित उसकी ओर देखा।कला ने कहा‘‘अब मैं घर जाऊँगी, मेरी शिक्षा समाप्त हो चुकी।’’दोनों लुट गये। रूप ने कहा ‘‘मैं तुम्हारा चित्र बनाकर उसकी पूजा करूँगा।’’रस ने कहा‘‘भला तुम्हें कभी भूल सकता हूँ।’’कला चली गई। एक दिन वसन्त के गुलाब खिले थे, सुरभि से छात्रावास का उद्यान भर रहा था। रूपनाथ और रसदेव बैठे हुए कला की बातें कर रहे थे।रूपनाथ ने कहा‘‘उसका रूप कितना सुन्दर है’’रसदेव ने कहा‘‘और उसके हृदय के सौन्दर्य का तो तुम्हें ध्यान ही नहीं।’’‘‘हृदय का सौन्दर्य ही तो आकृति ग्रहण करता है, तभी मनोहरता रूप में आती है।’’‘‘परन्तु कभीकभी हृदय की अवस्था आकृति से नहीं खुलती, आँखे धोखा खाती हैं।’’‘‘मैं रूप से हृदय की गहराई नाप लूँगा। रसदेव, तुम जानते हो कि मैं रेखाविज्ञान में कुशल हूँ। मैं चित्र बनाकर उसे जब चाहूँगा, प्रत्यक्ष कर लूँगा। उसका वियोग मेरे लिए कुछ भी नहीं है।’’‘‘आह रूपनाथ तुम्हारी आकांक्षा साधनसापेक्ष है। भीतर की वस्तु को बाहर लाकर संसार की दूषित वायु से उसे नष्ट होने के लिए। ....’’‘‘चुप रहो, तुम मनहीमन गुनगुनाया करो। कुछ है भी तुम्हारे हृदय में कुछ खोलकर कह या दिखला सकते हो .... कहकर रूपनाथ उठकर जाने लगा।क्षुब्ध होकर उसका कन्धा पीछे से पकड़ते हुए रसदेव ने कहा‘‘तो मैं उसकी उपासना करने में असमर्थ हूँ’’रूपनाथ अवहेलना में देखता हुआ मुस्कराता चला गया।काल के विशृंखल पवन ने उन तीनों को जगत् के अञ्चल पर बिखेर दिया, पर वे सदैव एक दूसरे को स्मरण करते रहे। रूपनाथ एक चतुर चित्रकार बन गया। केवल कला का चित्र बनाने के लिए अपने अभ्यास को उसने और भी प्रखर कर लिया। वह अपनी प्रेमछवि की पूजा के नित्य नये उपकरण जुटाता। वह पवन के थपेड़े से मुँह फेरे हुए फूलों का श्रृङ्गार , चित्रपटी के जंगलों को देता। उसकी तूलिका से जड़ होकर भीतरी आन्दोलनों से बाह्य दृश्य अनेक सुन्दर आकृतियों की विकृतियों में स्थायी बना दिये जाते। उसकी बड़ी ख्याति थी। फिर भी उसका गर्वस्फीत सिर अपनी चित्रशाला में आकर न जाने क्यों नीचे झुक जाता। वह अपने अभाव को जानता था, पर किसी से कहता न था। वह आज भी कला का अपने मनोनुकूल चित्र नहीं बना पाया।रसदेव का जीवन नीरव निकुञ्जों में बीत रहा था। वह चुपचाप रहता। नदीतट पर बैठे हुए उस पार की परियाली देखतेदेखते अन्धकार का परदा खींच लेना, यही उसकी दिनचर्या थी, और नक्षत्रमालासुशोभित गगन के नीचे अवाक्, निस्पन्द पड़े हुए , सकुतूहल आँखों से जिज्ञासा करती उसकी रात्रिचर्या।कुछ संगीतों की असंगति और कुछ अस्पष्ट छाया उसके हृदय की निधि थी, पर लोग उसे निकम्मा, पागल और आलसी कहते। एकाएक रजनी में, सरिता कलोल करती हुई बही जा रही थी। रसदेव ने कल्पना के नेत्रों से देखा, अकस्मात् नदी का जल स्थिर हो गया और अपने मरकतमृणाल पर एक सहस्रदल मणिपद्म जलतल के ऊपर आकर नैशपवन में झूमने लगा। लहरों में स्वर के उपकरण से मूर्ति बनी, फिर नूपुरों की झनकार होने लगी। धीर मन्थर गति से तरल आस्तरण पर पैर रखते हुए एक छवि आकर उस कमल पर बैठ गई।रसदेव बड़बड़ा उठा। वह काली रजन

  • जयशंकर प्रसाद की लिखी कहानी देवदासी, Devdasi - Story Written By Jaishankar Prasad
    21 min 15 sec

    1.3.25प्रिय रमेशपरदेस में किसी अपने के घर लौट आने का अनुरोध बड़ी सान्त्वना देता है, परन्तु अब तुम्हारा मुझे बुलाना एक अभिनयसा है। हाँ, मैं कटूक्ति करता हूँ, जानते हो क्यों मैं झगडऩा चाहता हूँ, क्योंकि संसार में अब मेरा कोई नहीं है, मैं उपेक्षित हूँ। सहसा अपने कासा स्वर सुनकर मन में क्षोभ होता है। अब मेरा घर लौटकर आना अनिश्चित है। मैंने ‘’ के हिन्दीप्रचारकार्यालय में नौकरी कर ली है। तुम तो जानते ही हो कि मेरे लिए प्रयाग और ‘’ बराबर हैं। अब अशोक विदेश में भूखा न रहेगा। मैं पुस्तक बेचता हूँ।यह तुम्हारा लिखना ठीक है कि एक आने का टिकट लगाकर पत्र भेजना मुझे अखरता है। पर तुम्हारे गाल यदि मेरे समीप होते, तो उन पर पाँचों नहीं तो मेरी तीन उँगलियाँ अपना चिह्न अवश्य ही बना देतीं तुम्हारा इतना साहसमुझे लिखते हो कि बेयरिंग पत्र भेज दिया करो ये सब गुण मुझमें होते, तो मैं भी तुम्हारी तरह प्रेस में प्रूफरीडर का काम करता होता। सावधान, अब कभी ऐसा लिखोगे, तो मैं उत्तर भी न दूँगा।लल्लू को मेरी ओर से प्यार कर लेना। उससे कह देना कि पेट से बचा सकूँगा, तो एक रेलगाड़ी भेज दूँगा।यद्यपि अपनी यात्रा का समाचार बराबर लिखकर मैं तुम्हारा मनोरंजन न कर सकूँगा, तो भी सुन लो। ‘....’ में एक बड़ा पर्व है, वहाँ ‘....’ का देवमन्दिर बड़ा प्रसिद्ध है। तुम तो जानते होगे कि दक्षिण में कैसेकैसे दर्शनीय देवालय हैं, उनमें भी यह प्रधान है। मैं वहाँ कार्यालय की पुस्तकें बेचने के लिए जा रहा हूँ।तुम्हारा,अशोकपुनश्चमुझे विश्वास है कि मेरा पता जानने के लिए कोई उत्सुक न होगा। फिर भी सावधान किसी पर प्रकट न करना।

  • जयशंकर प्रसाद की लिखी कहानी समुद्र संतरण, Samudra Santaran - Story Written By Jaishankar Prasad
    8 min 16 sec

    क्षितिज में नील जलधि और व्योम का चुम्बन हो रहा है। शान्त प्रदेश में शोभा की लहरियाँ उठ रही है। गोधूली का करुण प्रतिबिम्ब, बेला की बालुकामयी भूमि पर दिगन्त की तीक्षा का आवाहन कर रहा है।नारिकेल के निभृत कुञ्जों में समुद्र का समीर अपना नीड़ खोज रहा था। सूर्य लज्जा या क्रोध से नहीं, अनुराग से लाल, किरणों से शून्य, अनन्त रसनिधि में डूबना चाहता है। लहरियाँ हट जाती हैं। अभी डूबने का समय नहीं है, खेल चल रहा है।सुदर्शन प्रकृति के उस महा अभिनय को चुपचाप देख रहा है। इस दृश्य में सौन्दर्य का करुण संगीत था। कला का कोमल चित्र नीलधवल लहरों में बनताबिगड़ता था। सुदर्शन ने अनुभव किया कि लहरों में सौरजगत् झोंके खा रहा है। वह उसे नित्य देखने आता परन्तु राजकुमार के वेष में नहीं। उसके वैभव के उपकरण दूर रहते। वह अकेला साधारण मनुष्य के समान इसे देखता, निरीह छात्र के सदृश इस गुरु दृश्य से कुछ अध्ययन करता। सौरभ के समान चेतन परमाणुओं से उसका मस्तक भर उठता। वह अपने राजमन्दिर को लौट जाता।सुदर्शन बैठा था किसी की प्रतीक्षा में। उसे न देखते हुए, मछली फँसाने का जाल लिये, एक धीवरकुमारी समुद्रतट के कगारों पर चढ़ रही थी, जैसे पंख फैलाये तितली। नील भ्रमरीसी उसकी दृष्टि एक क्षण के लिए कहीं नहीं ठहरती थी। श्यामसलोनी गोधूलीसी वह सुन्दरी सिकता में अपने पदचिह्न छोड़ती हुई चली जा रही थी।राजकुमार की दृष्टि उधर फिरी। सायंकाल का समुद्रतट उसकी आँखों में दृश्य के उस पार की वस्तुओं का रेखाचित्र खींच रहा था। जैसे वह जिसको नहीं जानता था, उसको कुछकुछ समझने लगा हो, और वही समझ, वही चेतना एक रूप रखकर सामने आ गई हो। उसने पुकारा‘‘सुन्दरी’’जाती हुई सुन्दरी धीवरबाला लौट आई। उसके अधरों में मुस्कान, आँखों में क्रीड़ा और कपोलों पर यौवन की आभा खेल रही थी, जैसे नील मेघखण्ड के भीतर स्वर्णकिरण अरुण का उदय।धीवरबाला आकर खड़ी हो गई। बोली‘‘मुझे किसने पुकारा’’‘‘मैंने।’’‘‘क्या कहकर पुकारा’’‘‘सुन्दरी’’‘‘क्यों, मुझमें क्या सौन्दर्य है और है भी कुछ, तो क्या तुमसे विशेष’’‘‘हाँ, मैं आज तक किसी को सुन्दरी कहकर नहीं पुकार सका था, क्योंकि यह सौन्दर्यविवेचना मुझमें अब तक नहीं थी।’’‘‘आज अकस्मात् यह सौन्दर्यविवेक तुम्हारे हृदय में कहाँ से आया’’‘‘तुम्हें देखकर मेरी सोई हुई सौन्दर्यतृष्णा जाग गई।’’‘‘परन्तु भाषा में जिसे सौन्दर्य कहते हैं, वह तो तुममें पूर्ण है।’’‘‘मैं यह नहीं मानता, क्योंकि फिर सब मुझी को चाहते, सब मेरे पीछे बावले बने घूमते। यह तो नहीं हुआ। मैं राजकुमार हूँ मेरे वैभव का प्रभाव चाहे सौन्दर्य का सृजन कर देता हो, पर मैं उसका स्वागत नहीं करता। उस प्रेमनिमन्त्रण में वास्तविकता कुछ नहीं।’’‘‘हाँ, तो तुम राजकुमार हो इसी से तुम्हारा सौन्दर्य सापेक्ष है।’’‘‘तुम कौन हो’’‘‘धीवरबालिका।’’‘‘क्या करती हो’’‘‘मछली फँसाती हूँ।’’कहकर उसने जाल को लहरा दिया।‘‘जब इस अनन्त एकान्त में लहरियों के मिस प्रकृति अपनी हँसी का चित्र दत्तचित्त होकर बना रही, तब तुम उसके अञ्चल में ऐसा निष्ठुर काम करती हो’’‘‘निष्ठुर है तो, पर मैं विवश हूँ। हमारे द्वीप के राजकुमार का परिणय होने वाला है। उसी उत्सव के लिए सुनहली मछलियाँ फँसाती हूँ। ऐसी ही आज्ञा है।’’‘‘परन्तु वह ब्याह तो होगा नहीं।’’‘‘तुम कौन हो’’‘‘मैं भी राजकुमार हूँ। राजकुमारों को अपने चक्र की बात विदित रहती है, इसलिए कहता हूँ।’’धीवरबाला ने एक बार सुदर्शन के मुख की ओर देखा, फिर कहा‘‘तब तो मैं इन निरीह जीवों को छोड़ देती हूँ।’’सुदर्शन ने कुतूहल से देखा, बालिका ने अपने अञ्चल से सुनहली मछलियों की भरी हुई मूठ समुद्र में बिखेर दी जैसे जलबालिका वरुण के चरण में स्वर्णसुमनों का उपहार दे रही हो। सुदर्शन ने प्रगल्भ होकर उसका हाथ पकड़ लिया, और कहा‘‘यदि मैंने झूठ कहा, तो’’‘‘तो कल फिर जाल डालूँगी।’’‘‘तुम केवल सुन्दरी ही नहीं, सरल भी हो।’’‘‘और तुम वञ्चक हो।’’कहकर धीवरबाला ने एक निश्वास ली, और सन्ध्या के समय अपना मुख फेर लिया। उसकी अलकावली जाल के साथ मिलकर निशीथ का नवीन अध्याय खोलने लगी। सुदर्शन सिर नीचा करके कुछ सोचने लगा। धीवरबालिका चली गई। एक मौन अन्धकार टहलने लगा। कुछ काल के अनन्तर दो व्यक्ति एक अश्व लिये आये। सुदर्शन से बोले‘‘श्रीमन्, विलम्ब हुआ। बहुतसे निमन्त्रित लोग आ रहे हैं। महाराज ने आपको स्मरण किया है।’’‘‘मेरा यहाँ पर कुछ खो गया है, उसे ढूँढ़ लूँगा, तब लौटूँगा।’’‘‘श्रीमन्, रात्रि समीप है।’’‘‘कुछ चिन्ता नहीं, चन्द्रोदय होगा।’’‘‘हम लोगों को क्या आज्ञा है’’‘‘जाओ।सब लोग गये। राजकुमार सुदर्शन बैठा रहा। चाँदी का थाल लिये रजनी समुद्र से कुछ अमृतभिक्षा लेने आई। उदार

  • जयशंकर प्रसाद की लिखी कहानी चूड़ीवाली, Chudiwali - Story Written By Jaishankar Prasad
    13 min 43 sec

    ‘‘अभी तो पहना गई हो।’’‘‘बहूजी, बड़ी अच्छी चूडिय़ाँ हैं। सीधे बम्बई से पारसल मँगाया है। सरकार का हुक्म है इसलिए नयी चूडिय़ाँ आते ही चली आती हूँ।’’‘‘तो जाओ, सरकार को ही पहनाओ, मैं नहीं पहनती।’’‘‘बहूजी जरा देख तो लीजिए।’’ कहती मुस्कराती हुई ढीठ चूड़ीवाली अपना बक्स खोलने लगी। वह पचीस वर्ष की एक गोरी छरहरी स्त्री थी। उसकी कलाई सचमुच चूड़ी पहनाने के लिए ढली थी। पान से लाल पतलेपतले ओठ दोतीन वक्रताओं में अपना रहस्य छिपाये हुए थे। उन्हें देखने का मन करता, देखने पर उन सलोने अधरों से कुछ बोलवाने का जी चाहता है। बोलने पर हँसाने की इच्छा होती और उसी हँसी में शैशव का अल्हड़पन, यौवन की तरावट और प्रौढ़ कीसी गम्भीरता बिजली के समान लड़ जाती।बहूजी को उसकी हँसी बहुत बुरी लगती पर जब पंजों में अच्छी चूड़ी चढ़ाकर, संकट में फँसाकर वह हँसते हुए कहती‘‘एक पान मिले बिना यह चूड़ी नहीं चढ़ती।’’ तब बहूजी को क्रोध के साथ हँसी आ जाती और उसकी तरल हँसी की तरी लेने में तन्मय हो जातीं।कुछ ही दिनों से यह चूड़ीवाली आने लगी है। कभीकभी बिना बुलाये ही चली आती और ऐसे ढंग फैलाती कि बिना सरकार के आये निबटारा न होता। यह बहूजी को असह्य हो जाता। आज उसको चूड़ी फँसाते देख बहूजी झल्लाकर बोलीं‘‘आजकल दूकान पर ग्राहक कम आते हैं क्या’’‘‘बहूजी, आजकल ख़रीदने की धुन में हूँ, बेचती हूँ कम।’’ इतना कहकर कई दर्जन चूडिय़ाँ बाहर सजा दीं। स्लीपरों के शब्द सुनाई पड़े। बहूजी ने कपड़े सम्हाले, पर वह ढीठ चूड़ीवाली बालिकाओं के समान सिर टेढ़ा करके ‘‘यह जर्मनी की है, यह फराँसीसी है, यह जापानी है’’ कहती जाती थी। सरकार पीछे खड़े मुस्करा रहे थे।‘‘क्या रोज नयी चूडिय़ाँ पहनाने के लिए इन्हें हुक्म मिला है’’ बहूजी ने गर्व से पूछा।सरकार ने कहा‘‘पहनो, तो बुरा क्या है’’‘‘बुरा तो कुछ नहीं, चूड़ी चढ़ाते हुए कलाई दुखती होगी।’’ चूड़ीवाली ने सिर नीचा किये कनखियों से देखते हुए कहा एक लहरसी लाली आँखों की ओर से कपोलों को तर करती हुई दौड़ जाती थी। सरकार ने देखा, एक लालसाभरी युवती व्यंग कर रही है। हृदय में हलचल मच गयी, घबराकर बोले‘‘ऐसा है, तो न पहनें।’’‘‘भगवान करें, रोज पहनें।’’ चूड़ीवाली आशीर्वाद देने के गम्भीर स्वर में प्रौढ़ा के समान बोली।‘‘अच्छा, तुम अभी जाओ।’’ सरकार और चूड़ीवाली दोनों की ओर देखते हुए बहूजी ने झुँझलाकर कहा।‘‘तो क्या मैं लौट जाऊँ आप तो कहती थीं न, कि सरकार को ही पहनाओ, तो जरा उनसे पहनने के लिए कह दीजिए’’‘‘निकल मेरे यहाँ से।’’ कहते हुए बहूजी की आँखे तिलमिला उठी। सरकार धीरे से निकल गये। अपराधी के समान सर नीचा किये चूड़ीवाली अपनी चूडिय़ाँ बटोरकर उठी। हृदय की धड़कन में अपनी रहस्यपूर्ण निश्वास छोड़ती हुई चली गयी।

  • जयशंकर प्रसाद की लिखी कहानी प्रणय चिह्न, Pranay Chihn - Story Written By Jaishankar Prasad
    11 min 45 sec

    ‘‘क्या अब वे दिन लौट आवेंगे वे आशाभरी सन्ध्यायें, वह उत्साहभरा हृदयजो किसी के संकेत पर शरीर से अलग होकर उछलने को प्रस्तुत हो जाता थाक्या हो गया’’‘‘जहाँ तक दृष्टि दौड़ती है, जंगलों की हरियाली। उनसे कुछ बोलने की इच्छा होती है, उत्तर पाने की उत्कण्ठा होती है। वे हिलकर रह जाते हैं, उजली धूप जलजलाती हुई नाचती निकल जाती है। नक्षत्र चुपचाप देखते रहते हैं, चाँदनी मुस्कराकर घूँघट खींच लेती है। कोई बोलनेवाला नहीं मेरे साथ दो बातें कर लेने की जैसे सबने शपथ ले ली है। रात खुलकर रोती भी नहींचुपचाप ओस के आँसू गिराकर चल देती है। तुम्हारे निष्फल प्रेम से निराश होकर बड़ी इच्छा हुई थी, मैं किसी से सम्बन्ध न रखकर सचमुच अकेला हो जाऊँ। इसलिए जनसंसर्ग से दूर इस झरने के किनारे आकर बैठ गया, परन्तु अकेला ही न आ सका, तुम्हारी चिन्ता बीचबीच में बाधा डालकर मन को खींचने लगी। इसलिए फिर किसी से बोलने की, लेनदेन की, कहनेसुनने की कामना बलवती हो गई।‘‘परन्तु कोई न कुछ कहता है और न सुनता है। क्या सचमुच हम संसार से निर्वासित हैंअछूत हैं विश्व का यह नीरव तिरस्कार असह्य है। मैं उसे हिलाऊँगा उसे झकझोरकर उत्तर देने के लिए बाध्य करूँगा।’’कहतेकहते एकान्तवासी गुफा के बाहर निकल पड़ा। सामने झरना था, उसके पार पथरीली भूमि। वह उधर न जाकर झरने के किनारेकिनारे चल पड़ा। बराबर चलने लगा, जैसे समय चलता है।सोता आगे बढ़तेबढ़ते छोटा होता गया। क्षीण, फिर क्रमश: और क्षीण होकर मरुभूमि में जाकर विलीन हो गया। अब उसके सामने सिकतासमुद्र चारों ओर धूधू करती हुई बालू से मिली समीर की उत्ताल तरंगें। वह खड़ा हो गया। एक बार चारों ओर आँख फिरा कर देखना चाहा, पर कुछ नहीं, केवल बालू के थपेड़े।साहस करके पथिक आगे बढऩे लगा। दृष्टि काम नहीं देती थी, हाथपैर अवसन्न थे। फिर भी चलता गया। विरल छायावाले खजूरकुञ्ज तक पहुँचतेपहुँचते वह गिर पड़ा। न जाने कब तक अचेत पड़ा रहा।एक पथिक पथ भूलकर वहाँ विश्राम कर रहा था। उसने जल के छींटे दिये। एकान्तवासी चैतन्य हुआ। देखा, एक मनुष्य उसकी सेवा कर रहा है। नाम पूछने पर मालूम हुआ‘‘सेवक।’’‘‘तुम कहाँ जाओगे’’उसने पूछा।‘‘संसार से घबराकर एकान्त में जा रहा हूँ।’’‘‘और मैं एकान्त से घबराकर संसार में जाना चाहता हूँ।’’‘‘क्या एकान्त में कुछ सुख नहीं मिला’’‘‘सब सुख थाएक दु:ख, पर वह बड़ा भयानक दु:ख था। अपने सुख को मैं किसी से प्रकट नहीं कर सकता था, इससे बड़ा कष्ट था।’’‘‘मैं उस दु:ख का अनुभव करूँगा।’’‘‘प्रार्थना करता हूँ, उसमें न पड़ो।’’‘‘तब क्या करूँ’’‘‘लौट चलो हम लोग बातें करते हुए जीवन बिता देंगे’’‘‘नहीं, तुम अपनी बातों में विष उगलोगे।’’‘‘अच्छा, जैसी तुम्हारी इच्छा।’’दोनों विश्राम करने लगे। शीतल पवन ने सुला दिया। गहरी नींद लेने पर जागे। एक दूसरे को देखकर मुस्कराने लगे। सेवक ने पूछा‘‘आप तो इधर से आ रहे हैं, कैसा पथ है’’‘‘निर्जन मरुभूमि।’’‘‘तब तो मैं न जाऊँगा नगर की ओर लौट जाऊँगा। तुम भी चलोगे’’‘‘नहीं, इस खजूरकुञ्ज को छोड़कर मैं नहीं जाऊँगा। तुमसे बोलचाल कर लेने पर और लोगों से मिलने की इच्छा जाती रही। जी भर गया।’’‘‘अच्छा, तो मैं जाता हूँ। कोई काम हो, तो बताओ, कर दूँगा।’’‘‘मेरा मेरा कोई काम नहीं।’’‘‘सोच लो।’’‘‘नहीं, वह तुमसे न होगा।’’‘‘देखूँगा, सम्भव है, हो जाय।’’‘‘लूनी नदी के उस पार रामनगर के ज़मींदार की एक सुन्दर कन्या है उससे कोई संदेश कह सकोगे’’‘‘चेष्टा करूँगा। क्या कहना होगा’’‘‘तीन बरस से तुम्हारा जो प्रेमी निवार्सित है, वह खजूरकुञ्ज में विश्राम कर रहा है। तुमसे एक चिह्न पाने की प्रत्याशा में ठहरा है। अब की बार वह अज्ञात विदेश में जायगा। फिर लौटने की आशा नहीं है।’’सेवक ने कहा‘‘अच्छा, जाता हूँ, परन्तु ऐसा न हो कि तुम यहाँ से चले जाओ वह मुझे झूठा समझे।’’‘‘नहीं, मैं यहीं प्रतीक्षा करूँगा।’’सेवक चला गया। खजूर के पत्तों से झोपड़ी बनाकर एकान्तवासी फिर रहने लगा। उसको बड़ी इच्छा होती कि कोई भूलाभटका पथिक आ जाता, तो खजूर और मीठे जल से उसका आतिथ्य करके वह एक बार गृहस्थ बन जाता।परन्तु कठोर अदृष्टलिपि उसके भाग्य में एकान्तवास ज्वलन्त अक्षरों में लिखा था। कभीकभी पवन के झोंके से खजूर के पत्ते खडख़ड़ा जाते, वह चौंक उठता। उसकी अवस्था पर वह क्षीणकाय स्रोत रोगी के समान हँस देता। चाँदनी में दूर तक मरुभूमि सादी चित्रपटीसी दिखाई देती।

  • जयशंकर प्रसाद की लिखी कहानी ज्योतिष्मती, Jyotishmati - Story Written By Jaishankar Prasad
    5 min 51 sec

    तामसी रजनी के हृदय में नक्षत्र जगमगा रहे थे। शीतल पवन की चादर उन्हें ढँक लेना चाहती थी, परन्तु वे निविड़ अन्धकार को भेदकर निकल आये थे, फिर यह झीना आवरण क्या थाबीहड़, शैलसंकुल वन्यप्रदेश, तृण और वनस्पतियों से घिरा था। वसंत की लताएँ चारों ओर फैली हुई थीं। हिमदान की उच्च उपत्यका प्रकृति का एक सजीव, गम्भीर और प्रभावशाली चित्र बनी थीएक बालिका, सूक्ष्म कँवलवासिनी सुन्दरी बालिका चारों ओर देखती हुई चुपचाप चली जा रही थी। विराट् हिमगिरि की गोद में वह शिशु के समान खेल रही थी। बिखरे हुए बालों को सम्हाल कर उन्हें वह बारबार हटा देती थी और पैर बढ़ाती हुई चली जा रही थी। वह एक क्रीड़ासी थी। परन्तु सुप्त हिमाञ्चल उसका चुम्बन न ले सकता था। नीरव प्रदेश उस सौन्दर्य से आलोकित हो उठता था। बालिका न जाने क्या खोजती चली जाती थी। जैसे शीतल जल का एक स्वच्छ सोता एकाग्र मन से बहता जाता हो।बहुत खोजने पर भी उसे वह वस्तु न मिली, जिसे वह खोज रही थी। सम्भवत: वह स्वयं खो गई। पथ भूल गया, अज्ञात प्रदेश में जा निकली। सामने निशा की निस्तब्धता भंग करता हुआ एक निर्झर कलरव कर रहा था। सुन्दरी ठिठक गई। क्षण भर के लिए तमिस्रा की गम्भीरता ने उसे अभिभूत कर लिया। हताश होकर शिलाखण्ड पर बैठ गई।वह श्रान्त हो गयी थी। नील निर्झर का तमसमुद्र में संगम, एकटक वह घण्टों देखती रही। आँखें ऊपर उठती, तारागण झलझला जाते थे। नीचे निर्झर छलछलाता था। उसकी जिज्ञासा का कोई स्पष्ट उत्तर न देता। मौन प्रकृति के देश में न स्वयं कुछ कह सकती और न उनकी बात समझ में आती। अकस्मात् किसी ने पीठ पर हाथ रख दिया। वह सिहर उठी, भय का सञ्चार हो गया। कम्पित स्वर से बालिका ने पूछा, ‘‘कौन’’‘‘यह मेरा प्रश्न है। इस निर्जन निशीथ में जब सत्व विचरते हैं, दस्यु घूमते हैं, तुम यहाँ कैसे’’ गम्भीर कर्कश कण्ठ से आगन्तुक ने पूछा।सुकुमारी बालिका सत्वों और दस्युओं का स्मरण करते ही एक बार काँप उठी। फिर सम्हल कर बोली‘‘मेरी वह नितान्त आवश्यकता है। वह मुझे भय ही सही, तुम कौन हो’’‘‘एक साहसिक’’‘‘साहसिक और दस्यु तो क्या, सत्व भी हो, तो उसे मेरा काम करना होगा।’’‘‘बड़ा साहस है तुम्हें क्या चाहिए, सुन्दरी तुम्हारा नाम क्या है’’‘‘वनलता’’‘‘बूढ़े वनराज, अन्धे वनराज की सुन्दरी बालिका वनलता’’‘‘हाँ।’’‘‘जिसने मेरा अनिष्ट करने में कुछ भी उठा न रखा, वही वनराज’’ क्रोधकम्पित स्वर से आगन्तुक ने कहा।‘‘मैं नहीं जानती, पर क्या तुम मेरी याचना पूरी करोगे’’शीतल प्रकाश में लम्बी छाया जैसे हँस पड़ी और बोली‘‘मैं तुम्हारा विश्वस्त अनुचर हूँ। क्या चाहती हो, बोलो’’‘‘पिताजी के लिए ज्योतिष्मती चाहिये।’’‘‘अच्छा चलो, खोजें।’’ कहकर आगन्तुक ने बालिका का हाथ पकड़ लिया। दोनो बीहड़ वन में घुसे। ठोकरें लग रही थीं। अँगूठे क्षतविक्षत थे। साहसिक की लम्बी डगों के साथ बालिका हाँफती हुई चली जा रही थी।सहसा साथी ने कहा‘‘ठहरो, देखो, वह क्या है’’श्यामा सघन, तृणसंकुल शैलमण्डप पर हिरण्यलता तारा के समान फूलों से लदी हुई मन्द मारुत से विकम्पित हो रही थी। पश्चिम में निशीथ के चतुर्थ प्रहर में अपनी स्वल्प किरणों से चतुदर्शी का चन्द्रमा हँस रहा था। पूर्व प्रकृति अपने स्वप्नमुकुलित नेत्रों को आलस से खोल रही थी। वनलता का वदन सहसा खिल उठा। आनन्द से हृदय अधीर होकर नाचने लगा। वह बोल उठी‘‘यही तो है।’’साहसिक अपनी सफलता पर प्रसन्न होकर आगे बढ़ाना चाहता था कि वनलता ने कहा‘‘ठहरो, तुम्हें एक बात बतानी होगी।’’‘‘वह क्या है’’‘‘जिसे तुमने कभी प्यार किया हो, उससे कोई आशा तो नहीं रखते’’‘‘सुन्दरी पुण्य की प्रसन्नता का उपभोग न करने से वह पाप हो जायगा।’’‘‘तब तुमने किसी को प्यार किया है’’‘‘क्यों तुम्हीं को’’ कहकर आगे बढ़ा‘‘सुनो, सुनो जिसने चन्द्रशालिनी ज्योतिष्मती रजनी के चारों पहर कभी बिना पलक लगे प्रिय की निश्छल चिन्ता में न बिताये हों, उसे ज्योतिष्मती न छूनी चाहिए। इसे जंगल के पवित्र प्रेमी ही छूते हैं, ले आते हैं, तभी इसका गुण....’’वनलता की इन बातों को बिना सुने हुए वह बलिष्ठ युवक अपनी तलवार की मूँठ दृढ़ता से पकड़ कर वनस्पति की ओर अग्रसर हुआ।बालिका छटपटा कर कहने लगी‘‘हाँहाँ, छूना मत, पिता जी की आँखें, आह’’ तब तक साहसिक लम्बी छाया ने ज्योतिष्मती पर पड़ती हुई चन्द्रिका को ढँक लिया। वह एक दीर्घ निश्वास फेंककर जैसे सो गई। बिजली के फूल मेघ में विलीन हो गये। चन्द्रमा खिसककर पश्चिमी शैलमाला के नीचे जा गिरा।वनलताझंझावात से भग्न होते हुए वृक्ष की वनलता के समान वसुधा का आलिंगन करने लगी और साहसिक युवक के ऊपर कालिमा की लहर टकराने लगी।

  • जयशंकर प्रसाद की लिखी कहानी बिसाती, Bisaati - Story Written By Jaishankar Prasad
    6 min 34 sec

    उद्यान की शैलमाला के नीचे एक हराभरा छोटासा गाँव है। वसन्त का सुन्दर समीर उसे आलिंगन करके फूलों के सौरभ से उसके झोपड़ों को भर देता है। तलहटी के हिमशीतल झरने उसको अपने बाहुपाश में जकड़े हुए हैं। उस रमणीय प्रदेश में एक स्निग्धसंगीत निरन्तर चला करता है, जिसके भीतर बुलबुलों का कलनाद, कम्प और लहर उत्पन्न करता है।दाड़िम के लाल फूलों की रँगीली छाया सन्ध्या की अरुण किरणों से चमकीली हो रही थी। शीरीं उसी के नीचे शिलाखण्ड पर बैठी हुई सामने गुलाबों की झुरमुट देख रही थी, जिसमें बहुत से बुलबुल चहचहा रहे थे, वे समीरण के साथ छूलछुलैया खेलते हुए आकाश को अपने कलरव से गुञ्जित कर रहे थे।शीरीं ने सहसा अवगुण्ठन उलट दिया। प्रकृति प्रसन्न हो हँस पड़ी। गुलाबों के दल में शीरीं का मुख राजा के समान सुशोभित था। मकरन्द मुँह में भरे दो नीलभ्रमर उस गुलाब से उड़ने में असमर्थ थे, भौंरों के पद पर निस्पन्द थे। कँटीली झाड़ियों की कुछ परवा न करते हुए बुलबुलों का उसमें घुसना और उड़ भागना शीरीं तन्मय होकर देख रही थी।उसकी सखी जुलेखा के आने से उसकी एकान्त भावना भंग हो गई। अपना अवगुण्ठन उलटते हुए जुलेखा ने कहा‘‘शीरीं वह तुम्हारे हाथों पर आकर बैठ जानेवाला बुलबुल, आजकल नहीं दिखलाई देता’’आह खींचकर शीरीं ने कहा‘‘कड़े शीत में अपने दल के साथ मैदान की ओर निकल गया। वसन्त तो आ गया पर वह नहीं लौट आया।’’‘‘सुना है कि ये सब हिन्दुस्तान में बहुत दूर तक चले जाते हैं। क्या यह सच है, शीरीं’’‘‘हाँ प्यारी उन्हें स्वाधीन विचरना अच्छा लगता है। इनकी जाति बड़ी स्वतन्त्रताप्रिय है।’’‘‘तूने अपनी घँघराली अलकों के पाश में उसे क्यों न बाँध लिया’’‘‘मेरे पाश उस पक्षी के लिए ढीले पड़ जाते थे।’’‘‘अच्छा लौट आवेगाचिन्ता न कर। मैं घर जाती हूँ।’’ शीरीं ने सिर हिला दिया।जुलेखा चली गई।जब पहाड़ी आकाश में सन्ध्या अपने रंगीले पट फैला देती, जब विहंग केवल कलरव करते पंक्ति बाँधकर उड़ते हुए गुञ्जान झाड़ियों की ओर लौटते और अनिल में उनके कोमल परों से लहर उठती, जब समीर अपनी झोंकेदार तरंगों मे बारबार अन्धकार को खींच लाता, जब गुलाब अधिकाधिक सौरभ लुटाकर हरी चादर में मुँह छिपा लेना चाहते थे तब शीरीं की आशाभरी दृष्टि कालिमा से अभिभूत होकर पलकों में छिपने लगी। वह जागते हुए भी एक स्वप्न की कल्पना करने लगी।हिन्दुस्तान के समृद्धिशाली नगर की गली में एक युवक पीठ पर गट्ठर लादे घूम रहा है। परिश्रम और अनाहार से उसका मुख विवर्ण है। थककर वह किसी के द्वार पर बैठ गया है। कुछ बेचकर उस दिन की जीविका प्राप्त करने की उत्कण्ठा उसकी दयनीय बातों से टपक रही है। परन्तु वह गृहस्थ कहता है‘‘तुम्हें उधार देना हो तो दो, नहीं तो अपनी गठरी उठाओ। समझे आगा’’युवक कहता है‘‘मुझे उधार देने की सामर्थ्य नहीं।’’‘‘तो मुझे भी कुछ नहीं चाहिए।’’शीरीं अपनी इस कल्पना से चौंक उठी। काफिले के साथ अपनी सम्पत्ति लादकर खैबर के गिरिसंकट को वह अपनी भावना से पदाक्रान्त करने लगी।उसकी इच्छा हुई कि हिन्दुस्तान के प्रत्येक गृहस्थ के पास हम इतना धन रख दें कि वे अनावश्यक होने पर भी उस युवक की सब वस्तुओं का मूल्य देकर उसका बोझ उतार दें। परन्तु सरला शीरीं निस्सहाय थी। उसके पिता एक क्रूर पहाड़ी सरदार थे। उसने अपना सिर झुका लिया। कुछ सोचने लगी।सन्ध्या का अधिकार हो गया। कलरव बन्द हुआ। शीरीं की साँसों के समान समीर की गति अवरुद्ध हो उठी। उसकी पीठ शिला से टिक गई।दासी ने आकर उसको प्रकृतिस्थ किया। उसने कहा‘‘बेगम बुला रही हैं। चलिए, मेंहदी आ गई है।’’महीनों हो गये। शीरीं का ब्याह एक धनी सरदार से हो गया। झरने के किनारे शीरीं के बाग में शवरी खींची है। पवन अपने एकएक थपेड़े में सैकड़ों फलों को रुला देता है। मधुधारा बहने लगती है। बुलबुल उसकी निर्दयता पर क्रन्दन करने लगते हैं। शीरीं सब सहन करती रही। सरदार का मुख उत्साहपूर्ण था। सब होने पर भी वह एक सुन्दर प्रभात था।एक दुर्बल और लंबा युवक पीठ पर गट्ठर लादे सामने आकर बैठ गया। शीरीं ने उसे देखा पर वह किसी ओर देखता नहीं। अपना सामान खोलकर सजाने लगा।सरदार अपनी प्रेयसी को उपहार देने के लिए काँच की प्याली और काश्मीरी सामान छाँटने लगा।शीरीं चुपचाप थी, उसके हृदयकानन में कलरवों का क्रन्दन हो रहा था। सरदार ने दाम पूछा। युवक ने कहा‘‘मैं उपहार देता हूँ। बेचता नहीं। ये विलायती और काश्मीरी मैंने चुनकर लिये हैं। इनमें मूल्य ही नहीं, हृदय भी लगा है। ये दाम पर नहीं बिकते।’’सरदार ने तीक्ष्ण स्वर में कहा‘‘तब मुझे न चाहिए। ले जाओ उठाओ।’’‘‘अच्छा, उठा ले जाऊँगा। मैं थका हुआ आ रहा हूँ, थोड़ा अवसर दीजिए, मैं हाथमुँह धो लूँ।’’ कहकर युवक भरभराई हुई आँखों को छिपाते, उठ गया।सरदार ने समझा, झरने की

  • जयशंकर प्रसाद की लिखी कहानी आँधी, Aandhi - Story Written By Jaishankar Prasad
    1 hr 1 min 39 sec

    चंदा के तट पर बहुतसे छतनारे वृक्षों की छाया है, किन्तु मैं प्राय: मुचकुन्द के नीचे ही जाकर टहलता, बैठता और कभीकभी चाँदनी में ऊँघने भी लगता। वहीं मेरा विश्राम था। वहाँ मेरी एक सहचरी भी थी, किन्तु वह कुछ बोलती न थी। वह रहट्ठों की बनी हुई मूसदानीसी एक झोपड़ी थी, जिसके नीचे पहले सथिया मुसहरिन का मोटासा काला लडक़ा पेट के बल पड़ा रहता था। दोनों कलाइयों पर सिर टेके हुए भगवान् की अनन्त करुणा को प्रणाम करते हुए उसका चित्र आँखों के सामने आ जाता। मैं सथिया को कभीकभी कुछ दे देता था पर वह नहीं के बराबर। उसे तो मजूरी करके जीने में सुख था। अन्य मुसहरों की तरह अपराध करने में वह चतुर न थी। उसको मुसहरों की बस्ती से दूर रहने में सुविधा थी, वह मुचकुन्द के फल इकट्ठे करके बेचती, सेमर की रुई बिन लेती, लकड़ी के गट्ठे बटोर कर बेचती पर उसके इन सब व्यापारों में कोई और सहायक न था। एक दिन वह मर ही तो गई। तब भी कलाई पर से सिर उठा कर, करवट बदल कर अँगड़ाई लेते हुए कलुआ ने केवल एक जँभाई ली थी। मैंने सोचास्नेह, माया, ममता इन सबों की भी एक घरेलू पाठशाला है, जिसमें उत्पन्न होकर शिशु धीरेधीरे इनके अभिनय की शिक्षा पाता है। उसकी अभिव्यक्ति के प्रकार और विशेषता से वह आकर्षक होता है सही, किन्तु, मायाममता किस प्राणी के हृदय में न होगी मुसहरों को पता लगावे कल्लू को ले गये। तब से इस स्थान की निर्जनता पर गरिमा का एक और रंग चढ़ गया।मैं अब भी तो वहीं पहुँच जाता हूँ। बहुत घूमफिर कर भी जैसे मुचकुन्द की छाया की ओर खिंच जाता हूँ। आज के प्रभात में कुछ अधिक सरसता थी। मेरा हृदय हलकाहलका सा हो रहा था। पवन में मादक सुगन्ध और शीतलता थी। ताल पर नाचती हुई लाललाल किरनें वृक्षों के अन्तराल से बड़ी सुहावनी लगती थीं। मैं परजाते के सौरभ में अपने सिर को धीरेधीरे हिलाता हुआ कुछ गुनगुनाता चला जा रहा था। सहसा मुचकुन्द के नीचे मुझे धुँआ और कुछ मनुष्यों की चहलपहल का अनुमान हुआ। मैं कुतूहल से उसी ओर बढऩे लगा।वहाँ कभी एक सराय भी थी, अब उसका ध्वंस बच रहा था। दोएक कोठरियाँ थीं, किन्तु पुरानी प्रथा के अनुसार अब भी वहीं पर पथिक ठहरते।मैंने देखा कि मुचकुन्द के आसपास दूर तक एक विचित्र जमावड़ा है। अद्‌भुत शिविरों की पाँति में यहाँ पर काननचरों, बिना घरवालों की बस्ती बसी हुई है।सृष्टि को आरम्भ हुए कितना समय बीत गया, किन्तु इन अभागों को कोई पहाड़ की तलहटी या नदी की घाटी बसाने के लिए प्रस्तुत न हुई और न इन्हें कहीं घर बनाने की सुविधा ही मिली। वे आज भी अपने चलतेफिरते घरों को जानवरों पर लादे हुए घूमते ही रहते हैं मैं सोचने लगाये सभ्य मानवसमाज के विद्रोही हैं, तो भी इनका एक समाज है। सभ्य संसार के नियमों को कभी न मानकर भी इन लोगों ने अपने लिए नियम बनाये हैं। किसी भी तरह, जिनके पास कुछ है, उनसे ले लेना और स्वतन्त्र होकर रहना। इनके साथ सदैव आज के संसार के लिए विचित्रतापूर्ण संग्रहालय रहता है। ये अच्छे घुड़सवार और भयानक व्यापारी हैं। अच्छा, ये लोग कठोर परिश्रमी और संसारयात्रा के उपयुक्त प्राणी हैं, फिर इन लोगों ने कहीं बसना, घर बनाना क्यों नहीं पसन्द कियामैं मनहीमन सोचता हुआ धीरेधीरे उनके पास होने लगा। कुतूहल ही तो था। आज तक इन लोगों के सम्बन्ध में कितनी ही बातें सुनता आया था। जब निर्जन चंदा का ताल मेरे मनोविनोद की सामग्री हो सकता है, तब आज उसका बसा हुआ तट मुझे क्यों न आकर्षित करता मैं धीरेधीरे मुचकुन्द के पास पहुँच गया। एक डाल से बँधा हुआ एक सुन्दर बछेड़ा हरीहरी दूब खा रहा था और लहँगाकुरता पहने, रुमाल सिर से बाँधे हुए एक लडक़ी उसकी पीठ सूखे घास के मट्ठे से मल रही थी। मैं रुक कर देखने लगा। उसने पूछाघोड़ा लोगे, बाबूनहींकहते हुए मैं आगे बढ़ा था, कि एक तरुणी ने झोपड़े से सिर निकाल कर देखा। वह बाहर निकल आई। उसने कहाआप पढऩा जानते हैंहाँ, जानता तो हूँ।हिन्दुओं की चिट्ठी आप पढ़ लेंगेमैं उसके सुन्दर मुख को कला की दृष्टि से देख रहा था। कला की दृष्टि ठीक तो बौद्धकला, गान्धारकला, द्रविड़ों की कला इत्यादि नाम से भारतीय मूर्तिसौन्दर्य के अनेक विभाग जो है जिससे गढऩ का अनुमान होता है। मेरे एकान्त जीवन को बिताने की साम्रगी में इस तरह का जड़ सौन्दर्यबोध भी एक स्थान रखता है। मेरा हृदय सजीव प्रेम से कभी आप्लुत नहीं हुआ था। मैं इस मूक सौन्दर्य से ही कभीकभी अपना मनोविनोद कर लिया करता। चिट्ठी पढऩे की बात पूछने पर भी मैं अपने मन में निश्चय कर रहा था, कि यह वास्तविक गान्धार प्रतिमा है, या ग्रीस और भारत का इस सौन्दर्य में समन्वय है।

  • जयशंकर प्रसाद की लिखी कहानी घीसू, Gheesu - Story Written By Jaishankar Prasad
    10 min 34 sec

    सन्ध्या की कालिमा और निर्जनता में किसी कुएँ पर नगर के बाहर बड़ी प्यारी स्वरलहरी गूँजने लगती। घीसू को गाने का चसका था, परन्तु जब कोई न सुने। वह अपनी बूटी अपने लिए घोंटता और आप ही पीताजब उसकी रसीली तान दोचार को पास बुला लेती, वह चुप हो जाता। अपनी बटुई में सब सामान बटोरने लगता और चल देता। कोई नया कुआँ खोजता, कुछ दिन वहाँ अड्डा जमता।सब करने पर भी वह नौ बजे नन्दू बाबू के कमरे में पहुँच ही जाता। नन्दू बाबू का भी वही समय था, बीन लेकर बैठने का। घीसू को देखते ही वह कह देतेआ गये, घीसूहाँ बाबू, गहरेबाजों ने बड़ी धूल उड़ाईसाफे का लोच आतेआते बिगड़ गया कहतेकहते वह प्राय: अपने जयपुरी गमछे को बड़ी मीठी आँखों से देखता और नन्दू बाबू उसके कन्धे तक बाल, छोटीछोटी दाढ़ी, बड़ीबड़ी गुलाबी आँखों को स्नेह से देखते। घीसू उनका नित्य दर्शन करने वाला, उनकी बीन सुननेवाला भक्त था। नन्दू बाबू उसे अपने डिब्बे से दो खिल्ली पान की देते हुए कहतेलो, इसे जमा लो क्यों, तुम तो इसे जमा लेना ही कहते हो नवह विनम्र भाव से पान लेते हुए हँस देताउसके स्वच्छ मोतीसे दाँत हँसने लगते।घीसू की अवस्था पचीस की होगी। उसकी बूढ़ी माता को मरे भी तीन वर्ष हो गये थे।नन्दू बाबू की बीन सुनकर वह बाज़ार से कचौड़ी और दूध लेता, घर जाता, अपनी कोठरी में गुनगुनाता हुआ सो रहता।उसकी पूँजी थी एक सौ रुपये। वह रेजगी और पैसे की थैली लेकर दशाश्वमेध पर बैठता, एक पैसा रुपया बट्टा लिया करता और उसे बारहचौदह आने की बचत हो जाती थी।गोविन्दराम जब बूटी बनाकर उसे बुलाते, वह अस्वीकार करता। गोविन्दराम कहतेबड़ा कंजूस है। सोचता है, पिलाना पड़ेगा, इसी डर से नहीं पीता।घीसू कहतानहीं भाई, मैं सन्ध्या को केवल एक ही बार पीता हूँ।गोविन्दराम के घाट पर बिन्दो नहाने आती, दस बजे। उसकी उजली धोती में गोराई फूटी पड़ती। कभी रेजगी पैसे लेने के लिए वह घीसू के सामने आकर खड़ी हो जाती, उस दिन घीसू को असीम आनन्द होता। वह कहतीदेखो, घिसे पैसे न देना।वाह बिन्दो घिसे पैसे तुम्हारे ही लिए हैं क्योंतुम तो घीसू ही हो, फिर तुम्हारे पैसे क्यों न घिसे होंगेकहकर जब वह मुस्करा देती तो घीसू कहताबिन्दो इस दुनिया में मुझसे अधिक कोई न घिसा इसीलिए तो मेरे मातापिता ने घीसू नाम रक्खा था।बिन्दो की हँसी आँखों में लौट जाती। वह एक दबी हुई साँस लेकर दशाश्वमेध के तरकारीबाज़ार में चली जाती।बिन्दो नित्य रुपया नहीं तुड़ाती इसीलिए घीसू को उसकी बातों के सुनने का आनन्द भी किसीकिसी दिन न मिलता। तो भी वह एक नशा था, जिससे कई दिनों के लिए भरपूर तृप्ति हो जाती, वह मूक मानसिक विनोद था।घीसू नगर के बाहर गोधूलि की हरीभरी क्षितिजरेखा में उसके सौन्दर्य से रंग भरता, गाता, गुनगुनाता और आनन्द लेता। घीसू की जीवनयात्रा का वही सम्बल था, वही पाथेय था।सन्ध्या की शून्यता, बूटी की गमक, तानों की रसीली गुन्नाहट और नन्दू बाबू की बीन, सब बिन्दो की आराधना की सामग्री थी। घीसू कल्पना के सुख से सुखी होकर सो रहता।उसने कभी विचार भी न किया था कि बिन्दो कौन है किसी तरह से उसे इतना तो विश्वास हो गया था कि वह एक विधवा है परन्तु इससे अधिक जानने की उसे जैसे आवश्यकता नहीं।रात के आठ बजे थे, घीसू बाहरी ओर से लौट रहा था। सावन के मेघ घिरे थे, फूही पड़ रही थी। घीसू गा रहा था‘‘निसि दिन बरसत नैन हमारे’’सड़क पर कीचड़ की कमी न थी। वह धीरेधीरे चल रहा था, गाता जाता था। सहसा वह रुका। एक जगह सड़क में पानी इकट्ठा था। छींटों से बचने के लिए वह ठिठक करकिधर से चलेंसोचने लगा। पास के बगीचे के कमरे से उसे सुनाई पड़ायही तुम्हारा दर्शन हैयहाँ इस मुँहजली को लेकर पड़े हो। मुझसे...।दूसरी ओर से कहा गयातो इसमें क्या हुआ क्या तुम मेरी ब्याही हुई हो, जो मैं तुम्हे इसका जवाब देता फिरूँइस शब्द में भर्राहट थी, शराबी की बोली थी।घीसू ने सुना, बिन्दो कह रही थीमैं कुछ नहीं हूँ लेकिन तुम्हारे साथ मैंने धरम बिगाड़ा है सो इसीलिए नहीं कि तुम मुझे फटकारते फिरो। मैं इसका गला घोंट दूंगी औरतुम्हारा भी....बदमाश...।

  • जयशंकर प्रसाद की लिखी कहानी बेड़ी, Bedi - Story Written By Jaishankar Prasad
    4 min 50 sec

    ‘‘बाबूजी, एक पैसा’’मैं सुनकर चौंक पड़ा, कितनी कारुणिक आवाज़ थी। देखा तो एक 910 बरस का लडक़ा अन्धे की लाठी पकड़े खड़ा था। मैंने कहासूरदास, यह तुमको कहाँ से मिल गयाअन्धे को अन्धा न कह कर सूरदास के नाम से पुकारने की चाल मुझे भली लगी। इस सम्बोधन में उस दीन के अभाव की ओर सहानुभूति और सम्मान की भावना थी, व्यंग न था।उसने कहाबाबूजी, यह मेरा लडक़ा हैमुझ अन्धे की लकड़ी है। इसके रहने से पेट भर खाने को माँग सकता हूँ और दबनेकुचलने से भी बच जाता हूँ।मैंने उसे इकन्नी दी, बालक ने उत्साह से कहाअहा इकन्नी बुड्ढे ने कहादाता, जुगजुग जियोमैं आगे बढ़ा और सोचता जाता था, इतने कष्ट से जो जीवन बिता रहा है, उसके विचार में भी जीवन ही सबसे अमूल्य वस्तु है, हे भगवान्दीनानाथ करी क्यों देरीदशाश्वमेध की ओर जाते हुए मेरे कानों में एक प्रौढ़ स्वर सुनाई पड़ा। उसमें सच्ची विनय थीवही जो तुलसीदास की विनयपत्रिका में ओतप्रोत है। वही आकुलता, सान्निध्य की पुकार, प्रबल प्रहार से व्यथित की कराह मोटर की दम्भ भरी भीषण भोंभों में विलीन होकर भी वायुमण्डल में तिरने लगी। मैं अवाक् होकर देखने लगा, वही बुड्ढा किन्तु आज अकेला था। मैंने उसे कुछ देते हुए पूछाक्योंजी, आज वह तुम्हारा लडक़ा कहाँ हैबाबूजी, भीख में से कुछ पैसा चुरा कर रखता था, वही लेकर भाग गया, न जाने कहाँ गयाउन फूटी आँखों से पानी बहने लगा। मैंने पूछाउसका पता नहीं लगा कितने दिन हुएलोग कहते हैं कि वह कलकत्ता भाग गया उस नटखट लड़के पर क्रोध से भरा हुआ मैं घाट की ओर बढ़ा, वहाँ एक व्यास जी श्रवणचरित की कथा कह रहे थे। मैं सुनतेसुनते उस बालक पर अधिक उत्तेजित हो उठा। देखा तो पानी की कल का धुआँ पूर्व के आकाश में अजगर की तरह फैल रहा था।कई महीने बीतने पर चौक में वही बुड्ढा दिखाई पड़ा, उसकी लाठी पकड़े वही लडक़ा अकड़ा हुआ खड़ा था। मैंने क्रोध से पूछाक्यों बे, तू अन्धे पिता को छोड़कर कहाँ भागा था वह मुस्कराते हुए बोलाबाबू जी, नौकरी खोजने गया था। मेरा क्रोध उसकी कर्तव्यबुद्धि से शान्त हुआ। मैंने उसे कुछ देते हुए कहालड़के, तेरी यही नौकरी है, तू अपने बाप को छोड़कर न भागा कर।बुड्ढा बोल उठाबाबूजी, अब यह नहीं भाग सकेगा, इसके पैरों में बेड़ी डाल दी गई है। मैंने घृणा और आश्चर्य से देखा, सचमुच उसके पैरों में बेड़ी थी। बालक बहुत धीरेधीरे चल सकता था। मैंने मनहीमन कहाहे भगवान्, भीख मँगवाने के लिए, बाप अपने बेटे के पैर में बेड़ी भी डाल सकता है और वह नटखट फिर भी मुस्कराता था। संसार, तेरी जय होमैं आगे बढ़ गया।मैं एक सज्जन की प्रतीक्षा में खड़ा था, आज नाव पर घूमने का उनसे निश्चय हो चुका था। गाड़ी, मोटर, ताँगे टकरातेटकराते भागे जा रहे थे, सब जैसे व्याकुल। मैं दार्शनिक की तरह उनकी चञ्चलता की आलोचना कर रहा था सिरस के वृक्ष की आड़ में फिर वही कण्ठस्वर सुनायी पड़ा। बुड्ढे ने कहाबेटा, तीन दिन और न ले पैसा, मैंने रामदास से कहा है सात आने में तेरा कुरता बन जायगा, अब ठण्ड पड़ने लगी है। उसने ठुनकते हुए कहानहीं, आज मुझे दो पैसा दो, मैं कचालू खाऊँगा, वह देखो उस पटरी पर बिक रहा है। बालक के मुँह और आँख में पानी भरा था। दुर्भाग्य से बुड्ढा उसे पैसा नहीं दे सकता था। वह न देने के लिए हठ करता ही रहा परन्तु बालक की ही विजय हुई। वह पैसा लेकर सड़क की उस पटरी पर चला। उसके बेड़ी से जकड़े हुए पैर पैंतरा काट कर चल रहे थे। जैसे युद्धविजय के लिए।नवीन बाबू चालिस मील की स्पीड से मोटर अपने हाथ से दौड़ा रहे थे। दर्शकों की चीत्कार से बालक गिर पड़ा, भीड़ दौड़ी। मोटर निकल गई और यह बुड्ढा विकल हो रोने लगाअन्धा किधर जायएक ने कहाचोट अधिक नहीं।दूसरे ने कहाहत्यारे ने बेड़ी पहना दी है, नहीं तो क्यों चोट खाता।बुड्ढे ने कहाकाट दो बेड़ी बाबा, मुझे न चाहिए।और मैंने हतबुद्धि होकर देखा कि बालक के प्राणपखेरू अपनी बेड़ी काट चुके थे।

  • जयशंकर प्रसाद की लिखी कहानी ग्राम गीत, Gram Geet - Story Written By Jaishankar Prasad
    8 min 15 sec

    शरद्पूर्णिमा थी। कमलापुर के निकलते हुए करारे को गंगा तीन ओर से घेरकर दूध की नदी के समान बह रही थी। मैं अपने मित्र ठाकुर जीवन सिंह के साथ उनके सौंध पर बैठा हुआ अपनी उज्ज्वल हँसी में मस्त प्रकृति को देखने में तन्मय हो रहा था। चारों ओर का क्षितिज नक्षत्रों के बन्दनवारसा चमकने लगा था। धवलविधुबिम्ब के समीप ही एक छोटीसी चमकीली तारिका भी आकाशपथ में भ्रमण कर रही थी। वह जैसे चन्द्र को छू लेना चाहती थी पर छूने नहीं पाती थी।मैंने जीवन से पूछातुम बता सकते हो, वह कौन नक्षत्र हैरोहिणी होगी। जीवन के अनुमान करने के ढंग से उत्तर देने पर मैं हँसना ही चाहता था कि दूर से सुनाई पड़ाबरजोरी बसे हो नयनवाँ में।उस स्वरलहरी में उन्मत्त वेदना थी। कलेजे को कचोटनेवाली करुणा थी। मेरी हँसी सन्न रह गई। उस वेदना को खोजने के लिए, गंगा के उस पार वृक्षों की श्यामलता को देखने लगा परन्तु कुछ न दिखाई पड़ा।मैं चुप था, सहसा फिर सुनाई पड़ाअपने बाबा की बारी दुलारी,खेलत रहली अँगनवाँ में,बरजोरी बसे हो।मैं स्थिर होकर सुनने लगा, जैसे कोई भूली हुई सुन्दर कहानी। मन में उत्कण्ठा थी, और एक कसक भरा कुतूहल था फिर सुनाई पड़ाई कुल बतियाँ कबौं नाहीं जनली,देखली कबौं न सपनवाँ में।बरजोरी बसे होमैं मूर्खसा उस गान का अर्थसम्बन्ध लगाने लगा।अँगने में खेलते हुएई कुल बतियाँ, वह कौन बात थी उसे जानने के लिए हृदय चञ्चल बालकसा मचल गया। प्रतीत होने लगा, उन्हीं कुल अज्ञात बातों के रहस्यजाल में मछलीसा मन चाँदनी के समुद्र में छटपटा रहा है।मैंने अधीर होकर कहाठाकुर इसको बुलवाओगेनहीं जी, वह पगली है।पगली कदापि नहीं जो ऐसा गा सकती है, वह पगली नहीं हो सकती। जीवन उसे बुलाओ, बहाना मत करो।तुम व्यर्थ हठ कर रहे हो। एक दीर्घ निश्वास को छिपाते हुए जीवन ने कहा।मेरा कुतूहल और भी बढ़ा। मैंने कहाहठ नहीं, लड़ाई भी करना पड़े तो करूँगा। बताओ, तुम क्यों नहीं बुलाने देना चाहते होवह इसी गाँव की भाँट की लडक़ी है। कुछ दिनों से सनक गई है। रात भर कभीकभी गाती हुई गंगा के किनारे घूमा करती है।तो इससे क्या उसे बुलाओ भी।नहीं, मैं उसे न बुलवा सकूँगा।अच्छा, तो यही बताओ, क्यों न बुलवाओगेवह बात सुनकर क्या करोगेसुनूँगा अवश्यठाकुर यह न समझना कि मैं तुम्हारी जमींदारी में इस समय बैठा हूँ, इसलिए डर जाऊँगा।मैंने हँसी से कहा।

  • जयशंकर प्रसाद की लिखी कहानी गुंडा, Gunda - Story Written By Jaishankar Prasad
    28 min 15 sec

    वह पचास वर्ष से ऊपर था। तब भी युवकों से अधिक बलिष्ठ और दृढ़ था। चमड़े पर झुर्रियाँ नहीं पड़ी थीं। वर्षा की झड़ी में, पूस की रातों की छाया में, कड़कती हुई जेठ की धूप में, नंगे शरीर घूमने में वह सुख मानता था। उसकी चढ़ी मूँछें बिच्छू के डंक की तरह, देखनेवालों की आँखों में चुभती थीं। उसका साँवला रंग, साँप की तरह चिकना और चमकीला था। उसकी नागपुरी धोती का लाल रेशमी किनारा दूर से ही ध्यान आकर्षित करता। कमर में बनारसी सेल्हे का फेंटा, जिसमें सीप की मूठ का बिछुआ खुँसा रहता था। उसके घुँघराले बालों पर सुनहले पल्ले के साफे का छोर उसकी चौड़ी पीठ पर फैला रहता। ऊँचे कन्धे पर टिका हुआ चौड़ी धार का गँड़ासा, यह भी उसकी धज पंजों के बल जब वह चलता, तो उसकी नसें चटाचट बोलती थीं। वह गुंडा था।ईसा की अठारहवीं शताब्दी के अन्तिम भाग में वही काशी नहीं रह गयी थी, जिसमें उपनिषद् के अजातशत्रु की परिषद् में ब्रह्मविद्या सीखने के लिए विद्वान् ब्रह्मचारी आते थे। गौतम बुद्ध और शंकराचार्य के धर्मदर्शन के वादविवाद, कई शताब्दियों से लगातार मंदिरों और मठों के ध्वंस और तपस्वियों के वध के कारण, प्राय: बन्दसे हो गये थे। यहाँ तक कि पवित्रता और छुआछूत में कट्टर वैष्णवधर्म भी उस विशृंखलता में, नवागन्तुक धर्मोन्माद में अपनी असफलता देखकर काशी में अघोर रूप धारण कर रहा था। उसी समय समस्त न्याय और बुद्धिवाद को शस्त्रबल के सामने झुकते देखकर, काशी के विच्छिन्न और निराश नागरिक जीवन ने, एक नवीन सम्प्रदाय की सृष्टि की। वीरता जिसका धर्म था। अपनी बात पर मिटना, सिंहवृत्ति से जीविका ग्रहण करना, प्राणभिक्षा माँगनेवाले कायरों तथा चोट खाकर गिरे हुए प्रतिद्वन्द्वी पर शस्त्र न उठाना, सताये निर्बलों को सहायता देना और प्रत्येक क्षण प्राणों को हथेली पर लिये घूमना, उसका बाना था। उन्हें लोग काशी में गुंडा कहते थे।जीवन की किसी अलभ्य अभिलाषा से वञ्चित होकर जैसे प्राय: लोग विरक्त हो जाते हैं, ठीक उसी तरह किसी मानसिक चोट से घायल होकर, एक प्रतिष्ठित ज़मींदार का पुत्र होने पर भी, नन्हकूसिंह गुंडा हो गया था। दोनों हाथों से उसने अपनी सम्पत्ति लुटायी। नन्हकूसिंह ने बहुतसा रुपया खर्च करके जैसा स्वाँग खेला था, उसे काशी वाले बहुत दिनों तक नहीं भूल सके। वसन्त ऋतु में यह प्रहसनपूर्ण अभिनय खेलने के लिए उन दिनों प्रचुर धन, बल, निर्भीकता और उच्छृंखलता की आवश्यकता होती थी। एक बार नन्हकूसिंह ने भी एक पैर में नूपुर, एक हाथ में तोड़ा, एक आँख में काजल, एक कान में हजारों के मोती तथा दूसरे कान में फटे हुए जूते का तल्ला लटकाकर, एक जड़ाऊ मूठ की तलवार, दूसरा हाथ आभूषणों से लदी हुई अभिनय करने वाली प्रेमिका के कन्धे पर रखकर गाया था‘‘कहीं बैगनवाली मिले तो बुला देना।’’प्राय: बनारस के बाहर की हरियालियों में, अच्छे पानीवाले कुओं पर, गंगा की धारा में मचलती हुई डोंगी पर वह दिखलाई पड़ता था। कभीकभी जूआखाने से निकलकर जब वह चौक में आ जाता, तो काशी की रँगीली वेश्याएँ मुस्कराकर उसका स्वागत करतीं और उसके दृढ़ शरीर को सस्पृह देखतीं। वह तमोली की ही दूकान पर बैठकर उनके गीत सुनता, ऊपर कभी नहीं जाता था। जूए की जीत का रुपया मुठ्ठियों में भरभरकर, उनकी खिडक़ी में वह इस तरह उछालता कि कभीकभी समाजी लोग अपना सिर सहलाने लगते, तब वह ठठाकर हँस देता। जब कभी लोग कोठे के ऊपर चलने के लिए कहते, तो वह उदासी की साँस खींचकर चुप हो जाता।वह अभी वंशी के जूआखाने से निकला था। आज उसकी कौड़ी ने साथ न दिया। सोलह परियों के नृत्य में उसका मन न लगा। मन्नू तमोली की दूकान पर बैठते हुए उसने कहा‘‘आज सायत अच्छी नहीं रही, मन्नू’’‘‘क्यों मालिक चिन्ता किस बात की है। हम लोग किस दिन के लिए हैं। सब आप ही का तो है।’’‘‘अरे, बुद्धू ही रहे तुम नन्हकूसिंह जिस दिन किसी से लेकर जूआ खेलने लगे उसी दिन समझना वह मर गये। तुम जानते नहीं कि मैं जूआ खेलने कब जाता हूँ। जब मेरे पास एक पैसा नहीं रहता उसी दिन नाल पर पहुँचते ही जिधर बड़ी ढेरी रहती है, उसी को बदता हूँ और फिर वही दाँव आता भी है। बाबा कीनाराम का यह बरदान है’’‘‘तब आज क्यों, मालिक’’‘‘पहला दाँव तो आया ही, फिर दोचार हाथ बदने पर सब निकल गया। तब भी लो, यह पाँच रुपये बचे हैं। एक रुपया तो पान के लिए रख लो और चार दे दो मलूकी कथक को, कह दो कि दुलारी से गाने के लिए कह दे। हाँ, वही एक गीत‘‘विलमि विदेश रहे।’’नन्हकूसिंह की बात सुनते ही मलूकी, जो अभी गाँजे की चिलम पर रखने के लिए अँगारा चूर कर रहा था, घबराकर उठ खड़ा हुआ। वह सीढिय़ों पर दौड़ता हुआ चढ़ गया। चिलम को देखता ही ऊपर चढ़ा, इसलिए उसे चोट भी लगी पर नन्हकूसिंह की भृकुटी देखने की शक्ति उसमें कहाँ। उसे नन्हकूसिंह की वह मूर्ति न भूली थी, जब इसी पान की दूका

  • जयशंकर प्रसाद की लिखी कहानी अनबोला, Anbola - Story Written By Jaishankar Prasad
    5 min 50 sec

    उसके जाल में सीपियाँ उलझ गयी थीं। जग्गैया से उसने कहा‘‘इसे फैलाती हूँ, तू सुलझा दे।’’जग्गैया ने कहा‘‘मैं क्या तेरा नौकर हूँ’’कामैया ने तिनककर अपने खेलने का छोटासा जाल और भी बटोर लिया। समुद्रतट के छोटेसे होटल के पास की गली से अपनी झोपड़ी की ओर चली गयी।जग्गैया उस अनखाने का सुख लेतासा गुनगुनाकर गाता हुआ, अपनी खजूर की टोपी और भी तिरछी करके, सन्ध्या की शीतल बालुका को पैरों से उछालने लगा। दूसरे दिन, जब समुद्र में स्नान करने के लिए यात्री लोग आ गये थे सिन्दूरपिण्डसा सूर्य समुद्र के नील जल में स्नान कर प्राची के आकाश में ऊपर उठ रहा था तब कामैया अपने पिता के साथ धीवरों के झुण्ड में खड़ी थी उसके पिता की नावें समुद्र की लहरों पर उछल रही थीं। महाजाल पड़ा था, उसे बहुतसे धीवर मिलकर खींच रहे थे। जग्गैया ने आकर कामैया की पीठ में उँगली गोद दी। कामैया कुछ खिसककर दूर जा खड़ी हुई। उसने जग्गैया की ओर देखा भी नहीं।जग्गैया को केवल माँ थी, वह कामैया के पिता के यहाँ लगीलिपटी रहती, अपना पेट पालती थी। वह बेंत की दौरी लिये वहीं खड़ी थी। कामैया की मछलियाँ ले जाकर बाज़ार में बेचना उसी का काम था।जग्गैया नटखट था। वह अपनी माँ को वहीं देखकर और हट गया किन्तु कामैया की ओर देखकर उसने मनहीमन कहाअच्छा। महाजाल खींचकर आया। कुछ तो मछलियाँ थीं ही पर उसमें एक भीषण समुद्री बाघ भी था। दर्शकों के झुण्ड जुट पड़े। कामैया के पिता से कहा गया उसे जाल में से निकालने के लिए, जिसमें प्रकृति की उस भीषण कारीगरी को लोग भलीभाँति देख सकें।लोभ संवरण न करके उसने समुद्री बाघ को जाल से निकाला। एक खूँटे से उसकी पूँछ बाँध दी गयी। जग्गैया की माँ अपना काम करने की धुन में जाल में मछलियाँ पकड़कर दौरी में रख रही थी। समुद्री बाघ बालू की विस्तृत बेला में एक बार उछला। जग्गैया की माता का हाथ उसके मुँह में चला गया। कोलाहल मचा पर बेकार बेचारी का एक हाथ वह चबा गया।दर्शक लोग चले गये। जग्गैया अपनी मूर्च्छित माता को उठाकर झोपड़ी में जब ले चला, तब उसके मन में कामैया के पिता के लिए असीम क्रोध और दर्शकों के लिए घोर प्रतिहिंसा उद्वेलित हो रही थी। कामैया की आँखों से आँसू बह रहे थे। तब भी वह बोली नहीं। कई सप्ताह से महाजाल में मछलियाँ नहीं के बराबर फँस रही थीं। चावलों की बोझाई तो बन्द थी ही, नावें बेकार पड़ी रहती थीं। मछलियों का व्यवसाय चल रहा था वह भी डावाँडोल हो रहा था। किसी देवता की अकृपा है क्याकामैया के पिता ने रात को पूजा की। बालू की वेदियों के पास खजूर की डालियाँ गड़ी थीं। समुद्री बाघ के दाँत भी बिखरे थे। बोतलों में मदिरा भी पुजारियों के समीप प्रस्तुत थी। रात में समुद्रदेवता की पूजा आरम्भ हुईजग्गैया दूरजहाँ तक समुद्र की लहरें आकर लौट जाती हैं, वहींबैठा हुआ चुपचाप उस अनन्त जलराशि की ओर देख रहा था, और मन में सोच रहा थाक्यों मेरे पास एक नाव न रही मैं कितनी मछलियाँ पकड़ता आह फिर मेरी माता को इतना कष्ट क्यों होता। अरे वह तो मर रही है मेरे लिए इसी अन्धकारसा दारिद्र्य छोड़कर तब भी देखें, भाग्यदेवता क्या करते हैं। इसी रग्गैया की मजूरी करने से तो वह मर रही है।उसके क्रोध का उद्वेग समुद्रसा गर्जन करने लगा। पूजा समाप्त करके मदिरारुण नेत्रों से घूरते हुए पुजारी ने कहा‘‘रग्गैया तुम अपना भला चाहते हो, तो जग्गैया के कुटुम्ब से कोई सम्बन्ध न रखना। समझा न’’उधर जग्गैया का क्रोध अपनी सीमा पार कर रहा था। उसकी इच्छा होती थी कि रग्गैया का गला घोंट दे किन्तु वह था निर्बल बालक। उसके सामने से जैसे लहरें लौट जाती थीं, उसी तरह उसका क्रोध मूर्च्छित होकर गिरतासा प्रत्यावर्तन करने लगा। वह दूरहीदूर अन्धकार में झोपड़ी की ओर लौट रहा था।सहसा किसी का कठोर हाथ उसके कन्धे पर पड़ा। उसने चौंककर कहा‘‘कौन’’मदिराविह्वल कण्ठ से रग्गैया ने कहा‘‘तुम मेरे घर कल से न आना।’’जग्गैया वहीं बैठ गया। वह फूटफूटकर रोना चाहता था परन्तु अन्धकार उसका गला घोंट रहा था। दारुण क्षोभ और निराशा उसके क्रोध को उत्तेजित करती रही। उसे अपनी माता के तत्काल न मर जाने पर झुँझलाहटसी हो रही थी। समीर अधिक शीतल हो चला। प्राची का आकाश स्पष्ट होने लगा पर जग्गैया का अदृष्ट तमसाच्छन्न था। कामैया ने धीरेधीरे आकर जग्गैया की पीठ पर हाथ रख दिया। उसने घूमकर देखा। कामैया की आँखों में आँसू भरा था। दोनों चुप थे।कामैया की माता ने पुकारकर कहा‘‘जग्गैया तेरी माँ मर गयी। इसको अब ले जा।’’जग्गैया धीरेधीरे उठा और अपनी माता के शव के पास खड़ा हो गया। अब उसके मुख पर हर्षविषाद, सुखदु:ख कुछ भी नहीं था। उससे कोई बोलता न था और वह भी किसी से बोलना नहीं चाहता था किन्तु कामैया भीतरह

  • जयशंकर प्रसाद की लिखी कहानी छोटा जादूगर, Chhota Jadugar - Story Written By Jaishankar Prasad
    8 min 56 sec

    कार्निवल के मैदान में बिजली जगमगा रही थी। हँसी और विनोद का कलनाद गूँज रहा था। मैं खड़ा था। उस छोटे फुहारे के पास, जहाँ एक लडक़ा चुपचाप शराब पीनेवालों को देख रहा था। उसके गले में फटे कुरते के ऊपर से एक मोटीसी सूत की रस्सी पड़ी थी और जेब में कुछ ताश के पत्ते थे। उसके मुँह पर गम्भीर विषाद के साथ धैर्य की रेखा थी। मैं उसकी ओर न जाने क्यों आकर्षित हुआ। उसके अभाव में भी सम्पूर्णता थी। मैंने पूछा‘‘क्यों जी, तुमने इसमं क्या देखा’’‘‘मैंने सब देखा है। यहाँ चूड़ी फेंकते हैं। खिलौनों पर निशाना लगाते हैं। तीर से नम्बर छेदते हैं। मुझे तो खिलौनों पर निशाना लगाना अच्छा मालूम हुआ। जादूगर तो बिलकुल निकम्मा है। उससे अच्छा तो ताश का खेल मैं ही दिखा सकता हूँ।’’उसने बड़ी प्रगल्भता से कहा। उसकी वाणी में कहीं रुकावट न थी।मैंने पूछा‘‘और उस परदे में क्या है वहाँ तुम गये थे।’’‘‘नहीं, वहाँ मैं नहीं जा सका। टिकट लगता है।’’मैंने कहा‘‘तो चल, मैं वहाँ पर तुमको लिवा चलूँ।’’ मैंने मनहीमन कहा‘‘भाई आज के तुम्हीं मित्र रहे।’’उसने कहा‘‘वहाँ जाकर क्या कीजिएगा चलिए, निशाना लगाया जाय।’’मैंने सहमत होकर कहा‘‘तो फिर चलो, पहिले शरबत पी लिया जाय।’’ उसने स्वीकारसूचक सिर हिला दिया।मनुष्यों की भीड़ से जाड़े की सन्ध्या भी वहाँ गर्म हो रही थी। हम दोनों शरबत पीकर निशाना लगाने चले। राह में ही उससे पूछा‘‘तुम्हारे और कौन हैं’’‘‘माँ और बाबूजी।’’‘‘उन्होंने तुमको यहाँ आने के लिए मना नहीं किया’’‘‘बाबूजी जेल में है।’’‘‘क्यों’’‘‘देश के लिए।’’वह गर्व से बोला।‘‘और तुम्हारी माँ’’‘‘वह बीमार है।’’‘‘और तुम तमाशा देख रहे हो’’उसके मुँह पर तिरस्कार की हँसी फूट पड़ी। उसने कहा‘‘तमाशा देखने नहीं, दिखाने निकला हूँ। कुछ पैसे ले जाऊँगा, तो माँ को पथ्य दूँगा। मुझे शरबत न पिलाकर आपने मेरा खेल देखकर मुझे कुछ दे दिया होता, तो मुझे अधिक प्रसन्नता होती।’’मैं आश्चर्य से उस तेरहचौदह वर्ष के लड़के को देखने लगा।‘‘हाँ, मैं सच कहता हूँ बाबूजी माँ जी बीमार है इसलिए मैं नहीं गया।’’‘‘कहाँ’’‘‘जेल में जब कुछ लोग खेलतमाशा देखते ही हैं, तो मैं क्यों न दिखाकर माँ की दवा करूँ और अपना पेट भरूँ।’’मैंने दीर्घ निश्वास लिया। चारों ओर बिजली के लट्टू नाच रहे थे। मन व्यग्र हो उठा। मैंने उससे कहा‘‘अच्छा चलो, निशाना लगाया जाय।’’हम दोनों उस जगह पर पहुँचे, जहाँ खिलौने को गेंद से गिराया जाता था। मैंने बारह टिकट ख़रीदकर उस लड़के को दिये।वह निकला पक्का निशानेबाज। उसका कोई गेंद ख़ाली नहीं गया। देखनेवाले दंग रह गये। उसने बारह खिलौनों को बटोर लिया लेकिन उठाता कैसे कुछ मेरी रुमाल में बँधे, कुछ जेब में रख लिए गये।लड़के ने कहा‘‘बाबूजी, आपको तमाशा दिखाऊँगा। बाहर आइए, मैं चलता हूँ।’’ वह नौदो ग्यारह हो गया। मैंने मनहीमन कहा‘‘इतनी जल्दी आँख बदल गयी।’’मैं घूमकर पान की दूकान पर आ गया। पान खाकर बड़ी देर तक इधरउधर टहलता देखता रहा। झूले के पास लोगों का ऊपरनीचे आना देखने लगा। अकस्मात् किसी ने ऊपर के हिंडोले से पुकारा‘‘बाबूजी’’मैंने पूछा‘‘कौन’’‘‘मैं हूँ छोटा जादूगर।’’

  • जयशंकर प्रसाद की लिखी कहानी संदेह, Sandeh - Story Written By Jaishankar Prasad
    13 min 55 sec

    रामनिहाल अपना बिखरा हुआ सामान बाँधने में लगा। जँगले से धूप आकर उसके छोटेसे शीशे पर तड़प रही थी। अपना उज्ज्वल आलोकखण्ड, वह छोटासा दर्पण बुद्ध की सुन्दर प्रतिमा को अर्पण कर रहा था। किन्तु प्रतिमा ध्यानमग्न थी। उसकी आँखे धूप से चौंधियाती न थीं। प्रतिमा का शान्त गम्भीर मुख और भी प्रसन्न हो रहा था। किन्तु रामनिहाल उधर देखता न था। उसके हाथों में था एक कागजों का बण्डल, जिसे सन्दूक में रखने के पहले वह खोलना चाहता था। पढऩे की इच्छा थी, फिर भी न जाने क्यों हिचक रहा था और अपने को मना कर रहा था, जैसे किसी भयानक वस्तु से बचने के लिए कोई बालक को रोकता हो।बण्डल तो रख दिया पर दूसरा बड़ासा लिफाफा खोल ही डाला। एक चित्र उसके हाथों में था और आँखों में थे आँसू। कमरे में अब दो प्रतिमा थीं। बुद्धदेव अपनी विरागमहिमा में निमग्न। रामनिहाल रागशैलसा अचल, जिसमें से हृदय का द्रव आँसुओं की निर्झरिणी बनकर धीरेधीरे बह रहा था।किशोरी ने आकर हल्ला मचा दिया‘‘भाभी, अरे भाभी देखा नहीं तूने, न निहाल बाबू रो रहे हैं। अरे, तू चल भी’’श्यामा वहाँ आकर खड़ी हो गयी। उसके आने पर भी रामनिहाल उसी भाव में विस्मृतसा अपनी करुणाधारा बहा रहा था। श्यामा ने कहा‘‘निहाल बाबू’’निहाल ने आँखें खोलकर कहा‘‘क्या है .... अरे, मुझे क्षमा कीजिए।’’ फिर आँसू पोछने लगा।‘‘बात क्या है, कुछ सुनूँ भी। तुम क्यों जाने के समय ऐसे दुखी हो रहे हो क्या हम लोगों से कुछ अपराध हुआ’’‘‘तुमसे अपराध होगा यह क्या कह रही हो मैं रोता हूँ, इसमें मेरी ही भूल है। प्रायश्चित करने का यह ढंग ठीक नहीं, यह मैं धीरेधीरे समझ रहा हूँ। किन्तु करूँ क्या यह मन नहीं मानता।’’श्यामा जैसे सावधान हो गयी। उसने पीछे फिरकर देखा कि किशोरी खड़ी है। श्यामा ने कहा‘‘जा बेटी कपड़े धूप में फैले हैं, वहीं बैठ।’’ किशोरी चली गई। अब जैसे सुनने के लिए प्रस्तुत होकर श्यामा एक चटाई खींचकर बैठ गयी। उसके सामने छोटीसी बुद्धप्रतिमा सागवान की सुन्दर मेज पर धूप के प्रतिबिम्ब में हँस रही थी। रामनिहाल कहने लगा‘‘श्यामा तुम्हारा कठोर व्रत, वैधव्य का आदर्श देखकर मेरे हृदय में विश्वास हुआ कि मनुष्य अपनी वासनाओं का दमन कर सकता है। किन्तु तुम्हारा अवलम्ब बड़ा दृढ़ है। तुम्हारे सामने बालकों का झुण्ड हँसता, खेलता, लड़ता, झगड़ता है। और तुमने जैसे बहुतसी देवप्रतिमाएँ, श्रृंगार से सजाकर हृदय की कोठरी को मन्दिर बना दिया। किन्तु मुझको वह कहाँ मिलता। भारत के भिन्नभिन्न प्रदेशों में, छोटामोटा व्यवसाय, नौकरी और पेट पालने की सुविधाओं को खोजता हुआ जब तुम्हारे घर में आया, तो मुझे विश्वास हुआ कि मैंने घर पाया। मैं जब से संसार को जानने लगा, तभी से मैं गृहहीन था। मेरा सन्दूक और ये थोड़ेसे सामान, जो मेरे उत्तराधिकार का अंश था, अपनी पीठ पर लादे हुए घूमता रहा। ठीक उसी तरह, जैसे कञ्जर अपनी गृहस्थी टट्टू पर लादे हुए घूमता है।‘‘मैं चतुर था, इतना चतुर जितना मनुष्य को न होना चाहिए क्योंकि मुझे विश्वास हो गया है कि मनुष्य अधिक चतुर बनकर अपने को अभागा बना लेता है, और भगवान् की दया से वञ्चित हो जाता है।‘‘मेरी महत्वाकांक्षा, मेरे उन्नतिशील विचार मुझे बराबर दौड़ाते रहे। मैं अपनी कुशलता से अपने भाग्य को धोखा देता रहा। यह भी मेरा पेट भर देता था। कभीकभी मुझे ऐसा मालूम होता कि यह दाँव बैठा कि मैं अपने आप पर विजयी हुआ। और मैं सुखी होकर, सन्तुष्ट होकर चैन से संसार के एक कोने में बैठ जाऊँगा किन्तु वह मृगमरीचिका थी।‘‘मैं जिनके यहाँ नौकरी अब तक करता रहा, वे लोग बड़े ही सुशिक्षित और सज्जन हैं। मुझे मानते भी बहुत हैं। तुम्हारे यहाँ घर कासा सुख है किन्तु यह सब मुझे छोडऩा पड़ेगा ही।’’इतनी बात कहकर रामनिहाल चुप हो गया।‘‘तो तुम काम की एक बात न कहोगे। व्यर्थ ही इतनी....’’ श्यामा और कुछ कहना चाहती थी कि उसे रोककर रामनिहाल कहने लगा, ‘‘तुमको मैं अपना शुभचिन्तक मित्र और रक्षक समझता हूँ, फिर तुमसे न कहूँगा, तो यह भार कब तक ढोता रहूँगा लो सुनो। यह चैत है न, हाँ ठीक कार्तिक की पूर्णिमा थी। मैं कामकाज से छुट्टी पाकर सन्ध्या की शोभा देखने के लिए दशाश्वमेघ घाट पर जाने के लिए तैयार था कि ब्रजकिशोर बाबू ने कहा‘तुम तो गंगाकिनारे टहलने जाते ही हो। आज मेरे एक सम्बन्धी आ गये हैं, इन्हें भी एक बजरे पर बैठाकर घुमाते आओ, मुझे आज छुट्टी नहीं है।‘‘मैंने स्वीकार कर लिया। आफिस में बैठा रहा। थोड़ी देर में भीतर से एक पुरुष के साथ एक सुन्दरी स्त्री निकली और मैं समझ गया कि मुझे इन्हीं लोगों के साथ जाना होगा। ब्रजकिशोर बाबू ने कहा‘मानमन्दिर घाट पर बजरा ठीक है। निहाल आपके साथ जा रहे हैं। कोई असुविधा न होगी। इस समय मुझे क्षमा कीजिए। आवश्यक काम है।’‘‘पुरुष के मुँह पर

  • जयशंकर प्रसाद की लिखी कहानी भीख में, Bheekh Mein - Story Written By Jaishankar Prasad
    13 min 29 sec

    खपरल दालान में, कम्बल पर मिन्ना के साथ बैठा हुआ ब्रजराज मन लगाकर बातें कर रहा था। सामने ताल में कमल खिल रहे थे। उस पर से भीनीभीनी महक लिये हुए पवन धीरेधीरे उस झोपड़ी में आता और चला जाता था।‘‘माँ कहती थी ...’’, मिन्ना ने कमल की केसरों को बिखराते हुए कहा।‘‘क्या कहती थी’’‘‘बाबूजी परदेश जायँगे। तेरे लिये नैपाली टट्टू लायँगे।’’‘‘तू घोड़े पर चढ़ेगा कि टट्टू पर पागल कहीं का।’’‘‘नहीं, मैं टट्टू पर चढ़ूंगा। वह गिरता नहीं।’’‘‘तो फिर मैं नहीं जाऊँगा’’‘‘क्यों नहीं जाओगे ऊँऊँऊँ, मैं अब रोता हूँ।’’‘‘अच्छा, पहले यह बताओ कि जब तुम कमाने लगोगे, तो हमारे लिए क्या लाओगे’’‘‘खूब ढेरसा रुपया’’कहकर मिन्ना ने अपना छोटासा हाथ जितना ऊँचा हो सकता था, उठा लिया।‘‘सब रुपया मुझको ही दोगे न’’‘‘नहीं, माँ को भी दूँगा।’’‘‘मुझको कितना दोगे’’‘‘थैलीभर’’‘‘और माँ को’’‘‘वही बड़ी काठवाली सन्दूक में जितना भरेगा।’’‘‘तब फिर माँ से कहो वही नैपाली टट्टू ला देगी।’’मिन्ना ने झुँझलाकर ब्रजराज को ही टट्टू बना लिया। उसी के कन्धों पर चढक़र अपनी साध मिटाने लगा। भीतर दरवाज़े में से इन्दो झाँककर पितापुत्र का विनोद देख रही थी। उसने कहा‘‘मिन्ना यह टट्टू बड़ा अड़ियल है।’’ब्रजराज को यह विसम्वादी स्वर कीसी हँसी खटकने लगी। आज ही सवेरे इन्दो से कड़ी फटकार सुनी थी। इन्दो अपने गृहिणीपद की मर्यादा के अनुसार जब दोचार खरीखोटी सुना देती, तो उसका मन विरक्ति से भर जाता। उसे मिन्ना के साथ खेलने में, झगड़ा करने में और सलाह करने में ही संसार की पूर्ण भावमयी उपस्थिति हो जाती। फिर कुछ और करने की आवश्यकता ही क्या है यही बात उसकी समझ में नहीं आती। रोटीबिना भूखों मरने की सम्भावना न थी। किन्तु इन्दो को उतने ही से सन्तोष नहीं। इधर ब्रजराज को निठल्ले बैठे हुए मालो के साथ कभीकभी चुहल करते देखकर तो वह और भी जल उठती। ब्रजराज यह सब समझता हुआ भी अनजान बन रहा था। उसे तो अपनी खपरैल में मिन्ना के साथ सन्तोषहीसन्तोष था किन्तु आज वह न जाने क्यों भिन्ना उठा‘‘मिन्ना अड़ियल टट्टू भागते हैं, तो रुकते नहीं। और राहकराह भी नहीं देखते। तेरी माँ अपने भीगे चने पर रोब गाँठती है। कहीं इस टट्टू को हरीहरी दूब की चाट लगी, तो...।’’‘‘नहीं मिन्ना रूखीसूखी पर निभा लेनेवाले ऐसा नहीं कर सकते’’‘‘कर सकते हैं मिन्ना कह दो, हाँ’’मिन्ना घबरा उठा था। यह तो बातों का नया ढंग था। वह समझ न सका। उसने कह दिया‘‘हाँ, कर सकते हैं।’’‘‘चल देख लिया। ऐसे ही करनेवाले’’कहकर ज़ोर से किवाड़ बन्द करती हुई इन्दो चली गयी। ब्रजराज के हृदय में विरक्ति चमकी। बिजली की तरह कौंध उठी घृणा। उसे अपने अस्तित्व पर सन्देह हुआ। वह पुरुष है या नहीं इतना कशाघात इतना सन्देह और चतुर सञ्चालन उसका मन घर से विद्रोही हो रहा था। आज तक बड़ी सावधानी से कुशल महाजन की तरह वह अपना सूद बढ़ाता रहा। कभी स्नेह का प्रतिदान लेकर उसने इन्दो को हल्का नहीं होने दिया था। इसी घड़ी सूददरसूद लेने के लिए उसने अपनी विरक्ति की थैली का मुँह खोल दिया।

  • जयशंकर प्रसाद की लिखी कहानी चित्रवाले पत्थर, Chitrawale Patthar - Story Written By Jaishankar Prasad
    23 min 41 sec

    मैं ‘संगमहाल’ का कर्मचारी था। उन दिनों मुझे विन्ध्य शैलमाला के एक उजाड़ स्थान में सरकारी काम से जाना पड़ा। भयानक वनखण्ड के बीच, पहाड़ी से हटकर एक छोटीसी डाक बँगलिया थी। मैं उसी में ठहरा था। वहीं की एक पहाड़ी में एक प्रकार का रंगीन पत्थर निकला था। मैं उनकी जाँच करने और तब तक पत्थर की कटाई बन्द करने के लिए वहाँ गया था। उस झाड़खण्ड में छोटीसी सन्दूक की तरह मनुष्यजीवन की रक्षा के लिए बनी हुई बँगलिया मुझे विलक्षण मालूम हुई क्योंकि वहाँ पर प्रकृति की निर्जन शून्यता, पथरीली चट्टानों से टकराती हुई हवा के झोंके के दीर्घनि:श्वास, उस रात्रि में मुझे सोने न देते थे। मैं छोटीसी खिडक़ी से सिर निकालकर जब कभी उस सृष्टि के खँडहर को देखने लगता, तो भय और उद्वेग मेरे मन पर इतना बोझ डालते कि मैं कहानियों में पढ़ी हुई अतिरञ्जित घटनाओं की सम्भावना से ठीक संकुचित होकर भीतर अपने तकिये पर पड़ा रहता था। अन्तरिक्ष के गह्वर में नजाने कितनी ही आश्चर्यजनक लीलाएँ करके मानवी आत्माओं ने अपना निवास बना लिया है। मैं कभीकभी आवेश में सोचता कि भत्ते के लोभ से मैं ही क्यों यहाँ चला आया क्या वैसी ही कोई अद्‌भुत घटना होने वाली है मैं फिर जब अपने साथी नौकर की ओर देखता, तो मुझे साहस हो जाता और क्षणभर के लिए स्वस्थ होकर नींद को बुलाने लगता किन्तु कहाँ, वह तो सपना हो रही थी।रात कट गयी। मुझे कुछ झपकी आने लगी। किसी ने बाहर से खटखटाया और मैं घबरा उठा। खिडक़ी खुली हुई थी। पूरब की पहाड़ी के ऊपर आकाश में लाली फैल रही थी। मैं निडर होकर बोला‘‘कौन है इधर खिडक़ी के पास आओ।’’जो व्यक्ति मेरे पास आया, उसे देखकर मैं दंग रह गया। कभी वह सुन्दर रहा होगा किन्तु आज तो उसके अंगअंग से, मुँह की एकएक रेखा से उदासीनता और कुरूपता टपक रही थी। आँखें गड्ढे में जलते हुए अंगारे की तरह धक्धक् कर रही थीं। उसने कहा‘‘मुझे कुछ खिलाओ।’’मैंने मनहीमन सोचा कि यह आपत्ति कहाँ से आयी वह भी रात बीत जाने पर मैंने कहा‘‘भले आदमी तुमको इतने सबेरे भूख लग गयी’’उसकी दाढ़ी और मूँछों के भीतर छिपी हुई दाँतों की पँक्ति रगड़ उठी। वह हँसी थी या थी किसी कोने की मर्मान्तक पीड़ा की अभिव्यक्ति, कह नहीं सकता। वह कहने लगा‘‘व्यवहारकुशल मनुष्य, संसार के भाग्य से उसकी रक्षा के लिए, बहुत थोड़ेसे उत्पन्न होते हैं। वे भूखे पर संदेह करते हैं। एक पैसा देने के साथ नौकर से कह देते हैं, देखो इसे चना दिला देना। वह समझते हैं, एक पैसे की मलाई से पेट न भरेगा। तुम ऐसे ही व्यवहारकुशल मनुष्य हो। जानते हो कि भूखे को कब भूख लगनी चाहिए। जब तुम्हारी मनुष्यता स्वाँग बनाती है, तो अपने पशु पर देवता की खाल चढ़ा देती है, और स्वयं दूर खड़ी हो जाती है।’’ मैंने सोचा कि यह दार्शनिक भिखमंगा है। और कहा‘‘अच्छा, बाहर बैठो।’’बहुत शीघ्रता करने पर भी नौकर के उठने और उसके लिए भोजन बनाने में घण्टों लग गये। जब मैं नहाधोकर पूजापाठ से निवृत्त होकर लौटा, तो वह मनुष्य एकान्त मन से अपने खाने पर जुटा हुआ था। अब मैं उसकी प्रतीक्षा करने लगा। वह भोजन समाप्त करके जब मेरे पास आया, तो मैंने पूछा‘‘तुम यहाँ क्या कर रहे थे’’ उसने स्थिर दृष्टि से एक बार मेरी ओर देखकर कहा‘‘बस, इतना ही पूछिएगा या और भी कुछ’’ मुझे हँसी आ गयी। मैंने कहा‘‘मुझे अभी दो घण्टे का अवसर है। तुम जो कुछ कहना चाहो, कहो।’’वह कहने लगा‘‘मेरे जीवन में उस दिन अनुभूतिमयी सरसता का सञ्चार हुआ, मेरी छाती में कुसुमाकर की वनस्थली अंकुरित, पल्लवित, कुसुमित होकर सौरभ का प्रसार करने लगी। ब्याह के निमन्त्रण में मैंने देखा उसे, जिसे देखने के लिए ही मेरा जन्म हुआ था। वह थी मंगला की यौवनमयी ऊषा। सारा संसार उन कपोलों की अरुणिमा की गुलाबी छटा के नीचे मधुर विश्राम करने लगा। वह मादकता विलक्षण थी। मंगला के अंगकुसुम से मकरन्द छलका पड़ता था। मेरी धवल आँखे उसे देखकर ही गुलाबी होने लगीं।ब्याह की भीड़भाड़ में इस ओर ध्यान देने की किसको आवश्यकता थी, किन्तु हम दोनों को भी दूसरी ओर देखने का अवकाश नहीं था। सामना हुआ और एक घूँट। आँखे चढ़ जाती थीं। अधर मुस्कराकर खिल जाते और हृदयपिण्ड पारद के समान, वसन्तकालीन चलदलकिसलय की तरह काँप उठता।देखतेहीदेखते उत्सव समाप्त हो गया। सब लोग अपनेअपने घर चलने की तैयारी करने लगे परन्तु मेरा पैर तो उठता ही न था। मैं अपनी गठरी जितनी ही बाँधता, वह खुल जाती। मालूम होता था कि कुछ छूट गया है। मंगला ने कहा‘‘मुरली, तुम भी जाते हो’’‘‘जाऊँगा हीतो भी तुम जैसा कहो ।’’‘‘अच्छा, तो फिर कितने दिनों में आओगे’’‘‘यह तो भाग्य जाने’’‘‘अच्छी बात है’’वह जाड़े की रात के समान ठण्डे स्वर में बोली। मेरे मन को ठेस लगी। मैंने भी सोचा कि फिर यहाँ क्यों ठहरूँ चल देने क

  • जयशंकर प्रसाद की लिखी कहानी नूरी, Noorie - Story Written By Jaishankar Prasad
    22 min 6 sec

    नूरीऐ तुम कौन......बोलते नहीं......तो मैं बुलाऊँ किसी को कहते हुए उसने छोटासा मुँह खोला ही था कि युवक ने एक हाथ उसके मुँह पर रखकर उसे दूसरे हाथ से दबा लिया। वह विवश होकर चुप हो गयी। और भी, आज पहला ही अवसर था, जब उसने केसर, कस्तूरी और अम्बर से बसा हुआ यौवनपूर्ण उद्वेलित आलिंगन पाया था। उधर किरणें भी पवन के एक झोंके के साथ किसलयों को हटाकर घुस पड़ीं। दूसरे ही क्षण उस कुञ्ज के भीतर छनकर आती हुई चाँदनी में जौहर से भरी कटार चमचमा उठी। भयभीत मृगशावकसी काली आँखें अपनी निरीहता में दया कीप्राणों की भीख माँग रही थीं। युवक का हाथ रुक गया। उसने मुँह पर उँगली रखकर चुप रहने का संकेत किया। नूरी काश्मीर की कली थी। सिकरी के महलों में उसके कोमल चरणों की नृत्यकला प्रसिद्ध थी। उस कलिका का आमोदमकरन्द अपनी सीमा में मचल रहा था। उसने समझा, कोई मेरा साहसी प्रेमी है, जो महाबली अकबर की आँखमिचौनीक्रीड़ा के समय पतंगसा प्राण देने आ गया है। नूरी ने इस कल्पना के सुख में अपने को धन्य समझा और चुप रहने का संकेत पाकर युवक के मधुर अधरों पर अपने अधर रख दिये। युवक भी आत्मविस्मृतसा उस सुख में पलभर के लिए तल्लीन हो गया। नूरी ने धीरे से कहायहाँ से जल्द चले जाओ। कल बाँध पर पहले पहर की नौबत बजने के समय मौलसिरी के नीचे मिलूँगी।युवक धीरेधीरे वहाँ से खिसक गया। नूरी शिथिल चरण से लडख़ड़ाती हुई दूसरे कुञ्ज की ओर चली जैसे कई प्याले अंगूरी चढ़ा ली हो उसकी जैसी कितनी ही सुन्दरियाँ अकबर को खोज रही थीं। आकाश का सम्पूर्ण चन्द्र इस खेल को देखकर हँस रहा था। नूरी अब किसी कुञ्ज में घुसने का साहस नहीं रखती थी। नरगिस दूसरे कुञ्ज से निकलकर आ रही थी। उसने नूरी से पूछाक्यों, उधर देख आयीनहीं, मुझे तो नहीं मिले।तो फिर चल, इधर कामिनी के झाड़ों में देखूँ।तू ही जा, मैं थक गयी हूँ।नरगिस चली गयी। मालती की झुकी हुई डाल की अँधेरी छाया में धड़कते हुए हृदय को हाथों से दबाये नूरी खड़ी थी पीछे से किसी ने उसकी आँखों को बन्द कर लिया। नूरी की धड़कन और बढ़ गयी। उसने साहस से कहामैं पहचान गयी।.....जहाँपनाह उसके मुँह से निकला ही था कि अकबर ने उसका मुँह बन्द कर लिया और धीरे से उसके कानों मे कहामरियम को बता देना, सुलताना को नहीं समझी न मैं उस कुञ्ज में जाता हूँ।अकबर के जाने के बाद ही सुलताना वहाँ आयी। नूरी उसी की छत्रछाया में रहती थी पर अकबर की आज्ञा उसने दूसरी ओर सुलताना को बहका दिया। मरियम धीरेधीरे वहाँ आयी। वह ईसाई बेगम इस आमोदप्रमोद से परिचित न थी। तो भी यह मनोरंजन उसे अच्छा लगा। नूरी ने अकबरवाला कुञ्ज उसे बता दिया।घण्टों के बाद जब सब सुन्दरियाँ थक गयी थीं, तब मरियम का हाथ पकड़े अकबर बाहर आये। उस समय नौबतखाने से मीठीमीठी सोहनी बज रही थी। अकबर ने एक बार नूरी को अच्छी तरह देखा। उसके कपोलों को थपथपाकर उसको पुरस्कार दिया। आँखमिचौनी हो गयी

  • जयशंकर प्रसाद की लिखी कहानी देवरथ, Devrath - Story Written By Jaishankar Prasad
    12 min 3 sec

    दोतीन रेखाएँ भाल पर, काली पुतलियों के समीप मोटी और काली बरौनियों का घेरा, घनी आपस में मिली रहने वाली भवें और नासापुट के नीचे हलकीहलकी हरियाली उस तापसी के गोरे मुँह पर सबल अभिव्यक्ति की प्रेरणा प्रगट करती थी।यौवन, काषाय से कहीं छिप सकता है संसार को दु:खपूर्ण समझकर ही तो वह संघ की शरण में आयी थी। उसके आशापूर्ण हृदय पर कितनी ही ठोकरें लगी थीं। तब भी यौवन ने साथ न छोड़ा। भिक्षुकी बनकर भी वह शान्ति न पा सकी थी। वह आज अत्यन्त अधीर थी।चैत की अमावस्या का प्रभात था। अश्वत्थ वृक्ष की मिट्टीसी सफेद डालों और तने पर ताम्र अरुण कोमल पत्तियाँ निकल आयी थीं। उन पर प्रभात की किरणें पड़कर लोटपोट हो जाती थीं। इतनी स्निग्ध शय्या उन्हें कहाँ मिली थी।सुजाता सोच रही थी। आज अमावस्या है। अमावस्या तो उसके हृदय में सवेरे से ही अन्धकार भर रही थी। दिन का आलोक उसके लिए नहीं के बराबर था। वह अपने विशृंखल विचारों को छोड़कर कहाँ भाग जाय। शिकारियों का झुण्ड और अकेली हरिणी उसकी आँखें बन्द थीं।आर्यमित्र खड़ा रहा। उसने देख लिया कि सुजाता की समाधि अभी न खुलेगी। वह मुस्कुराने लगा। उसके कृत्रिम शील ने भी उसको वर्जित किया। संघ के नियमों ने उसके हृदय पर कोड़े लगाये पर वह भिक्षु वहीं खड़ा रहा।भीतर के अन्धकार से ऊबकर सुजाता ने आलोक के लिए आँखे खोल दीं। आर्यमित्र को देखकर आलोक की भीषणता उसकी आँखों के सामने नाचने लगी। उसने शक्ति बटोरकर कहा‘‘वन्दे’’आर्यमित्र पुरुष था। भिक्षुकी का उसके सामने नत होना संघ का नियम था। आर्यमित्र ने हँसते हुए अभिवादन का उत्तर दिया, और पूछा‘‘सुजाता, आज तुम स्वस्थ हो’’सुजाता उत्तर देना चाहती थी। पर....आर्यमित्र के काषाय के नवीन रंग में उसका मन उलझ रहा था। वह चाहती थी कि आर्यमित्र चला जाय चला जाय उसकी चेतना के घेरे के बाहर। इधर वह अस्वस्थ थी, आर्यमित्र उसे औषधि देता था। संघ का वह वैद्य था। अब वह अच्छी हो गयी है। उसे आर्यमित्र की आवश्यकता नहीं। किन्तु .... है तो .... हृदय को उपचार की अत्यन्त आवश्यकता है। तब भी आर्यमित्र वह क्या करे। बोलना ही पड़ा।‘‘हाँ, अब तो स्वस्थ हूँ।’’‘‘अभी पथ्य सेवन करना होगा।’’‘‘अच्छा।’’‘‘मुझे और भी एक बात कहनी है।’’‘‘क्या नहीं, क्षमा कीजिए। आपने कब से प्रव्रज्या ली है’’‘‘वह सुनकर तुम क्या करोगी संसार ही दु:खमय है।’’‘‘ठीक तो.......अच्छा, नमस्कार ।’’आर्यमित्र चला गया किन्तु उसके जाने से जो आन्दोलन आलोकतरंग में उठा, उसी में सुजाता झूमने लगी थी। उसे मालूम नहीं, कब से महास्थविर उसके समीप खड़े थे। समुद्र का कोलाहल कुछ सुनने नहीं देता था। सन्ध्या धीरेधीरे विस्तृत नील जलराशि पर उतर रही थी। तरंगों पर तरंगे बिखरकर चूर हो रही थीं। सुजाता बालुका की शीतल वेदी पर बैठी हुई अपलक आँखों से उस क्षणिकता का अनुभव कर रही थी किन्तु नीलाम्बुधि का महान् संसार किसी वास्तविकता की ओर संकेत कर रहा था। सत्ता की सम्पूर्णता धुँधली सन्ध्या में मूर्तिमान् हो रही थी। सुजाता बोल उठी‘‘जीवन सत्य है, सम्वेदन सत्य है, आत्मा के आलोक में अन्धकार कुछ नहीं है।’’‘‘सुजाता, यह क्या कह रही हो’’ पीछे से आर्यमित्र ने कहा।‘‘कौन, आर्यमित्र’’‘‘मैं भिक्षुणी क्यों हुई आर्यमित्र’’‘‘व्यर्थ सुजाता। मैंने अमावस्या की गम्भीर रजनी में संघ के सम्मुख पापी होना स्वीकार कर लिया है। अपने कृत्रिम शील के आवरण में सुरक्षित नहीं रह सका। मैंने महास्थविर से कह दिया कि संघमित्र का पुत्र आर्यमित्र सांसारिक विभूतियों की उपेक्षा नहीं कर सकता। कई पुरुषों की सञ्चित महौषधियाँ, कलिंग के राजवैद्य पद का सम्मान, सहज में छोड़ा नहीं जा सकता। मैं केवल सुजाता के लिए ही भिक्षु बना था। उसी का पता लगाने के लिए मैं इस नील विहार में आया था। वह मेरी वाग्दत्ता भावी पत्नी है।’’

  • चंद्रधर शर्मा गुलेरी की लिखी कहानी न्याय रथ, Nyay Rath - Story Written By Chandradhar Sharma Guleri
    1 min 41 sec

    चौड़ चैड़, चोल या गौड़ देश में गोवर्धन नामक राजा के यहाँ सभामंडप के सामने लोहे के स्तम्भ पर न्याय घंटा था, जिसे न्याय चाहने वाला बजा दिया करता। एक समय उसके एकमात्र पुत्र ने रथ पर चढ़कर जाते समय जानबूझकर एक बछड़े को कुचल दिया। बछड़े की माता गौ ने सींग अड़ाकर घंटा बजा दिया। राजा ने सब हाल पूछकर अपने न्याय को कोटि पर पहुँचाना चाहा। दूसरे दिन सवेरे स्वयं रथ पर बैठ राह में अपने प्यारे इकलौते पुत्र को बैठाकर उस पर रथ चलाया और गौ को दिखा दिया।राजा के सत्व और कुमार के भाग्य से कुमार मरा नहीं।

  • जयशंकर प्रसाद की लिखी कहानी इंद्रजाल, Indrajal - Story Written By Jaishankar Prasad
    18 min 53 sec

    गाँव के बाहर, एक छोटेसे बंजर में कंजरों का दल पड़ा था। उस परिवार में टट्टू, भैंसे और कुत्तों को मिलाकर इक्कीस प्राणी थे। उसका सरदार मैकू, लम्बीचौड़ी हड्डियोंवाला एक अधेड़ पुरुष था। दयामाया उसके पास फटकने नहीं पाती थी। उसकी घनी दाढ़ी और मूँछों के भीतर प्रसन्नता की हँसी छिपी ही रह जाती। गाँव में भीख माँगने के लिए जब कंजरों की स्त्रियाँ जातीं, तो उनके लिए मैकू की आज्ञा थी कि कुछ न मिलने पर अपने बच्चों को निर्दयता से गृहस्थ के द्वार पर जो स्त्री न पटक देगी, उसको भयानक दण्ड मिलेगा।उस निर्दय झुण्ड में गानेवाली एक लडक़ी थी। और एक बाँसुरी बजानेवाला युवक। ये दोनों भी गाबजाकर जो पाते, वह मैकू के चरणों में लाकर रख देते। फिर भी गोली और बेला की प्रसन्नता की सीमा न थी। उन दोनों का नित्य सम्पर्क ही उनके लिए स्वर्गीय सुख था। इन घुमक्कड़ों के दल में ये दोनों विभिन्न रुचि के प्राणी थे। बेला बेडिऩ थी। माँ के मर जाने पर अपने शराबी और अकर्मण्य पिता के साथ वह कंजरों के हाथ लगी। अपनी माता के गानेबजाने का संस्कार उसकी नसनस में भरा था। वह बचपन से ही अपनी माता का अनुकरण करती हुई अलापती रहती थी।शासन की कठोरता के कारण कंजरों का डाका और लड़कियों के चुराने का व्यापार बन्द हो चला था। फिर भी मैकू अवसर से नहीं चूकता। अपने दल की उन्नति में बराबर लगा ही रहता। इस तरह गोली के बाप के मर जाने परजो एक चतुर नट थामैकू ने उसकी खेल की पिटारी के साथ गोली पर भी अधिकार जमाया। गोली महुअर तो बजाता ही था, पर बेला का साथ होने पर उसने बाँसुरी बजाने में अभ्यास किया। पहले तो उसकी नटविद्या में बेला भी मनोयोग से लगी किन्तु दोनों को भानुमती वाली पिटारी ढोकर दोचार पैसे कमाना अच्छा न लगा। दोनों को मालूम हुआ कि दर्शक उस खेल से अधिक उसका गाना पसन्द करते हैं। दोनों का झुकाव उसी ओर हुआ। पैसा भी मिलने लगा। इन नवागन्तुक बाहरियों की कंजरों के दल में प्रतिष्ठा बढ़ी।बेला साँवली थी। जैसे पावस की मेघमाला में छिपे हुए आलोकपिण्ड का प्रकाश निखरने की अदम्य चेष्टा कर रहा हो, वैसे ही उसका यौवन सुगठित शरीर के भीतर उद्वेलित हो रहा था। गोली के स्नेह की मदिरा से उसकी कजरारी आँखें लाली से भरी रहतीं। वह चलती तो थिरकती हुई, बातें करती तो हँसती हुई। एक मिठास उसके चारों ओर बिखरी रहती। फिर भी गोली से अभी उसका ब्याह नहीं हुआ था।गोली जब बाँसुरी बजाने लगता, तब बेला के साहित्यहीन गीत जैसे प्रेम के माधुर्य की व्याख्या करने लगते। गाँव के लोग उसके गीतों के लिए कंजरों को शीघ्र हटाने का उद्योग नहीं करते जहाँ अपने सदस्यों के कारण कंजरों का वह दल घृणा और भय का पात्र था, वहाँ गोली और बेला का संगीत आकर्षण के लिए पर्याप्त था किन्तु इसी में एक व्यक्ति का अवांछनीय सहयोग भी आवश्यक था। वह था भूरे, छोटीसी ढोल लेकर उसे भी बेला का साथ करना पड़ता।भूरे सचमुच भूरा भेडिय़ा था। गोली अधरों से बाँसुरी लगाये अर्द्धनिमीलित आँखों के अन्तराल से, बेला के मुख को देखता हुआ जब हृदय की फूँक से बाँस के टुकड़े को अनुप्राणित कर देता, तब विकट घृणा से ताड़ित होकर भूरे की भयानक थाप ढोल पर जाती। क्षणभर के लिए जैसे दोनों चौंक उठते।उस दिन ठाकुर के गढ़ में बेला का दल गाने के लिए गया था। पुरस्कार में कपड़ेरुपये तो मिले ही थे बेला को एक अँगूठी भी मिली थी। मैकू उन सबको देखकर प्रसन्न हो रहा था। इतने में सिरकी के बाहर कुछ हल्ला सुनाई पड़ा। मैकू ने बाहर आकर देखा कि भूरे और गोली में लड़ाई हो रही थी। मैकू के कर्कश स्वर से दोनों भयभीत हो गये। गोली ने कहा‘‘मैं बैठा था, भूरे ने मुझको गालियाँ दीं। फिर भी मैं न बोला, इस पर उसने मुझे पैर से ठोकर लगा दी।’’‘‘और यह समझता है कि मेरी बाँसुरी के बिना बेला गा ही नहीं सकती। मुझसे कहने लगा कि आज तुम ढोलक बेताल बजा रहे थे।’’ भूरे का कण्ठ क्रोध से भर्राया हुआ था।मैकू हँस पड़ा। वह जानता था कि गोली युवक होने पर भी सुकुमार और अपने प्रेम की माधुरी में विह्वल, लजीला और निरीह था। अपने को प्रमाणित करने की चेष्टा उसमें थी ही नहीं। वह आज जो कुछ उग्र हो गया, इसका कारण है केवल भूरे की प्रतिद्वन्द्विता।बेला भी वहाँ आ गयी थी। उसने घृणा से भूरे की ओर देखकर कहा‘तो क्या तुम सचमुच बेताल नहीं बजा रहे थे’‘‘मैं बेताल न बजाऊँगा, तो दूसरा कौन बजायेगा। अब तो तुमको नये यार न मिले हैं। बेला तुझको मालूम नहीं तेरा बाप मुझसे तेरा ब्याह ठीक करके मरा है। इसी बात पर मैंने उसे अपना नैपाली का दोगला टट्टू दे दिया था, जिस पर अब भी तू चढक़र चलती है।’’ भूरे का मुँह क्रोध के झाग से भर गया था। वह और भी कुछ बकता किन्तु मैकू की डाँट पड़ी। सब चुप हो गये।उस निर्जन प्रान्त में जब अन्धकार खुले आकाश के नीचे तारों से खेल रहा था, तब

  • जयशंकर प्रसाद की लिखी कहानी चित्र मंदिर, Chitra Mandir - Story Written By Jaishankar Prasad
    13 min 24 sec

    प्रकृति तब भी अपने निर्माण और विनाश में हँसती और रोती थी। पृथ्वी का पुरातन पर्वत विन्ध्य उसकी सृष्टि के विकास में सहायक था। प्राणियों का सञ्चार उसकी गम्भीर हरियाली में बहुत धीरेधीरे हो रहा था। मनुष्यों ने अपने हाथों की पृथ्वी से उठाकर अपने पैरों पर खड़े होने की सूचना दे दी थी। जीवनदेवता की आशीर्वादरश्मि उन्हें आलोक में आने के लिए आमन्त्रित कर चुकी थी।यौवनजल से भरी हुई कादम्बिनीसी युवती नारी रीछ की खाल लपेटे एक वृक्ष की छाया में बैठी थी। उसके पास चकमक और सूखी लकड़ियों का ढेर था। छोटेछोटे हिरनों का झुण्ड उसी स्रोत के पास जल पीने के लिए आता। उन्हें पकड़ने की ताक में युवती बड़ी देर से बैठी थी क्योंकि उस काल में भी शस्त्रों से आखेट नर ही करते थे और उनकी नारियाँ कभीकभी छोटेमोटे जन्तुओं को पकड़ लेने में अभ्यस्त हो रही थीं।स्रोत में जल कम था। वन्य कुसुम धीरेधीरे बहते हुए एक के बाद एक आकर माला की लड़ी बना रहे थे। युवती ने उनकी विलक्षण पँखड़ियों को आश्चर्य से देखा। वे सुन्दर थे, किन्तु उसने इन्हें अपनी दो आरम्भिक आवश्यकताओं काम और भूख से बाहर की वस्तु समझा। वह फिर हिरनों की प्रतीक्षा करने लगी। उनका झुण्ड आ रहा था। युवती की आँखे प्रलोभन की रंगभूमि बन रही थीं। उसने अपनी ही भुजाओं से छाती दबाकर आनन्द और उल्लास का प्रदर्शन किया।दूर से एक कूक सुनाई पड़ी और एक भद्दे फलवाला भाला लक्ष्य से चूककर उसी के पास के वृक्ष के तने में धँसकर रह गया। हाँ, भाले के धँसने पर वह जैसे न जाने क्या सोचकर पुलकित हो उठी। हिरन उसके समीप आ रहे थे परन्तु उसकी भूख पर दूसरी प्रबल इच्छा विजयनी हुई। पहाड़ी से उतरते हुए नर को वह सतृष्ण देखने लगी। नर अपने भाले के पीछे आ रहा था। नारी के अंग में कम्प, पुलक और स्वेद का उद्गम हुआ।‘हाँ, वही तो है, जिसने उस दिन भयानक रीछ को अपने प्रचण्ड बल से परास्त किया था। और, उसी की खाल युवती आज लपेटे थी। कितनी ही बार तब से युवक और युवती की भेंट निर्जन कन्दराओं और लताओं के झुरमुट में हो चुकी थी। नारी के आकर्षण से खिंचा हुआ वह युवा दूसरी शैलमाला से प्राय: इधर आया करता और तब उस जंगली जीवन में दोनों का सहयोग हुआ करता। आज नर ने देखा कि युवती की अन्यमनस्कता से उसका लक्ष्य पशु निकल गया। विहार के प्राथमिक उपचार की सम्भावना न रही, उसे इस सन्ध्या में बिना आहार के ही लौटना पड़ेगा। ‘‘तो क्या जानबूझकर उसने अहेर को बहका दिया, और केवल अपनी इच्छा की पूर्ति का अनुरोध लेकर चली आ रही है। लो, उसकी बाँहे व्याकुलता से आलिंगन के लिए बुला रही हैं। नहीं, उसे इस समय अपना आहार चाहिए।’’ उसके बाहुपाश से युवक निकल गया। नर के लिए दोनों ही अहेर थे, नारी हो या पशु। इस समय नर को नारी की आवश्यकता न थी। उसकी गुफा में मांस का अभाव था।सन्ध्या आ गयी। नक्षत्र ऊँचे आकाशगिरि पर चढऩे लगे। आलिंगन के लिए उठी हुई बाँहें गिर गयीं। इस दृश्य जगत् के उस पार से, विश्व के गम्भीर अन्तस्तल से एक करुण और मधुर अन्तर्नाद गूँज उठा। नारी के हृदय में प्रत्याख्यान की पहली ठेस लगी थी। वह उस काल के साधारण जीवन से एक विलक्षण अनुभूति थी। वनपथ में हिंस्र पशुओं का सञ्चार बढऩे लगा परन्तु युवती उस नदीतट से न उठी। नदी की धारा में फूलों की श्रेणी बिगड़ चुकी थी—और नारी की आकांक्षा की गति भी विच्छिन्न हो रही थी। आज उसके हृदय में एक अपूर्व परिचित भाव जग पड़ा, जिसे वह समझ नहीं पाती थी। अपने दलों के दूर गये हुए लोगों को बुलाने की पुकार वायुमण्डल में गूँज रही थी किन्तु नारी ने अपनी बुलाहट को पहचानने का प्रयत्न किया। वह कभी नक्षत्र से चित्रित उस स्रोत के जल को देखती और कभी अपने समीप की उस तिकोनी और छोटीसी गुफा को, जिसे वह अपना अधिवास समझ लेने के लिए बाध्य हो रही थी।

  • जयशंकर प्रसाद की लिखी कहानी सलीम, Saleem - Story Written By Jaishankar Prasad
    19 min 31 sec

    श्चिमोत्तर सीमाप्रान्त में एक छोटीसी नदी के किनारे, पहाड़ियों से घिरे हुए उस छोटेसे गाँव पर, सन्ध्या अपनी धुँधली चादर डाल चुकी थी। प्रेमकुमारी वासुदेव के निमित्त पीपल के नीचे दीपदान करने पहुँची। आर्यसंस्कृति में अश्वत्थ की वह मर्यादा अनार्यधर्म के प्रचार के बाद भी उस प्रान्त में बची थी, जिसमें अश्वत्थ चैत्यवृक्ष या वासुदेव का आवास समझकर पूजित होता था। मन्दिरों के अभाव में तो बोधिवृक्ष ही देवता की उपासना का स्थान था। उसी के पास लेखराम की बहुत पुरानी परचून की दूकान और उसी से सटा हुआ छोटासा घर था। बूढ़ा लेखराम एक दिन जब ‘रामा राम जै जै रामा’ कहता हुआ इस संसार से चला गया, तब से वह दूकान बन्द थी। उसका पुत्र नन्दराम सरदार सन्तसिंह के साथ घोड़ों के व्यापार के लिए यारकन्द गया था। अभी उसके आने में विलम्ब था। गाँव में दस घरों की बस्ती थी, जिसमें दोचार खत्रियों के और एक घर पण्डित लेखराम मिसर का था। वहाँ के पठान भी शान्तिपूर्ण व्यवसायी थे। इसीलिए वजीरियों के आक्रमण से वह गाँव सदा सशङ्क रहता था। गुलमुहम्मद खाँसत्तर वर्ष का बूढ़ाउस गाँव का मुखियाप्राय: अपनी चारपाई पर अपनी चौपाल में पड़ा हुआ कालेनीले पत्थरों की चिकनी मनियों की माला अपनी लम्बीलम्बी उँगलियों में फिराता हुआ दिखाई देता। कुछ लोग अपनेअपने ऊँट लेकर बनिजव्यापार के लिए पास की मण्डियों में गये थे। लड़के बन्दूकें लिये पहाड़ियों के भीतर शिकार के लिए चले गये थे।पे्रमकुमारी दीपदान और खीर की थाली वासुदेव को चढ़ाकर अभी नमस्कार कर रही थी कि नदी के उतार में अपनी पतलीदुबली काया में लडख़ड़ाता हुआ, एक थका हुआ मनुष्य उसी पीपल के पास आकर बैठ गया। उसने आश्चर्य से प्रेमकुमारी को देखा। उसके मुँह से निकल पड़ा‘‘काफिर...’’बन्दूक कन्धे पर रक्खे और हाथ में एक मरा हुआ पक्षी लटकाये वह दौड़ता चला आ रहा था। पत्थरों की नुकीली चट्टानें उसके पैर को छूती ही न थीं। मुँह से सीटी बज रही थी। वह था गुलमुहम्मद का सोलह बरस का लडक़ा अमीर खाँ उसने आते ही कहा‘‘प्रेमकुमारी, तू थाली उठाकर भागी क्यों जा रही है मुझे तो आज खीर खिलाने के तूने कह रक्खा था।’’‘‘हाँ भाई अमीर मैं अभी और ठहरती पर क्या करूँ, यह देख न, कौन आ गया है इसीलिए मैं घर जा रही थी।’’अमीर ने आगन्तुक को देखा। उसे न जाने क्यों क्रोध आ गया। उसने कड़े स्वर से पूछा‘‘तू कौन है’’‘‘एक मुसलमान’’उत्तर मिला।अमीर ने उसकी ओर से मुँह फिराकर कहा‘‘मालूम होता है कि तू भी भूखा है। चल, तुझे बाबा से कहकर कुछ खाने को दिलवा दूँगा। हाँ, इस खीर में से तो तुझे नहीं मिल सकता। चल न वहीं, जहाँ आग जलती दिखाई दे रही है।’’ फिर उसने प्रेमकुमारी से कहा‘‘तू मुझे क्यों नहीं देती वह सब आ जायँगे, तब तेरी खीर मुझे थोड़ी ही सी मिलेगी।’’सीटियों के शब्द से वायुमण्डल गूँजने लगा था। नटखट अमीर का हृदय चञ्चल हो उठा। उसने ठुनककर कहा‘‘तू मेरे हाथ पर ही देती जा और मैं खाता जाऊँ।’’प्रेमकुमारी हँस पड़ी। उसने खीर दी। अमीर ने उसे मुँह से लगाया ही था कि नवागुन्तक मुसलमान चिल्ला उठा। अमीर ने उसकी ओर अबकी बार बड़े क्रोध से देखा। शिकारी लड़के पास आ गये थे। वे सबकेसब अमीर की तरह लम्बीचौड़ी हड्डियों वाले स्वस्थ, गोरे और स्फूर्ति से भरे हुए थे। अमीर खीर मुँह में डालते हुए न जाने क्या कह उठा और लड़के आगन्तुक को घेरकर खड़े हो गये। उससे कुछ पूछने लगे। उधर अमीर ने अपना हाथ बढ़ाकर खीर माँगने का संकेत किया। प्रेमकुमारी हँसती जाती थी और उसे खीर देती जाती थी। तब भी अमीर उसे तरेरते हुए अपनी आँखों में और भी देने को कह रहा था। उसकी आँखों में से अनुनय, विनय, हठ, स्नेह सभी तो माँग रहे थे, फिर प्रेमकुमारी सबके लिए एकएक ग्रास क्यों न देती नटखट अमीर एक आँख से लडक़ों को, दूसरी आँख से प्रेमकुमारी को उलझाये हुए खीर गटकता जाता था। उधर वह नवागन्तुक मुसलमान अपनी टूटीफूटी पश्तो में लड़के से ‘काफिर’ का प्रसाद खाने की अमीर की धृष्टता का विरोध कर रहा था। वे आश्चर्य से उसकी बातें सुन रहे थे। एक ने चिल्लाकर कहा‘‘अरे देखो, अमीर तो सब खीर खा गया।’’फिर सब लड़के घूमकर अब पे्रमकुमारी को घेर कर खड़े हो गये। वह सबके उजलेउजले हाथों पर खीर देने लगी। आगन्तुक ने फिर चिल्लाकर कहाक्या तुम सब मुसलमान हो’’

  • जयशंकर प्रसाद की लिखी कहानी परिवर्तन, Parivartan - Story Written By Jaishankar Prasad
    11 min 10 sec

    चन्द्रदेव ने एक दिन इस जनाकीर्ण संसार में अपने को अकस्मात् ही समाज के लिए अत्यन्त आवश्यक मनुष्य समझ लिया और समाज भी उसकी आवश्यकता का अनुभव करने लगा। छोटेसे उपनगर में, प्रयाग विश्वविद्यालय से लौटकर, जब उसने अपनी ज्ञानगरिमा का प्रभाव, वहाँ के सीधेसादे निवासियों पर डाला, तो लोग आश्चर्यचकित होकर सम्भ्रम से उसकी ओर देखने लगे, जैसे कोई जौहरी हीरापन्ना परखता हो। उसकी थोड़ीसी सम्पत्ति, बिसातखाने की दूकान और रुपयों का लेनदेन, और उसका शारीरिक गठन सौन्दर्य का सहायक बन गया था।कुछ लोग तो आश्चर्य करते थे कि वह कहीं का जज और कलेक्टर न होकर यह छोटीसी दुकानदारी क्यों चला रहा है, किन्तु बातों में चन्द्रदेव स्वतन्त्र व्यवसाय की प्रशंसा के पुल बाँध देता और नौकरी की नरक से उपमा दे देता, तब उसकी कर्तव्यपरायणता का वास्तविक मूल्य लोगों की समझ में आ जाता।यह तो हुई बाहर की बात। भीतर अपने अन्त:करण में चन्द्रदेव इस बात को अच्छी तरह तोल चुका था कि जजकलेक्टर तो क्या, वह कहीं ‘किरानी’ होने की भी क्षमता नहीं रखता था। तब थोड़ासा विनय और त्याग का यश लेते हुए संसार के सहजलब्ध सुख को वह क्यों छोड़ दे अध्यापकों के रटे हुए व्याख्यान उसके कानों में अभी गूँज रहे थे। पवित्रता, मलिनता, पुण्य और पाप उसके लिए गम्भीर प्रश्न न थे। वह तर्कों के बल पर उनसे नित्य खिलवाड़ किया करता और भीतर घर में जो एक सुन्दरी स्त्री थी, उसके प्रति अपने सम्पूर्ण असन्तोष को दार्शनिक वातावरण में ढँककर निर्मल वैराग्य की, संसार से निर्लिप्त रहने की चर्चा भी उन भोलेभाले सहयोगियों में किया ही करता।चन्द्रदेव की इस प्रकृति से ऊबकर उसकी पत्नी मालती प्राय: अपनी माँ के पास अधिक रहने लगी किन्तु जब लौटकर आती, तो गृहस्थी में उसी कृत्रिम वैराग्य का अभिनय उसे खला करता। चन्द्रदेव ग्यारह बजे तक दूकान का काम देखकर, गप लड़ाकर, उपदेश देकर और व्याख्यान सुनाकर जब घर में आता, तब एक बड़ी दयनीय परिस्थिति उत्पन्न होकर उस साधारणत: सजे हुए मालती के कमरे को और भी मलिन बना देती। फिर तो मालती मुँह ढँककर आँसू गिराने के अतिरिक्त और कर ही क्या सकती थी यद्यपि चन्द्रदेव का बाह्य आचरण उसके चरित्र के सम्बन्ध में सशंक होने का किसी को अवसर नहीं देता था, तथापि मालती अपनी चादर से ढँके हुए अन्धकार में अपनी सौत की कल्पना करने के लिए स्वतन्त्र थी ही।वह धीरेधीरे रुग्णा हो गयी।

  • जयशंकर प्रसाद की लिखी कहानी ब्रह्मर्षि, Brahmrishi - Story Written By Jaishankar Prasad
    10 min 56 sec

    नवीन कोमल किसलयों से लदे वृक्षों से हराभरा तपोवन वास्तव में शान्तिनिकेतन का मनोहर आकार धारण किये हुए है, चञ्चल पवन कुसुमसौरभ से दिगन्त को परिपूर्ण कर रहा है किन्तु, आनन्दमय वशिष्ठ भगवान् अपने गम्भीर मुखमण्डल की गम्भीरमयी प्रभा से अग्निहोत्रशाला को आलोकमय किये तथा ध्यान में नेत्र बन्द किये हुए बैठे हैं। प्रशान्त महासागर में सोते हुए मत्स्यराज के समान ही दोनों नेत्र अलौकिक आलोक से आलोकित हो रहे हैं।रघुकुलश्रेष्ठ महाराज त्रिशंकु सामने हाथ जोड़कर खड़े हैं, किन्तु सामथ्र्य किसकी जो उस आनन्द में बाधा डाले। ध्यान भग्न हुआ, वशिष्ठजी को त्रिशंकु ने साष्टांग दण्डवत् किया, उन्होंने आशीर्वाद दिया। सबको बैठने की आज्ञा हुई, सविनय सब बैठे।महाराज को कुछ कहते देखकर ब्रह्मर्षि ने ध्यान से सुनना आरम्भ किया। त्रिशंकु ने पूछा‘‘भगवन् यज्ञ का क्या फल है’’फिर प्रश्न किया गया‘‘मनुष्य शरीर से स्वर्गप्राप्ति हो सकती है’’उत्तर मिला‘‘नहीं।’’फिर प्रश्न किया गया‘‘आपकी कृपा से सब हो सकता है’’उत्तर मिला‘‘राजन्, उसको तुम न तो पा सकते हो और न हम दिला सकते हैं।’’त्रिशंकु वहाँ से उठकर, प्रणामोपरान्त दूसरी ओर चले।थोड़ी ही दूर पर भगवान वशिष्ठ के पुत्रगण आपस में शास्त्रवाद कर रहे थे। त्रिशंकु ने उन्हें प्रणाम किया, और कहा‘‘आप मानवशरीर से स्वर्ग जाने का फल देनेवाला यज्ञ करा सकते हैं’’पुत्र शिष्य ने कहा‘‘भगवान वशिष्ठ ने क्या कहा’’त्रिशंकु ने उत्तर दिया‘‘भगवान वशिष्ठ ने तो असम्भव कहा है।’’यह सुनकर वशिष्ठपुत्रों को बड़ा क्रोध हुआ, और बड़ी उग्रता से वे बोल उठे‘‘मतिमन्द त्रिशंकु, तुझे क्या हो गया, गुरु पर अविश्वास तुझे तो इस पाप के फल से चाण्डालत्व को प्राप्त होना चाहिए।’’इस श्राप से त्रिशंकु श्रीभ्रष्ट होकर चाण्डालत्व को प्राप्त हुआ स्वर्ग के बदले चाण्डालत्व मिलापुण्य करते पाप हुआ

  • जयशंकर प्रसाद की लिखी कहानी सालवती, Salwati - Story Written By Jaishankar Prasad
    47 min 22 sec

    सदानीरा अपनी गम्भीर गति से, उस घने साल के जंगल से कतरा कर चली जा रही है। सालों की श्यामल छाया उसके जल को और भी नीला बना रही है परन्तु वह इस छायादान को अपनी छोटीछोटी वीचियों से मुस्कुरा कर टाल देती है। उसे तो ज्योत्सना से खेलना है। चैत की मतवाली चाँदनी परिमल से लदी थी। उसके वैभव की यह उदारता थी कि उसकी कुछ किरणों को जंगल के किनारे की फूस की झोपड़ी पर भी बिखरना पड़ा।उसी झोपड़ी के बाहर नदी के जल को पैर से छूती हुई एक युवती चुपचाप बैठी आकाश के दूरवर्ती नक्षत्रों को देख रही थी। उसके पास ही सत्तू का पिंड रक्खा था। भीतर के दुर्बल कण्ठ से किसी ने पुकारा‘‘बेटी’’परन्तु युवती तो आज एक अद्‌भुत गौरवनारीजीवन की सार्थकता देखकर आयी है पुष्करिणी के भीतर से कुछ मिट्टी, रात में ढोकर बाहर फेंकने का पारिश्रमिक चुकाने के लिए, रत्नाभरणों से लदी हुई एक महालक्ष्मी बैठी थी। उसने पारिश्रमिक देते हुए पूछा‘‘बहन तुम कहाँ रहती हो कल फिर आना।’’ उन शब्दों में कितना स्नेह था। वह महत्व ...क्या इन नक्षत्रों से भी दूर की वस्तु नहीं विशेषत: उसके लिए .... वह तल्लीन थी। भीतर से फिर पुकार हुई।‘‘बेटी .... सालवती .... रात को नहा मत सुनती नहीं .... बेटी’’‘‘पिताजी’’ सालवती की तन्द्रा टूटी। वह उठ खड़ी हुई। उसने देखा कि वृद्ध छड़ी टेकता हुआ झोपड़ी के बाहर आ रहा है। वृद्ध ने सालवती की पीठ पर हाथ रखकर उसके बालों को टटोला वे रूखे थे। वृद्ध ने सन्तोष की साँस लेकर कहा‘‘अच्छा है बेटी तूने स्नान नहीं किया न मैं तनिक सो गया था। आज तू कहाँ चली गयी थी अरे, रात तो प्रहर से अधिक बीत चुकी। बेटा तूने आज कुछ भोजन नहीं बनाया’’‘‘पिताजी आज मैं नगर की ओर चली गयी थी। वहाँ पुष्करिणी बन रही है। उसी को देखने।’’‘‘तभी तो बेटी तुझे विलम्ब हो गया। अच्छा, तो बना ले कुछ। मुझे भी भूख लगी है। ज्वर तो अब नहीं है। थोड़ासा मूँग का सूप ... हाँ रे मूँग तो नहीं है अरे, यह क्या है रे’’‘‘पिताजी मैंने पुष्करिणी में से कुछ मिट्टी निकाली है। उसी का यह पारिश्रमिक है। मैं मूँग लेने ही तो गयी थी परन्तु पुष्करिणी देखने की धुन में उसे लेना भूल गयी।’’‘‘भूल गयी न बेटी अच्छा हुआ पर तूने यह क्या किया वज्जियों के कुल में किसी बालिका ने आज तक .... अरे ..... यह तो लज्जापिंड है बेटी इसे मैं न खा सकूँगा। किसी कुलपुत्र के लिए इससे बढक़र अपमान की और कोई वस्तु नहीं। इसे फोड़ तो’’सालवती ने उसे पटककर तोड़ दिया। पिंड टूटते ही वैशाली की मुद्रा से अंकित एक स्वर्णखण्ड उसमें से निकल पड़ा। सालवती का मुँह खिल उठा किन्तु वृद्ध ने कहा‘‘बेटी इसे सदानीरा में फेंक दे।’ सालवती विषाद से भरी उस स्वर्णखण्ड को हाथ में लिये खड़ी रही। वृद्ध ने कहा‘‘पागल लडक़ी आज उपवास न करना होगा। तेरे मिट्टी ढोने का उचित पारिश्रमिक केवल यह सत्तू है। वह स्वर्ण का चमकीला टुकड़ा नहीं।’’‘‘पिताजी फिर आप’’‘‘मैं .... आज रात को भी ज्वर का लंघन समझूँगा जा, यह सत्तू खाकर सदानीरा का जल पीकर सो रह’’‘‘पिताजी मैं भी आज की रात बिना खाये बिता सकती हूँ परन्तु मेरा एक सन्देह ....’’‘‘पहले उसको फेंक दे, तब मुझसे कुछ पूछ’’सालवती ने उसे फेंक दिया। तब एक नि:श्वास छोड़कर बुड्ढे ने कहना आरम्भ किया:

  • जयशंकर प्रसाद की लिखी कहानी पंचायत, Panchayat - Story Written By Jaishankar Prasad
    6 min 50 sec

    मन्दाकिनी के तट पर रमणीक भवन में स्कन्द और गणेश अपनेअपने वाहनों पर टहल रहे हैं।नारद भगवान् ने अपनी वीणा को कलहराग में बजातेबजाते उस कानन को पवित्र किया, अभिवादन के उपरान्त स्कन्द, गणेश और नारद में वार्ता होने लगी।नारदस्कन्द से आप बुद्धिस्वामी गणेश के साथ रहते हैं, यह अच्छी बात है, फिर गणेश से और देवसेनापति कुमार के साथ घूमते हैं, इससे तोंद दिखाकर आपका भी कल्याण ही है।गणेशक्या आप मुझे स्थूल समझकर ऐसा कह रहे हैं आप नहीं जानते, हमने इसीलिए मूषकवाहन रखा है, जिसमें देवसमाज में वाहन न होने की निन्दा कोई न करे, और नहीं तो बेचारा ‘मूस’ चलेगा कितना मैं तो चलफिर कर काम चला लेता हूँ। देखिये, जब जननी ने द्वारपाल का कार्य मुझे सौंप रखा था, तब मैंने कितना पराक्रम दिखाया था, प्रमथ गणों को अपनी पदमर्यादा हमारे सोंटे की चोट से भूल जाना पड़ा।स्कन्दबस रहने दो, यदि हम तुम्हें अपने साथ न टहलाते, तो भारत के आलसियों की तरह तुम भी हो जाते।गणेशहँसकर हहहह, नारदजी देखते हैं न आप लड़ाके लोगों से बुद्धि उतनी ही समीप रहती है, जितनी की हिमालय से दक्षिणी समुद्रस्कन्दऔर यह भी सुना है।ढोल के भीतर पोलगणेशअच्छा तो नारद ही इस बात का निर्णय करेंगे कि कौन बड़ा है।नारदभाई, मैं तो नहीं निर्णय करूँगा पर, आप लोगों के लिए एक पंचायत करवा दूँगा, जिसमें आप ही निर्णय हो जायगा।इतना कहकर नारदजी चलते बने।

  • जयशंकर प्रसाद की लिखी कहानी विराम चिह्न Viram Chihn - Story Written By Jaishankar Prasad
    7 min 20 sec

    देवमन्दिर के सिंहद्वार से कुछ दूर हट कर वह छोटीसी दुकान थी। सुपारी के घने कुञ्ज के नीचे एक मैले कपड़े पर सूखी हुई धार में तीनचार केले, चार कच्चे पपीते, दो हरे नारियल और छ: अण्डे थे। मन्दिर से दर्शन करके लौटते हुए भक्त लोग दोनों पट्टी में सजी हुई हरीभरी दुकानों को देखकर उसकी ओर ध्यान देने की आवश्यकता ही नहीं समझते थे।अर्द्धनग्न वृद्धा दूकानवाली भी किसी को अपनी वस्तु लेने के लिए नहीं बुलाती थी। वह चुपचाप अपने केलों और पपीतों को देख लेती। मध्याह्न बीत चला। उसकी कोई वस्तु न बिकी। मुँह की ही नहीं, उसके शरीर पर की भी झुर्रियाँ रूखी होकर ऐंठी जा रही थीं। मूल्य देकर भातदाल की हाँडिय़ाँ लिये लोग चले जा रहे थे। मन्दिर में भगवान् के विश्राम का समय हो गया था। उन हाँड़ियों को देखकर उसकी भूखी आँखों में लालच की चमक बढ़ी, किन्तु पैसे कहाँ थे आज तीसरा दिन था, उसे दोएक केले खाकर बिताते हुए। उसने एक बार भूख से भगवान् की भेंट कराकर क्षणभर के लिए विश्राम पाया किन्तु भूख की वह पतली लहर अभी दबाने में पूरी तरह समर्थ न हो सकी थी, कि राधे आकर उसे गुरेरने लगा। उसने भरपेट ताड़ी पी ली थी। आँखे लाल, मुँह से बात करने में झाग निकल रहा था। हाथ नचाकर वह कहने लगा‘‘सब लोग जाकर खापीकर सो रहे हैं। तू यहाँ बैठी हुई देवता का दर्शन कर रही है। अच्छा, तो आज भी कुछ खाने को नहीं’’‘‘बेटा एक पैसे का भी नहीं बिका, क्या करूँ अरे, तो भी तू कितनी ताड़ी पी आया है।’’‘‘वह सामने तेरे ठाकुर दिखाई पड़ रहे हैं। तू भी पीकर देख न’’उस समय सिंहद्वार के सामने की विस्तृत भूमि निर्जन हो रही थी। केवल जलती हुई धूप उस पर किलोल कर रही थी। बाज़ार बन्द था। राधे ने देखा, दोचार कौए काँवकाँव करते हुए सामने नारियलकुँज की हरियाली में घुस रहे थे। उसे अपना ताड़ीखाना स्मरण हो आया। उसने अण्डों को बटोर लिया।बुढिय़ा ‘हाँ, हाँ’ करती ही रह गयी, वह चला गया। दुकानवाली ने अँगूठे और तर्जनी से दोनों आँखों का कीचड़ साफ़ किया, और फिर मिट्टी के पात्र से जल लेकर मुँह धोया।बहुत सोचविचार कर अधिक उतरा हुआ एक केला उसने छीलकर अपनी अञ्जलि में रख उसे मन्दिर की ओर नैवेद्य लगाने के लिए बढ़ाकर आँख बन्द कर लीं। भगवान् ने उस अछूत का नैवेद्य ग्रहण किया या नहीं, कौन जाने किन्तु बुढिय़ा ने उसे प्रसाद समझकर ही ग्रहण किया।अपनी दुकान झोली में समेटे हुए, जिस कुँज में कौए घुसे थे, उसी में वह भी घुसी। पुआल से छायी हुई टट्टरों की झोपड़ी में विश्राम लिया।

  • चंद्रधर शर्मा गुलेरी की लिखी कहानी घंटाघर, GhantaGhar - Story Written By Chandradhar Sharma Guleri
    7 min 51 sec

    एक मनुष्य को कहीं जाना था। उसने अपने पैरों से उपजाऊ भूमि को बंध्या करके पगडंडी काटी और वह वहाँ पर पहला पहुँचने वाला हुआ। दूसरे, तीसरे और चौथे ने वास्तव में उस पगडंडी को चौड़ी किया और कुछ वर्षों तक यों ही लगातार जाते रहने से वह पगडंडी चौड़ा राजमार्ग बन गई, उस पर पत्थर या संगमरमर तक बिछा दिया गया, और कभीकभी उस पर छिड़काव भी होने लगा।वह पहला मनुष्य जहाँ गया था वहीं सब कोई जाने लगे। कुछ काल में वह स्थान पूज्य हो गया और पहला आदमी चाहे वहाँ किसी उद्देश्य से आया हो, अब वहाँ जाना ही लोगों का उद्देश्य रह गया। बड़े आदमी वहाँ घोड़ों, हाथियों पर आते, मखमल कनात बिछाते जाते, और अपने को धन्य मानते आते। गरीब आदमी कणकण माँगते वहाँ आते और जो अभागे वहाँ न आ सकते वे मरती बेला अपने पुत्र को थीजी कि आन दिला कर वहाँ जाने का निवेदन कर जाते। प्रयोजन यह है कि वहाँ मनुष्यों का प्रवाह बढ़ता ही गया।एक सज्जन ने वहाँ आनेवाले लोगों को कठिनाई न हो, इसलिए उस पवित्र स्थान के चारों ओर, जहाँ वह प्रथम मनुष्य आया था, हाता खिंचवा दिया। दूसरे ने, पहले के काम में कुछ जोड़ने, या अपने नाम में कुछ जोड़ने के लोभ से उस पर एक छप्पर डलवा दिया। तीसरे ने, जो इन दोनों से पीछे रहना न चाहता था, एक सुंदर मकान से उस भूमि को ढक दिया, इस पर सोने का कलश चढ़ा दिया, चारों ओर से बेल छवा दी। अब वह यात्रा, जो उस स्थान तक होती थी, उसकी सीमा की दीवारों और टट्टियों तक रह गई, क्योंकि प्रत्येक मनुष्य भीतर नहीं जा सकता। इस इनर सर्कल के पुजारी बने, भीतर जाने की भेंट हुई, यात्रा का चरम उद्देश्‍य बाहर की दीवार को स्पर्श करना ही रह गया, क्योंकि वह भी भाग्यवानों को ही मिलने लगा।कहना नहीं होगा, आनेवालों के विश्राम के लिए धर्मशालाएँ, कूप और तड़ाग, विलासों के लिए शुंडा और सूणा, रमणिएँ और आमोद जमने लगे, और प्रति वर्ष जैसे भीतर जाने की योग्यता घटने लगी, बाहर रहने की योग्यता, और इन विलासों में भाग लेने की योग्यता बढ़ी। उस भीड़ में ऐसे वेदांती भी पाए जाने लगे जो दूसरे की जेब को अपनी ही समझ कर रुपया निकाल लेते। कभीकभी ब्रह्मा एक ही है उससे जार और पति में भेद के अध्यास को मिटा देनेवाली अद्वैतवादिनी और स्वकीयापरकीया के भ्रम से अवधूत विधूत सदाचारों के शुद्ध द्वैतझगड़ा के कारण रक्तपात भी होने लगा। पहले यात्राएँ दिनहीदिन में होती थीं, मन से होती थीं, अब चारचार दिन में नाचगान के साथ और आफिस के काम को करते सवारी आने लगी।एक सज्जन ने देखा की यहाँ आनेवालों को समय के ज्ञान के बिना बड़ा कष्‍ट होता है। अतएव उस पुण्यात्मा ने बड़े व्यय से एक घंटाघर उस नए बने मकान के ऊपर लगवा दिया। रात के अंधकार में उसका प्रकाश, और सुनसानी में उसका मधुर स्वर क्या पास के और क्या दूर के, सबके चित्‍त को सुखी करता था। वास्तव में ठीक समय पर उठा देने और सुला देने के लिए, एकांत में पापियों को डराने और साधुओं को आश्‍वासन करने के लिए वह काम देने लगा। एक सेठ ने इस घंटे की हाथ सूइयाँ सोने की बनवा दीं और दूसरे ने रोज उसकी आरती उतारने का प्रबंध कर दिया।

  • चंद्रधर शर्मा गुलेरी की लिखी कहानी धर्मपारायण रीछ, Dharmparayan Reechh - Story Written By Chandradhar Sharma Guleri
    15 min 4 sec

    सायंकाल हुआ ही चाहता है। जिस प्रकार पक्षी अपना आराम का समय आया देख अपनेअपने खेतों का सहारा ले रहे हैं उसी प्रकार हिंस्र श्‍वापद भी अपनी अव्याहत गति समझ कर कंदराओं से निकलने लगे हैं। भगवान सूर्य प्रकृति को अपना मुख फिर एक बार दिखा कर निद्रा के लिए करवट लेने वाले ही थे, कि सारी अरण्यानी मारा है, बचाओ, मारा है की कातर ध्वनि से पूर्ण हो गई। मालूम हुआ कि एक व्याध हाँफता हुआ सरपट दौड़ रहा, और प्रायः दो सौ गज की दूरी पर एक भीषण सिंह लाल आँखें, सीधी पूँछ और खड़ी जटा दिखाता हुआ तीर की तरह पीछे आ रहा है। व्याध की ढीली धोती प्रायः गिर गई है, धनुषबाण बड़ी सफाई के साथ हाथ से च्युत हो गए हैं, नंगे सिर बिचारा शीघ्रता ही को परमेश्‍वर समझता हुआ दौड़ रहा है। उसी का यह कातर स्वर था।यह अरण्य भगवती जह्नुतनया और पूजनीया कलिंदनंदनी के पवित्र संगम के समीप विद्यमान है। अभी तक यहाँ उन स्वार्थी मनुष्य रुपी निशाचरों का प्रवेश नहीं हुआ था जो अपनी वासनाओं की पूर्ति के लिए आवश्यक से चौगुनापँचगुना पा कर भी झगड़ा करते हैं, परंतु वे पशु यहाँ निवास करते थे जो शांतिपूर्वक समस्त अरण्य को बाँट कर अपनाअपना भाग्य आजमाते हुए न केवल धर्मध्वजी पुरुषों की तरह शिश्‍नोदर परायण ही थे, प्रत्युत अपने परमात्मा का स्मरण करके अपनी निकृष्‍ट योनि को उन्नत भी कर रहे थे। व्याध, अपने स्वभाव के अनुसार, यहाँ भी उपद्रव मचाने आया था। उसने बंग देश में रोहू और झिलसा मछलियों और हासेर डिम को निर्वंश कर दिया था, बंबई के केकड़े और कछुओं को वह आत्मसात कर चुका था और क्या कहें मथुरा, बृंदावन के पवित्र तीर्थों तक में वह वकवृत्‍ति और विडालव्रत दिखा चुका था। यहाँ पर सिंह के कोपन बदनाग्नि में उसके प्रायश्चितों का होम होना ही चाहता है। भागने में निपुण होने पर भी मोटी तोंद उसे बहुत कुछ बाधा दे रही है। सिंह में और उसमें अब प्रायः बीस ही तीस गज का अंतर रह गया और उसे पीठ पर सिंह का उष्‍ण निःश्‍वास मालूमसा देने लगा। इस कठिन समस्या में उसे सामने एक बड़ा भारी पेड़ दीख पड़ा। अपचीयमान शक्‍ति पर अंतिम कोड़ा मार कर वह उस वृक्ष पर चढ़ने लगा और पचासों पक्षी उसकी परिचित डरावनी मूर्ति को पहचान कर अमंगल समझ कर त्राहित्राहि स्वर के साथ भागने लगे। ऊपर एक बड़ी प्रबल शाखा पर विराजमान एक भल्लूक को देख कर व्याध के रहेसहे होश पैंतरा हो गए। नीचे मंत्रबल से कीलित सर्प की भाँति जलाभुना सिंह और ऊपर अज्ञात कुलशील रीछ। यों कढ़ाई से चूल्हे में अपना पड़ना समझ कर वह र्किकर्तव्यविमूढ़ व्याध सहम गया, बेहोशसा हो कर टिक गया, न ययौ न तस्थो हो गया। इतने में ही किसी ने स्निग्ध गंभीर निर्घोष मधुर स्वर में कहा अभयं शरणागतस्य अतिथि देव ऊपर चले जाइए, पापी व्याध, सदा छलछिद्र के कीचड़ में पला हुआ, इस अमृत अभय वाणी को न समझ कर वहीं रुका रहा। फिर उसी स्वर ने कहा चले आइए महाराज चले आइए। यह आपका घर है। आज मेरे बृहस्पति उच्च के हैं जो यह अपवान स्थान आपकी चरनधूलि से पवित्र होता है। इस पापात्मा का आतिथ्य स्वीकार करके इसे उद्धार कीजिए। वैश्‍वदेवांतमापन्नो सोऽतिथिः स्वर्ग संज्ञकः। पधारिए यह विष्‍टर लीजिए, यह पाद्य, यह अर्ध्य, यह मधुपर्क।पाठक जानते हो यह मधुर स्वर किसका था यह उस रीछ का था। वह धर्मात्मा विंध्याचल के पास से इस पवित्र तीर्थ पर अपना काल बिताने आया था। उस धर्मप्राण धर्मैकजीवन ने वंशशत्रु व्याध को हाथ पकड़ कर अपने पास बैठाया उसके चरणों की धूलि मस्तक से लगाई और उसके लिए कोमल पत्तों का बिछौना कर दिया। विस्मित व्याध भी कुछ आश्‍वस्त हुआ।

  • चंद्रधर शर्मा गुलेरी की लिखी कहानी सुखमय जीवन, Sukhmay Jeevn - Story Written By Chandradhar Sharma Guleri
    18 min 54 sec

    परीक्षा देने के पीछे और उसके फल निकलने के पहले दिन किस बुरी तरह बीतते हैं, यह उन्हीं को मालूम है जिन्हें उन्हें गिनने का अनुभव हुआ है। सुबह उठते ही परीक्षा से आज तक कितने दिन गए, यह गिनते हैं और फिर कहावती आठ हफ्ते में कितने दिन घटते हैं, यह गिनते हैं। कभीकभी उन आठ हफ्तों पर कितने दिन चढ़ गए, यह भी गिनना पड़ता है। खाने बैठे है और डाकिए के पैर की आहट आई कलेजा मुँह को आया। मुहल्ले में तार का चपरासी आया कि हाथपाँव काँपने लगे। न जागते चैन, न सोतेसुपने में भी यह दिखता है कि परीक्षक साहब एक आठ हफ्ते की लंबी छुरी ले कर छाती पर बैठे हुए हैं।मेरा भी बुरा हाल था। एलएल.बी. का फल अबकी और भी देर से निकलने को था न मालूम क्या हो गया था, या तो कोई परीक्षक मर गया था, या उसको प्लेग हो गया था। उसके पर्चे किसी दूसरे के पास भेजे जाने को थे। बारबार यही सोचता था कि प्रश्नपत्रों की जाँच किए पीछे सारे परीक्षकों और रजिस्ट्रारों को भले ही प्लेग हो जाय, अभी तो दो हफ्ते माफ करें। नहीं तो परीक्षा के पहले ही उन सबको प्लेग क्यों न हो गया रातभर नींद नहीं आई थी, सिर घूम रहा था, अखबार पढ़ने बैठा कि देखता क्या हूँ लिनोटाइप की मशीन ने चारपाँच पंक्‍तियाँ उलटी छाप दी हैं। बस, अब नहीं सहा गया सोचा कि घर से निकल चलो बाहर ही कुछ जी बहलेगा। लोहे का घोड़ा उठाया कि चल दिए।तीनचार मील जाने पर शांति मिली। हरेहरे खेतों की हवा, कहीं पर चिड़ियों की चहचह और कहीं कुओं पर खेतों को सींचते हुए किसानों का सुरीला गाना, कहीं देवदार के पत्तों की सोंधी बास और कहीं उनमें हवा का सीसी करके बजना सबने मेरे परीक्षा के भूत की सवारी को हटा लिया। बाइसिकिल भी गजब की चीज है। न दाना माँगे, न पानी, चलाए जाइए जहाँ तक पैरों में दम हो। सड़क में कोई था ही नहीं, कहींकहीं किसानों के लड़के और गाँव के कुत्ते पीछे लग जाते थे। मैंने बाइसिकिल को और भी हवा कर दिया। सोचा था कि मेरे घर सितारपुर से पंद्रह मील पर कालानगर हैं वहाँ की मलाई की बरफ अच्छी होती है और वहीं मेरे एक मित्र रहते हैं, वे कुछ सनकी हैं। कहते है कि जिसे पहले देख लेंगे, उससे विवाह करेंगे। उनसे कोई विवाह की चर्चा करता है, तो अपने सिद्धांत के मंडल का व्याखान देने लग जाते हैं। चलो, उन्ही से सिर खाली करें।खयालपरखयाल बँधने लगा। उनके विवाह का इतिहास याद आया। उनके पिता कहते थे कि सेठ गणेशलाल की एकलौती बेटी से अबकी छुट्टियों में तुम्हारा ब्याह कर देंगे। पड़ोसी कहते थे कि सेठ जी की लड़की कानी और मोटी है और आठ ही वर्ष की है। पिता कहते थे कि लोग जल कर ऐसी बातें उड़ाते हैं और लड़की वैसी भी हो तो क्या, सेठजी के कोई लड़का है नहीं बीसतीस हजार का गहना देंगे। मित्र महाशय मेरे साथसाथ डिबेटिंग क्लबों में बालविवाह और मातापिता की जबरदस्ती पर इतने व्याखान झाड़ चुके थे कि अब मारे लज्जा के साथियों में मुँह नहीं दिखाते थे। क्योंकि पिताजी के सामने चीं करने की हिम्म्त नहीं थी। व्यक्तिगत विचार से साधारण विचार उठने लगे। हिन्दूसमाज ही इतना सड़ा हुआ है कि हमारे उच्च विचार चल नहीं सकते। अकेला चना भाड़ नहीं फोड़ सकता। हमारे सद्‌विचार एक तरह के पशु हैं जिनकी बलि मातापिता की जिद और हठ की वेदी पर चढ़ाई जाती है।...भारत का उद्धार तब तक नहीं हो सकता ।फिस्‌स्‌स्‌ एकदम अर्श से फर्श पर गिर पड़े। बाइसिकिल की फूँक निकल गई। कभी गाड़ी नाव पर, कभी नाव गाड़ी पर। पंप साथ नहीं थी और नीचे देखा तो जान पड़ा कि गाँव के लड़कों ने सड़क पर ही काँटों की बाड़ लगाई है। उन्हें भी दो गालियाँ दीं पर उससे तो पंक्चर सुधरा नहीं। कहाँ तो भारत का उद्धार हो रहा था और कहाँ अब कालानगर तक इस चरखे को खैंच ले जाने की आपत्ति से कोई निस्तार नहीं दिखता। पास के मील के पत्थर पर देखा कि कालानगर यहाँ से सात मील है। दूसरे पत्थर के आतेआते मैं बेदम हो लिया था। धूप जेठ की, और कंकरीली सड़क, जिसमें लदी हुई बैलगाड़ियों की मार से छःछः इंच शक्कर कीसी बारीक पिसी हुई सफेद मिट्टी बिछी हुई काले पेटेंट लेदर के जूतों पर एकएक इंच सफेद पालिश चढ़ गई। लाल मुँह को पोंछतेपोंछते रूमाल भीग गया और मेरा सारा आकार सभ्य विद्वान कासा नहीं, वरन सड़क कूटने वाले मजदूर कासा हो गया। सवारियों के हम लोग इतने गुलाम हो गए हैं कि दोतीन मील चलते ही छठी का दूध याद आने लगता है

  • चंद्रधर शर्मा गुलेरी की लिखी कहानी बुद्धु का कांटा, Buddhu Ka Kanta - Story Written By Chandradhar Sharma Guleri
    55 min 21 sec

    रघुनाथ प् प् प्रसाद त् त् त्रिवेदी या रुग्‍नात् पर्शाद तिर्वेदी यह क्‍या क्‍या करें, दुविधा में जान हैं। एक ओर तो हिंदी का यह गौरवपूर्ण दावा है कि इसमें जैसा बोला जाता है वैसा लिखा जाता है और जैसा लिखा जाता है वैसा ही बोला जाता है। दूसरी ओर हिंदी के कर्णधारों का अविगत शिष्‍टाचार है कि जैसे धर्मोपदेशक कहते हैं कि हमारे कहने पर चलो, वैसे ही जैसे हिंदी के आचार्य लिखें वैसे लिखो, जैसे वे बोलें वैसे मत लिखो, शिष्‍टाचार भी कैसा हिंदी साहित्‍यसम्‍मेलन के सभापति अपने व्‍याकरणकषायति कंठ से कहें पर्षोत्तमदास और हर्किसन्लाल और उनके पिट्ठू छापें ऐसी तरह कि पढ़ा जाए पुरुषोत्तमदास अ दास अ और हरि कृष्‍णलाल अ अजी जाने भी दो, बड़ेबड़े बह गए और गधा कहे कितना पानी कहानी कहने चले हो, या दिल के फफोले फोड़नेअच्‍छा, जो हुकुम। हम लाला जी के नौकर हैं, बैंगनों के थोड़े ही हैं। रघुनाथप्रसाद त्रिवेदी अब के इंटरमीडिएट परीक्षा में बैठा है। उसके पिता दारसूरी के पहाड़ के रहनेवाले और आगरे के बुझातिया बैंक के मैनेजर हैं। बैंक के दफ्तर के पीछे चौक मे उनका तथा उनकी स्‍त्री का बारहमासिया मकान है। बाबू बड़े सीधे, अपने सिद्धांतों के पक्‍के और खरे आदमी हैं जैसे पुराने ढंग के होते हैं। बैंक के स्वामी इन पर इतना भरोसा करते है कि कभी छुट्टी नहीं देते और बाबू काम के इतने पक्‍के हैं कि छुट्टी माँगते नहीं। न बाबू वैसे कट्टर सनातनी हैं कि बिना मुँह धोए ही तिलक लगा कर स्‍टेशन पर दरभंगा महराज के स्‍वागत को जाएँ और न ऐसे समाजी ही हैं कि खँजड़ी ले कर तोड़ पोपगढ़ लंका का करने दौड़ें। उसूलों के पक्‍के हैं।हाँ, उसूलों के पक्‍के हैं। सुबह का एक प्‍याला चाय पीते हैं तो ऐसा कि जेठ में भी नही छोड़ते और माघ में भी एक के दो नहीं करते। उर्द की दाल खाते हैं, क्‍या मजाल की बुखार में भी मूँग की दाल का एक दाना खा जाएँ। आजकल के एम.ए., बी.ए. पासवालों को हँसते हैं कि शेक्‍सपीयर और बेकन चाट जाने पर भी वे दफ्तर के काम की अंगरेजीचिट्टी नहीं लिख सकते। अपने जमाने के साथियों को सराहते हैं जो शेक्‍सपीयर के दोतीन नाटक न पढ़ कर सारे नाटक पढ़ते थे, डिक्‍शनरी से अंगरेजी शब्‍दों के लैटिन धातु याद करते थे। अपने गुरु बाबू प्रकाश बिहारी मुखर्जी की प्रशंसा रोज करते थे कि उन्‍होंने लायब्रेरी इम्‍तहान पास किया था। ऐसा कोई दिन ही बीतता होगा निगोशिएबल इन्‍सट्रूमेंट ऐक्‍ट के अनुसार होने वाली तातीलों को मत गिनिए कि जब उनके लायब्रेरी इम्‍तहान का उपाख्यान नए बी.ए. हेडक्‍लर्क को उसके मन और बुद्धि की उन्‍नति के लिए उपदेश की तरह नहीं सुनाया जाता हो। लाट साहब ने मुकर्जी बाबू को बंगाललायब्रेरी में जा कर खड़ा कर दिया। राजा हरिश्‍चंद्र के यज्ञ में बलि के खूँटे में बँधे हुए शुन:शेप की तरह बाबू आलमारियों की ओर देखने लगे। लाट साहब मनचाहे जैसी आलमारियों से मनचाहे जैसी किताब निकाल कर मनचाहे जहाँ से पूछने लगे। सब अलमारियाँ खुल गईं, सब किताबें चुक गईं, लाट साहब की बाँह दुख गई, पर बाबू कहतेकहते नहीं थके लाट साहब ने आने हाथ से बाबू को एक घड़ी दी और कहा कि मैं अंगरेजीविद्या का छिलका ही भर जानता हूँ, तुम उसकी गिरी खा चुके हो। यह कथा पुराण की तरह रोज कही जाती थी।

  • चंद्रधर शर्मा गुलेरी की लिखी कहानी हीरे का हार, Heere Ka Haar - Story Written By Chandradhar Sharma Guleri
    18 min 18 sec

    आज सवेरे ही से गुलाबदेई काम में लगी हुई है। उसने अपने मिट्टी के घर के आँगन को गोबर से लीपा है, उस पर पीसे हुए चावल से मंडन माँडे हैं। घर की देहली पर उसी चावल के आटे से लीकें खैंची हैं और उन पर अक्षत और बिल्‍वपत्र रक्‍खे हैं। दूब की नौ डालियाँ चुन कर उनने लाल डोरा बाँध कर उसकी कुलदेवी बनाई है और हर एक पत्ते के दूने में चावल भर कर उसे अंदर के घर में, भींत के सहारे एक लकड़ी के देहरे में रक्‍खा है। कल पड़ोसी से माँग कर गुलाबी रंग लाई थी उससे रंगी हुई चादर बिचारी को आज नसीब हुई है। लठिया टेकती हुई बुढ़ि‍या माता की आँखें यदि तीन वर्ष की कंगाली और पुत्र वियोग से और डेढ़ वर्ष की बीमारी की दुखिया के कुछ आँखें और उनमें ज्‍योति बाकी रही हो तो दरवाजे पर लगी हुई हैं। तीन वर्ष के पतिवियोग और दारिद्र्य की प्रबल छाया से रातदिन के रोने से पथराई और सफेद हुई गुलाबदेई की आँखों पर आज फिर यौवन की ज्‍योति और हर्ष के लाल डोरे आ गए हैं। और सात वर्ष का बालक हीरा, जिसका एकमात्र वस्‍त्र कुरता खार से धो कर कल ही उजाला कर दिया गया है, कल ही से पड़ोसियों से कहता फिर रहा है कि मेरा चाचा आवेगा।बाहर खेतों के पास लकड़ी की धमाधम सुनाई पड़ने लगी। जान पड़ता है कि कोई लँगड़ा आदमी चला आ रहा है जिसके एक लकड़ी की टाँग है। दस महीने पहिले एक चिट्ठी आई थी जिसे पास के गाँव के पटवारी ने पढ़ कर गुलाबदेई और उसकी सास को सुनाया था। उसें लिखा था कि लहनासिंह की टाँग चीन की लड़ाई में घायल हो गई है और हांगकांग के अस्पताल में उसकी टाँग काट दी गई है। माता के वात्‍सल्‍यमय और पत्‍नी के प्रेममय हृदय पर इसका प्रभाव ऐसा पड़ा कि बेचारियों ने चार दिन रोटी नहीं खाई थी। तो भी अपने ऊपर सत्‍य आपत्ति आती हुई और आई हुई जान कर भी हम लोग कैसे आँखें मीच लेते हैं और आशा की कच्‍ची जाली में अपने को छिपा कर कवच से ढका हुआ समझते हैं वे कभीकभी आशा किया करती थीं कि दोनों पैर सही सलामत ले कर लहनासिंह घर आ जाय तो कैसा और माता अपनी बीमारी से उठते ही पीपल के नीचे के नाग के यहाँ पंचपकवान चढ़ाने गई थी कि नाग बाबा मेरा बेटा दोनों पैरों चलता हुआ राजीखुशी मेरे पास आवे। उसी दिन लौटते हुए उसे एक सफेद नाग भी दीखा था जिससे उसे आशा हुई थी कि मेरी प्रार्थना सुन ली गई। पहले पहले तो सुखदेई को ज्‍वर की बेचैनी में पति की टाँग कभी दहनी और कभी बाईं किसी दिन कमर के पास से और किसी दिन पिंडली के पास से और फिर कभी टखने के पास से कटी हुई दिखाई देती परंतु फिर जब उसे साधारण स्‍वप्‍न आने लगे तो वह अपने पति को दोनों जाँघों पर खड़ा देखने लगी। उसे यह न जान पड़ा कि मेरे स्‍वस्‍थ मस्तिष्‍क की स्‍वस्‍थ स्‍मृति को अपने पति का वही रूप याद है जो सदा देखा है, परंतु वह समझी की किसी करामात से दोनों पैर चंगे हो गए हैं।

  • चंद्रधर शर्मा गुलेरी की लिखी कहानी पाठशाला, Paathshaalaa - Story Written By Chandradhar Sharma Guleri
    2 min 26 sec

    पाठशाला का वार्षिकोत्सव था। मैं भी वहाँ बुलाया गया था। वहाँ के प्रधान अध्यापक का एकमात्र पुत्र, जिसकी अवस्था आठ वर्ष की थी, बड़े लाड़ से नुमाइश में मिस्टर हादी के कोल्हू की तरह दिखाया जा रहा था। उसका मुँह पीला था, आँखें सफ़ेद थीं, दृष्टि भूमि से उठती नहीं थी। प्रश्न पूछे जा रहे थे। उनका वह उत्तर दे रहा था। धर्म के दस लक्षण सुना गया, नौ रसों के उदाहरण दे गया। पानी के चार डिग्री के नीचे शीतलता में फैल जाने के कारण और उससे मछलियों की प्राण–रक्षा को समझा गया, चंद्रग्रहण का वैज्ञानिक समाधान दे गया, अभाव को पदार्थ मानने, न मानने का शास्त्रार्थ कर गया और इंग्लैंड के राजा आठवें हेनरी की स्त्रियों के नाम और पेशवाओं का कुर्सीनामा सुना गया।यह पूछा गया कि तू क्या करेगा बालक ने सिखा–सिखाया उत्तर दिया कि मैं यावज्जन्म लोकसेवा करूँगा। सभा ‘वाह वाह’ करती सुन रही थी, पिता का हृदय उल्लास से भर रहा था।एक वृद्ध महाशय ने उसके सिर पर हाथ फेरकर आशीर्वाद दिया और कहा कि जो तू ईनाम मांगे, वही दें। बालक कुछ सोचने लगा। पिता और अध्यापक इस चिंता में लगे कि देखें, यह पढ़ाई का पुतला कौन–सी पुस्तक मांगता है।बालक के मुख पर विलक्षण रंगों का परिवर्तन हो रहा था, हृदय में कृत्रिम और स्वाभाविक भावों की लड़ाई की झलक आँखों में दीख रही थी। कुछ खाँसकर, गला साफ कर नकली परदे के हट जाने से स्वयं विस्मित होकर बालक ने धीरे से कहा, ‘‘लड्डू।’’पिता और अध्यापक निराश हो गए। इतने समय तक मेरा वास घुट रहा था। अब मैंने सुख की सांस भरी। उन सबने बालक की प्रवृत्तियों का गला घोंटने में कुछ उठा नहीं रखा था, पर बालक बच गया। उसके बचने की आशा है, क्योंकि वह ‘लड्डू’ की पुकार जीवित वृक्ष के हरे पत्तों का मधुर मर्मर था, मरे काठ की आलमारी की सिर दुखानेवाली खड़खड़ाहट नहीं।

  • चंद्रधर शर्मा गुलेरी की लिखी कहानी न्याय घंटा, Nyay Ghanta - Story Written By Chandradhar Sharma Guleri
    1 min 14 sec

    दिल्ली में अनंगपाल नामी एक बड़ा राय था। उसके महल के द्वार पर पत्थर के दो सिंह थे। इन सिंहों के पास उसने एक घंटी लगवाई कि जो न्याय चाहें उसे बजा दें, जिस पर राय उसे बुलाता, पुकार सुनता और न्याय करता। एक दिन एक कौआ आकर घंटी पर बैठा और घंटी बजाने लगा। राय ने पूछा इसकी क्या पुकार हैयह बात अनजानी नहीं है कि कौए सिंह के दाँतों में से माँस निकाल लिया करते हैं। पत्थर के सिंह शिकार नहीं करते तो कौए को अपनी नित्य जीविका कहाँ से मिलेराय को निश्चय हुआ किकौए की भूख की पुकार सच्ची है क्योंकि वह पत्थर के सिंहों के पास आन बैठा था। राय ने आज्ञा दी कि कई भेड़ेबकरे मारे जाएँ, जिससे कौए को दिन का भोजन मिल जाए।

  • चंद्रधर शर्मा गुलेरी की लिखी कहानी जन्मांतर कथा, Janmantar Katha - Story Written By Chandradhar Sharma Guleri
    1 min 31 sec

    एक कहिल नामक कबाड़ी था, जो काठ की कावड़ कंधे पर लिएलिए फिरता था। उसकी सिंहला नामक स्त्री थी। उसने पति से कहा कि देवाधिदेवयुगादिदेव की पूजा करो, जिनसे जन्मांतर में दारिद्रयदुख न पावें। पति ने कहा तू धर्मगहली पगली हुई है, पर सेवक मैं क्या कर सकता हूँ तब स्त्री ने नदीजल और फूल से पूजा की। उसी दिन वह विषूचिका हैजा से मर गई और जन्मांतर में राजकन्या और राजपत्नी हुई। अपने नए पति के साथ उसी दिन मंदिर में आई तो उसी पूर्व पति दरिद्र कबाड़िए को वहाँ देखकर मूर्च्छित हो गई। उसी समय जातिस्मर जिसे अपने पूर्व जन्म का हाल याद होहोकर उसने एक दोहे में कहा जंगल की पत्ती और नदी का जल सुलभ था तो भी तू नहीं लाया। हाय तेरे तन पर कपड़ा भी नहीं है और मैं रानी हो गई।कबाड़ी ने स्वीकार करके जन्मांतर कथा की पुष्टि की।

  • चंद्रधर शर्मा गुलेरी की लिखी कहानी विद्या से दुख, Vidya Se Dukh - Story Written By Chandradhar Sharma Guleri
    1 min 10 sec

    एक बहू पशुपक्षियों की भाषा जानती थी। आधी रात को श्रृगाल को यह कहता सुनकर कि नदी का मुर्दा मुझे दे दे और उसके गहने ले ले, नदी पर वैसा करने गई। लौटती बार श्वसुर ने देख लिया। जाना कि यह असती है। वह उसे पीहर पँहुचाने ले चला। मार्ग में करीर के पेड़ के पास से कौआ कहने लगा कि इस पेड़ के नीचे दस लाख की निधि है, निकाल ले और मुझे दहीसत्तू खिला। अपनी विद्या से दुख पाई वह कहती है मैंने जो एक दुर्नय अविनय, कुनीति किया, उससे घर से निकाली जा रही हूँ। अब यदि दूसरा करूंगी तो कभी भी अपने प्रिय से नहीं मिल सकूंगी अर्थात मार दी जाऊंगी।

  • ओ हेनरी की लिखी कहानी आखिरी पत्ता, Last Leaf - Story Written by O. Henry
    18 min 53 sec

  • अंतोन चेख़व की लिखी कहानी एक छोटा सा मज़ाक़, Ek Chhota Sa Mazaaq Story written by Anton Chekhov
    15 min 7 sec

    कहानी एक छोटा सा मज़ाक़ Story Ek Chhota Sa Mazaaqलेखक अंतोन चेख़व Writer Anton Chekhovअनुवाद अनिल जनविजय Translation Anil Janvijayवाचन समीर गोस्वामी Narration Sameer Goswami

  • अंतोन चेख़व की लिखी कहानी कमज़ोर, Kamzor Story written by Anton Chekhov
    6 min 34 sec

    कहानी कमज़ोर Story Kamzorलेखक अंतोन चेख़व Writer Anton Chekhovअनुवाद अनिल जनविजय Translation Anil Janvijayवाचन समीर गोस्वामी Narration Sameer Goswami

  • ओ॰ हेनरी की लिखी कहानी बीस साल बाद, After Twenty Years - Story Written by O. Henry
    10 min 27 sec

    लेखक ओ॰ हेनरी Writer O Henryवाचन समीर गोस्वामी Narration Sameer Goswami

  • ओ॰ हेनरी की लिखी कहानी उपहार, Uphaar - Story Written by O. Henry
    19 min 5 sec

    लेखक ओ॰ हेनरी Writer O Henryवाचन समीर गोस्वामी Narration Sameer Goswami

  • लियो टॉलस्टाय की लिखी कहानी "अल्योशा एक डब्बा", "Alyosha the Pot" Story written by Leo Tolstoy
    14 min 10 sec

    लेखक लियो टॉल्स्टॉय Writer Leo Tolstoyस्वर शैलेन्द्र सिंह, Narration Shailendra Singh

  • ख़लील जिब्रान की लिखी कहानी "घुमक्कड़" "Ghumakkad" Story written by Khalil Gibran
    1 min 40 sec

    स्वर दर्शना गोस्वामी Narration Darshna Goswami

  • ओ॰ हेनरी की लिखी कहानी छत पर का कमरा, Chhat Par Ka Kamra - Story Written by O. Henry
    21 min 16 sec

    लेखक ओ॰ हेनरी Writer O Henryवाचन समीर गोस्वामी Narration Sameer Goswami

  • ख़लील जिब्रान की लिखी कहानी "राजा" "Raja" Story written by Khalil Gibran
    6 min 1 sec

    स्वर समीर गोस्वामी Narration Sameer Goswami

  • अंतोन चेख़फ़ की लिखी कहानी ग्रीषा, "Greesha" Story written by Anton Chekhov
    10 min 24 sec

    लेखक अंतोन चेख़व Writer Anton Chekhovअनुवाद अनिल जनविजय Translation Anil Janvijayवाचन समीर गोस्वामी Narration Sameer Goswami

  • अंतोन चेख़फ़ की लिखी कहानी भिखारी, "Bhikhaari" Story written by Anton Chekhov
    14 min 10 sec

    लेखक अंतोन चेख़व Writer Anton Chekhovअनुवाद अनिल जनविजय Translation Anil Janvijayवाचन समीर गोस्वामी Narration Sameer Goswami

  • अंतोन चेख़फ़ की लिखी कहानी वान्का, "Vanka" Story written by Anton Chekhov
    13 min 46 sec

    लेखक अंतोन चेख़व Writer Anton Chekhovअनुवाद अनिल जनविजय Translation Anil Janvijayवाचन समीर गोस्वामी Narration Sameer Goswami

  • अंतोन चेख़फ़ की लिखी कहानी घोंघा, "Ghongha" Story written by Anton Chekhov
    40 min 13 sec

    लेखक अंतोन चेख़व Writer Anton Chekhovअनुवाद अनिल जनविजय Translation Anil Janvijayवाचन समीर गोस्वामी Narration Sameer Goswami

  • अंतोन चेख़फ़ की लिखी कहानी मुखौटा, "Mukhauta" Story written by Anton Chekhov
    16 min 19 sec

    लेखक अंतोन चेख़व Writer Anton Chekhovअनुवाद अनिल जनविजय Translation Anil Janvijayवाचन समीर गोस्वामी Narration Sameer Goswami

  • अंतोन चेख़फ़ की लिखी कहानी क्लर्क की मौत, "Cleark Ki Maut" Story written by Anton Chekhov
    9 min 27 sec

    लेखक अंतोन चेख़व Writer Anton Chekhovअनुवाद अनिल जनविजय Translation Anil Janvijayवाचन समीर गोस्वामी Narration Sameer Goswami

  • 1: KarmBhoomi by Munshi Premchand Part 1 कर्मभूमि भाग १ लेखक मुंशी प्रेमचंद
    8 min 55 sec

    एक मातृ स्नेह से वंचित किशोर की शिक्षा के संघर्ष का वर्णन

  • 2: KarmBhoomi by Munshi Premchand Part 2 कर्मभूमि भाग २ लेखक मुंशी प्रेमचंद
    8 min 12 sec

    एक संपन्न व्यक्ति के पुनर्विवाह पश्चात पुत्र के दूर जाने का वर्णन

  • 3: KarmBhoomi by Munshi Premchand Part 3 कर्मभूमि भाग ३ लेखक मुंशी प्रेमचंद
    16 min 45 sec

    शालेय शुल्क के लिये परेशान किशोर के स्वाभिमान का वर्णन

  • 4: KarmBhoomi by Munshi Premchand Part 4 कर्मभूमि भाग ४ लेखक मुंशी प्रेमचंद
    13 min 6 sec

    एक नवयुवक के आदर्शों और पत्नI द्वारा समझाइश का वर्णन

  • 5: KarmBhoomi by Munshi Premchand Part 5 कर्मभूमि भाग ५ लेखक मुंशी प्रेमचंद
    13 min 59 sec

    युवक के आत्मोत्सर्ग और अंग्रेज़ों के अत्याचार का वर्णन

  • 6: KarmBhoomi by Munshi Premchand Part 6 कर्मभूमि भाग ६ लेखक मुंशी प्रेमचंद
    10 min 3 sec

    प्रसूता पत्नी और पति के बीच बातचीत व  नोकझोंक

  • 7: KarmBhoomi by Munshi Premchand Part 7 कर्मभूमि भाग ७ लेखक मुंशी प्रेमचंद
    19 min 39 sec

    दुकान पर युवक के अच्छे बुरे अनुभव का वर्णन

  • 8: KarmBhoomi by Munshi Premchand Part 8 कर्मभूमि भाग ८ लेखक मुंशी प्रेमचंद
    20 min 42 sec

    पिता पुत्र के बीच तकरार और पति पत्नी के वाद विवाद का वर्णन

  • 9: KarmBhoomi by Munshi Premchand Part 9 कर्मभूमि भाग ९ लेखक मुंशी प्रेमचंद
    14 min 22 sec

    दुष्कर्म पीड़िता द्वारा अंग्रजों से बदला लेने की कहानीhttps://kahanisuno.com/https://sameergoswami.com

  • 10: KarmBhoomi by Munshi Premchand Part 10 कर्मभूमि भाग १० लेखक मुंशी प्रेमचंद
    14 min 45 sec

    दुष्कर्म पीड़ित एवं हत्या की दोषी के मुकदमे एवं आम जनता की उसके प्रति सहानुभूति की कहानीhttps://kahanisuno.com/https://sameergoswami.com

  • 11: KarmBhoomi by Munshi Premchand Part 11 कर्मभूमि भाग ११ लेखक मुंशी प्रेमचंद
    14 min 33 sec

    सुखदा की प्रसव पीड़ा व पुत्र जन्म के बाद उत्सव की तैयारी की कहानीhttps://kahanisuno.com/https://sameergoswami.com

  • 12: KarmBhoomi by Munshi Premchand Part 12 कर्मभूमि भाग १२ लेखक मुंशी प्रेमचंद
    20 min 12 sec

    दुष्कर्म पीड़िता पर हत्या के अभियोग के मुकदमे व पैरवी की कहानीhttps://kahanisuno.com/https://sameergoswami.com

  • 13: KarmBhoomi by Munshi Premchand Part 13 कर्मभूमि भाग १३ लेखक मुंशी प्रेमचंद
    21 min 56 sec

    अमरकांत के पुत्र प्रेम और परस्त्री के प्रति आकर्षण की कहानीhttps://kahanisuno.com/https://sameergoswami.com

  • 14: KarmBhoomi by Munshi Premchand Part 14 कर्मभूमि भाग १४ लेखक मुंशी प्रेमचंद
    24 min 45 sec

  • 15: KarmBhoomi by Munshi Premchand Part 15 कर्मभूमि भाग १५ लेखक मुंशी प्रेमचंद
    13 min 3 sec

  • 16: KarmBhoomi by Munshi Premchand Part 16 कर्मभूमि भाग १६ लेखक मुंशी प्रेमचंद
    24 min 40 sec

  • 17: KarmBhoomi by Munshi Premchand Part 17 कर्मभूमि भाग १७ लेखक मुंशी प्रेमचंद
    20 min 46 sec

  • 18: KarmBhoomi by Munshi Premchand Part 18 कर्मभूमि भाग १८ लेखक मुंशी प्रेमचंद
    15 min 1 sec

  • 19: KarmBhoomi by Munshi Premchand Part 19 कर्मभूमि भाग १९ लेखक मुंशी प्रेमचंद
    18 min 7 sec

  • 20: KarmBhoomi by Munshi Premchand Part 20 कर्मभूमि भाग २० लेखक मुंशी प्रेमचंद
    9 min 45 sec

  • 21: KarmBhoomi by Munshi Premchand Part 21 कर्मभूमि भाग २१ लेखक मुंशी प्रेमचंद
    10 min 20 sec

  • 22: KarmBhoomi by Munshi Premchand Part 22 कर्मभूमि भाग २२ लेखक मुंशी प्रेमचंद
    9 min 49 sec

  • 23: KarmBhoomi by Munshi Premchand Part 23 कर्मभूमि भाग २३ लेखक मुंशी प्रेमचंद
    5 min 54 sec

  • 24: KarmBhoomi by Munshi Premchand Part 24 कर्मभूमि भाग २४ लेखक मुंशी प्रेमचंद
    14 min 17 sec

  • 25: KarmBhoomi by Munshi Premchand Part 25 कर्मभूमि भाग २५ लेखक मुंशी प्रेमचंद
    29 min 33 sec

  • 26: KarmBhoomi by Munshi Premchand Part 26 कर्मभूमि भाग २६ लेखक मुंशी प्रेमचंद
    8 min 31 sec

  • 27: KarmBhoomi by Munshi Premchand Part 27 कर्मभूमि भाग २७ लेखक मुंशी प्रेमचंद
    10 min 25 sec

  • 28: KarmBhoomi by Munshi Premchand Part 28 कर्मभूमि भाग २८ लेखक मुंशी प्रेमचंद
    8 min 38 sec

  • 29: KarmBhoomi by Munshi Premchand Part 29 कर्मभूमि भाग २९ लेखक मुंशी प्रेमचंद
    12 min 51 sec

  • 30: KarmBhoomi by Munshi Premchand Part 30 कर्मभूमि भाग ३० लेखक मुंशी प्रेमचंद
    10 min 50 sec

  • 31: KarmBhoomi by Munshi Premchand Part 31 कर्मभूमि भाग ३१ लेखक मुंशी प्रेमचंद
    20 min 3 sec

  • 32: KarmBhoomi by Munshi Premchand Part 32 कर्मभूमि भाग ३२ लेखक मुंशी प्रेमचंद
    20 min 35 sec

  • 33: KarmBhoomi by Munshi Premchand Part 33 कर्मभूमि भाग ३३ लेखक मुंशी प्रेमचंद
    16 min 58 sec

  • 34: KarmBhoomi by Munshi Premchand Part 34 कर्मभूमि भाग ३४ लेखक मुंशी प्रेमचंद
    12 min 15 sec

  • 35: KarmBhoomi by Munshi Premchand Part 35 कर्मभूमि भाग ३५ लेखक मुंशी प्रेमचंद
    13 min 20 sec

  • 36: KarmBhoomi by Munshi Premchand Part 36 कर्मभूमि भाग ३६ लेखक मुंशी प्रेमचंद
    11 min 43 sec

  • 37: KarmBhoomi by Munshi Premchand Part 37 कर्मभूमि भाग ३७ लेखक मुंशी प्रेमचंद
    12 min 50 sec

  • 38: KarmBhoomi by Munshi Premchand Part 38 कर्मभूमि भाग ३८ लेखक मुंशी प्रेमचंद
    24 min 13 sec

  • 39: KarmBhoomi by Munshi Premchand Part 39 कर्मभूमि भाग ३९ लेखक मुंशी प्रेमचंद
    13 min 23 sec

  • 40: KarmBhoomi by Munshi Premchand Part 40 कर्मभूमि भाग ४० लेखक मुंशी प्रेमचंद
    7 min 21 sec

  • 41: KarmBhoomi by Munshi Premchand Part 41 कर्मभूमि भाग ४१ लेखक मुंशी प्रेमचंद
    10 min 9 sec

  • 42: KarmBhoomi by Munshi Premchand Part 42 कर्मभूमि भाग ४२ लेखक मुंशी प्रेमचंद
    8 min 49 sec

  • 43: KarmBhoomi by Munshi Premchand Part 43 कर्मभूमि भाग ४३ लेखक मुंशी प्रेमचंद
    28 min 23 sec

  • 44: KarmBhoomi by Munshi Premchand Part 44 कर्मभूमि भाग ४४ लेखक मुंशी प्रेमचंद
    11 min 56 sec

  • 45: KarmBhoomi by Munshi Premchand Part 45 कर्मभूमि भाग ४५ लेखक मुंशी प्रेमचंद
    7 min 15 sec

  • 46: KarmBhoomi by Munshi Premchand Part 46 कर्मभूमि भाग ४६ लेखक मुंशी प्रेमचंद
    6 min 31 sec

  • 47: KarmBhoomi by Munshi Premchand Part 47 कर्मभूमि भाग ४७ लेखक मुंशी प्रेमचंद
    12 min 52 sec

  • 48: KarmBhoomi by Munshi Premchand Part 48 कर्मभूमि भाग ४८ लेखक मुंशी प्रेमचंद
    9 min 58 sec

  • 49: KarmBhoomi by Munshi Premchand Part 49 कर्मभूमि भाग ४९ लेखक मुंशी प्रेमचंद
    19 min 38 sec

  • 50: KarmBhoomi by Munshi Premchand Part 50 कर्मभूमि भाग ५० लेखक मुंशी प्रेमचंद
    7 min 36 sec

  • 51: KarmBhoomi by Munshi Premchand Part 51 कर्मभूमि भाग ५१ लेखक मुंशी प्रेमचंद
    6 min 42 sec

  • 52: KarmBhoomi by Munshi Premchand Part 52 कर्मभूमि भाग ५२ लेखक मुंशी प्रेमचंद
    16 min 42 sec

  • 53: KarmBhoomi by Munshi Premchand Part 53 कर्मभूमि भाग ५३ लेखक मुंशी प्रेमचंद
    16 min 31 sec

  • 54: KarmBhoomi by Munshi Premchand Part 54 कर्मभूमि भाग ५४ लेखक मुंशी प्रेमचंद
    13 min 11 sec

  • 55: KarmBhoomi by Munshi Premchand Part 55 कर्मभूमि भाग ५५ लेखक मुंशी प्रेमचंद
    32 min 48 sec

  • 56: KarmBhoomi by Munshi Premchand Part 56 कर्मभूमि भाग ५६ लेखक मुंशी प्रेमचंद
    31 min 9 sec

  • 1: RangBhoomi by Munshi Premchand Part 01 रंगभूमि भाग ०१ लेखक मुंशी प्रेमचंद
    26 min 4 sec

  • 2: RangBhoomi by Munshi Premchand Part 02 रंगभूमि भाग ०२ लेखक मुंशी प्रेमचंद
    33 min 16 sec

  • 3: RangBhoomi by Munshi Premchand Part 03 रंगभूमि भाग ०३ लेखक मुंशी प्रेमचंद
    1 hr 37 min 42 sec

  • 4: RangBhoomi by Munshi Premchand Part 04 रंगभूमि भाग ०४ लेखक मुंशी प्रेमचंद
    39 min 44 sec

  • 5: RangBhoomi by Munshi Premchand Part 05 रंगभूमि भाग ०५ लेखक मुंशी प्रेमचंद
    17 min 56 sec

  • 6: RangBhoomi by Munshi Premchand Part 06 रंगभूमि भाग ०६ लेखक मुंशी प्रेमचंद
    9 min 10 sec

  • 7: RangBhoomi by Munshi Premchand Part 07 रंगभूमि भाग ०७ लेखक मुंशी प्रेमचंद
    15 min 50 sec

  • 8: RangBhoomi by Munshi Premchand Part 08 रंगभूमि भाग ०८ लेखक मुंशी प्रेमचंद
    19 min 12 sec

  • 9: RangBhoomi by Munshi Premchand Part 09 रंगभूमि भाग ०९ लेखक मुंशी प्रेमचंद
    42 min 19 sec

  • 10: RangBhoomi by Munshi Premchand Part 10 रंगभूमि भाग १० लेखक मुंशी प्रेमचंद
    35 min 35 sec

  • 11: RangBhoomi by Munshi Premchand Part 11 रंगभूमि भाग ११ लेखक मुंशी प्रेमचंद
    45 min 3 sec

  • 12: RangBhoomi by Munshi Premchand Part 12 रंगभूमि भाग १२ लेखक मुंशी प्रेमचंद
    54 min 41 sec

  • 13: RangBhoomi by Munshi Premchand Part 13 रंगभूमि भाग १३ लेखक मुंशी प्रेमचंद
    37 min 6 sec

  • 14: RangBhoomi by Munshi Premchand Part 14 रंगभूमि भाग १४ लेखक मुंशी प्रेमचंद
    20 min 1 sec

  • 15: RangBhoomi by Munshi Premchand Part 15 रंगभूमि भाग १५ लेखक मुंशी प्रेमचंद
    47 min 12 sec

  • 16: RangBhoomi by Munshi Premchand Part 16 रंगभूमि भाग १६ लेखक मुंशी प्रेमचंद
    26 min 31 sec

  • 17: RangBhoomi by Munshi Premchand Part 17 रंगभूमि भाग १७ लेखक मुंशी प्रेमचंद
    24 min 45 sec

  • 18: RangBhoomi by Munshi Premchand Part 18 रंगभूमि भाग १८ लेखक मुंशी प्रेमचंद
    25 min 51 sec

  • 19: RangBhoomi by Munshi Premchand Part 19 रंगभूमि भाग १९ लेखक मुंशी प्रेमचंद
    18 min 50 sec

  • 20: RangBhoomi by Munshi Premchand Part 20 रंगभूमि भाग २० लेखक मुंशी प्रेमचंद
    30 min 26 sec

  • 21: RangBhoomi by Munshi Premchand Part 21 रंगभूमि भाग २१ लेखक मुंशी प्रेमचंद
    16 min 27 sec

  • 24: RangBhoomi by Munshi Premchand Part 24 रंगभूमि भाग २४ लेखक मुंशी प्रेमचंद
    26 min 11 sec

  • 22: RangBhoomi by Munshi Premchand Part 22 रंगभूमि भाग २२ लेखक मुंशी प्रेमचंद
    18 min 45 sec

  • 23: RangBhoomi by Munshi Premchand Part 23 रंगभूमि भाग २३ लेखक मुंशी प्रेमचंद
    32 min 14 sec

  • 25: RangBhoomi by Munshi Premchand Part 25 रंगभूमि भाग २५ लेखक मुंशी प्रेमचंद
    29 min 10 sec

  • 26: RangBhoomi by Munshi Premchand Part 26 रंगभूमि भाग २६ लेखक मुंशी प्रेमचंद
    1 hr 1 min 35 sec

  • 27: RangBhoomi by Munshi Premchand Part 27 रंगभूमि भाग २७ लेखक मुंशी प्रेमचंद
    14 min 52 sec

  • 28: RangBhoomi by Munshi Premchand Part 28 रंगभूमि भाग २८ लेखक मुंशी प्रेमचंद
    27 min 11 sec

  • 29: RangBhoomi by Munshi Premchand Part 29 रंगभूमि भाग २९ लेखक मुंशी प्रेमचंद
    31 min 50 sec

  • 30: RangBhoomi by Munshi Premchand Part 30 रंगभूमि भाग ३० लेखक मुंशी प्रेमचंद
    36 min 10 sec

  • 31: RangBhoomi by Munshi Premchand Part 31 रंगभूमि भाग ३1 लेखक मुंशी प्रेमचंद
    1 hr 1 min 40 sec

  • 32: RangBhoomi by Munshi Premchand Part 32 रंगभूमि भाग ३२ लेखक मुंशी प्रेमचंद
    41 min 35 sec

  • 33: RangBhoomi by Munshi Premchand Part 33 रंगभूमि भाग ३३ लेखक मुंशी प्रेमचंद
    13 min 25 sec

  • 34: RangBhoomi by Munshi Premchand Part 34 रंगभूमि भाग ३४ लेखक मुंशी प्रेमचंद
    33 min 9 sec

  • 35: RangBhoomi by Munshi Premchand Part 35 रंगभूमि भाग ३५ लेखक मुंशी प्रेमचंद
    1 hr 6 min 31 sec

  • 36: RangBhoomi by Munshi Premchand Part 36 रंगभूमि भाग ३६ लेखक मुंशी प्रेमचंद
    36 min 5 sec

  • 37: RangBhoomi by Munshi Premchand Part 37 रंगभूमि भाग ३७ लेखक मुंशी प्रेमचंद
    17 min 40 sec

  • 38: RangBhoomi by Munshi Premchand Part 38 रंगभूमि भाग ३८ लेखक मुंशी प्रेमचंद
    35 min 16 sec

  • 39: RangBhoomi by Munshi Premchand Part 39 रंगभूमि भाग ३९ लेखक मुंशी प्रेमचंद
    18 min 40 sec

  • 40: RangBhoomi by Munshi Premchand Part 40 रंगभूमि भाग ४० लेखक मुंशी प्रेमचंद
    24 min 15 sec

  • 41: RangBhoomi by Munshi Premchand Part 41 रंगभूमि भाग ४1 लेखक मुंशी प्रेमचंद
    30 min 1 sec

  • 42: RangBhoomi by Munshi Premchand Part 42 रंगभूमि भाग ४२ लेखक मुंशी प्रेमचंद
    1 hr 7 min 35 sec

  • 43: RangBhoomi by Munshi Premchand Part 43 रंगभूमि भाग ४३ लेखक मुंशी प्रेमचंद
    1 hr 5 min 59 sec

  • 44: RangBhoomi by Munshi Premchand Part 44 रंगभूमि भाग ४४ लेखक मुंशी प्रेमचंद
    31 min 55 sec

  • 45: RangBhoomi by Munshi Premchand Part 45 रंगभूमि भाग ४५ लेखक मुंशी प्रेमचंद
    12 min 50 sec

  • 46: RangBhoomi by Munshi Premchand Part 46 रंगभूमि भाग ४६ लेखक मुंशी प्रेमचंद
    11 min 43 sec

  • 47: RangBhoomi by Munshi Premchand Part 47 रंगभूमि भाग ४७ लेखक मुंशी प्रेमचंद
    20 min 35 sec

  • 48: RangBhoomi by Munshi Premchand Part 48 रंगभूमि भाग ४८ लेखक मुंशी प्रेमचंद
    17 min 26 sec

  • 49: RangBhoomi by Munshi Premchand Part 49 रंगभूमि भाग ४९ लेखक मुंशी प्रेमचंद
    13 min 25 sec

  • 50: RangBhoomi by Munshi Premchand Part 50 रंगभूमि भाग ५० लेखक मुंशी प्रेमचंद
    8 min 50 sec

  • 1: अंतोन चेख़फ़ की लिखी कहानी दुल्हन, "Dulhan" Story written by Anton Chekhov
    52 min

    लेखक अंतोन चेख़व Writer Anton Chekhovअनुवाद अनिल जनविजय Translation Anil Janvijayवाचन समीर गोस्वामी Narration Sameer Goswamihttps://kahanisuno.com/https://sameergoswami.com

  • 2: Agar Woh Meri Hoti To Main Use Paamaar Desh Ki Sair Karaata
    7 min 35 sec

    कहानी अगर वो मेरी होती तो मैं उसे पामार देश की सैर करातालेखक व वाचन समीर गोस्वामीhttps://www.youtube.com/channel/UCqvS7a4Jf1jDGysqOeI88dA/joinhttps://kahanisuno.com/https://sameergoswami.com

  • 1: चंद्रकांता पहला भाग पहला बयान, Chandrdakanta Part 1 Bayaan 1
    4 min 45 sec

    https://kahanisuno.com/लेखक बाबू देवकीनंदन खत्री Writer Devkinandan Khatriस्वर समीर गोस्वामी Narration Sameer Goswamihttps://sameergoswami.com

  • 2: चंद्रकांता पहला भाग दूसरा बयान, Chandrdakanta Part 1 Bayaan 2
    3 min 45 sec

    https://kahanisuno.com/लेखक बाबू देवकीनंदन खत्री Writer Devkinandan Khatriस्वर समीर गोस्वामी Narration Sameer Goswamihttps://sameergoswami.com

  • 3: चंद्रकांता पहला भाग तीसरा बयान, Chandrdakanta Part 1 Bayaan 3
    11 min 41 sec

    https://kahanisuno.com/लेखक बाबू देवकीनंदन खत्री Writer Devkinandan Khatriस्वर समीर गोस्वामी Narration Sameer Goswamihttps://sameergoswami.com

  • 4: चंद्रकांता पहला भाग चौथा बयान, Chandrdakanta Part 1 Bayaan 4
    13 min 50 sec

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  • 5: चंद्रकांता पहला भाग पाचवाँ बयान, Chandrdakanta Part 1 Bayaan 5
    8 min 20 sec

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  • 6: चंद्रकांता पहला भाग छठवाँ बयान, Chandrdakanta Part 1 Bayaan 6
    13 min 5 sec

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  • 7: चंद्रकांता पहला भाग सातवाँ बयान, Chandrdakanta Part 1 Bayaan 7
    8 min 46 sec

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  • 8: चंद्रकांता पहला भाग आठवाँ बयान, Chandrdakanta Part 1 Bayaan 8
    8 min 5 sec

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  • 9: चंद्रकांता पहला भाग नौवाँ बयान, Chandrdakanta Part 1 Bayaan 9
    7 min

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  • 10: चंद्रकांता पहला भाग दसवाँ बयान, Chandrdakanta Part 1 Bayaan 10
    2 min 46 sec

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  • 11: चंद्रकांता पहला भाग ग्यारहवाँ बयान, Chandrdakanta Part 1 Bayaan 11
    4 min 15 sec

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  • 12: चंद्रकांता पहला भाग बारहवाँ बयान, Chandrdakanta Part 1 Bayaan 12
    4 min 46 sec

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  • 13: चंद्रकांता पहला भाग तेरहवाँ बयान, Chandrdakanta Part 1 Bayaan 13
    11 min 41 sec

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  • 14: चंद्रकांता पहला भाग चौदहवाँ बयान, Chandrdakanta Part 1 Bayaan 14
    12 min 33 sec

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  • 3: Antim Vidai - Story Written by Sameer Goswami | समीर गोस्वामी की लिखी कहानी- अंतिम विदाई
    32 min 39 sec

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  • 4: कहानी - चईतीया, Story - Chaitiya
    15 min 27 sec

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  • 15: चंद्रकांता पहला भाग पंद्रहवाँ बयान, Chandrdakanta Part 1 Bayaan 15
    8 min 35 sec

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  • 16: चंद्रकांता पहला भाग सोलहवाँ बयान, Chandrdakanta Part 1 Bayaan 16
    13 min 21 sec

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  • 17: चंद्रकांता पहला भाग सत्रहवाँ बयान, Chandrdakanta Part 1 Bayaan 17
    18 min 34 sec

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  • 5: Apraadh Bodh - Story Written by Sameer Goswami | समीर गोस्वामी की लिखी कहानी- अपराध बोध
    17 min 43 sec

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  • 18: चंद्रकांता पहला भाग अठारहवाँ बयान, Chandrdakanta Part 1 Bayaan 18
    5 min 16 sec

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  • 19: चंद्रकांता पहला भाग उन्नीसवाँ बयान, Chandrdakanta Part 1 Bayaan 19
    5 min 11 sec

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  • 20: चंद्रकांता पहला भाग बीसवाँ बयान, Chandrdakanta Part 1 Bayaan 20
    5 min 16 sec

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  • 21: चंद्रकांता पहला भाग इक्कीसवाँ बयान, Chandrdakanta Part 1 Bayaan 21
    12 min 40 sec

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  • 22: चंद्रकांता पहला भाग बाईसवाँ बयान, Chandrdakanta Part 1 Bayaan 22
    17 min 4 sec

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  • 23: चंद्रकांता पहला भाग तेईसवाँ बयान, Chandrdakanta Part 1 Bayaan 23
    5 min

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  • 24: चंद्रकांता दूसरा भाग पहला बयान, Chandrdakanta Part 2 Bayaan 1
    8 min 40 sec

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  • 25: चंद्रकांता दूसरा भाग दूसरा बयान, Chandrdakanta Part 2 Bayaan 2
    1 min 40 sec

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  • 26: चंद्रकांता दूसरा भाग तीसरा बयान, Chandrakanta Part 2 Bayaan 3
    10 min

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  • 26: चंद्रकांता दूसरा भाग चौथा बयान, Chandrakanta Part 2 Bayaan 4
    2 min 40 sec

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  • 26: चंद्रकांता दूसरा भाग पांचवाँ बयान, Chandrakanta Part 2 Bayaan 5
    10 min

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  • 26: चंद्रकांता दूसरा भाग छठवाँ बयान, Chandrakanta Part 2 Bayaan 6
    4 min 10 sec

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  • 26: चंद्रकांता दूसरा भाग सातवाँ बयान, Chandrakanta Part 2 Bayaan 7
    17 min 45 sec

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  • 26: चंद्रकांता दूसरा भाग आठवाँ बयान, Chandrakanta Part 2 Bayaan 8
    3 min

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  • 26: चंद्रकांता दूसरा भाग नौवाँ बयान, Chandrakanta Part 2 Bayaan 9
    3 min 35 sec

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  • 26: चंद्रकांता दूसरा भाग दसवाँ बयान, Chandrakanta Part 2 Bayaan 10
    7 min 40 sec

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  • 26: चंद्रकांता दूसरा भाग बारहवाँ बयान, Chandrakanta Part 2 Bayaan 12
    5 min

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  • 26: चंद्रकांता दूसरा भाग ग्यारहवाँ बयान, Chandrakanta Part 2 Bayaan 11
    10 min 40 sec

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  • 27: चंद्रकांता दूसरा भाग तेरहवाँ बयान, Chandrakanta Part 2 Bayaan 13
    3 min 50 sec

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  • 28: चंद्रकांता दूसरा भाग चौदहवाँ बयान, Chandrakanta Part 2 Bayaan 14
    9 min 11 sec

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  • 29: चंद्रकांता दूसरा भाग पंद्रहवाँ बयान, Chandrakanta Part 2 Bayaan 15
    11 min 41 sec

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  • 30: चंद्रकांता दूसरा भाग सोलहवाँ बयान, Chandrakanta Part 2 Bayaan 16
    11 min 49 sec

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  • 31: चंद्रकांता दूसरा भाग सत्रहवाँ बयान, Chandrakanta Part 2 Bayaan 17
    5 min 45 sec

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  • 32: चंद्रकांता दूसरा भाग अठारहवाँ बयान, Chandrakanta Part 2 Bayaan 18
    10 min 10 sec

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  • 33: चंद्रकांता दूसरा भाग उन्नीसवाँ बयान, Chandrakanta Part 2 Bayaan 19
    10 min 35 sec

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  • 34: चंद्रकांता दूसरा भाग बीसवाँ बयान, Chandrakanta Part 2 Bayaan 20
    10 min 15 sec

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  • चंद्रकांता दूसरा भाग इक्कीसवाँ बयान, Chandrakanta Part 2 Bayaan 21
    6 min

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  • चंद्रकांता दूसरा भाग बाईसवाँ बयान, Chandrakanta Part 2 Bayaan 22
    1 min 45 sec

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  • चंद्रकांता दूसरा भाग तेईसवाँ बयान, Chandrakanta Part 2 Bayaan 23
    4 min 3 sec

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  • चंद्रकांता दूसरा भाग चौबीसवाँ बयान, Chandrakanta Part 2 Bayaan 24
    8 min

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  • चंद्रकांता दूसरा भाग पच्चीसवाँ बयान, Chandrakanta Part 2 Bayaan 25
    5 min 4 sec

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  • चंद्रकांता चौथा भाग चौथा बयान, Chandrakanta Part 4 Bayaan 4
    9 min 19 sec

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  • चंद्रकांता दूसरा भाग छब्बीसवें बयान, Chandrakanta Part 2 Bayaan 26
    12 min 5 sec

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  • चंद्रकांता दूसरा भाग सत्ताईसवाँ बयान, Chandrakanta Part 2 Bayaan 27
    4 min 40 sec

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  • चंद्रकांता तीसरा भाग पहला बयान, Chandrakanta Part 3 Bayaan 1
    12 min 3 sec

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  • चंद्रकांता तीसरा भाग दूसरा बयान, Chandrakanta Part 3 Bayaan 2
    6 min 29 sec

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  • चंद्रकांता तीसरा भाग तीसरा बयान, Chandrakanta Part 3 Bayaan 3
    6 min 4 sec

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  • चंद्रकांता तीसरा भाग चौथा बयान, Chandrakanta Part 3 Bayaan 4
    11 min 4 sec

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  • चंद्रकांता तीसरा भाग पाचवाँ बयान, Chandrakanta Part 3 Bayaan 5
    4 min 29 sec

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  • चंद्रकांता तीसरा भाग छठवाँ बयान, Chandrakanta Part 3 Bayaan 6
    10 min 54 sec

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  • चंद्रकांता तीसरा भाग सातवाँ बयान, Chandrakanta Part 3 Bayaan 7
    8 min 24 sec

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  • चंद्रकांता तीसरा भाग आठवाँ बयान, Chandrakanta Part 3 Bayaan 8
    7 min 24 sec

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  • चंद्रकांता तीसरा भाग नौवाँ बयान, Chandrakanta Part 3 Bayaan 9
    13 min 24 sec

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  • चंद्रकांता तीसरा भाग दसवाँ बयान, Chandrakanta Part 3 Bayaan 10
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  • चंद्रकांता तीसरा भाग ग्यारहवाँ बयान, Chandrakanta Part 3 Bayaan 11
    26 min 17 sec

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  • चंद्रकांता तीसरा भाग बारहवाँ बयान, Chandrakanta Part 3 Bayaan 12
    7 min 59 sec

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  • चंद्रकांता तीसरा भाग तेरहवाँ बयान, Chandrakanta Part 3 Bayaan 13
    14 min 48 sec

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  • चंद्रकांता तीसरा भाग चौदहवाँ बयान, Chandrakanta Part 3 Bayaan 14
    3 min 50 sec

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  • चंद्रकांता तीसरा भाग पंद्रहवाँ बयान, Chandrakanta Part 3 Bayaan 15
    5 min 14 sec

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  • चंद्रकांता तीसरा भाग सोलहवाँ बयान, Chandrakanta Part 3 Bayaan 16
    9 min 53 sec

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  • चंद्रकांता तीसरा भाग सत्रहवाँ बयान, Chandrakanta Part 3 Bayaan 17
    7 min 39 sec

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  • चंद्रकांता तीसरा भाग अठारहवाँ बयान, Chandrakanta Part 3 Bayaan 18
    5 min 10 sec

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  • चंद्रकांता तीसरा भाग उन्नीसवाँ बयान, Chandrakanta Part 3 Bayaan 19
    3 min 20 sec

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  • चंद्रकांता तीसरा भाग बीसवाँ बयान, Chandrakanta Part 3 Bayaan 20
    10 min 29 sec

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  • चंद्रकांता चौथा भाग पहला बयान, Chandrakanta Part 4 Bayaan 1
    4 min

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  • चंद्रकांता चौथा भाग दूसरा बयान, Chandrakanta Part 4 Bayaan 2
    2 min 15 sec

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  • चंद्रकांता चौथा भाग तीसरा बयान, Chandrakanta Part 4 Bayaan 3
    8 min 59 sec

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  • चंद्रकांता चौथा भाग पांचवाँ बयान, Chandrakanta Part 4 Bayaan 5
    10 min 29 sec

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  • चंद्रकांता चौथा भाग छठवाँ बयान, Chandrakanta Part 4 Bayaan 6
    3 min 54 sec

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  • चंद्रकांता चौथा भाग सातवाँ बयान, Chandrakanta Part 4 Bayaan 7
    13 min 9 sec

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  • चंद्रकांता चौथा भाग आठवाँ बयान, Chandrakanta Part 4 Bayaan 8
    4 min 25 sec

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  • चंद्रकांता चौथा भाग नौवाँ बयान, Chandrakanta Part 4 Bayaan 9
    9 min 29 sec

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  • चंद्रकांता चौथा भाग दसवाँ बयान, Chandrakanta Part 4 Bayaan 10
    2 min 17 sec

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  • चंद्रकांता चौथा भाग ग्यारहवाँ बयान, Chandrakanta Part 4 Bayaan 11
    7 min 29 sec

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  • चंद्रकांता चौथा भाग बारहवाँ बयान, Chandrakanta Part 4 Bayaan 12
    1 min 50 sec

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  • चंद्रकांता चौथा भाग तेरहवाँ बयान, Chandrakanta Part 4 Bayaan 13
    17 min 29 sec

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  • चंद्रकांता चौथा भाग चौदहवाँ बयान, Chandrakanta Part 4 Bayaan 14
    8 min 31 sec

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  • चंद्रकांता चौथा भाग पंद्रहवाँ बयान, Chandrakanta Part 4 Bayaan 15
    5 min 4 sec

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  • चंद्रकांता चौथा भाग सोलहवाँ बयान, Chandrakanta Part 4 Bayaan 16
    11 min 4 sec

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  • चंद्रकांता चौथा भाग सत्रहवाँ बयान, Chandrakanta Part 4 Bayaan 17
    7 min 58 sec

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  • चंद्रकांता चौथा भाग अठारहवाँ बयान, Chandrakanta Part 4 Bayaan 18
    8 min 4 sec

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  • चंद्रकांता चौथा भाग उन्नीसवाँ बयान, Chandrakanta Part 4 Bayaan 19
    12 min 48 sec

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  • चंद्रकांता चौथा भाग बीसवाँ बयान, Chandrakanta Part 4 Bayaan 20
    4 min 59 sec

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  • चंद्रकांता चौथा भाग इक्कीसवाँ बयान, Chandrakanta Part 4 Bayaan 21
    8 min 49 sec

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  • चंद्रकांता चौथा भाग बाईसवाँ बयान, Chandrakanta Part 4 Bayaan 22
    6 min 40 sec

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  • चंद्रकांता चौथा भाग तेईसवाँ बयान, Chandrakanta Part 4 Bayaan 23
    7 min 49 sec

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  • Chandrakanta Santati Part 1, चंद्रकांता संतति पहला भाग
    2 hr 55 min 15 sec

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  • Chandrakanta Santati Part 2, चंद्रकांता संतति दूसरा भाग
    2 hr 52 min 13 sec

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  • Chandrakanta Santati Part 3, चंद्रकांता संतति तीसरा भाग
    2 hr 40 min 21 sec

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  • Chandrakanta Santati Part 4, चंद्रकांता संतति चौथा भाग
    2 hr 40 min 54 sec

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  • Chandrakanta Santati Part 5, चंद्रकांता संतति पाचवाँ भाग
    2 hr 43 min 20 sec

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  • Chandrakanta Santati Part 6, चंद्रकांता संतति छठवाँ भाग
    2 hr 39 min 14 sec

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  • Chandrakanta Santati Part 7, चंद्रकांता संतति सातवाँ भाग
    2 hr 14 min 21 sec

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  • Chandrakanta Santati Part 8, चंद्रकांता संतति आठवाँ भाग
    2 hr 44 min 43 sec

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  • Chandrakanta Santati Part 9, चंद्रकांता संतति नौवाँ भाग
    2 hr 50 min 36 sec

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  • Chandrakanta Santati Part 10, चंद्रकांता संतति दसवाँ भाग
    2 hr 40 min 14 sec

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  • Chandrakanta Santati Part 11, चंद्रकांता संतति ग्यारहवाँ भाग
    2 hr 46 min 23 sec

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  • Chandrakanta Santati Part 12, चंद्रकांता संतति बारहवाँ भाग
    2 hr 50 min 52 sec

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  • Chandrakanta Santati Part 13, चंद्रकांता संतति तेरहवाँ भाग
    2 hr 50 min 54 sec

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  • Chandrakanta Santati Part 14, चंद्रकांता संतति चौदहवाँ भाग
    2 hr 53 min 26 sec

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  • Chandrakanta Santati Part 15, चंद्रकांता संतति पंद्रहवाँ भाग
    2 hr 46 min 34 sec

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  • Chandrakanta Santati Part 16, चंद्रकांता संतति सोलहवाँ भाग
    2 hr 42 min 48 sec

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  • Chandrakanta Santati Part 17, चंद्रकांता संतति सत्रहवाँ भाग
    2 hr 43 min 15 sec

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  • Chandrakanta Santati Part 18, चंद्रकांता संतति अठारहवाँ भाग
    2 hr 41 min 4 sec

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  • Chandrakanta Santati Part 19, चंद्रकांता संतति उन्नीसवाँ भाग
    2 hr 48 min 22 sec

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  • Chandrakanta Santati Part 20, चंद्रकांता संतति बीसवां भाग
    2 hr 43 min 43 sec

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  • Chandrakanta Santati Part 21, चंद्रकांता संतति इक्कीसवां भाग
    2 hr 48 min 24 sec

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  • Chandrakanta Santati Part 22, चंद्रकांता संतति बाईसवां भाग
    2 hr 46 min 45 sec

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  • Chandrakanta Santati Part 23, चंद्रकांता संतति तेईसवां भाग
    2 hr 41 min 39 sec

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Language

English

Genre

Fiction

Seasons

1

Author

Sameer Goswami